मृत्यु का वरण वो मृत्यु से डरते थे, वैसे तो यह डर सभी के मन में होता है, लेकिन एक वैरागी के मुख से यह बात सुन कर शायद कुछ अजीब लगे। अमृत्...
मृत्यु का वरण
वो मृत्यु से डरते थे, वैसे तो यह डर सभी के मन में होता है, लेकिन एक वैरागी के मुख से यह बात सुन कर शायद कुछ अजीब लगे।
अमृत्यानंद जी ने 10 वर्ष की आयु में ही वैराग्य ले लिया था। और पिछले 40 वर्षों से ज्ञान-ध्यान में लिप्त थे। आज 50 वर्ष की आयु होने के पश्चात् और इतने वर्षों की ज्ञान चर्चा के पश्चात भी उन्हें मृत्यु से डर! अति आश्चर्य है। आज आश्रम में यही चर्चा हो रही है।
अमृत्यानंद जी के वचन ऐसे होते कि हर कोई मन्त्र-मुग्ध हो जाता, उनकी वाणी में जैसे सरस्वती का निवास था। उनके मुख-मंडल की आभा किसी सूर्य की भांति थी और उनकी आँखों में सागर के सामान शांति थी। वो जब प्रवचन आरम्भ करते तो झरने भी शांत हो जाते, पक्षी कलरव छोड़ कर उन्हें सुनना आरम्भ कर लेते। कृष्ण की बांसुरी की ध्वनि के समान उनकी वाणी को सुनने के लिए हर कोई लालायित था।
अमृत्यानंद जी ने ज्योतिष के द्वारा यह जान लिया था कि उनकी मृत्यु इसी माह के भीतर हो जायेगी। वो भयभीत से हो गए, वो स्वयं नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें भय क्यों हो रहा है। वो शरीर त्यागना नहीं चाह रहे थे। एक वैरागी को शरीर से प्रेम हो गया था। वो दर्पण में स्वयं को निहार कर सोच रहे थे कि इस आयु में भी मेरा मुख इतना सुन्दर है, मेरी वाणी इतनी मधुर है, मेरा शरीर सुडौल है, मुझे कई वेदों का-शास्त्रों का ज्ञान है.... इन सबको मैंने बहुत ही कठिनाइयों से संचय किया है... मृत्यु के पश्चात यह सब छूट जाएगा। केवल 50 वर्ष की आयु में क्या मैं जीवन त्याग दूंगा? ईश्वर ने ऐसा क्यों किया?
विचार करते हुए वो अपने गुरुजी की कुटिया की ओर प्रस्थान कर गए।
अमृत्यानंद के गुरु ऋषि सर्वानंद बहुत ही उच्च श्रेणी के साधक थे। वो ज्ञान का अथाह सागर थे। अमृत्यानंद ने उनके समक्ष पहुँच कर अपनी बात रखी। सर्वानंद जी यह सुन कर बहुत दुखी हुए कि उनका सबसे पुराना शिष्य इस तरह भयभीत है। उन्होंने सांत्वना देते हुए कहा कि, “चिन्ता मत करो, मैं मृत्यु से निपट लूंगा।”
उसी रात्रि को ऋषि सर्वानंद ने यज्ञ द्वारा मृत्यु देवता का आव्हान किया और उन्हें आदेश दिया कि जब तक अमृत्यानंद ना चाहे, उनके पास मत जाना। मृत्यु देवता ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि “होनी को कोई नहीं टाल सकता, स्वयं ईश्वर भी नहीं। आप कृपा करके यह आदेश ना दें।”
लेकिन ऋषि सर्वानंद शिष्य मोह में आ गए थे, सब कुछ जानते हुए भी सर्वानंद जी ने जिद पकड़ ली। मृत्यु देवता ने तब कहा कि यह मेरे वश में नहीं, आप स्वयं जानते हैं कि मैं आदेश का पालन करने को विवश हूँ, आप विधि का विधान बदलना चाहते हैं तो विधि अर्थात ईश्वर से ही कहें।
ऋषि सर्वानंद को क्रोध आ गया, क्रोध वैसे तो साधू की प्रकृति नहीं, लेकिन चूँकि विषय उनके अभिमान का था, उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को वचन दे रखा था। क्रोध के फलीभूत उन्होंने मृत्यु देवता को श्राप दे दिया कि “अगर मेरी तपस्या सच्ची है तो हे मृत्यु देव, अगर आप मेरे शिष्य अमृत्यानंद के चाहे बिना उसका वरण करने जाएंगे तो आप उसे स्पर्श भी नहीं कर पायेंगे और अगर आपने प्रयत्न किया तो आप स्वयं एक मिट्टी की मूर्ती बन जायेंगे।”
ऋषि सर्वानंद बहुत ही पहुंचे हुए साधू थे, उनकी वाणी झूठी हो जाए वो संभव नहीं था। मृत्यु देव भयभीत हो गए और तुरंत-फुरत ही वहां से प्रस्थान कर गए।
ईश्वर की लीला ईश्वर ही जाने। उसे तो संसार को ज्ञान देने के लिए कुछ ऐसा करना था जिससे मानव जाति यह जान जाए कि संसार चक्र में उचित कार्य का फल क्या है और अनुचित कार्य का फल क्या है?
