श्याम गुप्त १. क्यों धड़के वह दिल दिशा बोध जिस दिल में नहीं हो उसको हलचल से क्या लेना | प्रीती भाव जिस ह्रदय नहीं हो, उसको धड़कन से क्या लेना...
श्याम गुप्त
१. क्यों धड़के वह दिल
दिशा बोध जिस दिल में नहीं हो
उसको हलचल से क्या लेना |
प्रीती भाव जिस ह्रदय नहीं हो,
उसको धड़कन से क्या लेना |
क्यों धड़के वह दिल कि आज भी-
लुटे द्रौपदी चौपालों पर |
जलती बाहें अभी घरों में ,
लटके फांसी बेटी -बहना |.....दिशा बोध जिस .....||
क्यों धड़के वह दिल कि आज भी,
जनता दो रोटी को तरसे |
होटल की कृत्रिम वर्षा में,
जाने कितने साए थिरके |
अब भी राशन की चीनी को,
लम्बी लम्बी लगी कतारें |
हेरीपौटर की खरीद में,
मस्त साहिबानों की सेना | ....दिशा बोध जिस....||
आज न जाने शास्त्र धर्म पर ,
लोग उठाते विविधि उंगलियाँ ?
देश समाज राष्ट्र की खातिर,
नहीं खौलती आज धमनियां |
सत-साहित्य औ कथा कहानी,
की बातों में अब क्या बहना|
हीरो-हीरोइन के किस्से ,
बन बैठे मानस का गहना| ---- दिशा बोध जिस.....||
२. सच्चा जीवन....
जीवन जो व्यस्त सदा ऐसा,
मित्रों का ध्यान भी रहे नहीं |
उस जीवन को हम क्या समझें,
स्वच्छंद सुरभि सा बहे नहीं |
उस जीवन को हम क्या समझें,
रिश्ते नातों को चले भूल |
उस जीवन को कह सकते हैं,
सूखे गुलाब के तीक्ष्ण शूल |
उस जीवन को भी क्या समझें,
जो नहीं भरा शुचि भावों से |
वह जीवन भी क्या जीवन है ,
जो जूझ न सका अभावों से |
जिसने जीवन-जग के सारे,
सुख-दुःख को जाना सुना नहीं |
परसेवा या सत्कर्मों के ,
तानों बानों से बुना नहीं |
वह जीवन क्या निज देश-राष्ट्र,
के प्रति गौरव का भान न हो |
निज शास्त्र-धर्म के गौरव का,
मन में कोई अभिमान न हो |
मानवता के हित चिंतन का ,
जिसमें कोई अरमान नहीं |
मानव मानव प्रति प्रीति भाव,
का कोई भी संज्ञान नहीं |
वह शुष्क शून्य जड़ जीवन, यदि-
शत वर्ष मिले, क्या जीवन है |
पलभर जीबन परमार्थ भाव,
जीवन ही सच्चा जीवन है ||
३.एक नियम है इस जीवन का ....
एक नियम है इस जीवन का,
जीवन का कुछ नियम नहीं है ।
एक नियम जो सदा-सर्वदा,
स्थिर है, परिवर्तन ही है ॥
पल पल, प्रतिपल परिवर्तन का,
नर्तन होता है जीवन में |
जीवन की हर डोर बंधी है,
प्रतिपल नियमित परिवर्तन में ||
जो कुछ कारण-कार्य भाव है,
सृष्टि, सृजन ,लय, स्थिति जग में |
नियम व अनुशासन,शासन सब,
प्रकृति-नटी का नर्तन ही है ||
विविधि भाँति की रचनाएँ सब,
पात-पात औ प्राणी-प्राणी |
जल थल वायु उभयचर रचना ,
प्रकृति-नटी का ही कर्तन है ||
परिवर्धन,अभिवर्धन हो या ,
संवर्धन हो या फिर वर्धन |
सब में गति है, चेतनता है,
मूल भाव परिवर्तन ही है |
चेतन ब्रह्म, अचेतन अग-जग ,
काल हो अथवा ज्ञान महान |
जड़-जंगम या जीव सनातन,
जल द्यौ वायु सूर्य गतिमान ||
जीवन मृत्यु भाव अंतर्मन,
हास्य, लास्य के विविधि विधान |
विधिना के विविधान विविधि-विधि,
सब परिवर्तन की मुस्कान ||
जो कुछ होता, होना होता ,
होना था या हुआ नहीं है |
सबका नियमन,नियति,नियामक .
एक नियम परिवर्तन ही है ||
४.निर्बंध बंधन ....
