लाल बहादुर बैग “सुनिये।” गीता कमरे में आयी, पायताने चारपाई पर बैठ गयी। राजेन्द्र जगा हुआ था। अमूमन वह पांच बजे तक सोकर उठ जाता है। अब तक व...
लाल बहादुर
बैग
“सुनिये।” गीता कमरे में आयी, पायताने चारपाई पर बैठ गयी।
राजेन्द्र जगा हुआ था। अमूमन वह पांच बजे तक सोकर उठ जाता है। अब तक वह शौच वगैरह से निवृत्त हो चुका होता, पर अभी तक उठा नहीं था। बारिश थमने का इंतजार कर रहा था। कल सुबह से ही रह-रह कर बारिश हो रही थी। पूरे सीजन भर ऐसी बारिश नहीं हुई रही होगी, वरना फसल कमजोर नहीं होती। कहीं-कहीं तो फसल पूरी तरह सूख गयी थी। पैदावार चौथाई भी होने की गुंजाइश कम थी। काफी किल्लत झेलनी होगी इस साल। सूखा क्षेत्र घोषित करने की मांग चल रही थी। इससे हो सकता है कि वसूली कुछ दिन के लिए टल जाय या माफ ही कर दी जाय। एक हफ्ता पहले डी.एम. कार्यालय पर धरना, प्रदर्शन हुआ था। राजेन्द्र भी था। ज्ञापन दिया गया था। मगर सरकार की तरफ से अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया था। वह यही सब सोच रहा था।
गीता चारपाई पर बैठ गयी। राजेन्द्र करवट बदल कर उसकी तरफ देखने लगा। बहुत सुन्दर लग रही थी वह। नहा चुकी थी। एकदम नयी साड़ी उसने पहन रखी थी, जिसे राजेन्द्र ने मुम्बई से चलते वक्त लोकमान्य तिलक टर्मिनल के पास से खरीदा था। वह धीरे से बोली-
“परसों जा रहे है आप!”
राजेन्द्र को अजीब-सा लगा। यह तो घर के सभी लोग जानते हैं। जाना बिलकुल तय है। फिर क्यों वह यह कह रही है। बहुत गौर से राजेन्द्र गीता को देख रहा था।
“दस-पांच दिन और रुक जाते तो अच्छा रहता।” वह रुक-रुक कर कह रही थी- “चले जायेंगे, घर एकदम सूना हो जायेगा।”
राजेन्द्र के मुंह से कोई बात नहीं निकली।
गीता चली गयी थी। सुनसान हो गया चारों तरफ।
दो साल पहले जब वह जा रहा था तब किसी ने कुछ नहीं कहा था। घर मेंसभी को मालूम था कि राजेन्द्र नसीम, नन्दू, सरोज वगैरह के साथ मुम्बई जा रहा है। दस-बारह दिन पहले प्रोग्राम बन गया था, तब किसी ने नहीं कहा था कि कयों जा रहे हो। कोई कुछ बोलता नहीं था। इस मुद्दे पर चर्चा तक नहीं करता था। अम्मा-बाबू जी तो जैसे चाहते थे कि जाय, कुछ कमाये। गीता की मौन सहमति थी। वह भी कुछ बोलती नहीं थीं। छोटी बहन, छोटा भाई सब चुप थे।
जाने का प्रोग्राम तो उसने बना लिया था। पर जब जाना निश्चित हो गया था तो वह पछता रहा था। उसके ननिहाल में नूर मुहम्मद नाम का लड़का था। 20-22 साल का था वह। उसके घर की माली हालत ठीक नहीं थी। घर में हमेशा। लड़ाई-झगड़े होते रहते थे। नूर इससे बेफिक्र रहता था। राजेन्द्र तब नौ-दस साल का रहा होगा। बचपन में वह अक्सर गर्मियों में अम्मा के साथ ननिहाल जाया करता था। नूर राजेन्द्र को साइकिल पर बैठाकर खूब घुमाता था। राजेन्द्र ने उसी की साइकिल से साइकिल चलानी सीखी थी। नूर कुछ लड़कों के साथ मुम्बई चला गया था। बता कर गया था कि कमाने जा रहा है। दो-तीन, चार-पांच साल गुजर गये। उसका कुछ पता नहीं चला था। कुछ लोग कहते थे कि किसी ने उसे चलती टे्रन से ढकेल दिया था, कुछ कहते थे कि उसने खुद अपनी जान दे दी थी। कुछ लोग यह भी कहते थे कि वह कम्पनी के मैंनेजर से झगड़ बैठा था। मैनेजन ने उसे जिन्दा दफन करवा दिया था। राजेन्द्र जब ननिहाल जाता था तो उसे नूर जरूर याद आता था। तब वह सोचता था कि लोग क्यों घर-द्वार छोड़कर उतनी दूर जाते हैं। क्या यहाँ नहीं कुछ कर सकते। यहाँ क्या काम की कमी है!
