राजीव आनंद ऐतिहासिक अपराध व्यवस्था के कुर्सी के पीछे गांधी जी की तस्वीर है फिर भी व्यवस्था करती प्रतिहिंसा की तकरीर है व्यवस्था ...
राजीव आनंद
ऐतिहासिक अपराध
व्यवस्था के कुर्सी के पीछे
गांधी जी की तस्वीर है
फिर भी व्यवस्था करती
प्रतिहिंसा की तकरीर है
व्यवस्था उन मूल्यों से
चिढ़ा क्यों करती है
मनुष्य होने की जो
एकमात्र शर्त हुआ करती है
मारा जाता है जब सिपाही
झांकने तक नहीं नेता जाते
मारे जाते है जब नेता
संप्रभुता पर खतरा बता देते
व्यवस्था की ऐशगाह में
खलल उन्हें पसंद नहीं
सत्ता के शीशमहल में
सरगोशियां भी पसंद नहीं
कोई पूछेगा व्यवस्था से
संविधान गर पूर्णत होता लागू
फैले लाल गलियारे में भी
फल रहा होता धान और आलू
व्यवस्था व्यस्त है बांटने में
कोयला खदानें रिश्तेदारों को
बुनियादी सुविधा तक पहुंचा नहीं
देश के लाखों-करोंड़ों आदिवासियों को
असहमति प्रतिरोध के तरीकों पर
लाजमी है जताया जाना
पर क्या न्यायसंगत होगा
प्रतिरोध को खारिज कर देना ?
व्यवस्था पहले आदिवासियों को
विश्व के बड़े लोकतंत्र में होने से बचाए बर्बाद
लोकतंत्र में लोक का तंत्र करे ख्याल
वरन् होगा यह एक ऐतिहासिक अपराध !
राजीव आनंद
मोबाइल 9471765417
संजय कुमार ”शिल्प“
ठूंठ
ठूंठ तो ठूंठ होते हैं, ठूंठ किसी काम के नहीं।
ना प्राणवायु देते हैं, ना छाया
ना फूल, ना फल
फिर भी खड़े रहते ठूंठ,
‘ठूंठ' बनकर, ठूंठ किसी काम के नहीं।
ना पतझड़ में गिरते हैं पत्ते इनसे,
ना बसंत में बहार आती है,
बस कई बार पीठ रगड. खुजा लेते है पशु इनसे
या औरतें उतार लेती हैं छाल
चुल्हा सुलगाने के लिए,
किसी ठूंठ की खोखर में, मिल जाता है घर उल्लू का भी
कोई पपीहा गाता नहीं ठूंठ पर बैठकर,
ठूंठ किसी काम के नहीं।
बस काम आ जाता है ठूंठ
जब किसी की चिता जलानी हो
काट लेते है ठूंठ को लोग
और लिटा देते है ”शव“ पे ”शव“
और पा जाते हैं दोनों गति
मिल जाते हैं एक दूजे में खाक बनकर
जो किसी काम की नहीं
क्योंकि ठूंठ तो ठूंठ होते हैं, ठूंठ किसी काम के नहीं।
मीनाक्षी भालेराव
समुद्र
हजारों ख्वाहिशों के समुद्र
ह्रदय में उफान मारते हैं
कुछ सपने किनारों से
भटक जाते हैं
कुछ को किनारे
मिल जाते हैं !
उमड़ते-घुमड़ते
ख्याल कब स्नेह से
लबालब रहते हैं
कब नफरतों के सैलाब
बहा ले जाते है !
जहां मैं कभी नहीं
जाना चाहती हूँ
उबलते हुए लावे के पास
वहाँ सब कुछ
गल-सड़ जाता है
और उस बदबू से
आत्मा आहत हो उठती है !
