शैलेन्द्र चौहान चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह। । अक्सर बारापुल्ला फ्लाई ओवर से गुजरना होता है। और अ...
शैलेन्द्र चौहान
अक्सर बारापुल्ला फ्लाई ओवर से गुजरना होता है। और अक्सर ही अब्दुल रहीम खानखाना के जीर्णशीण मकबरे पर निगाह टिक जाती है। वहीँ पीछे चमचमाता हुआ हुमायूँ का मकबरा दिखाई देता है। तब मुझे अचानक राजा भोज का कथन याद आता है कि राजा तो सिर्फ अपने देश में ही पूजा जाता है जब कि विद्वान सर्वत्र ही पूजा जाता है। और तब मैं यह सोचने को विवश होता हूँ कि भोज ने यह बात सदाशयता के चलते ही कही होगी वरना रहीम के मकबरे का यह हाल तो कदापि न होता। हिन्दी साहित्य में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी आदि का गहन अध्ययन किया। वे राजदरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में लगे रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे स्मरण शक्ति, हाज़िर–जवाबी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। वे युद्धवीर के साथ–साथ दानवीर भी थे। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छन्दों पर रीझकर इन्होंने 36 लाख रुपये दे दिए थे।
रहीम ने अपनी कविताओं में अपने लिए 'रहीम' के बजाए 'रहिमन' का प्रयोग किया है। वे इतिहास और काव्य जगत में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके काव्य में नीति, भक्ति–प्रेम तथा श्रृंगार आदि के दोहों का समावेश है। साथ ही जीवन में आए विभिन्न मोड़ भी परिलक्षित होते हैं।
रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने ब्रज भाषा, पूर्वी अवधी और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। किन्तु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी। गहरी से गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी–सादी भाषा में कह दी। भाषा को सरल, सरस और मधुर बनाने के लिए तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया। रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने तुर्की भाषा के एक ग्रन्थ 'वाक़यात बाबरी' का फ़ारसी में अनुवाद किया। फ़ारसी में अनेक कविताएँ लिखीं। 'खेट कौतूक जातकम्' नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें फ़ारसी और संस्कृत शब्दों का अनूठा मेल था। इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके 'बरवै नायिका भेद' में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं। रहीम बहुत स्वाभिमानी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वह किसी भी व्यक्ति सामने अपनी व्यथा नहीं उगलते थे। वह कहते हैं कि --
अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में ‘मिर्ज़ा ख़ां’ अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ-बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी मां थी वह भी कविता करती थीं।
रहीम शिया और सुन्नी के विचार-विरोध से शुरू से आजाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छः साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान थे; बदाऊंनी खुद उनमें से एक था।
रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ां की कार्यकुशलता लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज कोका की बहन माहबानो से रहीम का निकाह करा दिया। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर द्वारा ही दिया गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।
रहीम के जीवन का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू होता है जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम मिर्ज़ा ख़ां उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही साबरमती नदी के किनारे पहुंच गया। रहीम मिर्ज़ा ख़ां को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ां ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त कर दिया। यह उनका पहला युद्ध था।
अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मिरअर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था, जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रुप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया। यह निर्णय सुनकर सारा दरबार सन्न रह गया था। इस पद पर आसीन होने का मतलब था कि वह व्यक्ति जनता एवं सम्राट दोनों में सामान्य रुप से विश्वसनीय है।
रहीम के दोहों यह खूबी है कि उनमें तेज धार है और ग़जब का पैनापन भी। तभी तो वे एक बारगी दिलो-दिमाग़ को झकझोर देते हैं। उनके नीतिपरक दोहों में जहां अपने-पराए ऊंच-नीच तथा सही-गलत की समझ है, वहीं ज़िन्दगी के चटक रंग भी श्रृंगार के रूप में दिखाई देते हैं। रहीम की ज़िन्दगी पर जहां एक ओर तलवार की चमक का साया रहा, वहीं उन्हें सियासत की शतरंजी चालों का म़ुकाबला भी क़दम- क़दम पर करना पड़ा। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा महसूस किया जिसके बारे में उनके ही माहौल में रहने वाला कभी सोच भी नहीं सकता, फिर आम आदमी की तो बात ही क्या है। क्योंकि ऐसी सोच के लिए जिस दूरदृष्टि और ऊंचे दर्जे की संवेदना की जरूरत हुआ करती है, वह उसमें नहीं होती। रहीम के दोहे इसी मायने में खास है। इनमें उनकी ज़िन्दगी का निचोड़ है।
पता : 34/242, प्रतापनगर, सेक्टर-3, जयपुर, (राजस्थान) 303033
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह।।
अक्सर बारापुल्ला फ्लाई ओवर से गुजरना होता है। और अक्सर ही अब्दुल रहीम खानखाना के जीर्णशीण मकबरे पर निगाह टिक जाती है। वहीँ पीछे चमचमाता हुआ हुमायूँ का मकबरा दिखाई देता है। तब मुझे अचानक राजा भोज का कथन याद आता है कि राजा तो सिर्फ अपने देश में ही पूजा जाता है जब कि विद्वान सर्वत्र ही पूजा जाता है। और तब मैं यह सोचने को विवश होता हूँ कि भोज ने यह बात सदाशयता के चलते ही कही होगी वरना रहीम के मकबरे का यह हाल तो कदापि न होता। हिन्दी साहित्य में रहीम का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अरबी, फ़ारसी, संस्कृत, हिन्दी आदि का गहन अध्ययन किया। वे राजदरबार में अनेक पदों पर कार्य करते हुए भी साहित्य सेवा में लगे रहे। रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे स्मरण शक्ति, हाज़िर–जवाबी, काव्य और संगीत के मर्मज्ञ थे। वे युद्धवीर के साथ–साथ दानवीर भी थे। अकबर के दरबारी कवि गंग के दो छन्दों पर रीझकर इन्होंने 36 लाख रुपये दे दिए थे।
रहीम ने अपनी कविताओं में अपने लिए 'रहीम' के बजाए 'रहिमन' का प्रयोग किया है। वे इतिहास और काव्य जगत में अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके काव्य में नीति, भक्ति–प्रेम तथा श्रृंगार आदि के दोहों का समावेश है। साथ ही जीवन में आए विभिन्न मोड़ भी परिलक्षित होते हैं।
रहीम ने अपने अनुभवों को सरल और सहज शैली में मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की। उन्होंने ब्रज भाषा, पूर्वी अवधी और खड़ी बोली को अपनी काव्य भाषा बनाया। किन्तु ब्रज भाषा उनकी मुख्य शैली थी। गहरी से गहरी बात भी उन्होंने बड़ी सरलता से सीधी–सादी भाषा में कह दी। भाषा को सरल, सरस और मधुर बनाने के लिए तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग किया। रहीम अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने तुर्की भाषा के एक ग्रन्थ 'वाक़यात बाबरी' का फ़ारसी में अनुवाद किया। फ़ारसी में अनेक कविताएँ लिखीं। 'खेट कौतूक जातकम्' नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें फ़ारसी और संस्कृत शब्दों का अनूठा मेल था। इनका काव्य इनके सहज उद्गारों की अभिव्यक्ति है। इन उद्गारों में इनका दीर्घकालीन अनुभव निहित है। ये सच्चे और संवेदनशील हृदय के व्यक्ति थे। जीवन में आने वाली कटु-मधुर परिस्थितियों ने इनके हृदय-पट पर जो बहुविध अनुभूति रेखाएँ अंकित कर दी थी, उन्हीं के अकृत्रिम अंकन में इनके काव्य की रमणीयता का रहस्य निहित है। इनके 'बरवै नायिका भेद' में काव्य रीति का पालन ही नहीं हुआ है, वरन उसके माध्यम से भारतीय गार्हस्थ्य-जीवन के लुभावने चित्र भी सामने आये हैं। मार्मिक होने के कारण ही इनकी उक्तियाँ सर्वसाधारण में विशेष रूप से प्रचलित हैं। रहीम बहुत स्वाभिमानी व्यक्तित्व के स्वामी थे। वह किसी भी व्यक्ति सामने अपनी व्यथा नहीं उगलते थे। वह कहते हैं कि --