राजेन्द्र विचलित हो जाता था। कभी सोचता था कि जाय, कभी सोचता था कि अगर कोई कह दे कि न जाओ तो नहीं जायेगा, भले जाने का प्रोग्राम बन गया था, टिकट आ गया था। सब रद्द कर देगा वह। पर, कोई कुछ कहता नहीं था, रात में वह काफी देर तक सोचता रहता था। जाना तो है ही। काम क्या मिलेगा, कर पायेगा या नहीं। कैसे करेगा। कभी बीमार हुआ तो कौन पूछेगा वहां। देर तक उसे नींद नहीं आती थी।
वह भी किसी से कुछ नहीं कहता था। कभी-कभी उसे यह जरूर लगता था कि हो सकता है जब एक-दो दिन रह जाय तो लोग रोकें- कहां जा रहे हो, मत जाओ। मगर किसी ने कुछ नहीं कहा था। जाते वक्त वह काफी उद्विग्न था। रुलाई आ जाती थी। बस में चढ़ते समय भय व घबराहट के बावजूद आंखों में आंसू भर आये थे। सभी ने देखा भी था। ट्रेन में बैठा तो फफक कर रो पड़ा था।
एक-एक क्षण उसे याद आ रहा था। (अक्सर याद आ जाता था। आंखें गड़ने लगती थी) बिस्तर से उठकर वह ओसारे में गया। बारिश हो रही थी। अम्मा-बाबूजी ओसारे में चौकी पर बैठकर इतमिनान से चाय पी रहे थे। राजेन्द्र को अच्छा लगा। वह चौकी पर बैठ गया।
“सुधा!” अम्मा ने पुकारा। राजेन्द्र की छोटी बहन है।
“भइया के लिए चाय ले आ।”
राजेन्द्र प्रायः बिना फ्रेश हुए कुछ खाता-पीता नहीं है। पहले भी नहीं खाता-पीता था, फ्रेश होने के बाद 10-11 बजे सीधे खाना खाता था। अब उसकी आदत बदल गयी है। फ्रेश होने के बाद पहले वह पेट भर कुछ खाता है, तब चाय पीता है।
सुधा चाय और कटोरे में चना रख गयी। राजेन्द्र चाय पीने लगा। उसे याद नहीं कि कभी उसने इस तरह अम्मा-बाबूजी के साथ चाय पिया हो। चाय हमेशा बनती भी नहीं थी। जाड़े में ही कभी-कभार सुबह बन जाती थी। बाबूजी को जाड़े में बहुत खांसी आती है। इस्नोफीलिया है उन्हें। तुलसी की पत्ती डालकर एक-दो हफ्ता चाय पी लेते हैं तो कुछ राहत हो जाती है। इसके बाद फिर कुछ दिन तक चाय नहीं बनती। बाबूजी को चाय बहुत पसन्द भी है। दिन भर में अगर 4-5 कप मिल जाय तो भी पी जाते हैं।
राजेन्द्र ने मुम्बई से जब पहली दफा पैसा भेजा था, तो मनिआर्डर फार्म के सन्देश के कॉलम में यह लिखा था- ‘बाबूजी आप चाय पीजिएगा। चाय की पत्ती, चीनी मंगवा लीजिएगा। दूध की भी व्यवस्था कर लीजिएगा। कोताही मत करियेगा। ठीक से रहिएगा।' यह लिखते वक्त उसे बहुत सुखद लग रहा था। बाबूजी का चेहरा छाया रहा। उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी। घर का पूरा ख्याल रख लेंगे।
15 हजार रूपये उसने भेजे थे। इनसे बाबूजी कुछ जरूरतों को पूरा कर लेंगे। दाल, तेल हो जायेगा। इन्हीं की कमी रहती है ज्यादा। अम्मा गठिया की रोगी हैं। आयुर्वेद की दवा से उन्हें कुछ फायदा होता है। वह भी काफी दिनों से बन्द है। दवा आ जायेगी। अम्मा ठीक से चलने-फिरने लगेंगी। घर में किसी के पास कायदे का विस्तर नहीं है। दरी पर सोते हैं सब। मच्छरदानी तक नहीं है। इतने में कुछ तो हो जायेगा। छः-सात महीने बाद फिर भेजेगा। चालीस हजार रूपये अभी कर्ज है बैंक का। वह कैसे चुकता होगा। ब्याज बढ़ रहा होगा। राजेन्द्र के माथे पर पसीना छल-छला गया था। अक्सर ऐसा होता।
इतने पैसे उसने छः महीने में बचाये थे। वह रोज बारह घण्टे काम करता था, खड़े-खड़े। सुबह 8 बजे से शाम 8 बजे तक। 12 घण्टे काम करने पर 180 रूपये मजदूरी और 8 घण्टे पर 120 रूपये। राजेन्द्र को यकीन हीं नहीं हुआ था, इतनी कम मजदूरी। इतने ही पैसे के लिए लोग घर-द्वार छोड़कर आते हैं यहां। इतने में कया खायेगा, क्या बचायेगा। शुरू में 8-10 दिनों तक उसने 8 ही घण्टे काम किया था। वह थक जाता था। इससे ज्यादा काम नहीं कर पाता था। 120 रूपये मिलते थे। 50-60 ही रूपये बच पाते थे। अगर वह साल भर रगड़ता तो 20-21 हजार से ज्यादा नहीं बचा पाता। इतने से क्या होता। फिर वह भी सभी की तरह 12 घण्टे काम करने लगा।