जीवन मेरा छंद के बंधन सा निर्बंध रहा है |
तन तो बंधन का भोगी पर मन स्वच्छंद रहा है ...जीवन मेरा.....||
गद्य पद्य क्या, छंद बंद क्या ,
कविता हो मन भावन ही |
उमड़ घुमड़ कर रिमझिम बरसे,
जैसे वर्षा सावन की |
कभी झड़ी लग जाए , जैसे -
झर झर छंद तुकांत झरें |
कभी बूँद -बौछार छटा सी ,
रिमझिम मुक्त छंद विहरें |
गीत-अगीत, कवित्त सरस रस ,
दोहा चौपाई बरवै |
कुण्डलिया, हो मधुर सवैया ,
हर सिंगार के पुष्प झरें |
कविता तो जीवन का रस है, छंद छंद आनन्द बहा है |
जीवन मेरा छंद के बंधन सा निर्बंध रहा है ||
माँ वाणी की कृपा दृष्टि,
मानव मन को मिल जाती है |
नवल भाव सुर लय छंदों की ,
भाव धरा बन जाती है |
छंद बंद, नव कथ्य, भाव-स्वर,
कवि के मानस में निखरें |
विविधि छंद लेते अंगडाई ,
नवल सृजन के पुष्प झरें |
छंद पुराने या नवीन हों,
छंद छंद मुस्कानें हैं |
छन्द ही कविता का जीवन है,
नित नव पुरा सुहाने हैं |
छंद को बाँध सका कब कोई, छंद छंद निर्द्वंद्व रहा है |
जीवन मेरा छंद के बंधन सा निर्बंध रहा है ||
डा श्याम गुप्त , के-३४८, आशियाना, लखनऊ
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जसबीर चावला
विचारों के बंदी
''''''''''''''''''
ये न दवा करते हैं
न ये दुआ करते हैं
~*~
टी वी के चैनलों पर
बस हुआ हुआ करते हैं
~*~
बंदी हैं कुंद विचारों के
गैर को बंधुआ कहते हैं
~*~
बोलते गुलामी की बोली
हम पिंजरे का सुआ कहते हैं
~*~
देश को मारते निस दिन
श्राद्ध में हलुआ करते हैं
~*~
बहस को जिंदा रखना है
ये तो बददुआ करते हैं
****
नौ कणिकाएं
बीते
दिन
रीते
~*~
पल
आना
कल
~*~
रूक
मत
झुक
~*~
आई
रुकी
गई
~*~
आग
गई
जाग
~*~
प्रेम
खुला
फ्रेम
~*~
रात
खुला
गात
~*~
दिन
तारे
गिन
~*~
हारा
जग
मारा
[]*[]
"आय बट व्हाय"-"हूं पर क्यूं"-इंग्लिश में लिखी इस अर्थ पूर्ण कविता की तर्ज पर ये लघू कणिकाएं/कविताएं अचानक एक कौंध-एक छपाक् की ध्वनि करती हैं ओर फिर गहरा मौन/गुड़ुप...........!
आओ गठबंधन तोड़ें
घात हुआ
प्रतिघात हुआ
+
तनी मुट्ठियां
आघात हुआ
+
शब्द बाण चले
विश्वासघात हुआ
+
गुर्राये बड़बड़ाये
सन्निपात हुआ
+
पेट दिमाग बंद हुए
शहर में उत्पात हुआ
+
मर गई संवेदना
तन में पक्षाधात हुआ
हर खास और आम को इत्तला:चुनावी मुनादी
ढम...ढम...ढम...ढम.........
नंगो का
मौसम आ गया
*
जंगो का
मौसम आ गया
*
फिज़ा में
चुनाव तैर रहे
*
दंगो का
मौसम आ गया
*
ढम...ढम...ढम...ढम.........
आल इज वेल
पापा पापा
हां बेटा
राजनीति खेलें
हां बेटा
मम्मी का बेटा
हां बेटा
पापा का बेटा
ना बेटा
?.....?.......?
