पुस्तक समीक्षा - देशी गांवों की सोहनी सुगंध ‘बनगरवाडी’

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  देशी गांवों की सोहनी सुगंध ‘बनगरवाडी’ समीक्षक - डॉ. विजय शिंदे प्रस्तावना – हमारे देश की खूबसूरती गांवों में हैं और जाने-अनजाने हम...

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देशी गांवों की सोहनी सुगंध ‘बनगरवाडी’

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समीक्षक - डॉ. विजय शिंदे

प्रस्तावना –

हमारे देश की खूबसूरती गांवों में हैं और जाने-अनजाने हम गांव की तरफ आकर्षित होते हैं। चाहे कितना भी आधुनिक हो, या देश-विदेशों में घूम-फिरकर आए, गांव हमारे तन-मन और दिमाग में कहीं छिपकर बैठा है; वह उचित लम्हों में बाहर आकर हम पर छाने लगता है। अपनी मीठी गंध से दिलों-दिमाग को लबालब भर देता है। आजादी प्राप्त करके सालों गुजर चुके। हमारे देश ने उसके बाद लंबा सफर भी तय किया है। जो लूट लुटेरों ने की उसके अभाव से बची हुई संपत्ति पर आज जिस मकाम पर हम है वह दुनिया को चौका देने वाला है। विकास की गति धीमी है पर 121 करोड़ लोगों का भार ढोते-ढोते यह प्रगति अंचभित करने वाली है। कम आबादी में खाने-पीने के लाले पड़ते थे, अब इतनी आबादी के बावजूद भी खाने-पीने की चीजें भरपूर है। मनुष्य को चाहिए भी क्या ? गांव बता देता है - ईमानदारी से जीने के लिए रोटी, प्याज, चटनी और कपडा! बस काफी है। जिसका बित्ताभर लंबा (छोटा) पेट भर जाए उसकी आत्मा तृप्त होती है। अब दुनिया के देखा-देखी हमारी मांगे, लालच, स्वार्थ बढ़ रहा है, यह बात अलग है पर जैसे पहले बता दिया है वैसे हमारे तन-मन-दिमाग में गांव बसा है, वह अपने-आप बाहर आता है और अच्छे मौकें-ओहदें हो तो भी हम कम सुविधाओं में सकून से जी लेते हैं। आधुनिक भारतीय साहित्य देश विकास के साथ नव-नवीन वर्णन विषयों को लेकर आ रहा है। गांव-नगर-शहर बदले और साहित्य लेखन कलाएं भी बदली। पर हमारे मन और लेखकों के दिल में बैठे गांव ने लुका-छिपी अभी भी जारी रखी है, वह अभी भी उठकर बाहर आ जाता है, हमारे मन पर छा जाता है। पहले भी और अब भी, ऐसी कई रचनाएं हैं जो गांव की रूकी-ठहरी-छोटी घटनाओं को भरपूर अभिव्यक्त करती है। देश की विभिन्न भाषाओं में ग्रामीण जीवन पर खूब लेखन हुआ, उसमें मराठी साहित्य भी उतना ही आगे है। अनुवादित होकर हिंदी के साथ देशी और विदेशी भाषाओं से जुड़ उसने कदम ताल किया है। व्यंकटेश माडगूळकर द्वारा लिखित ‘बनगरवाडी’ ऐसी ही एक रचना है, जो अजूबा मानी जा सकती है। भारतीय साहित्य में मिल का पत्थर है। हिंदी में जो स्थान ‘गोदान’ का है वही मराठी में ‘बनगरवाडी’ का। रचना छोटी, गांव छोटा, घटनाएं छोटी-छोटी पर गति और व्यापकता इतनी कि पूरा देश लपटने की क्षमता है। उपन्यास को हाथ लगाया कि एक ही बैठक में पढ़कर-चटकर खाया जाएं। सुंदर मीठे मनपसंद भोजन का आनंद लेते वक्त हम अपनी अंगुलियों को जैसे चाटते बैठते हैं वैसे ही ‘बनगरवाडी’ को पढ़ने के पश्चात् अनुभव होता है।

मराठी साहित्य में ‘बनगरवाडी’ ने अनेक रिकार्ड बनाए। इस पर फिल्म भी बनी, खूब चली भी। साल-दर-साल किताब की आवृत्तियां भी छपी, छपी जा रही है। सबको लगेगा अरे भाई इसमें इतना है क्या? गांव ही तो है! गांव में ऐसा विशेष घटेगा भी क्या?... पर हजारों प्रश्नों का एक उत्तर है ‘बनगरवाडी’। लंबी और बडी-बडी किताबों को फीका करने की क्षमता यह किताब रखती हैः ‘उर्वशी’ और ‘मेनका’ जैसी स्वर्गीय और खूबसूरत औरतों को भी सौंदर्य की दृष्टि से सर झुकाने के लिए बाध्य कर सकती है। छोटे गांव के गड़रिया प्रधान जीवन पर लिखी यह किताब, उपन्यास विधा के अंतर्गत आने वाली यह रचना, मराठी साहित्य के अप्रतिम कृतियों में गिनी जाती है। इसमें भाषा, वर्णन, प्रतीक, कल्पना, चित्र, ग्रामजीवन, मानवीयता, प्रकृति, संस्कार आदि का सौंदर्य भरा पडा है। छोटे-छोटे वाक्यों में रजनीगंधा के फूल महकने का एहसास होता है। इस रचना की ताकत और खूबसूरती ऐसी है मानो कोई बच्चा ‘हाफूस’ आम को चूसकर उसके केसरिया रंग से लबालब महक रहा हो; मां द्वारा उसके हाथ-मुंह धोए जाने के बावजूद भी बच्चे को चूमते वक्त उसके हाथों और होठों से ‘हाफूस’ की महक आ रही हो। सोहनी सुगंध को एक दिन, दो दिन... अनुभव करने के बाद मां अवाक, वैसे ही ‘बनगरवाडी’ को लेकर पाठक, समीक्षक, दर्शक, चिंतक, समाजशास्त्री...।