भय और क्रोध दोनों अनुचित हैं, अमृत्यानंद म्रत्यु से भयभीत थे और ऋषि सर्वानंद क्रोधित, लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि ईश्वर केवल उनके इस कृत्य का यथेष्ट दंड दे दे। उनके साथ सम्पूर्ण जीवन के सत्कर्म भी जुड़े हुए थे।
यहाँ मृत्यु देव संकट में थे, विधि का विधान कैसे बदला जा सकता है, उन्हें तो अमृत्यानंद के प्राण हरने जाना ही जाना है और अगर चले गए तो ऋषि का श्राप कार्य कर जाएगा।
ऋषि सर्वानंद ने अपने शिष्य अमृत्यानंद को निर्भय कर दिया कि मृत्यु अब तेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। अमृत्यानंद अब अत्यंत ही प्रसन्न थे। इसी प्रसन्नता में उन्होंने देश भ्रमण की ठानी और गुरूजी से आशीर्वाद ले कर चल दिए। कुछ दिन पश्चात वो उज्जैन पहुंचे, वहां महाकालेश्वर के दर्शन करते समय उन्हें उज्जैन की राज-नर्तकी वैशाली ने देख लिया। उनके मुख-मंडल के तेज से वो अति प्रभावित हुई। दर्शनों के पश्चात वो बहुत ही आग्रह करके अमृत्यानंद को अपने महल में ले गयी और उनका बहुत ही सत्कार किया।
अमृत्यानंद ने भोजन के पश्चात आगे जाने की अभिलाषा व्यक्त की तो वैशाली ने कहा कि “मुनिवर अगर आप कुछ दिन मेरा सत्कार ग्रहण नहीं करेंगे तो मैं अभी प्राण त्याग दूंगी।” अमृत्यानंद को रुकना ही पड़ा।
अगले ही दिन राज-नर्तकी ने अमृत्यानंद से विवाह की अभिलाषा प्रकट की और कहा कि “मैं मन से वशीभूत होकर आपसे विवाह करना चाहती हूँ, मेरे मन में आप जैसा तेजस्वी पुत्र हो ऐसी उत्कंठा हुई है। मैं वासना से लिप्त नहीं हूँ, लेकिन जैसा तेज आपके मुख पर है मेरा पुत्र भी ऐसा ही तेजस्वी हो, ऐसी अभिलाषा है। मुनिवर, अगर आप मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं प्राण-त्याग दूंगी और स्त्री ह्त्या का पाप आप पर लगेगा।”
अमृत्यानंद मृत्यु से अभय होकर आये थे, उनके मन में अभिमान ने कहीं ना कहीं डेरा जमा लिया था, और राज-नर्तकी बहुत ही सुन्दर थी। उन्होंने मन ही मन सोचा कि, “कुछ दिन विश्राम करने में क्या आपत्ति है? राज-नर्तकी भी बहुत ही सुन्दर है। यात्रा पश्चात् तो आश्रम में जाकर प्रभु सेवा ही करनी है। क्यों ना यात्रा में ही सामान्य जीवन क्या होता है यह भी जाना जाये। और वैशाली सरीखी सुन्दर स्त्री स्वयं आग्रह कर रही है तो मुझ में कुछ बात होगी।” यह सोच कर उन्होंने विवाह के लिए हामी भर ली।
अभिमान ने अपने आप को और भी गहरा कर लिया।
