कहानी हैलीपैड स्वास्थ्य महकमे और प्रशासन विभाग की ़गाड़ियाँ गाँव में तफसील करने के लिये रवाना हो गयीं। आगे की सीट पर आला अधिकारी और पीछे...
कहानी हैलीपैड
स्वास्थ्य महकमे और प्रशासन विभाग की ़गाड़ियाँ गाँव में तफसील करने के लिये रवाना हो गयीं। आगे की सीट पर आला अधिकारी और पीछे उनका फौजफाटा...। स्थानीय नेता और विधायक की गाड़ियाँ भी हिचकोले खातीं रास्ता नाप रही हैं। इन सब पर नजर रखे हुए मीडिया की लाठी। उनकी भी गाड़ी फर्राटे से शहर की सड़को को पीछे छोड़ती जा रही है। अधिकारियों की गाड़ी का तेज धुँआ पीछे वाली गाड़ियों में बैठे लोगों की नाक में घुसता जा रहा है। सड़क के गड्ढों में पहिया जाते ही गाड़ी को जोरदार झटका लगता , ड्रायवर लाख कोशिश करता पर पहिया गड्ढे में चला ही जाता। वह तेजी में क्लच दबाकर ब्रेक लगाता, पहियों की चरमराती आवाज आती और गाड़ी के अन्दर बैठे अफसरों के माथे पर शिकन छा जाती और वाणी में क्रोध फनफनाता- ‘‘देखकर चलाओ फजल...''।
‘‘क्या करुँ साब! सैकण्ड गियर में चला रहा हूँ पर गड्ढे इतने हैं कि रोड कहना मुश्किल है। कितनी भी कोशिश करो एक न एक गड्ढे में पहिया चला ही जाता है।''
मीडिया की गाड़ी में बैठा देवांग बुधौलिया आला अधिकारियों की गाड़ी और उसमें बैठे दफ्तर को देखकर मन ही मन मुस्करा रहा है। उसका मन दौड़कर अॉफिसियल गाड़ी में जा बैठा उसने देखा जो अधिकारी और मातहत गाड़ी में पीछे बैठे थे गड्ढों में पहिया जाते ही वे सबसे ज्यादा हिल जाते थे। वैसे तो अधिकारी को हिलाने की हिम्मत किसमें है ? कितने भी मरते रहें, अनाचार और व्यभिचार होते रहें प्रशासनिक अमला कभी हिलता ही नहीं। अपनी जगह से ये लोग हिलते रहें तो चोरी, आगजनी, मारपीट, हिंसा, बलात्कार लूटपाट सब खत्म हो जाये ... हाँ ये बात अलग है कि फिर पुलिस के पास कौन जायेगा ? अदालत का दरवाजा कौन खटखटायेगा ? ... यदि असामाजिकता खत्म हो जाये ...रामराज्य आ जाये तो कई बड़े अधिकारियों की पोस्ट ही खत्म हो जायेगी। डाकू बाहुल इलाकों में पुलिस चौकियाँ बन गयी थीं। अब डाकू खत्म तो डाकू समस्या भी खत्म, लूटपाट और वारदात खत्म। ऐसी पुलिस चौकियाँ जिन्हें डाकू बाहुल इलाकों में उपजाया गया था अब खत्म किया जा रहा है। उनको वहाँ से हटाकर अन्य स्थानों पर तैनात किया जा रहा है।
देवांग को याद आया कि मुख्य मुद्दा अधिकारियों के हिलने का था। आज सब हिल-डुलकर इतने गड्ड-मड्ड हुए जा रहे हैं कि पता कर पाना मुश्किल है कि कौन सा अधिकारी प्रशासन विभाग का है और कौन सा अधिकारी स्वास्थ्य विभाग का ? आज जिस कारण से गाड़ियों ने वलाला गाँव की ओर रुख किया है, वो मुद्दा वैसे तो स्वास्थ्य महकमे से जुड़ा है पर प्रशासनिक अमले की भी अपनी जिम्मेदारी है।
घने पेड़ों की कतार देखकर देवांग को याद आया कि यही वो जगह है ,जहाँ बैठकर उसने और हैरी ने नाश्ता किया था और एक दूसरे के बारे में जाना था। हैरी एक विदेशी सैलानी था जो भारत घूमने आया था। पर्यटन की लिस्ट मेें शिवपुरी को देखकर उसने यहाँ आना तय किया। देवांग को वो छत्री पर मिला था। वह छत्री के सौन्दर्य और नक्काशी के फोटो ले रहा था और जानकारी प्राप्त कर रहा था। उसे टूटी फूटी हिन्दी आती थी जो सुनने वाले की समझ में आ जाती थी। अचानक आयी बारिश से हैरी परेशान होने लगा, उसका कैमरा भी भींगने की स्थिति में आ गया, तब देवांग ने उसकी मदद की।
‘‘फरोम व्हेयर हेव यू कंम ?''
