डा श्याम गुप्त की दो गज़लें . वो चंद पल वो चंद पल जो तेरे साथ गुजारे हमने | ज़िंदगी के देख लिए सारे नज़ारे हमने | अब कोइ और समां भाता नहीं ...
डा श्याम गुप्त की दो गज़लें .
वो चंद पल
वो चंद पल जो तेरे साथ गुजारे हमने |
ज़िंदगी के देख लिए सारे नज़ारे हमने |
अब कोइ और समां भाता नहीं दिल को,
कर लिए पल वोही दिल के सहारे हमने |
क्या कहैं कैसे कहैं हाले-दिल किस से कहैं ,
खो दिए जो थे सनम जान से प्यारे हमने |
उनकी काज़ल से भरी आँखों में तो खोये लेकिन,
क्यों नहीं समझे निगाहों के इशारे हमने |
आवाज़ तो दो, कोई इलजाम ही दो चाहे,
आज लो जानो-जिगर तुम पे ही वारे हमने |
अब कहाँ ढूंढें तुम्हें दिल को सुकूँ-चैन मिले,
श्याम आजाओ कि ढूंढ लिए जग के किनारे हमने ||
हक़ है -----
अपनी मर्ज़ी से चलने का सभी को हक है।
कपडे पहनें,उतारें,न पहने,सभी को हक है।
फ़िर तो औरों की भी मर्ज़ी है,कोई हक है,
छेडें, कपडे फ़ाडें या लूटें,सभी को हक है।
और सत्ता जो कानून बनाती है सभी,
वो मानें, न मानें,तोडें, सभी को हक है।
औरों के हक की न हद पार करे कोई,
बस वहीं तक तो मर्ज़ी है,सभी को हक हैं।
अपने-अपने दायित्व निभायें जो पहले,
अपने हक मांगने का उन्हीं को हक है।
सत्ता के धर्म केनियम व सामाज़िक बंधन,
ही तो बताते हैं,क्या-क्या सभी के हक हैं।
देश का,दीन का,समाज़ का भी है हक तुझ पर,
उसकी नज़रों को झुकाने का न किसी को हक है।
सिर्फ़ हक की ही बात न करे कोई ’श्याम,
अपने दायित्व निभायें, मिलता तभी तो हक है॥
डा श्याम गुप्त
के -३४८, आशियाना, लखनऊ
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विजय वर्मा
वो जो हमारी
वो जो हमारी हस्ती मिटाने चले हैं
ये कह दो उनसे.हम नहीं बुलबुलें हैं .
सख़ावत को आओ तो पेश है सर हमारा
अदावत को आओ तो बस हम ज़लज़लें हैं.
बनती नहीं बात कभी अकेले-अकेले
मिलकर हो कोशिश तो पर्वत टले हैं. .
निराले है हम,हमारी अदा है निराली
सर हथेली पे रखे हम ऐसे मनचले हैं.
हर कुचक्रों की काट ख़ोज रखी है हमने
अगर वो है नहले,हम नहले-पे दहले हैं.
गायब है दुश्मनों की शेखी व शोखी
आज उनके खेमे में बस खलबलें हैं.
vijayvermavijay560@gmail.com
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अरुण कुमार सज्जन
मेरी कवितायेँ
सावधान
सावधान !आर्यपुत्र !
ख़त्म नहीं हुआ ,अभी तुम्हारा संघर्ष ,
शेष है अपकर्ष ,अभी तुंम्हारा ,
चुकि ,अभी भी
तुम्हारे हाथ सने हैं ,
खून से .
तुम नहीं जानते ,
दोष,निर्दोष का फर्क ,
तुम्हारे अंदर अभी भी भरी है ,
ईर्ष्या और प्रतिशोध की आग .
बालक और नारी,
अब नहीं रहे निरीह ,
तुम्हारी नज़रों में .
सावधान!
तुम अभी भी
मनुष्य नहीं ,पशु ही हो .
तुम्हे यात्रा करनी है ,
विकास की अभी
लम्बी ------दूरी .
-----------------
रास्ता
रास्ता ,
साफ ,सुथरा हो ,
दूर तक निखरा हो ,
जहाँ चले जन ,
बस्ता हो मन ,
औरों को आये काम ,
दिखलाये धाम ,
जहाँ दीखते हों राम .
