पशुपति से तिरुपति तक बहती लाल धारा प्रमोद भार्गव विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्...
पशुपति से तिरुपति तक बहती लाल धारा
प्रमोद भार्गव
विषमता और शोषण से जुड़ी भूमण्डलीय आर्थिक उदारवादी नीतियों को जबरन अमल में लाने की प्रक्रिया ने देश में एक बड़े लाल गलियारे का निर्माण कर दिया है, जो पशुपति (नेपाल) से तिरुपति (आंध्रप्रदेश) तक जाता है। इन उग्र चरमपंथियों ने पहले पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता-कार्यकर्ताओं को चुन-चुनकर मारा और अब ऐसी ही घटना को अंजाम दरभा में कांग्रेसी नेताओं को मारकर दिया है। जाहिर है इन नक्सलियों का विश्वास किसी ऐसे मतवाद में नहीं रह गया है, जो बातचीत के जरिए समस्या को समाधान तक ले जाएं। भारतीय राष्ट-राज्य की संवैधानिक व्यवस्था को यह गंभीर चुनौती है। इस घटना को केवल लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला कहकर दरकिनार नहीं कर सकते ? जिन लोगों का भारतीय संविधान और कानून से विश्वास पहले ही उठ गया है, उनसे लोकतांत्रिक मूल्यों के सम्मान की उम्मीद व्यर्थ है। अब इस समस्या के हल के लिए क्षेत्रीय संकीर्णता से उबरकर केंद्रीकृत राष्टवादी दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है।
पशुपति से लेकर जो वाम चरमपंथ तिरुपति तक पसरा है, उसने नेपाल झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट और आंध्रप्रदेश के एक ऐसे बड़े हिस्से को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, जो बेशकीमती जंगलों और खनिजों से भरे पड़े हैं। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला में लौह अयस्क के उत्खनन से हुई यह शुरुआत ओड़ीसा की नियमगिरी पहाडि़यों में मौजूद बॉक्साइट के खनन तक पहुंच गई है। यहां आदिवासियों की जमीनें वेदांता समूह ने अवैध हथकंडे अपनाकर जिस तरीके से छीनी हैं, उसे गैरकानूनी खुद देश की सबसे बड़ी अदालत ने माना है। शोषण और बेदखली के ये उपाय लाल गलियारे को प्रशस्त करने वाले हैं। यदि अदालत भी इन आदिवासियों के साथ न्याय नहीं करती तो इनमें से कई उग्र चरमपंथ का रुख कर सकते थे ? सर्वोच्च न्यायालय का यह एक ऐसा फैसला है, जिसे मिसाल मानकर केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे उपाय कर सकती हैं, जो चरमपंथ को आगे बढ़ने से रोकने वाले हों। लेकिन तात्कालिन हित साधने की राजनीति के चलते ऐसा हो नहीं रहा है। राज्य सरकारें केवल इतना चाहती हैं कि उनका राज्य नक्सली हमले से बचा रहे। छत्तीसगढ़ इस नजरिए से और भी ज्यादा दलगत हित साधने वाला राज्य है। क्योंकि भाजपा के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते है। मुख्यमंत्री रमन सिंह के नरम रुख का ही कारण है कि भाजपा के किसी विधयक या बड़े राजनेता पर नक्सली हमला नहीं होता। जबकि दूसरी तरफ नक्सलियों ने कांग्रेस का कमोबेश सफाया कर दिया है। यह ठीक है कि कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 205 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े हुए थे। नतीजतन नक्सलियों की महेन्द्र कर्मा से नाराजी एक स्वाभाविक प्रक्रिया थी। लेकिन कांग्रेस के हरिप्रसाद समेत अन्य नेता इस समस्या का हल सैन्य शक्ति के बजाय बातचीत से ही खोजने की वकालात कर रहे थे। मारे गए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और घायलवस्था में मृत्यु से जुझ रहे विद्याचरण शुक्ल इसी पक्ष के हिमायती थे। लेकिन पटेल और उनके बेटे की हत्या के बाद नक्सलियों ने तांडव नृत्य करके जिस तरह से जश्न मनाया, उससे तो यही अर्थ निकलता है कि इन्हें समझा-बुझाकर मुख्यधारा में लाना नामुमकिन है। जाहिर है, इनसे न केवल सख्ती से निपटने की जरुरत है, बल्कि सुफिया एजेंसियों को भी सतर्क करने की जरुरत है। क्योंकि इस हमले के मद्देनजर केंद्र और राज्य सरकारों की जासूसी संस्थाएं सौ फीसदी नाकाम रही हैं। ऐसे में इनके औचित्य पर भी सवाल खड़ा होता है ?