राजेन्द्र, नन्दू सरोज एक साथ खाना बनाते थे। ज्यादातर रोटी, सब्जी। दाल बहुत कम बनती थी, तब सब्जी नहीं बनती थी। चावल कभी-कभार ही बनता था। मंहगा पड़ता था, पेट भी नहीं भरता था ठीक से। सब्जी आलू की ही ज्यादातर बनती थी- आलू, प्याज, टमाटर या कभी अन्य कोई सब्जी पड़ जाती थी। ध्यान रखा जाता था कि खाने पर रोज 40 रूपये से ज्यादा खर्च न हो किसी का, क्योंकि इसके अलावा 15-20 रूपये का और खर्च था। इस तरह 50-60 रूपये रोज का खर्च आंका गया। तभी 120-130 रूपये रोज की बचत हो पायेगी।
राजेन्द्र ठीक से खाना नहीं खा पाता था। आलू की सब्जी उसे जरा भी पसन्द नहीं है। आटा ऐसा होता कि रोटी दांत में खसर-खसर करती। वह कई दिनों तक ठीक से खाना नहीं खा पाया था। लोगों को देखता था कि कैसे वे खाते थे एकदम मस्त होकर। वह जान नहीं पाया था कि सरोज ने कैसे भांप लिया था। पूछा था उसने-
“लगता है, राजेन्द्र, तुम ठीक से खा नहीं पाते हो, है न?”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।” राजेन्द्र ने तत्काल सफाई दी थी।
“मेरे साथ भी ऐसा हुआ था, तब मैं कह रहा हूँ। धीरे-धीरे सब ठीक हो जायेगा।”
राजेन्द्र सोचता था कि क्या खसर-खसर करती रोटी ठीक लगने लगी। क्या किसी का पसन्द बदल जायेगा।
दो साल रहा वह मुम्बई में। एक स्टील कम्पनी है। वहां लोहा गलाकर तमाम साइजों के पाइप ढाले जाते हैं। नसीम, जयप्रकाश वहीं काम करते हैं। वे वहां पहले से काम कर रहे है। थोड़ी दूर पर एक और कम्पनी है, जहां पाइपों में चूड़ी कटिंग का काम होता है। चूड़ी कटिंग के कई प्लांट लगे हैं। कुद 60-70 मजदूर यहां काम करते हैं। हर प्लांट पर अलग-अलग मजदूर काम करते हैं। राजेन्द्र कोयहीं काम मिला था। उसे नन्दू के साथ लगाया गया था। नन्दू चूड़ी कटिंग का काम करता था। वह बहुत दिनों से यहां काम कर रहा है।
8बजे काम शुरू होता है। 5 बजे तक सोकर उठ जाना होता है। दो ही शौचालय हैं। काफी भीड़ हो जाती है। 7 बजे तक खाना बनाकर, नहा-धोकर तैयार हो जाना पड़ता है। कुछ खाकर 8 बजे के पहले पहुंच जाना होता है।
पहले दिन उसे सब काम समझा दिया गया था। एक जगह से पाइप उठाकर लाना औश्र उसे चूड़ी कटिंग प्लांट के पास रख देना। चूड़ी कटिंग कर दिये गये पाइप को फिर वहां से उठाकर दूसरी जगह रख देना।
उस दिन वह बहुत डरा हुआ था। उसने मुम्बई जाने का प्रोग्राम जब बनाया था तब उसकी सबसे ज्यादा यही चिन्ता थी कि काम कैसे करेगा। कोई छोटा-मोटा काम भी वह नहीं कर पायेगा। कितनी मेहनत करते हैं मजदूर! सुबह से लेकर शाम तक। पिचके हुए गाल, आंखें धंसी, मोटे, खुरदूरे हाथ । नहीं, उसके वश का नहीं है इस तरह काम करना। फिर क्या करें वह। कुछ नहीं था उसके आस-पास। न कोई ढांढस, न कोई उपाय।
उसकी चिन्ता डर बन गयी थी कि दिन भर काम करना होगा, वह कर नही पायेगा। कभी उसने नियोजित तरीके से दिन भर कोई काम नहीं किया था। छिटपुट कोई काम वह कर दिया करता था, बस। घर का, खेतीबारी का काम उसके बाबूजी, चाचा, बाबा करते थे। राजेन्द्र को खेतीबारी के कामों से ज्यादा मतलब नहीं रहा। वह स्कूल जाता था साइकिल से, फिर वापस। कोई काम नहीं करता था। कहीं से कोई चीज लानी हो, पहुंचानी हो या फिर कहीं आना-जाना हो तो यह काम वह मजे से कर देता था और कोई काम न वह करता था, न करने के लिए कोई कहता था। बाबा उस पर ध्यान रखते थे। पढ़ने के लिए कहते रहते थे। ‘पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब।' बाबा की यह बात राजेन्द्र को याद है। रात में वह बाबा के पास सोता था। वह खूब समझाते थे। वह नहीं चाहते थे कि जैसे वह खटते हैं, राजेन्द्र के बाबूजी, चाचा खटते हैं दिन-रात, तब कहीं दो जून की रोटी मिल पाती है, वह भी कपड़ा-लत्ता ठीक से मयस्सर नहीं होता, दवा-दारू के पैसे नहीं होते, किसी-किसी साल तो काफी परेशानी होती है, वही हाल राजेन्द्र का भी हो। वह चाहते थे कि राजेन्द्र पढ़कर कुछ बन जाय। जिन्दगी ठीक से गुजरेगी। आने वाली पीढ़ी सुधर जायेगी।
