ब्रह्मपुत्र को देखा है दिनकर कुमार अग्रज कवि लीलाधर मंडलोई के लिए ब्रह्मपुत्र तब नदी का भी हृदय लहूलुहान हो जाता है जब मांझ...
ब्रह्मपुत्र को देखा है
दिनकर कुमार
अग्रज कवि लीलाधर मंडलोई
के लिए
ब्रह्मपुत्र
तब नदी का भी हृदय लहूलुहान हो जाता है
जब मांझी कोई शोकगीत गाता है
मैं कई बार बना हूं मांझी
गाया है शोकगीत
जब शाम उतरने लगती है
और सूरज पश्चिम की पहाड़ियों के पीछे
धंसने लगता है
तब मैंने जल को लहू बनते देखा है
रेत पर लिखे गए सारे अक्षर
उसी तरह उजड़ते हैं जैसे उजड़ती है सभ्यताएं
आहोम राजाओं को मैंने देखा है
अंजुली में जल भरकर पिंडदान करते हुए
मैंने कामरूप को देखा है
चीन का यायावर ह्वेनसांग उमानंद पर्वत पर
मिला था
उसकी आंखें भीगी हुई थी
हाथों में ढेर सारे फूल और जेब में
पुरानी पांडुलिपियां
ह्वेनसांग रास्ता भूल गया था
किस तरह एक दरिद्र किसान मनौती मानता है
प्रार्थना करता है- महाबाहु ब्रह्मपुत्र-
अगर क्रुद्ध हो गए तो किसान के सपने बह जाते हैं
ढोर और झोपड़ी- नवजात शिशु और
बांसुरी बजाने वाला चरवाहा लड़का
ले लेते हैं जल समाधि
जलधारा जब बातें करती है तब
प्रकृति का पुराना संदूक खुल जाता है
और मनुष्य के किस्से एक-एक कर बाहर आते हैं
कितना पुराना संघर्ष है मनुष्य और प्रकृति का
मैं गुफावासी आदिमानव से मिलता हूं
जो फुरसत में दीवारों पर शिकार के चित्र
उकेरता है
मैं उसकी जिजीविषा उससे उधार मांगता हूं
जब मांझी कोई शोकगीत गाता है
तब नदी का भी हृदय लहूलुहान हो जाता है
ब्रह्मपुत्र में स्नान करती हैं गणिकाएं
मुंह अंधेरे ही फांसी बाजार के घाट पर
जहाज के मलबे के पास
सामूहिक रूप से ब्रह्मपुत्र में स्नान करती हैं गणिकाएं
सूरज के आने से पहले
वे धो लेना चाहती हैं रात भर की कालिख
इससे पहले कि उत्तर गुवाहाटी की तरफ से
आ जाए कोई जहाज यात्रियों को लादकर
इससे पहले कि किनारे पर जुट जाएं भिखारी रेहड़ीवाले
भविष्य बताने वाले मूढ़े पर ग्राहकों को बिठाकर
बाल काटने वाले हज्जाम और नींद से जाग जाएं
सुख से अघाए हुए लोग उठकर सुबह की सैर पर निकल पड़ें
ब्रह्मपुत्र का जल एक दूसरे पर उछालती हुई गणिकाएं
धोने की कोशिश करती हैं विवशता को
थकान को अनिद्रा को कलेजे की पीड़ा को
भूलने की कोशिश करती हैं रात भर की यंत्रणा को
नारी बनकर पैदा होने के अभिशाप को
मुंह अंधेरे ही फांसी बाजार के घाट पर
जहाज के मलबे के पास
सामूहिक रूप से ब्रह्मपुत्र में स्नान करती हैं गणिकाएं
बाबा ब्रह्मपुत्र
बाबा ब्रह्मपुत्र!
मैं अपनी सारी परेशानियां तुम्हें अर्पित कर देना चाहता हूं
अभाव के दंश को दैनंदिन जीवन के संघर्ष की थकान को
तुम्हारी जलधारा में बहा देना चाहता हूं
मैं चाहता हूं कि जब मैं रोऊं तो
तुम भी मेरे संग जोर-जोर से रोओ
मैं चाहता हूं कि जब विषाद की स्याही मुझे ढक ले
तुम भी मेरे संग विषाद में डूब जाओ
तुम्हारे जल का रंग मटमैला हो जाए
नीले पहाड़ों की रंगत भी धुंधली हो जाए
बाबा ब्रह्मपुत्र!
मैं चाहता हूं कि जब मैं गाऊं तो
तुम भी मेरे संग मग्न होकर गाओ
मेरे सीने में लहराता हुआ वैशाख
तुम्हारे चेहरे पर भी गुलाल बनकर बिखर जाए
अमलतास की लाल लपटों से खुशी के अक्षर
आसमान पर उभर आएं
ब्रह्मपुत्र किनारे छठ पूजा
प्रवासी बिहारियों के लिए ब्रह्मपुत्र ही है गंगा
जन्मभूमि से पलायन कर
विस्थापन की पीड़ा झेलते हुए
पूरब की दिशा में आने वाले लोग
ब्रह्मपुत्र किनारे जल में खड़े होकर
अस्ताचलगामी सूरज को दे रहे हैं अर्घ्य
एक दिन के लिए ही सही
घाट के माहौल में वे महसूस करते हैं
अपने पीछे छूटे हुए गांव-देहात को
शारदा सिन्हा का कैसेट बजाते हुए
किस कदर जजबाती हो जाते हैं प्रवासी बिहारी
भले ही नदी का नाम बदल गया हो
सूरज तो एक ही है
जो जन्म से साथ-साथ चलता रहा है।
ब्रह्मपुत्र किनारे कांसवन में
ब्रह्मपुत्र किनारे कांसवन में
मोतियों की बारिश हो रही है
शरत ने अपने मुखड़े को धोया है
और धुंध की पोशाक पहनकर
आबादी की तरफ चला गया है
ब्रह्मपुत्र किनारे जो कांसवन है
मेरे भीतर कोमल अनुभूतियों को जगाता है
कांसवन में जब लहर उठती है
थरथराती हुई कोई कविता
कांपता हुआ कोई राग
फैलता हुआ कोई जलचित्र
कलेजे में मीठी टीस की अनुभूति होती है
ब्रह्मपुत्र किनारे कांसवन में
शैशव और यौवन के पदचिह्न
ढूंढ़ने की इच्छा होती है
मोतियों की बारिश में
भीगने की इच्छा होती है
ब्रह्मपुत्र की भू-दृश्यावली
ब्रह्मपुत्र किनारे भूदृश्यावली चित्रित कर रहे संन्यासी ने कहा-
इस उपत्यका में एक-एक कोस के अंतराल पर
सौ-सौ भू-दृश्यावली चित्रित की जा सकती है
समतल में बहने वाली जलधाराएं विविधत नहीं रचतीं
इसी तरह पतली पहाड़ी नदियां इतनी तंग होती हैं
कि पर्वत-कंदर ही बन जाते हैं उनके मुख्य चरित्र
मगर अपवाद है ब्रह्मपुत्र की जलधारा जो
विराट आकार ग्रहण कर पहाड़-पर्वत को तोड़ती हुई आगे बढ़ती है
इस संघर्ष में जंगल-पहाड़ होते हैं पद दलित
मगर कभी-कभी ब्रह्मपुत्र की जलधारा भी मोड़ लेती है अपनी दिशा
जिस तरह गुवाहाटी में नीलाचल पहाड़ी को सामने पाकर
बहने लगती है समकोणीय जलधारा
पहाड़ों को तोड़कर बहते-बहते ब्रह्मपुत्र का सीना भी
है असमतल पानी के नीचे बहते हैं कई प्रपात
ऊपर से देखकर जिनके बारे में अंदाजा नहीं लगाया जा सकता
वैसे स्थान से नाव या जहाज का गुजरना आसान नहीं होता
ब्रह्मपुत्र किनारे भू-दृश्यावली चित्रित कर रहे संन्यासी ने कहा-
पहाड़ी भूभाग से प्रवाहित ब्रह्मपुत्र के किनारे खड़े होती ही
निगाहें टिक जाती हैं नीलाभ पर्वतमाला पर
अनगिनत पहाड़ियों के बीच रूप वर्ण की छटा बिखरी नजर आती है
इस रूप वर्ण की विचित्रता से जुड़ जाते हैं रंगीन बादल
नीले आकाश में बादल की आंख मिचौली के बीच
रंग-बिरंगे पहाड़ी परिवेश से प्रवाहित विशाल जलधारा का
नयनाभिराम दृश्य सम्मोहित करता है
विसर्जन का दृश्य
फांसी बाजार के कासोमारी घाट पर
देख रहा हूं विसर्जन का दृश्य
एक-एक कर तीन सौ से अधिक देवी दुर्गा की प्रतिमाएं
ब्रह्मपुत्र में ले रही हैं जल समाधि
शाम किस कदर बोझिल हो गई है
किनारे खड़ी स्त्रियां विलाप कर रही हैं
थोड़ी देर पहले जिन स्त्रियों ने एक दूसरे के चेहरे पर
सिंदूर मलकर विजया का पर्व मनाया था
ऐसा लगता है मानो बेटी विदा होकर
बाबुल के घर से ससुराल जा रही है
फांसी बाजार के कासोमारी घाट पर
देख रहा हूं विसर्जन का दृश्य
शरत की रहस्यमयी शाम ने जलधारा की रंगत को
स्याह बना डाला है
उस पार धुंधली हो गई है पहाड़ियों की आकृति
आबादी का उत्सव अचानक शांत हो गया है
सूनापन इस कदर बढ़ गया है
