सु बह जरुर आती है लंबे समय तक गहरे तनाव में रहने से जब व्यक्ति उबर नहीं पाता तो आत्महत्या का विचार जन्म लेता है। हताशा और अकेलापन आग में घी...
सुबह जरुर आती है
लंबे समय तक गहरे तनाव में रहने से जब व्यक्ति उबर नहीं पाता तो आत्महत्या का विचार जन्म लेता है। हताशा और अकेलापन आग में घी का काम करते हैं। यह एक मानसिक आवेग होता है । पारिवारिक सहयोग समय रहते मिल जाए तो भी हादसे से बचा जा सकता है। ऐसे " सहयोग " तड़ित चालक का काम करते हैं जो आघात को तुरंत धरती में दफन कर देते हैं और मूल वस्तु को कोई हानि नहीं होने देते।
भारत के संदर्भ में देखें तो यहां घोर आर्थिक परेशानियां है ;, मानवीय सम्बन्धों की ऊष्मा ठंडी पड़ती जा रही हैं साथ ही संवाद और संवेदना ;, दोनों गायब होते जा रहे हैं। हमें इस बात की चिंता नहीं है कि हमारी औलाद में मानवोचित गुणों का विकास हो। बस किसी तरह डॉक्टर;, इंजीनियर या बड़े आदमी बन जाएं। इससे बच्चों पर मानसिक दबाव बहुत बढ़ गया है। आत्महत्या करने में छात्र व युवा वर्ग ही आगे है। परीक्षा में ज्यादा अंक लाना और बेहतर कैरियर का दबाव आज इन पर बुरी तरह हावी हो चुका है। बच्चों से अपेक्षा रखना बुरा नहीं है पर जीवंत संवाद और भावनात्मक सहयोग भी बेहद जरुरी है। ऑस्ट्रेलिया में किए गए सर्वेक्षण में यही बात उभर कर आई है कि किशोरों में आत्महत्याओं की दर बढ़ रही है और इसका कारण है परीक्षा में अच्छे अंक न आना। इसी कारण वहां " स्ट्रेस मैनेजमेंट " जैसी अवधारणा का जन्म हुआ जो मुख्य रुप से अभिभावकों को शिक्षित करती है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ' पी ़ सी ़ जोशी ' के अनुसार ;, " पुराना ढांचा तेजी से टूट रहा है और उसका स्थान नवीन सरंचनाएं ले रही हैं ;, नवीन और प्राचीन के बीच एक शून्य उत्पन्न हुआ है ;, जब यह शून्य मनुष्य के जीवन में उत्पन्न होता है तो आत्महत्या की ओर ले जाने वाली स्थिति होती है ;, चाहे यह शून्य तनाव से पैदा होता हो ;, आत्मग्लानि से या गंभीर आर्थिक संकट से या जीवन की असफलता व सामाजिक निराशा से। "
कुछ आत्महत्याएं चौकाने वाली होती है। मसलन अपनी पसंद का चैनल न देख पाने पर बच्चे ने खुद को मार डाला। कुरुक्षेत्र की पॉश कॉलोनी में एक बच्चे ने खुद को इसलिए खत्म कर दिया क्योंकि मां ने पतंग के लिए पैसे नहीं दिए। मोबाईल फोन न मिल पाने से भी कुछ बच्चों ने स्वयं को मार डाला। इस तरह की खबरें हमें एक असहनशील पीढ़ी की तस्वीर दिखा रही हैं। उतरप्रदेश में गौरीकलां गाव के एक 17 वर्षीय युवक ने तंत्र साधना में विफल रहने पर आत्महत्या कर ली। वह आईटीआई का छात्र था। इसी तरह पंजाब के कुराली में एक साधू ने भी आत्मदाह कर लिया था। साधना करने पर भी उसे मां काली के दर्शन नहीं हुए थे। बीदर में;, अपने गुरु के वियोग में तीन साधुओं ने चिता में कूद कर प्राण त्याग दिए। मार्च"अप्रैल 2013 के बीच राजस्थान में अन्धविश्वास की दो घटनाओं ने कुछ जिंदगियां लील ली। सवाई माधोपुर के गंगापुर सिटी में कंचन सिंह नामक फोटोग्राफर ने अपने घर में विशेष पूजा करवाई। उसके बाद जहर मिले मीठे लड्डुओं का प्रसाद स्वंय छका और अपने परिवार को भी