सीख : राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता
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संजीव शर्मा
कंकड़
उपासना
पत्थर की,
उस पत्थर की
जो एक रूप
विस्तृत विस्तीर्ण अटल
पर्वत बना खड़ा है
या फिर
उस पत्थर की
जो टूट-टूटकर
अंतत:
एक कण में
बदल गया है ।
मन की पीड़ा
चाहती है कि मैं भी
उपासना करूं,
पर्वत हो या कण
है प्रतिरूप ही
एक टूटकर बना
एक जुड़कर स्थिर
है तो समान ही
है तो पत्थर ही
कौन दीर्घ, कौन दीप्त
कौन महं, कौन ईश्
जो कभी पहाड़ था
टूटकर शिला बना
और टूटकर गिरा तो
दीर्घ खण्ड बन गया
और फिर नया दुख
और एक नयी पीड़ा,
फिर से टूटा
और टूटा
रह गया पत्थर बन
पीटकर, फेंककर, तोड़कर
अंतत:
बन गया कंकड़,
मैं नहीं चाहता
मान देना धन्य को
या उसे जो मंदिरों में
मूक निश्चल सा
खड़ा है
देखकर सब कुछ
निर्जीव है निर्बोध है
चाहता हूं मैं भी
करना उपासना
उस कण की
धूल कण की
जो महत का अंश है
और तप-तप कर
धरा की आग में
और घिस-घिसकर
दुखों के रंद पर
बनके हीरा
आ अवस्थित हो गया है
हां यही कण, कंकड़ ।
प्रियसी
प्रियसी तुम कितनी सुंदर हो
सरितामय आवेग तुम्हारा
गगन समान है नैन तुम्हारे
मुख उल्लासों की प्रतिछाया
मृग शावक की चाल तुम्हारी
जल प्रपात सादृश चपलता
जिस पर गिरती है मह धारा
उस पत्थर की पीड़ा जितनी
है अविकल अवधारा,
सुरभित-सुरभित पात-पात पर
नव रचना जैसे मधु पुष्प
सुरभित-सुरभित पात-पात पर
नये प्रभात की मधुर कल्पना
नव मधुमास तुम्हीं हो
नये-नये प्रभास मधुर का
नया-नया जैसा संसार
वैसे ही सुरभित हो तुम
वैसा ही आलोक तुम्हारा,
युद्ध अश्व सी सुगठित तुम
छुईमुई सी कोमल तुम हो
झुण्ड, झुरमुटों से सकुचाई
तुम भयभीत नमित हो
आसमान सा चेहरा सुरतिज
तुम निस्सार नहीं पुलकित हो
चंदा-सूरज ऑंख तुम्हारी
नये-नये प्रभात मधुर का
नया-नया जैसा श्रंगार
वैसे ही सुरभित सी तुम हो
वैसा ही आलोक तुम्हारा,
प्रियसी तुम कितनी सुंदर हो
सरितामय आवेग तुम्हारा ।
संजीव शर्मा
मोबा नं 9868172409
रामनगर शाहदरा
दिल्ली
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मोतीलाल
कद
याद आता है मुझे
एक खुला आसमान
घाटियों से बहती नदी
उसका इतराना
उठ-उठ कर गिरना
और आगे बढ़ते जाना
अपने पूरे वजूद के साथ ।
याद आता है
हरीतिमा के आलोक से
आलोकित वह जंगल
पत्तों से बना
सुन्दर सा घर
और शाम की लालिमा में
थिरकते पावों की झंकार ।
याद आता है
एक साथ पूरे आकार लिए
हमारी पुरखें
जिसने हमें दिया यह आजादी
अपना खून बहाकर
और हम हैं कि
आजादी के बहाने
उजाड़ रहे हैं जंगल
बाँध रहे हैं नदी का रास्ता
और खड़े कर रहे हैं अट्टालिकाएँ
उन पत्तों के घरों को अनदेखा कर ।
अब भी
प्रतीक्षा है तुम्हारी
कि तुम लौट आओ
और दे जाओ
एक सार्थक दिशा
इन जंगलों को
इन नदियों को
ताकि पा सके ये
अपना वह स्वाभाविक कद ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
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चंद्रेश कुमार छतलानी
कभी खामोशी है दर्द का सबब, कभी दर्द खामोशी से गुज़र जाए|
जुनून को छोड़ दें यही बेहतर है, चुपचाप ज़िंदगी ये गुज़र जाए|
लगता है कि हार सा गया मैं सोये हए ज़मीरों और लाशों से,
फिर भी उम्मीद है कि अब दुनिया इस मुर्दापरस्ती से गुज़र जाए|
मैं जुस्तजू में था कि मुड़ जाएँ बहके कदम कभी उसकी राह को,
निशाँ क़दमों के ऐसे जमे थे कि सागर भी गहराई से गुज़र जाए|
वक्त कभी पराया हो जाता है तो कभी अपनों से भी अपना लगे,
दुआ बस इक ये क़ुबूल हो जाये कि वक्त हर तन्हाई से गुज़र जाए|
--
ये परबत पे प्यासी घटाओं का मौसम,
आओ यहाँ पे खो जाएँ हम|
ये झरनों का संगम, गुलों सा है हमदम,
आँचल तले सो जाएँ हम|
सूरज की पहली किरण जगाये,
चाँद थपकी दे कर सुलाए,
ये चिनारों के पत्ते, बारिश की रिमझिम,
इस जहां में खो जाएँ हम|
ये परबत पे प्यासी घटाओं का मौसम...