इण्टरमीडियट पास होने के बाद उसने नौगढ़ डिग्री कॉलेज में बी.ए. में एडमीशन लिया था। एक लड़के के साथ मिलकर क्वाटर लिया था। वहीं रहता था। पढ़ाई-लिखाई, कोर्स, किताब, बहसें, मौज-मस्ती होती थी। छुटि्टयों में या शनिवार को गांव आता था। यहां भी सिर्फ पढ़ाई या हम उम्र के साथ गपशप। कभी ऊब महसूस होती थी तो साइकिल लेकर यहां-वहां घूम आता थां उसकी इच्छा ही नहीं होती थी कोई काम करने की। पढ़ाई छोड़ दी। गांव में रहने लगा। तब भी उसने कोई काम नहीं किया।
राजेन्द्र सोचता है कि कितना अच्छा होता है, पढ़ना, गपशप करना और जिन्दगी जीना कितना कठिन।
वह पाइप उठाने जा रहा था तो इधर-उधर देख भी रहा था। कई मजदूर पाइप ले जा रहे थें उसने मजबूती से पाइप को पकड़ कर उठाया और उसे ले जाकर प्लांट के पास रख दिया। वहां से फिर पाइप उठाया और उसे दूसरी जगह रख दिया। वहां इतिहास की पाठ्य-पुस्तकों की न तो कोई घटना थी और न कविता का रहस्य। वहां पाइप था और उसे ले जाकर रखना था। बदले में जिन्दगी बचाने के लिए मजदूरी।
वह शाम को थक जाता था। खाना खाकर सोने जाता था। नींद नहीं आती थी जल्दी। (काफी दिनों तक ठीक से नींद नहीं आयी थी) आंखें खुली रहती थीं।
वह बी.ए. पास है इतिहास और हिन्दी विषय से। भारत का, दुनिया के कुछ देशों का थोड़ा-बहुत इतिहास उसने पढ़ा है। गुलाम बनते और आजाद होते भारत के इतिहास को पढ़ा है। पाठ्यक्रमों में शामिल नामी-गिरामी रचनाकारों की रचनाओं को पढ़ा है। गांव में उसके तीन-चार सहपाठी हैं। एक ने तो उसके साथ ही बी.ए. किया है। दो लोग साइंस के विद्यार्थी थे। राजेन्द्र को साइंस, गणित विषय में रुचि नहीं थी। उनके सूत्र पल्ले नहीं पड़ते थें किसी तरह उसने हाई स्कूल पास किया था द्वितीय श्रेणी में। बहुत खुश हुआ था कि गणित, साइंस से पिण्ड छूट गया था। वे दोनों प्रथम श्रेणी में पास हुए थे। बी.एस.सी. करके उन्होंने बी.एड. के लिए बहुत कोशिश की ।स्ववित्त-पोषित महाविद्यालियों की 80 हजार से एक लाख तक की फीस उने बूते के बाहर थी। (अब वे गांव पर दूध का व्यवसाय करते हैं ओर ग्राम-प्रधानी के लिए जोर अजमा रहे हैं) राजेन्द्र की इस सब से अच्छी पटती थी। दिन भर साथ-साथ रहते थे। खूब गपशप होती थी उनसे। राजेन्द्र अक्सर इतिहास पर चर्चा करता था। उसे अच्छा लगता था।
तब उसे जरा भी आभास नहीं था कि मुम्बई में मजदूर बनकर जीवन-यापन करने की नौबत आयेगी।
पाइप लाते-ले जाते वह नन्दू को देखता रहता था। नन्दू इतमिनान से पाइप उठाता, चूड़ी कटिंग करता, फिर रख देता। उसकी एकाग्रता उसके चेहरे पर स्पष्ट जान पड़ती थी। नन्दू उसी के गांव का है। पढ़ाई-लिखाई से वंचित रहा। पहले भूमिहीन था वह। चकबन्दी के दौरान उसे बाबा को एक बीघा खेत मिला था। वह भी ताल में है। कुछ पैदा नहीं होता है। उसी समय ‘इन्दिरा आवास योजना' से उसके बाबा को एक कमरे का पक्का मकान मिला था। फर्श नहीं बना था, कच्चा है। हमेशा सीलन रहती है। नन्दू के माई-दादा उसी में रहते हैं। दादा को लकवा मार दिया है। कभी पूरे गांव में सबसे मजबूत कदकाठी के थे वह। मजदूरी करते थे। अब बाहर खटिये पर पड़े रहते हैं हमेशा। उसी मकान से सटे नन्दू ने अपनी कमाई से एक कमरे का बढ़िया पक्का मकान बनवाया है। पहले वह छप्पर का था। उसकी पत्नी और बच्चे उसी में सोते हैं। यहीं खाना भी बनता है। बड़ा लड़का 15-16 साल का है। वह प्राइवेट बस वाले के यहां काम करता है। सवारी बैठाता-उतारता है। बहुत कम पैसा पाता है। नन्दू साल में एक बार गांव आता है। कपड़े वैगरह ले आता है। पैसा भेजता रहता है। घर का खर्च उसी के पैसे से चलता है। वह लड़के के लिए ऑटो-रिक्शा खरीदना चाहता है। काफी दिनों से वह पैसा बचा राह है लेकिन खर्च हो जाता है।
नन्दू को देखकर राजेन्द्र के जी में आता था कि वह भी चूड़ी कटिंग का काम कर सकता है। रात में खाना खाते समय पूछा-
“नन्दू, मैं चूड़ी कटिंग का काम कर सकता हूँ?”
