प्रियम अंकित हमारे समय की आहट कहानी ने आज जो वैशिष्ट्य अर्जित किया है, वह विवादरहित नहीं है। कहाने के इस वैशिष्ट्य का सकारात्मक पक्ष ...
प्रियम अंकित
हमारे समय की आहट
कहानी ने आज जो वैशिष्ट्य अर्जित किया है, वह विवादरहित नहीं है। कहाने के इस वैशिष्ट्य का सकारात्मक पक्ष यह है कि एक विधा के रूप में कहानी की गति और स्थिति पर नये सिरे से बहस की जा सकती है। हर विधा में रूप-शिल्प संबंधी वैशिष्ट्य लगातार बदलता रहता है। देश-कला संबंधी बदलाव, राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में होने वाले परिवर्तन विधाओं में अंतर्निहित गव्वरता को गहराई से प्रभावित करते हैं। हर नए वैशिष्ट्य को अजित करने के लिए कोई विधा हजार-पाँच सो साल लंबी विकास यात्रा से गुजरे ही, यह कोई ज़रूरी नहीं है। कभी-कभी एक विशेष कालखण्ड-भले ही वह किसी देश के राजनीतिक और सामाजिक भूगोल में भयानक उलटफेर लाने वाला हो मानवता को त्रासद और अमानवीय अत्याचारों के गर्व में ढकेलने का गुनहगार हजार सालों के काल-विस्तार में भी न मिलने हो। बीसवीं शताब्दी ऐसे तमाम कालखण्डों की साक्षी रही है। विश्वयुद्धों के दौरान और उसके उपरान्त रचे गए कलात्मक प्रारूपों ने उस दौ की कला को नया रचनात्मक मोड़ दिया था। ऐसी ही अहमियत रखते हैं। विज्ञान, दर्शन, इतिहास, समाज और राजनीति के क्षेत्र में जितनी उथल-पुथल (आज़ादी के बाद) इस दौर में हुई, वैसी पहले देखने को नहीं मिलती। इस उथल-पुथल के झटके कला और संस्कृति में शिद्दत से महसूस किए गए। परिणामतः सांस्कृतिक और कलात्मक हल्कों में तोड़-फोड़ की विध्वंसक और रचनात्मक दोनों ही प्रवृत्तियों ने अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। कला और साहित्य में ‘आवा-गाई' वृत्ति की स्वस्थ्य परंपरा गुज़री सदी में काफी मुखर रही है। कहानी अपेक्षाकृत नयी विधा है, लेकिन साहित्य की वर्षों पुरानी परंपरा ने उसे समृद्ध बनाया है। बमुश्किल सौ सालों में कहानी ने कविता और शताब्दियों पुरानी अन्य विधाओं के समकक्ष अपनी हैसियत बनाई है।
गध की प्रभावी विधा के रूप में अपना महत्व अर्जित करते हुए कहानी लगातार समय और समाज के ज्वलंत मुद्दों से जूझती रही है। विचार और संवदेना के क्षेत्र में जैसा अभूतपूर्व संकट पिछले बीस वर्षों में उत्पन्न हुआ है उसे कहानी ने पूरी उत्कटता में भोगा है। यह संकट सामाजिक अथार्थ में आए बदलाव की उपज है। इसे समझने के प्रमुख सूत्र हैं- सूचना प्रौद्योगिकी का अदम्य विस्तार तथा उपभोक्ता समाज के भीतर पनपती नवसाम्रज़्यवादी और फ�ासीवादी संस्कृति।
बीती शताब्दी के अंतिम दशक में नवउपनिवेशवादी और मूलतत्ववादी शक्तियों ने लोकतंत्र का लबादा ओढ़ कर पूँजीवाद के एक नए रूप को तीसरी दुनिया के देशों पर, एक धु्रवीय विश्व-व्यवस्था का राग अलापते हुए, लाद दिया था। पूँजीवाद के इस नए चेहरे को ‘लेट कैपितलिज़्म' की संज्ञा दी गयी। ‘लेट कैपिटलिज़्म' में उत्पादित साहित्य में ‘पैरोडी', मिमिक्री' और ‘पैश्टीच' जैसी उत्तर-आधुनिक विधायें अस्तित्व में आई। लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में इन विधाओं की अभिव्यक्ति पश्चिमी साहित्य के अनुकरण के फलस्वरूप ही हुई है। अतः ये विधाऐं ज़्यादा लोकप्रिय नहीं हुई।