अमृत्यानंद और वैशाली ने उसी दिन गन्धर्व विवाह कर लिया। पांच दिनों के पश्चात, अमृत्यानंद कुछ अस्वस्थ से हो गए। इन पांच दिनों में वो हर समय अपनी पत्नी के साथ ही रहते थे। दिन-रात प्रभु का नाम रटने वाले सन्यासी, प्रत्येक क्षण गृहस्थी क्या होती है जान रहे थे। अस्वस्थ होते ही उन्हें वैशाली ने वैद्य को बताया, लेकिन वैद्य जी उनकी अस्वस्थता का कारण जान नहीं पाये। उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ता गया। और आने वाले तीन दिनों के भीतर उनके मुख की कान्ति समाप्त हो गयी, उनकी मधु वाणी में घरघराहट आ गयी।
वैशाली को वैद्य जी ने रोग को समझ कर बताया कि अमृत्यानंद को एक ऐसा रोग हो गया है, जिसके फलस्वरूप उनके शरीर में विष घुलता जा रहा है और इसका निदान संभव नहीं है। वैशाली घबरा गयी और उसी क्षण अपने नौकरों द्वारा अमृत्यानंद को अपने महल से निकाल दिया। स्वयं की मृत्यु के भय से कोई भी ऐसा कार्य कर सकता है। वैशाली ने स्वार्थवश अमृत्यानंद से विवाह किया था और इस रोग के पश्चात वो स्वार्थ स्वतः ही समाप्त हो गया, इसलिए अमृत्यानंद की कोई आवश्यकता नहीं थी।
अमृत्यानंद अकेले रह गए। वैशाली से उन्हें प्रेम हो गया था, लेकिन वो कुछ नहीं कर सकते थे। अपने अस्वस्थ शरीर के साथ वो प्रयाग की तरफ निकल गए।
प्रयाग पहुंचते ही अमृत्यानंद जी को एक दिव्य साधू के दर्शन हुए, उन्होंने ऐसी दिव्यता पहली कभी नहीं देखी थी... दर्पण में भी नहीं। वो उस दिव्य पुरुष को प्रणाम करके उनके चरणों में बैठ गए। उस साधू ने उनका नाम लेकर पुकारा, “अमृत्यानंद! बहुत दिनों से भटक रहे हो।” अमृत्यानंद अचंभित नहीं हुए, उन्हें पता था दिव्य व्यक्तियों में कई तरह की सिद्धियां होती हैं, उन्होंने कहा कि “ऋषिराज, मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं किस राह पर चल रहा हूँ?”
उन्हें उत्तर मिला, “मृत्यु से पूर्व ही मृत्यु को भोगने वाले अमृत्यानंद! तुम तो मृत हो, केवल तुम्हारे भीतर से जीवात्मा बाहर नहीं आयी है। तुम एक महान साधू थे, फिर एक दम्भी साधू बने, फिर सामान्य मनुष्य और अंत में मृत मनुष्य, जिसके पास कुछ भी नहीं।”
अमृत्यानंद को याद आया जब वो दर्पण में स्वयं को निहार कर सोच रहे थे कि इस आयु में भी मेरा मुख इतना सुन्दर है, मेरी वाणी इतनी मधुर है, मेरा शरीर सुडौल है, मुझे कई वेदों का-शास्त्रों का ज्ञान है.... इन सबको मैंने बहुत ही कठिनाइयों से संचय किया है... मृत्यु के पश्चात यह सब छूट जाएगा....