‘‘मय .. इंग्लैण्ड से .. अया''
देवांग के साथ ही उसने टुण्ड्रा भरका, भूराखो, भदैया कुण्ड आदि देखे और इन जगहों की कई तस्वीरें अपने कैमरेे में कैद कीं। हैरी अपने साथ एक किताब लिये था जिसमें नक्श्ो के साथ स्थानों के नाम लिखे थे। हैरी के मन में ग्रामीण परिवेश और ग्राम्य संस्कृति देखने की इच्छा थी, वह वो स्थान भी देखना चाहता था जहाँ पत्थरों के चूर्ण से शंख बनता है। देेवांग ने आश्वासन दिया कि वो साथ जाकर उसे ये सब स्थान दिखायेगा। वह उसे गाँव घुमाने ले गया और वहाँ की वनस्पतियों की विश्ोषताओं की जानकारी दी। उसने गाँवों की फसलों, मिट्टी और अन्य चीजों की बारीकियों को देखा और समझा। वलाला गाँव में जब वे लोग आये तो वहाँ उन्हें ढांचेनुमा बच्चे दिखायी दिये, जिनकी केवल हडि्डयाँ दिखायी दे रही थीं। हैरी ने ऐसे बच्चों को कैमरे में कैद किया। उसके लिये वे सब भारत का सौन्दर्य और अद्भुत नजारे थे,...।
गाँव में विदेशी पर्यटक का आना और बच्चों के फोटो खींचना एक खास खबर बन गयी। देवांग के मन में वो ढांचेनुमा बच्चे रह-रहकर कई प्रश्न उपस्थित कर रहे थे। वह हैरत में पड़ गया कि उसके देश की गरीबी, भुखमरी, लाचारी, नाकामयाबी विदेशियों के आकर्षण का केन्द्र बन रहा है। वापस वे लोग होटल के कमरे में पहुँचे। देवांग ने उसके कैमरे के फोटो देखे। कमजोर बच्चों के फोटो देखकर उसके मन में द्वन्द्व चलने लगा...हमारे देश की गरीबी विदेशों में फैलेगी...शर्मनाक बात होगी ... हमारी भुखमरी को ही बेचा जायेगा। जिस समस्या से हमारे स्थानीय लोग ही परिचित नहीं हैं उसे दूसरा देश देखेगा।
‘‘हैरी ! तुम मुझे अपना दोस्त मानते हो न?''
