बसंत त्रिपाठी शब्द मझे मालूम है कि आप इस पर यकीन नहीं करेंगे । बात मामूली है भी नहीं। लेकिन यकीन करने के अलावा आपके पास कोई दूसरा रास्त...
बसंत त्रिपाठी
शब्द
मझे मालूम है कि आप इस पर यकीन नहीं करेंगे। बात मामूली है भी नहीं। लेकिन यकीन करने के अलावा आपके पास कोई दूसरा रास्ता है भी तो नहीं। आपको लगेगा कि मैंने कोई फैंटेसी गड़ी है। कोई जादुई कथा। दरअसल जादू के बारे में आपकी जो बनी बनाई धारणा है, यह उससे बहुत अलग है भी नहीं। एक अतीन्द्रिय अनुभव! और आप हर अतीन्द्रिय अनुभव को जादू या ईश्वर के खाते में डालकर हाथ झाड़ लेना चाहते हैं लेकिन इससे मुझे क्या! आप अपनी जानें! मैंने तो जो देखा, सुना, सोचा और महसूस किया, उसे बस आपके सामने रखे दे रहा हूँ। आप अपने सलूक को लेकर आज़ाद हैं। मैं कौन होता हूँ जो आपके निर्णय में अपनी टांग अड़ाऊँ! तो... ऐसा है कि ...
वह मुझे फिर दिखा। उस पर मैं महीने भर से नज़र रखे था। वह ऐन सुबह कॉलोनी में आ धमकता और हमेशा टाट के एक बड़े बोरे को अपनी पीठ पर लादे रहता। बोरे में सामान क्या है यह अब तक मैं नहीं जान पाया हूँ। लेकिन इतना ज़रूर है कि सुबह जब उसे मैं देखता, बोरा खाली-खाली सा होता ओर जब वह लौटता बोरे में बहुत कुछ भरा होता। एक दो बार मैंने चोरी से उसका पीछा भी किया, लेकिन महानगर की भीड़ तो आप जानते ही हैं। बत्ती के लाला होने से थोड़ा पहले वह चौराहे से निकल गया। मैं लालबत्ती पर लटका रहा और बत्ती जब हरी हुई, मैंने अपनी गाड़ी दौड़ाई। तब तक वह चौराहे के थोड़ा आगे बांयी सड़क पर मुड़कर गायब हो चुका था।
मैं उसी सड़क पर मुड़ गया। सड़क क्या थी, एक खूबसूरत कॉलोनी के बीच आराम से लेटी हुई एक चौड़ी काली रेखा, जिसके दोनों ओर भव्य कोठियाँ थी और आगे वह रेखा एक खूबसूरत बगीचे की सीमा को छूते हुए बाँये-दाँये दोनों ओर फैल गयी थी।
मैं यकीनपूर्वक नहीं कह सकता कि वह यहाँ आकर किसी एक ओर निकल गया था या इससे पहले ही किसी कोठी में छिप गया था।
आप सोच रहे होंगें कि उसे अपनी कोठी में आखिर घुसने कौन देगा तो यहाँ पर भी आप गलत है। मैं यकीन से कह सकता हूँ कि वह इसी कॉलोनी की किसी कोठी में रहता है। वह घर के पिछवाड़े उछाली या फेंकी गई चीजें उठाने वाला कोई सामान्य आदमी नहीं था बहुत संभ्रांत सा था। आँखों पर सुनहरा चश्मा, बाल करीने से बेतरतीब, पैरों में हमेशा चमड़े की चमचमाती काली चप्पल मानो दूकान से सीधे सड़क पर उतरी हो! वह हमेशा हमारी कॉलोनी में घर के मुख्य द्वार से भीतर घुसता।
पिछली बार जब हमारे पड़ोसी शुक्लाजी की कोठी से वह बाहर आया तो मैं तुरंत उनके घर की ओर लपका। शुक्लाजी रिज़र्व बैंक में हिन्दी अधिकारी हैं। मैंने उनसे अभी-अभी बाहर निकले उस रहस्यात्मक आदमी के बारे में पूछ-ताछ की। पता चला वह यूँ ही आया था। शुक्ला जी कह रहे थे� पहले तो मैं उसे नेग्लेक्ट कर रहा था वट ही इज़ रियली अ मिस्टिक। मैं कन्फर्म हूँ कि वह मुझसे ही बात कर रहा था लेकिन उसकी बातों में जादू था। शुक्लाजी ने उसके बारे में जितनी भी बातें बताई उससे कुछ भी अन्दाज़ नहीं लगता था। मैंने उनसे फिर पूछा� उसने घर से कोई चीज़ तो नहीं उठायी?
‘नहीं... नहीं... एक्चूअली वो यहीं पर बैठा था... और...' फिर एक लंबी संभ्रांत बकवास।
आखिरकार बात खत्म करने की गरज से मैंने उनसे एक गिलास पानी मांगा। अपने पड़ोसी से इस तरह पानी मांगना मुझे अजीब लग रहा था क्योंकि मेरा घर बंद नहीं था और न ही कोई आपात् स्थिति थी। मैं घर जाकर भी पानी पी सकता था लेकिन फिर भी मैंने माँगा।
शुक्लाजी थोड़ी देर मुझे थकुआकर देखते रहे फिर पूछा� ‘क्या चाहिए?'
‘पानी', मैंने थोड़ा ऊँचा कहा।
क्या?
‘पानी... पानी...' मैंने अपने अँगूठे को होंठों के पास ले जाकर पीने का इशारा करते हुए कहा।
‘ओ... ड्रिकिंग वॉटर...' उन्होंने अपनी पत्नी को आवाज़ देकर वॉटर लाने को कहा।
‘अंग्रेजी की नाजायज औलाद...' मैंने भुनभुनाते हुए अपने मन में कहा लेकिन चेहरे पर मुस्कुराहट बनाये रखी। एक कुशल पड़ोसी का धर्म निभाते हुए इस घटना को मैं जल्द से जल्द दूसरों को बताना चाहता था इसलिए पानी पीकर असभ्यता का प्रदर्शन करते हुए हड़बड़ी में वहां से भागा।
सबसे पहले तो इस सूचना को जाहिर मैंने अपनी पत्नी पर किया। ‘अच्छा...' उसकी आँखें फैल गयी तो मुझे बहुत मज़ा आया लेकिन अगले ही पल मेरे मज़े की ऐसी-तैसी करते हुए वह अपनी नयी साड़ी को तह करने लगी जो कि वह पहले से ही कर रही थी।
‘मज़ा नहीं आया' मैंने अपने आपसे बहुस मायूस होकर कहा! इस सूचना पर मेरा बस चलता तो, शुक्लाजी के घर के सामने ही एक गोष्ठी करवा देता और विषय रखता- ‘हिन्दी के विकास में हिन्दी अधिकारियों का योगदान' और लोगों से कहता कि आपलोग बार-बार शुक्लाजी से पानी माँगें। पिछले साल चौदह सितंबर कोएक स्कूल में हिन्दी की महत्ता पर भाषण देते हुए उन्होंने अंग्रेजी वालो को जी भरकर कोसा था और कोसने के लिए जो उदाहरण रखे थे वो मेरी ज़िन्दगी से लिये गये थे। इसके अलावा उन्होंने हिन्दी लेखकों की भी बहुत लानत-मलामत की थी। तब से हमारे बीच एक अघोषित युद्ध छिड़ा हुआ था। यहां मैं आपको बता दूँ कि हिन्दी के मामूली से मामूली लेखक और हिन्दी अधिकारियों के बीच जो सॉप-नेवले अपने घर बना लेते हैं, हम दोनों उसके ताज़ातरीन स्थानीय उदाहरण थे। मैं लेखक मामूली ज़रूर था लेकिन अपने दायित्व को बखूबी समझता था, फिर मैं अपने महकमे का छोटा साहब भी था। यानी मेरी घंटी पर एक चपरासी की दिनचर्या टिकी थी। ऐसे में शुक्ला जी को मुझ अधिकारी लेखक से बैर नहीं मोल लेना चाहिए था। अब जबकि मोल ले ही लिया था तो दाम तो चुकाना ही था। लेकिन आप ध्यान में रखें कि यह संभ्रांत मध्यमवर्गीय बैर था इसमें हँसते हुए और पीठ पीछे छोटे-मोटे बार किये जाते हैं।
अभी सुबह के नौ बजे हैं। ऑफिस के लिए मैं साढ़े नौ बजे से तैयार होता हूँ। इसका मतलब इस सूचना के प्रसारण के लिए मेेरे पास आधा घंटा और है। पत्नी से मायूस होते हुए मैंने सोचा और सड़क पर निकल आया।
सुबह की सड़क परस्कूल के लिए तैयार अपनी गाड़ी का इंतज़ार करते बच्चे, गाउन पहनकर किसी काम से निकली गृहणियां घर में घुसती अथवा सडत्रक पर चलती कामवालियों और एकाध सब्जीवाले के अतिरिक्त कोई नहीं था। मैं तीन बंगला छोड़कर गेट पर खड़े कुलकर्णी के गोलमटोल ओर बेहद शरारती बच्चे पिंटू के पास पहुँचा जो शायद ऑटो रिक्शा का इंतज़ार कर रहा था। वह छठी कक्षा में पढ़ता था ओर हिन्दी निबंध के लिए कभी-कभी मेरे पास आता था।
‘पिंटू बेटे, तुम्हें मालूम है कि पानी का मतलब क्या होता है?
‘वॉटर', उसने कहा ओर अपने वॉटर बैग से गिराकर भी दिखाया। हमारे पड़ोस में जो शुक्ला अंकल रहते हैं न, उनको नहीं मालूम कि पानी का मतलब क्या होता है। ये बात स्कूल में तुम अपने दोस्तों को बताना, ठीक है।' ‘जी अंकल'।
मैं आगे बढ़ गया और किसी हद तक संतुष्ट भी था क्योंकि मुझे पिटूं की काबिलियत पर पूरा भरोसा था। सड़क के अगले मोड़ पर एक सब्जीवाला सब्जियों के नाम चिल्लाते हुए चला जा रहा था। मैंने आवाज़ देकर उसे रोका। वह मुझे पहचानता था। सुबह कभी-कभी मैं ही उससे सब्जियां खरीदा करता था।
‘इहां तक क्यूँ चले आए साहब, हम तो उहीं आ रहे थे।'
‘लौकी क्या भाव है?' उसके प्रश्न को नज़र अंदाज करते हुए मैंने पूछा।
‘चार रुपये पाव'।
‘सब्जी वाले, क्या तुम्हें मालूम है पानी का मतलब क्या होता है?'