हवाएं महकती चली जा रही,
बारिश की बूँदें गुनगुना रही,
ये किताबों सी मंजिल, बर्फ का दर्पण,
हौले से इनको छू जाएँ हम|
ये परबत पे प्यासी घटाओं का मौसम...
-
क्यों बच गयी मूर्ति मेरी केदार में|
कभी प्रकृति के तांडव ने
कितना कुछ तोड़ा संसार में |
कितने बिछ गए, कितने रह गए
मृत्यु के भीषण हाहाकार में |
ओ ईश्वर! ये कैसी है लीला
कितनों को जल ने है लीला|
तेरे दर्शन को प्यासे भक्त
क्यों ना पहुंचे अपने घर-बार में|
बस तेरे इशारे से ही हिलता
इस जहाँ का इक इक पत्ता|
फिर क्यों इतने अनाथ हुए,
ये बच्चे-बूढ़े तेरे ही दरबार में.|
शिव ही सत्य है शिव ही शाश्वत
शिव ही वेद और शिव ही भागवत|
शिव की भक्ति जीवन दायिनी
फिर बह गये कैसे काल की धार में|
जी जाता है गणेश जो कट जाए सिर
जो मरे केदार में तेरे ही बच्चे थे फिर|
हे शिव! भक्ति कौन करेगा,
जब भक्त ही न रहेंगे इस संसार में|
रौद्र है, तू ही भोला, तू ही तो विधान है
तेरे नयनों में बता क्यों अश्रु अंतर्धान है|
भजनों की छिन गयी वाणी और,
बहा हाथों से लहू तेरे नमस्कार में|
कब तक रहते चुप अब तो शिव भी बोले,
मैं हर क्षण रोता हूँ संग मेरे तू भी रो ले|
मैं भी काल का ग्रास हुआ हूँ,
साथ उनके जो मिल गए निराकार में|
बस मेरे नाम के मोह में पड़े हो
सच्चे और दुखियों से दूर खड़े हो|
भूखों को देते नहीं एक अन्न का दाना,
पकवान रख देते हो मेरे सत्कार में|
क्यों लड़ते हो तुम मेरे ही नाम के लिए,
मुहम्मद के लिए तो कोई राम के लिए|
क्यों नहीं सुनते मेरी चीख को,
हर इक बच्चे की चीत्कार में|
माता-पिता को बड़ा बोझ जान के
क्या पा लोगे ईश्वर को मान के |
क्षीण कर दी मेरी ही शक्ति,
जो मैं बस गया ऐसे संस्कार में|
प्रकृति से कितनी खिलवाड़ करते,
मन में फिर अंधविश्वास को भरते|
वृक्षों को भेदा, वायुमंडल को छेदा
ऐसे बढ़े हो अपने आत्मोद्धार में|
वायु भी प्रदूषित है, दूषित है जल भी,
तरंगे मंडल में, बारूद भरा है थल भी|
नियंत्रण किस स्थान पर मेरा है
तुम्हारे इस संसार में|
क्रिया-प्रतिक्रिया का ही बस खेल है सारा,
याद करो कितने दिलों को तुमने मारा|
दया, धर्म और प्रेम बह गया
मोह, लोभ और काम के विकार में|
मैं तो बसा हूँ सृष्टि के हर इक कण में,
एक बार तो देख रहता हूँ तेरे ही मन में|
भूल ना करो स्वयं को मानव जान कर,
लाओ तुम मुझे अपने व्यवहार में|
हर इक के दुःख में त्रिनेत्र रोते हैं मेरे,
अपनों को स्नेही जब खोते हैं मेरे |
जो हो चुका इतना असंतुलन तो,
क्यों बच गयी मूर्ति मेरी केदार में|
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एकता नाहर 'मासूम'
अबकी बार तू सीता बनके मत आना
स्त्री तेरे हज़ारों रूप,
तू हर रूप में पावन,सुन्दर और मधुर।
पर अबकी बार तू सीता या राधा बनके मत आना,
द्रौपदी और दामिनी बनके भी मत आना,
तू जौहर में जलती वीरांगना और,
प्रेम के गीत गाती मीरा बनके भी मत आना,
मेरी तरह चुप्प,बेबस और मूर्ख बनके भी मत आना।