--------------------------------
पेड़
------------
पेड़ ,
कहाँ देते फल
मौसम से पहले
पर, देते हैं ,
ऊर्जा सींचने की ,
सोंचने की .
उसकी छाया ,
देती है मुकाम ,
फिर -फिर चलने को ,
अनंत धैर्य रखने को ,
.-----------------
हवा
हवा ,
जो बदल दे रूख को ,
चुनाव नहीं ,
बदलाव को
समाज के बिखराव को .
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अरुण सज्जन
जमशेदपुर
आत्मकथ्य ;
मौलिक ग्राम --पूरा ,अंचल वजीरगंज
गया बिहार
शिक्षा; एम् ० ए ० [हिंदी ] बी ० एड ० पीएच ०डी ०
शोध पत्र ----डॉक्टर रामविलास शर्मा की हिंदी जातीय चेतना रांची विश्वविद्यालय
दो कविता संग्रह और एक आलोचना पुस्तक प्रकाशित
सम्प्रति ;वरीय हिंदी अध्यापक लोयोला स्कूल जमशेदपुर
मोबाइल 09334013836 email ;arunsajjan2011@gmail.com
------
सुधीर मौर्य
सितारों की रात
हाँ वैसी ही चांदनी रात
जैसी कभी तेरे
कनार में हुआ करती थी
पर आज कुछ तो
जुदा था
कुछ तो अलग
आज तुम
गैर हो रही थी
मेरी आँखों के सामने.
तेरे गैर होते ही
में निकल आया
तेरे मंडप से
हाँ वैसी ही
चांदनी रात
सितारों से भरी हुई
पर अब मेरी खातिर
सब वीरान था
हाँ वैसी ही चांदनी रात में
में भटकता रहा
और पहुँच वहां
जहाँ रहता था वो मलंग.
जिससे मिलना कभी
ख्वाहिश रही थी मेरी
शायद
आगाह था वो
दर्द से मेरे
तभी तो उसने
बताई वो जगह
जहाँ इकट्ठे होते हैं
वो सितारे
जिनका अपना कोई दर्द नहीं
औरों के दर्द के आगे
और यूँ
शुक्रगुज़ार हो के
उस मलंग का
मैं पहुँच गया
उस जगह जो थी दरम्यान
पहाडों के
हाँ वो सितारों की रात
हाँ वो बिखरी चांदनी
और तनहा वहां मैं
तेरे दर्द के साथ
मुझे इंतज़ार था
उन सितारों का
जो बकोल-ऐ-मलंग
नुमाया होते हैं
यहाँ इस रात को
रात का पहला पहर
और मेरी
मुन्तजिर आँखे
खैर और ज्यादा
मुझ इन्जार करना न पड़ा
ठंडी सबा बह चली थी
अचानक ही महक उठी थी
हर सिम्त
और वो साया
हवाओं में लहराता हुआ
आकर मेरे करीब
खड़ा हो गया था
कुछ ही फासला था
दरम्यां हमारे
वो हौले से बोली
तलाश हे तुझे
मुहब्बत की क्या
मैंने सर हिलाया था
इकरार में
मैंने सुने,
उसके वो लफ्ज़
जो दिल के साथ रू हतक
उतर रहे थे
क्या हे तुझ में जब्त
मुहब्बत का?
क्या निभाई तूने वफ़ा ?
मैं कुछ कहता
उससे पहले ही
वो बोली थी
अरे मैंने तो अपने हाथ से
उसकी दुल्हन सजाई हे
और मेरे होटों से सिसकारी निकली
'परवीन"
परवीन शाकिर
मेरे बोलते ही
वो साया
गर्दूं की तरफ
उड़ चला और में
शंकित वहीँ खड़ा रहा.