‘इ का पूछते हो साहब, सुबह से सांझ तक इन सब्जियों पर पानी छींटते-छींटते अंगुलियां ससुरी गल जाती है। दू सौ मीटर से हैंडपंप से पानी भर कर लाता हूं तब तो घर में कुछ पकता है। तीन महीने पहले कॉरपोरेशन का नल कट गया। मकान मालिक कहता है किराया दुगुना नहीं करोगे तो लाईन नहीं जुड़ाऊंगा । पिये का पानी तो इस मुहल्ले से मांग-मांग कर पीता हूं और घर जाते-जाते एकाथ बाल्टी भी जोड़ लेता हूँ...
‘शुक्ला जी को जानते हो, जो हमारे पड़ोस में रहते हैं! उनके घर बहुत पानी है, आज उन्हीं से मांगना,' सूचना देने की बजाय मैंने अगला दांव चला दिया था। ‘जी, अब ही मांग लेते हैं जाके।'
मैं व्यस्तता का दिखावा करते हुएआगे बढ़ गया और मोड़ पर किसी का इंतज़ार करता हुआ-सा ऐसे खड़ा हो गया कि सब्जीवाला मुझे देख न सके लेकिन मैं उसे देखता रहूं। वह सीध्ो शुक्लाजी के घर पहुंचकर कुछ बोला। शुक्लाजी बाहर आये। फिर दोनों में पाँच-सात मिनट तक भिन्न-भिन्न मुद्राओं में बात होती रही। उन्हें न सुन पाने के बावजूद मैंने उनकी बातों का पूरा मज़ा लिया। क्योंकि मैं समझ सकता था कि उनके बीच क्या और कैसी बातचीत हुई होगी। थोड़ी देर बाद सब्जीवाला जब आगे बढ़कर अगले मोड़ पर गायब हो गया तब मैं लौट आया। मैं काफी संतुष्ट था कि चलों 14 सितम्बर का बदला आखिरकार मैंने 14 फरवरी को ले लिया-‘वैलेंटाइन डे मुबारक हो, मैंने अपने आप से ही कहा और मुस्कुराने लगा कि तभी वह बोरा उठाए एक अन्य घर से निकलता हुआ दिखाई पड़ा। अभी उसका पीछा करने का समण् नहीं था मेरे पास, कयोंकि साढ़े नौ बज चुके थे। मैं चीज़ों को कल तक के लिये टालकर घर में घुस गया।
मेरा घर शहर के पश्चिम में है और शहर का पश्चिम दुनिया के पश्चिम से कतई अलग नहीं था। सुबह से ही सड़कों पर वैलेन्टाइन डे के रंग दिखाई पड़ रहे थे। इत्र की महकती गंध मोटर साइकिलों से छूटकर पीछे चलने वालों को गुदगुदा जाती थी। आज युवक-युवतियों के कपड़े कुछ ज्यादा ही चुस्त थे। लगता था शरीर अभी कपड़ों से उछलकर बाहर आ जाएगा। चौराहे-चौराहे पर पुलिस थी, न मालूम किसकी सुरक्षा में वह मुस्तैद थी। पुलिस के नए-नए रंगरूट भी युवतियों ेको देखकर बेचैन हुए जा रहे थे लेकिन उनके जूते थे कि उन्हें बराबर ड्यूटी की याद दिला जाते। शहर की इस मुस्तैद सुरक्षा पर मैं अभिभूत था और अपने लेखक से बाकायदा इजाज़त लेकर सरकार की जय-जयकार करते हुए एक झमाझम नारा लिखना चाहता था लेकिन फिर मैंने अपने ऊपर सवार हो रहे श्रीकांत वर्मा को परे ढकेल कर आशना पान पैलेस पर रूका।
मेरी दिनचर्या में आशना पान पैलेस की वही जगह थी जो सुबह की चाय की होती है। मुझे गाड़ी लगाते देखकर ही वह एक सिगरेट निकालकर ट्रे पर रख देता और कच्ची सुपारी, एक सौ बीस जर्दे का खर्रा घोटने लगता। आशना पान पैलेस का युवा मालिक अपनी खुबसूरती और नफासत के लिए ख्यात थ। दो नौकर खर्रा घोंटने के लिए उसके पास तत्पर खड़े रहते, लेकिन यदि भीड़ न हो तो मेरा खर्रा वह खुद ही घोंटता। आज खर्रा घोंटते हुए उसकी आँखें सड़क पर गड़ी हुई थी। तेज रफ्तार मोटर साइकिलों का पीछा करती उसकी आँखें चौराहे पर खड़ी मोटर साइकिलों पर थिर हो जाती। पुतलियां तो जैसे लड़कियों की हर नाप-जोख का चित्र खींचकर मस्तिष्क में भेज रही थी और मस्तिष्क उसे सिहरने का निर्देश दे रहा था। कपड़े और चमड़ी जहां मिलकर एक हो गए थे वहां उसके सिहरने की मात्रा अधिक थी।
क्यों भाई, भैलेन्टिया गए हो क्या? मैंने मज़ाक किया तो वह झेंप गया। वैलेन्टाइन डे मुबारक हो, उसकी झेंप को मैंने कुरेदा।
‘जी...'
‘अरे भाई, मैंने कहा वैलेन्टाइन डे मुबारक हो।' मैंने थोड़ा जोर से कहा।
‘क्या हो...?'
‘मुबारक... मुबारक... बधाई... बधाई...'
वह मुझे भकुआ कर देखने लगा, ठीक वैसे ही जैसे पानी माँगने पर शुक्लाजी देख रहे थे।
‘खर्रा हो गया', मैंने झल्लाते हुए पूछा।
‘हऊ,' उसने खर्रा दिया। मैं थोड़ी सुपारी मुँह में दबाकर निकलने लगा फिर कुछ सोचकर पलटा और कहा � हैप्पी वैलेंटाइन डे।'
वह खीसें निपोरने लगा। उसके खीसें निपोरने में पुतलियों द्वारा अभी-अभी ली जा रही एक्स-रे की रिपोर्ट भी झलक रही थीं बमुश्किल बाईस-तेईस साल के लड़के को मेरे जैसा पचास साला अध्ोड़ पकड़ ले तो झेंप तो होगी ही। मैंने फिर कहा- ‘वैलेन्टाइन डे मुबारक हो।'
‘क्या हो?' उसके चेहरे पर भकुआहट लौट आई तो मैं मुड़ा- लगता है इ ससूरा भी अंगरेजिया गया है' मैंने अपने आप से ही कहा और गाड़ी स्टार्ट कर आगे बढ़ गया।
आज सुबह की ये दो घटनाएं ऊपरी तौर पर बहुत मामूली लग सकती है लेकिन ध्यान से देखें तो इनकी गंभीरता समझ में आएगी। शुक्लाजी को ‘पानी' का अर्थ नहीं मालूम है और आशना पान पैलेस वाला ‘मुबारक' शब्द को भूल चूका है! दरअसल ये दोनों निष्कर्ष मैंने शाम को ऑफिस से लौटते वक़्त निकाले जब मैं अपनी कॉलोनी के बाहर की सब्जी दुकान पर रूका और ये मंजर देखा- एक आदमी पोटेटो मांग रहा था और सब्जीवाला समझ ही नहीं पा रहा था। ग्राहक बार-बार उसके आकर-प्रकार रंग और स्वाद के बारे में बताता और सब्जीवाला भी तरह-तरह की चीज़ें दिखाता। वह आलू और प्याज बोरे में भरकर अन्दर रखता था इसलिए ग्राहक उसे देख नहीं पा रहा था। दोनों में दिलचस्प बातें हो रही थी। समझने-समझाने की ऐसी गहन प्रक्रिया और जुदा अर्थ निकालने की ऐसी हँसोड़ कोशिशों से मुझे मजा आ रहा था। तब तक सब्जी वाले के दूसरे साथी दुकानदार भी वहां आ गये थे और सब मिलकर पोटेटो के वास्तविक अर्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।
‘इन्हें आलू चाहिए,' मैंने सब्जीवाले से कहा फिर उन साहब से औपचारिकतावश पूछा- ‘क्यों आलू ही चाहिये आपको?'
वह भी मुझे मकुअकर देखने लगा। सब्जीवाले दूसरे साथीदार एक रहस्य को सुलझाने के कारण मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट कर अपनी-अपनी दुकानों में लौट गए। सब्जीवाला भी एक किलो आलू तौल चुका था।
चौदह रुपये, उसने चिल्लाकर कहा। और इससे पहले कि ग्राहक के चेहरे पर मकुआहट लौटती, मैंने कहा- ‘फोर्टिन रूपिस'।
‘ओ...' जैसा भाव उसकेचेहरे पर था। उसने पैसे चुकाए और आलू लेकर चला गया।
एक बात यहाँ गौर करने लायक है। ग्राहक और दुकानदार दोनों हिन्दी में बात कर रहे थे लेकिन ‘आलू' और ‘चौदह' दोनों ही शब्दों को ग्राहक समझ नहीं पा रहा था, बल्कि ठीक-ठीक कहें तो सुन ही नहीं पा रहा था। अब सब्जीवाला अपनी व्यथा कह रहा था- ‘साहब, इहां अब आए दिन ऐसा होने लगा है। कोई सब्जियों के अंगरेजी नाम लेकर मांगता है किसी को उसका दाम समझ में नहीं आता। इतनी छोटी-सी दुकान में अब सारी सब्जियाँ कैसे सामने रखें! हमने तो अब सब्जियों का चित्र वाला चारट टांगना शुरू कर दिया है।
मैं उसकी दुकान में चार्ट ढूंढने लगा तो उसने कहा- पिछले चौक में वो समरू यादव की दुकान है न, उसका लड़का आया था चारट मांगने के लिए। वहां किसी सब्जी को लेकर दिक्कत हो गई है। ऐसे में तो हमारा धंधा चौपट हो जाएगा। अब उमर भी ऐसी नहीं रही कि सब्जियों के अंगरेजी नामों का रट्टा लगाएं और अंगरेजी में गिनतियां सीखें।
यह सब सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा था। आश्चर्य से ज्यादा अजीब लग रहा था। ‘ऐसा कब से हो रहा है?' मैंने पूछा।
यही कोई एकाध महीने से, उसने कहा।
‘अच्छा...!' और मैं कर ही क्या सकता था, इस शब्द को पूरी भाव-भंगिमा के साथ उच्चारने के अलावा। मैंने सब्जियां खरीदीं और घर आ गया।
मैं अच्छा-खासा परेशान हो गया था। चूंकि चिन्तन मेरे जीवन का बुनियादी घटक है और वह मेरा मनोरंजन भी करता है, सो मैंने आज चिन्तन में आकण्ठ डूब जाने का फैसला किया और चाय पीते हुए इस प्रक्रिया को बढ़ाने की गरज से पहला सवाल अपनी पत्नी पर दागा- ‘यह बताओ कि मनुष्य जिन शब्दों के बीच अपनी ज़िन्दगी गुजर-बसर करता है, जो हमेशा दिमाग में पड़ी चीज़ों को उदघाटित करते हैं क्या वह उन शब्दों को कभी भूल सकता है?' मेरा प्रश्न दार्शनिकता के रस में कुछ ज्यादा ही डूब गया था।
‘तुम सीध्ो-सीध्ो बात नहीं कर सकते हो? पत्नी ने झल्लाकर कहा।
‘अरे यार, मैं तुमसे यह पूछ रहा हूँ कि क्या तुम उन शब्दों को कभी भूल सकती हो, जिनका इस्तेमाल रोज करती हो?'