गोद
पुरानी बहुत पुरानी दीवारें
जर्जर अवस्था में फिर भी
दरारों को भर कर
रंग कर नया सा
घर बना लिया
घर पत्थर मिट्टी का
घर नया
आराम दायक हो गया
पर क्या रिश्तों में पड़ी
दीवारें हम फिर से
भर सकते हैं
रिश्ते जो अहसास की
साँसों से बंधे हैं
जो माँ की कोख की
खुशबू से बंधे है
वही जिन्दगी भर
दर्द देते रहते हैं तो
पत्थर से बनी दीवारों
पर भरोसा कर सकते है
उन से लिपट कर
सो सकते हैं
माँ की गोद सा
तुम तक
यह अलग बात है के
में तुम तक नहीं पहुंच पाई
पर तुम मेरे ख्वाबों से
दूर भी नहीं हो
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संजीव शर्मा
सत्य
रास्ता फिर उसी पत्थर में सिमट आया है
जिसने ये रास्ता बनाया है
तंग गलियों में घुटी जाती है बसंती हवा
हर कोई हवा ने सताया है
बन्द अलमारियों में सील गई सत्य की बू
वक्त ने हर सफा मिटाया है
आस्मां चीरकर उस तरफ भी पहुंचें सदा़
धूल ने गिर नया बनाया है
चन्द टुकड़ों ने कल सड़क पर बनाये घर
आज उन घरों का सफाया है
कल उठे गैर की बांहों का सहारा लेकर
आज उस गै़र को रुलाया है
बन्द कलियां भी कभी फटेंगी कज़ा बनके
जिन्हें दुनियां ने अब सताया है ।
खण्डहर
खण्डहरों देखों
कितने लोग बेघर
हैं तपस्यालीन
और तुम ठाठ से
सुनसान घेरे
खड़े हो मातम मनाते
बीती यादों के सफे़
फिर से पलटते
वो जिन्हें हम
भूल जाना चाहते हैं
तुम वही नास़ूर बनकर
रास्ते में
आ खड़े होते हो अक्सर
खण्डहरों
क्यों न तुमको तोड़ दूं
और कर समतल जमीं
मैं बनाऊं घर
कि बेघर को मिले घर
और दीनों का
हो हितसाधन
हो संतोष तुमको भी
कि टुकड़ों से
हैं आबाद सूने पथ
नये परिवेश में
नये आवेग से
चले बासन्ती हवा
नयी किलकारियां
नयी आशाओं का
आलिंगन कर
नये इतिहास को रच दें
नये हरफों से
नये किस्सों को
मिले एक नव उजाला भी ।
मनोवेदना
अब नहीं इस दिल में बाकी
कोई भी उम्मीद शै
जो मेरे सपनों की चिन्ता
जो मेरे देखे की पीड़ा
अपने कोमल नर्म सुरों में
अपने मन की आशाओं में
घेर सहेज हृदय बसा ले
अब नहीं कोई जो मेरे
इन खिलौनों को
टूटने से बचा ले
या कि टूटे हुए टुकड़े उठाकर
सहेजे घर बना ले
अब नहीं बाकी रहा
इन्साफ भी कि मैं
अधूरी आह अधूरी चाह लेकर
मांग लूं अपने ठिकाने
जो करूण आवाज से
न्याय के पट झकझोर डाले
अब तो इस दिल के वीराने
हमसे और संभाले नहीं जाते
हम बने मिटटी के पुतले
हो गए टुकड़ों के बन्धन
टूट-टूटकर भी न रुके
खून को पानी समझकर
नींद आंखों की उड़ाकर भी
हवा के साथ उड़ते गए हम
दूर जहां हम हम न रहे ।
रामनगर शाहदरा
दिल्ली
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जय प्रकाश भाटिया
काँच के खिलौने
हम काँच के खिलौने नहीं हैं, जो गिरते ही टूट जायेंगें ,
जोर से चट्खेगें और टुकड़े टुकड़े बिखर जायेंगें,
और फिर कभी जुड़ न पायेंगें ...नहीं,
हम तो दोस्त हैं मेरे यार, दोस्त..
