डाँ ․ नन्दलाल भारती एम ․ ए ․ ।समाजशास्त्र। एल ․ एल ․ बी ․ । आनर्स । पी ․ जी ․ डिप्लोमा-एच ․ आर ․ डी ․ (1) जोखिम। कहानी। ख...
डाँ․नन्दलाल भारती
एम․ए․ ।समाजशास्त्र। एल․एल․बी․ । आनर्स ।
पी․जी․डिप्लोमा-एच․आर․डी․
(1)
जोखिम।
कहानी।
खेत की फसले खलिहान आकर किसानों का वैभव बढ़ा रही थी,मड़ाई का काम भी तेजी से चल रहा था,खलिहाल कारखाने का रूप् घारण कर चुके थे। खाली खेत पीताम्बर स्वर्णिम काया धारण किये सूरज देवता को जैसे उकसा रहे थे। सूरज देवता भी भरपूर तपन का ताण्डव प्रत्यारोपित करने में तनिक हिचकिचा नहीं रहे थे।खेत की छाती से सूरज की तपन का घर्षण होने पर खेत से जैसे अग्नि प्रज्वलित हो जा रहा थी परन्तु श्रमिक वर्ग हौशले के अश्त्र-शस्त्र तपन को नजरअन्दाज कर कर्मपूजा में लगा हुआ था। इसी बीच अचानक पश्चिम की ओर से अंवारा बादल उठने लगे थे। कुछ ही देर में ये अंवारा बादल तपते हुए सूरज को जैसे ढ़क लिये और ओले-तूफान के साथ कहर बनकर बरस पड़े थे। प्रभुदेव अंवारा बादलों के कहर को जैसे अपनी छाती पर हुआ प्रहार महसूस कर रहे थे।इसी बीच धनादेव प्रभुदेव के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला किस आत्मप्रसव से गुजर रहे हो मित्रवर।
प्रभुदेव-अंवारा बादलों के कहर ने किसानों के धन-मन और तन की हाड़फोड मेहनत से उपजी फसल को ले डूबा क्या यह आत्मप्रसव से कम है ?
धनादेव-वह तो है। इसीलिये तो कहते है किसान सबसे बड़ा जुआड़ी होता है।यही जुआड़ीपना किसान को भगवान समतुल्य खड़ा कर देता है। मित्रवर तुम जैसे आत्म प्रसव में जीने वालों को समय के पुत्र के रूप में काल के गाल पर जड़ देता है।
प्रभुदेव-मित्रवर कह तो ठीक रहे हो परन्तु प्रकाशक आत्मप्रसव से उपजी कृति के लिये वैसे ही कहर साबित हो रहे है जैसे खेत में खड़ी फसल या खलिहान में रखी फसल के लिये असमय तूफान के साथ ओलावृष्टि।
धनादेव-मित्रवर मैंने तो सुना है कि कालजयी लेखक को प्रकाशकों ने नहीं बख्शा उन्हें कर्जा लेकर पुस्तक छापना पड़ा था। सच पुस्तक का प्रकाशन जोखिम भरा काम है। बेचारा लेखक जिसे पागल की संज्ञा दी जाती है।साल दर साल आत्मप्रसव में जीता है तब जाकर कृति आकार पाती है। इसके बाद उसे प्रकाशक नहीं मिलता है। सरस्वती और लक्ष्मी की बैर जग जाहिर है,बेचारे लेखक के खिस्से में तो छेद ही छेद होते है।स्वयं के बलबूते पुस्तक छापने का जोखिम कैसे उठाये ? हिम्मत कर उठा भी लिया तो पुस्तकों का क्या करें,उसे वितरक मिलने से रहे। पहले प्रकाशक नहीं मिले पुस्तक छपने के बाद विक्रेता नहीं मिलते। उपहार में अथवा निःशुल्क पुस्तकें देने पर कोई पढ़ता है या नहींं यह भी सुनिश्चित नहींं क्योंकि पुस्तक को लेकर लेखक के कान दो मीठे बोल सुनने को तरस जाते है। नतीजा ये होता है कि आत्म प्रसव पीड़ा से उपजी कृतियां आलमारी में बन्द हो जाती है।
प्रभुदेव-सच पुस्तक लिखना आसान काम है पर पुस्तक छपवाना बहुत मुश्किल काम है।
धनादेव-मित्र तुम्हारी दो पुस्तके तो छप चुकी है।
प्रभुदेव-समाजेसवी संस्थाओं के सहयोग से।
धनादेव-तुम्हारी पुस्तकों को छापने के लिये समाजेसवी संस्थाओं ने सहयोग दिया पर प्रकाशक नहीं मिले। संस्थाओं को तुम्हारी पुस्तकें साहित्य एंव समाज के उपयोगी लगी होगी तभी तो सहयोग किया होगा ।
प्रभुदेव-यकीनन। संस्थाओं के प्रतिनिधि मण्डलों ने जांचा,परखा तौला तब जाकर कर सहयोग दिया,इसके बाद प्रकाशक छापने को तैयार तो हो रहे थे पर मोलभाव ऐसे कर रहे थे जैसे बकरकसाई। समाजेसवी संस्था से मिली आर्थिक सहयोग राशि से तीन गुना और अधिक राशि मांग रहे थे।
धनादेव-क्यों․․․․․․․․․․․․․․․․?
प्रभुदेव-पुस्तक छापने के लिये और बेचकर अपनी तिजोरी भरने के लिये।
धनादेव-रायल्टी नहींं दे रहे थे क्या ?
प्रभुदेव-उल्टे मुझसे ही मांग रहे थे रायल्टी तो बहुत दूर की बात थी।
धनादेव-पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में भी भ्रष्ट्राचार जड़ जमा चुका है।
प्रभुदेव-क्या कहोगे ? एक लेखक पुस्तक लिखने में अपने जीवन का बसन्त गंवा देता है।आंख पर भारी भरकम ऐनक लग जाता है,कई सारी बीमारियों का शिकार हो जाता है। प्रकाशक ऐसा सलूक करते है। लेखक को रायल्टी देने की बजाय छापने के पैसे लेखक से मांग रहे है। लेखक पुस्तक लिख रहा है और उसी की छाती पर छपाई के खर्चे का भार डालकर प्रकाशक मौज कर रहा है। पुस्तक विक्रय से हुई आमदनी प्रकाशक की तिजोरी में चला जाता है,लेखक की जेब में तो वैसे ही कई छेद थे अब और अधिक हो जाते है।
धनादेव-मित्र मेरी समझ से प्रकाश ही ऐसा प्राणी है जो पाठकों से पुस्तकों से दूर कर रहा है। तुम पूछोगे कैसे,उससे पहले में बता देता हूं। देखो प्रकाशक लेखकों से कागज सहयोग के नाम पर दस से बीस हजार की मांग करता है। बात दस से पन्द्रह हजार सहयोग राशि कुछ लेखकीय प्रतियां और दस प्रतिशत रायल्टी में पट जाता है।रायल्टी तो सिर्फ भ्रम में रखने का तरीका है। लेखकीय प्रतियां जरूर मिल जाता है। इतनी राशि में प्रकाशक महोदय किताब छाप लेते है। कुछ किताबों सरकारी संस्थानों को बेच देते है। इस धंधे में प्रकाशक को ही मुनाफा होना है। किताबें इतनी महंगी होती है कि आम पाठक खरीद भी नहींं पाता है। ये किताबे दस प्रतिशत की छूट पर सरकारी संस्थानों में चली जाती है। इससे न तो पाठक को फायदा होता है ना साहित्य और ना साहित्यकार को, बस प्रकाशक अपने फायदे के लिये ये सब करता है। यदि किताबों की कीमते कम होती और इन पुस्तकों का प्रचार प्रसार होता तो पाठकों का रूझान पुस्तकों से कम नहीं होता। बताओं सौ पेज की किताब तीने सौ रूपये में पाठक खरीद सकेगा। मानता हूं महंगाई का जमाना हैं,भ्रष्ट्राचार भी है परन्तु इतनी कीमत बढ़ाना तो सीधे सीधे आम पाठकों को पुस्तकों से दूर करना है। यही किताबें जोड़तोड कर सरकारी संस्थानों तक पहुंच कर कैद हो जाती है।
प्रभुदेव-मित्र तुम्हारी बात में सच्चाई है।हमारी सरकारें भी साहित्य और साहित्यकार को कोई तवज्जों नहीं दे रही है।
धनादेव-सरकार को चाहिये था कि साहित्य और साहित्यकारों के उत्थान के लिये कल्याणकारी योजनायें लाये।देश के मुखिया राष्ट्रीय पर्व पर अपने उदबोधनों में सद्साहित्य को भी शामिल करें क्यों साहित्या समाज का दर्पण है।यही दर्पण समाज की जड़ों का पोषित करता है
प्रभुदेव-सच साहित्य ही तो ऐसा माध्यम हैं जों रीति-रिवाज,संस्कार,नैतिक दायित्व,मान-सम्मान परिवार और देश के महत्व,सामजिक सरोकार,भाषा ज्ञान-विज्ञान ये सब ज्ञान तो पुस्तकों से ही होता है पर इस ओर से सरकार और आधुनिक समाज का रवैया उदासीन हो गया है।
धनादेव-सच कहा गया है जीवन में बेहतरीन जो कुछ होता है उसका रास्ता पुस्तकों से होकर ही जाता है। दुर्भाग्यवश आधुनिक युग में साहित्य और साहित्यकार साजिश के शिकार है। क्या जमाना है जीवन के मधुमास का सुख लूटा कर कायनात के लिये सपने देखने वाले साहित्यकार को प्रसवपीड़ी से उपजी रचनाओं को पुस्तक के रूप में लाने के लिये जोखिम उठाना पड़ता है।बुरे दिनों के लिये संचित तनिक पूजीं अर्थात बुढ़ौती की लाठी प्रकाशकों की भेंट चढ़ जाती है।
प्रभुदेव-देखो धनादेव पुस्तक प्रकाशन की जोखिमों को देखकर मैंन तौबा कर लिया था ऐसा नहीं कि सृजन से नाता तोड़ लिया। सृजन कार्य जारी रहा और रचनायें अर्न्तजाल पर ब्लाग पर प्रकाशित करता रहा। हाँ दो किताबे जरूर दो संस्थाओं के आर्थिक सहयोग से छपी पर इन दोनों किताबों में मुझे बीस हजार से उपर लगाना पड़ा था परन्तु आवक कुछ नहीं हुई । खुशी इस बात की रही कि कुछ साहित्य प्रेमियों को निःशुल्क पुस्तकें उपलब्ध कराता रहा ।
धनादेव-पुस्तक अच्छे हाथ में पहुंचाना भी बड़ी बात है।
प्रभुदेव-पुस्तक तो इसी उम्मीद के साथ देता रहा हूं कि पुस्तक लेने वाला पढ़ेगा और प्रतिक्रि्रया देगा।कुछ लोग देते भी है।इससे हौशला बढ़ता है खिने की उर्जा मिलती है और जोखिम उठाने की हिम्मत भी होती है।
धनादेव-देखो मित्र पुस्तक पढ़ने और अर्न्तजाल पर पढ़ने में अन्तर है।अर्न्तजाल पर पढ़ना कोई सस्ता काम तो है नहींं।एक बार पुस्तक खरीद लिये पढ़ों और दूसरे को पढ़ने के लिये दे दो।इन्टरनेट का भी बिल आता है ।
प्रभुदेव-इन्टरनेट पर पढ़ने वालों की संख्या अधिक है।नवोदित रचनाकारो को तथाकथति बड़े और बुजुर्ग ठीहेदार साहित्यकार जगह तो देते नहींं।मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ।चाटुकारिता करने की बजाय इन्टरनेट से जुड़ गया,देखो देश-दुनिया तक रचनायें पहुंच रही है।यहां कोई जाखिम भी नहीं है।मुझे तो पाठक चाहिये वो मिल रहे है। पैसा कामना अपना उदेश्य था नहीं,लेखन कर्म के माध्यम से साहित्य और समाज सेवा करना का उदेश्य पूरा हो रहा है।
धनादेव-मित्र जोखिम उठाओ।
प्रभुदेव-देखो मित्र मामूली सा मुलाजिम हूं,बड़ी रस्साकस्सी के साथ घर चल पा रहा है।जोखिम उठाने में खतरा है। प्रकाशक ऐसा प्राणी है उससे बच पाना कठिन है।
धनादेव-अनुबन्ध करवा लो,लेखकीय प्रति और कुछ रायल्टी तो मिल ही जायेगी।
प्रभुदेव-कोशिश कर चुका हूं।
धनादेव-क्या हुआ ?
