श्याम गुप्त तू वही है ......ग़ज़ल तू वही है तू वही है | प्रश्न गहरा , तू कहीं है | तू कहीं है, या नहीं है | कौन कहता , तू नहीं है | ...
श्याम गुप्त
तू वही है ......ग़ज़ल
तू वही है
तू वही है |
प्रश्न गहरा ,
तू कहीं है |
तू कहीं है,
या नहीं है |
कौन कहता ,
तू नहीं है |
है भी तू,
है भी नहीं है |
जहाँ ढूंढो ,
तू वहीं है |
तू ही तू है,
सब कहीं है |
जो कहीं है ,
तू वहीं है |
वायु जल थल ,
सब कहीं है |
मैं जहां है,
तू नहीं है |
तू जहां है ,
मैं नहीं है |
प्रश्न का तो,
हल यही है |
तू ही तू है,
तू वही है |
मैं न मेरा,
सच यही है |
तत्व सारा,
बस यही है |
मैं वही हूँ ,
तू वही है |
बसा हरसू ,
श्याम ही है |
श्याम ही है,
श्याम ही है ||
---डा श्याम गुप्त , के-३४८, आशियाना , लखनऊ
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कामिनी कामायनी
1 एक जरा सी जिंदगी ।
रास्ते बंद कर दिए /
तो लोगों ने प्रश्न से देखा/
कहा कुछ नहीं /मौन मेरी निगाहें /
बयाँ कुछ भी न कर सकी /
कि हालत आखिर ऐसा पैदा हुआ तो क्यों हुआ /
बस मैंने मुड कर देखा भर /
दूर तक जाती हुई निगाहों में/
सिमट आने को बेताब राहें /
कुछ घबड़ा सी गई थी /
उदास उदास सन्नाटे /शर्मिंदा होकर झुक आए थे /
चौराहों के बेहद करीब /
अच्छा नहीं किया इसके साथ /
दरख्तों ने भी बुदबुदाए थे /
उनके अफसोस पर /
मैंने कोई अफसोस नहीं जताया था /
न कोई अश्क ही मेरे बचाव में आई थी /
तड़पे न वह रा ह बार बार /
न महसूस करे शर्मिंदगी /
बस इसी खातिर /मैंने /बंद कर दिए थे वे द्वार /
फिर कभी सिर नहीं उठाई थी . ।
2
बेहद करीब से /
सरसराती हुई हवा /
कानों में /
गुनगुनाती हुई /
जाने को वापस मुड़ी /
की मैंने अपने कान /
दे दिए उसे /आखिर क्या /
कहना चाहती थी वह /
मुस्कुराइ वह ज़ोर से /
बोली /कुछ स्वर थे नमस्कार के /
और कुछ दुआएं /बस ।
3
और कुछ भी तो नहीं है /
यह जिंदगी /
बस थोड़ी सी दुआ के सिवा /
तो फिर /
चौराहे पर लेटा /दर्द में तड़पता /
किसी बेगाने से :
भूख से तड़पती अंतड़ियाँ /
या /
बहुत रो कर निस्तेज हो चुकी /
आंखो से /
बस जरा सी /
दुआ ही चाहिए /
आओ /हम /
उनके घावों पर /
मरहम लगा आएँ ।
4
विश्वास ने रुँधे हुए गले से /
आशा से कहा /
अब शायद मिलना हो न हो /
तुमसे इस जनम मे ।
आगे बढ़ कर /
गले लगाकर /
आशा ने कहा /
जहां तुम वहाँ मै/
हर पल हम /साथ ही तो रहते हैं /
बिछड़ने का फिर भय कैसा ?
