व्यंग्य रचना युक्तिबोध : एक वेस्टसेलर साहित्यकार कोई माने या न माने अपने को बड़े कवि और लेखक मानते हुए राम किशोर बाबू ने युक्तिबोध न...
व्यंग्य रचना युक्तिबोध : एक वेस्टसेलर साहित्यकार
कोई माने या न माने अपने को बड़े कवि और लेखक मानते हुए राम किशोर बाबू ने युक्तिबोध नाम से अनर्गल कविता और कहानी लिखने में व्यस्त रहा करते. मिलने वालों से बड़े शान से कहा करते कि मुक्तिबोध की कविताएं और कहानियां भले ही उनके जीते जी न छपी हो परंतु वो अपने मरने से पहले एक-एक रचना छपवा कर मरेंगे, इसलिए ‘पेन नेम' रखा है ‘युक्तिबोध'.
युक्तिबोध अपने पेननेम की व्याख्या करते हुए कहते कि मुझे छपवाने की युक्ति का बोध है. प्रकाशकों, पुस्तकालयों और सरकारी खरीद को युक्तिसंगत रूप से सेट करना पडता है. क्या आपने नहीं पढ़ा कि पुस्तकालय खरीद के लिए प्रकाशकों के एक सिडिंकेट ने झारखंड़ के पूर्व शिक्षा मंत्री वैद्यनाथ राम को 10 लाख रूपए भेजे थे तथा इस डील में प्रदेश भाजपा के बड़े नेता प्रेम सिंह के बेटे अमित सिंह उर्फ सोनू ने बड़े प्रेम से विचौलिए की भूमिका निभाई थी. वैसे मेरा मानना है, युक्तिबोध ने कहा कि प्रकाशकों को रूपया देकर ही पुस्तकें छपवानी चाहिए. मैंने अपनी पहली पुस्तक ‘भ्रष्टाचार' लिखा, आठ-दस प्रकाशकों ने जब मेरी पांडुलिपि बिना पढ़े छापने से इंकार कर दिया तब मैं तीस हजार रूपए देकर एक नये ‘ऑनलाइन' प्रकाशक ‘गुलाम प्रकाशक' को पकड़ा, फिर क्या था रूपए के गुलाम प्रकाशक ने मेरी पुस्तक छाप दी, भासी और आभासी दोनों दुनिया में पुस्तक चल निकली. गुलाम प्रकाशक नेट फ्रेन्डली थे इसलिए बलात् सैकड़ों ईमेल मेरी पुस्तक का पीडीएफ बनाकर भेज दिया. सभी भ्रष्टाचारी मेरी पुस्तक को बड़े चाव से पढ़ने लगे और एक सशक्त एवं विशाल पाठक वर्ग तैयार हो गया, देश में जितने भ्रष्टाचारी उतनी प्रतियां गुलाम प्रकाशक ने बेच दिया, अब आप ही कहिए कि मैं वेस्टसेलर लेखक हुआ कि नहीं ? अब गुलाम प्रकाशक मुझे भ्रष्टाचार पुस्तक की सिक्वेल लिखने के लिए एक करोड़ का ऑफर किया हुआ है. मैं अरबपति बनने का सपना देख रहा हूँ और मेरे सपने इंशाअल्लाह पूरा हो कर रहेगा.
अब बारी थी पुस्तकालयों में पुस्तक को खपाने की क्योंकि पुस्तक कोई पढ़े या न पढ़े दो-चार करोड़ की पुस्तकें तो पुस्तकालयों में खप ही सकती है, सो मैंने फिर युक्ति लगाई, पचास हजार रूपए पुस्तकालय मैनेजरों को खिला कर देश और राज्य के कई पुस्तकालयों से दो-चार करोड़ के ऑर्डर ले आया अब तो ऑनलाइन गुलाम प्रकाशक की चांदी हो गयी.