प्रभुदेव-जिसका डर था वही।
धनादेवा-लेखकीय प्रति के साथ रायल्टी कम मिली क्या ?
प्रभुदेव-रायल्टी की बात कर रहे हो,उल्टे प्रकाशक कागज के पैसे के नाम पर पन्द्रह हजार मांग रहा है।
धनादेवा-मतलब दुनिया को आंख देने वाला ठगी का शिकार।
प्रभुदेव-सच्चाई तो यही है।
धनादेवा-यार शहर में रोज तो नई किताबों के विमोचन हो रहेे है उन लेखकों की किताबे कैसे छप रही होगी।
प्रभुदेव-दो तरीके है।
धनादेवा-कौन-कौन ?
प्रभुदेव-कुछ लेखक आर्थिक रूप से खूब सम्पन्न होते है,जिन्हे पैसे की परवाह नहीं होती। रायल्टी मिल गयी तो ठीक नहीं मिली तो भी ठीक। वे किताबें सुखियां पाने के लिये लिखते है और पैसा देकर किताब छपवाते रहते है।बढ़-चढ़कर विमोचन करवाते है और खर्च भी करते है।बस उनको नाम से मतलब होता है। दूसरे वे लेखक जो प्रसिद्धी पा चुके होते है येनकेन प्रकारेण। ऐसे लेखकों कि पुस्तकें प्रकाशक छापने में स्वयं का गौरव समझते है क्योकि सरकारी खैरात दिलानें में पहुंच वाले लोग मददगार साबित होते है। रही बात आम लेखक की जो पेट में भूख दिल पर चिन्ता का बोझ लेकर समाज और देश के हित में जीता और कलम घिसता है,ऐसे फटेहाल लेखक को कौन पूछेगा। बेचारे कि पाण्डलिपियां रखी-रखी चूंहे कुतर जाते है।ऐसे लेखक की किताब छप नहीं पाती है अगर छप गयी तो झण्डा गाड़ देती है। मित्र पैसा का काम तो पैसा से ही होता है,पैसे की कमी की वजह से उत्तम लेखक की उत्तम कृति समाज के सामने नहीं आ पाती।
धनादेव-खैर धांधलेबाजी तो नीचे से उपर तक है।रंग बदलते युग में कई और साधन आ गये है जिससे पुस्तकों का प्रकाशन आसान हो गया है।
प्रभुदेव-ई बुक की बात कर रहे हो।यहां भी खर्चा है,नवोदित लेखक तो इसका फायदा उठा सकते है पर पुरानी पीढ़ी के लेखक क्या करेंगे।छपी पुस्तक का जो महत्व है। ई बुक का नहीं हो सकता।रचना सामग्री टाइप करवाना कम खर्चीला तो है नहीं पन्द्रह से बीस रूपया पेज लग रहा है। सौ पेज की पुस्तक पर टाइप का खर्च ही दो हजार आ गया।बेचारा आम लेखक परिवार पाले या किताब छपवाये इसी कश्मकश में चप्पले घिस जा रही है।
धनादेव-मित्र ई बुक रचना को कालजयी बना देती है।
प्रभुदेव-मानता हूं पर पैसा भी तो चाहिये।देश और समाज के लिये लिखने वाले आम लेखक के पास इताना रूपया कहा ?
धनादेव-प्रकाशकों के भी दिन लदेगे । सुना है कुछ ई प्रकाशक आम लेखकों की पहचान सुदृढ़ करने के उदेश्य से सामने आ रहे है।वे पुस्तके निः शुल्क छापेगे।ई पुस्तकों के लेखको रायलटी भी देगे।
प्रभुदेव-यहां भी वही वाले लोग लाभ उठा पायेगे जो सम्पन्न होगे या तकनीकी जानकार।
धनादेव-तुम्हारी किताब की बात आगे बढ़ी की नहीं ।
प्रभुदेव-ई बुक की तरफ मेरा भी झुकाव तो हो गया है। छपी पुस्तक का कोई मुकाबला तो नहीं पर प्रकाशक लूटने पर लग जाये तो किताबें कैसे छपेगी। हारकर ई पुस्तकों की ओर जाना होगा।
धनादेव-किताबों की कीमते देखकर हिम्मत छूट जाती है। किताबें तो प्रकाशकों के लिये पैसा बनाने की मयशीन हो गयी है।खासकर हिन्दी पाठकों किताबे खरीदने में रूचि नहीं रहती है,इसके बाद भी किताबों की कीमतें आकाश छूयेगी तो ये पाठक कैसे किताबें खरीदेगे जो खरीदना भी चाहेंगे वे मुुंह मोड़ लेगे। सच किताबों को पाठकों से दूर करने के जिम्मेदार प्रकाशक हैै। अस्सी पेज की किताबे दो सौ बीस रूपये कीमत। कैसे पाठक हिम्मत करेगा।प्रकाशकी भी सम्भवतः यही चाहते है क्योंकि वे सरकारी पुस्तकालयों के सुपुर्द कुछ किताबे कर देते है,लेखक से कागज के खर्च के नाम पर पहले ही मोटी राकम ऐंठ लिये होते है।प्रकाशक का तो फायदा ही है। मारा तो लेखक गया, छः महीना किताब लिखने में लगाया,उपर से छपाई में सहयोग के नाम पर प्रकाश चमड़ी उधेड़ लिया और किताब पाठक तक भी नहीं पहुंची । बेचारे लेखक का धन और श्रम सब व्यर्थ गया। खजाना भरा तो प्रकाशक का।
प्रभुदेव-यही हो रहा है मेरे साथ भी।
धनादेव-क्या․․․․․․․․․․․․․?
प्रभुदेव--हां मित्र।अपजश प्रकाशक को मेरे पुस्तक की पाण्डुलिपि बहुत पसन्द आई। मैं पत्र लिख-लिखकर अनुबन्ध की बात करता रहा वह टालता रहा। उसने पुस्तक का प्रुफ भेज दिया,बिना किसी अनुबंध किये। इसके बाद उसके फोन आने लगे साहब बहुत महंगई है। कागज के खर्च में आपको मदद करना होगा।मै ना․․․․․․․․․ना․․․․करता रहा।
धनादेव-रायल्टी की बात भी तुमने नहीं किया।
प्रभुदेव-वह तो बस फोन किये जा रहा था वह भी पैसा के लिये।
धनादेव-अपजश प्रकाशक ठग है क्या ․․․․?
प्रभुदेव-मुझे भी ऐसा ही लग रहा है। उसने बोला दस प्रतिशत रालल्टी और 35 किताबें दूंगा पर आपकोे पन्द्रह हजार पुस्तक छपाई में लगने वाले कागज का खर्च वहन करना होगा। मेरी मती मारी गयी थी घरवाली की इलाज के लिये पैसे रखे थे किताब छपवाने की खुशी में बावला हो गया था दे दिया इसके बाद तो वह गिरगिट की तरह रंग बदल रहा है ।
धनादेव-क्यों․․?