दिया। परिणामस्वरुप वह;, पत्नी और उनके तीनों बच्चे खत्म हो गए। सुसाइड नोट के अनुसार यह सब उसने भगवान से मिलने के लिए किया था। इसी राज्य के ' सिकर' में 40 साल के दर्जी अशोक कुमार ने खुद को फांसी लगा डाली। उसकी तमन्ना भी भगवान से मिलने की थी। मुंबई की एक मॉडल "राखी चौधरी" थायरॉड बीमारी से पीड़ित थी। इससे उसका वजन बढ़ रहा था। यह उससे सहन नहीं हुआ और उसने स्वंय को खत्म कर लिया। लुधियाना के बीस वर्षीय हर्ष चोपड़ा ने पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी। उसने लिखा दिया था कि मेरी किडनी से मां की जान बचा देना ;, अपनी जन्मदात्री को मरते नहीं देखना चाहता। दिल्ली में 27 साल का पीएचडी का एक छात्र मौत के बाद के रहस्य जानना चाहता था। इसी लिए उसने जहरीला पदार्थ खाकर अपने जीवन का अंत कर लिया।
गीत संगीत लोगों के दिलों को राहत पहुंचाते हैं ;, लेकिन "ग्लूमी संडे" एक ऐसा गीत था जिसे सुनकर लोग आत्महत्या कर लेते थे। इस गीत का रचियता हंगरी का "लाजलो जावारे" था। प्रेमिका की बेवफाई से आहत होने पर यह उसके भीतर से फूट पड़ा। एक संगीतकार को यह गीत बहुत पसंद आया;, उसने अपनी धुन में पिरो डाला। कहा जाता है इस गीत को सुनकर गीतकार की प्रेमिका की आत्मा इतनी पिघली कि उसने आत्महत्या कर ली। उसके बाद आत्महत्याओं का सिलसिला आरंभ हो गया। तब हंगरी सहित कई देशों ने इस गीत को प्रतिबंधित कर दिया था।
जापान में आत्महत्या करने की दर ज्यादा है। यहीं के एक 24 साला युवक ने इंटरनेट की लाइव स्ट्रीमिंग सेवा का प्र्रयोग करके अपनी आत्महत्या का एक एक पल ऑनलाईन दिखाया। इसी देश के 42 वर्षीय लेखक "वातारु सुरुमि" ने एक पुस्तिका लिखी है ;, ' द कंपलीट मैन्युल ऑफ सुसाईड ' । यह 1993 में प्रकाशित हुई थी। लेखक को अपनी इस <ति पर कोई पछतावा नहीं है। उसका कहना है ;, " स्वयं को मारना कोई अपराध नहीं है क्योंकि हम आज आजादी के माहौल में जी रहे हैं।" इसी सिंद्धात को मानते हुए 1998 में केरल के कोल्ल्म शहर के चार वरिष्ठ नागरिकों ने न्यायलय से ईच्छा मृत्यु के लिए आवेदन किया था। तब बुजुर्गों की दुर्दशा के ऊपर सवाल उठे थे।
कई महान हस्तियों ने स्वीकार किया है " एक वक्त ऐसा भी आया कि उन्हें आत्महत्या के अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन किसी अंतःप्रेरणा से वे इसे टाल गए। कन्नड़ के महान लेखक "भैरप्पा" ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्हें किशोरावस्था में गाड़ी के नीचे आकर आत्महत्या करने का विचार आया;, लेकिन रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करते हुए नींद आ गई और इसी के साथ उनका यह घातक विचार भी सदा सदा के लिए सो गया। आत्मबल और मनोबल से तनाव पर विजय पाई जा सकती है ;, क्योंकि अवसाद चाहे कितना भी ताकतवर क्यों न हो ज्यादा देर तक टिक नहीं सकता। पहले संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों का भावनात्मक सहयोग होता था।