रहिमन निज मन की व्यथा मन ही रखे गोयअब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का जन्म 17 दिसम्बर 1556 ई. को सम्राट अकबर के अभिभावक बैरम ख़ां के यहां लाहौर में हुआ था। अकबर के संरक्षक बैरम खां की एक पुराने विरोधी, अफ़ग़ान सरदार मुबारक ख़ां ने गुजरात में पाटन के पास धोखे से पीठ में छुरा भोंककर हत्या कर दी। तब बाबा जम्बूर और मुहम्मद अमीर ‘दीवाना’ चार वर्षीय रहीम को लेकर किसी तरह अफ़ग़ान लुटेरों से बचते हुए अहमदाबाद जा पहुंचे। चार महीने वहां रहकर फिर वे आगरा की तरफ चल पड़े। अकबर को जब अपने संरक्षक की हत्या की ख़बर मिली तो उसने रहीम और परिवार की हिफ़ाजत के लिए कुछ लोगों को इस आदेश के साथ वहां भेजा कि उन्हें दरबार में ले आएं। अकबर ने रहीम का पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा शहजादों की तरह शुरू करवाई, जिससे दस बारह साल की उम्र में ही रहीम का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा। अकबर ने शहजादों को प्रदान की जाने वाली उपाधि ‘मिर्ज़ा ख़ां’ से रहीम को सम्बोधित करना शुरू किया।
सुन अठिलैहें लोग सब बांटि न लैहे कोय।
अकबर रहीम से बहुत अधिक प्रभावित था और उन्हें अधिकांश समय तक अपने साथ रखता था। रहीम को ऐसे उत्तरदायित्व पूर्ण काम सौंपे जाते थे जो किसी नए सीखने वाले को नहीं दिए जा सकते थे। परन्तु उन सभी कामों में ‘मिर्ज़ा ख़ां’ अपनी योग्यता के बल पर सफल होते थे। अकबर ने रहीम की शिक्षा के लिए मुल्ला मुहम्मद अमीन को नियुक्त किया। रहीम ने तुर्की, अरबी एवं फ़ारसी भाषा सीखी। उन्होंने छन्द रचना, कविता करना, गणित तर्क शास्त्र और फ़ारसी व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत का ज्ञान भी उन्हें अकबर की शिक्षा व्यवस्था से ही मिला। काव्य रचना, दानशीलता, राज्य संचालन, वीरता और दूरदर्शिता आदि गुण उन्हें अपने माँ-बाप से संस्कार में मिले थे। सईदा बेगम उनकी दूसरी मां थी वह भी कविता करती थीं।
रहीम शिया और सुन्नी के विचार-विरोध से शुरू से आजाद थे। इनके पिता तुर्कमान शिया थे और माता सुन्नी। इसके अलावा रहीम को छः साल की उम्र से ही अकबर जैसे उदार विचारों वाले व्यक्ति का संरक्षण प्राप्त हुआ था। इन सभी ने मिलकर रहीम में अद्भुत विकास की शक्ति उत्पन्न कर दी। किशोरावस्था में ही वे यह समझ गए कि उन्हें अपना विकास अपनी मेहनत, सूझबूझ और शौर्य से करना है। रहीम को अकबर का संरक्षण ही नहीं, बल्कि प्यार भी मिला। रहीम भी उनके हुक्म का पालन करते थे, इसलिए विकास का रास्ता खुल गया। अकबर ने रहीम से अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का भी ज्ञान प्राप्त करने को कहा। अकबर के दरबार में संस्कृत के कई विद्वान थे; बदाऊंनी खुद उनमें से एक था।
रहीम ‘मिर्ज़ा ख़ां की कार्यकुशलता लगन और योग्यता देखकर अकबर ने उनको शासक वंश से सीधे सम्बद्ध करने का फैसला किया, क्योंकि ऐसा करके ही रहीम के दुश्मनों का मुह बन्द किया जा सकता था और उन्हें अन्तःपुर की राजनीति से बचाया जा सकता था। अकबर ने अपनी धाय माहम अनगा की पुत्री और अज़ीज कोका की बहन माहबानो से रहीम का निकाह करा दिया। माहबानो से रहीम के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हुईं। पुत्रों का नाम इरीज़, दाराब और करन अकबर द्वारा ही दिया गया था। पुत्री जाना बेगम की शादी शहज़ादा दानियाल से सन् 1599 में और दूसरी पुत्री की शादी मीर अमीनुद्दीन से हुई। रहीम को सौधा जाति की एक लड़की से रहमान दाद नामक पुत्र हुआ और एक नौकरानी से मिर्ज़ा अमरुल्ला हुए। एक पुत्र हैदर क़ुली हैदरी की बचपन में ही मृत्यु हो गई थी।