‘‘यस, तुम बोत .. अछे .. डोश्ट हो''
‘‘तुम इन कमजोर बच्चों के फोटो मत ले जाओ, मैं इन्हें अपने पास रखना चाहता हूँ''
‘‘ठीक हय, .. मय नहीं ले जाऊंगा''
देवांग गाँव का ही रहने वाला था। अपनी पढ़ाई के लिये उसने एक बार गाँव छोडकर श़्ाहर आया तो फिर यहीं बस गया। उसके मन मेेंं शुरु से भी गाँव को उन्नत और विकसित करने का भाव था। उसे पता था कि गाँव की समस्याएँ अलबत्ता शहर के अधिकारियों तक पहुँच नहीं पातीं, और यदि चली भी जाये ंतो उन समस्याओं के निदान के लिये कोई भी कदम नहीं उठाता। उसने पत्रकारिता में डिप्लोमा किया और एक अखबार में काम करने लगा। वह यह सिद्ध करके लोगों के मुँह बन्द करना चाहता था कि पत्रकारिता का उद्देश्य मिशन है कमीशन नहीं।
देवांग ने अपने अखबार में वलाला गाँव में कुपोषित बच्चों की बात को बच्चों के फोटो के साथ प्रमुखता से छापा। उसने एक कवर स्टोरी लिखी जिसका शीर्षक था -‘‘कार्पोरेट इण्डिया में कुपोषण'' और उसके नीेचे लिखा था- देवांग बुधौलिया शिवपुरी। खबर इस प्रकार थी-
‘‘भारत दुनिया के सुपर पावर क्लब मे अपना स्थान बनाने की हैसियत रखता है पर इसकी गिनती सर्वाधिक भुखमरी और कुपोषणग्रस्त देशों में होती है। हम विश्व की सबसे चमकदार अर्थव्यवस्थाओं में से एक हैं पर यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि कुपोषण से हर साल लाखों लोग मरते हैं। संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट लगातार यह कह रही है कि भारत में बच्चों और महिलाओं में कुपोषण की स्थिति अनेक निर्धन अफ्रीकी देशों से भी ज्यादा है। यह राष्ट्रीय नहीं अन्तरराष्ट्रीय शर्म की बात है। जब भूख और गरीबी राजनीतिक एजेंडे की प्राथमिकता नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है। सेव दा चिल्ड्रन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में रोजाना पांच हजार से भी अधिक बच्चे कुपोषण के चलते दम तोड़ देते हैं। ये हालात तब हैं जब देश में पर्याप्त अनाज है पर उचित भंडारण के अभाव में सढ़ रहा है। इस जिले के वलाला गाँव में कुपोषित बच्चे मिले हैं।कुपोषण से निबटने के लिये ठोस रणनीति बनानी होगी।''
कोई हलचल या घटना जब मीडिया के पास पहुँंचती है तो वो खबर बन जाती है... फिर वो सबका ध्यान आकर्षित करती है। खबर चौंकाने वाली थी रातों रात सबकी नींद हराम हो गयी। इतनी रातें आला अधिकारियें ने सोते गुजारी थीं अब उनके जगने की बारी थी। प्रशासनिक मातहत और स्वास्थ्य विभाग के लोगों की गाड़ियाँ आज धड़धड़ाती हुयी गाँव जा रही हैं ...
गाँव पहुँचकर बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण किया गया, उनका वजन तौला गया... उम्र के हिसाब से बच्चों का वजन कम निकला।
वहाँ सबने अपने-अपने तरीके से लोगों से सवाल किये...
‘‘तुम्हारा वजन कम क्यों है? ''
‘‘ ...कितने टाईम खाना खाते हो ?''
‘‘ खाने में क्या लेते हो.. ''
देवांग अपनी रिपोर्ट तैयार कर रहा था। वो भी बच्चों और उनके माता-पिता से बात कर रहा था। हैरी के साथ जब वो आया था तो गाँवबालों से अधिक बात नहीं कर पाया था।
अधिकारियों ने स्वास्थ्य महकमे से पूछा ‘‘क्या निष्कर्ष निकला ?''
‘‘ये बच्चे कुपोषित हैं।''
‘‘ क्या कारण हो सकता है ?''
‘‘जांच अभी जारी है कुछ कहा नहीं जा सकता''
कुपोषण क्या है इसे परिभाषित किया जाने लगा। सब अपने अपने हिसाब उसे परिभाषित करने लगे।
‘‘बच्चों को उनकी उम्र के हिसाब से उस मात्रा में भोजन न मिलने से कमजोरी आती है ‘‘जो कुपोषण में तब्दील हो जाती है..''