अबकी बार तुम गुस्सैल,बिगडैल और मुंहफट लड़की बनके आना,
वहीँ जो अपनी आज़ादी का राग आलापते,मुंबई के एक हॉस्टल में रहती है।
और कल जिसने एक लड़के को बुरी तरह पीटा,
क्योंकि लड़का उसकी छाती पर कोहनी मार के निकल गया।
अबकी बार तुम शालीनता और सभ्यता के झंडे फहराने मत आना,
और वो मोहल्ले की रागिनी भाभी बनकर भी नहीं,
जिसकी सहेली से मिलने की इच्छा भी पति की इज़ाज़त पर निर्भर है।
तुम, वो काँधे पे स्वतंत्र मानसिकता का बैग टाँगे, समुद्र लांघ के
स्वीडन से इंडिया घूमने आई,दूरदर्शी और आत्मनिर्भर लड़की बनके आना।
अब नहीं बनके आना तुम मर्यादा न लांघने का प्रतीक,
तुम गली की गुंडी बनके आना।
ताकि तुम्हारी आबरू को घायल करने वाले ये नपुंसक,
तुम्हारे अस्मित को नोचने वाले ये दरिन्दे,
तुम्हारे दम भर घूरने से ही अपने बिलों में छिप कर बैठ जाएँ।
और घर की कुण्डी लगाके कमरे के बिस्तर पर न फेंकी जाएँ,
तुम्हारी ख्वाहिशें,स्त्री होने का ठप्पा लगकर।
अबकी बार तुम समाज के प्रहरियों के आदर्श-मूल्यों में,
अपनी संवेदनाओ और इच्छाओ को खंडित करके,
सीधी,चुप्प,दुपट्टा सम्हाले,'मासूम' गुडिया बनके मत आना।
तुम निडर,अमूक और आफतों से लड़-झगड़ने वाली,
अपनी प्राथमिकताएं स्वयं तय करने वाली,
सीमा,बंधन और गुलामी में अंतर कर पाने वाली,
उपहास,आलोचना,और उलाहना को गर्दो-गुबार करने वाली,
आज़ाद,खूबसूरत और खुले विचारों वाली,
जीवन से भरपूर वो पागल लड़की बनके आना।
मुझे तुम वैसी ही अच्छी लगती हो।
नैतिकता और आदर्शवाद के पुराने उदाहरण पर्याप्त हैं
हम बेटिओं,बहनों और स्त्रिओं के जीवन मूल्य तय करने के लिए
अब मेरे कस्बे की लडकियां तुम्हारे स्वछंद,स्वतंत्र
और बिंदास होने का उदाहरण देखना चाहती हैं,
समाज की परम्पराओं की जंजीरों में जकड़ी ये लडकियां,
तुम्हारे उस बिंदास व्यक्तित्व में कहीं न कहीं,
खुद का भी तुम्हारी तरह होना इमेजिन करती हैं।
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सरोज कांत झा
1
ढूंढती रही वो जाने क्या खोयी ।
वो मेरा खत पढ़कर रातभर रोयी ॥
है अंधरों में कैद ये जिंदगी अपनी
वो उजालों का वास्ता दे कहां खोयी।
बदल रहें हैं जिस्म और जुबान अपनी
वो बूढ़ी मां पूछे तुमका का होयी।
कई दिनों से वो गुमसुम, तन्हा सा है
फिर कोई दर्द पुराना दे गया कोई॥
वो मेरा खत पढ़कर रातभर रोयी......
2
इन परिंदों को जरा सा पर दे दो।
हम गरीबों को अपना कोई घर दे दो॥
माना तुझको अपना साथी, माना है मसीहा
भूले से सही इक नजर दे दो....
बड़ें जालिम हो, बेखौफ होकर घूमते हो
ये खुदा इनको जरा सा डर दे दो....
हर हाथों में मशाल हो, जुबॉ पर हो इंकलाब
इस मुल्क में ऐसी गदर दे दो....
ये तेरा है, ये मेरा है सब कहते हैं
सबका हो अपना इक शहर दे दो....
3
हाशिये पर खड़े लोग अब भी हिसाब मांगते हैं।
जाहिल अपने हिस्से की किताब मांगते हैं॥
शर्म भी हो गयी है हमारे यहां खूब शर्मसार
अब लोग मुंह छुपाने को नकाब मांगते हैं...