‘बनगरवाडी’ के सौंदर्यवर्धक, खूबसूरत प्रसंगों की मीठी महक, सोहनी सुगंध अनुभव की और वह आप तक पहुंचाने का मोह रोक नहीं सका। यहां पर उपन्यास के कई पहलुओं में से सौंदर्यवर्धक पहलू पर प्रकाश डाल रहा हूं। जो देखा-महसूस किया समीक्षा के नाते प्रकट कर रहा हूं। हिंदी के प्रसिद्ध ग्रामांचलिक लेखक विवेकी राय जी ने इस किताब पर परीक्षण करते लिखा है, "हजारों मिल दूर यह महाराष्ट्र का कोई गांव नहीं बल्कि हमारा गांव है, भारत का प्रसिद्ध गांव है – उल्लसित, सजीव, चटक, काव्यात्मक परंतु अधिक करुण।" (गणदेवता से गुडअर्थ तक, पृ. 87)

1. भाषा सौंदर्य –

रचनाकार रचनाएं लिखता है और हम चकित होते हैं कि उसने इतना खूबसूरत लिखा कैसे? कारण वह प्रसंग और घटनाएं हमने भी देखी होती है, पर हम उनपर लिख नहीं सकते। क्यों? इस ‘क्यों’ में कई राज होते हैं, कई ताकतें और क्षमताएं होती हैं। समीक्षा में इसके लिए अद्भुत प्रतिभा कहा जाएगा; अद्भुत प्रतिभाएं बिरलों के पास होती है। व्यंकटेश माडगूळकर जी उन बिरलों में से एक हैं। उनके पास अद्भुत प्रतिभाओं का खजाना रहा, अतः एक साथ कई कलाएं साहत्यिक कृति के भीतर उतरी है; उसमें भाषा सौंदर्य प्रधान है। अनुभवों को अभिव्यक्त करने के लिए उचित शब्दों, प्रतीकों, बिंबों, वाक्यों, मुहावरों, कहावतों का चुनाव कर उसे खूबसूरत ढंग से पिरोना जरूरी होता है। माडगूळकर जी ने यह बडी सफलता के साथ किया है। नतीजन गड़रिये जैसे स्थिर-उपेक्षित ग्रामजीवन के भीतर भरपूर खजाना उन्हें प्राप्त हुआ। हीरे की परख कोई पारखी ही करेगा, वैसे साहित्यिक पारखी नजर, भाषाई क्षमता माडगूळकर के पास रही है; अतः बुनकरों से जैसे सुंदर कंबल बुना जाता है वैसे ‘बनगरवाडी’ लेखक से बुनी गई। पूर्ण ताकत और सूक्ष्मताओं के साथ। कुछ भाषागत प्रसंगों को दे रहा हूं ताकि आप भी उसका आनंद उठा सके।

अ. बुआई – शेकू और शेकू से फिटभर लंबी उसकी बीवी बुआई को लेकर चिंतित है। कारण गांव में सब के पास बैल है, सब बुआई में लगे हैं और उनके पास एक ही बैल है, दूसरे बैल के बीना बुआई करना संभव नहीं। दिनभर इधर-उधर, किसी से एक दिन के लिए बैल मांगने की कोशिश की, पर किसी का भी बैल खाली मिला नहीं। रात में चिंतित पति शेकू को देख उसकी उससे फिटभर लंबी बीवी कहती है कि आप बुआई कि तैयारी करके खेत में पहुंचो, मैं बैल को लेकर आती हूं। दूसरे दिन सुबह शेकू खेत में पहुंचकर इंतजार करता है। घंटाभर बाद उसकी पत्नी बैल के बिना खाली हाथ आते देखा तो उसका दिल बैठ गया। आत्मविश्वास और ताकत से भरी उसकी पत्नी एक तरफ और बैल को दूसरी तरफ जुतवाकर तिफन (तीन फनों वाला औजार जिससे बीज बोए जाते हैं) खिंचने को तैयार होती है; और उधर शेकू अवाक। जैसी ही तिफन खिंची जाती है वैसे ही बीज ऊपर से नीचे जमीन पर उतरने लगते हैं। लेखकीय भाषा में - "पोकळ बांबूतून दाणे खाली उतरले आणि त्यांनी जमीनीवर उड्या मारल्या." (पृ. 41) इसमें बीज ऊपर से नीचे उतरे और छलांगें भरने लगे वाक्य भाषाई सौंदर्य को लेकर आता है। लेखक का कहना है मानो चार-पांच घंटों से मां की कमर पर लटका कोई बच्चा जमीन पर छोड़े जाने पर जैसे छलांगें भरने लगता है वैसे बीज जमीन पर उतरने की खुशी से छलांगें भरने लगे।

आ. कटाई – खेती के भीतर से अनाज को काटा जा रहा है। उसके साथ कड़धान्यों को भी निकाला जा रहा है, मूंगफलियां जाति के सभी फलियों को भी। महाराष्ट्र में ‘हुलगा’ नामक एक कड़धान्य है। फलियां मध्यम आकार की और बीज थोड़े मोटे होते हैं, राजमा से थोड़े छोटे। वे जब परिपक्व होकर सूखने लगते हैं तब हवा के झोकों से फलियों के भीतर से आवाजें होती हैं। लेखक लिखते हैं, "हुलग्याच्या शेंगांचे खुळखुळे वाजू लागले." (पृ. 60) अर्थात् हवा के झोकों पर हुलगे की फलियों के झुनझुने बजने लगे कहना कटाई प्रसंग के संपूर्ण सौंदर्य एवं खुशी को लेकर आता है।