“बिलकुल! कोई कर सकता है।”
“कल से करूं?”
“करो, क्या हर्ज है।”
सुबह चूड़ी कटिंग का काम शुरू करना था। वह सहमा हुआ था। पता नहीं कर पायेगा या नहीं। कहीं पाइप न फट जाय। सुपरवाइजर डांटेगा। पैसा काट सकता है। बहुत नियंत्रित हाकर उसने पाइप उठाया, मुख पर रखा और बटन दबा दिया। चूड़ी कट गयी। कोई दिक्कत नहीं। बहुत हल्का महसूस किया था उसने।तब से वह चुड़ी कटिंग का काम करने लगा।
बहुत मजा आता था उसे, चूड़ी कटिंग करता था तो। खूबसूरत तमाम साइजों के पाइप, मशीनें, काम करते लोग। अच्छा लगता था। दिन भर काम करता था। पता ही नहीं चलता था कि कब समय बीत गया। खाना मिल-जुलकर बनाते थें सरोज के पास वहीं से खरीदा ट्रांजिस्टर है। वह एफ.एम. चैनल लगा देता था। अच्छे-अच्छे गीत आते थे। खाना बनता रहता था, गीत चलता रहता था। खाने के बाद तक चलता रहता। राजेन्द्र पता नहीं कब सो जाता था। फिर सुबह 4-5 बजे ही आंख खुलती।
बंदी के दिन अक्सर वे राजेन्द्र से कहीं घूमने चलने के लिए कहते थे। दिमाग फ्रेश हो जायेगा मुम्बई कुछ घूम आ जायेगा। माया नगरी है मुम्बई। सरोज, नन्दू तो पहले से रह रहे थें वे कुछ न कुछ घूमे थे। राजेन्द्र कहीं नहीं गया था। उसकी इच्छा भी नहीं होती थी कही आने-जाने की। ‘इस बंदी को कहीं चला जाय।' नन्दू ने कई बार कहा था। राजेन्द्र अनसुना कर देता था। फालतू खर्च होगा।
“पैसा कितना खर्च होगा।” राजेन्द्र ने पूछा तो वे दोनों हंस पड़े थे।
“बहुत कम मिलता है न। इसलिए कह रहा था।” राजेन्द्र ने समस्या रखी।
“इतना ही सब जगह मिलता है भाई।” सरोज बोला था
“बढ़ना चाहिए।”
“पहले बढ़ जाता था। कहा जाता था, कुछ हल्ला-गुल्ला होता था तो सेठ 10-15 रूपये जरूर बढ़ा देता था। अब नहीं। 4 साल हो गये। सेठ बोलता है - पगार नहीं बढ़ेगी काम करना हो तो करो, नहीं तो छोड़ कर जाओ।”
सरोज कह रहा था। उसे चेहरे की खुशी कम हो गयी थी- “और जानते हो, पहले यहां 100 लेबर काम करते थे। अब 60-70 से ही सब काम करवाता है।”
राजेन्द्र कुछ कहना चाह रहा था लेकिन चुप रहा। कोई कुछ नहीं बोला।
बंदी का दिन था। राजेन्द्र को सरोज, नन्दू घुमाने लिवा गये। लोकल ट्रेन से वे चर्चगेट पर उतरे। वहां से वे ‘गेट वे ऑफ इण्डिया' गये। दूर से दिखायी दे गया था। लोगों की अच्छी-खासी तादात थी। देशी-विदेशी तमाम किस्म के लोग थे हंसते, मौज-मस्ती करते, फोटो खींचते, खिंचवाते, इमारत को निहारते। अंग्रेज बादशाह के स्वागत में बनवाया गया भव्य ‘गेट वे ऑफ इण्डिया' समुद्र से बिल्कुल सटा। लोग उस पर लिखी इबारतों को पढ़ रहे थें गाइड विदेशियों को बता रहा था। वहां खड़ा राजेन्द्र समुद्र को देख रहा था।
“कैसे दीवार खड़ी की होगी मजदूरों ने। जरूर कई मजदूर मरे होंगे।” राजेन्द्र सरोज, नन्दू की ओर देख कर बोला था। पर शायद उन्होंने ध्यान नहीं दिया था। वे फोटोग्राफर से मोलभाव कर रहे थे। ‘होटल ताज' है बगल में। नन्दू ने दिखाया।