5
आज हमारी परछाई ने /
हमें कुछ समझाते हुए /
कहा था /कि/ निर्जीव होकर भी /
बहुत कुछ /सीखा जाती हैं हम /
महामानव कहलाने वाले /
तुम इंसान को /
मेरे वजूद से /जान जाते हैं लोग/
तुम्हारी औकात /
तुम स्वस्थ /तुम लाचार /
तुम पैदल /तुम सवार /
तुम दौलतमंद /तुम बेघरबार /
साथ तो सदा मैं रहती हूँ /तुम्हारे /
मगर फिर भी /
याद रहता नहीं तुम्हें मेरा एहसान /
और अक्सर बोल उठते हो /
विपत्ति मेँ/अपना साया भी साथ छोड़ देता है /
मगर सच ये है /
तब मैं /तुम्ही मेँ समाहित हुई रहती हूँ /
आखिर तुम्हारी ही तो हूँ
6
फिर से /
आवाज सुनी थी /
मेरे कानो ने /गुनगुनाने की / किसी की /
कोई एक धुन /तैरता रहा था हवा मे बड़ी देर तक /
फिर महका था /महुआ /मेरी नाको मेँ /
याद आ गया /बचपन अचानक /
इस भीड़ भरी चौराहे पर /
कहाँ था वो आदिवासी बहुल इलाका /
अब तो वह वहाँ भी नहीं होगा वैसा /
शायद कट गए हो महुआ के पेड़ /
कोई नहीं अलापता हो अब /देर तक रोज /
वहाँ कोई राग /
इसी धरती का एक वह कोना /
जाने कहाँ छूट गया मुझसे /
मेरी उदास नजरों ने खिली हुई रजनी गंधा देखा /
मुस्कुराने लगी थी वो /
भूल जा उन गुजरे पल को /लो भर लो अब अपने मस्तिष्क मे /
हमारी खुशबू /
बाकी रा ह तो खुशनुमा बन जाएगा ।
॥ कामिनी कामायनी ॥
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मई दिवस है आया
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-- डॉ बच्चन पाठक 'सलिल'
कण कण में उत्साह भरा, उल्लास आज है छाया
श्रमिकों का यह महापर्व फिर मई दिवस है आया
श्रमिक नहीं निर्जीव यंत्र है उसको भी अधिकार चाहिए
नियमित रहें काम के घंटे रोगों में उपचार चाहिए
श्रमिकों को भी स्वाभिमान से जीने का अधिकार है
श्रम भी पूंजी से हीन नहीं होता किसी प्रकार है
पूरब पश्चिम से क्या होता सभी श्रमिक गण एक है
मिल जुलकर जब साथ रहे कहता यही विवेक है
मई दिवस तुम धन्य तुम्ही ने था अधिकार दिलाया
श्रमिकों का यह महापर्व फिर मई दिवस है आया
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पता -- बाबा आश्रम, आदित्यपुर २
जमशेदपुर १३
झारखण्ड
फोन- 0657/2370892
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राजीव आनंद
हाइकु
प्राचीन सूर्य
देती नित्य प्रकाश
ताजगी भरी
मलाला बनी
है रानी लक्ष्मी बाई
पाकिस्तान की
बेमतलब
सब खुद में डूबे
जिंदगी हुई
मुक्तक
पैसे की अक्सर ही
खूशी से अदावत होती है
पैसे से जब जेब भर जाती है
दिल से खूशी नदारत होती है
क्यों भले आदमी को
ईश्वर इतना कष्ट देता है ?
ईमानदारी से जीने का
क्या यही सिला मिलता है ?
कविताएं
मेरा ईश्वर से एक प्रश्न है
मनुष्य के अलावे
आपको पूछता कौन है ?
ईश्वर ने शायद सूना पर मौन है !
बच्चे पढ़े, शादी किए, चल दिए
हम परिंदों का जीवन जीते रहे
अकेला हॅूं आस्था नहीं रही
जीवन ही नहीं मृत्यु भी जीते रहे
बेटे ने पैसे दिए साथ नहीं दिया
इस दौर का जीवन अभिशप्त जीते रहे
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राजीव आनंद
मो. 9471765417
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उमेश मौर्य
धारा
धारा-धारा कितनी धारा, किसकी धारा, कैसी धारा
पूरब से पश्चिम तक धारा, उत्तर से दक्षिण तक धारा,
भारत में है कितनी धारा, घर की धारा, गली की धारा,
सड़क और चौकी की धारा, खून की धारा, कत्ल की धारा,
गाली और गलौज की धारा, जमीं की धारा खेत की धारा,
झील और तालाब की धारा, पशु-पक्षी कीटों की धारा,
चोरी और मार की धारा, लूटपाट, चाकू की धारा,
गोली और बम की धारा, आतंकी कैदी की धारा,
