लोअर परेल धागे पर धागे धागे पर धागे कौन-सा स्पूल कोई करघा वो चरखा क्या है न बुना न उलझा, ताना न बाना, सूत गिरणी कहाँ झाँकती ईंट-...
लोअर परेल
धागे पर धागेधागे पर धागे
कौन-सा स्पूल
कोई करघा
वो चरखा
क्या है
न
बुना
न
उलझा,
ताना
न
बाना,
सूत गिरणी कहाँ
झाँकती ईंट-दीवारों से
धुएँदार पस्ती
दशकों से बंद
हलचल
थम चुके चर्चे
बेरोज़गारी के
साज़िशें फली-फूलीं बहुत
अरबों की सम्पत्ति
धुआँती आकृतियाँ
खो चुकीं वजूद
रेशमी सफ़ेद कुरते में
देवदूत विराजे हैं, अब
यहाँ।
भद्रावती
'सिलिका जेल'नमी सोखा हुआ
सुंदर नीला और बैंगनी-सा
चमकता
आकर्षित करता दृष्टि सहज
होता सुखकर सफेद
चमक और लावण्य से रहित
वीरान पृथ्वी की तरह
दूर-दूर तक नहीं दीखता
हरी दूब का कोई एक कुश
मरुस्थल की मरीचिका
जल होना जीवन
आता न समझ
तीव्र आभास और अहसास के साथ
बह रहे हों जब झरने ही झरने
बैतूल से इटारसी और होशंगाबाद से
बुदनी तक
जंगल हों हरे कंच
सोखकर नमी वातावरण की
रणथंभौर के वन
इतराएँ प्रगल्भ
गो सावन और भाद्रपद में
सूखी हो धरा
कंकड़ और रेत
दूधिया दाँतों से पटे हों नदी नाले
पथरीले पठ्ठों का बँधा पानी
सड़ जाए
दो अगंतुकों के स्नान से
दो ही दिनों में
दुर्भाग्य नहीं तो
क्या इसको कहेंगे?
छटपटाहट
बिन जल मीन की
लैंडस्केप
हाशिये परलिखे शब्द
अचानक
उछलकर
हो गए हैं बाहर
पृष्ठ से
कैनवास
सांध्य बेला की तरह
है उदास
छिटक गए हैं रंग
लैंडस्केप पर
बेढंगे
फिर भी नहीं है
कहीं कुछ
अप्राकृतिक
अस्वाभाविक
जीवनसंगिनी
हाँ मैंतुम पर कविता लिखूँगा
लिखूँगा बीस बरस का
अबूझ इतिहास
अनूठा महाकाव्य
असीम भूगोल और
निर्बाध बहती अजस्त्र
एक सदानीरा नदी की कथा
आवश्यक है
जल की
कलकल ध्वनि को
तरंगबद्ध किया जाए
तृप्ति का बखान हो
आस्था, श्रद्धा और
समर्पण की बात हो
और यह कि
नदी को नदी कहा जाए!
जन्म, मृत्यु, दर्शन, धर्म
सब यहाँ जुड़ते हैं
सरिता-कूल आकर
डूबा उतराया जाए इनमें
पूरा जीवन
इस नदी के तीर
कैसे घाट-घाट बहता रहा
भूख प्यास, दिन उजास
शीत-कपास
अन्न की मधुर सुवास
सब कुछ तुम्हारे हाथों का
स्पर्श पाकर
मेरे जीवन जल में
विलीन हो गया है
अच्छा कवि
तुम हो
एक अच्छे इंसान
बन्द रखो डिब्बे में
अपनी कविताएँ
मुश्किल है थोड़ा
अच्छा कवि बन पाना
कुछ तिकड़म
चमचागिरी थोड़ी और
अच्छा पी. आर.
नहीं तुम्हारे बस का
कविताएँ अपनी
डिब्बे में बंद रखो
आलोचकों को देनी होती
सादर केसर-कस्तूरी
संपादक को
मिलना होता कई बार
बाँधो झूठी तारीफ़ों के पुल पहले
फिर जी हुजूरी और सलाम
लाना दूर की कौड़ी कविताओं में
असहज बातें,
कुछ उलटबासियाँ
प्रगतिशीलता का छद्म
घर पर मौज-मजे, दारू-खोरी
निर्बल के श्रम सामर्थ्य का
बुनना गहन संजाल
न कर पाओगे यह सब
तो कैसे छप पाओगे
महत्वपूर्ण, प्रतिष्ठित
पत्र-पत्रिकाओं में?
क्योंकर कोई, बेमतलब
तुम्हें चढ़ाएगा ऊपर?
बन्द रखो डिब्बे में
अपनी कविताएँ
आतप
फिर फूले हैंसेमल,टेसू, अमलतास
हुआ ग़ुल मोहर
सुर्ख़ लाल
ताप बहुत है
अलसाई है दोपहरी
साँझ ढले
मेघ घिरे
धीरेधीरे खग,मृग
दृग से ओट हुए
दुबके वनवासी
ईंधन की लकड़ी पर
रोक लगी जंगल में
वनवन भटकें मूलनिवासी
जल बिन
बहुत बुरा है हाल
तेवर ग्रीष्म के हैं आक्रामक
कैसे कट पाएँगे ये दिन
जन मन,पशु पक्षी
हुए हैं बेहाल
…………..