‘जैसे...?'
‘जैसे... यही चकला बेलन, पानी का गिलास, आलू, लौकी या मकान या रोटी...'
जो चीजें हम वापरते नहीं, वह पड़े-पड़े खराब हो जाती है फिर धीरे-धीरे हम उसे भूल जाते हैं। अब तुम्हीं बताओ घर में ऐसी कई चीजें हैं जिन्हें हमने जरूरी मानकर इधर-उधर रख दिया है। क्या वो सारी चीजें हमें याद है?
‘लेकिन यदि उन चीजों की याद दिलाई जाए क्या तब भी याद नहीं आएगी और फिर मैं रोज के चीज़ों की बात कर रहा हूं।'
‘ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी'
‘नहीं हो सकता है का क्या मतलब?' मैंने लगभग कुढ़ते हुए डपटकर पूछा। मेरे भीतर का चिन्तक अब पति धर्म की राह पर चलने की तैयारी में था। ‘नहीं हो सकता है का मतलब तुम्हारा सिर।' स्त्री-सबलीकरण की आंच में पकी पत्नी ने पलटवार किया और उठकर भीतर चली गई। मैंने भी अपने भीतर के पति को जब्त करते हुए उसे चिन्तन की राह में अवैतनिक काम पर लगाया। लेकिन जैसे कि अवैतनिक कामों का परिणाम होता है चिन्तन के इन क्षणों का निष्कर्ष सिफर ही रहा।
दूसरे दिन सूरज की नरम किरणों ने खिड़की से भीतर आकर जब मुझे धपकी दी, तब उठा। यही कोई आठ बजे। आठ बजे उठना यानी मेरी दिनचर्या में लगभग एक घंटे की देरी। अपना जताकर मैं बिस्तर पर ही चाय का इंतजार करने लगा, जो कि मैं रोज करता हूँ।
‘टोमेटे... टोमेटो... काली फ्लावर... चिली... सड़क पर दूर से आती आवाज़ थी।
‘अच्छा तो अब अंग्रेज भी यहां सब्जी बेचने के धंधे में लग गए हैं। वैश्विक मंदी का यह असर तो होना ही था। अब सालों को पता चलेगा कि मंदी जब बूसरेंग की तरह लौटती है तो...' बदले वाली मुस्कुराहट मेरे चेहरे के एक कोने में नमूदार हुई और मैं घर से बाहर निकल आया इस इक्कीसवीं सदी के सब्जीवाले को देखने के लिए।
‘अरे...' बेसाख्ता मेरे मुंह से थोर आश्चर्य में डुबा हुआ शब्द कूद पड़ा और आँखें इतनी फैल गई मानो पूरे चेहरे पर केबल वही रहना चाहती हो। यह तो अपनी कॉलोनी का तयशुदा सब्जीवाला था जिसके मार्फत मैंने कल शुक्लाजी से बदला लिया था।
‘ओ सब्जीवाले, इधर आओ,' हालांकि वह इधर ही आ रहा था, फिर भी मैंने उसे पुकारा ताकि वह जल्दी चला आए।
‘क्यों भई, क्या तुमको अमरीका का वीज़ा मिल गया है जो सब्जियां अंग्रेजी में बेचने की प्रैक्टिस कर रहे हो, या इन्हें सीधे वहीं से मंगवाया है?'
मेरी बात में छिपे व्यंग्य को वह कितना समझ पाया यह तो नहीं कह सकता लेकिन वह हें हें करने लगा और मुझसे पूछने लगा कि मुझे क्या चाहिए,' काली फ्लावर कि टोमेटो कि चिली कि लेडी फिंगर...
‘एक मिनट... एक मिनट...,' उसकी तानसेनी लय को तोड़ते हुए मैंने पूछा- ‘कल तक तो यह फूल गोभी थी आज कॉली फ्लावर कैसे हो गई श्रीमान जी!'
मेरी बात अब उसकी पकड़ में आई- ‘क्या करें साहब, गोभी कहने पर कोई बाहन नहीं आता, टमाटर कहो तो लोग समझ ही नहीं पाते, और भिंडी को तो ये लोग भूल ही चुके हैं! पिछले कई दिनों से सब्जियों का नाम लेकर कॉलोनी में घूमता रहता हूँ खरीदने के लिए कोई बाहर नहीं निकलता। अब जो मैं बेच रहा हूँ उसका नाम लेकर चिल्लाता रहूँ और लोग समझें नहीं तो खरीदने के लिए बाहर क्यों निकलेंगे। इसलिए कल रात पड़ोस के गोलू से इन सब्जियों के अंगरेजी नामों का रट्टा लगाया और देखो, आज इसी सड़क पर सत्तर रुपये की ग्राहकी हो गई। तो आपको क्या दूँ? काली फ्लावर कि लेडी फिंगर?
‘मुझे तो आधा किलो फूल गोभी ही दे दो, और देखो फूल अच्छे हों, देशी।' ‘साहब, आपने हिन्दी में माँगा है तो सबसे अच्छा फूल दूंगा और थोड़ा ज्यादा भी, तौलते हुए उसकी बक-बक जारी रही, कितना अच्छा नाम है इसका फूल गोभी, ससुरों ने इसे काला फूल बना दिया, क्यों साब, फ्लावर फूल को ही कहते हैं न! काली फ्लावर मतलब काला फूल। है तो गोभी सफेद लेकिन कहेंगे काली फ्लावर, अरे रखना ही था तो भाइट फ्लावर रख देते, कुछ तो मर्जादा बच जाती बेचारी गोभी की ठीक ही है, अब मर्जादा ससुरी देस में ही नहीं बची तो सब्जियों में कहाँ से बचेगी?'
‘कितना हुआ?'
‘दस रुपये मतलब टेन रुपिस।'
‘अच्छा-अच्छा'
मैंने भीतर से दस रुपये लाकर उसे दे दिये और उसके चेहरे पर फूल गोभी बेच लेने के संतोष को देखता रहा। उसके धंध्ो का समय नहीं होता तो उससे थोड़ी देर और बात करता। लेकिन अभी मुमकिन नहीं था। वह काली फ्लावर, लेडी फिंगर, टोमेटो की गुहार लगाता हुआ आगे बढ़ गया।
‘कुछ तो भी भंयकर हो रहा है,' मैंने सोचा। यह बात मामूली नहीं है कि लोग सब्जियों के नाम भूल जाएं, पानी का नाम भूल जाएं। ऐसा नहीं था कि इनकी उपयोगिता खत्म हो गई थी, बस उन्हें पुकारने की ज़बान बदल गई थी। लेकिन क्या यह इतनी मामूली बात है? एक नाम को भुला दिया जाना यानी एक शब्द को भुला दिया जाना। भाषा के भीतर एक शब्द को गढ़ने में कितना श्रम लगा होगा और अब वे इतनी आसानी से छूट रहे हैं।
यही सब सोचता हुआ मैं घर से बाहर खड़ा था कि वह मुझे फिर दिखा। अबकि बार मेरी ओर ही आता हुआ। उसके भीतर, अपनी ओर आते देखकर मैंने महसूस किया कि, एक ऐसी रहस्यात्मक शक्ति है जिससे आप बचना चाहते हैं लेकिन फिर भी बाँधते चले जाते हैं। वह मेरे सामने खड़े होकर मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखें हरी-हरी थीं। मुझे लगा कि वह आक्रमण करने की फिराक में है। मैं ऐहतियातन सतर्क हो गया, हालांकि मैं बिल्कुल नहीं जानता था कि कौन-सी चीजें मुझे उससे बचानी है! मेरी इस उध्ोड़बुन को वह शायद भांप रहा था इसलिए लगातार मुस्कुरा रहा था। आखिरकार उसने कहा-‘अंदर आने के लिये नहीं कहेंगे लेखक जी!'
अँय, तो उसे यह भी मालूम है कि मैं लेखक हूँ? आश्चर्य से भरकर मैंने सोचा और कहा, ‘आइये, उसकी विनम्रता का लहजा आदेशात्मक था और मैं किसी सम्मोहित मनुष्य की तरह उसका केवल पालन कर रहा था। मैंने देखा कि सोफे में बैठते ही बोरा उसकी गोद में आ गया, जबकि उसे वह ज़मीन पर भी रख सकता था। बोरा अभी खाली था। ‘तो आप शब्दों के बाजीगर हैं,' अपनी मुस्कुराहट के बीच से शब्दों को फेंकते हुए उसने कहा, ‘लेकिन आपको नहीं लगता कि जिन शब्दों से आप अपना लेखकीय वैभव गढ़ते हैं उसके प्रति विश्वसनीयता लगातार कम हो रही है?'