समय ने उन्हें बता दिया था कि वेद-शास्त्रों को वो पिछले कई दिनों से भूले बैठे थे, अस्वस्थ हो गए थे, मुख का तेज कम हो गया, वाणी की मधुरता चली गयी... लेकिन मृत्यु नहीं हुई...। मृत्यु के बिना भी वो सब कुछ छूट सकता है जो मृत्यु के आने पर...!
वो दिव्य पुरुष फिर बोले, “यह केवल तुम्हारी दशा नहीं है, अमृत्यानंद, सारा संसार ऐसा ही है। किसी को मृत्यु नहीं चाहिए, लेकिन मृत्यु से पूर्व मृत जीवन अवश्य ही जी रहे हैं। अगर तुम्हें यह लगता है कि तुम्हारा आलोक, ज्ञान, सुन्दरता और स्वास्थ्य मृत्यु के साथ समाप्त हो जाएगा तो तुमने कुछ भी नहीं जाना।
तुम्हारी आत्मा करोड़ों सूर्यों से भी अधिक आलोकित है, कभी अस्वस्थ नहीं हो सकती, सुन्दर इतनी है कि प्रकृति का निर्माण भी “परमात्मा” अर्थात एक आत्मा के द्वारा ही हुआ है, प्रकृति के हर कण में तुम्हारी आत्मा छुपी है, और सारे ऐसे ज्ञान जिन्हें मानव जानता है और ऐसे ज्ञान भी जिन्हें कोई नहीं जानता आत्मा को ज्ञात है। आत्मा शाश्वत है उसमें कुछ भी समाप्त नहीं होता। यही परम-ज्ञान है, जो गीता में श्री कृष्ण ने कहा।
अमृत्यानंद, अगर कुछ करना है तो मानव-प्रजाति के लिए कुछ कर जाओ, तुम्हें सभी याद रखेंगे, अन्यथा अब तुम्हारे पास इस मृत जीवन के अलावा क्या है?”
अमृत्यानंद को बोध हो गया कि वो भ्रम में जी रहे थे, शास्त्रों को पढने के बाद भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाये । उन्होंने उस दिव्य पुरुष से आशीर्वाद लिया, प्रयाग में नहाते ही उसकी अवस्था पूर्व जैसी हो गयी, उनका मुख-मंडल चमक गया और वह पूर्व स्वस्थ हो गये।
प्रयाग में उन्होंने प्रण लिया कि, मानव-प्रजाति की सेवा करनी है और वे पास के गावों की ओर चल दिए ताकि जीवन के कुछ दिन दीन-दुखियों सेवा में काट सकें।
मृत्यु की गणना तो उन्होंने कर ही ली थी, मृत्यु से दो दिवस पूर्व वे अपने आश्रम चले गये। वे अत्यंत ही प्रफुल्लित थे। ऋषि सर्वानंद ने उनका स्वागत किया और पूछा कि “पुत्र, यात्रा कैसी रही?”
अमृत्यानंद जी ने गुरु के चरण स्पर्श करते हुए कहा कि, “गुरूजी, यात्रा तो बहुत सुखद रही, लेकिन ये भान हुआ कि दो दिन आपके चरणों में निकाल सकूं और आपकी सेवा का आनंद प्राप्त कर सकूं।”
ऋषि सर्वानंद ने कहा कि, “पुत्र दो दिन ही क्यों? सारे जीवन साथ ही रहना।”
अमृत्यानंद जी ने कहा, “गुरु आज्ञा शिरोधार्य है।”
दो दिन ऋषि सर्वानंद की सेवा के पश्चात, अमृत्यानंद जी ने गुरु से मृत्यु का वरण करने की आज्ञा माँगी। ऋषि सर्वानंद चकित रह गए, लेकिन सारी घटना सुनने के बाद, उन्होंने अपने शिष्य को मृत्यु वरण करने की आज्ञा दे दी। अब मृत्यु भी निर्भय थी और अमृत्यानंद जी भी। दोनों आनंदमय थे एक दूसरे को पाकर।
- चंद्रेश कुमार छतलानी
चंद्रेश जी बहुत ही अच्छी रचना है खासकर निम्न भाग ने बहुत प्रभावित किया:
जवाब देंहटाएंअमृत्यानंद को याद आया जब वो दर्पण में स्वयं को निहार कर सोच रहे थे कि इस आयु में भी मेरा मुख इतना सुन्दर है, मेरी वाणी इतनी मधुर है, मेरा शरीर सुडौल है, मुझे कई वेदों का-शास्त्रों का ज्ञान है.... इन सबको मैंने बहुत ही कठिनाइयों से संचय किया है... मृत्यु के पश्चात यह सब छूट जाएगा....