रात खिसकी
चांदनी छिटक चली थी
मुझे लगा
जैसे फजाओं में
बांसुरी बज
रही हो
हवाओं में
संगीत घुल चला हो
मैंने देखा
ठंडी हवा के साथ
लहराते हुए
एक साया
मेरे सामने आ गया था
वो बोली
प्रेम चाहता हे न तू
हाँ- मेरे लब हिले थे
आसान नहीं हे
प्रेम पाना
पीना पड़ता हे
हलाहल इसके लिए
वो बोलती
जा रही थी
त्याग करना होता है
घर का- लाज का
तब होता है प्राप्त
कहीं प्रेम
जैसे होंटों पे मेरे
नाम हे मेरे प्रेमी
गिरधर का
वैसी ही तपस्या
करनी पड़ेगी तुझे
मेरी आवाज़ निकली
"मीरा"
प्रेम और भक्ति की देवी
"मीरा"
मैंने महसूस किया
मेरे सर पर
उसके साये को
फिर ओझल हो गई
वो मेरी नजरों से
रात गहरा रही थी
अचानक हर तरफ
शांति छा गई थी
हवायें स्थिर हो चली थी
मैंने देखा
दूर पत्थर पे एक
साया बैठा हे
जिसकी काया
स्वर्ण की तरह हे
मुखमंडल पर आभा
देवों की मानिंद
'प्रेम की खोज में हो'
मुझे ऐसा लगा
जैसे सारा माहौल
यह आवाज़ सुनने को
बेचैन था
वो आगे बोला
प्रेम-किसी सुन्दर शरीर
को पाने का नाम नहीं
प्रेम
अरे प्रेम पाना हे
तो जाव उन बस्तियों में
जहाँ कराहते हें पीढ़ा से लोग
जानवरों के झुण्ड की तरह
हांकें जाते हें
वो जिन पर प्रतिबन्ध है
ईश्वर की पूजा तक पर
जा हांसिल कर
मानव जाती का प्रेम
बन जा उनका और
उन्हें अपना बनाले
और-मैं
मेरी ख़ुशी का
ठिकाना न रहा
मैंने गगन भेदी नारा लगाया
'बुध'- मेरे आराध्य
और मैंने देखा
मुस्कराते हुए वो साया
फजाओ में विलीन हो गया
अचानक
रात के सन्नाटे में
घंटे बजने की
आवाज़ आने लगी
ज्यूँ चर्च में बजते हैं
मेरे सामने
एक साया था
जिसके पैरहन फटे थे
और शरीर पे-ज़ख्म
मुहब्बत का
मारा हे न तू -वो बोला
यकीनन हासिल होगी
तुझे मुहब्बत
तू जा उन लोगो के दरम्या
जिनके खेत
मठाधीशों ने
गिरवी रख लिए
जिनके ढोर
मठों में रहने वाले हांक ले गए
वो जो निरपराध हें
फिर भी रोज सताए जाते हें
जा ले सकता हे तो
ले ले उन मज़लूमों का दर्द
हासिल कर ले उनकी मुहब्बत
हासिल कर ले
मैं धीरे से बोला
'खलील'-खलील जिब्रान
रात ढल चली थी
फजाओ में सादगी मचल रही थी
और में रूबरू था उस साये के
प्रेम-यही अभिलाषा हे
न तुझे
अरे मूर्ख-प्रेम तो मैंने किया हे
अपने देश से-अपने धर्म से
देख सकता हे तो देख
यह स्वर्णिमदेह
जो बार-बार
कुचली गई
विधर्मियों के हाथ
'नासिर' उसे भी इश्क था
धर्म से-वतन से
भुलादिया
तूने हमारा वो बलिदान
अरे जा
प्रेम कर - धर्म से
कुर्बान हो जा-उस पर
मिट जा
और अमर करदे
खुद को प्रेम में
मैं आत्मविभोर
होकर बोला
देवल-देवाल्देवी
हाँ भोर का तारा
उग चला था
और मेरे कानों में
आवाज़ पड़ी थी-उसकी
आ-मैं बताती हूँ
तुझे इश्क के बाबत
वो चांदी सी खनकती आवाज़ में बोली
- मैंने एक दुनिया बेच दी
और दीन खरीद लिया
बात कुफ्र की कर दी
मैंने आसमान के घड़े से
बदल का ढकना हटा दिया
एक घूंट चान्दनी पी ली
एक घडी कर्ज ले ली
और जिन्दगी की चोली सी ली
हर लफ्ज़
उसका अमृत था
जिसने मेरी
रूह के साथ
मेरी हसरतों को
भी अमर कर दिया
मैंने सरगोशी की थी
अमृता- अमृता प्रीतम
रात ख़त्म हो चली थी
सितारे
सहर की रौशनी में
विलीन हो चले थे
और में
आज जिसे
प्रेम का ज्ञान हुआ था
जो प्रेम की-
परिभाषा
समझ पाया था
चल पड़ा था एक नई
ताजगी- के साथ
एक नए मकसद की जानिब.