प्रभुदेव-रायल्टी से मुकर रहा है।
धनादेव-पैसे और पाण्डुलिपि वापस मांग लो ।
प्रभुदेव-नहीं दे रहा है। कह रहा रायल्टी की कोई बात नहीं हुई थी।रायल्टी दूंगा। मेरी किताब और पैसे दोनों ठग अपजश प्रकाशक के पास फंस गये है।कह रहा है पीडीएफ के पांच हजार काटकर वापस करूंगा।बताओं ऐसे प्रकाशक सस्ती पुस्तकें कैसे छापेगे जो साहित्य के दुश्मन बन बैठे है और साहित्यकार का गला काटने पर जुटे हुए है।
धनादेव-सच साहित्यकार के लिये पुस्तक छपवाना जोखिम भरा काम हो गया है। तुम्हारे श्रम को देखकर मैं नतमस्तक तो था पर तुम्हारा दर्द जानकार पलकें गीली हो आयी।सदियों से साहित्यकार समाज के प्रति दायित्व निभा रहा था अब वक्त आ गया है समाज साहित्यकार के प्रति दायित्व निभायें तभी साहित्य और साहित्यकार जीवित रह सकते है।
प्रभुदेव-काश समाज अपना दायित्व निभाता तो साहित्यकार को दर्द भरे जीवन के साथ जोखिम में नहीं जीना पड़ता।
धनादेव-सच कुछ स्वार्थी प्रकाशको ने साहित्यकारों के लिये पुस्तक प्रकाशन जोखिम भरा बना दिया है। समाज के सजग प्रहरियों को साहित्य को समाज का दर्पण बनाये रखने के लिये अपने दायित्व पर खरा उतरना होगा तभी सभ्यता,संस्कृति और परम्परायें एक पीढी से दूसरी पीढी सुरक्षित हस्तान्तरित होती रहेगी। साहित्य दर्पण बना रहेगा। समाज को चाहिये वह अपने दायित्व को पहचान ले वरना भारतीय सभ्य समाज सभ्यता और संस्कृति से दूर चला जायेगा जहां साहित्य को समाज का दर्पण माना कहा जाता है।
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(2)
।दो रूपये का चोर ।कहानी।
आजादी के बाद दबा-कुचला वर्ग पढ़ाई भी पढ़ाई को महत्व देने लगा तो था परन्तु रूढि़वादी व्यवस्था इनके राह में कांटे बो रही थी।काफी बरस के लम्बें के संघर्ष के बाद निम्न वर्ग के बच्चे निःसंकोच स्कूल जाने लगे थे परन्तु समस्या खत्म नहीं हुई थी।इस वर्ग के बच्चों को स्कूल का बाल्टी लोटा छूने की इजाजत नहीं थी। निम्न वर्ग के बच्चे प्यासे ही रह जाते थे घर से पानी पीकर जाते थे और घर ही आकर पानी पीते थे।इस त्रासदी से अक्सर बच्चे स्कूल छोड़ देते थे परन्तु दुखीराम का बेटा नरेश मां बाप की जिल्लत भरी जिन्दगी को देखकर उसने कसम खा लिया था कि वह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर शहर जायेगा। कहते है ना हिम्मते मरदा मरदे खुदा।उसके सामने कई मुश्किल आयी पर हार नहीं माना। उसके सामने कापी-किताब की समस्या मुंह बाये खड़ी रहती थी। कहने को तो निम्न वर्ग के बच्चों को पढ़ाई के लिये प्रोत्साहित करने के लिये सरकारी वजीफा की व्यवस्था थी पर नरेश को नसीब नहीं हुई। गरीबी के बोझ तले दबा वह दूसरीी जमात तो पास कर लिया।तीसरी जमात की पढ़ाई शुरू हो गयी थी। कुछ पुरानी किताब स्वजातीय छात्र ने दयावश दे दिया था जिससे उसके पास किताब का आंशिक इन्तजाम हो गया था परन्तु कापी का इन्तजाम नहीं हो पा रहा था॥ उसके बाप को बेटेे की पढ़ाई पर नाज तो बहुत था पर उसकी जरूरतों को वह तनिक नहीं समझता था। नरेश के सुुखिया मां और दुखीराम बाप दोनों जमींदारों के खेत में मेहनत मजदूरी करते थे कुछ उपार्जन होता गृहस्थी की गाड़ी रेंग रही थी।दुखीराम जमीदारों की सोहब्बत में बचपन से था,क्योंकि आंख खुलते ही वह गांव के बड़े जमींदार का बंधुवा मजदूर बन गया था उसके बाप को गांव के कुछ जमींदारों ने मार-पीट कर उसकी जमीन हड़प कर गांव से भगा दिया क्योंकि दुखीराम का बाप सुखई तनिक अंग्रेज अफसरों के साथ रहकर समझदार हो गया था। यही समझदारी उसकी दुश्मन बन गयी थी। वह गांव से ऐसा भागा कि कभी लौटकर नहीं आया।कहने को कुछ लोग तो कहते थे कि वह देश की आजादी के लिये कुर्बान हो गया पर इसका कोई प्रमाण न था । बेबस और लाचार दुखीराम को जमीदार की हरवाही के अलावा और कोई चारा न था तनिक सुरक्षा भी थी क्योकि गांव के बड़े जमीदार का नौकर जो था।
जमीदार के बच्चों कोस्कूल जाता देखकर सुुखिया और दुखीराम ने तय कर लिया था कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे ।हवेली में कभी कभी जमींदार साहब की पढ़़ाई को लेकर बच्चों को दी जा रही समझाईस दुखीराम के प्रतिज्ञा को और मजबूत कर देती थी। एक दिन दुखीराम के कान में वो बात पड़ गयी जो नहीं पड़नी थी। बात ये थी कि गांव के कथावाचक नीम की छांव में बिछे तख्त पर बैठे हुए थे। इतने में दुखीराम कंधे पर हल और बैलों की जोड़ी खेत से लेकर आया। बैलों को खूंटे पर बांध कर हौदी साफ करने में जुट गया जो नीम से तनिक दूर थी। कथावाचक बोले बाबूसाहब तुम्हारा मजदूर बहुत मेहनती है। देखो कंधे पर से हल रखते ही हौदी साफ करने में जुट गया।
जमींदार यानि बाबू साहब बोले बाबा हवेली के काम को अपना काम समझता है,आंख भी तो सही मायने में इसकी हवेली में खुली है।
कथावाचक-फर्ज भी तो पूरा निभा रहा है।
बाबूसाहब-मेहनती है पर बेवकूफ है।
कथावाचक-जातीय दोष है तभी तो बंधुवा मजदूर है पर सानी है। अपनी बात पर जान गंवा देते है ऐसे लोग।मालिक इनके लिये भगवान होते हैं।
बाबूसाहब-जमाना बदल रहा है।मजदूरों के लड़के स्कूल जाने लगे है,जब पढ़ लिख जायेगे तो मजदूरों के टोटे पड़ने लगेगे।
कथावाचक-बाबू दुखीराम जैसे अनपढ़ मजदूर ही मालिकों को सुख बदते है।अनपढ़ और बेवकूफ मजदूर होने के बहुत फायदे है चाहे जिस काम में लगा दो कोल्हू बैल की तरह ।दुखीराम तनिक स्कूल गया होता और समझदार होता तो इतनी वफादारी करता। नहीं ना तब तो वह अपनेा लाभ हानि के बारे में सोचता। देखना दुखीराम का लड़का हाथ से ना निकल जाये।पढ़ने लिखने लगेगा तो बाबूसाहब तुम्हारी हलवाही नहीं करेगा।
ये बात खामोश ही दुखीराम के कान में पड़ गयी। वह गुस्से में लाल तो हो गया। उसके मन में तो आया इस कथावाचक को पटककर उसकी छाती की हड्डी तोड़ दे पर बाबू साहेब की हवेली की शान जो थी वह कुछ नहीं बोला । दिन भर खामोश रहा। कुछ नहीं बोला।हवेली से रात को जब घर से चला तो उसका मन बहुत बोझिल था। वह हवेली से कुछ दूर खड़े विशाल पेड़ को पकड़कर खूब रोया।अपनी प्रतिज्ञा को आंसू की घूंटी पिलाकर और मजबूत कर लिया था ।दुखीराम मेहनती तो था पर मन का निश्चल और सीधा साधा भी था। उसे पढ़ाई के लिये क्या लगता है पता तक ना था । उसकी सोच थी कि बस स्कूल जाना से ही पढ़ाई हो जाती है।उसने इतनी जिद जरूर कर लिया था कि वह अपने बेटे को जमींदार के बेटे से अधिक पढ़ा लिखा बनाया। पढाई का खर्च कैसे और कहां से आयेगा इसके बारे में वह कभी ना सोचा ।
नरेश तीसरी जमात में पढ़ रहा था उसके पास कापी किताब न था । स्याही-दवात दो चार आने की आ जाती थी तो महीने चल जाती थी,इसकी पूर्ति मां सुखिया अनाज दे देती थी नरेश गुन्नूसाहु की दुकान से खरीद लेता था । खैर गुन्नू साहू बड़े सेठ थे। उनकी दुकान में किराना,कपड़ा स्टेशनरी का सामान भी मिल जाता था बस पैसे होने चाहिये या ढेर सा अनाज। सुखिय के बार-बार कहने पर दुखीराम आठ आना या एक रूपया कापी किताब के लिये दे देता था। इतने में नरेश का काम चल जाता था।नरेश मां का पल्लू पकड़कर ही अपनी जरूर बताता था । बाप से उसे डर लगता था। लेकिन दुखीराम नरेश मन लगाकर पढाई कर रहा है,यह तो समझता था लेकिन किताब कापी के खर्च के बारे में कभी नहीं पूछा होगा। खैर बंधुवा मजदूर तो था ही जमींदार साहब ने उसे गांजा की लत लगा दिये थे। चार आना दे देते कभी-कभी या एक चिलम गांजा। दुखीराम गांजा की कश लगा लेता तो जमींदार साहब कहते दुखिया गांजा भगवान बोले का परसाद है,इसको पीने से मन में अचछे विचार आते है।दुखीराम तो था ही मेहनतकश मन का सच्चा जमींदार की बातों से इतना प्रभावित हुआ कि गांजा का दीवाना हो गया। घर में बच्चे भूखे सो जाये इसकी परवाह उसे नहीं होती थी अगर उसे गांजा नहीं मिला तो पूरा घर सिर पर ले लेता था।हां उसे एक बाद नहीं भूलती थी की नरेश को जमींदार के बेटवा से अधिक पढ़ाना है पर कापी किताब की फिक्र ना था।
एक दिन कापी न होने की वजह से नरेश को स्कूल में मुंशीजी की खूब डांट खानी पड़ी वह स्कूल से रोनी सूरत बनाये घर आया,बस्ता रखा। मां ने रोटी चटनी दिया खाया पानी पीकर उठा। उसकी खामोशी सुखिया ताड़कर बोली बेटा स्कूल में किसी लड़के से झगडा तो नहीं हो गयी। वह कुछ नहीं बोला। चुपचाप बकरी चराने चला गया। अंधेरा होने के बाद वह वापस लौटा ।वह बकरी बांध कर भैंस को चारा डाला और सलटू के साइकिल रिक्शा पर बैठ गया । सलटू लालगंज कस्बा में रिक्शा चलाकर परिवार का भरण पोषण करता था। कस्बा से वापस लौटकर उसके घर पर खड़ा कर कोस भर दूर अपने घर पैदल ही जाता था। रिक्शा पर वह बैठे बैठे कापी खरीदने के उपाय सोचने लगा।कभी वह सोचता कि उसके घर के सामने बन रही सड़क पर मजदूरी कर कुछ पैसा कमा ले। फिर उसके मन में विचार आया क्यों न वह ईंट भटठे पर काम कर कुछ पैसे जोड़,उसके हम उम्र बस्ती के कई लड़के तो काम करते है पढाई छोड़कर। उसे अपने बाप की प्रतिज्ञा याद आ गयी। उसे लगा कि उसके बाप उसकी टांग पकड़ कर नीम के चबूतरे पर पटक दिये हो स्कूल ना जाने की गुस्ताखी में।वही बाप जो उसे स्कूल भेजकर बेफिक्र हो गांजा के धुंआ में जिन्दगी उड़ाये चले जा रहे थे। कई बार नरेश ने मना करने का प्रयास भी किया था पर वे नहीं माने थे। कई बार तो गांजा दारू से तौबा करने की सीख पर उसकी मां सुखिया को मारने को भी दौड़ाया था उसके बाप ने। कल की तो बात उसे याद आ गयी उसके बाप शाम को जब उसकी नानी के घर से वापस आये थे तो कुर्ता निकाल कर नरेश को घर में खूंटी पर टांगने को दिया था कुर्ता के नीचे वाले पाकेट में कुछ रूपया तो था पर उसने जांच पड़ताल नहीं कियश था । यह इकलौता कुर्ता दुखीराम जब कभी रिश्तेदारी जाता तो पहनता था बाकी समय खूंटी पर टंगा रहता। बस्ती से हवेली तक के काम में तो लूंगी और बनियाइन काम आता थी इससे ज्यादा की औकात भी ना थी।नरेश आने मां बाप की मजबूरी समझता।जुलाई में नरेश अपने बाप से कापी किताब खरीदने के लिये कहा था पर दुखीराम ने कहा था बकरी बिक जाने दो सब खरीद लेना। चिक बकरी खरीदने आया तो पता लगा कि बकरी गर्भवती है, नहीं लिया। बा पके पाकेट के पैसे जैसे उसे उकसा रहे हो कि वह उनमें से कुछ पैसे लेकर पल्हना जाकर कम से कम कापी तो खरीद ही सकता है।
वह गर्दन झटकते हुए उठा खूंटी पर टंगे कुर्ते की ओर लपका फिर ठिठक गया। सोचा घर में चोरी वह भी अपने बाप के पाकेट से।चोरी करना तो अपराध है,लत लग जाने पर बुरे रास्ते पर आदमी चल पड़ता है। फिर उसके मन में विचार आया पिताजी तो हमारी जरूरत को समझते नहीं।चलो हवेली से आये तो फिर एक बार कापी के लिये पैसा मांग लूंगा। वह अंगुली पर हिसाब लगाने लगा,बारह आने का एक जिस्ता कागज, चार आने की स्याही,स्केल एक लाइन वाली कापी कुल डेढ रूपये की जरूरत है इतने में काम तो चल जायेगा। बाबू को समझा दूंगा,कुर्ता की ओर बढ़ता हाथ पीछे खींच लिया। भैंस और बकरी को बरदौल में बांधकर पढ़ने बैठ गया। देर रात तक वह बाप की इंतजार में बैठा रहा कि वह हिम्मत करके पैसे मांग लेगा। उनके पाकेट में तो कल पैसा था पर दुखीराम नहीं नहींं आया। सुखिया रोटी बनाकर रोज इंतजार करती थी। देर रोत को उसे हवेली से छुट्टी मिलती थीं। घर आते ही गांजा का धुआ गाल भर-भर उड़ाता इसके बाद खाना खाता कुछ बच जाता तो बेचारी सुखिया खा लेती नहीं बचता तो पानी पीकर डंकार लेता और उसके बगल में लेट जाती।आज भी ऐसे ही हुआ नेरश बैठा-बैठा सोने लगा,सुखिया अपने हाथो से नरेश को बड़ी मुश्किल से रोटी खिलाई थी।इसके बाद वह सो गया था। सुबह तो बाप से मुलाकात होना मुश्किल था क्योंकि सूरज उगने से पहले दुखीराम को हवेली पहुंचना ही होता था।
दूसरे दिन नरेश स्कूल आया और बस्ता रखा । उसके बाप का कुर्ता वहीं खूंटी पड़ा वह हिम्मत करके बाप का थैला टटोलने लगा। उसे अपने बा पके थैले से दो-पांच के नोट,एक चवन्नी दो पांच और बीस पैसे के कुछ सिक्के मिले पर इन सिक्कों से उसका काम होने वाला नहीं था। वह जल्दी से दो रूपये का नोट नेकर के नाड़े में डाल लिया । दो रूपया का नोट बाप के थैले से निकालने में उसे दो दिन लग गये थे। दो रूपया का चोरकर अपनी छोटी बहन से बसन्ती तू बकरी संभाल लेना मैं पल्हना जा रहा हूं ।
बसन्ती-पल्हना क्यों ?