इ. अफवा – मास्टर और गांव का प्रमुख कारभारी के बेटी अंजी के बीच कुछ चल रहा है, ऐसी अफवाएं दादू बालट्या जान-बूझकर फैलाता है, हालांकि ऐसा कुछ नहीं था। जैसे गांव के अन्य पुरुष और महिलाएं मास्टर को तहसील जैसे बड़े गांव से अपने लिए जरूरी चीजें लाने का काम बताते हैं वैसे अंजी चोली सिलाकर लेकर आने का काम बताती है और मास्टर उसे बनाकर देता भी है। घटना सरल पर दादू बालट्या की सत्ता मास्टर के कारण खत्म हो रही थी। वह इन दोनों के बारे में इस घटना को लेकर गांव में अफवाहें फैलाता हैं, मास्टर की बदनामी करने लगता है। लेखकीय भाषा में, "त्यानं लेकानं बळच काट्याचा नायटा केला." (पृ. 69) काटा चुभने से बडा जख्म और दर्द होता है, तकलिफ भी होती है; वैसे ही छोटी घटना को दादू बालट्या इश्कियाना रंग देकर बडा बना देता है। हिंदी में ‘बात का बतंगड़ बनाना’ इसके समकक्ष कहावत आती है। एक वाक्य में पूरे प्रसंग का सौंदर्य समाने की ताकत लेखकीय कौशल माना जाएगा।

ई. बेसुधी – कुस्ती अखाड़े की इमारत बनाते वक्त आयब्या मुलानी ऊपर से गिरकर बेसुध होता है। लेखकीय भाषा में, "त्याला झेंडू फुटलाय." (पृ. 91) कहना बेसुध होना, बेहाल होना के लिए काफी है।

उ. क्षमा – बाळा बनगर कुस्ती अखाड़े के लिए मदद नहीं करना चाहता है। गांव वाले उससे सारे व्यवहार बंद करते हैं, उसे बहिष्कृत किया जाता है और एक-ड़ेढ़ साल तक बाळा बनगर अक्खड़ के साथ रहता है, पर गांव वालों के बिना वह हमेशा अधूरापन महसूस करता है। ‘मावल्या आई’ की यात्रा (ग्राम देवता उत्सव) के दौरान पुजारी ग्राम देवता का प्रसाद और गुलाल जब नकारता है तब हारकर, पस्त होकर सारे गांव के सामने धोती और हाथ फैलाकर याचना करता है। गांव के बुजूर्ग के नाते काकूबा का, "अरे, पोर मांडीवर मुतलं, मांडी कापायची का? लावा त्याला गुलाल!" (पृ. 118) कहना गांव के सारे प्रेम को एक वाक्य में उड़ेंल देता है, क्षमा को प्रकट करता है, यह भाषाई ताकत ही है।

मुहावरें, कहावतें, अलंकार, प्रतीकों... के माध्यम से छोटी घटनाओं में भरपूर रंग भरने में लेखक सफल हुआ है। उपन्यास में सरल-सीधी भाषा के साथ मराठी ग्रामीण शब्दों का स्पर्श हजारों तारों की टिमटिमाहट छोड़ देता है।

2. मानवीयता –

गांवों की ताकत प्रेम, भोलापन, ईमानदारी, मददगार प्रवृत्ति, सरलता... आदि हैं। मनुष्य मनुष्य है और उसका असल गुणधर्म मानवीय होने में है। आज-कल गांवों में भी ईष्र्या, द्वेष, मत्सर, चोरी-डकैती, स्वार्थी वृत्ति, अक्खड़-घमंड़, झगड़े... आ चुके हैं और वह मानवीयता का हनन कर रहे हैं। ‘बनगरवाडी’ हमारे इतिहास और अतीत का गांव है और उसमें मानवीय सौंदर्य की भरमार है। हम ऐसे साहित्य को पढ़कर अपने भीतर और अतीत में झांककर कितने नालायक बन गए हैं इसका मूल्यांकन कर सकते हैं। ‘बनगरवाडी’ जैसे गांवों में लडाई, चोरी, झगडा, द्वेष... भी करना है तो उसके नीति नियम तय थे; जो मानवीय सौंदर्य और सभ्यता को लेकर आ जाते हैं।

अपने घर के किचन में क्या पक रहा है यह फिलहाल आधुनिक जीवन में हम बताते नहीं। छीप-छीपकर खाना खाते हैं परंतु ‘बनगरवाडी’ का कारभारी बकरियों का दूध गांव में आज ही पधारे मास्टर को पीने के लिए देता है, जो उसके और उसके परिवार के लिए अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान हो। (पृ. 12) आनंदा रामोशी चोरी-डकैती करनेवाली जाति का पात्र पर चोरी भी करें तो मानवीय सौंदर्य के साथ। जरूरत भर। और जरूरत क्या – रोटी। देश-दुनिया और गांव को बेचकर स्वयं गब्बर होने की मंशा नहीं। हर एक के खेत से थोडी गवांर, थोडी भींडी, थोडा प्याज, बैंगन, जवार-बाजरा... और बहुत कुछ। पर थोडा-थोडा। यह ‘थोडा-थोडा’ मानवीय सौंदर्य को लेकर आता है। नीति-नियम के साथ। ऊपर से स्पष्टीकरण कि पंछी और जंगली जानवर जितना बिना पूछे खाते हैं उतना ही हमारा हक। (पृ. 27) बिल्कुल हक के साथ। और दूसरे दिन मानवीय ईमानदारी से ‘कल मैंने यह आपके खेत से चुराया था’ मालिक को बताना सौंदर्य से भरा-पूरा होता है। मालिक का नुकसान किए बिना चोरी की पद्धति आदर्श खूबसूरत गांवों की सौंदर्यभरी सोहनी सुगंध ही तो है।