sudheermaurya1979@rediffmail.com
---
चंद्रेश कुमार छतलानी
वो हमारे इस तरह आने का सबब पूछेंगे,
खैरियत मेरी नहीं, कैसे हैं बाकी सब पूछेंगे |
लकीरें खिचेंगी खुशी की मन की दीवारों पे,
आँखों में सख्ती का तब हम सबब पूछेंगे |
दुआएं उनकी देखी है मैनें हर इक शै में,
लबों औ हर्फों में बददुआ का अदब पूछेंगे |
फ़रियाद से लबरेज़ अश्क रूक ना पायेगें,
हो गया कैसे उनमें नज़ारा-ए-रब पूछेंगे |
ज़ाहिर है जो चेहरे से उसको छुपा दें कैसे,
बन गया कैसे सलीके का मज़हब पूछेंगे |
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गरिमा जोशी पन्त
शहद से आंजी आँखें
कल रात कुछ ज्यादा ही
शहद से आंजी आँखे .
मुंदी ज्यूँ ही पलके
बूँद-बूँद रिस के दिल में उतर गया
मिठास सी घुल गई पुलक सी बन
आँखें खोली ,
जो देखा चहुँ ओर .
मांसल लगने लगा रुखा कैक्टस
गुलाबी फूल की छाया भी देखी
जैसे अपने मन की सुन्दरता
को सहेजे है कि
कोई शरारती बच्चा न बिखरा दे उस सुन्दरता को
एक ही झटके में
उसे पी कर आँखों से
फिर मूँद ली पलके
फिर दिल में उतरने लगी
मीठी बुँदे रिस कर क्यूँकी
कल रात कुछ ज्यादा ही
शहद से आंजी आँखें
कहीं तो उगते होंगे
दुपटे में मुँह छिपाए
डरी सहमी मैं एक युवती .
अश्लीलता आतंक और अराजकता
के घने होते जंगलों में
भाग रही हूँ ,
कनखियों से खोजती
मै एक डरी सहमी युवती ,
कुछ मिठास भरे शब्द
गीत गूंथने को
कहीं तो दुगते होंगे
आपको मिले तो दे देना मुझे
पिरो के मीठे शब्द ,
रख दूँगी संदूक में .
कई सालों बाद फिर
कांपते हाथों पर चमकती
आँखों से दूँगी
अपनी युवा होती नातिन को
पहन के थोड़ी देर
शायद खुश हो लेगी चुलबुली
जब देखा वो मंजर
उबलते सूरज की
झुलसती धूप में आँखें मिचमिचाते
रखा पैर आज बाहर .
सोचा कविता लिखे समय हो गया .
कुछ सामान ले आऊं
जिससे एक कविता बना लूं
कटाक्ष करती या प्रेम बरसाती
सुन्दरता बयां करती प्रकृति की .
बहुत कुछ मिला
पीपल की छाँव,
बरगद की जटा ,
सूखे पत्तों की चरमर ,
गुलमोहर के सुर्ख गुच्छे ,
गुमटी पर बैठे मिलावटी छाछ
और फलों के रस पीते लोग
कोयला, रेल , घोटालों, चुनाव पर
वार्ता करते आमजन और उड़ते अखबार ,
समर कैम्प के स्वीमिंग पूल से
निकले खिलखिलाते बच्चे ,
गर्मी के फैशन के नज़ारे।
बहुत सामान जुटा लिया था
कविता लिखने को।
जैसे ही घूम कर घर का रुख किया
कि अब ए . सी चलाऊं
और झटपट लिख दूं एक दो क्या
कई कवितायें ...... कि कुछ
चार - पांच बच्चे दिखे नंग- धनंग
छोटे- छोटे।
तपती धरती पर नंगे पैर, फूले- फूले थैले लटकाए
कन्धों पर
कचरा बीनते।
उनकी बालों की रुक्ष जटाओं ने
एक पल को भुला दिया बरगद की जटाओं का नज़ारा ,
मटमैले चेहरों पर उनके पसीने से बनी आकृतियों ने
हर फैशन की छुटटी कर दी
और जब कचरे के ढेर से उन्होंने कुछ
थैलियों में से आम और तरबूज के फेंके गए छिलकों को
खाने के लिए जो बन्दर बाँट की
सहसा घोटालों पर कटाक्ष करने तो तत्पर
मेरी कलम की स्याही तेज गर्मी में सूख गई
और आँखों के साथ ही मन और उसमे छिपी
कई इच्छाएं पिघल गई .