नरेश-कापी बनाने के लिये कागज लाना है।
बसन्ती-पैसा कहां से मिला ।
नरेश-स्कूल से आ रहा था,खेत में दो रूपये का नोट पड़ा था। इतने में कापी का काम तो हो जायेगा।
बसन्ती-जा भईया जल्दी आना।
नरेश गड़ारी-सिकंजा उठाया और पल्हना की ओर दौड़ पड़ा।पल्हना बाजार पहुंचने से पहले ही पकौड़ी की खूशबू उसके नथूने को भाने लगी था। भगवती माई के धाम के पहले गली में तो कुछ ज्यादा ही खूशबू आ रही था शायद आलू की टिकिया छन रही था। गद्दी पर पालथी मारे बैठी कुन्टल भर वजनी मोटू हलुवाई की औरत बोली अरे बाबू कहां जा रहे हो आओ ना टिकिया खा लो । वह बोला नहीं काकी पैसा नहीं है। सेठानी बोली थी बिना पैसे के बाजार आये हो।नरेश उसकी बातों को अनसुना कर आगे भागा और पाल्हमेश्वरी पुस्तक भण्डार पर ही रूका। कागज,स्याही,पेंसिल एक रूपया बारह आने में सब खरीदा और वहां से सीधे घर की ओर गड़ारी लेकर दौड़ पड़ा।बची चवन्नी मां के हाथ पर रखते हुए बोला मां दो रूपया रास्ते में किसी का गिरा पड़ा मिला था उससे कागज,स्याही,पेंसिल पल्हना से खरीद लाया।
सुखिय मां बोली-बेटा पल्हना गया था चार आने का खा लिया होता।
नरेश- मां तेरे हाथ का बना खाना खाने के बाद कुछ खाने का मन कर सकता है क्या ?
सुखिया-बेटवा की बला उतारते हुए बोली बेटा मैं तेरी मां हूं सब समझती ही।हम गरीब है,तरी जरूरतें नहीं पूरी कर पा रहे है। तेरे बाप को हवेली से फुर्सत नहीं दो सेर दिन भर की मजदूरी मिलती है। सूरज उगने से पहले जाते है आधी रात को वापस आते है।गम को हवा में उड़ाने के लिये गांजा का दामन थाम लिये है। मना करने पर नहीं मानते। मैं समझती हूं ये जमींदार की साजिश है,ताकि हम उनके बंधुआ मजदूर बने रहे। बेटा तू ही इस खानदान का चिाराग है,इस खानदान को तुम्हे ही रोशन करना है।मुसीबतों में तू पल रहा है पर हार नहीं मनना,पढ़ाई से मुंह ना मोड़ना मुश्किलें और भी आयेगी।
नरेश-हां मां जानता हूं तुम्हारा हाथ मेरे सिर पर है मुश्किलें हार जायेगी। मां का आर्शीवाद पाकर वह सफेद कागज से कापियां बनाने बैठ गया। इसके बाद वह पढ़ाई करने में जुट गया। काफी रात बित जाने के बाद दुखीराम हवेली से लौटा,नरेश को पढ़ता हुआ देखकर बोला बेटवा आज सोया नहींं।
सुखिया-बेटा को दो रूपया परूवा मिला था उसी का कागज कलम खरीद कर लाया है,पिछली पढ़ाई का काम पूरा कर रहा है।खैर पढ़ाई का काम तुम क्या समझो।
दुखीराम-ठीक कह रही हो,स्कूल का मुंह देखने का मौका ही नहीं मिला तो क्या जानूंगा। चलो बेटवा की वजह से तुम पढ़ाई क्या होती है जानने लगी। मुझो विश्वास हो गया कि अब बेटवा जमींदार के बेटा से आगे निकल जायेगा।
सुखिया-जमीदार के पास पच्चीस एकड़ जमीन है,करोड़ों रूपया बैंक में जमा है।सोना,चांदी,अपरम्पार गिन्नियां से तिजोरी भरी हैएउनका मुकाबला कैसे कर सकते है।
दुखिराम-भागवना हौशला तो बेटवा के पास है।देखना अपनी वचन जरूर सही साबित होगी।
सुखिया-लगता है तुम्हारे सिर भोलेबाबा चढ़ चुके है।अब तुम खाना खा लो सो जाओ सुबह काम पर जाना है,ज्यादा मत बोलो।
दुखीराम-तुमको ऐसा क्यों लगता है में गांजे के नशे में डूबा रहता हूं।
सुखिया-क्योंकि घर आते समय तुमको एक चिलम गांजा देते है बड़े जमीदार तुम और दूसरे मजदूर बतिया -बतिया का गाल भर-भर धुआं उड़ाने के बाद घर आते हो।ये जमीदार की चाल है तुम लोग नहीं समझते हो। चिलम भर गांजे के लिये जमींदार के आगे पीछे दुम हिलाते रहते हो । अरे जमीदार इतने मददगार है तो गांज की कीमत शाम को आते तुम्हारे हाथ पर रख देते तुम उसका नून-तेल लेकर आते तो समझती कि जमीदार साहब बड़े हमदर्द है।
दुखीराम-दो रोटी दोगी या ताने से पेट भरोगी।
सुखिया-पिछले जन्म के किये पाप का दुख अब भोग रही हूं अब और पाप ना बाबा ना तुम तो खा लो।जा बेटवा तू भी अब सो जा।
नरेश-हां मां।
दुखीराम खाना खाने के बाद खर्राटे मारने लगा।सुखिया चूल्ह चौका का काम निपटाकर दुखीराम के बगल में लेट गयी। दुखीराम का परिवार दुख के दलदल में फंसा रहा,दुख खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था पर हौशला की कमी नहीं थी। नरेश पांचवी कक्षा अव्वल दर्जे से पास कर गया। यह खबर हवेली के लिये मातम से कम न था फिर क्या परीक्षा पास करने का सिलसिला जारी हो गया। शिक्षा के इस महायज्ञ में सरकारी छात्रवृति की बड़ी भूमिका रही।अन्ततःनरेश बी․ए․ और एम․ए․की परीक्षा भी पास कर गया। जीमदार साहब ने अपने बेटे को बी․ए․की डिग्री खरीद लाये थे इसी डिग्री के भरोसे उंच सरकारी ओहदा भी लूट लिये था पर नरेश को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकी क्योंकि नौकरी खरीदने के लिये उसके पास दौलत और ना पहुंच थी। वह शहर में बाप के मान-सम्मान और उसके वचन को पूरा करने के लिये शहर में छोटी मोटी नौकरी करते हुए भी पी․एच․डी․की डिग्री तक हाशिल कर लिया था।दुखीराम बड़े गर्व से कहता बेटवा मेरी कसम पूरी कर दिया। लोग कहते जमींदार के बेटे जैसी नौकरी तो नहीं मिली।वह कहता यह जातीय अभिशाप और सरकारी खामियों का प्रतिफल है पर मेरे बेटवा ने मुझे वह खुशी दी है जिसे दुनिया की कोई दौलत नहीं दे सकती।बाप की खुशी को देखकर नरेश दुखीराम का पांव पकड़कर बोला पिताजी माफ करना।
दुखीराम-किस लिये। बेटा तुमने तो मेरा जीवन धन्य बना दिया माफी कैसी। माफी तो मुझे मांगनी चाहिये मैं तुमको कोई सुख-सुविधा नहीं दे पाया तू जातिवाद और गरीबी का जहर पीते हुए भी वह कर दिखाया जो गांव के बड़े-बड़े जमीदार के बेट न कर पाये।
नरेश- पिताजी गलती का बोझ मेरी छाती पर भारी पड़ने गला है।
दुखीराम-कैसी गलती बेटवा।
नरेश-पिताजी दो रूपय का चोर आपके सामने खड़ा है।
सुखिया बोली-चवन्नी मेरे हाथ पर रखा था एक रूपया बारह आने में कागज,पेसिंल।बेटवा वा चेारी नहीं।दुखीराम बेटवा मैं भी जानता हूं तेरा बाप जो हूं कहते दुखीराम ने नरेश को गले लगा लिया। मां सुखिया और बाप दुखीराम के ही नहीं वहां उपस्थित लोगों के आंखों से भी गंगा जमुना निकल पड़ी थी।
12․05․2013
(3)
। थाती । कहानी।
शोषित लौटन तनिक कुदरती तौर पर होशियार था।उसकी होशियारी गोरों के सामने तो चल जाती थी पर कालों के साथ तनिक भी नहीं। यही समझदारी उसके गले का फंदा बन गयी । खौंची गांव के दबंग जमींदारों को तनिक रास ना आयी।गोरी सरकार थी कालों का आतंक इससे पूरी बस्ती के दबे-कुचले लोग भयभीत रहते थे।गांव के दबंगों ने साजिश के तहत् लौटन को उसकी पैतृक जमीन से बेदखल उसका गांव निकाला कर दिया।गांव में उसकी धर्मपत्नी चारो बेटे-दीपचन्द, धूपचन्द, सुखचन्द, डूबचन्द और बेटी दुलारी बेसहारा हो गये थे,दर-दर भटकने को बेबस थे। कहते है ना डूबते को तिनके का सहारा दीपचन्द को भजन गाने और ढोल बजाने का शौक थी यही शौक उसकी कमाई की जरिया बन गयी। वह गांव की नाटक मण्डली में शामिल हो गया। गांव के जमींदार चारो भाईयों को बंधुवा मजदूरी बनाने की फिराक में थे पर दीपचन्द भी अपने बाप पर गया था उसकी अक्ल काम की तनिक होश संभालते ही अपने से छोटे भाई धूपचन्द को दूर के परिचित के साथ रात के अंधेरे में कलकता रवाना कर दिया।सुखचन्द गांव के बड़े जमींदार के चंगुल में फंस गया पर दीपचन्द और सुखचन्द ने रायमशविरा कर छोटे डूबचन्द को दिल्ली भेज दिये। समय करवट बदला चारो भाईयों का शादी ब्याह हुआ। दुलारी के भी हाथ पीले हो गये। धूपचन्द की पहली पत्नी का अचानक देहावसान हो गया। दो साल बाद दीपचन्द और सुखचन्द ने भाग दौड़कर दूसरी शादी करवा दिया। लूटवन्ती के पूर्व मृतक पति की निशानी मनवन्ती भी साथ आ गयी। नये परिवार में मां के साथ बेटी का भी पुरजोर से स्वागत हुआ। लूटवन्ती के मायके में उसकी मुसामात मां कालीदेवी अलावा और कोई था नहीं हां धूपचन्द के साथ पुर्नब्याह होने के दस साल बाद किरन का जन्म हुआ था । तनिक खेती बारी की जमीन भी थी। चारो भाई हृष्ट-पुष्ट थे,मेहनत मजदूरी कर कुछ बचत करने में जुटे हुए थे ।