रहीम के जीवन का उत्कर्ष सन् 1573 से शुरू होता है जो अकबर के समय सन् 1605 तक चलता रहा। इसी बीच बादशाह अकबर एक बार रहीम से नाराज़ भी हो गए, लेकिन ज्यादा दिनों तक यह नाराज़गी नहीं रह सकी। सन् 1572 में जब अकबर पहली बार गुजरात विजय के लिए गया तो 16 वर्षीय रहीम मिर्ज़ा ख़ां उसके साथ ही थे। ख़ान आज़म को गुजरात का सूबेदार नियुक्त करके बादशाह अकबर लौट आए। लेकिन उसके लौटते ही ख़ान आज़म को गुजराती परेशान करने लगे। उसे चारों ओर से नगर में घेर लिया गया। यह समाचार पाकर बादशाह अकबर सन् 1573 में 11 दिनों में ही साबरमती नदी के किनारे पहुंच गया। रहीम मिर्ज़ा ख़ां को अकबर के नेतृत्व में मध्य कमान का कार्यभार सौंपा गया। मिर्ज़ा ख़ां ने बड़ी बहादुरी से युद्ध करके दुश्मन को परास्त कर दिया। यह उनका पहला युद्ध था।
अकबर के दरबार को प्रमुख पदों में से एक मिरअर्ज का पद था। यह पद पाकर कोई भी व्यक्ति रातों रात अमीर हो जाता था, क्योंकि यह पद ऐसा था, जिससे पहुँचकर ही जनता की फरियाद सम्राट तक पहुँचती थी और सम्राट के द्वारा लिए गए फैसले भी इसी पद के जरिये जनता तक पहुँचाए जाते थे। इस पद पर हर दो- तीन दिनों में नए लोगों को नियुक्त किया जाता था। सम्राट अकबर ने इस पद का काम- काज सुचारु रुप से चलाने के लिए अपने सच्चे तथा विश्वास पात्र अमीर रहीम को मुस्तकिल मीर अर्ज नियुक्त किया। यह निर्णय सुनकर सारा दरबार सन्न रह गया था। इस पद पर आसीन होने का मतलब था कि वह व्यक्ति जनता एवं सम्राट दोनों में सामान्य रुप से विश्वसनीय है।
- रहीम अरबी, तुर्की, फ़ारसी, संस्कृत और हिन्दी के अच्छे जानकार थे। हिन्दू-संस्कृति से ये भली-भाँति परिचित थे। इनकी नीतिपरक उक्तियों पर संस्कृत कवियों की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है।
- कुल मिलाकर इनकी 11 रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इनके प्राय: 300 दोहे 'दोहावली' नाम से संगृहीत हैं। मायाशंकर याज्ञिक का अनुमान था कि इन्होंने सतसई लिखी होगी किन्तु वह अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। दोहों में ही रचित इनकी एक स्वतन्त्र कृति 'नगर शोभा' है। इसमें 142 दोहे हैं। इसमें विभिन्न जातियों की स्त्रियों का श्रृंगारिक वर्णन है।
- रहीम अपने बरवै छन्द के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका 'बरवै है। इनका 'बरवै नायिका भेद' अवधी भाषा में नायिका-भेद का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। इसमें भिन्न-भिन्न नायिकाओं के केवल उदाहरण दिये गये हैं। मायाशंकर याज्ञिक ने काशीराज पुस्तकालय और कृष्णबिहारी मिश्र पुस्तकालय की हस्त लिखित प्रतियों के आधार पर इसका सम्पादन किया है। रहीम ने बरवै छन्दों में गोपी-विरह वर्णन भी किया है।
- मेवात से इनकी एक रचना 'बरवै' नाम की इसी विषय पर रचित प्राप्त हुई है। यह एक स्वतन्त्र कृति है और इसमें 101 बरवै छन्द हैं। रहीम के श्रृंगार रस के 6 सोरठे प्राप्त हुए हैं। इनके 'श्रृंगार सोरठ' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है किन्तु अभी यह प्राप्त नहीं हो सका है।
- रहीम की एक कृति संस्कृत और हिन्दी खड़ी बोली की मिश्रित शैली में रचित 'मदनाष्टक' नाम से मिलती है। इसका वर्ण्य-विषय कृष्ण की रासलीला है और इसमें मालिनी छन्द का प्रयोग किया गया है। इसके कई पाठ प्रकाशित हुए हैं। 'सम्मेलन पत्रिका' में प्रकाशित पाठ अधिक प्रामणिक माना जाता है। इनके कुछ भक्ति विषयक स्फुट संस्कृत श्लोक 'रहीम काव्य' या 'संस्कृत काव्य' नाम से प्रसिद्ध हैं। कवि ने संस्कृत श्लोकों का भाव छप्पय और दोहा में भी अनूदित कर दिया है।