जेल और जेलर की धारा, शादी और दहेज की धारा,
बंधन या तलाक की धारा, धरम और अधर्म की धारा,
हाथ पैर टूटने की धारा, कहीं लाज लुटने की धारा,
जनम, मरन, चलने की धारा, हवा में रूख करने की धारा,
बिजली के प्रवाह की धारा, घी में धारा, तेल में धारा,
देशी की विदेश की धारा, नंगे और सभ्य की धारा,
रोने चिल्लाने की धारा, नाचने और गानें की धारा,
अर्पित और समर्पित धारा, लूटने और खानें की धारा,
गंदी पावन गंगा धारा, धारा की धारा में धारा,
अंकों की गिनती में धारा, भारत की माटी में धारा,
नेताओं की जेब में धारा, कोट में धारा, पैंट में धारा,
मुंह में धारा, बात में धारा, शब्दों में, अर्थों में धारा,
प्राण में धारा, स्वॉस में धारा, जीवन में मृत में है धारा,
भीड़ की धारा, एकल धारा, घनी और संकुल में धारा,
फूलों में उपवन में धारा, चेहरे में दर्पण में धारा,
गुम्टी की दुकान में धारा, झोपड़ के मकान की धारा,
भवनों के निर्माण की धारा, छत की और दीवार की धारा,
माटी के कण कण की धारा, दिन के हर क्षण क्षण की धारा,
गंध की धारा, सुगन्ध की धारा, अंत और अनन्त की धारा,
गैस की धारा, तेल की धारा, बस की और रेल की धारा,
बालक के शिक्षा की धारा, पढ़े लिखे अनपढ़ की धारा,
धुआं की प्रदूषण की धारा, घोटाले की कितनी धारा,
मंहगाई की बढ़ती धारा, डूब रही कुर्सी की धारा,
झूठ को सच करने की धारा, जीते जी मरने की धारा,
धारा कितनी गहरी धारा, तीव्र प्रवाह उफनती धारा,
पूरा देश मिटा जाता है, उल्टी सीधी तिरछी धारा,
संविधान का क्या विधान है, जिधर भी देखो दिखती धारा,
लुटती धारा, मरती धारा, रोती और सिसकती धारा,
झूठी धारा, राजतंत्र की, राजनीति की भटकी धारा,
तिनकों जैसी जन की धारा, बहा ले गई धन की धारा,
बदल गई क्यों मन की धारा, सरल सुखद, जीवन की धारा,
धाराओं के भवॅरजाल में, डूब न जाये भारत सारा।
संपर्क - ukumarindia@gmail.com
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मुरसलीन साकी
हमने तो हसरतों से चरागाँ किये मगर।
वो आये भी तो साथ में तूफाँ लिये हुये॥
शराफत कहें इसे या कहें बेरूखी तेरी।
मिलने वो मुझसे आये हैं परदा किये हुये॥
अब भी तेरा वजूद मेरे आस पस है।
गो तुझ को हो गया है जमाना गये हुये॥
इक बार तो आ जाओ तसव्वुर में ही सही।
सदियां गुजर गयीं है ये एहसाँ किये हुये॥
वो हाथ मेरा थाम कर बैठे थे कुछ घड़ी।
इक उमर हो गयी है वो लम्हा जिये हुये॥
मुरसलीन साकी
लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)
पिन-262701
मो0-9044663196
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ग़ज़ल
मनोज 'आजिज़'
रातों की नींद कोई उड़ाता गया
सितारों से बात मेरी कराता गया
खुद को आईने के पास खड़ा किया
दरिया-ए-दिल फिर बहता गया
आँखें तो कई दफ़ा पिघलीं मगर
हर बार खुद ही सम्हलता गया
सफ़र-ए-हयात में आए कई नदीम
कोई भाया कोई जी चुराता गया
आग अपने दिए ग़ैरों ने हवा
चराग़े जश्न जलता-बुझता गया
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इच्छापुर . ग्वालापारा
पोस्ट- आर आई टी
जमशेदपुर- १४
झारखण्ड
09973680146
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मोतीलाल
आना ही है तुझे
तो सीधे आ जाते
फिर यह लुका-छिपी क्यों
क्यों यह बेकार की दौड़-धूप
और लाभ-हानि का गुणा-भाग ।
क्रोध का आना
बड़ा जरुरी है
क्रोध की तरह आना
इसे पी लेने से
बिगाड़ देगी सारी मानसिकता
फिर टापते रह जाएगें
पूरे उलटबांसी के जड़ में ।
हँसी खेल नहीं है यह
स्वाभिमान की टूटती डोर
पूरी तरह टूट जाएगी
इस तरह मिमियाने से ।