पहले एक दूसरे की नज़रों से गिरेंगें,
धीरे से फिर बीच में एक दरार आएगी,
जो किसी दूसरे को नज़र नहीं आएगी,
यारों की महफ़िल में हम इसे छिपायेंगें,
थोडा सा एक दूसरे को देख कर बस मुस्करायेगें,
पर दिल ही दिल कडवाहट अपना रंग दिखाएगी,
हमारी दोस्ती सिर्फ औपचारिकता निभाएगी,
बस फिर ख़ामोशी का आलम यू हीं चलता रहेगा,
दिल का दामन गिले शिकवों की आग में सुलगता ही रहेगा,
बीती यारी की बातें पीछे छूट जाएँगी, और हमारी दोस्ती टूट जाएगी,
पर हम काँच के खिलौने नहीं हैं....
यह ख़ामोशी का आलम यूं ही चलता रहेगा, चलता रहेगा--
फिर एक दिन तुम्हें एक समाचार मिलेगा ,
तेरा यह दोस्त कई दिनों से है बहुत बीमार है
बिस्तर पर पड़ा है, बहुत ही लाचार है,
तब तुम्हें मेरे कुछ अहसान याद आयेंगें..
और यही पल तुम्हें मेरे पास खींच लायेंगे...
तेरे हाथों में मेरा हाथ होगा और भीगी पलकों से बात होगी,
समय के साथ साथ सब घाव भर जाते हैं,
और बिछड़े यार फिर से जुड़ जाते हैं,
क्योंकि ---
हम काँच के खिलौने नहीं हैं,जो गिरते ही टूट जायेंगें ,
और फिर कभी जुड़ न पायेंगें….
--
काश की दुनिया ऐसी हो
इंसानों की बस्ती हो,
हर आँगन खुशियाँ बसती हो,
हर हृदय विशाल उपकारी हो ,
हर जन प्रभु का आभारी हो ,
यारों की महफ़िल सजती हो,
काश की दुनिया ऐसी हो
सोने की चिड़ियाँ उडती हों ,
दूध दही की नदियाँ बहती हों,
हर तरफ छाई हरियाली हो ,
हर डाल पे कोयल काली हो ,
सुख चैन की बंसी बजती हो,
काश की दुनिया ऐसी हो
हर नेता सच का प्रेरक हो ,
जनता का सच्चा सेवक हो ,
भ्रष्ट का कोई स्थान न हो ,
किसी सभा में उसका मान न हो ,
झूठे की ऐसी तैसी हो ,
काश की दुनिया ऐसी हो
हर आँगन महके खुशबू से,
हर उपवन सदा बहार रहे,
हर चेहरे पे मुस्कान सजे ,
हर दिल में सच्चा प्यार पले,
स्वाभिमान से गर्दन ऊंचीं हो ,
काश की दुनिया ऐसी हो
बच्चों को सच्चा ज्ञान मिले,
हर गुरु जन को सम्मान मिले,
घर मात-पिता का आदर हो,
मन प्रेम प्यार का सागर हो,
स्वर्ग से सुंदर धरती हो ,
काश की दुनिया ऐसी हो
कभी भूखे पेट कोई सोये न,
कोई ममता की मारी रोये ना,
हर और छाई खुशहाली हो,
हर रात यहाँ दीवाली हो,
दीपों की माला जलती हो,
काश की दुनिया ऐसी हो
ईश्वर भक्ति में हर श्वास रहे,
प्रभु में सबका विश्वास रहे,
संस्कार भरा हर जीवन हो,
प्रभु नाम यहाँ संजीवन हो,
दिव्य ज्ञान की ज्योति जलती हो ,
" काश की दुनिया ऐसी हो "
--
बचपन का साथ
बीते हुए बचपन का साथ, ज़िन्दगी भर नहीं छूटता .
