आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दल प्रमोद भार्गव राजनीतिक दलों में पारदर्शिता लाने के नजरिये से इन्हें आरटीआई के दायरे में लाना एक ऐतिहासिक ...
आरटीआई के दायरे में राजनीतिक दल
प्रमोद भार्गव
राजनीतिक दलों में पारदर्शिता लाने के नजरिये से इन्हें आरटीआई के दायरे में लाना एक ऐतिहासिक घटना है। केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीतिक दलों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाकर उल्लेखनीय पहल की है। अब प्रमुख दल मांगे गए सवाल का जवाब देने के लिए बाध्यकारी होंगे। अब चिंता यही है कि केंद्र सरकार जानकारी देने की इस अनिवार्यता को कहीं, जिस तरह से सीबीआई को सूचना के अधिकार कानून से मुक्त कर दिया गया है, कहीं उसी तर्ज पर राजनीतिक दलों को जानकारी देने के बंधन से मुक्त न कर दे ? मौजूदा स्थिति में कोई भी राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आना नहीं चाहता। क्योंकि वे औद्योगिक घरानों से बेहिसाब चंदा लेते हैं और फिर उनके हित साधक की भूमिका में आ जाते हैं।
मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्रा और सूचना आयुक्त एमएल शर्मा व अन्नपूर्णा दीक्षित की पूर्ण पीठ ने अपने फैसले में आरटीआई कानून के तहत फिलहाल छह राजनीतिक दलों को सार्वजनिक संस्था माना है। इनमें कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा शामिल हैं। आगे इस फेहरिश्त में अन्य दलों का भी आना तय है। समाजवादी पार्टी, अकाली दल, जनता दल और तृणमूल कांग्रेस जैसे बड़े दल आरटीआई के दायरे से फिलहाल बचे रह गए हैं। पीठ ने फैसले में समयबद्ध कार्यक्रम देते हुए कहा है कि दलों के अध्यक्ष व महासचिव छह सप्ताह के भीतर अपने मुख्यालयों में मुख्य सूचना अधिकारी की नियुक्ति करें और आगामी चार सप्ताह में जो भी जानकारी हेतु अर्जियां लंबित हैं, उनका निपटारा करें। साथ ही जानकारी अपने दल की वेबसाइट पर भी डालें। पीठ ने यह फैसला आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल और एसेसिएशन अॉफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के प्रमुख अनिल बैरवाल के आवेदनों पर सुनाया है। दरअसल इन कार्यकर्ताओं ने इन छह दलों से उन्हें दान में मिले धन और दानदाताओं के नामों की जानकारी मांगी थी। लेकिन पारदर्शिता पर पर्दा डाले रखने की दृष्टि से सभी दलों ने जानकारी देने से इनकार कर दिया था।
सुनवाई के दौरान अनिल बैरवाल ने तीन सैद्धांतिक बिंदुओं का हवाला देते हुए दलों को आरटीआई के दायरे में लाने की पैरवी की थी। एक, निर्वाचन आयोग में पंजीकृत सभी दलों को केंद्र सरकार की ओर से परोक्ष-अपरोक्ष मदद मिलती है। इनमें आयकर जैसी छूटें और आकाशवाणी व दूरदर्शन पर मुफ्त प्रचार की सुविधाएं शामिल हैं। दलों के कार्यालयों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें भूमि और भवन बेहद सस्ती दरों पर उपलब्ध कराती हैं। ये अप्रत्यक्ष लाभ सरकारी सहायता की श्रेणी में आते हैं। दूसरा सैद्धांतिक बिंदु था कि दल सार्वजनिक कामकाज के निष्पादन से जुड़े हैं। साथ ही उन्हें अधिकार और जवाबदेही से जुड़े संवैधानिक दायित्व प्राप्त हैं, जो आम नागरिक के जीवन को प्रभावित करते हैं। चूंकि दल निंरतर सार्वजनिक कर्तव्य से जुड़े होते है, इसलिए पारदर्शिता की दृष्टि से जनता के प्रति उनकी जवाबदेही बनती है। लिहाजा पारदर्शिता के साथ राजनीतिक जीवन में कर्तव्य की पवित्रता भी दिखाई देनी चाहिए। तीसरा बिंदु था कि दल सीधे संवैधानिक प्रावधान व कानूनी प्रक्रियाओं से जुड़े हैं, इसलिए भी उनके अधिकार उनके पालन में जवाबदेही की शर्त अंतनिर्हित है। राजनीतिक दल और गैर सरकारी संगठन होने के बावजूद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से सरकार के अधिकारों व कर्तव्यों को प्रभावित करते हैं, इसलिए उनका हस्तक्षेप कहीं अनावश्यक व दलगत स्वार्थपूर्ति के लिए तो नहीं है, इसकी जवाबदेही सुनिश्चित होना जरुरी है। आजकल सभी दलों की राज्य सरकारें सरकारी योजनाओं को स्थानीय स्तर पर अमल में लाने के बहाने जो मेले लगाती हैं, उनकी पृष्ठभूमि में अंततः दल को शक्ति संपन्न बनाना ही होता है। इस बहाने वे दलगत राजनीति को ही हवा देती हैं। सरकार, सरकारी अमले पर भीड़ जुटाने का दबाव डालती हैं और संसाधनों का भी दुरपयोग करती हैं। लिहाजा जरुरी था कि राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आएं जिससे उनकी बेजा हरकतों पर एक हद तक अंकुश लगे।