हमारे अरमानों को तोड़ा, हमें अंधेरों में छोड़ा
फिर भी आके हमसे वोट जनाब मांगते हैं......
यूं ही लगते रहेगें सालो-साल जम्हूरियत के मेले
हर साल वो आवाम से खिताब मांगते हैं....
जो रहनुमा थे हमारे, थे हमारे मसीहा भी
वो आज हमारा गोश्त-ए-कबाब मांगते हैं.....
आज हम भी पूछे उनसे उनकी कैफियत
हमें चाहिए न ख्वाब, जवाब मांगते हैं.....
4
हम भटक ही रहें हैं शहर-शहर।
जब से छोड़ के आये अपना गांव घर॥
आदमी बस बना हे खिलौना यहां
जज्बातों की यहां नहीं है कदर...
हर चेहरे पर कई चेहरे यहां
अब तो अपनों से भी लगता है डर...
लोगों का समुद्र है उमड़ा यहां
कौन तन्हा किनारे पर बैठा मगर....
सरोज कांत झा(पत्रकार)
भुरकुण्डा जयप्रकाशनगर
पो. भुरकुण्डा बाजार जिला रामगढ़
झारखण्ड पिन-829106
मो. संख्या-09431394154
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शरद कुमार श्रीवास्तव
भिखारी
दिखेंगे ये अकसर चौराहों पर
मन्दिर मस्जिद के द्वारों पर
लिये कटोरे कभी खाली हाथ
पैसे माँगते यह निपोरे दाँत
कुछ बन्द शीशा बिना खोले ही
इन्हे धिक्कार देतें, दुतकार देते
या कार की खिडकी खोलकरभी
मौके बे-मौके फट्कार भी देतें
कि हट्टे-क्ट्टे हो मुफ्त की खाते हो
तुम कामचोर हो काम से जी चुराते हो
जब भी काम माँगा तो मिली है दुत्कार
रोटी माँगते हैं यह तो पक्की है फटकार
शक्सियत ही ऐसी, कोई चारा नहीं
नसीब मे फटकार, कोई सहारा नहीं
भूख की मार है वरना बेचारा नहीं
ईश आया ही नही क्या पुकारा नहीं
खुश हैं बच्चों के लिये ही जिये जाते हैं
जैसे तैसे भी हॉ तय काम छोड जाते हैं
पढे लिखे बेरोजगार लोगों से ये हैं अच्छे
तय काम सुरक्षित हैं भावी पीढी के बच्चे
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अखिलेश चन्द्र श्रीवास्तव
कलम और तलवार .....
.इतिहास गवाह है उन तमाम छड़ों के .....कि .
जब जब कलम और तलवार में हुआ है टकराव .....
कलम ने तलवारों की धारों को किया है ..कुन्द ...
और छाँटी है ..............अज्ञानो कि धुँध ......
प्रकाशित किया है ...ज्ञान के प्रकाश से ...समस्त विश्व ...
कलम ने उगायी है दिमागों की फसल ...
कलम ने पैदा की है आजादी के दीवानों की नसल ..
कलम ने एकता के बीज बोये हैं
कलम ने निखारी किसी भी जाति .....या धर्म की विशेष चमक ...
कलम की है अपनी चमक ...अपनी दमक .......
कलम के आदेश पर .........
अपराधियों की गर्दन उतारती है ...........तलवार ..
और ....कलम से .......होते भी है .......करार ....
बदलते हैं ............राजे और राजपरिवार ....
(अतः ) कलम की ताकत ......असीम है ...
कलम को मगर अब अपनी ताक़त पहिचान नी होगी ...
इस देश से अज्ञान ....बेरोज़गारी .........
गरीबी ..की धुँध ........मिटानी होगी
(क्योकि )जब कलम अपनी करनी पर .......आ जायेगी ..
तलवार ... स्वयं .......उसकी रक्षा में ........आ जायेगी ...
तब न रहेगा अज्ञान .....न ...........अँधेरा ........
निकलेगा ..............तब एक ...........नया सबेरा ....
तब कोई .......नहीं करेगा तुलना ...कलम और तलवार की ..
दोनों तब ....दिखायेंगी जौहर ....अपनी ...अपनी ....और
अपने ..........आपसी प्यार की .............समझ की ...
एक सवारेंगी ......विचार ...बनायेगी .........जनमत ...
दूसरी ...सम्भालेगी ......अपराधियों को ...गुनाहगारों को ....
( और ) बनाएँगी इसी ..पावन धरा को .