‘‘पौष्टिक आहार की कमी के कारण शरीर का विकास रुक जाता है जिससे शारीरिक दुर्बलता आती है और शरीर एक ढांचे के रूप में दिखने लगता है, जिसमें केवल हडि्डयाँ दिखती हैं।''
‘‘अच्छी तरह से पोषण न होना ही कुपोषण है''
तर्क और परिभाषायें जारी थीं
‘‘कृशकाय होना ही कुपोषण नहीं है। यदि ऐसा है तो फिर कुपोषण तो मध्य और उच्चवर्ग में मिल जायेंगे''
‘‘ सही बात है शरीर में हृष्ट-पुष्ट का भाव न आने देने के लिये तो लोग डायटिंग करते हैं...'' समर्थन में कई आवाजें आयीं''
जब भी कोई नई बीमारी आती है उसके बस्ते खंगाले जाते हैं। चिकुनगुनिया आया उसकी खबर ली गयी...डेंगु और हैपीटाइटिज बी आये उसकी हिस्ट्री जानी गयी...पहले इतिहास फिर परिचय, लक्षण और फिर निदानात्मक कार्यवाई। सही तो है पहले जड़ जानो तभी तो उन्मूलन होगा।
देवांग को लगातार जानकारी मिल रही थीं कि जिला केन्द्र पर अफरा-तफरी मची थी। नये स्वास्थ्य अधिकारी ने जबसे यहाँ कार्यभार संंभाला उनकी किस्मत में चिन्ता चहलकदमी करती आ गयी। झोलाछाप डॉक्टर के इलाज के दौरान लोग मर रहे थे...अभी वो इस समस्या से ही दो चार हो रहे थे कि नयी समस्या ‘कुपोषण' ने दरवाजा खटखटा दिया। आनन फानन में कई गाँवों में सर्वेक्षण करवाया गया...वहाँ की तस्वीरें सामने आ गयीं चार बच्चे और मिले जो कुपोषित थे। कुपोषण पर विचार विमर्श पूरा नहीं हुआ था कि गाँव में उन बच्चों में से एक की मौत हो गयी जिन्हें हैरी ने कैमरे में कैद किया था।
अधिकारियों को फिर से गाँव के दौरे पर जाना था, नौ बजे का समय निश्चित किया गया ताकि सब नाश्ता करके जा सकें, पता नहीं वहाँ कितना टाईम लग जाये। गाड़ियाँ फिर से गाँव में धूल उड़ाती पहुँच गयीं। गाँव में पहले धूल के उड़ते गुबार आसमान में दिखायी देते थे तो गाँववासी को अहसास हो जाता था कि गौधूलि बेला आ गयी है...चौपाये घर की ओर लौट रहे हैं और उनके खुर से धूल के कण आसमान में उड़कर गुबार पैदा कर रहे हैं। पर अब जिले की गाड़ियाँ धूल उड़ा रही हैं। गाँववालों की धूल तो पहले ही उड़ चुकी है। उनके गाँच का बच्चा खत्म हुआ है ... सब वेदना में हैं।
गाडियाँ उस गाँव में रुकीं। नेता जो पाँच सालों में गाँव का दौरा करने आते थे और वायदे करके भूलना जिनकी फितरत में है, आँखों पर चश्मा चढ़ाये खादी के कुर्ता-पाजामा, जैकेट पहने अपने लाव लश्कर के साथ बड़ी- बड़ी गाड़ियों से उतर रहे हैं। पर उन्हें ये चिन्ता है कि कहीं पैर कीचड़ में न सन जायें और सफेदी में दाग न लग जाये। काले चश्में में वो सिर्फ वही देखना चाहते हैं जो उनके स्वार्थ के लिये काम आता है। जिला मुख्यालय से आये सब लोग मातमी घर में पहुँंचे हैं।
खटिया डाल दी गयी ..। बच्चे के पिता बुधुआ को सांत्वना देने का सिलसिला शुरु हो गया। उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे समझाया जा रहा है।
‘‘तुम्हें कब पता लगा कि वो मर गया है ?''