----
कुणाल की कविताएँ
१ ‘तेरे बिन कोई शाम ’
ये शाम अजीब है
देर तक
देखता हूँ मैं
डूबते सूरज को
उसकी रोशनी
लहू सी
लाल लाल हो जाती
मैं उसे
छू कर पकड़ने की
नाकाम कोशिश करता
जैसे
मैं तेरी
तस्वीर भर लेता हूँ
मन में और
मेरे हाथों में
सिर्फ
इस पल की याद रह जाती है !
२.
. मैं अक्सर
अकेला होता हूँ
अंदर ही अंदर
चिल्लाता
बहुत जोर से चिल्लाता
गहरी साँस भर
ताकत लगा जोर से
मुठ्ठी भींचता
तो मेरे चेहरे पे
सिकन सी पड़ जाती
बुदबुदाता हूँ
अपनी पीड़ा
अपने ही में
कई रास्तें अँधेरे मे
बाहें फैलाएं खडें है
और मैं आकाश के नीचे
तलाशता हूँ अकेला
सुनसान अँधेरी रातों में
तुम्हें
मृत्यु की तरह
छाई काली रात भी
मेरे अकेलेपन को
अपने साथ बाँटने में
हिचकिचाती है
मैं बारिश मे भीगें मौसम की तरह
तर होकर चले जा रहा
बस चलता ही जा रहा !
--
शशांक मिश्र भारती की तीन कविताएं
साम्पदायिकता
एक-
दबी हुई चिन्गारी
जोकि आज तक शान्त थी
आतुर थी शनैः-शनैः
बुझपाने को,
लेकिन-
आज उसको दी गई हवा
स्वार्थ में डूबे दरिन्दों से,
जिन्होंने-
अपने कार्यों से कार्य कर दिया
अल्पसमय में ही
अग्नि में घी डालने का,
और-
बढ़ाकर के उस चिन्गारी का अस्तित्व
साम्प्रदायिकता का नाम दिया।
जिससे-
बिलखने लगे हैं बच्चे, युवा और बृद्ध
और-
साम्प्रदायिकता की अग्नि में
अपने स्वार्थ की सेंकी रोटियां
विभिन्न राजनीतिक व धार्मिक दलों ने
अपने द्वारा कुकृत्यों को कर।
----
एकान्तिका
वह
जहां रहता था
न था उसका कोई प्रिय और
न ही परिजन
जो-
उसके सुख-दुख के क्षणों में
सहयोगी बन सके, बिल्कुल अकेला
विलग-
मानवों और सघन कोलाहल से
बस्तियों से दूर
आश्रय विहीन
शान्ति के आगोश में स्थित
जहां-
सुनायी देता था सिर्फ-
पक्षियों का कलरव
और-
निशा की सुनसान सायं-सायं
वह-
बीत रही रात्रि में था
अपने में-
अति आनन्दित होता
वहां की शान्त निरुपम
उस एकान्तिका में।
----
सफल नेता
जो व्यक्ति खद्दर पहनकर
आम सभाओं में
दो-चार शब्द चिल्लाये
चार-छः महफिलों और
चुनावों के दौरों पे जाये
नेता बनते ही
मंच पर आकर
अपने भाषणों के छक्के लगाकर
विरोधी नेताओं को-
अपने व्यंग्य बाणों से हराये।
वादे ऐसे करे
जहां स्वंय न पहुंच पाये,
किन्तु-
जनता को अपने
वाक्जाल में फंसाकर
वोट बैंक बढ़ाये,
वह एक सफल नेता कहलाये।
shashank.misra73@rediffmail.com
हिन्दी सदन बड़ागांव शाहजहांपुर - 242401 उ.प्र. 9410985048
---
गिरिराज भंडारी
ग़ज़लें
तासीर में ये सभी शरारे
*******************
हर तरफ आंसुओं की धारे हैं
उनकी खामोशियाँ भी मारे हैं
आओ तूफाँ से दोस्ती कर लें
फिर कहेंगे कि हम किनारे हैं
हद हैवानियत की आ पहुँची
इंसानियत को बहुत उतारे हैं
