कुबेर की हास्य व्यंग्य कविता - भाया! बहुत गड़बड़ है

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  कुबेर भाया! बहुत गड़बड़ है   बहुत गड़बड़ है, भाया! बहुत गड़बड़ है। इधर कई दिनों से दिन के भरपूर उजाले में भी लोगों को कुछ दिख नहीं रह...

 

कुबेर

भाया! बहुत गड़बड़ है

 

बहुत गड़बड़ है,

भाया! बहुत गड़बड़ है।

इधर कई दिनों से

दिन के भरपूर उजाले में भी

लोगों को कुछ दिख नहीं रहा है

दिखता भी होगा तो

किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है

फिर भी

या इसीलिए सब संतुष्‍ट हैं?

कोई कुछ बोल नहीं रहा है।

भाया! बहुत गड़बड़ चल रहा है।

गंगू तेली का नाम उससे जुड़ा हुआ है

क्‍या हुआ

वह उसके महलों से दूर

झोपड़पट्टी के अपने उसी आदिकालीन -

परंपरागत झोपड़ी में पड़ा हुआ है?

षरीर, मन और दिमाग से सड़ा हुआ है।

पर नाम तो उसका उससे जुड़ा हुआ है?

उसके होने से ही तो वह है

गंगू तेली इसी बात पर अकड़़ रहा है?

भाया! बहुत गड़बड़ हो रहा है

 

उस दिन गंगू तेली कह रहा था -

'वह तो ठहरा राजा भोज

भाया! क्‍यों नहीं करेगा मौज?

जनता की दरबार लगायेगा

उसके हाथों में आश्‍वासन का झुनझुना थमायेगा

और

आड़ में खुद बादाम का हलवा और,

शुद्ध देसी घी में तला, पूरी खायेगा

तुम्‍हारे जैसा थोड़े ही है, कि-

नहाय नंगरा, निचोय काला?

निचोड़ने के लिये उसके पास क्‍या नहीं है?

खूब निचोड़ेगा

निचोड़-निचोड़कर चूसेगा

तेरे मुँह में थूँकेगा।

 

मरहा राम ने कहा -

''गंगू तेली बने कहता है,

अरे! साले चूतिया हो

अब कुछू न कुछू तो करनच्‌ पड़ही

नइ ते काली ले

वोकर थूँक ल चांटनच्‌ पड़ही

कब समझहू रे साले भोकवा हो,

भीतर-भीतर कितना,

क्‍या-क्‍या खिचड़ी डबक रहा है?

अरे साले हो!

सचमुच गड़बड़ हो रहा।''

 

गंगू तेली ने फिर कहा -

''वह तो ठहरा राजा भोज!

हमारी और तुम्‍हारी सडि़यल सोच से

बहुत ऊँची है उसकी सोच।

एक ही तो उसका बेटा है

उसका बेटा है

पर हमारा तो युवराज है

अब होने वाला उसी का राज है

उसके लिये जिन्‍दबाद के नारे लगाओ

उस पर गर्व करो

और, मौका-बेमौका

उसके आगे-पीछे कुत्ते की तरह लुटलुटाओ -

दुम हिलाओ

जनता होने का अपना फर्ज निभाओ।

 

युवराज के स्‍वयंवर की शुभ बेला है

विराट भोज का आयोजन है

छककर शाही-दावत का लुत्‍फ उठाओ

और अपने किस्‍मत को सहराओ।''

'बढि़या है, बढि़या है।'

गंगू तेली की बातों को सबने सराहा।

मरहा राम सबसे पीछे बैठा था

उसे बात जंची नहीं

उसने आस्‍ते से खखारा

थूँका और डरते हुए कहा -

''का निपोर बढि़या हे, बढि़या हे

अरे! चूतिया साले हो

तूमन ल दिखता काबर नहीं है बे?

काबर दिखता नहीं बे

जब चारों मुड़ा गुलाझांझरी

अड़बड़-सड़बड़ हो रहा है।''

बहुत गड़बड़ हो रहा है,

भाया! बहुत गड़बड़ हो रहा है।

 

वह तो राजा भोज है

हमारी-आपकी ही तो खोज है

उस दिन वह महा-विश्‍वकर्मा से कह रह था -

''इधर चुनाव का साल आ रहा है

पर साली जनता है, कि

उसका रुख समझ में ही नहीं आ रहा है

बेटा साला उधर हनीमून पर जा रहा है

बड़ा हरामी है

जा रहा है तो नाती लेकर ही आयेगा

आकर सिर खायेगा

सौ-दो सौ करोड़ के लिये फिर जिद मचायेगा।''