बहुत देर तक मैं उसके वाक्य से उलझा रहा। अव्वल तो मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि उसने मुझसे प्रश्न पूछा है या अपनी राय जाहिर की है। फिर भी, कुछ तो मुझे कहना ही था सो उसकी मुस्कुराहट के बीच मैंने अपने वाक्य तरतीब से रखे-‘बतौर लेखक, मुझे नहीं लगता कि मैं शब्दों का बाज़ीगर हूँ। बाज़ीगर नए-नए खेल ईज़ाद करता है। मैं कोई नया शब्द नहीं गढ़ता बल्कि जो शब्द लोगों के बीच चलन में हैं उनका इस्तेमाल भर करता हूँ। मैं केवल इस मामले में डिफरेन्ट हूँ कि लोग शब्दों का इस्तेमाल केजुअली करते हैं जबकि मैं सोच-समझ कर, उसके मुस्कुराने का अंदाज आक्रामक हुआ जा रहा था और में भी रौ में था, ‘देखिये, भाषा की जो पॉलिटिक्स होती है वह किसी भीदूसरी पॉलिटिक्स से इस मायने में ज्यादा खतरनाक होती है कि वह धीमे-धीमे अपना असर दिखाती हे। आप इसे धीमी असर वाला पाइज़न भी कह सकते हैं। और हम लेखक भाषा की इसी पॉलिटिक्स के खिलाफ उसे बचाने की फिक्र में इस फील्ड में डटे हैं। आप खुद ही बताएँ क्या भाषा के बिना यह दुनिया यहाँ तक पहुँच सकती थी, जहाँ आज वह है! लेकिन पिछले कुछ दिनों से मैं महसूस कर रहा हूँ कि लोग शब्दों को भूलने लगे हैं। यदि इसी तरह चलता रहा तो होगा यह कि हम किसी और लेंग्वेज़ के बाशिन्दे होकर रह जाएंगे। तब हम दरअसल उधार की ज़िन्दगी में जी रहे किसी अबोध नागरिक की तरह होंगे...', अपने चिन्तन के रेशे-रेशे को मैंने उसके सामने रख दिया था, ‘खैर छोड़ियेए आप चाय पियेेंगे?'
‘हां-हां, ज़रूर' उसने उत्साह के साथ मानों उसका कोई ज़रूरी काम पूरा हो चुका था।
मैंने पत्नी को चाय के लिये कहा।
चाय पीते हुए भी कुछ इधर-उधर की सामान्य बातें होती रही। मैंने अपनी नौकरी के बारे में बताया-' नौकरी तो खैर, मेरी बहुत मज़ेदार है। करना कुछ नहीं होता। बस, अपनी साहबी का रौब झाड़ते हुए बेल बजाओ और पियून हाज़िर! उससे किसी क्लर्क को बुलवाकर कुछ डॉक्यूमेन्ट्स मँगवा लो। ऑर्कियोलॉजी डिपार्टमेन्ट के ऑफिसर को इससे अधिक क्या काम हो सकता है? आप तो समझ ही सकते हैं।'
घड़ी पर मेरी नज़र पड़ी। नौ बजकर चालीस मिनट हो रहे थे। मुझे अब ऑफिस के लिए तुरंत तैयार होना था। उसने भी मेरी व्यग्रता भांप ली और उठ खड़ा हुआ। उसकी आँखें अब भी मुस्कुरा रही थी और चेहरे पर घर आने का कोई प्रयोजन पूरा हो जाने का-सा भाव था। उसने अपना भरा हुआ बोरा पीठ पर लादा ओर मुझसे हाथ मिलाकर चला गया।
‘कौन था ये', पत्नी ने पूछा।
‘क्या पता', पिछले एकाध महिने से कॉलोनी में दिखाई पड़ रहा है।
‘क्या कह रहा था?'
‘कह कुछ नहीं रहा था, केवल मुस्कुरा रहा था।'
‘तो जवाब में तुम भी मुस्कुराते रहते, लंबा-चौड़ा भाषण देने की क्या ज़रूरत थी। आखिरकार उसे बोलना ही पड़ता कि वो कौन है और क्यों आया है। लेकिन तुम तो लेखक हो न, बोलने और लिखने से कहाँ बाज़ आओगे!
‘यह सहज रास्ता मेरी समझ में कयों नहीं आया!' दाढ़ी बनाते हुए मैं पत्नी के इदस असामान्य विवेक पर हतप्रभ था। वह कहे जा रही थी- ‘कोई चोर-उच्चका या उठाईगीर तो नहीं था। आजकल चोर-उच्चके भी बन सँवर कर आते हैं और पलक झपकते सामान साफ कर देते हैं। तुमने उसे अपना बोरा बाहर रखने के लिए क्यों नहीं कहा।'
किसी ने जैसे मुझे बिजली का नंगा तार छुआ दिया हो। मैं दौड़कर ड्राइर्ंग रूम में आया।
‘क्या हुआ...,' पत्नी भी हड़बड़ाते हुए पीछे दौड़ी।
मैं ड्राइर्ंग रूम की एक-एक चीज़ को याद कर देखने लगा कि वो अपनी जगह है या नहीं।
‘क्या हुआ, कुछ बोलोगे भी?'
‘मुझे अच्छी तरह याद है जब वह आया था, उसका बोरा खाली था,' परेशान होते हुए मैंने कहा, ‘वह यहीं बैठा था और बोरा उसकी गोद में था, लेकिन जब वह जा रहा था तो बोरा भरा था। आखिर क्या ले गया वो यहाँ से। सब कुछ तो अपनी जगह पर है।'
‘हे भगवान,' पत्नी ने माथा पीटते हुए कहा, ‘तो तुमने उसका बोरा खुलवाकर देखा क्यों नहीं? जाओ दौड़कर बाहर जाओ, पकड़ों उसे, उसका बोरा चेक करो,' और वो खुद ड्राइर्ंगरूम की एक-एक चीज़ चेक करने लगी- शो पीस, सिगरेट दानी, टेबल घड़ी, अख़बार, लाइटर, फोटो फ्रेम ... सब कुछ तो है, तुम्हें अच्छी तरह याद है कि आते समय उसका बोरा खाली था?'
‘हां-हां, अच्छी तरह याद है,' मैं हवाई चप्पल डालकर बाहर भागते हुए कहा और लगभग दौड़ते हुए कॉलोनी का निरीक्षण किया। उसे हर जगह तलाशा, एक दो लोगों से पूछा भी, लेकिन वो नहीं मिला। आखिरकार मायूस होकर लौटा तो पत्नी फाटक पर ही खड़ी थी- मैंने ड्राइर्ंग रूम अच्छी तरह देख लिया है, सारी चीजें अपनी जगह हैं।'
‘फिर वो यहां से ले क्या गया?' मैं हैरान-परेशान था। घड़ी साढ़े दस बजा रही थी। इस वक्त तक मुझे ऑफिस पहुँच जाना था। मैं जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा।
पत्नी की फटकार शुरू थी-' यही तो तुम लोगों में और हममें ... है। तुम लोग करते पहले हो, सोचते बाद में हो। दुनिया की जो साधारण चीजें हैं उन्हें भूले रहोगे लेकिन - की बात करो, - की बात करो तो घड़ी मिलाकर दो घंटे भाषण झाड़ दोगे।
पत्नी बोलते-बोलते शब्दों को गोल क्यों कर रही है। ‘तुम आधी-अधूरी बात क्यों कर रही हो?'
‘कौन-सी आधी-अधूरी बात?'
‘तुमने अभी जो बोला था, फिर से बोलो।'
‘क्या बोला था?' पत्नी ने हैरान होते हुए पूछा।
‘अरे तुमने अीाी कहा था कि यही तो तुममें ओर हममें कुछ है।'
‘मैंने कहा कि यही तो तुम लोगों में और हममें - है।'
‘क्या है?'
‘- है, - है, ऊँचा सुनने लगे हो क्या?' झल्लाकर उसने कहा।
‘मैं तुम्हारा वह शब्द सुन नहीं पा रहा हूँ।'
‘सुन नहीं पा रहे हो?' पत्नी की आंखें आश्चर्य से फैल गई।
उसने इस बार चिल्लाते हुए कहा, उसका चेहरा देखते हुए तो मुझे यही लगा-‘...., ......, ......', मैं उसे गौर से देख रहा था। उसका मुँह तो हिल रहा था लेकिन शब्द मुझ तक नहीं पहुँच पा रहे थे। जैसे किसी ने मेरे स्मृति पटल से उस शब्द के समस्त चिन्ह पोठ डाले हो और उसे ग्रहण करने के तंतुओं को कुचलकर नष्ट कर दिया हो। मैं भकुआ कर देखने लगा। पत्नी डर गई। उसने मेरे माथे को छूकर देखा ‘तबीयत खराब है क्या?' चिन्ता उसके चेहरे पर पूरी तरह उतर आई थी। मैं मायूस होकर सोफे पर धम्म से बैठ गया। पत्नी पानी लेकर आयी। घड़ी डपटकर सवा ग्यारह का समय बता रही थी।
‘जाना ज़रूरी न हो तो आज छुट्टी ले लो।'
‘नहीं आज बहुत काम है, मैंने बहाना बनाया और ऑफिस जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। ऐसी हालत में घर में रहता तो पत्नी अपनी अतिरिक्त तीमारदारी से मुझे और मुश्किल में डाल देती। ऑफिस से जल्दी लौट आने का वादा कर मैं निकल गया।
स्कूटर अपने गंतव्य की ओर चला जा रहा था, आज वह आशना पान पैलेस पर भी नहीं रूका। मैं उसे चला तो रहा था लेकिन मेरा मन उसी खोये हुए शब्द के आस-पास की जगह को टटोल रहा था। ज़मीन से किसी विशाल वृक्ष को उखाड़ दो तो जो भद्दा निहायत बदसूरत गड्ढा बचा रह जाता है, मेरे मन में भी एक ऐसा ही गड्ढा बन चुका था। एक अनघे पागल की तरह बार-बार उस गड्ढे और उसके आस-पास की मिट्टी को छूकर मैं उस पेड़ का अन्दाजा लगाना चाहता था लेकिन उसका कोई चिन्ह वहां न था। न सूखी पत्तियाँ, न जड़ों के रेशे, न उस पर बैठने वाले पंछियों की चहचहाहट, न अंड़ो के सूखे खोल!