बचपन की यादों का सिलसिला, ता उम्र नहीं टूटता ,
अब भी दिल मचल उठता है, उस चाँद को पा लेने को,
बचपन की छुपा छुपी में जो बादलों में जाकर था छिपता।
यही एक ऐसा प्यार का खज़ाना है, जिसे समय भी नहीं लूटता
जीवा के हर मोड़ पर यह साथ रहता है, कभी उम्र से नहीं रूठता
पाठशाला की यादें छूट जाती हैं, विद्यालय में,
हाई स्कूल की यादें भूल जाती हैं, कॉलेज में,
कॉलेज के दिन रह जाते हैं पीछे, यूनिवर्सिटी में
कुछ उलझ जाते है एम् बी ऐ ,कुछ पी एच् डी मे।
पर नहीं भूलता ताउम्र तो बस वह माँ का पहला पाठ ,
एक दूनी दो, दो दूनी चार, तीन दूनी छह ,चार दूनी आठ ,
जवानी के दिन बीत ने लगे प्यार में तकरार में,
कुछ सिनेमा हाल , कुछ माल में, कुछ बाज़ार में,
कुछ नूड्ल्स, कुछ बरगर, कुछ आईस क्रीम खाने में,
कुछ यार दोस्तों की गपशप में कुछ आपसी छेड़खानी में।
पर नहीं भूलती ताउम्र तो बस, स्कूल की आधी छुट्टी,
जब हम चूसते थे लाल पीली गोली, कुछ मीठी कुछ खट्टी .
सच बीते हुए बचपन का साथ, ज़िन्दगी भर नहीं छूटता
बचपन की यादों का सिलसिला, ता उम्र नहीं टूटता ,
--जय प्रकाश भाटिया
J. P. BHATIA (CELL No.98550 22670)
KOHINOOR WOOLLEN MILLS
238, INDUSTRIAL AREA - A
LUDHIANA - PUNJAB - INDIA-141003
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राम नरेश ‘उज्ज्वल'
गजल
कच्चे घर की इंर्ट पुरानी� तू भी जाने मैं भी जानूँ।
कैसे टूटे छप्पर-छानी तू भी जाने मैं भी जानूँ॥
�
मन्दिर में वो रहने वाला� पत्थर की मूरत है केवल,
दुनिया फिर भी है दीवानी तू भी जाने मैं भी जानूँ।
�
अपनी-अपनी किस्मत में जो लिखा-बदा वह सब होता है
बात अंत में सबने मानी तू भी जाने मैं भी जानूँ।
�
रोज रात में रंग-बिरंगे ख्वाबों का मेला सजता है ,
सुबह-सबेरे सब बेमानी तू भी जाने मैं भी जानूँ।
�
लोकतंत्र की ये चादर भी फट-फुट कर बेकार हो गयी ,
मची हुई है खींचा-तानी तू भी जाने मैं भी जानूँ।
�
सत्ता की ऊँची कुर्सी पर कौन हमेशा रह पाया है ,
चार दिनों की है सुलतानी तू भी जाने मैं भी जानूँ।
�
�
�
राम नरेश ‘उज्ज्वल'
उप सम्पादक-‘पैदावार' मासिक
मुंशी खेड़ा,
अमौसी हवाई अड्डा,
लखनऊ-226009
ई-मेल %ujjwal226009@gmail.com
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छाया अग्रवाल
वेदना
प्रण
साझं जब छत पर पहुचीं
ठिठक गर्इ मैं, सिसक गर्इ
घुटन ने सांस उखाड़ दी
एक परिन्दे की,
हांफ रहा था बैठा, जाने कब से
प्रदूषण और तपिश का मारा
सूखा कंठ, नयनों में आशा
कराह रहा था, या पुकार रहा ,
भरा दिल मेरा, उसकी हालत से
सकोरा पानी से भर दिया
और रख दिया मुंडेर पर
राह तकती रही,
प्यास बुझाले तू पानी के सकोरे से
या आसूं भरे मेरे नयनों से,
दिन भर जाने कहां फिरता रहा
सोच कर तड़प रही हूं मैं
तेरे र्दद भरे चहचहाने से,
पीडा़ कम कर पाउं तेरी
शायद, पता नही?