उदासी गा रही है विदाई का गीत
ब्रह्मपुत्र में सूर्यास्त
शुक्लेश्वर मंदिर के बगल में
नार्थ ब्रुक गेट के सामने खड़ा होकर
देख रहा हूं ब्रह्मपुत्र में सूर्यास्त
नीलाचल पहाड़ी के पीछे धीरे-धीरे
ओझल हो रहे सूरज को
आसमान पर बिखरे हुए गुलाल को
लाल जलधारा को शराईघाट पुल के पास
मुड़ते हुए देख रहा हूं
रंगों का गुलाल
मेरे वजूद पर भी बिखर गया है
नारी की आकृति वाली पहाली के नीले रंग के साथ
लाल रंग घुल गया है
दूर बढ़ती हुई नाव सुनहली बन गई है
इस अलौकिक पल की कैद से
मैं मुक्त होना नहीं चाहता
इन रहस्यमयी दृश्यावली से दूर
होकर मैं कहीं नहीं रह सकता
एक प्राचीन नदी
एक प्राचीन नदी इस कदर तटस्थ कैसे हो सकती है
कुछ बोले बगैर विरोध जतलाए बगैर
चुपचाप कैसे बहती रह सकती है
कैसे सुन सकती है किनारे के लोगों का हाहाकार
जबकि लोग दुःख से कातर होकर उसी को पुकारते हैं
उसी से बांटना चाहते हैं उदासी
अभाव की पीड़ा अन्याय का दंश
नींद के बगैर काटी गई रातों का अंधेरा
जबकि लोग चाहते हैं थोड़ी-सी तसल्ली
थोड़ा-सा अपनापन यातनाओं से मुक्ति
भूख और प्यास का समाधान जीवन का गान
सुरक्षा का वायता मर्यादा का जीवन
जबकि लोग प्राचीन नदी को पूर्वज की तरह
अपना मानते हैं देवता की तरह पवित्र मानते हैं
अपने स्वप्नों और आकांक्षाओं का सहचर मानते हैं
अपने दिन और रात धरती और सूरज की तरह शाश्वत मानते हैं
एक प्राचीन नदी इस कदर तटस्थ कैसे हो सकती है
ब्रह्मपुत्र किनारे बालूचर में
ब्रह्मपुत्र किनारे बालूचर में नृत्य कर रही है
बिहू नर्तकी
प्यारा वैशाख आ गया है
खिल उठे हैं अमलतास
प्रियतम पहाड़ चढ़कर ढूंढ़ लाया है कपौ फूल
कपौ फूल को प्रेयसी के जूड़े में खोंस दिया है
प्रियतम ढोल बजाकर गा रहा है
मौसम का गीत
कर रहा है प्रणय निवेदन
बिहू नर्तकी इतरा रही है शरमा रही है
प्रेम की शर्तें रख रही है
ब्रह्मपुत्र किनारे बालूचर में नृत्य कर रही है
बिहू नर्तकी
प्रियतम भैंसे के सींग से बनाया गया
वाद्य यंत्र ‘पेंपा’ बजा रहा है
अपने विरह का विवरण प्रस्तुत कर रहा है
मोहक हो उठी है बिहू नर्तकी
मोहक हो उठी है जलधारा
मोहक हो उठी हैं पहाड़ियां
नदी किनारे की झोपड़ियों की याद में
पंख फड़फड़ाकर उड़ गए हैं पंछी
नदी में तैर रहा है उजड़ा हुआ घोंसला
अभी ठीक से सुलग नहीं पाया था चूल्हा
नालियों से बटोरे गए अन्न के दाने
धूप में फैलाए गए थे
सड़े हुए आलू को छील भी नहीं पाई थी राधा
अपनी कटोरी के सारे सिक्कों को ढेर बनाकर
भिखारियों ने दिन की कमाई का हिसाब नहीं किया था
घास-फूस की छत थी जो धरती और आकाश के बीच
एकमात्र आवरण जैसी थी जैसे सीता के तन पर थी
एक सूती साड़ी जिसमें सौ पैबंद लगे हुए थे
सावित्री झेल रही थी प्रसव पीड़ा और
एक प्याली दूध की तलाश में निकला था सत्यवान
(ह्वेनसांग सिसक उठा है
उमानंद टापू लिपटा हुआ है विषाद की धुंध में
भुवनेश्वरी शिखर के माथे पर
अपना पौरुष खोकर
कुपोषण का शिकार नजर आ रहा है सूरज)
अब शुरू होता है शिकार का दृश्य
नहीं तूफान में नहीं उजड़ा घोंसला
पहले एक दस्तावेज पर दस्तखत किया गया
फिर शुरू हुआ सब कुछ
सबने देखा सावित्री को शिशु को जन्म देते हुए
वृक्षों ने देखा सूनी नाव ने देखा
आकाश के सितारों और चांद ने
चिड़ियों के झुंड ने देखा
बिखरे हुए चूल्हे और अनाज
और आलू
और एक निर्लज्ज नदी।
मांझी का एकालाप
मैं लौटना चाहता हूं अपनी नाव में
मुझे यकीन है वहीं पहुंचकर भूल सकता हूं
दुनियादारी की खरोचें अन्याय के आघात
संवेदनहीन भीड़ की हिंसक निगाहें
वहीं पहुंचकर मिल सकती है मुझे तसल्ली
वहीं पहुंचकर रुक सकती है मेरी रूलाई
मैं लौटना चाहता हूं अपनी नाव में
जलधारा धो डालेगी मेरे विषाद को
मेरी तनी हुई नसें ढीली हो जाएंगी
जब मैं निहारूंगा जानी-पहचानी नदी को
जब जलधारा में आगे बढ़ती जाएगी मेरी नाव
जब मैं जल का स्पर्श करूंगा
एक अलग ही दुनिया में खुद को पाऊंगा
कोई बनावट नहीं है नदी के प्यार में
नदी मेरे जीवन का स्पर्श करती है
जिस तरह रेत का स्पर्श करती है लहरें
नदी मुझे देती है अपनी बांहों का सहारा
फिर बची नहीं रह जाती दुःख की अनुभूति
मैं लौटना चाहता हूं अपनी नाव में।
वह चला गया अपनी नाव में
वह चला गया अपनी नाव में
अपने सपने का पीछा करते-करते
ऐसे आदमी को कैसे रोका जा सकता है
जो किसी सपने का पीछा करना चाहता है
वह अपनी ही धुन में था
जलधारा की तरह ही बेचैन
नदी की तरह ही गंभीर
किनारे से लोगों ने देखा
नाव को बढ़ते हुए अनजान इलाके की तरफ
जैसे नदी बढ़ती है सागर की तरफ
जहां नदी मुड़ती थी वहीं लोगों ने
उसे मुड़ते हुए देखा
खिलौने की तरह नजर आ रही थी नाव
एक पुतले की तरह नजर आ रहा था वह
फिर वह दर्शकों की नजरों से ओझल हो गया
किनारे पर लोगों ने कहा उसे इस तरह
नहीं जाना चाहिए था और इस तरह जाने पर
वह कभी लौटकर नहीं भी आ सकता है
क्या कभी सागर में समाने के बाद
नदी लौटकर आती है
लोगों ने कहा उसे अनिद्रा की बीमारी थी
उसे भीड़ से डर लगता था
उसे अवसाद ने ग्रस्त कर लिया था
वह चला गया अपनी नाव में
अपने सपने का पीछा करते-करते।
नदी ही है मांझी की दुनिया
नदी ही है मांझी की दुनिया
धारा के साथ बढ़ती जाती है जिंदगी
जजबातों की तरह बदलते जाते हैं किनारे के मंजर
नदी पूछती है सवाल
नदी ही देती है सारे जवाब
नाव ही है बिस्तर
नाव पर ही सुलगता है चूल्हा
नाव पर ही शुरू होता है अन्न का उत्सव
नाव पर ही देखे जाते हैं सपने
नाव से ही किनारे की दुनिया अस्थिर नजर आती है
नदी समझती है मांझी की अनुभूतियों को
मौन में घुली हुई शिकायतों को
सीने में पलते हुए प्रेम को विद्रोह को
नदी समझती है सब कुछ
नदी ही है मांझी की दुनिया।
मेरे लिए जानी-पहचानी है यह नदी
मेरे लिए जानी-पहचानी है यह नदी
धरती से भी अधिक प्राचीन
मानव धमनियों में रक्त की उपस्थिति से भी
अधिक पुरानी है जिसकी उपस्थिति
नदी मेरे कलेजे को तृप्त बनाती है
मैं नदी किनारे बनाता हूं अपनी झोपड़ी
और नदी मुझे मीठी लोरियां सुनाती है
मैं नदी किनारे बसाता हूं आबादी को
नदी सबके लिए जीने का सहारा बनती है
नदी जो मेरे लिए हैं प्राचीन और रहस्यमयी
मैं नदी को गाते हुए सुनाता हूं
कभी-कभी उदासी के गीत तो कभी-कभी
सागर से मिलने का गीत कभी
मछुआरों के प्रेम की कहानी कभी
किसानों के पसीने की गाथा
नदी मेरे कलेजे को तृप्त बनाती है।
नदी की जीवन कथा
नदी की जीवन कथा असल में हमारी जीवन कथा होती है
मनुष्य का प्रतिरूप होती है नदी
नदी का प्रतिरूप होता है मनुष्य
इसीलिए हम नदी को केवल जलराशि नहीं मानते
हमारे लिए नदी का होता है जीवंत अस्तित्व