रामा बनगर द्वारा दिए गए रानी छाप चांदी के एक रुपए के बदले में मास्टर द्वारा छुट्टा कर अठारह आने देना और दो आने ज्यादा आए हैं मानकर रामा का मास्टर के पास वापस देना। रामा बनगर के 340 रुपए को भारतीय चलन में वापसी करते वक्त मास्टर के घर से आनंदा रामोशी द्वारा अनजाने रोटी की चोरी करते समय रुपए चुराए जाना और कुछ ही दिनों में उससे वह मास्टर को वापस देते वक्त कहना, "तीन रुपए दस आने खर्च कर चुका हूं। वह नहीं दूंगा पर बाकी सारे रुपए जैसे थे वैसे हैं।" (पृ. 55) मानवीय ईमानदारी का चरम उत्कर्ष है। आज-कल यह संभव नहीं। सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को काटकर सबकुछ एकदम प्राप्ति की हवस रखने वाले समाज में यह घटनाएं अद्भुत लग सकती हैं परंतु यह हमारे गांवों का मानवीय सौंदर्य था, यह वास्तविक था। आनंदा का मास्टर के पास चोरी को लेकर अभिव्यक्त होना यहीं तो बताता है। "मैं जाति का बेरड़ हूं। इतने रुपए हजम करना मुश्किल नहीं था। परंतु आठ दिन रुपए अपने पास रखकर बार-बार मन में आ रहा था कि – आनंदा, मास्टर के पैसे क्यों चुराए बे? मास्टर न जहांगीरदार हैं और न साहूकार? उससे यह धोका क्यों? हमेशा उसके साथ उठ-बैठकर यह दगाबाजी अच्छी नहीं!" (पृ. 55-56) प्राप्त होनेवाले खजाने को लेकर इतना आत्मचिंतन, आत्ममंथन। ईमानदारी। वर्तमान में लाखों-करोड़ोंं रुपयों की लूट करने वाले राजनैतिक, डकैत, गुंड़े-मवाली, देशद्रोही, प्रशासक, भ्रष्टाचारियों की अनैतिकता, अमानवीयता कहां और आनंदा रामोशी की मानवीय ईमानदारी कहां।

वचन और ईमानदारी का अद्भूत विश्वास भी मानवीय सौंदर्य को लेकर आता है। रामा बनगर के पास मेहनत से कमाए रानी छाप वाले रुपए बहुत थे और उसे भारतीय चलन में लाने के लिए मास्टर के पास दिए गए, बिना गीने। मास्टर अगर चाहते तो उसमें बहुत कुछ दबा सकते थे। पर न मास्टर के मन में लालच पैदा हुआ और न रामा बनगर के मन में अविश्वास। मास्टर ने गिनकर ठीक आंकडा बताया 340 और रामा ने उसे झट माना भी। (पृ. 34) मानवीय जुडाव से भरा जबरदस्त विश्वास। सोलह आने खरा। गांवों में ही मिलेगा और कहां। वांगी गांव की एक मराठा विधवा को बनगरवाडी के जगण्या रामोशी द्वारा भगाना, गांव के लिए बडी आफत बनता है। जगण्या के जाति के लोगों के साथ बनगरवाडी में वांगी के लोग दहशत फैलाने लगते हैं, मार-पीठ करने लगते हैं। मास्टर और महिलाएं बीच-बचाव करते हैं। आनंदा रामोशी मास्टर के हवाले से वांगीवासियों को शब्द देता है कि जगण्या को पकड़कर आपके सामने पटक दूंगा, अगर जगण्या अपराधी है तो आप उसके साथ जो चाहे सलूक करें। शब्दों पर भरोसा, विश्वास और मानवीय ईमानदारी का नमूना यह प्रसंग है। इसे जातिगत संघर्ष, विधवा विवाह जैसे आदर्शवादी पहलू से परखने की जरूरत नहीं। असल बात मानवीय ईमानदारी के सौंदर्य की है। गांववालों से दूर भागने वाले जगण्या का कुल्हाडी मारकर पैर तोड़ना और उस औरत के साथ वांगी गांव में लाकर पटकना, विश्वास और कहे गए वचनों पर खरा उतरना है।

विश्वास, भरोसा, ईमानदारी, नैतिकता... से भरपूर ग्रामीण जीवन मानवीयता का जीता-जागता सुंदर उदाहरण है। आज इस रूप में हमारे भीतर छिपे गांव को बाहर निकालना भी जरूरी है। अनैतिकता और बेईमानी के जमाने में ऐसा ग्रामीण रूप आधुनिक जमाने के लिए मानवीय सौंदर्य का झनझनाहट पैदा करने वाला थप्पड़ है।

3. प्रतीक और कल्पना –

साहित्य निर्मिति के तत्वों में सुंदर संयोग हो तो रचना का सौंदर्य और बढ़ जाता है। हां उसमें एकाध तत्व कम-ज्यादा हो सकता है। ‘बनगरवाडी’ में लेखक ने शब्द और अर्थ की सहायता से भावना और कल्पना की उडान भरी है; अतः रचना अत्यंत सौंदर्यपूर्ण प्रभावकारी बनी है। लेखकीय कल्पना और प्रतीकों की ताकत इतनी ज्यादा है कि घटना-प्रसंग हमारे सामने जैसे के वैसे खड़े होने लगते हैं। रचना हमारे सर चढ़कर बोलने लगती है। गड़रिये ‘ओवी’ गाते वक्त ढोल पर कदम ताल कर नाचने लगते हैं, वैसे हमारे मन में ढोल और कदम की चहलकदमी शुरू होती है। "इडिबांग – डीपांग – डिचिपाडी – डीबाडी – डीपांग – डीपांग – डीपांग..." (पृ. 61) यह ढोल की आवाज जीवंत कल्पनाओं और प्रतीकों के माध्यम से हमारे दिलों-दिमाग में बजने लगती है। ‘बनगरवाडी’ उपन्यास के भीतर आए प्रतीक और कल्पनाएं रचना की ताकत बन उभरते हैं और अंततः उपन्यास का सौंदर्यपूर्ण कलेवर बन जाता है।

(अ) मास्टर का प्रथम प्रवेश ‘बनगरवाडी’ में और अनेक सवाल, शंका, संदेहों से भरा उसका मन। ग्रामीण जीवन से थोडा परिचित और अपरिचित भी। आते ही जिस आदमी के साथ मुलाखात होती है, वह मास्टर की और उम्र को लेकर उपहासात्मक मजाक कर लेता है। सफेद विजारनुमा लेहंगे को देखकर अंड़े खरीदने वाला समझता है। मास्टर हूं बताया तो उस आदमी ने कहा, ‘सरकार मूर्ख है क्या? यहां बच्चे नहीं उसे पता नहीं? बेवजह की फालतुगिरी...।’ यह वाक्य सुनकर मास्टर का आत्मविश्वास, उत्साह ढहने लगता है और उसे लगता है कि बचपन में स्कूल के लिए जैसे पीछे से फटी चड्डी पहनकर जाने पर शरम महसूस करता था वैसे आज लग रहा है। (पृ. 5) यह वाक्य प्रतीक और कल्पना सौंदर्य को लेकर आता है।