राजनीतिक दल भले ही आरटीआई के दायरे में आने से मना करते रहे हों, किंतु दलों को केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा जानकारी देने से बाध्य किए जाने के पहले से ही देश के व्यापारिक घरानों ने दलों को वैधानिक तरीके से चंदा देने का सिलसिला शुरु कर दिया है। डेढ़ साल पहले अनिल बैरवाल के ही संगठन ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी जुटाई थी। इस जानकारी से खुलासा हुआ था कि उद्योग जगत अपने जन कल्याणकारी न्यासों के खातों से चैक द्वारा चंदा देने लग गए हैं। इस प्रक्रिया से तय हुआ कि उद्योगपतियों ने एक सुरक्षित और भरोसे का खेल खेलना शुरु कर दिया है। सबसे ज्यादा चंदा कांग्रेस को मिला है। 2004 से 2011 में कांग्रेस को 2008 करोड़ रुपए मिले, जबकि दूसरे नंबर पर रहने वाली भाजपा को इस अवधि में 995 करोड़ रुपए मिले। इसके बाद बसपा, सपा और राकांपा हैं। अब तक केवल 50 दानदाताओंसे जानकारी हासिल हुई है। जिस अनुपात में दलों को चंदा दिया गया है, उससे स्पष्ट होता है कि उद्योगपति चंदा देने में चतुराई बरतते हैं। उनका दलीय विचारधारा में विश्वास होने की बजाय दल की ताकत पर दृष्टि होती है। यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा की सरकारें रहने रहने के दौरान देश के दिग्गज अरब-खरबपति चंदा देने की होड़ में लगे रहे।
यहां सवाल उठता है कि यदि लोकतंत्र में संसद और विधानसभाओं को गतिशील व लोक-कल्याणकारी बनाए रखने की जो जवाबदेही दलों की होती है, यदि वहीं औद्योगिक घरानों, माफिया सरगनाओं और काले व जाली धन के जरिये खुद के हित साधन में लग जाएंगे तो उनकी प्राथमिकताओं में जन-आकांक्षाओं की पूर्ति की बजाय, वे उद्योगपतियों के हित संरक्षण में लगी रहेंगी। आर्थिक उदारवाद के पिछले दो दशकों के भीतर कुछ ऐसा ही देखने में आया है। अब आशंका यही है कि कहीं केंद्र सरकार आयोग के इस फैसले को राजनीतिक दबाव के चलते कोई कानूनी आदेश लाकर रद्द न कर दे ? क्योंकि महज कैबिनेट सचिव के एम चंद्रशेखर की मंशापूर्ति के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने सीबीआई को सूचना-कानून के दायरे से मुक्त कर दिया था। जबकि सीबीआई को आरटीआई के दायरे में लाने का फैसला संसद के बहुमत से हुआ था। बहरहाल ताजा फैसले के तारतम्य में केंद्रीय सूचना आयेाग - पीठ की पीठ थपथपानी होगी।
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प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
मो․ 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
Pramod ji aapne apne lekh men bahut saari baaten kahin hain jo satya bhi hain aur is prajatantra aur desh ke liye avshyak hain par jahan hamam men sab nange hon to kaun apna nanga pan jag jahir karna chahega ath parliament men pass hone ke baad bhi CBI RTI ke bahar aur halla machne ke baad bhi kala dhan par koi karyvahi nahi ho rahi chande ke badle corporate world ko fayeda pahunchaya ja raha
जवाब देंहटाएंSawal yeh hai ki agar political parties pak saaf hain to unka RTI se kya virodh karan spasht hai janta ya to lachar hai ya utsah heen ya dono jiska fayeda sub le rahen hain aur chand RTI karyakartaon ki andekhi ki ja rahi hai aur unhein sataya aur victimized kiya ja raha hai
कानून के जानकारों के लिए केन्द्र सूचना आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों को सार्वजनिक अधिकरण घोषित करने का फैसला आश्चर्यचकित करने वाला है। xxx
जवाब देंहटाएंराजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र की रक्त-मज्जा हैं। राजनीतिक दलों से स्वस्थ लोकतंत्र में अपेक्षा होती है कि वे लोकतंत्र को होने वाले तमाम बाहरी संक्रमणों (बीमारियों) से रक्षा करने की ताकत (एंटी बॉडीज) पैदा करें परन्तु आज का कटु सत्य यह है कि हमारे वर्तमान पूंजीवादी राजनीतिक तंत्र ने भ्रष्टाचार रूपी एक ऐसी ताकत यानी एंटी बॉडीज का निर्माण कर दिया है जो भारतीय लोकतंत्र को ही चट किये जा रहा है। लाजिमी है कि एक जागरूक लोकतंत्र की जागरूक जनता में इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक गुस्सा हो। यह गुस्सा जायज है और हम इसके खिलाफ कुछ भी कहने नहीं जा रहे हैं।