दुनिया के एक हारे हुए बदनसीब आदमी की तरह मैं ऑफिस पहुंचा।
ग़नीमत होता गर मेरी परेशानी यहीं तक आकर रूक जाती लेकिन आज मुझ पर रहम कहां था। आज तो जैसे मैं हमले के सबसे माकूल केन्द्र की तरह चुन लिया गया था। अपने केबिन में पहुँचकर मैं कुर्सी में धँसा ही था कि पियून सलाम ठोंकने चला आया। मेरे लिये वह सखाराम राऊत था और थोड़ा मुँह लगा भी, क्योंकि, एक तो, लेखक होने के नाते मैं उस पर अपने अफसरी की बारिश नहीं करता और दूसरा, मौके-बेमौके उसकी आर्थिक मदद भी कर दिया करता था। वह हमारे डिपार्टमेन्ट का चलता-फिरता सूचना केन्द्र था। उसकी खल्वाट खोपड़ी के भीतर न जाने कितनी सच्ची-झूठी खबरें, घरेलू इलाज के नुस्खे और जादुई यथार्थ कहे जाने वाले अजीबो-गरीब किस्से भरे पड़े थे। हमेशा की तरह उसने अपना प्रसारण केन्द्र शुरू कर दिया, गो कि यही उसका वास्तविक काम है- ‘साब, वो बारूद �� वाले वैद्य साब हैं न, जिनका चक्कर अपने ऑफिस की शेन्द्रे बाई से है, कल रात उनने अपने बीबी-बच्चों को ... दे दिया। बच्चे तो घर में ही खल्लास हो गए, बीबी मेडिकल में पउ़ी है। लोग बोल रहे थे कि वो भी बचेगी नई। अपनी शेन्द्रे बाई ने उस पर जादू कर दिया है। पिछले महिने की पच्चीस तारीख को वो छुट्टी पर गई थी ना, असल में तो सावनेर एक बाबा के यहाँ गई थी। वहीं से कोई पुड़िया लाई और वैद्य साब पर जादू कर दिया। अब जादू में बँधा बिचारा क्या करता, अपने बीबी-बच्चों को ... दे दिया....'
‘एक मिनट सखाराम,' उसकी राजधानी एक्सप्रेस को लालझंडी दिखाकर मैंने रोका,' कौन वैद्य साहब?'
‘वही अपने बारूद डिपार्टमेन्ट वाले,' उसने कहा।
‘नहीं, उसके पहले क्या कहा था?'
यही तो कहा था बारूद डिपार्टमेन्ट वाले वैद्य साब' उसे आश्चर्य हो रहा था।
उसे क्या मालूम कि मैं किस तकलीफ में हूँ।
‘अच्छा, उसने अपने बीवी-बच्चों को क्या दे दिया?'
‘... दे दिया,' तोते की तरह उसने कहा।
‘क्या दे दिया, फिर से बोलो'
‘... , ....' उसने कान के करीब आकर काह। तंबाखू और नस की मिली-जूली परेशान कर देने वाली गंधाती हवा उसके मुँह से निकलकर मेरे चेहरे से टकराई तब मैंने मान लिया कि उसने ज़रूर कुछ कहा है जिसे मैं सुन नहीं पा रहा हूँ।'
‘कान में मैल होगा साब, रात को सरसो तेल में लहसून डालकर गर्म करना और तेल जब ठंडा हो जाए तो धीरे-धीरे कान में डालना ओर सो जाना। सबेरे तक मैंल बाहर आ जाएगा।' किसी वैद्य की तरह उसने अपना नुस्खा ठोंक दिया था।
मैं चुप ही रहा।
मुझे परेशान जानकर एक कुशल सेवक की तरह वह चाय ले आया। मैं चुपचाप चाय पीता रहा। इस बीच बड़े साहब की बेल बजी और वह चला गया। कमरे में पंखे की घिर्र-घिर्र थी। पत्तियों के गिरने की आवाज़ थी। हवा के झोंके के साथ सूखी पत्तियाँ एक साथ दौड़ पड़ती तो उनकी आवाज़ कमरे में फैल जाती । प्रिंटिंग मशीन किर्र-किर्र की आवाज़ के साथ अपना काम कर रही थी। किसी का मोबाइल बज रहा था। गाड़ियों के हार्न की आवाज़ सुनाई पड़ रही थी। मैं सब-कुछ सुन पा रहा था। सारी आवाजें मेरे मस्तिष्क के निश्चित खानों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही थी। लेकिन में कुछेक शब्द नहीं सुन पा रहा था। यह कैसी बीमारी है! मुझे पसीना आने लगा। किसी अन्जान आशंका से घबराकर मैं काँपने लगा।
सखाराम लौट आया था और मेरे सामने खड़ा था।
मुझे सहसा एक तरकीब सूझी- ‘सखाराम, जो शब्द मैं सुन नहीं पा रहा हूँ क्या तुम इस पेपर पर उसे लिख सकते हो?'
‘बिल्कुल साब'
मैंने एक खाली पन्ना उसके सामने रख दिया। जैसे वह श्रुतिलेख की परीक्षा दे रहा हो, बहुत जमाकर उसने लिखा।
मैंने उसे पढ़ा ‘ज', फिर आगे ‘ह' और अन्त में ‘र', लेकिन इन तीनों अक्षरों को मिलाकर नहीं पढ़ पा रहा था और न ही इन अक्षरों के मार्फत कोई शब्द मुझ तक पहुंच रहा था। घबराकर मैंने वह पन्ना अपने सामने से हटा लिया।
क्या हुआ साब, फिर से लिखूँ? सखाराम अब भी मेरी मदद के लिए तत्पर था। ‘नहीं सखाराम', मैं रूआंसा हो गया था,' मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। यह बिना मात्राओं वाला, साधारण-सा दिखने वाले शब्द मैं पढ़ नहीं पा रहा हूँ और समझ भी नहीं पा रहा हूँ।'
‘साब, मुझे तो लगता है आप पर किसी ने जादू कर दिया है,' उसने अपनी समझ का पिटारा खोलना शुरू कर दिया था।
‘क्या बकवास कर रहे हो,' मैंने उसे झिड़कते हुए कहा।
‘नहीं साब, वाजिब बोल रहा हूँ। पिछले साल की बात है हमारे मुहल्ले में एक बाई रहती है। एक दिन वो सुबह उठी तो अपने मरद को नहीं पहचान रही थी। सच्ची बोलता हूँ साब, बाकी सबको पहचान रही थी, बस अपने मरद को नहीं पहचान रही थी। उसे एक तांत्रिक ने अमावास की रात कबूतर का ताज़ा खून, नीबू, कच्चा दूध और पाँच सौ एक रुपये लेकर आने को कहा। तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से उसका जादू खुला। अब वो ठीक है। लेकिन अमावस में कभी-कभी अपने मरद को नहीं पहचान पाती। तब तांत्रिक द्वारा दिए गए मोर पंख को उसके सिर के चारों ओर घुमाकर तीन बार मारना पड़ता है।
और कोई समय होता तो मैं उसकी बात पर हंस पड़ता लेकिन आज हिम्मत नहीं हुई। मेरी चुप्पी से उसका हौसला बढ़ गया था और किसी तांत्रिक के हेल्पर की तरह असने अपना इलाज शुरू कर दिया था- ‘साब आप पर किसी ने जादू कर दिया है। अच्छा बताइये, ऐसा कब से हो रहा है?'
‘क्या कब से हो रहा है?'
‘ऐसा, ऐसा ...' उसने जोर से कहा।
‘धीरे बोलो सखाराम,' मैंने डपटते हुए कहा।
‘सारी साब, मुझे लगा आप इसे भी सुन नहीं पा रहे हैं।'
‘जो शब्द मैं सुन नहीं पा रहा हूँ उसे जोर से बोलने से भी सुन नहीं पाऊँगा, इसलिए धीरे बोलो।'
‘अच्छा साब, तो ऐसा कब से हो रहा है? मतलब आपको ठीक-ठीक कब पता चला कि आप शब्दों को सुन नहीं पा रहे हैं?
‘आज सुबह से ही।'
‘आज सुबह आप किस-किस से मिले?'
‘आज...', मैं याद करने लगा, आज सुबह पत्नी से, फिर सब्जीवाले से , फिर तुमसे, नहीं-नहीं तुमसे पहले तो उससे...।
एकाएक सुनहरे फ्रेम के भीतर से झाँकती हुई हरी-हरी आँखें मेरे वजूद पर फैलती चली गई, जैसे स्याही की बूँद स्याही सोख्ता पर फैलती चली जाती हैं उन आँखों की याद ने मुझे कपड़े की तरह चीर दिया था। हालांकि वह रहस्यमय व्यक्ति यहाँ नहीं था लेकिन अपने आस-पास मुझे वही, केवल वही दिखाई पड़ रहा था। फाईल में उसकी आँखें थी, दीवार घड़ी में, दरवाज़े में, टेबल में, कलम में, सखाराम की आँखें उसी आँखें थीं। मुझे लगा, मेरे चश्मे से अपनी आँखें सटाकर वह मुझे घूर रहा है... मेरे इर्द-गिर्द सारी चीज़ों का रंग हरा होने लगा, जो लगातार फैलता जा रहा था। मैं हरे रंग के समुद्र में डूब रहा था... डूबता जा रहा था... में बुरी तरह काँपने लगा। पहले कनपटी के नीचे से पसीने की धार निकली, फिर धीरे-धीरे सारा शरीर पसीने से भींग गया। मैं होश खोने लगा। सखाराम मुझे झिंझोड़ रहा था, ‘साब... साब...' बेहोशी में पूरी तरह डूबने से पहले मैंने उसकी आवाज़ सुनी, ‘उससे किससे साब... उससे किससे...?'