‘‘साब काल दुफरिया में वाकी महतारी की गोद में ही सर रखकर लेटो हतो अचानक... वाने हिलवो डुलवो बन्द कर दओ तो जनीं खौं कछु शक भओ... वाने मोय आवाज दयी... में दौरकें वाके ढिंग पौंच गओ... वाकी नबज टटोली ..फिर का देखत हौं साब कि वो तो हमें छोड़कें चलौ गओ .. '' कहकर उसने अपनी नम आँखों को अपने कंधे पर पड़े गमछे से पौंछा।
‘‘ वो कब से बीमार था ? '' किसी अधिकारी ने पूछा
‘‘ नई साब वो बीमार नहीं थौ '' उसके पिता ने प्रतिरोध किया
‘‘अरे कहने का मतलब है वो कितने दिनों से खटिया पर लेटा था...मतलब बाहर आना-जाना बन्द कर दिया था।''
‘‘कमजोरी की वजै से वो आ जा नहीं पातौ''
‘‘ हाँ-हाँ बात वही है बीमारी मे भी तो कमजोरी आ जाती है''
अप्रत्यक्ष रूप से यही समझाया जा रहा है कि खाने की कमी (भोजन)़ से ये मौत नहीं हुयी। वह तो कई दिनों से बीमार चल रहा था। मातमी परिवार को आर्थिक सहायता राशि का भी प्रस्ताव दिया गया।
देवांग को लग रहा था कि सब दिखावा हो रहा है, सब जमीनी हकीकत से दूर हैं। सब अधिकारी और नेता अपनी-अपनी कुर्सी बचाने में लगे हैं। सब एक दूसरे पर इसकी जिम्मेदारी थोप रहे हैं। उसने देखा बच्चे की माँ रामरति सिकुडी़ सी बैठी है...दुःख में डूबा उसका चेहरा देखा...दर्द की चादर समेटे पनीली आँखें सबको बारी-बारी से देख रही थीं। उसे तो समझ ही नहीं आ रहा था कि ये सब यहाँ क्यों आये हैं ? बच्चों का मरना तो यहाँ आम बात है फिर इस बार कौन सी आफत हो गयी ....ये मजमा किसलिये ? खेतन के मरने का दुःख उसके मातृत्व को भिगो रहा था पर सबके आने से वह ंअपने गम को भूल गयी। उसके सिर से पल्ला भी कब का हट गया उसे होश ही नहीं। बगल में बैठी महिला ने उसके सिर पर पल्लू सहेजा। उसकी आँँखों से आसू बहकर चेहरे पर सूख गये थे, ऐसा लग रहा था कि हॉर्न बजाती गाड़ियाँ उसके दरवाजे पर आकर रुकीं होंगी तो उसका रोना थम गया होगा। जब परिचित या रिश्तेदार आते हैं तब दुःख में अपने आप ही आँसू बहने लगते हैं ..इस समय आँसू भी भला कैसे बहते वो तो अपने ही लोगों को देखकर दर्द बयां करते हैं। सुबह ही कोई आकर खबर दे गया था कि साहब आयेंगे तुम्हारे घर... जरा सलीके से रहना। वे लोग अपना गम भूलकर उन लोगों की आव भगत की तैयारी में लग गये।
मौत पर मेला लगा हुआ था...
शोक संतप्त घर में जब बड़ी हस्तियाँ बैठने आती हैं तो अखबारी सुर्खियाँ बन जाती हैं। देवांग को लग रहा है कि घर में बैठे बुधुआ के परिचितों और रिश्तेदारों के सीने चौड़े हो रहे हैं ....कल के अखबार मे उनके घर का जिक्र और उन लोगों के नाम भी ढूंढ-ढूंढकर पढ़े जायेंगे। देवांग का मन दुःख में डूब रहा था उसने खुद को संभाला ... उसने कैमरे से कुछ तस्वीरें भी लीं और रिकॉर्डिंग भी की। चैनल और अखबार की ड्यूटी तो निभानी ही थी। गाँववालों को शायद पता चल गया था कि ये खबर टी व्ही पर भी दिखायी जायेगी...सभी लोगे चैनल का नाम और समय पता करने में व्यस्त हो गये।
स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने जायजा लिया कि गन्दगी का प्रकोप हर जगह है। मच्छर रैन बसेरा कर रहे हैं, डी डी टी का छिड़काव कई सालों से नहीं हुआ।प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र बहुत दूर हैं जिनमें प्राथमिक उपचार की दवाईयाँ नहीं हैं। आँगनबाड़ी केन्द्र से भी खाद्य सामग्री गरीब बच्चों को नहीं मिल रही।