हम महसूस करते हैं नदी के विषाद को
नदी के क्रोध को नदी के प्रेम को
नदी का रुठना बच्चों के रुठने की तरह लगता है
नदी की प्रसन्नता
समूची उपत्यका को उर्वर बना देती है
नवजात शिशु की तरह नदी का भी जन्म होता है
नदी भी चेतना के जगत में बनाती है राह
और अंत में समा जाती है अपार सागर में
अनवरत परिवर्तन होता है मनुष्य के जीवन में
उसी तरह अनवरत बदलता है नदी का रूप
नदी में बहने वाला जल कभी भी एक जैसा नहीं होता
नदी की जलधारा में निहित है जीवन की ऊर्जा
कभी यह गुमसुम नजर आती है और कभी आवेग से कांपती हुई
मृत्यु की तरह नदी के सफर का अंत भी
जीवन के आरंभ का संकेत देता है जब सागर का जल
बादल बनकर बरसता है
नदी की जीवन कथा असल में हमारी जीवन कथा होती है।
भावनाएं बहती है नदी की तरह
पलकों को बंद करते ही
नदी की अनुभूति को महसूस किया जा सकता है
जलधारा की आवाज का संगीत
सीने में बजने लगता है
भावनाएं बहती हैं नदी की तरह
पहला कदम उठाने के बाद
उपलब्धि की अनुभूति को महसूस किया जा सकता है
नदी का मुड़ते हुए आगे बढ़ना
कदमों में जोश भर देता है
भावनाएं बहती हैं नदी की तरह
जैसे हम भूल जाते हैं कड़वी स्मृतियों को
और सामने की सुबह को उम्मीदों के साथ देखते हैं
नदी भी भूल जाती है पथरीली तंग राहों को
उसकी नजरों में मचलता रहता है सागर का सपना
भावनाएं बहती हैं नदी की तरह।
ब्रह्मपुत्र और भूपेन हजारिका
भूपेन हजारिका के लिए महाबाहु ब्रह्मपुत्र हैं
महामिलन का तीर्थ
ब्रह्मपुत्र हैं सदियों से समन्वय का प्रतीक
कभी भूपेन हजारिका के लिए वह हैं
बचपन की जलधारा जहां प्रेयसी के साथ
वे तैरते थे कसमें खाते थे
कभी भूपेन हजारिका के लिए वह है
‘बूढ़ा लुइत’ जो हाहाकार को सुनते हुए भी
खामोश रहता है
बेशरमी के साथ बहता रहता है
भूपेन हजारिका के गीतों में स्पंदित है
ब्रह्मपुत्र उसके विविध रंग
उसकी प्रसन्नता उसका शोक उसका क्रोध।
नदी की यात्रा जारी रहती है
जलधारा में परछाइयां हिल रही है
जलधारा जानती है अपनी दिशा
हवा के साथ अपने रिश्ते को समझती है
नदी की यात्रा जारी रहती है
जारी रहता है पंछियों का कलरव
धुंध में बढ़ती जाती है नावें
मांझी की आवाज पहाड़ी से टकराकर
वापस लौट आती है
नदी की यात्रा जारी रहती है
बांसवन में गाते हैं झिंगुर
किनारे में सूनेपन का विलाप
समूह में गूंजती आबादी की प्रार्थना
आवेग का वेग बढ़ता जाता है
नदी की यात्रा जारी रहती है।
नदी के पास जाऊंगा
विषाद को धोने के लिए
नदी के पास जाऊंगा
अपने सीने में भर लूंगा उल्लास
जलधारा की तीव्र ऊर्जा
मुझे बदल देगी
वाष्प की तरह उड़ जाएगा विषाद
दिल की बात कहने के लिए
नदी के पास जाऊंगा
धुंध ओढ़कर सोई हुई पहाड़ी को देखूंगा
कांसवन में बैठकर
सफेद लहरों को रेत के संग
खेलते हुए देखूंगा
प्रेम में डूबने के बाद
नदी के पास जाऊंगा
नदी मुझे बना देगी मोहक
मेरे अंदर की सारी कलुषता को
अपने संग बहाकर ले जाएगी।
शाम और नदी
मंदिर से सुनाई देती है घंटा ध्वनि
सौदागर नदी में खोलता है अपनी नाव
रवाना हो जाता है नए ठिकाने की तरफ
जाल समेटता है मछुआरा
अभाव और पीड़ा की झोपड़ी की तरफ
वापस कदम बढ़ाता है
शाम होते ही इसी तरह धूसर हो जाता है चित्र
बगुलों का झुंड पंख फड़फड़ाता हुआ
इस पार से उस पार तक उड़ता जाता है
जलधारा में हिलते रहते हैं पंखों के प्रतिबिंब
बरगद के नीचे राह देखती रहती है उषा
अनिरुद्ध की नाव अंधेरा होने से पहले ही
घाट तक पहुंच जाएगी शायद
मंदिर से सुनाई देती है घंटा ध्वनि।
नदी के मध्य में बढ़ती जा रही है हमारी नाव
नदी के मध्य में बढ़ती जा रही है हमारी नाव
यहां से नजर आते हैं अस्थिर किनारे
पीछे छूटते हुए गांव-नगर-कस्बे
मंदिर- खेत-खलिहान-पहाड़-झरने-मैदान
जलधारा को देखकर नदी नहीं
सरोवर होने का भ्रम होता है
इस कदर विशाल इस कदर गंभीर
अंतःस्रोता इस जलधारा का विशाल
विभीषिकामय वैविध्यपूर्ण अनन्य सुंदर आकर्षण भी
इसके अंतःप्रवाह के समान ही है
तिब्बत से जन्मी इस नदी का पृष्ठभाग भी
तिब्बती लोगों के मुखड़ों की तरह है भावहीन
बालूचर में फैलाई गई विशाल चादर नजर आती है जलधारा
नदी के मध्य में बढ़ती जा रही है हमारी नाव
यह जलधारा तय करती है एक सौ बीस मील का सफर
अचरज की बात है कि सफर के दौरान
यह नौ हजार फीट नीचे तक उतरती है
पृथ्वी पर यही ऐसी जलधारा है जिसके सीने पर
सागरतल से बारह हजार फीट की ऊंचाई पर भी
नाव चलती है
नदी के मध्य में बढ़ती जा रही है हमारी नाव।
रंग-रूप की लीला भूमि
नीलाचल और अगियाठुरी पहाड़ों के बीच
जहां सिकुड़ गया है ब्रह्मपुत्र का आकार
वहां रोज सूर्यास्त के समय देखता हूं
जलराशि और नीलिमा के सीने में चिंगारियों को बिखरते हुए
चिंगारियां रंग बदल देती है जल का
आसमान का पहाड़ों का पेड़-पौधोें का
इसी स्थान पर निर्मित होती है रंग-रूप की लीला भूमि
पृष्ठभूमि में दो कपाट की तरह नजर आने लगते हैं
नीलाचल और अगियाठुरी पहाड़
वहां तेज सूर्यास्त के समय देखता हूं
आसमान में रोशनी की लकीरों को
कई बार सागर में भी सूर्यास्त देखा है
कई बार कई दूसरी नदियों में भी सूर्यास्त देखा है
मगर जिसने भी शुक्रेश्वर घाट से गुवाहाटी का यह
सूर्यास्त का मंजर देखा है
उसे पहले देखे गए सारे मंजर बच्चों के बनाए चित्र ही लगेंगे।
अवतरण का दृश्य
पेमकोसूंग के पास अवाक होकर देख रहा हूं
ब्रह्मपुत्र के अवतरण के दृश्य को
किस तरह रचते हुए छोटे-छोटे प्रपातों को
सिर्फ पचास मील के क्षेत्र में ही
जलधारा हजारों फीट नीचे उतर आती है
पेमकोसूंग के पास अवाक होकर देख रहा हूं
ब्रह्मपुत्र के अवतरण के दृश्य को
अनगिनत प्रपातों का सौंदर्य है नयनाभिराम
विपुल जलराशि उछल रही है पहाड़ की ऊंचाई से
उन्माद वेग के साथ
नीचे शिला से टकराता हुआ जल छिटककर
रच रहा है कोहरे जैसा आवरण
इसी आवरण के संग आंख मिचौली खेल रही है धूप
यही वजह है
चारों दिशाओें में बिखरते जा रहे हैं
इंद्रधनुष
छोटे-बड़े अनगिनत इंद्रधनुष
इंद्रधनुष की पृष्ठभूमि में गहरे हरे रंग की
पर्वतमाला के बीच उछल रही जलधारा की खूबसूरती के सामने
कल्पना नहीं की जा सकती
किसी और खूबसूरती की।
तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र
तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र
तिब्बत के जिस बर्फ से ढके अंचल में
तुम्हारा जन्म हुआ वहीं से निकली है
शतद्रू और सिंधु की धाराएं
सागर तल से सोलह हजार फीट की ऊंचाई पर
टोकहेन के पास संगम होता है तीनों हिम प्रवाहों का
तिब्बती में कहते हैं-
कूबी सांगपो, सेमून डंगसू और मायून सू