(आ) बनगरवाडी के भीतर मास्टर का पहला संध्या समय। बकरियां गांव में प्रवेश कर रही हैं। सफेद, काले, गेरुए रंग की। बे-बे की आवाजें और शरीर धूल से भरे। मास्टर की नजर एक बार आकाश की तरफ एक बार जमीन की तरफ उठती-गिरती है। सफेद बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े पश्चिम से पूरब की ओर बहे जा रहे थे मानो सफेद बादलों की बकरियां जा रही हो। (पृ. 11) ऐसा कहना कल्पना की लंबी उडान है।

(इ) मास्टर ने दिया हुआ खाना खाकर आयबू वहीं पर आराम से सोया है। उसका वर्णन करते लेखक का दूध-चावल खाकर बिल्ली आराम फरमा रही है कहना उचित, सार्थक और सुंदर प्रतीक संयोजन है। (पृ. 19)

(ई) आनंदा रामोशी और उसके साथी जगण्या को पकड़ने के लिए जमीन-आसमान एक कर रहे थे। निम्न जाति का होकर मराठा घर की विधवा को उसकी सहमति से भगाना गांव के लिए आफत था। आनंदा और साथियों ने उसे चारों तरफ से घेरा और जगण्या को जब पता चला कि हम घिर चुके हैं तो जान बचाने के लिए अपनी प्रेयसी को छोड़कर भागना लेखक बिल्कुल कम, मार्मिक कल्पना और प्रतीक का इस्तेमाल कर लिखते हैं, "बचते-बचाते गिर पडी मादा को वहीं छोड़कर बारहसिंगा जैसे जान हथेली पर लेकर दौड़ने लगता है वैसे जगण्या उस स्त्री को छोड़कर भागने लगा।" (पृ. 107)

(उ) पड़ोंसी गांव का गड़रिया अपनी बकरियों को लेकर बनगरवाडी के इलाके में चराने लगा है। अंजी देख रही है कि वह गड़रिया बबूल के पेड़ पर चढ़कर टहनियों को कुल्हाडी से काटकर बकरियों के सामने डाल रहा है। दूसरे गांव का व्यक्ति अपने खेतों में आकर बिना पूछे ऐसा करते देख अंजी को गुस्सा आता है और वह उसे डाट-डपट करने लगी है। बबूल के पेड़ के ऊपर से कूदकर बिल्कुल अंजी के सामने गड़रिये का खडा होना, सामने जवान ग्रामीण सौंदर्य से भरपूर लड़की का पाया जाना, सुनसान जगह पर यौवन से भरपूर अकेली अंजी का डरना, भयभीत होना। फिर भी साहस बटोरकर कहना कि यह मेरा खेत है इसलिए पूछ रही हूं। और उतने ही ठिठाई के साथ उस गड़रिये का जवानी से भरपूर अंजी का हाथ पकड़कर कहना कि "भरात आलेली बाभळ बघून सवळावी वाटली." (पृ.116) ‘पूरी तरीके से हरे-भरे बबूल के पेड़ को देख मेरा जी मचल पडा’ कहना प्रतीकात्मक तौर पर अंजी के लिए शृंगारिक संकेत और आवाहन है।

4. संस्कार –

व्यक्ति चेहरे और ऊपरी रूप-रंग से कैसे है, कोई फर्क नहीं पड़ता परंतु उसका अंदर से खूबसूरत, सोहना होना अत्यंत जरूरी है। मराठी मिट्टी के वारकरी संप्रदाय के मध्ययुगीन संत चोखामेळा ने लिखा हैं – "ऊस ड़ोंंगा पर रस नोहे ड़ोंंगा। काय भुललासी वरलीया रंगा।।" यह पंक्तियां महत्त्वपूर्ण है। गन्ना टेढा हो सकता है पर रस तो मीठा ही होता है वैसे ही ऊपरी रूप-रंग से किसी से धोका नहीं खाना चाहिए। गांवों में ऊपरी सौंदर्य हो न हो पर मन-दिल के भीतर सौंदर्य की भरमार होती है। ‘बनगरवाडी’ के लोग मास्टर को तू, तुम जैसी तू-तडाक करते हैं पर मन के भीतर आदर है, प्रेम है। लाठी, बकरियां, कुल्हाडी, भाला, फेटा, शरीर की विशिष्ट ग्रामीण गंध, धूप में जले-भूने चेहरे और चमडी का विशिष्ट रंग, कुत्ते, मुर्गियां, गाय-बैल, बकरियों के ऊन से बने कंबल (घोंगडी), गोबर, बकरियों के पेशाब की गंध, धूल, कीचड़, झोपडी, अज्ञान... के बावजूद भी संस्कारों का भरपूर सौंदर्य गांवों में उपलब्ध है। कारभारी, काकूबा, सता, आयब्या, आनंदा, रामा, शेकू की बीवी...आदि पात्रों के माध्यम से संस्कार सौंदर्य झलकता है। मास्टर भी गांव से अलग नहीं, उसकी नैतिकता, ईमानदारी, संघर्ष, लगन...संस्कारों का ही नतीजा है। उपन्यास के कोने-कोने में संस्कार के मोती बिखरे पड़े हैं। ‘संध्या समय झपकी नहीं लेनी चाहिए’ यह बात मास्टर पर बचपन से बिंबित है; परिवार और ग्रामीण संस्कारों के फलस्वरूप। या मास्टर के पास छुट्टे कर रखे रामा बनगर के रुपए चोरी होते हैं तब मास्टर की बेचैनी, अस्वस्थता, अपराधबोध, विश्वास टूटने का डर उसकी संस्कारशीलता को दिखाता है। (पृ. 45) मास्टर और कारभारी का अंजी प्रकरण को लेकर बात बंद होना और फिर दुगुनी आत्मीयता के साथ शुरू होना एक दूसरे के स्वाभिमानी, आत्मसन्मानी संस्कारशील स्वभाव का ही नतीजा है। कुस्ती अखाड़े के लिए मास्टर ने जिस जगह का चुनाव किया उसका मालिक जिंदा नहीं था फिर भी गांव वालों का उसके पश्चात् जगह लेने के लिए ना करना (पृ. 80) संस्कारगत ईमानदारी तथा जगण्या से उच्चवर्णियों की स्त्री को भगाने की कोशिश करना गलत है सबका मानना जातिगत संस्कार सौंदर्य (पृ. 104) को लेकर आता है।