यहाँ के विश्‍वकर्मा लोग बड़े विलक्षण होते हैं

समुद्र में सड़क और-

हवा में महल बना सकते हैं

रातों रात कंचन-नगरी बसा सकते हैं।

राजा की बातों का अर्थ

और उनके इशारों का मतलब

वे अच्‍छे से समझते हैं

पहले-पहले से पूरी व्‍यवस्‍था करके रखते हैं।

दूसरे दिन उनके दूत-भूत गाँव-गाँव पहुँच गये,

बीच चौराहे पर खड़े होकर

हवा में कुछ नट-बोल्‍ट कँस आये, और

पास में एक बोर्ड लगा आये।

 

बोर्ड में चमकदार अक्षरों में लिखा था -

'शासकीय सरग निसैनी, मतलब

(मरने वालों के लिये सरग जाने का सरकारी मार्ग)

ग्राम - भोलापुर,

तहसील - अ, जिला - ब, (क․ ख․)।'

और साथ में उसके नीचे

यह नोट भी लिखा था -

'यह निसैनी दिव्‍य है

केवल मरने वालों को दिखता है।

 

देखना हो तो मरने का आवेदन लगाइये,

सरकारी खर्चे पर स्‍वर्ग की सैर कर आइये।

जनहितैषी सरकार की

यह निःशुल्‍क सरकारी सुविधा है

जमकर इसका लुत्‍फ उठाइये

जीने से पहले मरने का आनंद मनाइये।'

महा-विश्‍वकर्मा के इस उपाय पर

राजा भोज बलिहारी है

और इसीलिए

अब उसके प्रमोशन की फूल तैयारी है।

मरहा राम चिल्‍लाता नहीं है तो क्‍या हुआ,

समझता तो सब है

अपनों के बीच जाकर कुड़बुड़ाता भी है

आज भी वह कुड़बुड़ा रहा था -

''यहा का चरित्त्‍ार ए ददा!

राजा, मंत्री, संत्री, अधिकारी

सब के सब एके लद्दी म सड़बड़ हें

बहुत गड़बड़ हे,

ददा रे! बहुत गड़बड़ हे।''

 

गंगू तेली सुन रहा था

मरहा राम का कुड़बुड़ाना उसे नहीं भाया

पास आकर समझाया -

''का बे! मरहा राम!

साला, बहुत बड़बड़ाता है?

समझदार जनता को बरगलाता है

अरे मूरख

यहाँ के सारे राजा ऐसेइच्‌ होते हैं

परजा भी यहाँ की ऐसेइच्‌ होती है

यहाँ तेरी बात कोई नहीं सुनेगा

इत्ती सी बात तेरी समझ में नही आती है?''

लोग वाकई खुश हैं

कभी राजा भोज के

पिताश्री के श्राद्ध का पितृभोज खाकर

तो कभी उनके स्‍वयं के

जन्‍म-दिन की दावत उड़ाकर

झूठी मस्‍ती में धुत्त्‍ा्‌ हैं।

 

मरहा राम अब भी कुड़बुड़ा रहा है,

तब से एक ही बात दुहरा रहा है -

''कुछ तो समझो,

अरे, साले अभागों,

कब तक सोते रहोगे,

अब तो जागो।''

000

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कुबेर

जिला प्रशासन (राजनांदगाँव) द्वारा

गजानन माधव मुक्तिबोध

सम्‍मान 2012 से सम्‍मानित

(जन्‍म - 16 जून 1956)

प्रकाशित कृतियाँ

1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003

2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009

3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010

4 - कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011

5 - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्तीसगढ़ी लोक-कथाओं का संग्रह) 2013

प्रकाशन की प्रक्रिया में

1 - माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्‍यंग्‍य संग्रह)

2 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)

3 - सोचे बर पड़हिच्‌ (छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह)

4 - ढाई आखर प्रेम के (अंग्रेजी कहानियों का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद)

संपादित कृतियाँ

1 - साकेत साहित्‍य परिषद्‌ सुरगी, जिला राजनांदगाँव की स्‍मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010, 2012

2 - शासकीय उच्‍चतर माध्‍य. शाला कन्‍हारपुरी की पत्रिका 'नव-बिहान' 2010, 2011

पता

ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.)

पिन - 491441

मो. - 9407685557

 

कुबेर

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बहुत ही सुन्दर, भावपूर्ण और सशक्त लेखनी | शानदार अभिव्यक्ति | सादर आभार |

    आप भी कभी यहाँ पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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रचनाकार: कुबेर की हास्य व्यंग्य कविता - भाया! बहुत गड़बड़ है
कुबेर की हास्य व्यंग्य कविता - भाया! बहुत गड़बड़ है
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