फिर बचाने को कई आयेंगे
बालीवुड के बडे सितारे हैं
लफ्ज़ इनको न समझना यारों
तासीर में ये सभी शरारे हैं ( शरारे =चिंगारी )
मुझे बहलाने की कोशिश छोड़ें
नज़र के आगे , सब नज़ारे हैं
हम में कुछ साजिशों चंगुल के
और कुछ चुप्पियों के मारे हैं
---
हम भी, माँ काली सभी होते रहेंगे
************************
क्या ख्वाब ही ख्वाब संजोते रहेंगे
और काम के वक़्त में सोते रहेंगे
जिस जगह दादा कभी कुर्सी में बैठे
सुन रहे हैं उस जगह पोते रहेंगे
अब तो अमृत वृक्ष के पौधे उगायें
कब तलक ज़हर ही हम बोते रहेंगे ?
मुस्कुराहट पे हमारा भी तो हक़ है
कब तलक घुटते रहें,रोते रहेंगे ?
उनकी साजिश है, दीवारें उठें ,पर
क्या हमारी शक्ति हम खोते रहेंगे ?
रक्त बीजों की तरह बढ़ते अगर हैं
हम भी, माँ काली सभी होते रहेंगे
----
जगदीश बाली
आग
सीने में मेरे धधक रही है आग,
डरता हूं कहीं जल ना जाऊं अपनी आग में !
कभी सुलगती, कभी पड जाती शीतल,
फ़िर अचानक धधक उठती है आग !
शायद ज़िन्दा हूं मॆं भीतर से,
तभी धधकती है ये आग !
मर जाऊं अगर मॆं भी भीतर से,
तो शायद हो जाऊं मॆं भी शान्त, निश्चेत,
ऒर फ़िर शायद नहीं धधकेगी ये आग !
पर क्यों हो जाऊं मैं अचेत, निश्चल ?
क्यों हो जाऊं मॆं शामिल इस भीड़ में ?
नहीं, मैं जीना चाहता हूं इस तरह से,
कि धधकती रहे ये आग !
आज मेरे सीने में जलती,
कल हर सीने में जलाना चाहता हूं मैं ये आग !
jagdishchandbali@gmail.com
----
राजीव आनंद
भ्रष्ट
क्या खूब है उनका ये अंदाज-ए-भ्रष्टाचारी
दीमक की तरह चाटते रहते है वो फंड सरकारी
पहुंच चुके है वो भौतिक समृद्धि के चरम पर
नापते नहीं पर अपनी चारित्रिक पतन की गहराई
ठूंस लिया है खजाने में सात पुश्तों का रसद
जनता गरीब भूख से तड़प-तड़प के है जान गंवाई
फैलाकर अंधकार जन-जन के जीवन में
जश्न मनाते संतरंगी आभा में खूद जीवन बिताई
प्यास होंठों पर जम गयी पीने को जल मयस्सर नहीं
खाए-अघाए लोगों ने टकरा के जाम छलकायी
बेरोजगारों को नौकरी सरकार कराती नहीं मुहैया
भत्ता देकर बेरोजगारों की फौज को है आलसी बनायी
कौन कहता है खत्म हो गया जंमीदारी प्रथा देश में
मंत्रियों ने देश में अपनी-अपनी है जमींदारी बसायी
---
सीताराम पटेल
एक और एकलव्य
शारदा माता
मैं आपका पुजारी
मुझे हो रहा
अक्षरों की लाचारी
छोटी कुटिया
जन्मस्थान हमारा
भगवती माँ
बस तेरा सहारा
नहीं देखा मैं
बहन आपकी श्री
बस सुना हूँ
रात में निकलती
उल्लू सवारी
बड़े नेत्र डराती
अँधेरी रात
घटा है घनघोर
रूप सौन्दर्य
करती है अंजोर
मैं जाता डर
कैसे आएगी घर
वो जाती वहाँ
जो खाते हैं दूसर
जहाँ रहता
बड़े बड़े पत्थर
पायल ध्वनि
सुनते रूनझून
इनकी लाठी