यह संगम कैलाश पर्वत श्रेणी के दक्षिण में होता है
यहां तुम्हारा नाम रखा जाता है ‘सांगपो’
सांगपो का अर्थ है शुद्ध करने वाला
संसार की समस्त नदियों का काम ही है शुद्ध करना
तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र
असम में प्रवेश करते समय तुम्हारा नाम है दिहांग
रंगदैघाट पर लुइत और दिवंग के साथ
मिलन होते ही तुम कहलाते हो ब्रह्मपुत्र
बंग्लादेश में प्रवेश करते ही नाम बदलकर
हो जाता है जमुना
गंगा के साथ मिलन होने के बाद पद्मा
और मेघना के साथ मिलन होने के बाद मेघना
तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र
संस्कृत साहित्य ने तुम्हें पुकारा लौहित्य कहकर
तुम्हारी ही महिमा के कारण महाभारत में
बंगाल की खाड़ी को पुकारा गया लौहित्य सागर के नाम से
आहोम राजाओं ने तुम्हारा नाम रखा ‘नाम दाउ की’
टाई भाषा में तुम कहलाए ‘नक्षत्र देवता की नदी’
ग्रीक विद्वानों ने तुम्हारा नाम रखा ‘डायराडानेस’
तुम्हारे कितने नाम हैं ब्रह्मपुत्र।
माजुली में प्रार्थना
नदी द्वीप माजुली के पचास गांवों के
दो लाख नागरिकों को अब केवल रह गया है
ब्रह्मपुत्र पर ही भरोसा
चूंकि ब्रह्मपुत्र की कृपा से बचा रह सकता है नदी द्वीप
विस्थापित और बेघर होने से बचे रह सकते हैं
दो लाख लोग
नहीं तो सरकारी योजनाओं के शवों को
वे देख चुके हैं
बांध निर्माण के नाम पर अरबों रुपए की बंदरबांट ने
उनके भीतर गुस्से को ठोस रूप प्रदान कर दिया है
वे अच्छी तरह समझ चुके हैं
कि किस तरह शासन की लगाम हाथों में रखने वाले
ठंडे दिमाग से हत्या करना चाहते हैं माजुली की
इसीलिए उन्होंने बाबा ब्रह्मपुत्र को चढ़ाया है नैवेद्य
महिलाओं ने मंगलध्वनि के साथ की है प्रार्थना
ढोल-मंजीरे बजाकर भागवत पाठ कर
वेद वाक्य मंत्रोच्चारण होम-यज्ञ नाम-कीर्तन के साथ
दो लाख लोगों ने ब्रह्मपुत्र से विनती की है
क्योंकि अब उन्हें रह गया है केवल
ब्रह्मपुत्र पर ही भरोसा।
प्रकृति और ब्रह्मपुत्र
वर्ष में एक दिन आता है अशोकाष्टमी का दिन
जिस दिन ब्रह्मपुत्र में स्नान करने से
भक्तों के सारे पाप धुल जाते हैं
जबकि जीवन भर ब्रह्मपुत्र की जलधारा
धोती रही है आबादी के पापों को
प्रकृति और ब्रह्मपुत्र के बीच है दैवीय संबंध
हरियाली के दृश्यों में उजागर होता है यह संबंध
जहां प्रकृति रचती है नयनाभिराम चित्रों को
यह ऐसी विनीत जलधारा नहीं है
जिस पर काबू पा ले मनुष्य
इस जलधारा को माना जा सकता है प्रबलता का प्रतीक
यह जलधारा चाहती है
मनुष्यों का सम्मान और समर्पण
यह जलधारा समय के प्रवाह के विपरीत
आगे बढ़ रहे मानव जीवन की तरह
संतुलन को संयम को दर्शाती है
पर कभी अभिशाप बनती है
तो कभी वरदान बन जाती है
हर साल सैकड़ों लोग ले लेते हैं जलसमाधि
जब बाढ़ से बढ़ जाता है जलधारा का आकार
बाढ़ खत्म होने पर जलधारा अपनी उपत्यका में
उर्वरता का वरदान छोड़ जाती है।
मिथक प्रचलित है
मिथक प्रचलित है कि अगर एक बार
आप ब्रह्मपुत्र को पार कर लेते हैं तो
आपको इसे पार करने के लिए बार-बार आना पड़ता है
तिब्बत, अरुणाचल प्रदेश, असम से होकर
बंगलादेश से गुजरते हुए ब्रह्मपुत्र की जलधारा
अपने संग न जाने कितनी किंवदंतियां
न जाने कितनी सारी भविष्यवाणियां लेकर बहती है
पहाड़ियों के बीच गरजती हुई जलधारा
सागर से मिलने के लिए किस कदर
व्याकुल नजर आती है
सागर की तरह विस्तृत जलधारा
बलिदान और संघर्ष की कथाओं से लाल नजर आने वाली
जलधारा
जिसे किनारे की प्रजा पुकारती है
बूढ़ा लोहित
बाबा ब्रह्मपुत्र के संबोधन से।
ब्रह्मपुत्र किनारे धूप का एक टुकड़ा
टेम्स के किनारे से आई टेम्स ज्वाइस और
सम्मोहित रह गई ब्रह्मपुत्र का रूप निहारकर
ऐसा सम्मोहन तो टेम्स में भी नहीं
ऐसी तेजस्विता तो संसार में कहीं भी नहीं
आइरिश उपन्यासकार जेम्स ज्वाइस की वंशज
टेस ज्वाइस ब्रह्मपुत्र की रचनात्मक ऊर्जा से
सराबोर हो गई
ऐसी ऊर्जा कभी नहीं महसूस हुई थी
न किसी नदी के किनारे
न किसी सागर के किनारे
वह कहती है-
ब्रह्मपुत्र की जलधारा तरल सोने की तरह है
मैं इस जलधारा की तुलना
सिर्फ सागर के विराट स्वरूप से कर सकती हूं
मुझे इसकी शक्ति, ऊर्जा और इसका विकराल स्वरूप
आकर्षित करता है
जलधारा को निहारते हुए मुझे महसूस होता है
कि मनुष्य का इसका दुरूपयोग
अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए नहीं करना चाहिए
हम मनुष्यों को केवल
इस जलधारा की देखभाल करनी चाहिए
टेम्स ज्वाइस अपनी अनुभूतियों को लिखती है-
‘ब्रह्मपुत्र किनारे धूप का एक टुकड़ा’।
कालिकापुराण की रोशनी में ब्रह्मपुत्र
प्राचीन काल के सम्राट सागर ने जब देखा
ब्रह्मपुत्र का विराट स्वरूप तो
सम्मोहित हो गया वह
जानना चाहता था उत्स की कथा
उसने ऋषि औबाध्य को बुलाया
और ब्रह्मपुत्र का उत्स बताने के लिए कहा
ऋषि औबाध्य ने कहा-
हरि वर्ष में एक भाग्यशाली, ज्ञानी एवं तेजस्वी ऋषि
शांतनु रहते थे
उनकी पत्नी अमोघा अत्यंत रूपवती थी
जो हिरण्य गर्भ की पुत्री थी
शांतनु कभी कैलाश पर रहते थे
कभी लोहित कुंड के किनारे
कभीं गंधमादन पर्वत की चोटी पर
एक दिन शांतनु गंधमादन पर्वत की कुटिया से
फल और फूल का संग्रह करने निकले थे
उसी समय शांतनु से मिलने के लिए ब्रह्मा आए
उन्होंने ऋषि की अत्यंत रूपवती पत्नी अमोघा को देखा
अमोघा के सौंदर्य ने ब्रह्मा को मुग्ध कर दिया
वह चाहते थे कि अमोघा के गर्भ से उनके
एक ऐसे पुत्र का जन्म हो जो
समूचे विश्व का कल्याण कर सके
मगर अमोघा ने ब्रह्मा को पहचाना नहीं
अमोघा ने कहा-
मैं ऋषि की पत्नी हूं
मैं परपुरुष की तरफ देख भी नहीं सकती
अगर आप बल प्रयोग करने की कोशिश करेंगे
तो मैं आपको शाप दे दूंगी
ब्रह्मा अपना वीर्य उसी स्थान पर छोड़कर
ब्रह्मलोक लौट गए
शांतनु ने लौटकर जब अग्नि की तरह
प्रज्ज्वलित वीर्य को देखा तो उन्हें पता चल गया
कि ब्रह्मा क्यों आए
और ब्रह्मा की क्या इच्छा थी
शांतनु ने अपनी दैवीय शक्ति से
ब्रह्मा के आगमन के उद्देश्य को
भांप लिया था
शांतनु ने अमोघा से अनुरोध किया-
अमोघा, तीनों लोकों की भलाई के लिए
और देवताओं की इच्छा पूरी करने के लिए
तुम वीर्य पान कर लो
अमोघा ने अपने पति से अनुरोध किया
वही वीर्यपान कर लें और उसके गर्भ में
संतान का बीज स्थापित करें
इस तरह गर्भवती हुई अमोघा और
समय आने पर उसने एक जलमय पुत्र को जन्म दिया
जिसकी सूरत हू-ब-हू मिलती थी ब्रह्मा से
शांतनु ने ब्रह्मकुंड नामक इस जलमय संतान को
कैलाश, गंधमादन, जरूधि और संवर्त्तक नामक
पर्वतों के मध्य स्थापित कर दिया
समय गुजरने के साथ यह एक सरोवर बन गया
जिसका क्षेत्रफल चालीस मील था और जो