आज अस्तिमायें जिस रूप में प्रकट हो रही हैं, जिस निरंकुशता के साथ उन्हें किसी राष्ट्र या सत्ता से जोड़ा जा रहा है, वह हमारी अपनी परंपरा की ‘वसुध्ौव कुटुम्बकम्' और ‘आ नो भ्रदाः क्रतवो यन्तु विश्वतः' जैसी धारणाओं में निहित समावेशी दृष्टि पर कुठाराघात करता है। यह दर्शाता है कि भूमण्डलीकरण, के दौर में जहाँ गरीबी, अन्याय, अनाचार और शोषण ‘विश्वग्राम' की सम्मानित नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं, वहीं हमारी अपनी संस्कृति अस्मिता को गत है। अतः अगर अस्मिता से निष्कासित है। संस्कृति छद्यों को रचना ज़रूरी हो जाता है। आज संसार के सत्ताधीश इस छद्म-निर्माण के उद्योग में निर्द्वंद्व होकर लिप्त हैं। सारी चुनौतियों को वे विचारधारा का अंत' और ‘इतिहास का अंत' के शोर में डुबो चुके हैं। सांस्कृति विश्व के भूगोल के भीतर बँटवारे का छद्म रचने वाले झूठे आक्षांश और देशांतर जन्म ले चुके हैं। इन्होंने अस्मिताओं के जिस यथार्थ को रचा है उसमें प्रत्येक का ‘(अ)हम', दूसरे के ‘(अ)हम' से भिन्न और श्रेष्ठ है। हर अस्मिता (और राष्ट्र) को श्रेष्ठता के दम्भ में डुबो देने में अनुदारवादी तत्व का जखीरा तो सक्रिय है ही, साथ में वे बुद्धिजीवी भी पीछे नहीं हैं जो अपने को ‘उदारवादी' कहते हैं। आज ‘संघर्ष', ‘राजनीति', ‘इतिहास', ‘संस्कृति' आदि को महज़ ‘पाठ' बना डालना इन ‘उदारवादियों' का शगल बन चुका है। मुक्तिकामी आंदोलनों के वैचारिक आधारों को वौद्धिक ऊर्जा से वंचित कर, जन संघर्षें की ज़मीनी सच्चाईयों के बजाये, प्रतिरोधी सैद्धांतिकी ‘पाठीयता' और भाषायी विशिष्टता' हमारे बौद्धिकों के लिये अधिक काम्य होती जा रही है। परिणामतः विभिन्न अस्मितायें और राष्ट्र अपने-अपने संकीर्ण दायरों में कैद होते जा रहे हैं। इन दायरों के सीमांतों पर विसंवाद की झूठी, किन्तु मजबूत दीवारें खड़ी है। ‘सभ्यताओं का संघर्ष' के नाम पर अफगानिस्तान और ईराक की तबाही, तथा हिन्दुत्व के नाम पर बाबरी मस्जिद का विध्वंस और गुजरात नरसंहार सत्ताधीशों द्वारा प्रचारित सांस्कृतिक छद्म के विश्वव्यापी प्रसार के गवाह हैं।
भ्रांति और छद्म के इस विश्वव्यापी प्रसार ने सारी दुनिया के कलाकारों को उद्वेलित किया है। उनका कलाकर्म हमारे समय में सच बनते झूठ और झूठ बनते सच की जटिल परिस्थित को पूरी शिद्दत से उद्घाटित करता है। झूठ और सच के बहुआयामी उलझावकी पड़ताल ने उन्हें नई राहों का अन्वेषण करने के लिए बाध्य किया है। ‘जातुई यथार्थवाद' की जो शैली माखेज़ और गंटर ग्रास की रचनाओं में मिलती है, वह इसका उदाहरण है। आज कलाकार की संवेदनाओं को कुरेदने वाली सच्चाई यही है कि झूठ के न सिर्फ� हाथ हैं जो सच को निर्मित और नियंत्रित कर रहे हैं, बल्कि उसकी चमचमाती, बेशर्म और बेरहम आँखें भी हैं जो अपनी सफलता पर इतरा रही हैं। सत्ता के मठों की निगेहबानी आज इन्हीं आँखों के सुपुर्द है। व्यवस्था द्वारा रचे गए भ्रमों के घटाटोप से बाहर निकलने को आतुर मानवीय संवेदनाओं का जीवंत संघर्ष ही आज दुनिया के साहित्य को प्रेरणा�ोत है। अतः विश्व साहित्य की उत्कृष्ट कृतिया प्रतिरोधी मूल्यों का संसार रचने को कटिबद्ध हैं।