देखने में आया है कि पढेलिखे;, महत्वाकांक्षी या अति संवेदनशील लोग आत्महत्या करते हैं। और वे मानसिक आवेग की तेजी को झेल नहीं पाते। हम सब को पता है कि सोचने और समझने की क्षमता आदमी को जानवर से अलग करती है। और सार्त्र का कथन है "मनुष्य और पशु में यही फर्क है कि मनुष्य आत्महत्या कर सकता है;, पशु नहीं। बड़े लेखक और कलाकार जैसे नीरो ;, वर्जीनिया वुल्फ ;, हेंमिग्वे ;,मायकोवस्की ;,स्टीफन ज्विग ;,वानगाग और मर्लिन मनरो ने खुद को समाप्त कर लिया था। अभिनेत्री जोहरा सहगल के प्रतिभासंपन्न पति ' कमलेश्वर सहगल ' ने मौत को गले लगा लिया था। गुरुदत ने मौत की आगोश में जाने के लिए अल्कोहल में नींद की गोलियां मिला कर पी डाली। कहते हैं इससे पहले भी एकदो बार उन्होंने आत्महत्या की कोशिश की थी। धर्मवीर व अमर अकबर एंथोनी जैसी सुपरहिट फिल्मों के निर्मातानिर्देशक 'मनमोहन देसाई' के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने घर में ही कूद कर जान दे दी थी। सुन्दर अभिनेत्रियों जैसे कुलजीत रंधावा व उसकी मित्र जोजफ ने फांसी से लटक कर अपना जीवन समाप्त कर लिया। ये दोनों सुशिक्षित ;, स्वनिर्भर व अच्छे परिवारो से थीं। अभी हाल ही में 25 साल की अभिनेत्री ' जिया खान' ने फांसी लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर दी;, वह भी अवसाद का शिकार हो गई थी। केरल में साक्षरता व आर्थिक स्वावलंबन की दर भारत में सबसे अघिक है पर आत्महत्या की दर भी वहां सर्वाघिक है। अत्यघिक पढ़ने " लिखने पर जब अपेक्षा अनुरुप रोजगार न मिले तो व्यक्ति आत्महत्या करता है। कुछ सालों से अपना किसान वर्ग आत्महत्या करने लगा है;, यह भी चिंता का विषय है।
आज नौजवानों को सफलता हासिल करने के लिए सालों का इंतजार अच्छा नहीं लगता। अमीर बनने के लिए जरुरी साधना करने के लिए उनके पास वक्त नहीं है। सब से तेज भागने वाली कार या बाईक उसकी पहली पसंद बनती जा रही है। सहनशक्ति तो इतनी शून्य हो गई है कि जरा सा कोई रोक टोक दे तो मरने मारने पर उतारु हो जाते हैं। तेज संगीत चाहिए ;, तेज रोशनी चाहिए ;, तेज चलने वाली गाड़ियां चाहिए तो क्या इन्हें सफलता तेज नहीं चाहिए<† उनके लिए 'करत करत अभ्यास' वाला सिंद्धात पिछले जमाने की चीज है ;,उन्हें तो बटन दबाते ही काम हो जाने वाली लत लग गई है। क्षण भर की देरी इनमें कुंठा पैदा कर देती है। गला काट होड़ ने उन्हें ऐसी मानसिकता प्रदान की है कि मनमाफिक परिणाम न आएं तो मार डालो अपने आप को। यह एक कडवी सच्चाई है कि जितनी हम उन्नति कर रहे हैं उसी अनुपात में आत्महत्याएं बढ़ रही है। इस प्रवृति को रोका जाना चाहिए। कहीं आने वाले वक्त में यह न कहने लगें कि वह कई दिनों से "असफल" था इसलिए दुनिया छोड़ कर चला गया। जैसे आज हम कह देते हैं अमुक व्यक्ति कई दिनों से बीमार था इसलिए स्वर्ग सिधार गया। यदि परिवार का कोई सदस्य खासकर किशोर व युवा ;, कई दिनों से गुमसुम दिखे या अकेले रहने में ज्यादा रुचि दिखाए तो उसकी उपेक्षा न करे। उसके व्यवहार में अचानक आए परिवर्तन को हरगिज नजरअंदाज न करे। धैर्य और समझदारी से उस पर बराबर नजर रखें। सामाजिक संस्थाओं तथा प्रशासन की ओर से जिस तरह नशामुक्ति ;, ऍडस या रक्तदान आदि के शिविर लगाए जाते हैं ;, ऐसे ही ' मानसिक स्वास्थय ' को प्रमुखता से केन्द्र में रखते हुए शिविर लगाए जाने चाहिए। और इनमें भी युवा व छात्र वर्ग का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। गंभीरतापूर्वक यदि ऐसे संयुक्त प्रयास किए जाएं तो काफी हद तक बढ़ती हुई आत्महत्याओं पर काबू पाया जा सकता है।