मैं जब होश में आया, डिपार्टमेन्ट के सारे लोग मुझे घेरे हुए खड़े थे। कोई पंखा झल रहा था, कोई पानी के छींटे मार रहा था। एक ने डॉक्टर को फोन कर दिया था। डॉक्टर ने मेरी नब्ज़ देखी, ब्लड प्रेशन चेक किया, जो कि बहुत ज्यादा था। उसने कुछ जरूरी हिदायतें, तात्कालिक दवाएँ और टेस्ट की लंबी-चौड़ी लिस्ट थमाकर दो दिन बाद अनिवार्यतः अस्पताल में मिलने के लिए कह कर चला गया। मैं बड़े साहब की गाड़ी में घर भेज दिया गया।
पत्नी मेरी बिगड़ी हालत से बहुत डर गई थी। वह पूना में पढ़ रहे दोनों अथवा किसी एक बच्चे को बुला लेना चाहती थी लेकिन मैंने मना कर दिया और उसे विश्वास दिलाया कि मुझे कुछ निहीं हुआ है, केवल ब्लड प्रेशर की समस्या थी जो अब कंट्रोल में है। मैं किसी को बता नहीं सकता था कि मुझे हुआ क्या है। अब्बल तो मैं खुद भी नहीं जानता था। आराम करने के इरादे से मैं लेट गया और आँखें मूंद ली। मुझे सोता जानकर पत्नी अपनी दिनचर्या में लौट गई। लेकिन वह इस सतर्कता से काम कर रही थी कि खटर-पटर कम से कम हो। बीच-बीच में वह मेरे पास आकर सिरहाने खड़ी रहती, फिर माथा छूकर न जाने क्या देखती, शायद बुखार, और फिर दबे पांव चली जाती।
पत्नी की संतुष्टि के लिए मैं आंखें बंद किये हुए पड़ा था लेकिन भीतर एक विशाल भंवर जन्म ले चुका था जो मुझे डूबो देना चाहता था। चिन्ता इस बात की नहीं थी कि ब्लड प्रेशर उके बढ़ जाने से मैं बेहोश हो गया था। यह तो ऐसा संकट था जिससे आज नहीं तो कल मुक्ति मिल ही जाएगी। लेकिन मैं उन शब्दों को कैसे हासिल करूंगा जिन्हें मैंने खो दिया है! मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि मेंने किन-किन शब्दों को खो दिया है! पत्नी पास आकर जब अपना ठण्डा हाथ मेरे माथे पर रखती है तो क्या पता कुछ पूछती भी हो, जिसे मैं सुन नहीं पा रहा होऊँ! सामने वाले कमरे में टेलीविज़न शुरू था। उसके शब्द मुझ तक पहुँच रहे थे और उन्हें सुन पाने की बेहद संतुष्टि थी मुझे। फिर एकाएक आवाज़ आनी बंद हो गई। क्या मैंने अपने सारे शब्द खो दिये? मैं हड़बड़ाते हुए उस कमरे में पहुँचा। पत्नी ने टेलीविज़न बंद कर दिया था। मुझे अचानक उस कमरे में देखकर वह डर गई। पूछा-‘कुछ चाहिए', अपनी बेचैनी छिपाते हुए मैंने पानी मांगा। मैं खुश था कि शब्द अब भी मेरे पास हैं। मैं अभी हर वाक्य को सुनना चाहता था, हर शब्द को सुनना चाहता था। ताकि जो सुन नहीं पाऊं उसे लिखवाकर एक लिस्ट बना लूँ। कम से कम ये तो पता रहे कि कितने शब्द मेरे अंतर्मन से गायब हो चुके हैं! एक अज़ीब-सा अनगढ़ भय मेरे चारो ओर छाया हुआ था, जिसका कोई ओर-छोर न था। लेकिन मैं उसके रंग को देख पा रहा था- सुनहरे चौकोर फ्रेम के भीतर फैला और फैलता हुआ चमकदार हरा! मैं जहाँ से भी सोचना शुरू करता, अंतिम रूप से इसी हरे पर पहुंचकर पस्त हो जाता।
रात खामोशी के जल में सो गई थी। खामोशी, जिसे मैं अपने लेखक के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण और उपयोगी क्षण मानता रहा हूँ लेकिन आज उससे बहुत डर लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे इस खामोशी में मेरे बहुत सारे खोये हुए शब्द हैं। मैं बार-बार उसे कुरेदता लेकिन हाथ कुछ न आता। पत्नी बगल मेंसोई थी किसी भी खटके के साथ उठने के लिए तत्पर, इसीलिए मैं करवट भी बहुत सँभलकर बदलता। लेकिन मैं अपनी नींद कहाँ से लाऊँ। जब तक अपने ऊपर सवार इन अन्जान आशंकाओं को फेंक न दूं तब तक मैं सो नहीं सकता। मैंने इसे समझ लिया और अब इस ओर प्रयास करना भी शुरू कर दिया। यानी अपने आपको समझाने की जबर्दस्त मुहिम कि क्या हुआ जो मुझसे कुछ शब्द खो गये। उनके बिना क्या मैं जी नहीं सकता हूँ। शब्दकोषों में हजारों-हजार शब्द पड़े होते हैं उपयोगिता या चलन से चूके हुए, क्या उनके बिना दुनिया का काम नहीं चलता! और जब दुनिया का काम चल सकता है तो मेरा क्यों नहीं चल सकता! जो खो गया सो खो गया उसका मलाल क्यों? यह सारी परेशानी इसलिए है क्यों मैं लेखक हूँ। लेखक हूँ तो हूँ। ऐसा लेखक होना भी किस काम का, जो खोये हुए शब्दों के पीदे हाथ धो कर पड़ जाए। मैंने अपने लेखक की थोड़ी मलामत की फिर खुद से ही पूछा- क्या दुनिया की दूसरी- के लेखक भी इसी तरह के संकट से जुझते होंगे? एक मिनट... अपने प्रवाह पर बे्रक लगाया। मेरे सोचे हुए वाक्य में भी अब एक खाली स्थान था। मन ही मन मैं बार-बार उसी वाक्य को दुहराने लगा- दुनिया की दूसरी---- के लेखक, दुनिया की दूसरी ----- के लेखक....
उस खाली स्थान पर मुझे एक हरी बूंद दिखाई पड़ी, जिसने उसे शब्द को सोख लिया था। फिर अपने आस-पास कई ऐसी बूँदे नाचती हुई दिखीं जो शब्दों को चूस रही थी। फिर वही हरा... शायद सखाराम सही कह रहा था, मुझ पर किसी ने जादू कर दिया है। सखाराम और जादू की याद आते ही किसी सिनेमा की तरह सिलसिलेवार दृश्य याद आने लगे- कबूतर का ताज़ा खून, नीबू, अपने पति को न पहचान पा रही औरत की सूनी आँखें, तांत्रिक और... और अंत में वही सुनहरे फ्रेम वाला रहस्यमय व्यक्ति। अपने मुँह से निकलती चीख को बमुश्किल मैंने जब्त किया लेकिन फिर भी खटका तो हो ही गया और पत्नी जाग गई। उसने मेरे माथे को छुकर देखा। मैंने आँखें कसकर बन्द कर रखी थी लेकिन कोई बच्चा भी जान जाता कि मैं सो नहीं रहा हूँ।
‘क्या हुआ, कोई सपना देखा?' पत्नी ने धीमे-धीमे हिलाते हुए कोमलता से पूछा तो में फफक-फफक कर रो पड़ा। पत्नी दिलासा देती रही कि मुझे कुछ नहीं होगा। मैं भी जानता था कि मुझे कुछ नहीं होगा लेकिन जो हो चुका था उसका क्या करूँ! मैंने अपनी पत्नी के गर्म और धड़कते सीने में सिर छुपा लिया और देर तक सुबकता रहा, फिर न जाने कब नींद आ गई। खोये हुए शब्दों की चिंता से थोड़ी देर के लिए मुझे मुक्ति मिल गई थी।
सुबह उठा तो नींद के कारण स्थगित आंशका ने मुझे फिर दबोच लिया। शायद वह मेरे सिरहाने ही खड़ी थी मेरे जागने का इंतज़ार करती हुई। न मालूम मुझे यह कैसे विश्वास हो चला था कि मेरी इस अपरिचित और अपरिभाषित बीमारी की दवा उसी रहस्यमय व्यक्ति के पास है। कुछ समय के लिये तो मुझे यह भी लगा कि यह शायद किसी भयानक मनोरोग का लक्षण है। मैंने शहर के किसी प्रतिष्ठित मनोरोग-विशेषज्ञ से मिलने का मन भी बनाया लेकिन फिर खुद से ही जिरह करते हुए इस आशंका को उखाड़ फेंका कि मेरी समस्या कुछ शब्दों को खोजाने की बेचैनी से पैदा हुई है और मनोरोग चिकित्सक इस मामले में मेरी मदद नहीं कर सकता। अधिक से अधिक वह मुझे अजूबे केस की तरह चिकित्सा विज्ञान के इतिहास में दर्ज करा देगा लेकिन उससे मेरी मुश्किल खत्म नहीं होगी। मेरा इलाज उसी के पास है... केवल उसी हरी आँख वाले रहस्यमय व्यक्ति के पास....