सागर की तरह नजर आता था
ब्रह्मा ने स्वयं अपने इस पुत्र को आशीर्वाद दिया
और इसका नाम रखा लौहित्य गंगा
देवी-देवता इस सरोवर के पवित्र जल का सेवन करने
और स्नान करने के लिए आने लगे
बाद में ऋषि परशुराम ने ब्रह्मकुंड के जल को
नदी की धारा के रूप में प्रवाहित कर दिया
प्राचीन काल में कामरूप महापीठ की नदी में
स्नान, जल सेवन और उस स्थान के देवता की पूजा-अर्चना कर
पापी भी सीधे स्वर्ग में चले जाते थे
पार्वती के डर से यमराज पापियों के पास भी
नहीं फटकते थे
प्राचीन काल में इस स्थान का नाम था
प्रागज्योतिषपुर
यहीं शिव के कोप से भस्म होने वाले कामदेव को
पुनर्जीवन प्राप्त हुआ था
इसीलिए यह स्थान कामरूप के नाम से मशहूर हुआ
कामरूपवासियों को इतनी आसानी से स्वर्ग प्राप्त हो
रही थी जो महादेव को उचित नहीं लग रहा था
मुक्ति तीर्थ कामरूप पीठ को लोगों की नजरों से
छिपाने के लिए
उन्होंने अपने अनुचरों की सहायता से
वहां के निवासियों को खदेड़ दिया
उस समय कामरूप पीठ के आसपास
अपूनर्भव कुंड, सोम कुंड, उर्वशी कुंड के अलावा
पतित पावनी नदी और जलधाराएं थीं
इन जलधाराओं में नहाकर लोग सशरीर
स्वर्ग गमन करते थे
शिव ने उस स्थान को जनशून्य बना दिया
मगर उसे पूरी तरह गोपनीय बनाने की योजना
ब्रह्मा ने बनाई
इसीलिए उन्होंने ब्रह्मपुत्र को अवतरित किया
अपनी संतान के रूप में
जब मातृहंता परशुराम ने ब्रह्मपुत्र की जलधारा को
प्रवाहित कर दिया
तब जलधारा ने कामरूप के समस्त पवित्र कुंडों, नदी
आदि को अपने सीने में समा लिया
इसके बाद केवल पुण्य करने वाले ही ब्रह्मपुत्र में स्नान कर
सर्व तीर्थ का फल प्राप्त कर सकते थे
पापियों को मिल सकता था केवल ब्रह्मपुत्र में स्नान
करने का पुण्य।
बेउला-लखींदर
बेउला और लखींदर की कथा ने मिथक में
स्थापित किया है सर्पों की देवी मनसा को
जो ऋषि कश्यप और सर्पों के राजा शेष की कन्या कदरू
की बेटी है
आषाढ़ और सावन में असम में
जनसाधारण करता है मनसा की आराधना
चांद सौदागर का सातवां बेटा था लखींदर
सौदागर की पहली पत्नी ने छह पुत्रों को जन्म दिया था
जो जन्म के बाद सर्पदंश के चलते
एक-एक कर मारे गए थे
सौदागर ने दूसरा ब्याह किया और
दूसरी पत्नी की कोख से जनमा लखींदर
शिव के आराध्य चांद सौदागर को मनसा
बनाना चाहती थी अपना पहला भक्त
चूंकि उस समय तक पृथ्वी पर मनसा का
कोई भक्त नहीं था
मनसा का मानना था कि चांद सौदागर को
भक्त बनाने से तेजी से बढ़ सकती थी
उनके भक्तों की तादाद
मगर मनसा की भक्ति स्वीकार करने के लिए
तैयार नहीं था चांद सौदागर
अलग-अलग वेष बनाकर मनसा ने उसे
प्रभावित करने की कोशिश की
मगर वह टस से मस नहीं हुआ
जब लखींदर जवान हुआ तो सौदागर ने
बेउला से उसका ब्याह तय किया
मनसा ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी
उन्होंने एक बार फिर सौदागर से कहा
भक्ति स्वीकार करने के लिए
सौदागर ने एक बार फिर इनकार कर दिया
क्रुद्ध होकर मनसा ने सुहागरात में
एक सर्प को भेजकर लखींदर को डंसवा दिया
सौदागर के घर में हाहाकार मच गया
किसी सपेरे की दया से
लखींदर के पुनर्जीवित होने की उम्मीद के साथ
उसके शव को नाव में रखकर
ब्रह्मपुत्र में बहा दिया गया
जब लखींदर के शव को नाव में रखकर
विदा किया जा रहा था
बेउला ने शव के साथ आने की इच्छा जताई
जलधारा के करीब पहुंचते ही
बेउला की मुलाकात एक धोबिन से हुई
धोबिन ने कहा कि वह उसके पति को
जीवित कर सकती है
बेउला ने उससे ऐसा ही करने के लिए
अनुरोध किया
धोबिन बेउला को देवी मनसा के पास ले गई
बेउला ने मनसा से विनती की
लखींदर को जीवन प्रदान किया जाए
मनसा ने कहा
वह लखींदर को जीवित कर सकती है
मगर बेउला को इसके बदले में
अपने ससुर को भक्ति के लिए
मनाना होगा
बेउला ने वचन दे दिया
मनसा ने
लखींदर को जीवित कर दिया
चांद सौदागर को अपनी बहू की विनती सुनकर
हठ छोड़ना पड़ा
उसने मनसा की आराधना शुरू कर दी
ब्रह्मपुत्र की जलधारा
सदियों से सुनाती रही है
बेउला-लखींदर की कथा
मनसा पूजा के समय
दरंग कामरूप ग्वालपाड़ा में
ओजापाली और देवध्वनि
नृत्यों का आयोजन कर
देवी को प्रसन्न करने का
प्रयास किया जाता है
देवध्वनि नृत्य करती हुई युवतियां
खाप और सिफंग की धुन के साथ
ताल मिलाती हैं
ओजापाली नृत्य के दौरान
पद्म पुराण की बेउला-लखींदर की
करुण कहानी
गा-गाकर आम जनता को
सुनाई जाती है।
परशुराम ने बनाई थी ब्रह्मपुत्र के लिए राह
मातृहत्या का पाप धोने के बाद
परशुराम ने बनाई थी ब्रह्मपुत्र के लिए राह
ब्रह्मकुंड के किनारे को काटकर
प्रवाहित कर दी थी जलधारा
जलधारा उतर आई थी कामरूप में
सभी पवित्र जलाशयों तीर्थों को
धोती हुई प्लावित करती हुई
जलधारा आगे बढ़ती चली गई थी
परशुराम के पिता थे जमदग्नि
जमदग्नि की माता थी सत्यवती
सत्यवती के लाड़-प्यार ने
जमदग्नि को बिगड़ैल बना दिया था
जमदग्नि ने रेणुका से रचाया ब्याह
रेणुका ने पांच पुत्रों को जन्म दिया
सबसे छोटे थे परशुराम
एक दिन रेणुका गंगा से पानी भरने गई
एक युवा राजा को अपने साथियों के संग
जल क्रीड़ा करते हुए देखकर
मुग्ध हो गई रेणुका
उन्हें घर लौटने में देर हो गई
जमदग्नि ने क्रोधित होकर अपने पुत्रों से
कहा कि रेणुका का सिर काट डाले
चार पुत्रों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया
मगर माता-पिता के आज्ञाकारी
परशुराम ने माता का सिर काट डाला
मातृहत्या के पाप के चलते कुल्हाड़ी
परशुराम के हाथ में चिपकी रही
बार-बार याद दिलाती रही
खून से सराबोर कुल्हाड़ी
कि किस तरह परशुराम ने अपनी ही
माता की हत्या कर डाली थी
जमदग्नि भी अपनी शक्ति से
परशुराम को पापमुक्त नहीं कर सकते थे
उन्होंने पुत्र से सभी तीर्थों में जाकर
स्नान करने के लिए कहा
परशुराम भारतवर्ष के सभी तीर्थों में
घूमते रहे
पवित्र कुंडों और नदियों में स्नान करते रहे
मगर कुल्हाड़ी हाथ से ही चिपकी रही
लेकिन ब्रह्मकुंड में स्नान करते ही
खून से सराबोर कुल्हाड़ी परशुराम के हाथ से
अलग हो गई
पवित्र जल ने मातृहत्या के पाप को धो दिया
परशुराम ने ब्रह्मकुंड के जल की पवित्रता से
प्रभावित होकर
उसे नदी के रूप में प्रवाहित करने का निश्चय किया
ताकि जन-जन को पाप मुक्त होने का
अवसर मिले
मातृ हत्या का पाप धोने के बाद
परशुराम ने बनाई थी ब्रह्मपुत्र के लिए राह।
नदी ने दी लकड़हारे को कुल्हाड़ी
सिंगफो जनजाति की लोककथा में
नदी ने दी लकड़हारे को कुल्हाड़ी
इंट्रपोआ नामक पहला लकड़हारा
पत्थर की मदद से
पेड़ काटते-काटते बेहाल हो गया था
इंट्रपोआ ने पेड़ से पूछा
क्या तुम मुझे कोई धारदार चीज दे सकते हो?