कुलमिलाकर ‘बनगरवाडी’ में रहने वाले लोगों को अपनी मर्यादाएं और सीमाएं भली-भांति पता है। यह सालों-साल से हुए संस्कारों का भी परिपाक है। सबसे पहले उन्हें यह भी पता है कि हम जानवर नहीं इंसान है और इंसान होने के नाते उसके नीति, नियम और संस्कार भी है। उन संस्कारों को सुरक्षित बनाने के लिए वे अपनी या अपने की जान भी दांव पर लगा सकते हैं पर संस्कारों के सौंदर्य पर कभी आंच नहीं आने देंगे, ऐसी ग्रामीण मानसिकता किसी खूबसूरत सपने से कम नहीं है।

5. चित्रात्मकता –

‘बनगरवाडी’ छोटा उपन्यास है पर लेखक ने जिस वर्णन शैली का उपयोग किया है उससे पात्र, घटनाओं और प्रकृति के जीवंत चित्र हमारे सामने खड़े होते हैं। ‘माणदेशी माणसं’ नामक लेखक की अन्य रचना का चरम प्रसिद्धि तक पहुंचना इसी चित्रात्मक शैली का नतीजा है। लेखक मूलतः चित्रकार भी है इसलिए चित्रात्मक सूक्ष्मताएं आ चुकी है। ‘बनगरवाडी’ में शब्दों के माध्यम से चित्र आंखों के सामने खड़े तो होते ही हैं पर प्रकाशक के आग्रह पर लेखक ने मेहनत के साथ उपन्यास के अनुकूल कई चित्र बनाए, जो उपन्यास में चार चांद लगा देते हैं। लेखक के मन और दिलों-दिमाग में बसी ‘बनगरवाडी’ चित्र रूप में किताब के भीतर साकार हो गई है। अर्थ, शब्द, कल्पना, भाव, शैली, और बुद्धि के साथ चित्र स्वरूप में उपलब्ध उपन्यास पाठकों पर अमीट छाप छोड़ता है। पूरे उपन्यास में 62 चित्र हैं; जो लेखक ने पेंसिल से बनाए हैं, बिना रंगों के। लेकिन रंगों को भी हजारों मिल पीछे छोड़नेवाले। 19 चित्रों में पात्रों को साकार रूप दिया है। तो आदि से अंत तक गड़रियों की जान और आधार बकरियां विभिन्न रूपों-आकारों के साथ चित्रों में उकेरी गई है। प्रकृति, खुला मैदान, घास, छप्पर, नीम के पेड़, लाठी... जैसे चित्र भी भरे पड़े हैं। वर्णन पढ़ते वक्त उसके साथ चित्रसंगति मानो सुरैल गाने के साथ ढोल, तबले और पखवाज... की साथसंगत होने जैसा है।

6. प्रकृति –

उपन्यास जिस बनगरवाडी (वास्तविक गांव का नाम - लेंगरवाडी) को लेकर लिखा है। वह महाराष्ट्र के जिला – सांगली, तहसील आटपाडी में है। स्थान और ठिकाना बताकर उपन्यास को सिमित कर रहा हूं ऐसा नहीं, कारण व्यंकटेश माडगूळकर द्वारा वर्णित ‘बनगरवाडी’ के सारे आयाम और दृश्य पूरे भारत के हर गांव में देखे जा सकते हैं। इस बात को मराठी, हिंदी, तथा अन्य देशी विदेशी पाठक और समीक्षकों ने स्वीकारा है। हमेशा सुखे और पानी के अभाव की मार झेलता यह प्रदेश बारिश के दिनों में केवल हरा-भरा होता है। पेड़ोंं के अभाव से खुला होने के कारण नजर चारों तरफ पहुंच सकती है और साथ ही साथ खुला आकाश भी दिखाई देता है। छोटे-छोटे मैदान, छोटे पहाड़नुमा टिले, उस पर उगी हरि-पिली घास और ऊपर खुला आकाश तीन-चार महिने स्वर्ग लगता है। उसके बाद जब तक जमीन में पानी बना रहता है, या कटाई का मौसम आता है तब तक यौवन से भरपूर युवती जैसा गदराने लगता है। पर मुश्किल होती है गर्मी के दिनों में पानी के अभाव से। प्राकृतिक पानी की कमी हो सकती है लेकिन इंसानी पानी, जीवट, मेहनत, संघर्ष, प्रेम, स्वाभिमान, ईमानदारी... ऐसे दिनों का सहजता से मुकाबला करने की ताकत देता है। स्वर्ग और बंजर धरती भी इससे सोहनी बन जाती है, प्राकृतिक दृश्यों में और निखार आ जाता है। कहा जाता है न ‘आप जैसे चष्मा पहनेंगे वैसी दुनिया दिखने लगेगी’ बिल्कुल ऐसे ही दिल, दिमाग, आचार, विचार... से संपन्न ‘बनगरवाडी’ जैसे गांवों में सौंदर्य का खजाना पाया जा सकता है। ऐसे गांव साहित्य में लेखक की रसपूर्ण भाषा में जब उतरना शुरू करते हैं तो अमृत का रसपान तो होगा ही। माडगूळकर जी के भाषाई सौंदर्य और मूल प्राकृतिक सौंदर्य का मिलाप होकर उपन्यास के प्रकृति दृश्य खूबसूरती के साथ झलकने लगते हैं, लगता है मानो बालकृष्ण ने दूध, दही, छाछ, माखन के घड़े लुढ़काएं हो और कृष्ण बना लेखक दही-माखन से सराबोर पाठक रूपी यशोदा मैया को देख खिलखिलाहट कर रहा हो।