.जन्नत .जन्नत और .....और सिर्फ़ जन्नत
काश ऐसा सम्भव हो पाता .........
तो इस देश का .......बेडा पार ....हो जाता ...
आइये हम इस ओर .......सघन प्रयास करें ....
और अपनी पावन धरा के .........प्रति ...
अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करे .........
अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करें ...
मरता हुआ निरीह
खड़ा था ..सवारी की आस में .....
तांगा पंहुचा पास ...में ...
घोड़ा थका ...थका ...सा ...
तांगा ..रुका ...रुका ...सा ..
लाचारी .....बेचारी थी ...
बोझ ....और ...बेजारी थी ...
लगातार ...पीटता ...मालिक था
गर्मी थी ट्राफिक ..था ..सिपाही था ..
घोड़े से… .....आँख मिली .....
ममता .......हृदय में बही ...
आँखों में (घोड़े की )..सूनापन था ..
घोड़ा क्यूँ बना ...इसका ..गम था ..
प्यास से गला सूखा था ...
पेट ....बहुत भूखा था ...
मालिक की ....चाबुक थी ..
बेतहाशा .....पड़ती मार थी ...
घोड़ा हिनहिनाया ....
रुका .....लहराया ......
गिरा जमीन पर बेदम ...
निकल गया ...उसका दम ...
और अब ....रो रहा है ताँगेवाला ..
उसे अपने परिवार .....
और उसकी रोटी की पड़ी थी ...
मेरे सामने घोड़े की लाश पड़ी थी ....
मेरे मन में बेजुबान जानवर के प्रति ...
ममता उमड़ी थी ...श्रध्दा उमड़ी थी ..
पर ....पर ..घोड़ेवाले के प्रति भी ...
नफ़रत नहीं थी ...नफ़रत नहीं थी ..
कहीं ...न ...कहीं उसकी
बेचारगी का एह्सास था ..
कल से बेचारा क्या खायेगा ...
इस ..सोच का भास था ..
इतने में ...मेरा वाहन आ गया
और मैं चढ़ कर अपनी
मंज़िल पर .....आ गया ..
घोड़े की लाश ....और ...
रोते तांगेवाले से .दूर आ गया ...
पर ....न भुला सका मैं ....वो मंज़र ...
आज भी दिल पर चलते हैं खंज़र ...
कब ..हम जानवरों को न्याय दे पायेंगे ..
कब ..हम उन्हें प्यार करना ..सीख पायेंगे ..
कब न तोड़ेगा कोई घोड़ा ...
इस तरह से दम .......
कब इस पर ...विचार करेंगें हम ....
कब हम दया भाव से जीना ...सीखेंगे ..
कब हम ईश्वरीय सन्देश समझेंगे ...
कब हम उन पर आचरण करेंगे ...
ये सब विचार की बात है ...
वर्ना ....घोड़े यूँ ही ...मरते रहेंगें ...
और ...तांगेवाले ...रोते रहेंगें
बस ....रोते रहेंगें .....
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विचार कण ......
१) करो वही जो तुम्हारा मन कहे ,क्योंकि मन में ईश्वर का वास है ...दबाव
में कोई काम मत करो ...क्योंकि वह धर्म विरुद्ध एवम ईश्वर विरुद्ध है /
२) मन का सारथी ईश्वर है ..और तन का सारथी मन ..अतः ईश्वर की इच्छा और
सेवा में तनमन का अर्पण कर दो ...देखो वोह आपको सही दिशा में ले
जायेगा और किसी का अहित नहीं होगा /
३)ज्योति से ज्योति जलती है ...और मन से मन प्रकाशवान होता है ..अतः
ज्ञानरूपी प्रकाश को बाँटो बहुत ख़ुशी मिलेगी /
४)दान केवल सुपात्र को करो ..जिसे उसकी आवश्यकता है और जो उसका सही उपयोग
कर सकता है .. भिखारी .. और ब्राहमण को दान ..आपके धन
का अप्पव्य और अकर्मण्यता को बढ़ावा देता है /
५)कर्म ही धर्म है ...कर्म के बिना धर्म नहीं ..अतः यदि धर्म करना है तो
कर्म करो… कभी स्वार्थ नहीं परमार्थ करो ...तभी शांति मिलेगी /
६)मुख से केवल ईश्वर का नाम लो ...उसके ही काम करो ,दूसरों की सेवा और
दान करो आपको शांति मिलेगी /
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मिलना साँप के केंचुल का
आज सुबह…….
टहलते टहलते ...
अपने घर के गार्डन में ...
अचानक दिखी .......