निरंतर शातिर होती व्यवस्था के इस नए रूप और इसके बरक्स उपजती प्रतिरोधी चेतना के बीच हिन्दी का कदम-कदम पर चौराहों से मिलता रहा। अनगिनता राहें उसे पाशोपेश में डालती रही। अब यह ज़रूरी हो जाता है कि साहित्य के प्रति परंपरागत धारणा पर पुनर्विचार करते हुए आत्मसंघर्ष के कठिन रास्ते पर बढ़ते हुए रचनाकर्म के प्रति एक ठोस और व्यावहारिक समझदारी विकसित की जाए। यह समझदारी लेखक को अभिव्यक्ति के विद्रोही तेवर की तरफ ले गयी। अभिव्यक्ति के इस विद्रोही तेर ने साहित्य में एक नए मोड़ को संभव बनाया, जिसमें पुराने आयाम लड़खड़ा कर गिर गए और नए अस्तित्व में आए। अखिलेश की ‘चिट्ठी' और ‘जलडमरू मध्य', तथा उदय प्रकाश की ‘तिरिछ' जैसी रचनाओं में हिन्दी कहानी का यह नया मोड़ साफ-साफ परिलक्षित होता है। शिल्प के स्तर पर नए अन्वेषणों की शुरूआत होती है, तोड़-फोड़ करके कुछ नया करने की आवां-गाई वृत्ति, जो अपनी रचनात्मक ऊर्जा को बदली हुई सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों से प्राप्त करती है, का आग़ाज़ होता है। भयानक समय की ‘भ्यानकता', और उससे लोहा लेते मानवीय स्वभाव की जिजीविषा आज युवा पीढ़ी की कहानियों में नए संदर्भों और नए आयामों को उद्घाटित कर रही है। यह कहानियों टूटते-बिखरते संबंधों और मूल्यों के बीच मानवीय अस्तित्व को गरिमा को संवारती हैं।
युवा पीढ़ी के नवोन्मेष को धारण करने वाले प्रमुख कहानीकारों में नीलाक्षी सिंह, मोहम्मद आरिफ, कुणाल सिंह, चंदन पाण्डेय, शिल्पी, सोनाली सिंह, मनोज कुमार पाण्डेय, दीपक श्रीवास्तव, राकेश मिश्र, राजीव कुमार, तरूण भटनाकर, गीत चुतर्वेदी, वन्दना राग, अनिल यादव, प्रभात रंजन, शर्मिला बोहरा जालान, कविता, प्रत्यक्षा, पंखुरी सिन्हा, उमाशंकर चौधरी, विमल चन्द्र पाण्डेय, मिथिलेश प्रियदर्शी, रवीन्द्र आरोही, अनुराग शुक्ला, सत्यकेतु, रवि बुले आदि का नाम लिया जा सकता है। पंकज मित्र, अल्पना मिश्र, मनीषा कुलश्रेष्ठ आदि कथाकारों का इस पीढ़ी में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
पंकज मित्र की कहानियाँ नए बाज़ार तंत्र का आघात झेलती मानवीय संवेदनाओं की कशमकश को बयां करती हैं। ‘क्विज़ मास्टर' भूमण्डलीकरण के ओगोश में गुम होते कस्बों के यथार्थ को व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है। पंकज की कहानियाँ पारंपरिक मूल्यों से निरावृत होते व्यक्ति के अकेलेपन को गहराई से व्यंजित करती हैं।