अ. सुबह – "खुले मैदान से बहने वाली सुबह की ठंडी हवा शरीर को चुभने लगी। चांदनी रात मंद्धिम होने लगी। न चांदनी रात और न दिन का प्रकाश ऐसी स्थिति। बबूल और छोटे झाड़-झंखाड़ोंं की परिचीत गंध महसूस होने लगी। पगड़ंडी के ठंठी धूल का पैरों को एहसास होने लगा।" (पृ. 1)

आ. मेमनों का वर्णन – "बकरियों के बच्चों की दूध पीते वक्त केवल मचमच आवाज आ रही थी। उनके धूल-धूसरीत अंग बकरियां चाटने लगी और सफेद-गाढे दूध के झाग से बच्चों के मुंह सराबोर होने लगे।" (पृ. 21)

इ. घास – "पीले-हरे रंग की घास जमीन फाड़कर सर ऊपर उठा रही थी। आंगन, घर के छप्पर, दीवार, छत की मिट्टी – जहां संभव था वहां घास उगने लगी। चारों तरफ चटक पीला-हरा रंग दिखने लगा।" (पृ. 36)

ई. खेती – "मौसमी बाजरा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। तने से लंबी कलगी सर बाहर निकालने लगी। हरे-भरे तने पर गेरूए रंग की कलगी चारों तरफ ड़ोंलने लगी और साथ ही साथ जांभई रंग के फूल बहरने लगे। कलगी के नाजुक फूल बहार पकड़ते गए और छोटी चिंटियां कलगी पर चढ़ने लगी। मधुमक्खियां कलगी के आस-पास मोहित हो चक्कर काटने लगी। पीले रंग की छोटी-छोटी तितलियां हवा के झोकों पर संवार होकर कलगी पर बैठने लगी। धमाचौकडी करते, हवा की लहरों पर कलगियां आकार धारण करने लगी।" (पृ. 57)

उ. खलियान – "जवार निकली, करड़ई निकली, चना निकला, खलियानों का घमासान शुरू हुआ। लोगों ने खलियानों को गोबर से पोतकर खूबसूरत रंगोली निकाली, जवार की कलगियां तोडी गई। लाठी की मार पकी और सुख चुकी कलगगियों पर पड़ने लगी। मंद हवा के बहाव पर भुसी और जवार अलग होने लगे और मोतियों-सी चमकती सफेद जवार खलियानों में सजने लगी। छोटे बलुतेदार खलियानों पर पहुंचे। अनाज गिना गया। पंछियों, जानवरों, चोरों से लूटकर बचा-खुचा अनाज किसानों के घर में खुशी से प्रवेश करने लगा ।" (पृ. 61)

प्रतिनिधिक तौर पर कुछ प्राकृतिक सौंदर्य के प्रसंग अनुवाद के माध्यम से ऊपर दिए गए हैं। भरसक कोशिश रही है कि लेखक के मूल वर्णन को धक्का न लगे; मूल सौंदर्य बना रहे। गांव के पात्र उपन्यास को जैसे गति देते हैं वैसे ही वहां की प्रकृति भी उसमें हजारों रंग भर देती है। शहर को प्राकृतिक दृश्यों के बिना सजाया जा सकता है पर गांव संभव नहीं। लेखक का प्रकृति के साथ जुडाव ही उसमें सूक्ष्म सौंदर्य भरने के लिए काफी है।

निष्कर्ष –

‘बनगरवाडी’ 1955 में प्रथमतः प्रकाशित उपन्यास है और सालों गुजरने के पश्चात् भी अपने सौंदर्य को बनाए रखा है। पुरानी बोतल के शराब जैसा उसमें दिनों दिन और निखार आते जा रहा है। 45 बर्षों बाद किसी दिगदर्शक से इस पर फिल्म बनाने का मन करता है, फिल्म बनती है और गांव की सोहनी गंध के साथ लोगों को पसंद आती है, खूब चलती है; यह सौंदर्य बढ़ने का सबूत ही तो देता है। आनंद यादव द्वारा लिखित ‘नटरंग’ उपन्यास भी ऐसे सफल फिल्म रूपांतर के बाद अपनी खूबसूरती को सालों से निखारते आया है। बात केवल ‘बनगरवाडी’ के फिल्म रूपांतर की नहीं है; पाठक समीक्षक, साहित्यिक, समाजशास्त्री, विद्वानों... द्वारा इसे सराहा गया है। 2008 तक इसकी 21 आवृत्तियां निकलना उसके सौंदर्यवर्धक होने का परिचायक है। निष्कर्ष के नाते संकेत यह भी देना जरूरी है कि यहां सौंदर्यपरख दृष्टि से उपन्यास का मूल्यांकन किया है, वैसे ही उसका दूसरा पक्ष दर्द से भरा, पीडादायी कारुणिक अंत भी है; जो उपन्यास को चरम तक लेकर जाता है और आक्रोश के साथ चीख-चीखकर प्रत्येक भारतवासी को बताता है ‘मोहे राजा तोहरी जान मुझमें है, जब तक मोहे को जिंदा रखोगे तब तक तोही जिंदगी टिकी है।‘ उपन्यास में सूखे से हर एक पात्र का पीडित होकर पानी के एक-एक बूंद के लिए तरसना, बनगरवाडी छोड़कर केवल जिंदा रहने के लिए दूर-दूर तक दूसरे गांवों में स्थानांतरीत होना, स्कूली बच्चों का स्कूल आना बंद करना, बकरियों का मरना, सुखे-विरान प्रदेश में दूर-दूर तक पंछियों का भी नजर न आना, हरियाली का नामोनिशान मिटना, जगण्या की छोटी प्रेम कहानी का अंत, आयब्या का गांव छोड़कर जाना और अंततः मास्टर – राजाराम विठ्ठल सौंदणीकर का गांव के बच्चों के अभाव में वापस तहसील के स्कूल तबादला होना पूरी तरह से गांव की कमर टूटने का वर्णन करता है। ऐसे अपाहिज लकवा मारे गांव की कल्पना कोई गांव, गांववाला और भारतीय करेगा? पर आज कई गांव ऐसे स्थितियों से गुजर रहे हैं। खेती से किसानों का विश्वास उठ चुका है, उठ रहा है; जो अत्यंत पीडादायी है। ‘बनगरवाडी’ सफल कृति होने के नाते अनेक सौंदर्यवर्धक, सुहावने स्थलों को लेकर आती है, वैसे ही प्रशासन, सरकार, बढ़ते शहरों, आधुनिकता, देश के प्रमुखों, समाजशास्त्रियों...के सामने हजारों जलते सवाल छोड़ते इनकी वर्तमान नीति पर प्रश्नचिह्न भी निर्माण करता है।