पेड़ ने कहा-
अगर मैं तुम्हें बता दूंगा
तो तुम मुझे काट डालोगे
इंट्रपोआ ने घास से पूछा-
क्या तुम मुझे कोई धारदार चीज दे सकती हो?
घास ने कहा-
अगर मैं तुम्हें बता दूंगी
तो तुम मुझे काट डालोगे
इंट्रपोआ ने वन्य जीव से पूछा-
क्या तुम मुझे कोई धारदार चीज दे सकते हो?
वन्यजीव ने कहा-
अगर में तुम्हें बता दूंगा
तो तुम मुझे काट डालोगे
अंत में उसने नदी से य्ी सवाल पूछा
नदी ने उसे सौगात के रूप में सौंप दी कुल्हाड़ी।
कहां जाती हैं नौकाएं
कहां जाती हैं नौकाएं शाम की पोशाक पहनकर
वातावरण में छूट जाता है मांझी का गीत
पीछे छूटते जाते हैं नगर-कस्बे-गांव
खेत-खलिहान पहाड़ी जंगल बालूचर
पीछे छूटते जाते हैं जाने-पहचाने मंजर
पीछे छूटती जाती है परिचित ध्वनियां
कहां जाती हैं नौकाएं शाम की पोशाक पहनकर
दूर नजर आती है कांपती हुई आकृतियां
बजाता है कोई मंदिर की घंटियों को
मवेशियों के साथ लौटते हैं चरवाहे
लहलहाती फसलों वाले खेतों के ऊपर से
पचिम की तरफ उड़ता जाता है पंछियों का झुंड
कहां जाती हैं नौकाएं शाम की पोशाक पहनकर
किनारे रह जाता है पसीने का स्मारक
अंतरंग बातचीत की प्रिय गंध
मानवीय पलों के उदाहरण
किनारे रह जाता है दिन का इतिहास
कहां जाती हैं नौकाएं शाम की पोशाक पहनकर।
तेजीमला
लोककथा की तेजीमला कमल बनकर
खिलती है नदी किनारे
अपने सौदागर पिता के लौटने पर
विलाप करती है
किस तरह फूल जैसी कोमल बच्ची तेजीमला को
सौतेली मां ने ढेकी से
कुचल-कुचल कर मार दिया था
किस तरह विवाह समारोह में शामल होने के लिए
जा रही तेजीमला के कपड़ों की गठरी में
बांध दिया था चूहे और अंगारे को
किस तरह रेशमी मेखला-चादर नष्ट होने का
झूठा आरोप मढ़ दिया था
तेजीमला पर
लोककथा की तेजीमला कमल बनकर
खिलती है नदी किनारे
अपने सौदागर पिता के लौटने पर
विलाप करती है
किस तरह सौतेली मां ने उसे मारने के बाद
गाड़ दिया था ढेकी के पास जमीन में
किस तरह वह एक मीठे फल का पौधा बनकर
उग गई थी
किस तरह पड़ोस की स्त्री ने फल को तोड़ना चाहा था
किस तरह उसने उस स्त्री को
अपनी दास्तान सुनाई थी
और सौतेली मां ने पौधे को काटकर
फेंक दिया था
लोक कथा की तेजीमला कमल बनकर
खिलती है नदी किनारे
अपने सौदागर पिता के लौटने पर
विलाप करती है
किस तरह वह फिर उग गई थी
एक और फल के पौधे के रूप में
किस तरह चरवाहे लड़कों ने ललचाकर
फल को तोड़ना चाहा था
किस तरह उसने चरवाहे लड़कों को
अपनी दास्तान सुनाई थी
और सौतेली मां ने पौधे को काटकर
नदी में बहा दिया था
और वह खिली थी कमल बनकर
लोककथा की तेजीमला कमल बनकर
खिलती है नदी किनारे
अपने सौदागर पिता के लौटने पर
विलाप करती है।
नदी जब उदास हो जाती है
डबडबाए नयनों से ताककर
बादल को रूलाना
नदी को क्यों अच्छा लगता है
किस बात की पीड़ा है जो
नदी को बेचैन रखती है
क्यों चाहती है वह
प्यार के दो मीठे बोल
थोड़ी सी हमदर्दी
नदी जब उदास हो जाती है
हरियाली का मंजर धूसर नजर आने लगता है
धुंध की चादर का रंग
मटमैला हो जाता है
बोझिल हो जाता है आसमान
हवा फुसफुसाकर कहती है पंछियों से
पेड़ों से पहाड़ियों से
कि कोई भी इस समय
परेशान न करे नदी को
डबडबाए नयनों से ताककर
बादल को रुलाना
नदी को क्यों अच्छा लगता है।
जंगली फूल की तरह
जंगली फूल की तरह
ब्रह्मपुत्र उपत्यका में एक-एक कर
विकसित होती रही हैं सभ्यताएं
चरमोत्कर्ष पर पहुंचने के बाद विलीन
होती रही हैं महाकाल के गर्भ में
गुवाहाटी में उत्खनन से निकलने वाले
मिट्टी के बरतन, मुद्रा, प्रतिमाओं, दीवारों में
हम सभ्यताओं के चेहरों को
पहचानने की कोशिश करते हैं
इतने सारे चेहरे
इतनी अधिक विभिन्नताएं
पृथ्वी पर इसी तरह सभ्यताएं
विकसित होती रही हैं किसी न किसी
नदी के किनारे
नदी के नाम से ही पुकारी जाती रही है सभ्यताएं
चाहे सिंधु सभ्यता हो या नील नदी की सभ्यता
होवांग हो किनारे विकसित होने वाली चीनी सभ्यता हो या
गंगा किनारे विकसित होने वाली आर्य सभ्यता
नदियां वाहक बनती हैं सभ्यता की
ब्रह्मपुत्र उपत्यका में भी सदियों से
चलता रहा है सभ्यता के बनने और मिटने का सिलसिला
पुरानी सभ्यता के मलबे पर अंकुरित होती रही है नई-नई सभ्यता
नए-नए वेष में नए-नए रूप में
ब्रह्मपुत्र गवाह है
अनगिनत सभ्यताओं के उत्थान-पतन का
अनगिनत शताब्दियों से।
मनुष्य अपनी भाषा गंवा बैठता है
तुम पृथ्वी के हरेक हिस्से के नागरिकों के लिए
हो परम विस्मय
एक चुनौतीपूर्ण अनुभव
जिस अनुभव को शब्दों की बेड़ियों में
जकड़ पाना संभव नहीं
जिस तरह पतित पावनी गंगा का
शांतिदायी कल्पणामयी स्वरूप देखकर
लोग मां कहकर संबोधित करते हैं
उसी तरह तुम्हारे लिए
कोई संबोधन निश्चित कर पाना संभव नहीं
हमेशा गरजते हुए तुम हमें याद
दिलाते रहते हो अपने पौरूष का
तुम्हारा गर्जन कभी होता है धीमा
कभी क्रोधोन्मत आर्तनाद की तरह
जो याद दिलाता है
अन्याय-अत्याचार से जूझती आत्मा का करुण क्रंदन
कभी तुम्हारा गर्जन
चेतावनी देता है
कभी हौले से नसीहत देता है
यही वजह है कि तुम्हारे किनारे खड़े होते ही
मनुष्य अपनी भाषा गंवा बैठता है।
महामिलन का तीर्थ
सदियों से विभिन्न जातियों-उपजातियों के
महामिलन का तीर्थ रही है ब्रह्मपुत्र उपत्यका
ऐसा ही गया था
भूपेन हजारिका ने ज्योतिप्रसाद ने शंकरदेव ने
सबसे पहले एस्ट्रो एशियाटिक लोग आए
जिन्होंने कभी दक्षिण-पूर्व एशिया
कंबोडिया, उत्तरी म्यांमार और आस्ट्रेलिया में
अपनी सभ्यता की रचना की थी
इससे पहले कि एस्ट्रो एशियाटिक लोग
पांव जमा पाते
तिब्बत से मंगोलियन जाति का प्रवजन हुआ
दोनों ही समुदायों में अस्तित्व के लिए
चिरंतन संघर्ष हुआ
शिकस्त खाकर एस्ट्रो एशियाटिक लोग
खासी-जयंतीया पहाड़ियों की तरफ चले गए
सदियों से नदियां वाहक रही हैं सभ्यताओं के लिए
सिर्फ जलधारा ही प्रवाहित नहीं होती
जलधारा का अनुसरण करती हुई
प्रवाहित होती है जनधारा भी
जातियों- जनजातियों का जब आपस में
होता है महामिलन
तो बदल जाता है उनका मूल स्वरूप
मूल चरित्र
निर्माण होता है एक नई पहचान का
ईसा पूर्व दो हजार से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक
ब्रह्मपुत्र उपत्यका में जारी रहा मंगोलियन जाति का प्रवजन
फिर मंगोलियन जाति की आहोम शाखा ने
उपत्यका पर वर्चस्व कायम कर लिया
सदियों से विभिन्न जातियों-उपजातियों के
महामिलन का तीर्थ रही है ब्रह्मपुत्र उपत्यका
ऐसा ही गाया था
भूपेन हजारिका ने ज्योतिप्रसाद ने शंकरदेव ने।
शंकरदेव
साढ़े पांच सौ साल पहले ब्रह्मपुत्र किनारे ही