सबसे कम कमाई सुखचन्द की थी क्योकि सेर भर मजदूरी में क्या बचत होती पर उसकी घरवाली लाजवन्ती बड़ी उद्यमी थी,अधिया की भैंस,बकरी,मुर्गी पालकर सुखचन्द के साथ कंधा मिलाकर गृहस्ती की गाड़ी खींच रही थी। डूबचन्द अपनी घरवाली को लेकर दिल्ली क्या चला गया सब नाते-रिश्ते का मटियामेट कर दिया। दीपचन्द, धूपचन्द और सुखचन्द भय्यपन पर मर-मिटने को तैयार रहते थे। दुर्भाग्यवश दीपचन्द, धूपचन्द की घरवालियों को यह पसन्द नहीं आ रहा था।दीपचन्द की पत्नी झुलसीदेवी भी अपने मां-बाप की अकेली थी,अपनी मां की मौत के बाद वह अपने छः बच्चों के साथ मायके बस गयी। दीपचन्द का ससुराल आना जाना बना रहता पर उसे ससुराल में बसना ठीक नहीं लगा। वह अपनी जन्मभूमि से दूर नहीं जाना चाहता था परन्तु जन्मभूमि की विरासत तो दबंगो ने पहले ही हड़प लिये थे कुछ बचा था नहीं। दीपचन्द को सुखचन्द के बच्चों से बेहद लगाव था । सुखचन्द की कमाई भी बहुत कम थी खाने वाले पति-पत्नी सहित छः बच्चों का परिवार उपर से नातेदारी-रिश्तेदारी सब उसके उपर थी।उधर दीपचन्द की पत्नी बच्चों के साथ बाप की विरासत संभालकर खुश था। उसे अब दीपचन्द बेकार लगने लगे थे पर औलाद का मोह कहा छोड़ने वाला था । दीपचन्द का आना जाना बराबर बना हुआ था। झुलसीदेवी बाप की खेती अधिया पर करवाने लगी थी। जिसकी वजह से लक्ष्मी का आना जाना सुखदायी बन गया था। उधर धूपचन्द की सुसराल का भी यही हाल था पर दीपचन्द अपनी और धूपचन्द की सुसराल का केयरटेकर बना हुआ था । डूबचन्द दिल्ली में अस्थायी रूप से बस गया था । उसकी ससुराल में भी उसके साले के पास लड़का नहीं था। साले की जायदाद की लालच में डूबचन्द भाईयो से एकदम से नाता तोड़ दिया था हा बाद में निराशा हाथ लगी थी।
दीपचन्द का मान सम्मान वैसे अधिक था। मिलनसार व्यक्ति जो था साथ ही सबके दुख सुख में गिरा रहता था। दीपचन्द दूल्हापुर धूपचन्द की सुसराल गया था। पास के गांव का घुरहूदेव दीपचन्द से मिलने आया जिसका पांच बीघा खेत धूपचन्द के ससुराल में मिले खेत से लगा हुआ था। नवजवान घुरहूदेव दीपचन्द से बोला बहनोई मेरा खेत खरीद लो।
दीपचन्द- खेत तुमने खरीदा है क्या ।
घुरहूदेव-नहीं बहनोई खानदानी है।
दीपचन्द-खानदानी जमीन है,तुम्हारे पुरखों से तुम्हे विरासत में मिली है। तुम बेच रहे हो। अरे तुमने सोचा है तुम अपने बच्चों को क्या दोगे।
घुरहूदेव-अच्छा भविष्य ।
दीपचन्द-वो कैसे द्य
घुरहूदेव-शहर में शिफ्ट हो रहा हूं। मां-बाप स्वर्ग सिधार गये। बार-बार गांव आना होता नहीं है।खेती मुझसे हो नहीं सकती । नौकरी करूं या खेती।बच्चे शहर में पढ़ लिख रहे है । वे गांव तो आने से रहे।
दीपचन्द-पुरखों की निशानी बेचना अच्छी बात तो नहीं है।
घुरहूदेव-अच्छाई-बुराई मैं समझता हूं बस मुझे पांच बीघा जमीन बेचना है।
दीपचन्द-मैं कैसे खरीद सकता हूं।मेरे पास इतने पैसे कहां से आयेगे।
घुरहूदेव-बहनोई सौदा पक्का का लो।रकम बाद में दे देना। तब तक के लिये खेत अधिया पर ले लो।
इसी बीच लूटवन्ती आ गयी।जेठजी हामी क्यों नहीं भर लेते।अरे बिना कामधाम के इधर उधर भटकते रहते हो।घुरहूदेव खेत अधिया पर दे रहे है तो लेलो । यही रहकर खेती करो। दौरीगांव में तो मड़ई रखने की जगह नहीं है। कम से कम दूल्हापूर में तो है।
दीपचन्द-झुलसीदेवी के मायके में भी तो बहुत जमीन है।
घुरहूदेव-सस्ते में दे दूंगा। शहर में मेरा मकान बन रहा है। पैसे की जरूरत है।
लूटवन्ती-कैसे बीसा दे रहे हो भईया ।
घुरहूदेव-डेढ़ सौ बीसा।
लूटवन्ती-उसर है,रेह मेें चलना भारी है अनाज क्या होगा उसमें। सौ रूपया बीसा लगाओ।
घुरहूदेव-तुम्हारी बात मान लेता हूं।
लूटवन्ती-जेठजी किरन के बाबू को चिटठी लिखा दो कुछ पैसे का इन्तजाम वो कर देगे।सुखचन्द भैस बकरी और लाजवन्ती के गहना बेचकर वो भी कुछ इन्तजाम कर दे। हिस्सा लेने के तो मुंह उठाये रहते है दोनो प्राणी।आधा दर्जन बच्चे पैदा कर लिये खाने का ठिकाना नहीं।
दीपचन्द-लूटवन्ती क्यों जली कटी सुनाती है। अरे उसके दिन भी फिरेगे। देखना अगर हम लोग धरती पर रहे तो सुखवन्त के बच्चों से अपनी खानदान की पहचान होगी। तुम भी इतराओगी। आज जली कटी सुना रही हो।क्या तुम नहीं जानती हो कुलनयन को ,कितना होशियार है पढ़ने में। हरीलाल मुंशीजी एक दिन मिले थे बह रहे थे पूत के पांव पलने में दिख जाते है,वैसे ही कुलनयन है।
लूटवन्ती-जुम्मा-जुम्मा आठ दिन स्कूल जाते नहीं हुए उम्मीद बना लिये कि कलेक्टर बन जायेगा कुलनयन।
दीपचन्द-काश तुम्हारी जबान पर सरस्वती बैठ जाती कुलनयन कलेक्टर बन जाता। कुलनयन तो अपने बाप से ज्याद धूपचन्द और मुझको मानता है ,खैर तुम्हारी भी बहुत इज्जत करता है।सुखचन्द के सभी बच्चे गुणी है। जैसे बाप गरीब है वैसे ही बच्चे बुद्धिमान ।
लूटवन्ती-रहने दो बहुत हो गयी तारीफ। कैसे सुखचन्द गरीब है,किलो भर की चांदी की हंसुली,हुमेल,बाजूबन्द कुल मिलाकर किलो भर चांदी के गहने लाजवन्ती के पास है।सासुजी क्या गहना लेकर स्वर्ग जायेगी । उनका गहना किस काम आयेगा। लाजवन्ती के पास भैस,बकरी,मुर्गी का व्यापार कम कैसे है।देवरजी को जमीदारों जैसे शौक-दारू गांजा मुर्गमस्सलम कोई गरीबी की निशानी है।
दीपचन्द-खेत खरीदने के लिये सुखचन्द के बच्चों के मुंह का निवाला मत छिनने की बात करो। हां जो उससे हो सकेगा करेगा।
लूटवन्ती-उस गांव में क्या रखा है, जहां पेशाब करने भर को खुद की जमीन नहीं है। कह दो घरोही बेंचकर यही दूल्हापुर में बस जाये।
दीपचन्द-ऐसा तो सुखचन्द कभी नहीं करेगा।हां भय्यपन खातिर अपनी आढत दाव पर जरूर लगा देगा।
लूटवन्ती-किस बहस में पड़ गये किरन के बापू को बैरन चिटठी लिखवा दो।डूबचन्द को भी एक चिट्ठी डलवा दो महीने भर में कुछ इन्तजाम हो जाये तो घुरहूदेव भईया को भेजवा दे ताकि खेत पर कब्जा तो हो जाये।
दीपचन्द आह भरते हुए बोला काम तो कठिन है पर मां और सुखचन्द और लाजवन्ती से बात करूंगा।यकीन है वे लोग मान जायेगे। दीपचन्द दूल्हापुर से अपने पुश्तैनी गांव आया। पूरा माजरा अपनी मां भूखवती,भाई सुखचन्द,भयहूं लाजवन्ती को समझाया। खैर औरत गहना अपने तन से उतारना कभी नहीं चाहती पर लाजवन्ती दीपचन्द को इंकार ना कर पाई। सुखचन्द और उसके परिवार के लिये दीपचन्द और धूपचन्द श्रेष्ठ तो थे ही किसी देवता से कम भी नहीं थे। लम्बी जदोजहद के बाद खेत की रजिस्टी्र चारों भाईयों दीपचन्द, धूपचन्द, सुखचन्द, डूबचन्द के नाम हो गयी पर गहने पशु और जो कुछ कीमती सामान था सब कुछ बिक गया सुखचन्द का बिक गया।धूपचन्द की तो कलकते में सरकारी नौकरी थी। सब कुछ बिक जाने के बाद भी सुखचन्छ खुश था कि कम से कम उसके नाम भी तो जमीन का टुकड़ा हो गया।
जमीन दूल्हापुर में लिखा ली गयी। धूपचन्द और सुखचन्द ने राय मशविरा कर तय किया कि बड़े भईया खेती करवाये। दीपचन्द भाईयों की बात टाल नहीं सकते थे। दीपचन्द धूपचन्द के ससुराल और पांच बीघा रजिस्टी्र वाली जमीन पर खेती करवाने लगे। लूटवन्ती का एक पैर कलकता तो एक पैर दूल्हापुर रहने लगा। दीपचन्द की जिम्मेदारी ज्यादा बढ़ गयी । धूपचन्द की सौतेली बेटी मनवन्ती,सगी बेटी किरन और मुसामात सासु कालीदेवी की जिम्मेदारी इतनी चिन्ता तो उसे अपने बच्चों की कभी नहीं हुई थी। दीपचन्द की सेवा से खुश होकर मुसामात कालीदेवी अपनी जमीन दीपचन्द के नाम लिखने की जिद पर अड़ गयी थी पर दीपचन्द नहीं माना था। आखिरकार कालीदेवी ने अपनी जमीन चारो भाईयों के नाम रजिस्टी्र कर दी थी।लूटवन्ती इतनी डायन निकली कि सात बीघा जीमन से दीपचन्द की मेहनत से उपजे अपरम्पार अन्न में से एक दाना सुखचन्द को नहीं देने दी। बेचारा दीपचन्द आंसू बहाता रह जाता था। सुखचन्द के बच्चों कुलनयन,कुशानयन,बेटियादीपा,सीखा,दीक्षा,तीखा
को भूखा देखकर पर सुचन्द कभी अपने मन में कोई मलाल नहीं रखा सिर्फ भय्यपन के लिये।