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परन्तु लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी बैठकों में हुई बहस की जानकारी को गोपनीय रखने की अनुमति दी जानी चाहिए। बैठक के बाद हर राजनैतिक दल बैठक के फैसलों को प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सार्वजनिक करता है। सामान्य व्यक्तियों को राजनीतिक दलों के अंदरूनी मसलों में नाक घुसेड़ने की आदत नहीं है। परन्तु सूचना आयोग ने जो करने की कोशिश की है, वह निश्चित रूप से राजनीतिक तंत्र में दलों में तोड़-फोड़ करने के लिए दूसरे सक्षम दलों को और सक्षम करने जैसा है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसा उचित नहीं होगा। केन्द्रीय सूचना आयोग को अपने फैसले पर स्वयं पुनर्विचार करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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कानून के जानकारों के लिए केन्द्र सूचना आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों को सार्वजनिक अधिकरण घोषित करने का फैसला आश्चर्यचकित करने वाला है।
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राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र की रक्त-मज्जा हैं। राजनीतिक दलों से स्वस्थ लोकतंत्र में अपेक्षा होती है कि वे लोकतंत्र को होने वाले तमाम बाहरी संक्रमणों (बीमारियों) से रक्षा करने की ताकत (एंटी बॉडीज) पैदा करें परन्तु आज का कटु सत्य यह है कि हमारे वर्तमान पूंजीवादी राजनीतिक तंत्र ने भ्रष्टाचार रूपी एक ऐसी ताकत यानी एंटी बॉडीज का निर्माण कर दिया है जो भारतीय लोकतंत्र को ही चट किये जा रहा है। लाजिमी है कि एक जागरूक लोकतंत्र की जागरूक जनता में इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक गुस्सा हो। यह गुस्सा जायज है और हम इसके खिलाफ कुछ भी कहने नहीं जा रहे हैं।
ऐसे माहौल में अगर जनता राजनीतिक दलों की आमदनी के श्रोतों तथा खर्चों के बारे में जानना चाहती है, तो उसमें कुछ भी बुरा नहीं है। कुछ व्यक्ति विशेष ऐसा करते हुए, केन्द्रीय सूचना आयोग तक पहुंच गये तो इसका दोष उन्हें भी नहीं दिया जा सकता। हमारे विचार से उनकी इच्छा इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं थी। सरकार, राजनैतिक दलों और भारतीय संसद का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे इस जन भावना का आदर करते हुए इस बारे में एक प्रायोगिक एवं लागू किये जा सकने वाली संहिता के बारे में गंभीर मंथन करें। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। स्वैच्छिक संगठन (वालेंटरी अर्गनाईजेशन) होने के बावजूद उन्हें अपनी आमदनी एवं खर्चों को पारदर्शी बनाना चाहिए। ‘जन लोकपाल आन्दोलन’ के गर्भ से हाल ही में पैदा हुई आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल का यह दावा कि उनकी पार्टी ने एक रूपया चंदा देने वाले तक का नाम वेब साइट पर डाल दिया है, एक लफ्फाजी है, एक गैर जिम्मेदाराना बयान है, जिस पर चर्चा नहीं की जानी चाहिए। पूरे हिन्दुस्तान में फैले संजाल वाली किसी भी पार्टी के लिए ऐसा कर पाना बिलकुल असम्भव है। इसकी कामना भी लोगों को नहीं करनी चाहिए।
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परन्तु लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी बैठकों में हुई बहस की जानकारी को गोपनीय रखने की अनुमति दी जानी चाहिए। बैठक के बाद हर राजनैतिक दल बैठक के फैसलों को प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सार्वजनिक करता है। सामान्य व्यक्तियों को राजनीतिक दलों के अंदरूनी मसलों में नाक घुसेड़ने की आदत नहीं है। परन्तु सूचना आयोग ने जो करने की कोशिश की है, वह निश्चित रूप से राजनीतिक तंत्र में दलों में तोड़-फोड़ करने के लिए दूसरे सक्षम दलों को और सक्षम करने जैसा है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसा उचित नहीं होगा। केन्द्रीय सूचना आयोग को अपने फैसले पर स्वयं पुनर्विचार करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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