- कुछ श्लोकों में संस्कृत के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग हुआ है। रहीम बहुज्ञ थे। इन्हें ज्योतिष का भी ज्ञान था। इनका संस्कृत, फ़ारसी और हिन्दी मिश्रित भाषा में' खेट कौतुक जातकम्' नामक एक ज्योतिष ग्रन्थ भी मिलता है किन्तु यह रचना प्राप्त नहीं हो सकी है। 'भक्तमाल' में इस विषय के इनके दो पद उद्धृत हैं। विद्वानों का अनुमान है कि ये पद 'रासपंचाध्यायी' के अंश हो सकते हैं।
- रहीम ने 'वाकेआत बाबरी' नाम से बाबर लिखित आत्मचरित का तुर्की से फ़ारसी में भी अनुवाद किया था। इनका एक 'फ़ारसी दीवान' भी मिलता है।
- रहीम के काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार, नीति और भक्ति है। इनकी विष्णु और गंगा सम्बन्धी भक्ति-भावमयी रचनाएँ वैष्णव-भक्ति आन्दोलन से प्रभावित होकर लिखी गयी हैं। नीति और श्रृंगारपरक रचनाएँ दरबारी वातावरण के अनुकूल हैं। रहीम की ख्याति इन्हीं रचनाओं के कारण है। बिहारी लाल और मतिराम जैसे समर्थ कवियों ने रहीम की श्रृंगारिक उक्तियों से प्रभाव ग्रहण किया है। व्यास, वृन्द और रसनिधि आदि कवियों के नीति विषयक दोहे रहीम से प्रभावित होकर लिखे गये हैं। रहीम का ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर समान अधिकार था। उनके बरवै अत्यन्त मोहक प्रसिद्ध है कि तुलसीदास को 'बरवै रामायण' लिखने की प्रेरणा रहीम से ही मिली थी। 'बरवै' के अतिरिक्त इन्होंने दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, मालिनी आदि कई छन्दों का प्रयोग किया है।
रहीम के दोहों यह खूबी है कि उनमें तेज धार है और ग़जब का पैनापन भी। तभी तो वे एक बारगी दिलो-दिमाग़ को झकझोर देते हैं। उनके नीतिपरक दोहों में जहां अपने-पराए ऊंच-नीच तथा सही-गलत की समझ है, वहीं ज़िन्दगी के चटक रंग भी श्रृंगार के रूप में दिखाई देते हैं। रहीम की ज़िन्दगी पर जहां एक ओर तलवार की चमक का साया रहा, वहीं उन्हें सियासत की शतरंजी चालों का म़ुकाबला भी क़दम- क़दम पर करना पड़ा। उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ ऐसा महसूस किया जिसके बारे में उनके ही माहौल में रहने वाला कभी सोच भी नहीं सकता, फिर आम आदमी की तो बात ही क्या है। क्योंकि ऐसी सोच के लिए जिस दूरदृष्टि और ऊंचे दर्जे की संवेदना की जरूरत हुआ करती है, वह उसमें नहीं होती। रहीम के दोहे इसी मायने में खास है। इनमें उनकी ज़िन्दगी का निचोड़ है।
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अंगार ज्यों।‘खानखाना’ रहीम ने ज़िन्दगी के ऊंच-नीच को काफी नजदीक से देखा-परखा था। यही वजह है कि प्रत्येक दोहे में उनकी आपबीती मुखर होती है।
तातो जारै अंग, सीरे पै कारो लगै।।
एक उदर दो चोंच है, पंछी एक कुरंड।
कहि रहीम कैसे जिए, जुदे जुदे दो पिंड।
रहिमन जग की रीति मैं देख्खो रस ऊख में।
ताहू में परतीति, जहां गांठ तहं रस नहीं।
कलवारी रस प्रेम कों, नैननि भरि भरि लेति।
जोबन मद भांति फिरै, छाती छुवन न देति।।
कबहू मुख रूखौ किए, कहै जीभ की बात।
वाको करुओ वचन सुनि, मुख मीठो ह्वौ जात।।
रहिमन मोम तुरंग चढ़ि, चलिबो पावक मांहि।रहीम का व्यक्तित्व अपने आप में अलग मुकाम रखता है। एक ही व्यक्तित्व अपने अंदर कवि, वीर सैनिक, कुशल सेनापति, सफल प्रशासक, अद्वितीय आश्रयदाता, गरीबनबाज, विश्वास पात्र मुसाहिब, नीति कुशल नेता, महान कवि, विविध भाषा विद, उदार कला पारखी जैसे अनेकानेक गुणों का मालिक हो, यह न केवल अनुपम और महत्त्वपूर्ण है बल्कि विरल है।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नांहि।।
रहिमन याचकता गहे, बड़े छोट है जात।
नारायण हू को भयो, बावन आंगुर गात।।
रहिमन वित्त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करि होरी रची, भई तनिक में छार।।
समय लाभ सम लाभ नहिं, समय चूक सम चूक।
चतुरन चित रहिमन लगी, समय चूक की हूक।।
चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह।।
पता : 34/242, प्रतापनगर, सेक्टर-3, जयपुर, (राजस्थान) 303033
बहुत ही सुन्दर और जानकारी से परिपूर्ण आलेख। बधाई।
जवाब देंहटाएंशैख़ मोहम्मद