समय ने उन्हें बता दिया था कि वेद-शास्त्रों को वो पिछले कई दिनों से भूले बैठे थे, अस्वस्थ हो गए थे, मुख का तेज कम हो गया, वाणी की मधुरता चली गयी... लेकिन मृत्यु नहीं हुई...। मृत्यु के बिना भी वो सब कुछ छूट सकता है जो मृत्यु के आने पर...!
वो दिव्य पुरुष फिर बोले, “यह केवल तुम्हारी दशा नहीं है, अमृत्यानंद, सारा संसार ऐसा ही है। किसी को मृत्यु नहीं चाहिए, लेकिन मृत्यु से पूर्व मृत जीवन अवश्य ही जी रहे हैं। अगर तुम्हें यह लगता है कि तुम्हारा आलोक, ज्ञान, सुन्दरता और स्वास्थ्य मृत्यु के साथ समाप्त हो जाएगा तो तुमने कुछ भी नहीं जाना।
तुम्हारी आत्मा करोड़ों सूर्यों से भी अधिक आलोकित है, कभी अस्वस्थ नहीं हो सकती, सुन्दर इतनी है कि प्रकृति का निर्माण भी “परमात्मा” अर्थात एक आत्मा के द्वारा ही हुआ है, प्रकृति के हर कण में तुम्हारी आत्मा छुपी है, और सारे ऐसे ज्ञान जिन्हें मानव जानता है और ऐसे ज्ञान भी जिन्हें कोई नहीं जानता आत्मा को ज्ञात है। आत्मा शाश्वत है उसमें कुछ भी समाप्त नहीं होता। यही परम-ज्ञान है, जो गीता में श्री कृष्ण ने कहा।
अमृत्यानंद, अगर कुछ करना है तो मानव-प्रजाति के लिए कुछ कर जाओ, तुम्हें सभी याद रखेंगे, अन्यथा अब तुम्हारे पास इस मृत जीवन के अलावा क्या है?”
kyaa kahani he maza aa gya...ईश्वर की लीला ईश्वर ही जाने। उसे तो संसार को ज्ञान देने के लिए कुछ ऐसा करना था जिससे मानव जाति यह जान जाए कि संसार चक्र में उचित कार्य का फल क्या है और अनुचित कार्य का फल क्या है?
जवाब देंहटाएंभय और क्रोध दोनों अनुचित हैं, अमृत्यानंद म्रत्यु से भयभीत थे और ऋषि सर्वानंद क्रोधित
Chandresh ji kahani dilchasp to hai par sir ke upar se jati hai kisne maut se baat ki aur maut us se dar bhi gayi. Kalpana par aadharit pari katha si lagi phir bhi achcha prayas hai
जवाब देंहटाएंAkhilesh je, haa'n jee sir, pooree tarah kalpana par hee aadhaarit hai, aur kaafee purane tareeke jaisee likhee hai, lekin kai baar Spiritually Sandesh dene ke liye is tarah kee kahaniyo'n kee aavashyaktaa hotee hai aur kahee'n se prernaa bhee mili thi to likh dee....
हटाएंभारतवर्ष के पुरातन साहित्य की तरह लिखने की विधा अपने आप में अनूठी है| आजकल इस तरह की कहानिया केवल सत्संगों की शोभा बन कर रह गयी है, जो यह इंगित करता है कि समाज में उन्नत परिवर्तन हुआ है लेकिन अंत में आकर सभी को एक ही बात समझ में आती है, जैसे इस कथा में अमृत्यानंद को समझ में आया| मेरी तरफ से आपको बधाई चंद्रेश जी एक बहुत ही सुन्दर सन्देश दिया है|
हटाएंwah bhai wah
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