विपक्ष के नेता भी कहाँ चुप रहने वाले थे। वे प्रचार कर रहे थे...सरकार के राज्य में भुखमरी और गरीबी है। पक्षीय नेता सब आरोपों को गलत साबित करने में लगे थे, खण्डन और महिमामण्डन का काम भी चल रहा था।
पोषण के लिये प्रयास और समस्या के निदान के लिये कोई नहीं बोल रहा है। देवांग ने उन गाँवों का दौरा किया और कुपोषित बच्चों की बढ़ती संख्या को देख उसे प्रमुखता से छापा। खबर राजधानी तक पहुंच चुकी थी। सब ओहदेदार कुर्सियाँ हिल गयीं।
जल्द ही खबर आयी कि राजधानी से बड़े अधिकारी दौरे पर आने वाले हैं। जिले का ‘रुतवा' सचेत हो गया ...सबकी धड़कनें तेज हो गयीं। स्वास्थ्य महकमा भी चौकन्ना हो गया। बड़े साहब का हलक सूखने लगा। मीटिंगें होने लगीं... दिमाग जंगल की ओर दौड़ने लगे। देवांग को लग रहा था कि अब तो कुपोषण का कोई ठोस और कारगर उपाय निकल आयेगा। उसकी आँखों के सामने फिर से उन बच्चों की तस्वीर धूमने लगी जो बच्चे कम, ढांचे अधिक दिख रहे थे...जैसे विज्ञान के विद्यार्थी को समझाने के लिये अस्थि व हडि्डयों के ढांचे के किसी चित्र को रख दिया गया हो। उसने उन बच्चों से बात की थी वो लोग खाने के लिये लालायित दिखाई दिये।
एक घर में चार-चार पाँच-पाँच बच्चे थे। पति कुछ कामकाज या नौकरी करता नहीं है। पत्नी किसी के खेत में खेतिहर मजदूर है, वो ही हाड़-गोड़ तोड़ती रहती है। थक हारकर जब वह रात में सोना चाहती है तो पति अपने मन पर सवार काम के भूत को उन थकी हडि्डयों में खोना चाहता है। मना करने पर पिटने की नौबत ना आये इसलिये बेचारी पत्नी उस सबको मन मारकर सह लेती है।पति से बहस मतलब रात बेकार...फिर उसे सोना भी तो है रात को।
हर साल जब वो माँ बनती है, जापे के बाद उसे खाने को भी बेहतर नहीं मिल पाता, बस थोड़े दिन आराम कर फिर से काम पर निकल पड़ती है। जिसका शरीर खुद सूख रहा हो वो क्या शिशु को पौष्टिक आहार देगी और उसे कितना दूध पिला पायेगी। जमीन की देखभाल किसान अच्छी तरह करते है क्योंकि वो फसल देती है पर औरत की देह की देखभाल नहीं करते जो उनके वंश को बढ़ाती है। हर साल फसल होती रहे तो ज़मीन अच्छी रहती है पर औरत की देह नहीं। जमीन को भी तो खाद पानी चाहिये होता है...अधिक कुदाल सहने से जमीन भी ऊबड़- खाबड़ हो जाती है। माँ का शरीर साल दर साल कमजोर होता जाता है ... बस यहीं से बच्चों की शारीरिक कमजोरी शुरु जाती है। बच्चों को खेलते-खेलते भूख लगती है तो वो पमार के बीज खा लेते हैं फिर उन्हें उस बीज को खाने की जैसे आदत हो जाती है। भूख बच्चों के विकास को रोकती हैं और उनमें रोग पैदा करते हैं। उनका शरीर सूखता चला जाता है और वे कंकाल का रूप अख्तियार कर लेते हैं।
जिला स्तर पर मीटिंग की गयीं। कुछ अधिकारियों को सुझाव के लिये बुलाया गया। देवांग मीटिंग खत्म होने का इन्तजार कर रहा था। वह बाहर ही चहलकदमी कर रहा था कि इस समस्या का हल क्या हो सकता है। वह चाहता था कि गाँवों से इस तरह की सब समस्याएँ समाप्त हो जायें। जैसे ही अधिकारी बाहर निकले उसने निष्कर्ष पता किये, जो इस प्रकार हैं।
आदिवासियोें को नहला धुला कर साफ स्वच्छ करवाया जाये, उनके नाखून और बाल कटवाये जायें।
ये जिम्मेदारी पटवारी आदि को दी गयी है जो ये सुविधा मुहैया करा सकते हैं। गाँवों में नसबन्दी भी करवायी जाये।
एन आर सी में भी स्वास्थ्य संबंधी अधिक से अधिक सुविधायें मुहैया करायी जायें
आंगनबाड़ी केन्द्र से दलिया, सोयाबीन, मक्का आदि पौष्टिक आहार दिये जायें।