आलिपुखुरी गांव में जनमे थे शंकरदेव
जिन्होंने वैष्णव धर्म का प्रवर्तन कर
असम के बिखरे हुए समाज को एकजुट किया
अंधविश्वासों और कर्मकांडों की बेड़ियां तोड़कर
जिन्होंने मानवता का पाठ जनता को पढ़ाया
किशोरावस्था में जो आसानी से तैर कर
पार करते थे बरसाती ब्रह्मपुत्र की प्रचंड धारा को
महेंद्र कंदली की पाठशाला में वर्णमाला से
परिचय होते ही जिन्होंने कविता की रचना की-
‘करतल कमल कमल दल नयन
नपर नपर पर सतरल गमय
गमय गमय भय ममहर सततय
खरतर बरशर हत दश बदन
खगधर नगधर फणधर शयन
जग दध गयहर भव भय तरपा
पर पद पग लेय कमलज नयन’
बारह वर्षों तक जो घूमते रहे काशी,
गया, मथुरा, वृंदावन, प्रयाग पुरी
भक्ति-धर्म प्रचार का करते रहे मंथन
भारत के शास्त्रीय और लोक संगीत से
सीखते रहे नई धुन नई तान
जिन्होंने सामान्य जनता और जनजातियों के बीच
वैष्णव मत का प्रचार शुरू किया
नामघर का निर्माण किया
नाटकों की रचना की
कविता और गीतों के जरिए
जिन्होंने समाज परिवर्तन का
अभियान शुरू किया
समाज में समानता का मंत्र फूंकना
आसान नहीं था उस युग में
राज्य उत्पीड़न का सामना करते हुए
शंकरदेव को आलिपुखुरी से बरदोवा
बरदोवा से माजुली
माजुली से बरपेटा
बरपेटा से मधुपुर सत्र तक
जाकर बसना पड़ा
उन्होंने दलितों और वंचितों को धर्म की
पावन भूमि पर प्रतिष्ठित करने का बीड़ा उठाकर
घोषणा की थी- कलित शुद्र कैवर्त प्रधान
उन्होंने भक्ति धर्म का जो बीज रोपा
ब्रह्मपुत्र उपत्यका में वह पौधा लहलहा रहा है।
पहले भी प्रवाहित होती थी एक नदी
असम के मध्य से होकर ब्रह्मपुत्र के प्रवाहित
होने से पहले भी प्रवाहित होती थी एक नदी
उस नदी का क्या नाम था
जो प्रागज्योतिषपुर से होकर गुजरती थी
मान लिया जाए कि वही थी लुइत नामक नदी
हिमालय और अन्य पर्वतों से बहकर जो
नदियां-उपनदियां ब्रह्मपुत्र में समाती हैं
ये कभी समा जाती थीं लुइत के सीने में
वैसे लुइत का विस्तार अधिक नहीं था
पूरब की जिस राह से बहकर वह आती थी
उसी राह पर जाती थी पश्चिम की तरफ
परवर्तीकाल में किसी प्राकृतिक परिघाटना के चलते
तिब्बत की सांगपो नदी की दिशा बदल गई
जो असम के मध्य वर्तमान राह से होकर बहने लगी
रंगदैघाट के पास सांगपो आकर मिली लुइत से
अपने प्रचंड गतिवेग और विशाल जलधारा के साथ
जिससे लील-लिया लुइत को पूरी तरह
लुइत की राह ब्रह्मपुत्र की राह में विलीन हो गई।
उद्गम स्थल की खोज
(1)
कालिका पुराण के रचयिता का अनुमान था
कि जरूर कैलाश के दक्षिणी हिस्से में था
ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्थल
मगर उसे यह पता नहीं था कि किस मार्ग से
प्रवाहित होकर नीचे उतरती थी जलधारा
प्राचीन काल से ही जनता उदासीन थी
भौगोलिक बारीकियों को लेकर
इसीलिए संभव यही था कि उद्गम स्थल की खोज
कोई संन्यासी करता या
कोई तीर्थ यात्री
मगर वे भी दुर्गम गिरि अभियान के लिए
तैयार नहीं थे इसीलिए
शदिया के पास उन्होंने खोज लिया
एक तीर्थ- परशुराम कुंड
उस युग में परशुराम कुंड तक का मार्ग भी
माना जाता था दुर्गम
जहां पहुंच पाना सभी के लिए
आसान नहीं था
खतरनाक सफर पर आगे बढ़ते हुए
कुंड तक पहुंचने से पहले जान
गंवा देते थे तीर्थयात्री आदिवासियों के हाथों
फिर आए यूरोप के व्यापारी
जो अपने कारोबार के लिए या
कभी-कभी अपने कौतूहल के चलते
कभी राजा के आदेश पर तो
कभी अपनी कंपनी के आदेश पर
भौगोलिक बारीकियां जुटाते थे
खोजते थे नए द्वीप
कभी खोजते थे
दुर्गम इलाके में जल प्रपात
इनकी खोजों को लिपिबद्ध किया जाता था
जिससे मार्ग दर्शन पा सकते थे
परवर्ती अभियानकारी
पूर्ववर्तियों की खोज की बुनियाद पर
जो आगे कदम बढ़ा सकते थे।
(2)
भारत के यूरोपीय शासकों को
दिलचस्पी नहीं थी ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्थल कहां था
कैसा था उसका मार्ग
मगर वे तिब्बत को समझने के लिए
जानना चाहते थे सांगपो की बारीकियों को
तिब्बत में सदियों से अवांछित माने जाते थे
अजनबी विदेशी
इजाजत के बगैर प्रवेश करने पर
जान गंवा चुके थे ऐसे कई विदेशी
तीर्थ यात्रियों को भी आसानी से
मिलती नहीं थी इजाजत
जबकि तिब्बत का ब्यौरा जुटाना बहुत जरूरी था
तिब्बतियों की तरह नजर आने वाले
कुमाऊं अंचल के भूटिया युवाओं को चुनकर
मेजर स्मिथ ने दिया प्रशिक्षण
ऐसा युवाओं को कहा गया- पंडित पर्यटक
डेढ़ सौ वर्ष पहले ऐसे ही दो पंडित पर्यटक
नयन सिंह और मणि सिंह ने नेपाल के रास्ते
तिब्बत का सफर शुरू किया
वे जहां माप तौल में माहिर थे
वहीं ऐयारों की तरह बदल सकते थे वेष
कभी बन सकते थे सौदागर
तो कभी तीर्थ यात्री
वे लामा के वेष में सफर करते हुए
जपमाला का इस्तेमाल दूरी मापने के लिए करते थे
सौ कदम चलने पर वे एक मणि गिनते थे
और दो हजार कदम चलकर
तय करते थे एक मील का सफर
माला की कुल सौ मणियों को गिनने के लिए
तय करना पड़ता था पांच मील का सफर
दोनों को ल्हासा की दिशा में बढ़ना था
मगर राह भटक गया मणि सिंह
वह पश्चिम तिब्बत का ब्यौरा जुटाकर
काठमांडू लौट आया मगर
नयन सिंह सौदागरों के दल के साथ
बढ़ता रहा ल्हासा की तरफ
ल्हासा पहुंचने के बाद वह
सांगपो नदी का अनुसरण कर बढ़ता रहा
पांच सौ मील तक
दो महीने में उसने पूरा किया था सफर।
(3)
पहला पंडित पर्यटक था नयन सिंह
जिसने सबसे पहले अनुमान लगाया इस सत्य का
कि सांगपो नदी ही हिमालय की प्रदक्षिणा करने के बाद
ब्रह्मपुत्र के नाम से प्रवाहित हो रही है
इससे पहले कल्पना की जाती थी कि
पूर्वोत्तर के किसी दुर्गम अंचल में ही था उद्गम स्थल
और सांगपो नदी चांगसी, सेलुइन या इरावती नदियों में से
किसी एक नदी के साथ मिलकर ही
मैदानी इलाके में प्रवाहित होती थी
नयन सिंह के अनुमान की रोशनी का अनुसरण करते हुए
एक और पंडित पर्यटक किशन सिंह
उद्गम स्थल की खोज करने तिब्बत की तरफ निकल पड़ा
तीर्थ यात्री के वेष में वह भटकता रहा
ढूंढ़ता रहा उस अज्ञात नदी को
जिसके साथ मिलकर सांगपो नदी मैदानी इलाके में
सफर शुरू करती थी
किशन सिंह चलता रहा सांगपो के किनारे-किनारे
और एक ऐसे दुर्गम इलाके में पहुंच गया
जहां उसे अपने सवाल का मिल नहीं सकता था कोई जवाब
किशन सिंह सांगपो के आकर्षण में मुड़ गया
पूर्वोत्तर दिशा में
भले ही ढूंढ़ नहीं पाया सांगपो का उद्गम स्थल
मगर चांगसी, सेलुइन और इरावती नदियों के
उद्गम स्थल को उसने ढूंढ़ लिया
सांगपो के संभावित गतिपथ की तीन नदियां
दिहांग, दिबांग और लुइत के उद्गम स्थलों की
खोज अभी भी नहीं हो पाई थी।
(4)
आसान नहीं था उद्गम स्थल की खोज करना