एक केंचुल साँप की ...
जी धक् से रह गया ....
एक ठण्डी सी सिहरन ...
उतर गयी रीढ़ के ऊपर से नीचे तक ...
हाँथ पाँव ठन्डे .....
चीख निकल गयी ....
अरे बाप रे….
केंचुल है तो साँप भी होगा ...
नज़र दौड़ाई नज़दीक ...नज़दीक ..
दूर .........दूर ......
कहीं तो कुछ भी तो नहीं ....
पड़ोसी इक्कठे हो गये ....
चीख सुन कर ....
इतना बड़ा साँप ...बाप रे ...
नहीं ...नहीं छोटा ही होगा ....यह तो ....
केंचुल का एक टुकड़ा ही है ....
मैंने अपने मन को धिक्कारा ...
अरे ...डरे भी किससे ... तो केंचुल से ...
साँप से डरे तो फिर भी समझ में आता है ..
फिर साँप से भी क्यों डरें ..
वोह किसी का क्या बिगाड़ता है
बेचारा अपने रास्ते आता है
अपने रास्ते जाता है ..
किसी से कुछ नहीं कहता ...
खतरा दिखा तो ही फुफकारता है ...
नहीं माने तो ही काटता है…
उसे भी तो आखिर जीने का हक है ...
आत्मरक्षा का हक़ है ...
अतः ना तो केचुल से डरना है ...
और ना ही साँप से ....
और साँप बड़ा हों या छोटा ....
पतला हो या मोटा ...
उसके विष से आदमी मरता है
(साँप के )साइज़ से नहीं ..
अतः यह बहस ही बेकार है
कि साँप बड़ा था या छोटा ..
पतला था या मोटा ..
उसे तंग न किया जाये ..
उसे यदि ढँग से जीने दिया जाये ..
तो वोह किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं है
किसी का कुछ लेता नहीं है
वोह तो है दोस्त मानव का ....
ख़त्म करता है चूहे और वे तमाम नस्लें ...
जो आदमी की दुश्मन है
अतः आइए आज से हम ..
डरना छोड़ दें केंचुल से
साँप से ...
क्योंकि साँप हमारा ..
.पारिवारिक मित्र है ..
और मित्रता उसका
उत्तम चरित्र है
आप उसके रास्ते में मत आइये
वह आपके रास्ते में नहीं आयेगा
आप को देख कर वह स्वयं ही ..
भाग जायेगा ...
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देशद्रोही कौन होता है ......
देशद्रोही कौन होता है ........वो ..ही ..
_ जिसका विदेशी बैंकों में गुप्त खाता होता है ..
_जिसका विदेशियों से गुप्त सम्बन्ध होता है…
_जो देश के टुकड़े टुकड़े करके राज करने का सपना देखता है
_जो शत्रु राष्ट्र को धन देने की बात करता है ...
_जिसके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते है और स्वयं हिंदी हिंदी करता है ..
_जों ऊपर से दहेज़ विरोधी है ...और चुपचाप दहेज़ लेता है ...
_जो जाति पांति के ..धर्म के नाम पर देश में दंगे कराता है .....
_जो पब्लिक क पैसा ....... डकार जाता है ......
_जो निजहित को देशहित के ऊपर रखता ..और निभाता है ..
_जो अपराधियों ...तस्करों ...को प्रश्रय देता है ..
_जो कालाबाजारी को ..........बढ़ावा देता है ...
_जो गुंडाराज .........चलाता है ..माफिया चलाता है ...
और वोह भी देशद्रोही है ..............
_जो उपरोक्त को सहता है ...और चुप रह जाता है ..
मेरे विचार से ..सबसे बड़ा देशद्रोही वही है ...वही है ...क्योकि
उसकी यह भूमिका ही सही नहीं है ........सही नहीं है ....
वह आँख मूँद कर सोया है ........
देश का भाग्य भी इसीलिए सोया है ...
इस देश के संसाधनों को जो बिंदास चरते हैं ...
अपनी अपनी जेबें और तिजोरियाँ भरतें हैं ...
बेहिसाब ...अविराम ...देश विरोधी
अवाम विरोधी ..हरकतें करते हैं ...
ऐसे छुट्टे सांड जब ...बे रोकटोक ....
देश की धन संपत्ति ..दौलत चरते हैं ...
तब इस देश के आम मानव ...
तथाकथित भारतीय नागरिक ....
सो कर ......या रो कर ........
गुजारा करते हैं ...
गुजारा करते हैं ....
बस गुजारा करते हैं ...
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