धूपचन्द की सौतेली बेटी का ब्याह तो उसकी आंख नहीं खुली थी तभी हो गयी। गौना बाकी था। गौना का दिन पड़ गया दीपचन्द और धूपचन्द ने भी मनवन्ती के गौने में सगी बेटी जैसे ही दान दहेज दिया था। किरन भी धीरे धीरे सयान हो रही थी उसकी भी ब्याह दीपचन्द ने बड़े घर के लड़के से करवाया था।
धूपचन्द की सौतेली बेटी मनवन्ती का गौना जाने के दो साल बाद किरन का भी ब्याह हो गया था। गौना और ब्याह हो जाने के बाद लूटवन्ती का डायनपना और निखर गया था। दीपचन्द उसे दुश्मन लगने लगा था क्योंकि धूपचन्द का सौतेला दमाद प्रभुलूटेरा तहसील नौकरी करता था। धूपचन्द की सगी बेटी का ससुर दूधनाथ जो धूपचन्द की कमाई के जूते कपड़े पहनता था और नगद उसकी कमाई का खर्च करता था । यह सब लूटवन्ती की सांठगांठ से शुरू हो गया था। लूटवन्ती के दिमाग में ये बात घर कर गयी थी उसका तो कोई बेटा है ही नहीं पूरी जमीन का दो हिस्सा कर दोनो बेटियों के नाम कर दे। दमाद प्रभु लूटेरा और समशी दूधनाथ ताना बाना बुनने लगे और जीमन की फर्जी रजिस्टी्र सौतेले दमाद प्रभुलूटेरा और दूधनाथ समधी ने दोनो बेटियों के नाम करवा लिया। इस बात की भनक दीपचन्द को लग गयी।दीपचन्द दौड़भाग करने लगा। अब दीपचन्द को रास्ते से हटाना सौतेले दमाद प्रभुलूटेरा और समधी दूधनाथ के लिये जरूरी हो गया। इन दोनों ने लूटवन्ती डायन को मिलाकर योजनाबद्ध तरीके से ढाठी देकर मार कर लाश पेड़ पर टांग दिये। रात में दोनो प्रभुलूटेरा और दूधनाथ गायब हो गये।लूटवन्ती ने बेचारे दीपचन्द के माथे आत्महत्या का दोष मढ़वा दी।
गम्भीरपुर का पुलिस थाना आया पर खानापूर्ति कर चले गये। बहती गंगा में हाथ जो धोना था। पोस्टपार्टम के बाद दीपचन्द की लाश सुखचन्द को सुपुर्द कर दी गयी। दीपचन्द भाई की क्रियाकर्म कर खेत पर कब्जा लेने के लिये कोर्ट में मुकदमा तो लगा दिया पर लूटवन्ती डायन,प्रभुलूटेरा और दूधनाथ से जीत पाना बहुत मुश्किल था। पैसा तो पानी की तरह बह रहा था वह भी धूपचन्द की कमाई का। लूटेरो के हाथ तो जैसे कुबेर का खजाना लग गया था।सुखचन्द बंधुवा मजदूर था कामई का कोई पुख्ता इंतजाम था नहीं मुकदमा लड़े तो कैसे पर उसने रीन कर्ज कर मुकदमा इंजाम तक पहुंचाने के लिये कसम खा लिया था ।जब उसे जमींदार के काम से छुट्टी नहीं मिलती तो कुलनयन साइकिल से दीवानी कचहरी आजमगढ़ केस की सुनवाई पर जाता। तारीख भी महीनों बाद की पड़ती थी उसके पहुंचने के पहले तारीख पड़ जाती थी। सौतेला दमाद जल्लाद प्रभूलूटेरा कचहरी में पदस्थ जो था।
एक बार तारीख सुखचन्द तारीख पर गया हुआ था तारीख तो सौतेला दमाद जल्लाद प्रभूलूटेरा ने पहले ही ले लिया था पर प्रभुलूटेरा और दूधनाथ कचहरी के बाहर इन्तजार कर रहे थे। सुखचन्द कचहरी में गया तो पता चला कि तारीख पड़ं गयी है। वह मुहर्रिर से बोला साहब कम तक तारीख पर तारीख पड़ती रहेगी चार साल हो गये है मुकदाम दायर हुए। मुहर्रिर गुसियाते हुए बोला कोर्ट का काम है,कोट जाने मैंने तारीख दे दिया अगली बार जज साहब से पूछ लेना। सुखचन्द सिर धुनते हुए नीचे उतारा। सीढी के नीचे ही दूधनाथ खड़ा था वह सुखचन्द की बाह पकड़कर बोला आओ समधीजी चाय पी लो वह बांह छुड़ाते हुए बोला एक भाई की जान तो ले लिये कम से कम उसकी निशानी तो मत हथियाओं भगवान देख रहा है।
दूधनाथ-समधीजी मामला कोअर् में हैं। फैसला कोटे से होगा क्यों मन खराब कर रहे हो।वह हाथ पकड़े हुए वह चाय की दुकान के पीछे साइड ले गया । वहां का नजारा देखकर उसके होश उड़ गये। वहां उसे अपनी मौत का ताण्डव दिखने लगा था । सात-सात फीट के शैतान सरीखे कई लोग बैठे हुए थे उसी में जैसे वे पेशेवर कत्ली लग रहे थे। सब मिलकर सुखचन्द पर दबाव बनाने लगे कि वह सादे कागज पर अंगूठा लगा दे। इसी बीच सुखचन्द के गांव का एक दुबला पतला रविन्दतेग ना जाने कैसे पहुंच गया पर वह भी गुण्डा ही था।सुखचन्द को देखकर वह बोला क्यों सुखचन्द इस मण्डली में कब से आ गये।
सुखचन्द-बाबू पकड़ कर लाया गया हूं।
रविन्द्रतेग-क्यों․․․․․․․․․․․? बेहिचक बताओ ये लोग अपने ही है।
सुखचन्द-एक सांस में सब कह सुनाया।
रविन्द्रतेग-धूपचन्द की अंगुली उठाते हुए बोला ये तो तुम्हारे बड़े भईर्या है ना।
सुखचन्द-हां पर अब तो दुश्मन हो गये है।दीपचन्द भईया की हत्या करवाकर ।
रविन्द्रतेग-धूपचन्द तू इतना नीच कैसे हो गया रे। धूपचन्द चुपचाप सुनता रहा। रविन्द्रतेग सुखचन्द से पूछा- तुम्हारे पास किराया भाड़ा है।
सुखचन्द-हां।
रविन्द्रतेग-तुम यहां से तुरन्त निकल जाओ। इनको मैं देख लूंगा ।
सुखचन्द जान बची लाखो पाये। सीधे बस अड्डे की ओर भागा।घर आकर आप बीती लाजवन्ती को सुनाया लाजवन्ती बोली अब मत जाना कोर्ट और ना कुलनयन को भेजना। जेठजी खून के प्यास हो गये है सौतेले दमाद प्रभुलूटेरा और समधी दूधनाथ के बस में आकर। आज तो रविन्द्रतेग पहुंच गये जान बच गयी कल क्या होगा। जमीन का मोह छोड़ो किस्मत में होगा तो कुलनयन की कमाई से धन दौलत जमीन जादाद से कुछ बन जायेगा। जान जोखिम में मत डालो। लाजवन्ती की बात सुखचन्द मान गया। पूरी जमीन के मालिक अब धूपचन्द का सौतेले दमाद प्रभुलूटेरा और समधी दूधनाथ हो गये। धूपचन्द नौकरी से रिटायर हो गया। पूरी रकम भी सौतेले दमाद प्रभुलूटेरा और समधी दूधनाथ के हाथ लग गयी। दवा दारू के लिये एक लाख रूपया धूपचन्द के नाम से बैंक में जमा करवा दिया गया था। धूपचन्द के रिटायर होने के कुछ माह बाद लूटवन्ती को लकवा मार गया। वह तड़प-तड़प कर मर गयी। ना सौतेले दमाद प्रभुलूटेरा और समधी दूधनाथ कोई काम ना आया जो हो सका किरन और धूपचन्द किये। लूटवन्ती के क्रिया कर्म में भी दिक्कते आयी तब जाकर धूपचन्द की आंख खुली।अब उसे सुखचन्द अपना सगा दिखने लगा था पर दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है। धूपचन्द की सुखचन्द से नजदीकी की खबर लगते ही प्रभुलूटेरा सुखचन्द के घर में भी हिस्सा लेने के लिये कोर्ट कचहरी कर दिया पर गांव वालों की मदद से उसकी दाल ना गली।धूपचन्द को सौतेले दमाद की करतूतें अब दुखदायी लगने लगी थी। धूपचन्द भी बीमार रहने लगा। वह भी लकवा का शिकार हो गया। एक दिन प्रभुलूटेरा इलाज करवाने के बहाने महमदपुर ले गया। मेडिकल स्टोर से क्रोसिन की पता खरीदकर धूपचन्द को थमाते हुए बोला बाबू बैंक का काम करवा दे।
धूपचन्द-कौन सा काम ․․․․․?
प्रभुलूटेरा-बैंक चलोगे तो मालूम चल जायेगा। वह पैसा निकलवाने वाले फार्म पर जर्बदस्ती अगूठा लगवा लिया बैंक में जमा रूपया निकाल कर वह सदर चला गया। धूपचन्द को महमदपुर बाजार में छोड़ दिया। बड़ी मुश्किल से लकवाग्रस्त धूपचन्द शाम तक अपने घर पहुंचा। किरण आने पति और बच्चों के साथ दूल्हापुर रहने लगी थी । वह बाप की हालत देखकर विलख पड़ी थी। वही तो बची थी जो बाप की सेवा करने के लिये बैंक में जमा धन की आस में पर वह भी प्रभुलूटेरा लूट ले गया। धपूचन्द बीटिया को गले लगाकर रोते हुए बोला बीटिया अंधे की लाठी टूट गयी।
किरन बोली बापू तुम्हारी लाठी तो पच्चीस बरस पहले टूट गयी थी बड़े बापू की हत्या की गयी थी।
धूपचन्द स्वयं की बीटिया के मुंह से ऐसी वाणी सुनकर जीते जी मर गया था। वैसे वह तो अब रोज-रोज मर रहा था। किरन से बोला बेटी कुलनयन से मिलवा देती। बाप की अन्तिम इच्छा मानकर दूर के रिश्तेदार से बा पके पैतृक गांव खौची संदेश भेजवा दी।सुखचन्द भाई की लालसा जानकर बहुत खुश हुआ ।वह खुद भाई धूपचन्द जो सांप से भी जहरीला था उससे मिलने गया था और वादा करके आया कि कुलयन के शहर से आने पर वह जरूर मुलाकात के लिये भेजेगा। कुलनयन,धूपचन्द का बड़ा बेटा था जो पेट में भूख आंखों में सपना लेकर पढ़ाई कर शहर में नौकरी कर रहा था। दारू,गांजा भांग के शिकार सुखचन्द की तबियत एक दिन अचानक बिगड़ गयी।छोटे भाईर् कुशनयन ने बाप की बीमारी का तार मार दिया। तार पाकर कुलनयन सपरिवा गांव पहुंच गया। बाप की इलाज करवाया। सुखचन्द सप्ताह भर की इलाज के बाद चलने फिरने लायक हो गये।कुलनयन शहर वापस जाने की तैयारी करने लगा। उसके बाप सुखचन्द बोले बेटा एक वचन मांगू दे सकोगे क्या․․․․․․․․․․․․?