इस नतीजे पर पहुँच कर मैं घ्र की छत पर चला आया ताकि वह आए तो मुझे दिख जाए। समय जैसे-जैसे बीतता गया, मेरी बेचैनी वैसे-वैसे बढ़ती गई। यदि वह नहीं आया तो। एक कंपकंपी मेरे शरीर में दौड़ गई। तो क्या अब मुझे कुछ खाली स्थानों के साथ जीना होगा। यदि बहुत तलाशूं तो मुझे उन शब्दों के विकलप मिल सकते हैं लेकिन क्या कोई शब्द किसी दूसरे शब्द का माकूब विकल्प हो सकता है? वह केवल कामचलाऊ विकल्प हो सकता है। तो क्या मुझे कामचलाऊ विकल्पों के साथ बची ज़िन्दगी को निपटाना होगा! बार-बार इसी तरह के प्रश्नों के जंगले में मैं कैद हो जाता, जिसके भीतर सिवाय छटपटाने और अपने मुक्तिदाता का इंतजार करने के, मेरे पास कोई दूसरा रास्ता न था। उसका इंतजार करते हुए मैंने आज ऑफिस से छुट्टी ले ली।
एक के बाद एक सात दिन आशंकाओ, बेचैनियों और प्रश्नों में डूबते-उतरते गुज़र गए। सातों दिन मैं सुबह से दोपहर तक छत में व्यग्रता से टहलते हुए उसका इंतज़ार करता और हताश होकर घर के भीतर लौट आता। एक दिन मैंने उस गली को भी खंगाला, जहां महिने भर पहले वह गायब हो गया था, लेकिन उसका कुछ पता न चला।
मृतात्माएँ जैसे बेचैन टहलती हैं
अध्ोड़ वेश्याएँ जैसे करती हैं ग्राहकों का इंतज़ार
किसान जैसे बादलों के भीतर छिपे जल को झांक लेना चाहते हैं
मज़दूर जैसे पगार की तारीख की ओर दौड़ते हैं
धनी-मानी जैसे गोलियों खाकर नींद को मनाते हैं
मैं ऐसे ही उसकी बाट जोह रहा था और वह चुनी हुई सरकार की तरह किसी अदृश्य संसद के गलियारे में छिप गया था। मुझे यकीन हो चला था कि वह तब तक दिखाई नहीं पड़ेगा। जब तक वह खुद न चाहे।
आखिरकार, दस दिन बाद शायद उसने ऐसा चाहा और मुझे पीछे वाली मुख्य सड़क पर एक घर से निकलता हुआ दिखा। उसका दिखना था कि भय और खुशी के मिले-जुले रंग वाले एक सर्वथा अपरिचित भाव ने मुझ पर हमला कर दिया। उसके हमले के जवाब में मैं तेजी से नीचे की ओर भागा और उसके पीछे हो लिया। वह मुझसे लगभग डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर था। मुझे उसकी पीठ पर लदा हुआ टाट का बोरा दिखाई पड़ रहा था। उसके कदम सध्ो हुए कए निश्चित गति से आगे बढ़ रहे थे और मैं तेजी से उसके पास होता जा रहा था। अब वह मुझसे कोई दस हाथ की दूरी पर था, लेकिन उसे पुकारने की मेरी हिम्मत नहीं हुई।
कुछ दूर और मैं उसके, पीछे-पीछे चलता रहा, फिर तेजी से आगे बढ़ कर उसके कंध्ो पर हाथ रखा। वह रूका और मैं भी। उसने इत्मीनान से मुड़कर देखा मानों मेरा ही इंतज़ार कर रहा था। उसकी मुस्कुराहट वेसी ही थी, हल्की-हल्की और रहस्यात्मक। न मालूम उसके चेहरे में ऐसा क्या था कि में सकपका गया और अपना हाथ हटा लिया। वह कुछ पलों के लिए मुझे यूं ही देखता रहा और मैं किसी चोर की मानिन्द अपराधी नज़र झुकाए खड़ा रहा। वह फिर आगे बढ़ गया, उसी गति और उसी निश्चिन्तता के साथ। मैं उसे अपने से दूर जाते हुए देखता रहा फिर अचानक जेसे सम्मोहन टूटता है, कुछ वैसा ही महसूस किया और दौड़कर उसके सामने खड़ा हो गया। ‘कहिये...' निहायत शालीन आवाज़ में उसने पूछा। उसकी शालीनता तें अनेकों छिपे हुए अर्थ की घंटिया बज उठी थी।
‘आपने... मेरे साथ... क्या किया है?' अटक-अटककर मैंने पूछा।
जवाब में वह अधिक अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराया- ‘क्या किया है?'
‘यही तो मैं जानना चाहता हूँ... आपने मेरे साथ क्या किया है?'
वह खड़ा रहा। उसकी आँखें मुझे फिर बाँधने लगी। मेरी चेतना ने हालांकि इसकी पुरजोर खिलाफत की लेकिन मैं बँधता चला गया। हरे रंग की अदृश्य रस्सियों ने मुझे बाँध लिया था और सवाल मेरे चेहरे से गायब हो गया था।
वह मेरे बगल से मुस्कुराते हुए चुपचाप निकल गया। मैं फिर होश में आया और अब की बार उसके पीछे- पीछे चलने लगा। पहले चौक, फिर बांयी गली और उसके बाद तीन सौ तेरह नम्बर की विशाल कोठी... मैं चलता गया। मैं सम्मोहित भी था और मुक्त भी। होश मेरे कब्जे में था लेकिन जिज्ञासा उसे निर्देशित कर रही थी। वह कोठी में दाखिल हुआ और मैं भी, वह ऊपर चढ़ा और मैं भी, वह ऊपर के कमरे में प्रविष्ट हुआ और मैं भी... और ... और यह क्या! बाहर से किसी को यकीन नहीं होगा कि उस कोठी के भीतर एक इतना विशाल कमरा है। बाहर से कोठी इतनी बड़ी नहीं लगती थी जितना यह कमरा। कमरे के बीच में एक मैदान नुमा जगह थी जिसमें तरह-तरह के फूल खिले थे। कमरे के चारों ओर दीवार से लगकर कई खाने बने हुए थे। उसने फूलों के बीच प्यार से अपना बोरा रखा और वहीं बैठ गया। फिर बिना मेरी ओर देखे ऊँचे स्वर में कहा- ‘आओ... यहाँ आ जाओ...।'
मैं जाकर उसके पास बैठ गया।
थोड़ी देर बाद धीरे-धीरे उठा, मानो बहुत थक गया हो। उसने अपना बोरा खोला और चीजे़ें निकालकर खानों में रखने लगा। बोरे में शब्द भरे हुए थे। खानों के बाहर, मैंने देखा, वर्णमाला के अक्षर लिखे हुए हैं। वह बोरे से शब्द निकालता और उन्हें निश्चित खानों में रखता जाता। मैं बहुत गौर से उसे देख रहा था। उसके चेहरे पर अब रहस्य नहीं था बल्कि दर्द था। ठीक वैसा ही दर्द, जो पिछले दस दिनों से मैं अपने भीतर महसूस कर रहा था।
‘तो आप शब्द चोर हैं।'
वह कुछ नहीं कहा। उसके चेहरे पर दर्द की लकीरें अधिक गाड़ी हो गई। वह अपना काम करता रहा।
‘आपने ही मेरे शब्दों को चुराया है, है न?'
थोड़ी देर के लिए वह रूका, फिर मेरे चेहरे को भेद्य देने वाली नज़र से देखा- ‘मैंने आपके शब्द नहीं चुराये हैं आपने खुद मुझे दिया है।'
‘मैंने दिया है...!'
‘आप मुझे शब्दचोर कह लें या शब्दों से प्यार करने वाला कहलें या उनकी चिन्ता करने वाला, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तो अपना काम ईमानदारी से कर रहा हूँ।'
‘कौन-सा काम?'
‘यही कि जिनको अपनी भाषा के शब्दों की ज़रूरत नहीं होती, मैं उन्हें उनसे छीन लेता हूँ। मेरे पास ऐसी शक्ति है... आप रहिये दूसरी भाषा के शब्दों के साथ... ‘लेकिन आपको यह अधिकार किसने दिया है?' थोड़ी नाराज़गी के साथ मैंने पूछा। ‘उसी लोकतंत्र ने, उसी न्याय व्यवस्था ने, उसी अधिकार संपन्नता का मखौल उड़ाने वाली निर्लज्जता ने और उन करोड़ों-करोड़ लोगों ने, जिनकी जुबान को कुचलते हेए आप लोग भाषा के खिलाफ एक अघोषित दमनात्मक कार्यवाई में लिप्त हैं। मैं उनके लिये आप जैसे संभ्रांत लोगों की भाषा से शब्दों को हथिया लेता हूँ। वैसे भी आप लोगों को इन शब्दों की ज़रूरत तो है नहीं, फिर चिन्ता किस बात की!
‘भाषा', मुझे याद आया यह तो उस हरी बूंद के नीचे छिपा हुआ शब्द है जो मुझसे छीन लिया गया था।
‘चकित मत होइये, यहाँ इस कमरे के भीतर आप अपने खोये हुए शब्दों का इस्तेमाल कर पायेंगे लेकिन इसके बाहर नहीं।' उसने बेरूखी के साथ कहा।
‘मैं लेखक हूँ। शब्दों की ज़रूरत मुझे हमेशा रहती है। मेरे शब्दों को चुराकर मुझे खाली स्थान नहीं दे सकते। आप मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते। ‘मैं रुआंसा हो गया था। ‘मैंने पहले ही कहा कि मैंने आपके शब्द चुराये नहीं है। आपने खुद मुझे दिया है। मेरे सामने कोई अगर अपनी संभ्रांतता के प्रदर्शन लिए वर्चस्वशाली भाषा के शब्दों को यहां सहेज कर रखता हूँ , फूलों की खुशबू, रोशनी, हवा और तमाम दूसरे छिटकते जा रहे शब्दों की सोहबत में। यहाँ उन शब्दों को सम्मान मिलता है, आपकी तरह उन्हें यहां दुरदुराया नहीं जाता।'
‘इसका मतलब भाषा के प्रति आपका नज़रिया शुद्धतावादी किस्म का है। क्या कोई भाषा शुद्धतावाद के ज़रिये बची रह सकती है?'
‘कहने को आप इसे मेरा शुद्धतावाद कह सकते हैं,' थोड़ी तल्खी के साथ उसने कहा, ‘लेकिन यह शुद्धतावाद नहीं है। भाषा ज़रूरत के हिसाब के शब्द ग्रहण करती है। मिलावट का एक तर्क होता है लेकिन मिलावट जहां वर्चस्व की कोशिश या फिर घोषणा के रूप में हो रहा हो, उससे मेरा विरोध है। नए शब्दों को लेना अच्छी बात है लेकिन अपने शब्दों को छोड़ देना कैसे अच्छा हो सकता है? जिन शब्दों का इस्तेमाल आप लोगों ने शुरू कर दिया है सोच कर देखिये, क्या वे शब्द आपकी भाषा में घुल-मिल गए हैं! और फिर, क्या आपकी अपनी भाषा में वे शब्द नहीं है?'