जब तक जीवन है किसी न किसी प्रकार संघर्ष रहेगा। मनुष्य ही नहीं ;,पृथ्वी पर हर जीव जीने के लिए जद्दोजहद्द करता है। बिना आंखों वाली च्यूंटी;, भीमकाय हाथी ;,सब संघर्ष कर रहे हैं।जब तक सांस है पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। समस्याओं से मुंह मोड़ना कायरता है। जब अवसाद की घनी घटा आप को ढक ले तो सूर्य की भांति धैर्य से प्रतीक्षा करें। काली घटा कितने समय तक आसमान को ढक सकती है<† उसे जाना पड़ता है। इंसान संघर्ष से तप कर;, निखर कर सामने आता है। नोबल पुरस्कार से सम्मानित कवि रंविद्रनाथ टैगोर जब जर्जर हालत में थे तो उन्होने एक कविता में अपने मनोभाव इस तरह व्यक्त किए हैं;,"इस सुन्दर सृष्ति से विदा लेकर मैं मरना नहीं चाहता;, मानवों के बीच रहते हुए मैं और जीना चाहता हूं।" मशहूर गजलकार व पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने भी कहा है कि कोई भी मुसीबत हमेशा के लिए नहीं होती। तो क्यों हम इस मूल्यवान् जीवन का अंत करें<†
"दोस्त " फिल्म के एक खूबसूरत गीत की पंक्तियां हैं;,
"गाड़ी का नाम न कर बदनाम ;,
पटरी पे रख के सर को ;,
हिम्मत न हार ;,
कर इंतजार;,
आ लौट जाएं घर को।
ये रात जा रही है ;,
वो सुबह आ रही है ;,
गाड़ी बुला रही है ;,
सीटी बजा रही है। "
" " "
हरदेव कृष्ण ;, ग्राम व डाकखाना "मल्लाह" 134102; (हरियाणा;)
बेहद अच्छा आलेख है।
जवाब देंहटाएंइस लेख को केवल अच्छा कहकर किनारे नहीं किया जा सकता. मनोविज्ञानी इसका अपना हल ढूँढ़ते हैं. डॉ अपना हल डूँड़ते हैं. समाजसेवी अपना हल डूँड़ते हैं. लेकिन बाजवक्त अखबारों में पड़ने को मिल जाता है कि ये भी आत्महत्या को वरण करने में पीछे नहीं रहते. सार्त्र बहुत कुछ के साथ यह भी कहते हैं कि ''the other is hell''. उद्विग्न दिमाग को यह सिद्धांत कौन सा हल देगा. ओशो कहते हैं ''the other is not hell, the otherness is hell.'' आप खुद ही सोचें यह वाक्य अगर उद्विग्न मन में गहरे उतरे तो उसपर क्या प्रभाव पड़ेगा. आज सारे हिंदी साहित्यकार पश्चिमाभिमुखी हैं. ये जो लिखते हैं उससे पाठकों में संवेदना और हृदयस्पर्शिता का संचार होता भी है या नहीं. हिंदी कविताओं में जातीय संवेग का कितना गुंथन मिलता है पाठक को. ये तनावग्रस्त जिंदगी को अवश्य अभिव्यक्ति देते हैं पर उनके तनावों को दूर करने में कितना समर्थ होते हैं. हिंदी कविताओं में रगात्मक आवेग अगर हैं भी तो केवल विचार के स्तर पर. हृदय के तार उससे जुड़ते नहीं. क्या हिंदी कविताओं के ये असंवेद्य और रसहीन स्वर इन हत्याओं को भड़काने में सहयोगी नहीं हैं.
जवाब देंहटाएंHarden krishna ji ye vivechana karte hain ki log atmahatya kyon karte hain ve un paristhitiyo aur vicharon par vichar karten hain jo atmahatya ko prerit karti hain aur unse bachne aur uba peedhi ko bachane ke upayon par charcha karte hain uttam lekh hai hum sabko is vishay me soochan hoga
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