इसलिए नहीं छुप तु
स्वार्थ के पीछे
या किसी ख्वाब के सामने ।
आना ही है तुझे
तो ठीक वक्त पर आ
ताकि यह दुनिया
और मेरे स्वाभिमान की घंटी
ठीक ऐन वक्त पर ही बजे ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
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विनय कुमार
खयाल़
तुझे क़रीब से देखने को जी चाहता है
तेरी ज़ुबां से निकले अल्फ़ाज़ों को गुनगुनाने को जी चाहता है
तेरे सांसों का गर्माहट में पिघल जाने को जी चाहता है
तेरी बंद पलकों में ख़्वाब बनकर बस जाने को जी चाहता है
ख़ुद को तुझमें और तुझको मुझमें मिलाने को जी चाहता है
तेरी राहों में फूल बिछा देने को जी चाहता है
कितना है मेरे दम में दम
एक बार ख़ुद को आज़माने को जी चाहता है
ख़्वाबों को हक़ीकत बनाने को जी चाहता है
तू है कहाँ तुझे पाने को जी चाहता है
हूं अकेला इस जहाँ में तुझे अपना बनाने को जी चाहता है
इस ग़ुमनाम सफ़र को यहीं छोड़ जाने को जी चाहता है
एक वक्त गुज़र गया तुझे दूर से ताकते-ताकते
अब क़रीब से देखने को जी चाहता है।
विनय कुमार सिंह
ग्राम- कबिलास पुर
प्रोस्ट - कबिलास पुर
जिला - कैमूर भभुआ
बिहार -821105
मोबाइल- 08899344441
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नितेश जैन
मेरी रब से ये शिकायत अकसर रहती है
जब वो मेरी तकदीर में ही नहीं
फिर क्यों मेरे इतने करीब वो रहती है
इस सवाल का जवाब पाने में
मेरा हर लम्हा गुज़र जाता है
कभी कभी उसके साथ बीता हुआ कल याद आता है
तो कभी आने वाला हर पल उसे पाना चाहता है
शायद किसी दिन इस सवाल का जवाब मिले
मेरे बेचैन से दिल को थोड़ी तो राहत मिले
मेरे दिल की नस-नस ये कहती है
जब वो मेरे हाथों की इन लकीरों में नहीं
फिर क्यों मेरे इतने करीब वो रहती है
जब कभी मैं आंखे बंद करता हूँ
वो मेरे सामने आ जाती है
उसे महसूस कर मेरी सांसे थम जाती है
वो मेरी जिन्दगी में क्यों नहीं
यह सोच मेरी आंख नम हो जाती हैं
मेरी मोहब्बत उसे मेरी नज़दीक ले आती है
लेकिन फिर भी उसे पाने को ये बाहें तरस जाती है
वो कहती है वो मेरे काबिल नहीं
फिर क्यों मेरे इतने करीब वो रहती है
कभी-कभी तो मुझे लगता यह सपना है
लेकिन ये सपना नहीं हकीकत है
वो मेरी आदत नहीं मेरी जरूरत है
उससे मिलकर मेरी जिन्दगी तो संवर गई
लेकिन उसे पाने की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई
जब-जब वो मुझसे बातें करती है
ये दुनिया मुझे जन्नत से बढ़कर लगती है
वो कहती है वो मुझ जैसी नहीं
फिर क्यों मेरे इतने करीब वो रहती है
जब कभी मैं अकेला अपनी तनहाईयों के साथ होता हूँ
अपनों को भूल सिर्फ उसी के बारे में सोचता हूँ
ये सोच हमारे एक ना होने का एहसास दिलाती हैं
चेहरे पे नमी और दिल में जख्म कर जाती है
लेकिन खुदा से अब मुझे कोई शिकायत नहीं
क्यों के वो खुदा नहीं तो खुदा से कम भी नहीं
एक परी है वो लेकिन खुद को आम इन्सान बताती है
अपनी खुशी को मेरा और मेरे गम को अपना वो बताती है
शायद इसलिए मेरे इतने करीब वो रहती है
--
नितेश जैन
आगरा, उ.प्र.
9536087834
कविताओं की सुन्दर धारा ,
जवाब देंहटाएंरचनाकार की धरा धारा |
कवि उमेश की धारा-धारा-
यह प्यारे भारत की धारा ||
श्याम गुप्त , कामिनी जी, सलिल जी , साक़ी जी , उमेश भाई, मनोज भाई , विनय भाई , नीतेश भाई , मोती लाल जी , आप सब की रचनाये बहुत सुन्दर हैं ! बधाई !!
जवाब देंहटाएंdhanyavaad Giri ji
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'
dhanyawad giri ji...
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