वे कई जगह ले गये राजेन्द्र को। राजेन्द्र बस में सिर घुमा-घुमा कर बहुमंजिला, विशाल बिल्डिंगों को देखता था। कई बिल्डिंगों में शीशे ही शीशे दिखायी दे रहे थे। अद्भुत लग रहे थे वे। फ्लाइओवर से गुजरता तो विशालता का और ज्यादा एहसास होता।
“राजेन्द्र यह मैरिनड्राइव है। कलेण्डरों में फोटो देखा होगा। अच्छा लगा न।”
“ये देखो राजेन्द्र, गाड़ियों का रेला। वह देखो कितनी आलीशान बिल्डिंग है।”
“वह देखो फाइव-स्टार होटल है।”
“राजेन्द्र, यह देखो कितनी ऊंची है बिल्डिंग। 20-25 मंजिला होगी। कितनी सुन्दर लग रही है।”
मजदूरों ने बनाया है यह सब। राजेन्द्र सोच रहा था, कैसे वे काम करते हैं। कैसे बनाते हैं इतनी ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें, सड़कें, पुल। वह कुछ बोला नहीं। पता नहीं क्या सोचेंगे वे।
6 बजे तक वे जुहू बीच पहुंचे। बालू का मैदान। सामने फैला समुद्र और उसकी उठतीं लहरें। अत्यन्त भीड़। भीड़ बढ़ती जा रही थी। कई स्त्री, पुरूष एक दूसरे की कमर में हाथ डाले मस्ती से घूम रहे थे।
दिन डूब गया था। अंधेरा हो रहा था। वे रेत पर टहल रहे थे।
“राजेन्द्र, दाहिनी तरफ देखते रहना।”
राजेन्द्र इशारा समझ गया। वह पहले से उधर देख रहा था। एक स्त्री रेत पर कुछ बिछा कर लेटी थी। पुरुष भी लेटा हुआ था। उसका सिर स्त्री की गोद में था। वे बात करते हंस रहे थे। कई जगह इसी तरह मौज-मस्ती करते लोग दिखायी दिये।
वे भी रेत पर एक जगह बैठ गये।
राजेन्द्र को गीता की याद आ रही थी। पता नहीं कैसे होगी। घर में अनाज-पानी होगा या नहीं। वह चला था तो एक बोरा चावल था और दो बोरे गेहूं। तीन बोरे गेहूं बेचे गये थे। कुछ पैसे हुए थे। वह लेकर चला आया था। कैसे चल रहा होगा घर का खर्च। पूरा सीजन अभी बचा है।
राजेन्द्र के अब खेत भी कम रह गये हैं। मात्र 5 बीघे खेत बचे है। पहले 10-11 बीघे थे। तब सब एक में थे। दादी-बाबा भी जिन्दा थे। बाबूजी, चाचा सब मिल कर खेती करते थे। पेट-परदा चल जाता था। और जरूरतें नहीं पूरी हो पाती थीं। राजेन्द्र बी.ए. में पढ़ रहा था। महीने में कुछ न कुछ पैसों की जरूरत पड़ती थी। जब भी मांगता था तो लोग टरका देते थे-‘किसी तरह काम चलाओ।'
खेती किसी तरह होती थी। बाबूजी ने बाबा के नाम से कर्ज लिया था। पम्पसेट, थ्रसेर खरीदा था। बहुत जरूरत थी। ये न होने से कभी-कभी बहुत नुकसान हो जाता था। उसी साल चाचा का एक्सीडेण्ट हो गया था। वह साइकिल से गांव आ रहे थे। मेन सड़क से गांव की तरफ मोड़ पर पुलिया से टकरा गये। हड्डी टूट गयी थी। ऑपरेशन हुआ था। एक महीना थे गोरखपुर। घर में जितना अनाज था, सब बेच दिया गया था। तब जाकर इलाज हुआ था। उस साल बहुत दिक्कत हुई थी। खाद तक के पैसे नहीं थे।
उसी साल उसके बाब मर गये। अम्मा चाची से तकरार और बढ़ गयी। राजेन्द्र की अम्मा प्रायः चुप रहती थीं। चाची आक्रामक होती थीं। कहती थीं-
“अब ऐसे गाड़ी नहीं चलेगी। बंटवारा हो जाय। लोग अपना कमायें, खायें।”
चाची सोचती थीं कि उनके एक ही लड़का है। कम लोग, कम खर्च, ठीक से रहेंगी। चाचा भी भुनभुनाते थे। मौका पाकर सुनाते थे-
“आखिर सारा पैसा कहां चला जाता है!”