‘लेकिन इससे घाटा तो उन्हीं लोगों का हो रहा है, उन्हीं करोड़ों-करोड़ लोगों को जिनके लिये आप शब्द-चोरी के इस कथित ईमानदार काम में लगे हुए हैं।'
यह तात्कालिक घाटा है जो दीर्घकालिक लाभ का एक छोटा-सा हिस्सा है। जो सब्जियां उंगाते हैं, अन्न उगाते हैं और उन्हें बेचते हैं वे आपस में मिलकर अपना नया व्यवहार बना लेंगे, और यदि उसे न भी बेच पाये तो कम से कम उसे खाकर ज़िन्दा तो रहेंगे ही। लेकिन आप तमाम लोग कैसे बचेंगे? जो मेहनत की भाषा है उसका इस्तेमाल करने वाले लोग तो बच ही जाएंगे लेकिन आप लोग? आपका काम कैसे चलेगा? आप कौन-सी भाषा में अपनी जीने लायक चीजें माँगेंगे?
उसने जलती लकड़ी से मुझे दाग दिया था। मेरे पास उसका कोई ज़बाव नहीं था। अचानक मुझे लगा जैसे किसी ने बीच बाज़ार मुझे नंगा कर दिया है। मेरी अर्जित संपत्ति को एक झटके से हथिया लिया है। कुछ शब्दों का हथियाना मुझे भयानक जान पड़ रहा था। यदि इस भाषा के सारे शब्द छीन लिये जाएँ तो! मैं घबरा गया और गिड़गिड़ाने लगा- ‘आप मुझे मेरे शब्द वापस कर दीजिये। असावधानीवश मैंने इन्हें खो दिया, लेकिन अब ऐसी स्थिति नहीं आने दूंगा। यकीन जानिये, पिछले दस दिनों से शब्दों को खो देने की जो यातना मैंने झेली है, उसका बयान नहीं कर सकता। आप मुझ पर यकीन कीजिए और मेरे शब्द वापस कर दीजिए।'
‘मैं आपकी तकलीफ जानता हूँ लेकिन मैं अब कुछ नहीं कर सकता।' उसने दो टुक जबाव दे दिया।
‘नहीं, आप सबकुछ कर सकते हैं। आप मुझे मेरे शब्द लौटा सकते हैं। मैं उनके बगैर जी नहीं सकता। आप मेरे शब्द लौटा दीजिए... लौटा दीजिए...' मैं बेतरह गिड़गिड़ाने लगा।
‘ठीक है,' कुछ सोचकर और मेरी तकलीफ की सच्चाई को जानकर उसने कहा, ‘आप ले जाइये अपने शब्द, वे यहीं पर हैं, लेकिन इसे आप अपने तक ही रखियेगा।'
‘लेकिन मुझे कैसे पता चलेगा कि मैंने कौन-से शब्द खोये हैं। आपने तो उसकी स्मृति को भी हड़प लिया है,' मैं परेशान था।
‘देखिये, मैंने कोई व्यक्तिगत आँकड़ा नहीं रखा है, आप यदि अपने खोये हुए शब्दों को याद कर सकते हैं तो उन्हें याद करके ले जाइये। आप चूंकि लेखक है इसलिए मैंने आपको यह सुविधा दी है। इससे अधिक आपकी मदद मैं नहीं कर सकता।'
उसने मुझे जो सुविधा दी थी मैं उसकी उम्मीद नहीं कर सकता था। मैंने इसकी अंतिम बूंद तक का इस्तेमाल करने की ठान ली और अपनी स्मृति पर ज़ोर डालकर उन वाक्यों को याद करने लगा जिनके बीच में खाली स्थान थे-यही तो तुम लोगों में और हममें अंतर है... हाँ ठीक ‘अंतर..., वैद्य साहब ने अपने बीवी-बच्चों को जहर दे दिया... ‘जहर', हां यही था... यही शब्द था... ‘जहर'..., भाष तो खैर, मुझे याद आ ही चुका था... मैं अपनी स्मृति पर और अधिक जोर डालने लगा। इतना कि उसके कुचल जाने का खतरा बढ़ गया था लेकिन मुझे और कुछ नहीं याद आया। आखिरकार हारकर मैंने कहा- तीन शबद जो आपने छीने थे याद आ गए हैं- ‘अंतर', जहर और भाषा, फिलहाल तो आप मुझे यही दे दीजिए।' वह हल्के से मुस्कुराया और उसने तीनों शब्द वापिस कर दिये।
क्या मैं कमरे से बाहर निकल कर इसे जांच लूं?
वह फिर मुस्कुराया, इस बार थोड़ा ज्यादा। उसकी मुस्कुराहट में स्वीकृति की रेखाएं भी थीं। मैं कमरे से बाहर निकला और मन में कहा- अंतर, जहर भाषा फिर मैंने बुदबुदाया- ‘अंतर, जहर, भाषा'। मैं इन शब्दों का उच्चारण पूरी ताकत के साथ करना चाहता था लेकिन जैसे-तैसे अपने आपको रोका। क्या पता वह मेरी हरकत से नाराज़ होकर दुबारा शब्दों को छीन ले। मैं फिर कमरे के भीतर आ गया। मेरी आँखों में धन्यवाद के भाव थे जो जुबान तक आ गये- ‘आपका बहुत-बहुत धन्यवाद'। जवाब में वह पहले की तरह ही मुस्कुराया लेकिन उसकी मुस्कुराहट में अब रहस्य नहीं था।
उसकी मुस्कुराहट मुझे प्रोत्साहित कर रही थी। मैंने फिर याचना कि- ‘यदि मुझे दूसरे छीन लिये गये शब्दों का पता चल जाए तो क्या मैं उन्हें वापिस ले सकता हूं, अभी नहीं बाद में... जब कभी मुझे पता चलेगा...' यह मेरा लालच नहीं था ज़रूरत थी, इसे वह भी समझ रहा था। उसने हामी भर दी।
मैं चहकते हुए कोठी से बाहर निकला। बिल्कुल मस्त। रास्ते में एक अध्ोड़ आदमी को रोककर मैंने पूछा- ‘क्या आप जानते हैं कि बिल्ली और कुत्त्ो में क्या अंतर होता है?' वह अजीब नज़रों से घूरता हुआ बगैर जवाब दिये आगे वढ़ गया। लेकिन मैं खुश था। फिर एक बच्चे से पुछा- ‘अच्छा बताओ बेटे, तुम कौन-कौन सी भाषा जानते हो?'
हिन्दी, इंग्लिश, मराठी... लेकिन मुझे जवाब सुनने की फुरसत कहां थी! मैं आगे बढ़ गया। पीछे से उसने चिल्लाकर कहा... और अंकल गुजराती भाषा भी... चलते हुए मैंने एक किशोर को हिदायत दी- ‘धतूरे के बीज में जहर होता है... जहर... जहर... समझे, उससे दूर रहना...' अचकचाकर उसने कहा- ‘जी अंकल, और आगे बढ़ गया।
शब्दों से बड़ा सुख दुनिया में कोई नहीं है, इसे मैं आज ही उनकी वास्तविक ताकत का अन्दाजा हुआ। मन ही मन मैंने उस व्यक्ति को पुनः धन्यवाद दिया। लेकिन उसका नाम क्या था, कौन था वह... नाम तो कम से कम पूछ ही लेना था... क्या उसका कोई नाम होगा भी... कया वह किसी खास ... दल से संबंधित है?' इस वाक्य में मुझे एक खाली स्थान नज़र आया। यदि आज से पहले का कोई दिन होता तो मैं बेचैन हो जाता लेकिन अभी तो खुश हो गया क्योंकि मैं एक और खोये हुए शब्द को पा सकता था। मैं बमुश्किल उस कोठी से पांच सौ मीटर की दूरी पर था सो खाली स्थान को गुनते-गुनते तेजी से लौटा। वही मुहल्ला... वही गली... लेकिन वहां तीन सौ तेरह क्रमांक की कोई कोठी नहीं थी। जिस जगह उसके होने का मुझे यकीन था वहां कोई दूसरी ही कोठी थी। मैं लोहे का दरवाज़ा खटखटाया तो चश्मा चढ़ाए एक पारसी बूढ़ा मेरे सामने निकलकर खड़ा हो गया। उससे पूछना बेकार था कि मैं किसे ढूँढ रहा हूं। मैं उस मुहल्ले को अच्छी तरह छाना लेकिन कोठी नहीं मिली। पूछने पर पता चला कि तीन सौ तेरह क्रमांक की कोठी तो उस मुहल्ले में है ही नहीं। मैं समझ गया कि उसके बारे में अधिक पूछना बेकार है सो चुपचाप अपने खाली स्थान को लिये हुए लौट आया। तीन शब्द तो मुझे मिल गये थे और एक खाली स्थान भी मिल गया था। भविष्य में न मालूम कितने खाली स्थान फफोले की तरह मेरी चेतना में उभर आएंगे!
मैं अब भी काम पर जाने से पहले उस गली को एक बार देख आता हूँ कि शायद वह कोठी मिल जाये। सुबह-सुबह अपने मुहल्ले का चक्कर भी लगाता हूँ दूसरी जगह भी उसे तलाशता हूँ लेकिन वह अब तक मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ा है।
शहर की स्थिति अब भी वैसी है। अब भी लोग मकुआकर देखते हैं। सब्जीवाला अब भी अंगे्रजी नामों के साथ सब्ज्यिों बेचता है। शुक्लाजी अब भी ‘पानी' नहीं सुन पाते। लेकिन मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। मुझे विश्वास है कि लोग जब अपने खोये हुए शब्दों की व्यग्रता तक पहुंचेगें, वह फिर लौट आएगा उनके शब्द लौटाने के लिए। क्योंकि वह शब्द चोर नहीं है, यकीनन नहीं है। वह शब्दोंमें बेतहाशा प्यार करने वाला है, शब्दों की चिंता करने वाला है... शब्द-प्रेमी है... शब्द-प्रेमी...।
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62, वैभव नगर, दिघोरी, उमरेड रोड,
नागपुर - 440034
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एक सामान्य सी बात को इतना विस्तार देकर एक कहानी बुन देना लेखन की गंभीरता को दर्शाता है । कथ्य काफी संभाव्य और डरावना सा है । माताएं आज बच्चे को काउ सिखातीं हैं गाय नही । मैंने नवमीं कक्षा के एक ( अंग्रेजी मा.) बच्चे से पूछा-पृथ्वी पर कितने महासागर हैं उसने पूछा --महासागर क्या होता है । हालांकि बात उतनी नही बिगडी है ।
जवाब देंहटाएंकहानी कुछ खींची हुई सी भी लगी ।