पर तुझे यूं मरने न दूंगी
ये प्रण कर लिया मैंने दिल से़ ...........
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मनोज 'आजिज़'
गहरी याद
खिड़कियों से दस्तक दी
तुम्हारी याद
चूँकि चाँद नज़र में उतर आया
और अपनी रौशनी से
मेरा दिल जीतना चाहता था
पर, ग़लतफ़हमी थी उसे
लाख कोशिशों के बाद भी
हासिल न कर सका कोई जगह
मेरे दिल में
धीरे-धीरे मुंह छिपाकर
मेरी नज़रों से
ओझल होता गया ।
कुछ पल छीन जरुर लिया
ज़ख्मों को कुरेद जरुर दिया
रात और तुम्हारी याद ही
साथ तो थे
एक और साथी दे गया ---
तुम्हारी गहरी याद !
(शायर बहु भाषीय साहित्यसेवी हैं , अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका ''द चैलेन्ज'' के संपादक हैं और अंग्रेजी भाषा-साहित्य के अध्यापक हैं । इनका ७ कविताघज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है । )
पता -- इच्छापुर, ग्वालापाड़ा , पोस्ट- आर. आई टी
जमशेदपुर - १४ , झारखण्ड
फोन- 09973680146
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अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
इधर भी तैनात सैनिक टैंक ...
उधर भी तैनात सैनिक टैंक
बंदूकें ....तोपें
बंदूकें .....तोपें
मिसाइलें ........परमाणु बम
मिसाइलें ...परमाणु बम
इधर भी तेवर तीखे तेज
उधर भी तेवर तीखे तेज ....
इधर जोश मारो मारो
उधर भी जोश मारो मारो
इधर धडकते दिल ..
उधर भी धडकते दिल
आशंका से खौफ से
आशंका से खौफ से
इधर ममता का आँसू भरा
उधर ममता का आँसू भरा ...
आँचल .......
आँचल
इधर सिसकता यौवन ...
उधर भी सिसकता यौवन ....
इधर भी बालसुलभ चंचलता
उधर भी बाल सुलभ चंचलता
इधर शक्ल सूरतों से सभी एक
उधर भी शक्ल सूरतों से सभी एक
इधर भी बहादुर वफादार देशभक्त
मेरा बाप...
मेरा बाप ....मेरे अंदर अभी जिंदा है .....
वोह मुझे बताता है ....सिखाता है ....
क्या उचित है और क्या अनुचित ....?
वोह मुझे नियंत्रित करता है ......
मै उसके सिद्धांतों का पालन करता हूँ .....
उसके आदर्शो पर ..चलता हूँ
मेरे बाप का दुश्मन मेरा दुश्मन है ...
और ...उसका दोस्त ...मेरा दोस्त ...
मैं बाप के बनाये मकान में रहता हूँ ..
उसके खेतों में ...काम कारता हूँ ...
उसके बताये देवताओं को पूजता हूँ
उसके सिखाये त्यौहार मनाता हूँ
मेरे बाप ने मुझे बताया था ...कि
" अपन हिन्दू हैं ........"
यह भी बताया था कि ...कि ..
हिन्दू क्या होता है ....उसे ...
क्या करना चाहिये ...और क्या नहीं ..
उसने बहुत कुछ सिखाया था ...
न सीखने पर ...
या आज्ञा के उन्लनघन करने पर ..
बेरहमी से ..मारा भी था ..
आज मैं भी वही सब करता हूँ
अपनी संतानों के साथ ...
इसीलिये ...तो कहता हूँ ..
कि ..मेरा बाप मेरे अंदर ..
पूरी तरह से जिन्दा है ...
वोह मेरी आँखों से देखता है ...
मेरे कानों से सुनता है .....
मेरे दिमाग से सोंचता है
पर ..फिर भी सबपर नियंत्रण उसी का है ....
