मित्रो , साहित्यिक सामग्री की चोरी बहुत प्राचीन समय से होती आ रही है यह कोई नै बात नहीं है . शेक्सपिअर से लेकर डॉ. रामचंद्र शुक्ल तक चोरी के...
मित्रो ,
साहित्यिक सामग्री की चोरी बहुत प्राचीन समय से होती आ रही है यह कोई नै बात नहीं है . शेक्सपिअर से लेकर डॉ. रामचंद्र शुक्ल तक चोरी के इल्जाम लगे हैं।लेकिन उन दिनों इस तरह चोरी करना एक तो गलत माना जाता था दूसरे ऐसा करने के लिए काफी श्रम भी करना पड़ता था। आजकल इन्टरनेट युग में यह बेहद आसान हो गया है. इसलिए इस तरह के चोरों की संख्या में बहुत जियादा बढ़ोत्तरी हुई है। मेरा एक लेख था 'वैज्ञानिक चेतना और साहित्य' जो मैंने दो दशक पूर्व अपनी विभागीय पत्रिका के लिए लिखा था पर सुधि मित्रों को यह अच्छा लगा इसलिए अन्यत्र भी प्रकाशित हुआ. एकदिन मैंने देखा कि इसका आधा हिस्सा किसी अन्य के आधे हिस्से के साथ मिलाकर सह्त्यिक पत्रिका 'सबके दावेदार' के एक अंक में किसी महिला हिंदी अधिकारी के नाम से छपा है। मुझे ख़राब लगा। मैंने सोचा कि पत्रिका के संपादक जो मेरे मित्र हैं उन्हें पत्र लिख कर इस बावत सूचना दूं पर कुछ दृढ निश्चय न कर सका और आलस्यवश यह सोच कर संतुष्टि कर ली कि मेरी बात इस तरह कुछ और लोगों तक पहुँच रही है।
ऐसे ही शमशेर बहादुर सिंह जन्म शताब्दी वर्ष में मैंने उनपर आलोचनात्मक लेख लिखा और एक पत्रिका में प्रकाशनार्थ भेज दिया। उस पत्रिका के प्रकाशन से पूर्व इन्टरनेट की एक साईट पर उससे काफी मिलता जुलता एक लेख पढ़ा मुझे भ्रम हुआ कि कहीं यह मेरा लेख ही तो नहीं, मिलाने पर देखा दो-तिहाई सामग्री समान ही थी. मैंने साईट पर आपत्ति जताई तो मेरे मित्र कलकत्ता वि वि के प्रोफेसर ने समझाया कि संभव है कि दोनों लेखों में एक ही सोर्स से मदद ली गई हो। मैं असमंजस में पड़ गया यानि मैं ही नकलची तो नहीं ! मैंने तुरत यह सूचना उस संकलन के संपादक को दी कि वे यह लेख न प्रकाशित करें वरना मुझ पर चोरी का आरोप लग सकता है क्योंकि उस तरह का एक लेख इन्टरनेट पर पहले से ही मौजूद है पर वह लेख संकलन में प्रकाशित हुआ और यह देख कर मैं हैरान हो गया कि दूसरा वाला लेख भी उस संकलन में साथ में छपा है। अब इस बात का फैसला पाठक ही करे कि कौन असल है, कौन नक़ल। बहरहाल कंप्यूटर आने से कट-पेस्ट बहुत आसान हो गया है इसलिए नक़ल करना और चोरी करना भी आसन हो गया है। आज के समाज में अब नैतिकता जैसी बात भी उस तरह नहीं है कि शर्मशार हुआ जा सके. तो मित्रो मैंने सोचा कि इस बात को लोगों तक पहुँचाया जाये नेट पर कुछ खंगालने के बाद डॉ. अरविन्द मिश्र (साभार -'साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन') की यह टिप्पणी मेरे हाथ लग गयी जिसका एक अंश मैंने कॉपी कर लिया और यहाँ पेस्ट कर दिया है. इस सत्प्रयास हेतु मुझे क्षमा करें।
शैलेंद्र चौहान