इनकी सब भैंस
चाहते हैं जो
हाँकते है उधर
मैं सब जानूँ
नीचे पानी बहते
जो होते मोटे
बड़े मेढ़ बनाते
अपनी ओर
सब कुछ ले जाते
गौटिया सेठ
सब हैं साले चोर
मौसेरे भाई
इनकी मंत्री
इन्ही की है संतरी
नागफणी-सा
उगे परती जमीं
गोचर भांठा
सबको चाब खाए
कितना करूँ
इनकी यशःगान
मया पिरीत
इतने हैं उदार
बढ़ रहा है
कुमारी का उदर
हैं धन्ना सेठ
कौन सकेगा मेंट
कर्म का लेख
भैंसा सा है ताकत
प्रस्वेद तन
जाउँगा कर्मरत
नहीं मालूम
चौमास शीत ग्रीष्म
बैठे रहेंगे
छाता धर मेढ़
पीउँगा चोंगी
घुड़केंगे मालिक
क्वाँरू तुमको
कमाना है कि नहीं
मैं डरकर
बुझाउँ मूठ पर
नरियाता हूँ
अर्र तता अर्रर
जेठू का भैंस
चर रहा है मेढ़
भैंसा बीजार
देखते ही देखते
दौड़ा उधर
चँदवा भैंसा
लगा हल का फाल
उसे उबार
देते हैं मुझे फांद
मारे तुतारी
कितना चलूँ साथ
भैंसा बीजार
जाता थक के गिर
अनचेताय
धरती पर पड़े
थोड़ा समय
होता हूँ मैं सचेत
झूठा संसार
खेत में हूँ अकेला
भूती मंजूरी
चार अंगुल पेट
रात में आया
लगा था दरबार
पूजा अर्चना
नहीं जानता हूँ माँ
पट देहाती
अनपढ़ गँवार
अर्न्तयामी माँ
आप है मेरी माता
मैं हूँ बालक
नाराज मत होना
कालिदास सा
मैं भी विद्या माँगता
मेरे उपर
हुआ देवी प्रसन्न
दे वरदान
भारती पूजा कर
विद्या वैभव
चुराते नहीं चोर
खर्च करोगे
विपरीत बढ़ेगा
उसी दिन से
कर रहा अर्चना
बालपन में
कौन किया पालन
मालूम नहीं
इतना जानता हूँ
शिवमंदिर
रामसागर ताल
बुहारता मैं
सुबह और शाम
दया करके
देते हैं बासी वासी
पुआल बिछा
वहाँ पर जाता सो
किस्मत पर
कितना मैं रोउँगा
वो जो दे देते
करता हूँ संतोश
पहनता हूँ
अंबर उतरन
खेलते बच्चे
मैं उठाता गोबर
देता गौटिया
गोंदली बासी मिर्चा
जिसको जाता
जल्दी जल्दी निगल
पेट भरता
टर्रात मैं उठता
थाली कटोरी
राख से मैं माँजता
शाला की ओर
मजे से निकलता
पेटला गुरू
बच्चों को पढ़ा रहे
बाहर बैठ
मैं उसको पढ़ता
तख्ता को देख
धूल पर लिखता
अक्षर ज्ञान
ऐसे मिले मुझको
अक्षर देख
गदगद हृदय
बच्चे मारते
भाग जाता हूँ फिर
कुरवां हूँ मैं
चाहे खाना रमंज
सभी मुझको
कलंक के नमक
उसमें मिला
कौन माँ बाप
पता नहीं मुझको
इसी कारण
भोगूँ मैं सभी दंड
सीधा इतना
भेड़ बकरी मारे
खाता हूँ मार
फिर नहीं भगता
बेहया हूँ मैं
मजा आता है मुझे
मजाक खेल
श्राद्ध हो गांव
पहचूँ उस ठांव
बिना बुलाए
अपना कथा सुना
परमेश्वरी
क्या कहना चाहता
खराब लगे
कहना भगवती
बुद्धिहीन हूँ
बेटा के वाणी सुन
नौ खंड भूमि
चौदह खंड नभ
कौन ऐसी माँ
जिसको लगे बुरा
गोरस पिया
हूँ मैं तेरा बालक
चिल्लाउँ जोर
सुनो माँ मेरे बोल
चौथ के चाँद
ढक लिया बादल
सरस्वती मां
छिपा श्वेत आँचल
घुनहा नीम
सिद्ध साधू सा खड़ा
शाँत प्रशांत