और मैं इस नियंत्रण को ...........
सहर्ष स्वीकार करता हूँ .....
मेरा बाप महान था ....
तहे दिल से यह मानता हूँ ...
मैं उसके आदर्शो का ...शिक्षाओं का ..
पालन करता हूँ ..
और अपनी संतानों को ...
उचित ..उनुचित का भेद बताता हूँ ...
उन्हें बताता हूँ क्या करना है ...
और क्या नहीं ....
यह बताना मेरा कर्त्तव्य भी है ..
और ...हक़ भी .....
क्योंकि मैं भी अपनी संतानों में ......
सदा ...सदा ...जिंदा रहूँगा ...
उन्हें नियंत्रित करूँगा ...
उन्हें बताऊंगा ..उचित उनुचित का भेद ...
उन्हें अच्छा इन्सान बनाऊंगा ...
उन्हें तमाम बुराइयों से बचाऊंगा ...
तब मेरी संताने भी कहेंगी ....
हाँ हमारा बाप हमारे अंदर" अभीतक"
जिंदा है. .......जिंदा है ......
और यह सिलसिला चलेगा ..क़यामत तक……
हाँ हमारे पूर्वज सच कहते थे ...
आत्मा ..कभी नहीं मरती केवल .....
चोले बदल लिया करती है ...
जैसे हम कपड़े बदलते हैं ...
और इसी प्रकार हमारे पूर्वज .....
ऋषि मुनि ,महान आत्माएँ ..
राम ....कृष्ण ..जीसिस ...मोहम्मद ..
सभी हम सब में जिंदा हैं ...
और हमें उपदेश देते रहतें हैं
बुराइयों से ..मोड़ते रहते हैं ...
काश ये समझने का ..दिलोदिमाग ...
हमारे पास होता ....
काश ऐसा होता ......
काश ऐसा होता ...
तो धरती पर स्वर्ग होता
(समाप्त )
नोट : १ ) कविता जीन्स सिधांत पर विश्वास पर आधारित है जिसके अनुसार
गुण दोष संतानों में पीदियों से चलती रहती है
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नितेश जैन
ये यादें ..........
बहुत ही खूबसूरत सोच हैं ये यादें
बीते लम्हों का एहसास दिलाती हैं ये यादें
गुजरे कल को फिर से जीना सिखाती हैं ये यादें
दोस्ती को और भी गहरा बनाती हैं ये यादें
जज़्बातों को बयान करती हैं ये यादें
तनहाईयो में अकसर साथ रहती हैं ये यादें
सपनों को सच कर जाती हैं ये यादें
अपनों को पास लाती हैं ये यादें
किताबों के पन्नों सी होती है ये यादें
कभी कमजोर तो कभी कठोर बना देती हैं ये यादें
चेहरे पे मुस्कुराहट लाती हैं ये यादें
आंसुओं को पनाह देती हैं ये यादें
गम की एक हल्की सी आहट हैं ये यादें
दिल की गहराईयों में बसती हैं ये यादें
आखिरी सांस तक साथ रहती हैं ये यादें
फूलों सी कोमल होती हैं ये यादें
कहानियों की खुली किताब हैं ये यादें
दूरियों को कम करती हैं ये यादें
हवाओं सा महका देती हैं ये यादें
झरनों सा बहा देती हैं ये यादें
बहुत ही मीठा एहसास हैं ये यादें
हमारी अपनी दोस्त होती हैं ये यादें ..........