आज के युग के साहित्यकारों को सलाह देते हुए युक्तिबोध कहते है कि कोई पढ़ता हो या न पढ़ता हो, इस बात की चिंता लेखक को नहीं करनी चाहिए. सच्चा लेखक व कवि वही है जो बस कागज काले करता रहे. युक्तिबोध बहुत ही गंभीरता से यह तर्क दिया करते कि जिन लेखकों एवं कवियों की कहानियां एव कविताएं उनके जीते जी नहीं पढ़ा जाता हो तब तो वह कूड़ा ही हुआ समझिए और अगर कूड़ा ही आप लिख रहे हो लेकिन पुस्तकें बिक रही हो, कोई पढ़े या न पढ़े इससे क्या फर्क पड़ता है. दरअसल पुस्तकों को स्टेटस सिंबल बना देना चाहिए. पाठक पढ़े या न पढ़े खरीद कर अपने घर के बुक सेल्फ में रखे जरूर. अरे छापने से इंकार तो प्रकाशकों ने उपन्यास सम्राट प्रेमचंद को भी कर दिया था नहीं तो वे अपना प्रकाशन हाउस क्यों खोलते और अपनी पुस्तकें खुद क्यों छापते. आपको मालूम होना चाहिए, युक्तिबोध उत्तेजित स्वर में कह रहे थे कि प्रेमचंद ने जो अपनी पत्रिका ‘हंस' शुरू किया तो अपने समकालीन सभी साहित्यकारों को हंस में छापा लेकिन प्रकाशकों ने उसके बाद भी हंस में छपने वाले कई साहित्यकारों की अवहेलना की. मैं प्रकाशकों की अवहेलना नहीं सह सकता क्योंकि साहित्य की समझ प्रकाशकों को नहीं है, इन्हें सिर्फ बाजार से मतलब है.
अब बारी आती है सरकारी खरीद की तो मंत्री और सरकारी अधिकारी तो बिकने के लिए तैयार बैठे है तो फिर कीमत देने पर खरीद का आर्डर क्यों नहीं देंगे, मुस्कुराते हुए युक्तिबोध ने कहा.
हालांकि जिस मोहल्ले में युक्तिबोध रहते है वहां कोई भी नहीं जानता कि भासी और आभासी दोनों ही दुनिया में छाए हुए साहित्यकार है युक्तिबोध. अब अगर मोहल्ले वालों को युक्तिबोध कूड़ा बांचने वाले लगते हों तो युक्तिबोध का इसमें क्या दोष ! युक्तिबोध कहते है कि बड़े साहित्यकार की रचनाओं को समझने की सलाहियत भी तो होनी चाहिए. अरे भाई, साहित्य में कूड़ा और उत्कृष्ट में बहुत क्षीण अंतर है. न बिका तो कूड़ा और बिक गया तो उत्कृष्ट, अपना तर्क प्रस्तुत करते युक्तिबोध जी.
आजकल प्रचार-प्रसार में लगे हुए है युक्तिबोध. जब भी शहर में पुस्तक मेला लगता, कोई न कोई अनर्गल प्रलाप करती हुयी उनकी कविता संग्रह आयोजकों को खिला पिला कर विमोचन करवा लेते और पुस्तक मेला के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उन अनर्गल कविताओं का पाठ करते. कविता पाठ का आलम यह होता कि युक्तिबोध जी अपनी लंबी कविता पढ़ते और भीड़ धीरे-धीरे खिसक लेती. जबरन सुनता वही जिसे मंच से अपनी भी कविता का पाठ करना होता. इसके अतिरिक्त देश-दुनिया में संगोष्ठी के आयोजकों का पूरा फेहरिस्त युक्तिबोध जी के पास रहता. गाहे-ब-गाहे आयोजकों को फोन कर निमंत्रित करने का आग्रह करते हुए नुक्कड़ की चाय दूकान पर युक्तिबोध जी अक्सर मिल जाते है. जैसे ही किसी आयोजक का आश्वासन मिलता उसे तुरंत राय देने से नहीं चुकते कि इस बार की संगोष्ठी उनके रचनाक्रम पर ही केन्द्रित क्यों नहीं कर देते कि उनको निमंत्रित करने की सार्थकता भी साबित हो जाए.
आज भी युक्तिबोध जी साहित्य साधना में लगे हुए है, धन देकर धन की उगाई कर रहे है. युक्तिबोध जी कहते है मनी बीगेटस मनी. कोई आलोचक उन पर कलम उठाने का दुस्साहस अभी तक नहीं कर सका है. जय हो युक्तिबोध जी की !
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राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा, गिरिडीह
झारखंड़, 815301
मोबाइल 9471765417
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