अल्पना मिश्र की कहानियाँ समाज में व्याप्त विरूपताओं और छद्मों से लोहा लेती स्त्री के अंतरंग संसार का साक्षात्कार करती हैं। इस अर्थ में वे व्यापक सरोकारों वाली कहानियाँ हैं। ‘मुक्ति-प्रसंग', ‘छावनी में बेघर' आदि कहानियाँ स्त्री-संघर्ष का ऐसा बिम्ब रचती हैं, जो पुरुष सत्ता और राष्ट्र के चमचमाते चेहरों को दागदार करता है।
मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियाँ जीवन की बहुधर्मिता को बचाए रखने की जद्दोजद्ध से उपजी संवेदनाओं को स्वर देती हैं। ‘कठपुलियाँ', ‘स्वांग' और ‘कुरजाँ' जैसी कहानियाँ पाठकों को समाज के भीतर उस देश तक ले जाती हैं जिसे जाबूझकर भुला देने की मुहिम सत्ता के गलियारों में छेड़ी जा चुकी है।
मो. आरिफ की कहानियाँ परंपरा और प्रयोग धर्मिता के दुर्लभ संयोग को संभव बनाती हैं। अभी ‘तद्भव' में प्रकाशित उनकी कहानी चोर-सिपाही' संवेदनशील विषयवस्तु को पूरे साहस के साथ जीवन के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में परखती है। ‘लू', मौसम', ‘दांपत्य' आदि कहानियाँ तो पाठकों की स्मृति में स्थायी जगह बना चुकी हैं।
कुणाल सिंह की कहानियाँ फैन्टेसी शैली का विस्तार करती हैं। वे यथार्थ की बहुस्तरीयता को नया आयाम देती हैं। ‘इति गोंगेश पाल वृत्तांत', ‘सवातन बाबू का दांपत्य' आदि कहानियाँ यथार्थ अनुभव के भीतर की ही संवेदनाओं द्वारा उत्सर्जित और प्रक्षेपित कलाबोध को अभिव्यक्त करती हैं।
राकेश मिश्र की कहानियों में बिखरते मूल्यों के बीच टूटते मनुष्य की कुण्ठाओं का चित्रण है। वे तकनीक के बोझ तले कसमसाते इंसानी जीवन की विडम्बनाओं उजागर करती हैं। राकेश मिश्र की ज़्यादातर कहानियों में एक निश्चित पैटर्न है। इस तयशुदा पैटर्न के चलते राकेश की कहानियाँ एक रसता का शिकार बन जाती हैं।
चन्दन पाण्डेय जिन घटनाओं से कहानियाँ बुनते हैं, सामान्य तक बुद्धि उन्हें झुठलाती है। मगर अविश्वसनीय लगने वाली यह घटनायें जब कहानी बनती हैं तो हमारे समय के तमाम झूठों का पर्दाफाश, करते हुए सभ्यता के सच को उद्घाटित करती हैं। ‘परिदगी है कि नाकामयाब है', ‘रेखचित्र में धोखे की भूमिका', ‘भूलना', ‘नकार', ‘मित्र की उदासी' आदि कहानियाँ अपने कलात्मक वैशिष्ट्य और अंतवस्तु के चलते याद की जाएंगी।
तरूण भटनागर की कहानियाँ शिल्प और कथ्य के जैविक सायुज्य को बड़ी संजीदगी से अभिव्यक्त करती हैं। शिल्प और अंतर्वस्तु की सहजता उन्हें अपने समालीनों से अलग करती है। उनके चरित्र अनोखे हैं, भाषा के भीतर कोई कृत्रिम तोड़फोड़ नीं है। ‘हैलियाफोबिक', ‘गुलमेद्धी की झाड़ियाँ, ‘फोटो का सच' जैसी कहानियाँ वर्तमान की विडंबनाओं पर सशक्त तज कसती हैं।
गीत चतुर्वेदी की कहानियाँ हमारे समाज के हाशिए पर पड़ी संवेदनाओं, उत्कण्ठाओं, आशाओं और दुराशाओं को गहन अंतर्द्वष्टि के साथ रचनात्मक लहाज़े में ढालते हैं। सौ किलो का साँप', ‘सावंत आण्टी की लड़कियाँ, ‘साहब हैं रंगरेज' जैसी कहानियाँ व्यष्टि के बहाने समष्टि का भावात्मक चरित्र उजागर करती हैं।