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सीताराम पटेल
ऊंॅ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्।
आत्मा शक्ति
1-
कर्म का लेख
अपने हाथ लिख
उपर कोई
नहीं है बैठा
कठिन श्रम कर
2-
आत्मा की शक्ति
सबसे बड़ी शक्ति
जागृत कर
मेहनत से
हल फावड़ा धर
3-
बंजर भूमि
का सीना फाड़ डाल
धर कुदाल
मार हथौड़ा
भाग्य बदल भाल
4-
नन्हीं चींटियां
उठाती भार दूना
तो क्या मानव
उससे कम
चाहे उठा ले धरा
5-
आतंकवाद
असम का आतंक
उठा बंदूक
अहं को मार
शांति का पाठ पढ़ा
6-
युवा की शक्ति
भारत का गौरव
मत बनाना
इसे रौरव
खुशहाल जिन्दगी
7-
नंदकुमार
यशोदा का लाडला
किसान पुत्र
भूमि पर सोया
जरा के हाथों हत्या
8-
तांडव कर
एक और तांडव
समता सिखा
विश्व शांति ला
उमेश नाच नचा
9-
दीदार कर
आस्तीन में है सांप
हार बना ले
दांत तोड़ दे
पांवों से दे कुचल
10-
स्वर्ग अंबर
उतार धरा पर
मस्तिष्क शक्ति
मानस शक्ति
शक्तियां योग कर
11-
तांडव मचा
पिनाकी नाच नचा
नक्सलवाद
नस्ल मिटा दे
धूम मचा दे धूम
12-
सती सावित्री
कर्क से लड़ रही
प्रेमिका लाई
पाटलावती
सूर्यमुखी के फूल
13-
मृगनयनी
तुम आंख मिलाई
मुस्कुरा चली
पीछे बुलाई
तुम गोली चलाई
14-
नारी के हाथ
चूल्हा नहीं बंदूक
अनोखी शक्ति
अद्भुत लीला
कायर मत बन
15-
भ्रष्ट आचार
सिर रहा है नाच
नौकरशाही
सब कुराही
शासन प्रशासन
16-
अंतस् की अग्नि
जला दे धरा सारा
तमस हर
मिटा अज्ञान
आत्म सुधार कर
17-
सोन चिरई
भारत को बनाएं
एकता लाएं
प्रेम बढ़ाएं
जगद्गुरू कहाएं
18ः-
असंतोष कर
मत जलन कर
असीम बल
पहचान तू
कर्मयोगी बन जा
19-
शिखर चढ़
प्रौद्यागिक उन्नति
गांव की ओर
प्रकृति प्रेम
सर्वनाश न कर
20-
असफलता
मेहनत की कमी
सफलताएं
श्रम लगन
असफल सफल
21-
सपना देख
सपना मत मार
सपना घना
अस्तित्व वाद
सौन्दर्य विश्व बना
22-
क्रूर नियति
हाथों हम खिलौना
क्या रच रही
किसे है पता
पल पल जी खुशी
23-
स्वतंत्र प्रेम
मजदूर किसान
आम आदमी
हाशिये जन
एक आजादी और
24-
तुलसीदास
युग का प्रवर्तक
काम मोहित
अनन्य प्रेमी
रामचरित लिखा
25-
राम का राज्य
तुलसी का सपना
बहुत अच्छा
एकता प्रेम
प्रकृति बैर मिटा
26-
घर मुखिया
हुआ सात आकार
दें पूरा प्यार
जी का आधार
विधाता का विधान
27-
मीठे वचन
हरदम तू बोल
अबोला है क्यों
पड़ोसी प्रेम
अनमोल जीवन
28-
मानव मीत
मन का जीते जीत
नैराश्य पन
एकाकीपन
मन का हारे हार
29-
भोर का तारा
बन उगता सूर्य
जलता रह
जलाता रह
सबका तम हर
susheel yadav ji vyang ,rajeev aanand,sanjaya kumar shilp,meenakshi bhalerav sanjeev sharma,evm jay praksh bhatiya ji ki kavitae padhi achchi hai ,loktantra se sarokar rkhne bali rachnaye bhi prakshit kare achcha hoga
जवाब देंहटाएंSabhi kavitayen achchi hain lekhkon ko pratishthit rachanakar men prakashit hone ke liye badhaiee evm shubhkamanaye
जवाब देंहटाएंdhanyvaad kmlesh ji utsah bdhane ke liye
जवाब देंहटाएं