कुलनयन बोला-पिताजी मांग कर तो देखिये।
सुखचन्द-मुझे मालूम है तू मेरा राम है,लाख मुसीबत उठा लेगा पर दख तुझसे बर्दाश्त नहीं होगा।बेटा शहर जाने से धूपचन्द को देख आता बहुत बीमार है।कौन जाने कब धरती से विदा ले लें।खून का रिश्ता है।ठीक बेईमान किये है,उसका फल तो भगवान दे रहा है। देखकर शाम तक वापस आ जाना।
कुलनयन बाप की इच्छा को पूरा करने के लिये दूल्हापुर गया।वह कुलनयन को देखकर चिल्लाकर रो पड़ा।कुलनयन बड़े बापू धूपचन्द का हौशला बढाते हुए बोला बापू चिन्ता ना करो हम लोग तो है ना भले ही तुम्हारी थाती तुम्हारे अपनो ने लूट लिया।
धूपचन्द बोली-बेटा बहुत बड़ा अपराध मुझसे हो गया। मैं बहकावे में आ गया खून के रिश्ते के बीच दरार बन गयी ।बेटा तुम लोग दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करो ,हमारे पास अब तो कुछ देने के लिये बचा नहीं है,बस दुआये है।
कुलनयन-बापूजी हमें धन दौलत की दरकार नहींं है।दुख इस बात का है कि आपकी थाती आपके वफादार दमाद प्रभुलेटेरा ने लूट लिया।
धूचपन्द-कुलनयन का हाथ पकड़ते हुए बोला बेटा अब तुम लोग ही हमारी थाती हो।धूपचन्द की लाचारी देखकर कुलनयन बोला हां बापू अब यही मान लो।तुम हमारे बा पके बड़े भाई हमारे बाप ही हो और अब हम तुम्हारी थाती।
22․05․2013
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(4)
पंचायत भवन/कहानी
हे भगवान ये कैसी आजादी है। नेता लोग मलाई छान रहे है।मन्त्री बन गये तो कई पीढि़या आबाद हो गयी। बेचारे भूमिहीन,मजदूर गरीब हाशिये के लोग जीवन भर तंगी में बिता देते है। मरने के बाद वारिसों पर कर्ज का भार छोड़ जाते है। देखो बेचारी भुजिया मर गयी । अफसरों के सामने गिड़गिडाती रही कि साहब पंचायत भवन बनाने से पहले आंवण्टन करवा दो। गांव के जमीदार लोग पच्चासों एकड़ गांव समाज की जमीन हथियायें बैठे है,मजदूर बस्ती के सामने दो बीसा भर खाली उंची-नीची जमीन थी। जहां बस्ती की बहू बेटियां सुबह शाम क्रिया-कर्म से निवृत हो लेती थी। उसी जमीन पर पंचायत भवन बनने जा रहा है। जबकि पोखरी के उस पार एकड़ो में जमीन है,दबंग जमीदार का कब्जा है। उसी पर बनवा देते पंचायत भवन पर प्रधान की जिद बस्ती की बहू-बेटियों के क्रियाकर्म से निवृत होने की जगह छिन ली।देखो आज बेचारी भुजिया दवादारू के अभाव में मर गयी। मेहनत मजदूरी कर बच्चे पालने के अलावा कुछ सूझा ही नहीं।दस पांच बीसा जमीन होती तो इतनी बुरी मौत तो ना मरती कहते हुए दुखरन भुजियादेवी की लाश से कुछ दूरी पर बेहोशी की हालत में पसर गये। कुछ बड़बड़ाते हुए बोले अरे लाश धूप में क्यों सूखवा रहे हो महतारा ले जाकर कफन दफन कर देते। फिर कुछ सोच कर वह खुद ही बोले कफन भी तो महंगा है गरीबों के लिये। गरीबों की नसीब में कफन भी कहां। सब तो चट कर रहे दीमक जैसे चेहरा बदल-बदल कर डंसने वाले लोग। दम भरते हुए बोले अरे सूरज डूबने वाले हैं भुजियादेवी को सड़ा क्यों रहे हो।श्मशान ले जाकर फूंक-ताप देना चाहिये था।
गरजू बोला काका फूकहरन की इंतजार है।
दुखहरन- कहां गया है।
गरजू-दिल्ली प्लास्टिक की कोई मोल्डिंग मशीन होती है।सुना है वही चलता है।क्या करता गांव में बंधुवा मजदूरी से छुटकारा पाना था।दो अक्षर पढ़ क्या गया सोचा शहर में कोई अच्छी नौकरी मिल जायेगी पर देखो चालीस साल से मोल्डिंग मशीन चला रहा है मड़ई से आगे नहीं बढ पाया। बेचारे की मां दवाई के लिये रिरिक-रिरिक कर मर गयी।घरवाली मर गयी। सुना है वह भी टीबी का श्किार हो गया है। दिल्ली से चल दिया है रात दो बजे तक आयेगा।इसके बाद कफन-दफन होगा।
दुखहरीदेवी-बेचारी भुजियादेवी प्रधान के सामने रिरकती रह गयी कि प्रधानजी आवंण्टन करवा दो दस बीसा मिल जायेगा तो अपना भी जीवन ठीक से बीतने लगेगा। प्रधान बोले आवंण्टन के लिये गांव समाज की जमीन कहा है।
भूखहरीदेवी-आंसू पर काबू करते हुए बोली सब बेईमान है। अपने गांव में इतनी जमीन है कि सभी बस्ती के पच्चीस परिवार को एक-एक बीघा जमीन भी मिल जाती इसके बाद भी जमीन बच जाती पर। बाबू लोगों के सामने साहब सुबा प्रधान और निअमर सब भींगी बिल्ली हो जाते है। गांव का कोई ऐसा जमींदार नहीं है जो पांच से दस बीघा गांव समाज की जमीन दबा कर नहीं बैठा है।इसके
बाद घुर और खरिहान के लिये भी जमीन पर अवैध कब्जा है। मजदूर बस्ती के लोगों के पास मड़ई बनाने का कोई इन्तजाम नहीं जबकि सदियों से इसी गांव के निवासी है। वाह रे अमानुष लोग।
दूधई-बस्ती के सभी लोगों ने पंचायत नहीं बनने देना चाहते थे।अरे यही तो तनिक भींटा था जहां बच्चे औरते क्रिया-कर्म से फारिक होते थे उस पर ये पंचायत भवन खड़ा हो गया। बताओ पंचायत भवन से मजदूरों का क्या भला होने वाला है। भुजियादेवी ठीक कह रही थी पंचायत भवन बनाने से पहले आवण्टन करा दो प्रधानजी पर गरीबों की कब सुनी गयी है कि अब सुनी जाती।जिन्दगी भर की आस भुजियादेवी की नहीं पूरी हुई आखिरकार आवण्टन नहीं हुआ तो नहीं हुआ। आजादी के दसकों बित गये कितनी सरकारे आयी गयी पर गांव के बाबू लोग आवण्टन नहीं होने दिये। मजदूरों की बस्ती के मुहाने पर पंचायत भवन बनवा दिये लाखों डकार गये। पंचायत भवन तो भूमिहीन मजदूरों के मुंह पर तमाचा है। मैय्यत में आये लोग रायशुमारी में लग गये। दसई भी टिकठी बनाकर एक तरफ रखा और वह भी पंचायत भवन और आवण्टन में से बस्ती के मजदूरों के लिया पहले क्या जरूरी था दूधई से पूछा ।
दूधई बोला-देखो सबसे पहले पेट की आग मिटाने का इन्तजाम होना था। यकीनन बस्ती के मजदूरों के लिये आवण्टन बहुत पहले हो जाना था ।
गरजू गरजते हुए बोला अब आवण्टन का ख्याल अपने मन से निकाल दो ।
लछई-क्यों दादा ।
गरजु-तुम नहीं जानते क्या․․․․․․?
लछई-मैं क्या नहीं जानता दादा बता देते तो जान जाता ।
गरजु-बेटा आवण्टन न हो इसके लिये गांव के बाबू लोगों ने कितनी बड़ी राजनीति खेली है।
दसई-कैसी राजनीति भईया ।
गरजु-ऐसे पूछ रहे हो जैसे जानते नहीं।अरे घड़ई गांव के पास से लगी एकड़ो जमीन पर बाबू लोगों ने कच्चे-पक्के घर बनवा कर ताले जड़ दिये है। एक दो घर दूसरे गांव के लोगो को बनवा दिये है।अब बताओ जब जमीन खाली थी तो बदमाश बाबूलोगो ने आवण्टन होने नहीं दिया । बाकी जमीन पर खुद बड़े-बड़े भूमि मालिक कब्जा जमाये हुए है। उनसे जमीन खाली करवाना समझो बस्ती में आग लगवाना होगा ।
दसई-भईया एक बार आवण्टन हो जाने दो,सब खाली कर देगे। समस्या तो ये है कि आवण्टन नहीं हो पा रहा है आजादी का सत्तरवां दशक समाप्ति की ओर है । इस पिछले गांव के दबे-कुचले भूमिहीनों का लूटा भाग्य गांव के जमींदारों ने आबाद नहीं होने दिया। अपने गांव तक पहुंचते-पहुंचते सारे सरकारी नियम कायदे बौने हो जाते है।
लछई-हां काका ठीक कह रहे हो आजादी के बाद पहली बार बस्ती से कहरूलाल प्रधान बना था। उस प्रधानी के चुनाव के लिये बस्ती वालों ने कितनी त्रासदी झेली था बाबू लोगों का अत्याचार सहा था। वोट न देने जाने की खुलेआम धमकी आती थी। जान-माल पर खतरा ही खतरा था । बस्ती के कई मजदूरों को सिर फूटा,हड्डी टूटी थी। बस्ती छावनी बन गयी थी । अपना उम्मीदवार जीता भी पर हुआ क्या ․․․?