प्रभात रंजन की कहानियों के केन्द्र में वह युवा समुदाय है जो गाँवों और कस्बों से रोजगार की तलाश में महानगरों का युवाओं की पीड़ा और त्रास, उनकी आशा और उत्कण्ठा इन कहानियों में विश्वसनीय अभिव्यक्ति प्राप्त करती है। ‘बदनाम बस्ती', ‘जानकी पुल', ‘ईजी मनी', ‘डिप्टी साहब' आदि कहानियों में शिल्प की सुगढ़ता और परिपक्वता प्रशंसनीय है।
सत्यकेतु की कहानियाँ वर्तमान संसार की तल्ख़्ा सच्चाईयों का साक्षात्कार कराती हैं। ‘दावत', ‘तृष्टि', ‘फाँक' आदि कहानियों त्रासद नियति को झेलते, अमानवीय परिस्पितियों से संघर्ष करते व्यक्ति चरित्रों के हौसलों के चलते याद की जाएँगी।
वंदना राग की कहानियाँ ‘शहादत और अतिक्रमण', ‘यूटो पियो' आदि बड़ी बेबाकी और साहस क साथ मनुष्यता का प्रतिसंसार रचती हैं तथा बर्चस्ववादी सांसारिकता के अमानुषिक, पर्यावरण को चुनौती देती हैं। शर्मिला बोहरा जालान की कहानियाँ ‘बूढ़ा चाँद, ‘माल मून' आदि मानवीय संसार की विविधता और व्यापकता को नए अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं। कविता, प्रत्यक्षा और पंखुरी सिन्हा की कहानियाँ वर्चस्व के पुरुषवादी संस्करण के खिलाफ� स्त्री-संसार का प्रतिरोधी मानचित्र रचती हैं।
इधर कुछ युवा कवियों ने भी अच्छी कहानियाँ लिखी हैं। इनमें कुमार अंबुज, संजय कुंदन, आदि प्रमुख हैं। देवी प्रसाद मिश्र की लंबी कहानियाँ पिता के मामा के यहाँ' और ‘हेलमेट तथा अन्य कहानियाँ' इधर काफ�ी चर्चित रहीं। यह कहानियाँ अपने मूल्यांकन के लिए नए निकष की माँग करती हैं।
कुछ युवा लेखकों ने थोड़ी सी कहानियाँ लिखकर प्रतिष्ठा अर्जित की हैं। इनमें उमाशंकर चौधरी का नाम उल्लेखनीय है। ‘होम स्वीट होम', ‘दछा यानि मदर इण्डिया का सुनील का सुनील दत्त' मानवीय संसार की विसंगतियों और विद्रूपताओं को अनूठी भाषा में उद्घाटित करती हैं। मिथिलेश प्रियदर्शी की ‘लोहे का बक्सा और संदूक', अनुराग शुक्ला की ‘लव स्टोरी वाया फ्लैशबैक', रवीन्द्र आरोही की ‘जादूः एक हँसी, एक हीरोइन', शिल्पी की ‘पापा, तुम्हारे भाई', राजीव कुमार की ‘कॉकरोच', सोनाली सिंह की ‘सपने', अनिल यादव की ‘आर.जे. साहब का रेडियो' बड़ी संजीदगी से जड़ हो चुकी संवेदनाओं को झकझोरती हैं। रवि बुले की कहानी ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने' का कौतूहल और रोमांच भारतीय राजनीति के क्रूर समीकरणों की पोल खोलता चलता है। युवा पीढ़ी ने कहानी की दुनिया में जैसा हस्तक्षेप किया है, उसने बदलते समय के बहुवर्णी रचाव की नई संवेदना और नई अंतदृष्टि को कलात्मक फलक पर लाने की कोशिश की है।
---
1।ए हण्टले हाऊस, आगरा कॉलेज कैम्पस,
एम.जी. रोड, आगरा - 282002 (उ.प्र.)
मो. 9359976161
आलेख का प्रथम अर्धांश ..किसी अंग्रेज़ी आलोचनात्मक आलेख का अनुवाद सा लगता है...
जवाब देंहटाएं--- कहानी सिर्फ १०० वर्ष की गाथा नहीं है अपितु उसकी जड़ें काफी पुराकाल से हैं जो वैदिक -पौराणिक -पूरा गाथाओं में अन्तर्निहित हैं...निश्चय ही प्रत्येक विधा को संस्कृति बनाने हेतु एक लंबे कालखंड की आवश्यकता होती है......