गीत बहुत बन जाएँगे
यूँ गीत बहुतबन जाएँगे
लेकिन कुछ ही
गाए जाएँगे
कहीं सुगंध
और सुमन होंगे
कहीं भक्त
और भजन होंगे
रीती आँखों में
टूटे हुए सपने होंगे
बिगड़ेगी बात कभी तो
उसे बनाने के
लाख जतन होंगे
न जाने इस जीवन में
क्या कुछ देखेंगे
कितना कुछ पाएँगे
सपना बन
अपने ही छल जाएँगे
यूँ गीत बहुत
बन जाएँगे
लेकिन कुछ ही
गाए जाएँगे
…………
छवि खो गई जो
हो गई रात
स्याह काली
नीरव हो गया
वितान खग,मृग सब
निश्चेष्ट
दृग ढूँढ़ते वह
छवि खो गई जो
बढ़ रहा
अवसाद तम सा
साथ रजनी के
छोड़ तुमने दिया साथ
कुछ दूर चल के
रह गया खग
फड़फड़ाता पंख
नील अंबर में
भटकता चहुँओर
वह
लौटेगा धरा पर
होकर थकन से चूर
अनमना बैठा रहेगा
निर्जन भूखण्ड पर
अप्रभावित, अलक्ष
……….
जग के व्यापार से समभाव हुए हैं
भाव बहुत बेभाव हुए हैंदिन तो दिन रातों के भी अभाव हुए हैं
कितने अँधियारे कष्टों में काटे
उजियारे कितने अलगाव हुए हैं
अपने अपने किस्से हर कोई जीता है
औरों के किस्से किससे समभाव हुए हैं
दूर निकल आए जब तक भ्रम टूटे
वक्त बहुत बीता बेहद ठहराव जिए हैं
नहीं कहूँगा दुख मैं इसको
सुख ने भी कितने घाव दिए हैं
भाव बहुत बेभाव हुए हैं
……….
लघु कविताएँ
(एक)काव्य सृजन
कंसीव्ह हुआ
कोख में पला
बन विकसित हुआ
नियत समय बाद
तेज हुई
प्रसव वेदना
जन्म हुआ
कविता का
(दो)
सामने पहाड़ का टुकड़ा
जैसे गोवर्धन पर्वत
होगी जब अतिवृष्टि
नाराज होने पर इन्द्र के
उठा लेंगे कृ़ष्ण इसे
एक उँगली पर
शरण पाएँगे समस्त मरुवासी
इसके तले
इस मरुभूमि पर
ऐसा भी होगा कभी
बहुत रोमांचक है यह कल्पना
(तीन)
न कलम हिली
न अमलतास
न बादल हटे
न सूरज उदास
हवा चली
घूमने लगा
एक्झॉस्ट फैन
कुछ हिले पत्ते
कुछ हिली डालियाँ
गाने बजे
गज़लें चलीं
सड़क पर
आवारा गायें चलीं
बुझी बुझी निगाहें चलीं
(चार)
दूर दूर तक
रंग हुए बेरंग
अच्छे न रहे
बिजली भी है
टेलीफोन भी
मोटर भी,गाड़ी भी
अनजान रस्ता
अनजान डेरा
दूर है मंजिल
(पांच)
अफ़सोस भी है
आक्रोश भी
असफलता भी है
असमर्थता भी
जो भी है
नीले आसमान पर
बादलों का
पैच वर्क है
(छः)
यही नर्क है
निर्मल बहती कोई
सरिता नहीं है
ये जिंदगी एक जंग है
कविता नहीं है
हायब्रिड
खिले हैं गुलाब
बड़े बड़े
सुर्ख लाल
फिरोज़ी
हल्के नीले
सुगंध नहीं इनमें
जैसे भावनाविहीन
सुंदर शरीर
शैलेन्द्र चौहान
जन्म : २१-१२-१९५४ ( खरगौन )
शिक्षा : प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा ( विदिशा जिले के ग्रामीण भाग में )
बी.ई. ( इलेक्ट्रिकल ) विदिशा से
लेखन : विद्यार्थी जीवन से प्रारंभ
कविताएँ एवं कहानियाँ,
बाद को आलोचना में हाथ आजमाए,
वैज्ञानिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक लेखन भी
प्रकाशन : सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन
कविता संग्रह : नौ रुपये बीस पैसे के लिए, १९८३ में प्रकाशित
श्वेतपत्र दो दशकों के अंतराल के बाद 2002 में व
और कितने प्रकाश वर्ष 2003 में
ईश्वर की चौखट पर 2004 में
कहानी संग्रह : नहीं यह कोई कहानी नहीं, १९९६ में प्रकाशित
कथा रिपोर्ताज (संस्मरणात्मक उपन्यास) "पाँव जमीन पर" २०१० में
संपादन : धरती अनियतकालिक साहित्यिक पत्रिका, जिसके कुछ अंक, यथा गज़ल अंक, समकालीन कविता अंक, त्रिलोचन अंक, कवि शलभ श्रीराम सिंह और शील अंक चर्चित रहे,
अन्य : श्री रामवृक्ष बेनीपुरी पर सामान्य जन संदेश का बहुचर्चित विशेषांक संपादित,सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी कुंदनलाल गुप्त, शिव वर्मा एवं अमर शहीद महावीर सिंह की
संक्षिप्त परिचयात्मक जीवनियां प्रकाशित
संप्रति : एक सार्वजनिक उपक्रम में उप महाप्रबंधक
संपर्क : ३४/२४२, सेक्टर-३, प्रतापनगर, जयपुर -३०२०३३
फोन : +९१ ७८३८८९७८७७
ई मेल : shailendrachauhan@hotmail.com
shailendrachau@gmail.com
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(ऊपर का चित्र- इंदुबाई मरावी की कलाकृति)
छोटी छोटी गगरियों में जाने कितने सागर हैं। गतिमय एवं भाव प्रवण रचनायें।
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