गरजु-क्या कर सकता है। अकेला चना भाड़ फोड़ सकता है क्या ? उप प्रधान,सदस्य सब तो उंची जाति वाले थे अगर उनसे मिलकर नहीं रहता तो जान से हाथ धो जाता। नन्हे नन्हे उसके बच्चे अनाथ हो जाते।
लछई- कैसी बात कर रहे हो। कहरूलाल करने चाहता तो कोई कुछ नहींं बिगाड़ पाता पर उसको लालच आ गया। योजनाओं का फायदा गांव के जमींदारों को देने लगा,बस्ती की तरफ उसका ध्या नहीं नहीं गया ।
गरजु-बस्ती के उत्थान का काम करता तो प्रधानी जाने का डर था। उपर से कातिल लोग भ्रष्ट्राचार के मामले में जेल पहुंचा देते।
लछई-कुछ भी कहो कहरूलाल के बचाव में मैं तो यही कहूंगा कि आरक्षण प्राप्त एम․एल․ए․,एम․पी जैसे अपनी राजनैतिक पार्टियों के होकर रह जाते है,अपना मकसद भूल जाते है। कभी सुना है कोई एम․एल․ए․,एम․पी शोषितों के उपर हुए जुल्म के खिलाफ कभी धरना प्रदर्शन किया है। वैसे ही अपना कहरूलाल प्रधान किया गांव के दबंगो को दारू पार्टी देता रहा अपनी प्रधानी के रक्षा में। कौन जाये रिस्क लेने आवण्टन करवाने। चाहता तो सब करवा लेता पर कुछ किया नहीं। वह भी जानता था पांच साल के बाद वह ही नहीं कोई बस्ती का प्रधान नहीं बन पायेगा। कुछ करता या न करता पर आवण्टन तो करवा देता पर नहीं हां बस्ती के मुहाने पर पंचायत भवन बन गया। बस्ती वालों को चिढ़ाने के लिये। खाने का इन्तजाम नहींं पेशाब तक करने को अपनी जगह नहीं,पंचायत भवन का क्या होगा ।शादी ब्याह के मौके पर भी तो नहीं मिलेगा।
दसई-तुम भी लछई कैसी बात कर रहे हो। जिस बस्ती के कुयें का पानी अपवित्र हो,उा बस्ती के लोग पंचायत भवन में जश्न कैसे मना सकते है। जश्न तो बाबू लोगों का मनेगा,ना जाने कहां कहां से लोग आये बस्ती के सामने नंगा नांच करेगे। बस्ती वालों का निकलना भारी पड़ जायेगा।
गरजु-यही तो हो रहा है। धान रोपाई के लिये पिछली साल जो बिहारी मजदूर आये थे पंचायत भवन में ही तो टिके थे महीने भर।रात भर सोना मुश्किल हो जाता था। गांव के मजदूरों की मजदूरी भी ये परदेसी मजदूर मार रहे है उपर से चैन भी छिन रहे है। अब तो हर साल दोनों सीजन में यही होने वाला है। परदेसी मजदूर ससुरे गले में धागे पहने हुए थे कहते थे वे उंची जाति वाले है। ससुरे हमारी हैण्डपाइप के पानी से परहेज करते थे। उधर बाबू लोग अपना बर्तन तक छूने नहीं देते थे।रात भर यही बस्ती के मुहाने पर बनाते खाते थे नाच गाना करते थे। बहन बेटियों का बाहर निकला मुश्किल हो जाता था।
लछई-बाबू लोगो की चाल थी पंचायत भवन बस्ती के मुहाने पर बनवाने में । कहने को तो हो जायेगा कि बस्ती के मजदूरों का बहुत विकास हो गया है।
दूधई-दूर से देखने पर तो यही लगता है। देखने वाले कहते है कि बस्ती के मजदूर बहुत सम्पन्न हो गये है।यहर हाल ये है कि सुबह खाओ तो रात की चिन्ता रात में खा लो तो सुबह की चिन्ता इसी चिन्ता में पूरी बस्ती सदियों से जीम र रही है। बाबू लोग इसका भरपूर फायदा उठा रहे है।मजदूरों के बच्चे है कि पढ़ लिख नहीं पा रहे है। खैर बेचारे पढ़ेगे लिख्ेागे कैसे खाने पहनने को तो पहले चाहिये। होश संभालते ही मां -बाप की मदद के लिये पुश्तैनी पेशा बाबू लोगों के खेत में पसीना अपना लेते है। अब तो परदेसी मजदूरो ने वह भी रोटी-रोजगार छिन लिया है।मनरेगा से भी तो कुछ भला नहीं हो रहा है।दस दिन काम मिलता है वह भी प्रधान जिसको चाहे। मजदूरी में से कमीशन भी प्रधान को चाहिये तो कैसे बस्ती के मजदूरो का भला होगा।
नथई-इससे भला तो नहीं हुआ है, बुरा होने लगा है।
सिधई-वो कैसे ․․․․․?
नथई-मनरेगा से तनिक कमाई क्या होने लगी । बस्ती के सामने देशी मदिरा की दुकान खुल गयी। पांच रूपया दस रूपया में एक पन्नी मिलती है लवण्डे नशेड़ी होते जा रहे है। क्या उयही तरक्की है।
दूधई-सरकारी नीति है मजदूरों के पास पैसा रहने मत दो। यदि पैसे टिक गये तो उनके बच्चे पढने लिखने लगेगे,मजदूर कौन रहेगा। इसीलिये तो हर एक कोस पर मदिरा की दुकान खुल गयी है।घर में खाने का इन्तजाम नहीं मेहनत मजदूरी करने वाले शाम को पीना अपनी शान समझने लगे है। सोचा जरा जहां इलाज उपलब्ध नहीं है। ज्वर बुखार में लोग मर जाते है। डाक्टर है नहीं ऐसे गांव में दारू की दुकान का क्या औचित्य?
सिधई-है ना गरीब को गरीब बनाये रखने की साजिश।देखो ना बस्ती के मजदूरो को दस बीसा जमीन का टुकड़ मिल गया होता तो कमाते खाते। गांव समाज की जमीन रहते हुए भी आवण्टन नहीं हो सका आजादी के बाद भी ऐसी आजादी किस काम की बस आजाद देश की हवा पीते-पीते जीवन गुजार दो।
नथई-दस बीसी जमीन होती तो भुजियादेवी की हालत तो ऐसी न होती। फूकहरन दिल्ली में कोई अफसर तो है नहीं। प्लास्टिक मशीन गदहे जैसे खींचता है। उससे जो बच जाता है बाल बच्चों को भेजा रहा है। अगर दस बीसा जामीन होती तो कम से कम रोटी का इन्तजाम तो हो जाता।
सिधई-यह हाल तो 25 घर की बस्ती में बीस घर का है।
सुखई-आजाद देश के गुलाम हम तो है। तभी तो हमारी देश जानवरों जैसी है। गरीबी की वजह से बच्चे पढ़ नहीं पा रहे है। बस्ती के लोग जवानी में बूढे होकर बेमौत मर जा रहे है।भुजियादेवी का गौना तो हमारे सामने ही आया था। पच्चास साल की उम्र पूरी नहीं कर पाई। देखने में लग रही थी भुजियादेवी की काया सौ साल पुरानी हो।जीविका का पुख्ता साधन होता तो असमय नहीं मरती।आज भी बस्ती के मजदूरों की उम्मीदे आवण्टन पर टिकी हुई है पर गांव के प्रधान और दबंग बाबूलोग न तो आवण्टन होने दिये और न होने दगेे। अरे दबंगो बस्ती वालों की गरीबी तुम्हारे मुंह पर तमाचा है। भईया पंचायत भवन बस्ती के मुहाने पर तो ऐसा लग रहा है जैसे कोढ़ी काया को सूट-बूट पहना कर खड़ा कर दिया हो। सचमुच बस्ती के मजदूरो को आवण्टन चाहिये तो क्रान्ति लानी होगी।
नथई- ये क्या होती है।
सिधई-सड़क जाम करो । अब तो हाईवे अपनी बस्ती के सामने ही है दूर तो जाना नहीं है। एक बार मन से सभी बस्ती के मजदूर इकट्ठा होकर हाईवे बन्द कर दे देखो सरकार तक आवाज पहुंचती है कि नहीं।आवण्टन भी होगा कैद नसीब आजाद भी होगी पर इसके लिसे करो या मरो का नारा बुलन्द करना होगा।
सुखई-बात तो ठीक है और कितने युग हमारे लोग बेसहारा लावारिस,अछूत,मजबूर बने रहेगे क्रान्ति तो लाना ही होगा। क्रान्ति के बिना अपने गांव में न तो आवण्टन हो सकता है और न हमारी बस्ती में तरक्की आ सकता है।
गरजु- फिर गरजा अरे तू क्रान्ति की बात कर रहा है। घरवाली और बच्चों को कितना दुख दे रहा है कभी सोच है। तुम्हारी लत न परिवार को और दरिद्र बना दिया है। बच्चों को न खाने का इन्तजाम न पहनने का इन्तजाम कर पा रहा है। जो कुछ तुम्हारी घरवाली मेहनत मजदूरी कर लाती है ठीहे पर बर्बाद कर आता है। खुद की कमाई में तो आग लगा ही रहा है। पहले अपने घर को देख पर बस्ती सुधारने निकलना ।
सुखई-दौड़ते हुए गया,भुजियादेवी की लाश पकड़कर बोला गरजु दादा मरी भौजाई कि कसम अब अपने घर की हालत सुधार कर रहूंगा। आज से मेरे लिये दारू मानव मल के समान होगा।
गरजु-यही तो मैं चाहता हूं बस्ती के सारे नवजवान तौबा कर ले हर तरह की नशा से। आ मेरे शेर गला लग जा। मुझे यकीन हो गया मेरी बस्ती में भी तरक्की आयेगी। भले ही बाबू लोग साजिश रचते रहें। आज से सब दारू गांजा पीने वाले कसम खा ले सुखई की तरह।
इतने में महिलाओं का रूदन तेज हो गया। गरजु बोला अरे देखो फूकहरन आ गया।
नथई-अरे बाप रे फूकहरन की हाल तो भुजियादेवी जैसी हो गयी है।ये भी अब ज्यादा दिन का मेहमान नहीं। प्लाटिक की मशीन इसकी जीवन छिन चुकी है।
गरजु-गरजते हुए बोला क्या उगल रहा अपनी काली जबान से। उसकी बेटी का ब्याह सिर पर है,घरवाली बिछुड़ चुकी है सदा के लिये। बेटवा की गृहस्ती अभी बस नहीं पायी है। तुम्हारी जबान पर ना जाने क्या यमराज बैठे है।
नथई- फूकहरन की हाल तो देखो।
गरजु-अब अपनी जबान पर ताला लगा वरना तेरी जबान मेरे हाथ में आ जायेगी।
सिधई-क्या कानीफूसी कर रहे हो,कफन-दफन की तैयारी करो।
गरजु-तैयारी क्या करना है। सब तो हो चुका है। लाश टिकठी पर बांधनी है फूकहरन को आखिरी बार भुजियादेवी का चेहरा तो देख लेने दो।
फूकहरन ने कफन हटा कर भुजियादेवी का चेहरा देखने लगा पर वह खड़ा नहीं हो पाया मुर्छा खाकर धड़ाम से गिर पड़ा। गरजु दौड़कर हैण्ड पाइप से लौटा भरकर पानी लाया फूकहरन के मुंह पर छींटा मारा। कुछ देर बाद फूकहरन उठ बैठा। भुजियादेवी का जनाजा श्मशान की ओर चल पड़ा। बस्ती की छाती पर खड़ा पंचायत भवन जैसे रिसते घाव को छिल-छिल विनोद कर रहा था । डां․नन्दलाल भारती 01․06․2013
03․05․2013
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जनप्रवाह।साप्ताहिक।ग्वालियर द्वारा उपन्यास-चांदी की हंसुली का धारावाहिक प्रकाशन
उपन्यास-चांदी की हंसुली,सुलभ साहित्य इंटरनेशल द्वारा अनुदान प्राप्त
नेचुरल लंग्वेज रिसर्च सेन्टर,आई․आई․आई․टी․हैदराबाद द्वारा भाषा एवं शिक्षा हेतु रचनाओं पर शोध A
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