सुनियोजित दरभा हत्याकांड के बाद जो जानकारियां सामने आई हैं, उनसे खुलासा हुआ है कि नक्सलियों के पास आधुनिक तकनीक से समृद्ध खतरनाक हथियार हैं। इनमें रॉकेट लांचर, इंसास, हेंडग्रेनेड, ऐके-56 एसएलआर और एके-47 जैसे घातक हथियार शामिल हैं। साथ ही आरडीएक्स जैसे विस्फोटक हैं। लैपटॉप, वॉकी-टॉकी, आईपॉड जैसे संचार के संसाधन है। साथ ही वे भलीभांति अंग्रेजी भी जानते हैं। तय है, ये हथियार न तो नक्सली बनाते हैं और न ही नक्सली क्षेत्रों में इनके कारखाने हैं। जाहिर है, ये सभी हथियार नगरीय क्षेत्रों से पहुंचाए जाते हैं। हालांकि खबरें तो यहां तक हैं कि पाकिस्तान और चीन माओवाद को बढ़ावा देने की दृष्टि से हथियार पंहुचाने की पूरी एक श्रृंखला बनाए हुए हैं। चीन ने नेपाल को माओवाद का गढ़ ऐसे ही सुनियोजित षड्यंत्र रचकर वहां के हिंदू राष्ट की अवधारणा को ध्वस्त किया। नेपाल के पशुपति से तिरुपति तक इसी तर्ज के माओवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है। हमारी खुफिया एजेंसियां नगरों से चलने वाले हथियारों की सप्लाई चैन का भी पर्दाफाश करने में कमोबेश नाकाम रही हैं। यदि ये एजेंसियां इस चैन की ही नाकेबंदी करने में कामयाब हो जाती हैं तो एक हद तक नक्सली बनाम माओवाद पर लगाम लग सकती है।
इस जघन्य हत्याकांड के बाद रक्षा मंत्री का यह बयान आना दुर्भाग्यपूर्ण है कि माओवादियों से निपटने के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं किया जायेगा। जब किसी भी किस्म का चरमपंथ राष्ट-राज्य की परिकल्पना को चुनौती बन जाए तो जरुरी हो जाता है, कि उसे नेस्तानाबूद करने के लिए जो भी कारगर उपाय जरुरी हों, उनका उपयोग किया जाए ? इस सिलसिले में खासतौर से केंद्र सरकार को सबक लेने की जरुरत इंदिरा गांधी और पी वी नरसिम्हा राव से है, जिन्होंने पंजाब और जम्मू-कश्मीर के उग्रवाद को खत्म करने के लिए सेना का साथ लिया, उसी तर्ज पर माओवाद से निपटने के लिए अब सेना की जरुरत अनुभव होने लगी है। क्योंकि माओवादियों के सशस्त्र एक-एक हजार के जत्थों से राज्य पुलिस व अर्ध सैनिक बल मुकाबला नहीं कर सकते। धोखे से किए जाने वाले हमलों के बरक्श एकाएक मोर्चा संभालना और भी मुश्किल है। माओवाद प्रभावित राज्य सरकारों को संकीर्ण मानसकिता से उपर उठकर खुद सेना तैनाती की मांग केंद्र से करने की जरुरत है। देश में सशस्त्र 10 हजार तांडवी माओवादियों से सेना ही निपट सकती है। वैसे भी बस्तर क्षेत्र में परिवर्तन यात्राओं के जरिये राजनीतिक प्रक्रिया को पुनर्जीवन देने का जो काम कांग्रेस कर रही थी, उन मंसूबों को खुद माओवादियों ने ही इकतरफा हिंसा से नेस्तनाबूद कर दिया है। लिहाजा अब इस समस्या का हल कड़े उपायों से ही संभव है। अन्यथा लाल गलियारा फैलता रहेगा।
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प्रमोद भार्गव
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लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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