सालों बाद हम विचार मंथन कर रहे हैं और इधर गांव अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए लड़ रहे हैं, छटपटा रहे हैं। जिस दिन गांव मरेगा, उसकी खूबसूरती मिटेगी, सोहनी सुगंध नष्ट होगी उस दिन भारत का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा। शहर बढ़ते जा रहे हैं इस पर कोई रोक नहीं ना सही! पर बढ़ते शहर खेती योग्य जमीन खा रहे हैं इसकी काट ढूंढ़नी पड़ेगी। खेती छोड़कर भागने वालों की संख्या बढ़ रही है उन्हें पूनर्स्थापित करना पड़ेगा। ऐसे कदम उठाना जरूरी है जिससे लोगों की खेती के प्रति आस्था बढ़ेगी। मूल किसान तो खेती करेंगे ही पर नवीन किसानों को आकर्षित करने की क्षमता जब खेती रखेगी तब देश के भीतर से भी सोहनी सुगंध उठना शुरू होगी। ‘बनगरवाडी’ के बहाने वर्तमान को देखकर प्रश्न उठता है कि 121 करोड़ की जनता का रिकार्डतोड़ प्रजनन क्षमता रखने वाला भारत किसान, गांव और खेती के बिना भविष्य में पत्थर, मिट्टी और घास खाकर जिएगा? अतः जरूरी है व्यंकटेश माडगूळकर के उपन्यास में रचा-बसा गांव संपूर्ण सौंदर्य के साथ अस्तित्व बनाए रखे और संपूर्ण जीवंतता से प्रगति करें। भरपूर पानी, हरियाली, अनाज और दूध हो ताकि नवीन भारत जिंदा रहे।

समीक्षा ग्रंथ –

बनगरवाडी (उपन्यास) – व्यंकटेश माडगूळकर, मौज प्रकाशन, मुंबई,

प्रथम आवृत्ति - 1955, इक्कीसवीं आवृत्ति – 2008, पृष्ठ 131, मूल्य – 80

व्यंकटेश दिंगबर माडगूळकर जी का संक्षिप्त परिचय

जन्म 6 जुलाई, 1927 महाराष्ट्र राज्य के सांगली जिला आटपाडी तहसील के माडगूळे गांव में। मृत्यु, 28 अगस्त 2001 में। मराठी के प्रसिद्ध लेखक और चित्रकार थे। कहानी, उपन्यास, नाटक, व्यक्तचित्र, ललित लेख, यात्रा वर्णन, लोकनाट्य, अनुवाद क्षेत्र में कार्य। मानदेशी मानसं, बनगरवाडी, सत्तांतर, जनावनातली रेखाटणें, नागझिरा, जंगलातील दिवस, गावाकडच्या गोष्टी, हस्ताचा पाऊस, उंबरठा, परवचा, बाजार, गोष्टी घराकडील, तू वेडा कुंभार, बिकट वाट वहिवाट, पांढर्‍यावर काळे, सुमीता, सीताराम एकनाथ, पारितोषिक, काळी आई, सरवा, ड़ोंहातील सावल्या, वाघाच्या मागावर, चित्रे आणि चरित्रे, अशी माणसं अशी साहसं, प्रवास एका लेखकाचा, वारी, कोवळे दिवस, सती, वाळूचा किल्ला, चरित्ररंग, मी आणि माझा बाप, करुणाष्टक, जांभळाचे दिवस आदि रचनाओं का लेखन माडगूळकर जी ने किया है। 1983 में अंबेजोगाई में संपन्न हुए मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे हैं। 1983 में ही ‘सत्तांतर’ रचना के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। जनस्थान पुरस्कार से भी विभूषित किया गया है। माडगूळकर जी की कई किताबों का अनुवाद अंग्रेजी, जर्मनी, जपानी, डॅनिश, रशियन भाषा में हुआ है। अंग्रेजी में ‘द विलेज हॅड नो वॉलस्’ और डॅनिश में ‘लँडस्बायन्’ नाम से ‘बनगरवाडी’ उपन्यास का अनुवाद हो चुका है। ‘पुढचं पाऊल’, ‘वंशाचा दिवा’, ‘जशाच तशे’, ‘सांगते ऐका’, ‘रंगपंचमी’ आदि फिल्मों के लिए कथा, पटकथा और संवाद लेखन इन्होंने किया है। ‘गावाकडील गोष्टी’, ‘काळी आई’, ‘बनगरवाडी’, ‘सती’ जैसी रचनाओं को महाराष्ट्र राज्य उत्कृष्ट साहित्य कृति के नाते भी पुरस्कृत किया है। मराठी के दूसरे प्रसिद्ध लेखक ग. दि. माडगूळकर इनके बड़े भाई थे।

डॉ. विजय शिंदे

देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)

ब्लॉग - साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे

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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक 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रचनाकार: पुस्तक समीक्षा - देशी गांवों की सोहनी सुगंध ‘बनगरवाडी’
पुस्तक समीक्षा - देशी गांवों की सोहनी सुगंध ‘बनगरवाडी’
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