लोग सुझाव दे रहे थे। देवांग ने सब नोटकर लिया उसने देखा काजू, बादाम, पिस्ता आदि ड्राय फ्रूट्स समौेसे , कचौड़ी, नमकीन, चाय तथा बिस्किट की प्लेट लगकर अन्दर भेजी जा रही हैं।
कुपोषण कागजों में बन्द था। महंगी वस्तुएँ खाकर ,ए सी में बैठकर कुपोषण पर चर्चा हो रही थी। इस मीटिंग का ही बिल लम्बा चौड़ा बनेगा ये बात देवांग को पता है।
गाड़ियाँ फिर से गाँव की ओर दौड़ने लगीं। दवाइयाँ वितरित हो रही थीं... बच्चों को एन आर सी में भर्ती कराया गया....प्राथमिक स्वास्थ्य खोलने के लिये चबूतरे बनवाये गये। आदिवासियों को नहला-धुलाकर साफ-स्वच्छ कराया गया। साबुन और पानी अरसे बाद उन्हें नसीब हुआ सो कई लोग तो दो-दो तीन-तीन बार नहाये। मेले जैसा माहौल था। जहाँ जिन्दगियों की सुध नहीं ली जाती वहाँ मातम पर चहल पहल थी। पीने के पानी को जो लोग मोहताजे थे, जिनके चौपाये भी पानी को तरसते थे ... आज उनके नहाने केेे लिये टेंकर आ रहे थे। दवाईयाँ, दलिया, सोयाबीन और मक्का आदि बांटी जा चुकी थीं। नाइयों की खोज शुरु हो गयी थी...ढूँढ-ढूँढकर बाल काटने बालों को लाया गया...जिन्होंने ये काम छोड़ दिया था उन्हें भी इस काम में लगा दिया गया।
पर गाँववालों का विश्वास प्राप्त नहीं हो रहा था। विश्वास चीज ही ऐसी होती है जो होता है तो एक बार में हो जाता है नहीं होता तो उमरें गुजर जाती हैं विश्वास नहीं हो पाता।
देवांग लिस्ट तैयार कर रहा था कि कौन-कौन वहाँ हो आया है, अपना मत्था टेक आया है... सब रश्म अदायगी नजर आ रही थी। स्वयंसेवी और समाजसेवी संस्थाएँ फल, कपड़े और दवाईया बांटने आयीं ,पर फोटो जरूर खिंचवाये। भूख मिटाने के लिये दुकानदारी होते तो बहुत देखी है पर ‘‘भूख'' पर दुकानदारी और ताण्डवकारी प्रदर्शन नृत्य कभी-कभी होते हैं।देवांग का वश चलता तो इस तरह के तमाशों की न्यूज अखबार में कभी नहीं छापता। स्वास्थ्य शिविर भी लगाया गया...उल्टी दस्त, बुखार और दर्द आदि की रोजमर्रा की दवाईयाँ बांटी गयीं।
चोरी छिपे कण्डोम भी बांटे गये ताकि बच्चों की संख्या को रोका जा सके। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं ने महिलाओं को समझाया। पर उन्हें मालूम था कि महिलाओं के गर्भवती होने पर उसका अबॉर्शन करवाने में खर्च ज्यादा आता है उससे बेहतर वो बच्चे को पैदा करना समझती हैं। उनके मन में ये बात बैठी है कि साजे से ज्यादा आधे में परेशानी होती है।
गाँव तक जाने वाले सड़क मार्ग के गड्ढे भरवाये गये। राजधानी से आने बाले बड़े अधिकारी का समय नजदीक आता जा रहा था। खबर आयी कि साहब को वापस राजधानी जल्दी पहुँंचना है इसलिये वो हैलीकॉप्टर से आयेंगे ... इसलिये एक हैलीपैड बनवाया जाये। कुपोषण को भूलकर अधिकारी कर्मचारी ऐसी जगह की तलाश में जुट गये जो थोड़ी समतल हो, जहाँ आसपास सुरक्षा के भी इन्तजाम हो सकें। जमीन पर रोलर चलवाया गया और उस जमीन को मजबूत करने के प्रयास होने लगे ताकि वो अधिकारियों का बोझ सहने के लिये तैयार हो जाये।
बारात आनी हो या लाव लश्कर तैयारियाँ पहले से कर ली जाती हैं। इतनी सजधज और चकाचौंध पैदा की जाती है कि असलियत अन्दर ही दबकर रह जाती है। जो भी हो कुपोषण राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका था और फेसबुक की बहस ने उसे अन्तर्राष्ट्रीय मोड़ दे दिया।
आज गाँव में काफी मजमा लगा है। सबके मन में उत्सुकता है कि बड़े साहब राजधानी से आ रहे हैं। बच्चे जिन्होंने रेल को ही अच्छी तरह से नहीं जाना आज हैलीकॉप्टर पास से देखेंगे।
और वो दिन भी आ गया...