सन्नाटा है संसार
सो रहे सब
जाग रहा कबीर
छटपटा ले
जितना छटपटा
वह ही होगा
जो तेरे कर्म लिखा
नहीं रहते
एक साथ बहन
शारदा लक्ष्मी
वैभव और कलाएँ
मान सम्मान
अलग अलग है
धन औ कला
नहीं रहते साथ
भूखा अपढ़
करे गान गौटिया
सभी शोशक
कला की करे पूजा
आत्म कहानी
खत्म करता अभी
करना माफ
मत देना मां श्राप
आजकल माँ
कहाँ चली गई हो
खोज रहा हूँ
मैं आपको भारती
आप मिलेंगे
पीरा भूल जाउँगा
शारदा माता
रखना मेरा लाज
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नितेश जैन
बिना उसके ये जिन्दगी अधूरी है
अक्सर उसकी यादों ने मुझे तन्हा होने ना दिया
उसके ख्याल ने मुझे रातो में सोने ना दिया
उसकी मुस्कुराहट ने मुझे, रोने ना दिया
उसकी आंखो की सच्चाई ने मुझे, बिगड़ने ना दिया
उसकी बातों ने मुझे, कभी चुप रहने ना दिया
उसकी मंजिल ने मुझे, राहों में भटकने ना दिया
उसकी चाहत ने मुझे, किसी और का होने ना दिया
उसी से मैंने जीने की हर कला सीखी है
लेकिन बिना उसके ये जिन्दगी अधूरी है
कभी-कभी तो उसने मुझे बहुत तड़पाया
खुद से दूर कर अपने दीदार को तरसाया
लेकिन फिर भी मैंने मेरा दिल बस उसी को दिया
अपना हर लम्हा बस उसी के लिये जीया
मेरा पहला प्यार है वो कोई सपना नहीं
उस जैसा मैं हूँ मुझ जैसी वो नहीं
है गुजारिश रब से कि उसे मुझसे मिला दे
मेरा कल नहीं तो मेरा आज ही सवार दे
ना कोई रास्ता ना कोई मंजिल मुझसे रूठी है
लेकिन बिना उसके ये जिन्दगी अधूरी है
मुझे आज भी याद है वो दिन जब पहली बार मैं उससे मिला
तभी से शुरू हुआ हमारी मोहब्बत का ये सिलसिला
छोटे छोटे बहानों से वो मुझसे मेरे बारे में पूछती
मैं उसके काबिल हूँ या नहीं बस इसी बारे सोचती
लेकिन मेरा प्यार उसे मेरे नज़दीक खींच लाया
इस तरह मैंने उसके अन्दर बसे रब को पाया
अब तो बस उसके लिए ही जीना चाहता हूँ
लेकिन जाने क्यों उसे खुद से दूर ही पाता हूँ
उसके मिलने से हर एक ख्वाहिश हूई पूरी है
लेकिन बिना उसके ये जिन्दगी अधूरी है
niteshjinvani@gmail.com
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---सुन्दर कवितायें.....
जवाब देंहटाएंतुम अभी भी मनुष्य नहीं ,
पशु ही हो .
तुम्हे यात्रा करनी है ,
विकास की अभी
लम्बी दूरी --बहुत सटीक कहा कवि अरुण कुमार सज्जन को बधाई ...
सुन्दर ग़ज़ल है विजय जी की ... हाँ शायद
जवाब देंहटाएंबुलबुलें = बुलबुले
ज़लज़लें = जलजले
धन्म्य्वाद रवि जी सभी कविताएं लाज़बाव हैं...
जवाब देंहटाएंsabhi rachanye bahut hi aachi hai. Parantu mera ek sujaw hai ki sabhi rachanakaro ki kawitaye alag alag parkasit kare.
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