इधर 'साहित्यिक चोरी का मामला बहुत बढ चला है और सृजनात्मक साहित्य के सृजन और प्रसार में बाधाएँ डाल रहा है -साहत्यिक चोरी यानी प्लेज्यरिज्म -(लातिनी मूल शब्द प्लेज्यर से उद्भूत जिसका अर्थ है अपहरण ) दूसरे के द्वारा रची सामग्री को अपने नाम से छाप लेने की दुष्प्रवृत्ति है .यह रचनाकार की सृजनात्मकता का खोखलापन उजागर करती है और एक तरह से से चौर्य प्रव्रत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करती है .विज्ञान पत्रकारिता /संचार में तो इस प्रवृत्ति का जैसे बोलबाला ही है .विज्ञान लेखन के लोक्प्रियकरण के नाम पर काफी कुछ इधर उधर की सामग्री ,पूर्व रचनाकारों की कृतियों से बिना आभार लिए उद्धरण देने का मानो एक ट्रेंड चल पडा है -कई हिन्दी चैनलों और ब्लागरों ने इस मामले को "चोर गुरू "प्रकरणों के नए पत्रकारिता -नामकरण के तहत उछाला है -कई लेखक ऐसे पाए गए हैं जिन्होंने इंटरनेट से पुस्तकों के अध्याय के अध्याय हूबहू छाप दिए है -ऐसा कर्म निश्चित तौर पर एक बड़ा कदाचार है .यह भी देखा जा रहा है कि कुछ लेखकों ने मूल स्रोत से तो प्रचुरता से सामग्री ले ली मगर उसका हवाला नहीं दिया .एक हादसा जो इस लेखक के साथ हुआ वह तो साहित्यिक चोरी के सारे पूर्व के दृष्टान्तों को भी धता बता गया -दिल्ली स्थित एक बड़े अखबारी समूह में भेजी एक विज्ञान कथा पुस्तक की समीक्षा किसी दूसरे लेखक के नाम से छाप दी गयी और उसे मानदेय भी पकड़ा दिया गया .यह हतप्रभ करने वाली घटना थी.साहित्यिक चोरी किसी दूसरे के शब्द-समूह ,विचार और सृजन कर्म को अपने नाम से छाप देना है -यह एक बौद्धिक चोरी तो है ही धोखाधड़ी की एक आम घटना है .यह बौद्धिक विमर्श के लिए एक कलंक है और सृजन कर्म ,मौलिक चिंतन के लिए बड़ा खतरा .
साहित्यिक चोरी के कई तरीके चोर गुरुओ ने इजाद कर डाले हैं -
१-शब्दशः चोरी -पूरा का पूरा वाक्य ,पैराग्राफ टीप लेना -ये आज के 'टीपू सुलतान' चोर गुरु हैं .अंतर्जाल पर तो यह कट एंड पेस्ट तकनीक से बहुत आसान हो चला है .
२-पैराफ्रेजिंग -यहाँ भी अंतर्वस्तु तो पूरी उडाई जाती है मगर कुछ हेर फेर कर दिया जाता है ,वाक्य रचना ,शब्द थोड़ा बहुत बदल दिए जाते हैं -मूल स्रोत का उल्लेख अगर किया भी जाता है तो किसी थोड़े से हिस्से के लिए ज्यादातर उद्धरण बिना स्रोत के उल्लेख के होता है .
३-द्वितीय स्रोत से चोरी -ऐसे जगहों से उद्धरण लिया जाता है जो किसी मूल स्रोत पर आधारित होते हैं मगर लेखक उन्हें ऐसे प्रस्तुत करता है जैसे उसने मूल स्रोत का भली भांति अध्ययन किया हो .
४-विचारों की चोरी -यहाँ विचार सूत्र कहीं और से होते हैं बस शब्द लेखक के होते हैं .
५-आथरशिप की चोरी -किसी के प्रकाशित /अप्रकाशित काम को अपने नाम से छाप देना है.'
पी-1703, जयपुरिया सनराइज ग्रीन्स, प्लाट न. 12 ए, अहिंसा खंड, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद - 201014
bahut hi satik aur achchhi jankari hai is tippani me.
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