बड़े अधिकारी आये... गाँवों का दौरा किया ... समस्यायें देखीं सुनीं।
लोगों ने कहा-खुले में शौच करना भी कुपोषण का कारण हो सकता है। उन्हें जमीन के पट्टे भी दिये जायें और रोजगार गारंटी में भी उन्हें रोजगार मिले ताकि उनकी उदरपूर्ति का साधन उपलब्ध हो सके।
अधिकारी आये और चले भी गये। जितने दिन उनकी तैयारी में लगे उतने घण्टे भी न रुक पाये।देवांग ने उनसे बात की ... निष्कर्ष निकला कि साफ-सफाई से न रहने के कारण कुपोषण फैलता है इसलिये इनकी साफ-सफाई पर ध्यान दिया जायेगा, इन्हें हाथ धोने के तरीके भी सिखाने होंगे ... स्कूल में भी साफ सफाई का ध्यान रखा जायेगा। एक संस्था इन लोगों को फ्री में साबुन देगी। देवांग उधेड़बुन में था... साबुन से ही कुपोषण का सफाया होगा पर एक बात समझ नहीं आ रही कि हाथ धोने के बाद वो खायेंगे क्या ?
देवांग सोच रहा था कि वो अधिकारियों को बताये कि कुपोषण का निदान कैसे हो सकता है। रोटी खाना नियति है, अधिक खाना विकृति है और किसी को रोटी देना हमारी संस्कृति है। अन्नदान की योजना भी चलायी जा सकती है जो गाँवों तक भेजा जाये। गांधीजाी ने भी कहा है ‘‘ भूखे इंसान की नजर में रोटी का एक टुकड़ा ईश्वर का चेहरा है। माँ को भी पर्याप्त पोषण देना होगा और स्तनपान की जानकारी भी। स्कूलों के मध्यान्ह भोजन में लड़कियों को सोलह साल तक आवश्यक रूप से भोजन कराया जाये जैसे नवदुर्गा मे करते हैं ... इससे कुपोषण का सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी कम होता जायेगा। किसानों को उनका अपना रोजगार निर्माण भी कराया जा सकता है। विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ गाँवों को गोद लेकर इनके हक मेंं भी काम कर सकती है। इस तरह के छोटे-छोटे उपाय कारगर किये जा सकते हैं। एक मजबूत जनसमर्पण और पहल की जरुरत है। देवांग ने अपने विचारों को जब्त किया, उसे पता था यहाँ उसकी कोई नहीं सुनेगा... वह अब शांत नहीं बैठैगा... अपने अखबार द्वारा ये मुहिम और तेज करेगा।
राजधानी के अधिकारी जाने की तैयारी में हैं। देवांग कैमरे में फोटो खींच रहा है...हैलीकॉप्टर उड़ रहा था और कुपोषण को समाप्त करने के लिये अधिकारियों-कर्मचारियों के माथे पर आयीं चिन्ता की लकीरें और पसीने की बूंदें भी साथ में उड़ गयी थीं। हैलीपैड आज भी अपनी जगह खड़ा है ... तैयार... कोई आये और उस पर अपने कदम रखे। ये भी ऐतिहासिक बन जायेगा लोग इसे देखने आयेंगे किसी दर्शनीय स्थल की तरह.. कुछ दिन बाद इस पर भी एक शिलालेख लगा दिया जायेगा और उस पर आने वाले का नाम दर्ज हो जायेगा। देवांग ने हैलीपैड के भी तीन-चार फोटो हर एंगल से ले लिये हैं क्या पता कब इसकी जरूरत पड़ जाये। उसके मन में तिक्तता थी... वह इस स्थान का नामकरण करेगा ‘‘ कुपोषण की याद में हैलीपैड''... ।
पद्मा शर्मा
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