राह में कदम-कदम पर खड़ी थी मौत
भय और बाधा की प्राचीर को लांघकर
बढ़ना पड़ता था आगे
अगर तिब्बत राज कर्मचारी पकड़ लें
तो निचित था मृत्युदंड
दस्यु के हाथ में आने पर भी
बचने की कोई उम्मीद नहीं थी
दुर्गम जंगल-पर्वत में लगातार
भटकने और राह भूलने का डर होता था
वन्य जीवों का भय था
बीमार होने का खतरा था
खाद्य और आश्रय विहीन होकर
भूखों मर जाने का डर था
कभी-कभी जान हथेली पर लेकर
ऊंचे पहाड़ को पार करना पड़ता था
कभी-कभी दुर्गम पथ को रोक कर
बहती हुई नजर आती थी कोई वेगवती नदी
आसान नहीं था उद्गम स्थल की खोज करना।
(5)
अनेक पंडित पर्यटक अनजान उद्गम स्थल की
तलाश में सफर करते रहे
किसी ने गंवाई जान
किसी को बनना पड़ा क्रीत दास
कोई भटक गया अपनी राह
किसी ने लकड़ी के टुकड़ों में धातु के डिब्बे डालकर
जलधारा में बहाए
किसी ने कहा कि असल में सांगपो
दिहांग नदी के साथ मिलकर मैदानी इलाके में
उतरती थी
एक सौ मील के दायरे में जलधारा का दस हजार फीट
नीचे उतरना एक रहस्य था जिसके आधार पर
कल्पना की गई कि जरूर कहीं
विश्व का सबसे बड़ा जलप्रपात होगा
उसका नाम रखा गया ‘ब्रह्मपुत्र फाल्स’
इस काल्पनिक जल प्रपात की खोज शुरू हो गई
वार्ड और कोडोर ने आखिरकार इस रहस्य की
खोज की
वे पहुंचे उद्गम स्थल पर
उन्होंने पहचान लिया ब्रह्मपुत्र का संपूर्ण गति पथ
तिब्बत से बहकर आने वाली सांगपो
अरुणाचल में दिहांग के साथ मिल जाती है
वही दिहांग असम में दिबांग और लुइत के साथ
एकाकार हो जाती है
उसका नाम रखा जाता है- ब्रह्मपुत्र
यह उद्गम स्थल की खोज का आनंद था
मगर ब्रह्मपुत्र फाल्स की कल्पना मिट जाने का
विषाद भी था चूंकि
सीढ़ियों की तरह पचहत्तर जल प्रपात छोटे-छोटे
आकार के नजर आए थे
इस तरह के जल प्रपातों को उत्पन्न करती हुई
सांगपो ऊपर से नीचे की तरफ उतरती गई थी।
मैं जहां भी जाता हूं
मैं जहां भी जाता हूं मेरे संग जाती है
जलधारा की विशालता
हरियाली का परिदृश्य
लहरों की बेचैनी
मांझी की उदासी में भीगी पुकार
मैं अकेले ही या भीड़ में मग्न रह सकता हूं
जलधारा को महसूस कर सकता हूं
वीरान स्याह रातों में भी
मेरे कानोें में बजता रहता है
जलधारा का संगीत
जलधारा से दूर होते ही किसी प्रेमिका से
दूर होने वाले प्रेमी की तरह
सताने लगती है बिछोह की पीड़ा
स्मृतियों में उभरने लगती है जलधारा
अलग-अलग ऋतुओं की पोशाक पहनकर।
अमलतास ने बिखेर दिया है
अमलतास ने बिखेर दिया है
वसंत का संदेश
दूर तक आंचल की तरह लहराते हुए पीले सरसों के फूल
उस पर हरियाली का मंजर
बीच में शांत-गंभीर ब्रह्मपुत्र की धारा
बालूचर पर खेल रहे हैं पंडुक
बांसों को लादकर नाव पर पश्चिम की तरह से बढ़ता आ रहा है
एक मांझी
बगुलों का झुंड उस पार से आ रहा है इस पार
जल के साथ अठखेलियां करते हुए
इसी सन्नाटे में ठिठककर निहार रहा हूं
प्रकृति की लीला को
चूंकि अभी दूर हूं दुनियादारी से
भौतिक कोलाहल से।
रोशनी की लकीरें
शराईघाट पुल के उत्तरी छोर से
मैं देख रहा हूं रोशनी की लकीरों को
रहस्यमयी शाम को ओढ़कर गुमसुम है शहर
स्याह जलधारा में
दूर-दूर तक फैली हुई लकीरें
इन तिलिस्मी लकीरों में ही मानो
धड़कता है मेरे शहर का हृदय
छोटी सी उम्र में जब छोटी लाइन की रेल में
चढ़कर आया था
इसी तरह शाम हो गई थी
और किसी ने कहा- ब्रह्मपुत्र!
देखो ब्रह्मपुत्र!
और फिर एक-एक कर सारे यात्री उछालने लगे थे सिक्के
हाथ जोड़कर शीश झुकाने लगे थे
पुल से टकराकर आवाज के साथ
जलधारा में गुम हो रहे थे सिक्के
उसी समय मैंने रहस्यमयी शाम को ओढ़कर गुमसुम बैठे शहर की
आकृति को देखा था
और देखा था रोशनी की लकीरों को
स्याह जल पर दूर तक फैलते हुए
किसी ने अंधेरे में धुंधले नजर आ रहे पहाड़ की तरफ शीश झुकाकर
कहा- आ गए कामरूप-कामाख्या के नगर में
मैंने विस्मय के साथ देखा था
सितारों की तरह जगमगाती हुई रोशनी को
वर्षों से देखता रहा हूं
और बढ़ता ही गया है आकर्षण।
जनजातीय स्मृतियों से
जनजातीय स्मृतियों से जुड़े हुए हो तुम ब्रह्मपुत्र
वे आज भी गाते हैं अपने लोक गीतों में तुम्हारी महिमा
‘पर्वत पर खूबसूरत लगते हैं बागुम के पेड़
समतल में खूबसूरत है ब्रह्मपुत्र की धारा
मगर मेरी प्रियतम का मुखड़ा है
इनसे भी अधिक हसीन’
लोक गीतों में लिपटा हुआ है इतिहास
जनजातियां भूली नहीं है तुम्हारे संग अपने पूर्वजों के नाते को
चूंकि तुम्हारे किनारे-किनारे ही
आबाद होती रही है उनकी बस्तियां
सोनोवाल कछारी समुदाय आज भी अपने मृतक की
अंत्येष्टि करते समय गाड़ता है तांबे का एक सिक्का
चूंकि वह सारी भूमि पर तुम्हारा ही अधिकार समझता है
और इस तरह अंत्येष्टि के लिए खरीदता है
तुमसे थोड़ी सी जमीन
यह समुदाय अपने गांवों के नाम किसी न किसी
उपनदी के नाम पर रखता है
जनजातीय स्मृतियों से जुड़े हुए हो तुम ब्रह्मपुत्र।
दिनकर कुमार
जन्म : 5 अक्टूबर, 1967, बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गांव ब्रहमपुरा में।
कार्यक्षेत्र : असम
कृतियां : पाँच कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियां एवं असमिया से पैंतालीस पुस्तकों का अनुवाद।
सम्मान : सोमदत्त सम्मान, जस्टिस शारदाचरण मित्र स्मृति भाषा सेतु सम्मान, जयप्रकाश भारती पत्रकारिता सम्मान एवं शब्द भारती का अनुवादश्री सम्मान।
संप्रति : संपादक, दैनिक सेंटिनल (गुवाहाटी)
संपर्क : हाउस नं. 66, मुख्य पथ, तरुणनगर-एबीसी, गुवाहाटी-781005 (असम), मो. 09435103755,
ई-मेल :
dinkar.mail@gmail.com
कविता के माध्यम से पाठकों का ब्रह्मपुत्र नदी के साथ एक रिश्ता कायम कर दिया दिनकर जी ने ...अति सुन्दर .... दिनकर जी क्या इसे पुस्तक के रूप में भी संकलित और प्राकाशित किया है >?अवश्य बताईयेगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद, वर्षों बाद पढ़ी एक उत्तम कविता, ब्रह्मपुत्र के उद्भव तथा उसकी सभ्यता संस्कृति से परिपूर्ण। एक निवेदन है असम के गौहाटी क्षेत्र के चौधरी सरनेम वाले लोगों की जाति क्या होता है, कायस्थ, दलित, कलित. व्राह्मण या भूमिहार होते हैं ?
जवाब देंहटाएंकवि को ब्रह्मपुत्र पर उत्तम काव्य रचना हेतु धन्यवाद, उक्त सरिताके उद्भव,विकास तथा संबंधित सांस्कृतिक इतिहास पर उत्तम काव्य। गौहाटी से संबंधित चौधरी सरनेम वाले लोगों की जाति के विषय में ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, .ये ब्राह्मण,कायस्थ,कलित क्या होते हैं?
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