कर्ज चुकता नहीं हो पा रहा था। ब्याज बढ़ रहा था। बाबू जी चिन्तित रहते थे। चाचा की खुशामद करते थे। चाचा पर कोई असर नहीं था। उनकी एक ही रट थी-
“जेल जाने की नौबत आ रही है। किसी दिन बैंक आर.सी. काट देगा, तब पता चलेगा।”
बैंक का कर्ज चुकाने के लिए खेत बेचा गया। तब बंटवारा हुआ। पंपसेट, थ्रेसर बंट गये। घर, खेत सब बंट गये। घर के बीच में दीवार खड़ी कद दी गयी। पुराना खपडेल घर, कई साल से उसकी मरम्मत नहीं हुई थी, बरसात में कई जगह चूता था।
राजेन्द्र के घर की स्थिति काफी खराब हो गयी। उसकी पढ़ाई के लिए पैसे नहीं जुट पाते थे। खेती ठीक से नहीं हो पाती थी। बाबू जी ने बैंक से कुछ कर्ज लिये थे, ताकि खेती हो सके। खेती ही साधन है। ठीक से होगी, तभी पेट-परदा भी चलेगा। वह बहुत कोशिश करते थे, लेकिन घर का खच्र नहीं चल पाता था। कर्ज चुकाने के लिए पैसे नहीं बचते थे। सुधा की शादी करनी थी। राजेन्द्र लॉ में एडमीशन-टेस्ट के लिए अप्लाई करना चाहता था, लेकिन कर नहीं पाया। पढ़ाई छोड़ दी उसने। गांव पर रहने लगा।
सारा गांव उसे वीरान लगता था। कोई उससे बतियाता नहीं था। उसकी इच्छा होती थी कि लोग उससे बतियायें, गपशप करें। उसके साथी, सहपाठी भी बात करना नहीं चाहते थे। वे कतराकर निकल जाते थे। राजेन्द्र गांव से बाहर मेन सड़क पर चला जाता था। बहुत सारे परिचित लोग दिखायी देते। राजेन्द्र बहुत हसरत से उनकी तरफ देखता लेकिन किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं होता था। वह चाय या किसी दुकान पर बैठ जाता था। कभी टी.वी. पर क्रिकेट मैच का प्रसारण आता तो वह भी लोगों के साथ मैच देखता। लोग क्रिकेट पर तमाम कमेण्ट करते। राजेन्द्र भी कुछ कहता, लेकिन कोई उसकी तरफ ताकता भी नहीं था। वह लोगों की निगाह में गुम रहता था।
इस बीच वह बाप बन गया था। दो साल का हो गया था मुन्ना। वह अब राजेन्द्र को पापा कहने लगा था। वह जब पैदा हुआ था तो राजेन्द्र को हल्की-सी खुशी हुई थी, बाप बनने का संतोष भी हुआ था। घर में लोग उसे बाप की जिम्मेदारियों का पता भी था, पर निर्वाह करने का कोई साधन नहीं थाउसके पास। वह लाचार था। उसकी समझ में नहीं आता था कि क्या करे। खाना खाकर दिन-भर बाहर इधर-उधर घूमता था। घर पर रहने की उसकी इच्छा नहीं करती। अम्मा, बाबूजी, भाई, बहन सब उसे घूरते थें वह डर जाता था, जैसे उसने कोई गुनाह किया हो, अपराधी हो। बाबू जी अक्सर कहते थे-
“राजेन्द्र! जानते हो, तुम कितने दिन के हो गये? 26 साल पूरे 26 साल।”
राजेन्द्र चुप रहता था। वह किसी के सामने होने से बचता था। दिन भर या तो वह घर में रहता था या दिन भर घर से बाहर। वह हमेशा डरा रहता था। गीता से भी। उसके जी में आता था कि पूरे घर मेें आग लगा दे। सब भस्म हो जाय।
रात में उसे नींद नहीं आती थी। कभी इस करवट, कभी उस करवट। कैसे कमाये। क्या करे। किससे मांगे नौकरी। भट्ठे पर इर्ंट ढोये। नहीं! कुछ सूझता नहीं था। एक ही रास्ता उसे नजर आता- वह सल्फास खा ले, छुट्टी। लेकिन मुन्ना, गीता का क्या होगा। मुन्ना, गीता को भी खिला दे, फिर खुद खा ले।
साइकिल लेकर वह नौगढ़ चला गया। उसने सल्फास खरीदने के लिए ठान लिया था। वह दुकान पर कई बार गया। थोड़ी देर खड़ा रहता, फिर चल देता। दिन भर वह इधर-उधर भटकता रहा। रात हो गयी थी। वापस जाने की उसकी इच्छा नहीं हुई। वह स्टेशन पर पड़ा रहा बिना कुछ खाये-पीये। टे्रन आती, चली जाती। वह डर जाता था लगता था, टे्रन उसे रौंदते चली जायेगी।
सुबह उसने सल्फास खरीदा। लेकर चल दिया। उसने तय किया कि पहले मुन्ना, गीता को खिला देगा, फिर खुद खा लेगा। सब खत्म। उसे अपना पूरा शरीर कड़ा हो गया लग रहा था। कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। आंखों में कई बार आंसू भर आये थे। गांव की तरफ मुड़े तिराहे पर पहुंचकर उसने साइकिल चाय की एक दुकान के सामने खड़ी कर दी। पैदल चल दिया। सोच रहा था कि अगर मुन्ना, गीता को खिला दिया और खुद न खा पाया तो? उसकी सांस अटक गयी। उसे लग रहा था कि सिर की नसें फट जायेंगी। आंखों में न आंसू थे, न हाथ-पैर में दम जान पड़ रहा था। उसने सल्फास जेब से निकाल कर फेंक दिया वहीं से वह मुड़ गया। फिर तिराहे पर चला गया। चाय की दुकान पर नन्दू, सरोज, नसीम बगैरह बैठे थे। वे चाय पी रहे थे। कुछ दिन पहले वे मुम्बई से लौटे थे, फिर जाने का प्रोग्राम बना रहे थे। राजेन्द्र उनके पास बैठ गया। वहीं प्रोग्राम बना।
तब राजेन्द्र ने सोचा था कि सिर्फ एक बार जायेगा। उसके बाद स्थिति कुछ सुधर जायेगी। खेती-बारी होती रहेगी। कर्ज चुकता होता रहेगा। कोई चिन्ता नहीं रहेगी। फिर जाने की जरूरत नहीं होगी।
दो साल बाद वह मुम्बई से लौटा था। डेढ़-दो महीने गांव रहा। उसे जान पड़ रहा था कि फिर गये बिना काम नहीं चलेगा। अभी कुछ पैसे हैं काम चल रहा है। खत्म होते ही फिर वहीं हालत। बैंक का कर्ज अभी ज्यों का त्यों बरकरार है। बाबूजी को नोटिस मिल चुकी है। उसने फिर जाने का प्रोग्राम बना लिया था।
नन्दू, सरोज भी आये थे। राजेन्द्र और वे साथ जा रहे थे। कल के लिए गोरखपुर से मुम्बई का टिकट था। एक दिन पहले जाना था। कुल तीन दिन की यात्रा थी। गीता ने मठरी, तेल में छनी लिट्टी बना कर रख दी थी। भूजा, चना अलग से।
सभी का परिवार छोड़ने सड़क पर गया था। वहां बस मिलती। बस से नौगढ़। नौगढ़ से 1 बजे ट्रेन थी गोरखपुर के लिए। बस आयी। बस में नन्दू सरोज चढ़ रहे थे। राजेन्द्र मुन्ना को पुचकारने लगा। मुन्ना लगभग 5 साल का है, बोला-
“बैग ले आइएगा।”
राजेन्द्र को याद आया। मुन्ना ने राजेन्द्र से बैग के लिए कहा था। मुन्ना इधर कुछ दिनों से पढ़ना-लिखना सीख रहा है। सुधा ने उसे छोटे भाई की पुरानी किताब और कापी दे दी है। उसे जब मौका मिलता है तो वह मुन्ने को पढ़ाती भी है। मुन्ना अभी स्कूल नहीं जाता है। उसकी जब इच्छा करती है तो वह किताब के फोटो देखता है या कापी पर पेंसिल से लिखता है। उसे कुछ अक्षरों का ज्ञान हो गया है। लिख लेता है। उसे बैग चाहिए। वह अक्सर राजेन्द्र से बैग के लिए कहता था। राजेन्द्र भी कहता था-‘इस बार जब मुम्बई से आऊंगा लिए खूब बढ़िया बैग ले आऊंगा।'
मुन्ने को वह बात याद आ गयी थी।
राजेन्द्र ने उसे फिर पुचकारा-
“हाँ, ले आऊंगा। जरूर ले आऊंगा।”
बस हॉर्न दे रही थी। राजेन्द्र भी बस में चढ़ गया।
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यू.जी.सी. अनुभाग,
दी.द.उ. गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर
मो. 09415691687
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Ek vyakti jab gaon se shahar jata hai to vahi sab karta hai jo rajendra ne kiya isme khas kya tha aur kya shikshan thi. Bahut lambi yeh kahani choti bhi ho sakti thi
जवाब देंहटाएंDduniya bhar ki ek ubau kahani likh dali aur nam rakha bag. Jo ladke ne akhiri paragraph me manga kuch confusion raha hoga
जवाब देंहटाएंItne lambe lekhan ke bad kahani ka shirshak bag kuch samajh nahi aaya bag to aakhri paragraph me ladke ne manga tha fir pahile ki kahani ka kya prayojak
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