विराट शक्ति के प्रतीक-वीर हनुमानजी “ अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं दनुजवन कृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम सकलगुण निधानं वानरानामधिशं रघुपतिप्...
विराट शक्ति के प्रतीक-वीर हनुमानजी
“ अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं
दनुजवन कृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम
सकलगुण निधानं वानरानामधिशं
रघुपतिप्रिय भक्तं वातजातमं नमामि”
“अतुलित बलशाली, पर्वताकार देह के स्वामी, दुष्टॊं/राक्षसों के वन को सुखा देने वाले, ज्ञानियों में अग्रगणणीय, सकल गुणॊं के निधान, वानरों के स्वामी, रघुनाथ के प्रिय भक्त, पवनपुत्र श्री हनुमानजी को मैं नमस्कार करता हूँ” श्लोक में जैसा कि वर्णित किया गया है, उसी के अनुरुप श्री हनुमानजी विराट शक्ति के प्रतीक है और यही कारण है कि उनकी पूजा सम्पूर्ण भारतवर्ष में तथा विदेशों में भी सम्पूर्ण भक्ति एवं श्रद्धा के साथ की जाती है. आश्विन(चन्द्रमास-कार्तिक) के कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को स्वाती नक्षत्र और मेष लगन में माता अंजनादेवी के गर्भ से स्वयं भगवान शंकर पैदा हुए. अंजनादेवी के पुत्र होने के कारण उन्हें मारुति कहा जाता है. अंजनीपुत्र-पवनसुत,शंकरसुवन, केशरीनन्दन, संतशिरोमणी कविशिरोमणी आदि ,हनुमानजी के ही नाम हैं.
माँ अंजना किसी कार्य में व्यस्त थीं. बाल पवनपुत्र कॊ भूख लग आयी. उदित सूर्य को उन्होंने फ़ल समझा. भूख और तेज हो आयी. वे सूरज की तरफ़ लपके. पवनपुत्र होने के नाते, वे हवा में उड चले और सूरज को उन्होंने मुँह में भर लिया. सारे संसार में हाहाकार मच गया. सूरज के न रहने पर प्रकृति के सारे कामकाज रुक गए. हवा चलना बंद हो गयी. देवत्ताओं के राजा इन्द्र को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपना वज्र चला दिया. वज्र उनकी ठुड्डी में लगा. (ठुड्डी को संस्कृत भाषा में “हनु” कहा जाता है इसलिए उनका नाम हनुमान पडा.) अपने पुत्र पर वज्र के प्रहार से वायुदेव अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उन्होंने अपना प्रसार बंद कर दिया. वायु ही प्राण का आधार है, वायु के संचरण के अभाव में समस्त प्रजा व्याकुल हो उठी. प्रजा को व्याकुल देख प्रजापति पितामह ब्रह्मा सभी देवताओं को लेकर वहाँ गए,जहाँ अपने मुर्छित शिशु हनुमान को लेकर वायुदेव बैठे थे. ब्रह्माजी ने अपने हाथ के स्पर्ष से शिशु हनुमान को सचेत कर दिया. सभी देवताओं ने उन्हें अपने अस्त्र-शस्त्रों से अवध्य कर दिया.
पितामह ने वरदान देते हुए कहा-“ मारुत ! तुम्हारा यह पुत्र शत्रुओं के लिए भयंकर होगा. युद्ध में कोई जीत नहीं सकेगा. रावण के साथ युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाकार, यह श्रीरामजी की प्रसन्नता का सम्पादन करेगा. बाल्यावस्था में वे बडॆ नटखट थे. साधु-संतों को जानबूझकर तंग किया करते थे. सो उन्होंने श्राप दे दिया कि वे अपनी शक्ति को भूल जाएंगे. उन्हें अपनी शक्ति का भास तब होगा, जब श्रीराम सीता की खोज में जाएंगे और हनुमानजी को इस बाबत गुरुतर दायित्व सौंपेंगे. वह वक्त भी, जब जामवन्तजी हनुमानजी को याद दिलाते हैं –“हे पवनपुत्र-हनुमानजी ! आप वानरराज सुग्रीव के तुल्य हो. यही नहीं, प्रत्युत तेज तथा बल में तुम श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी के समान हो, गरुड के दोनों पंखों में जितना बल है, तुम्हारी दोनों भुजाओं में भी उतना ही बल और पराक्रम है. अतः तुम्हारा विक्रम एवं वेग भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं है. वानरश्रेष्ठ ! तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज, तथा उत्साह समस्त प्राणियों से विशिष्ठ अर्थात अधिक है. फ़िर तुम अपना स्वरुप क्यों नहीं पहचानते.?”. “वानरश्रेष्ठ ! मैं देखता हूँ कि भूमि, अंतरिक्ष, आकाश, अमरालय अथवा जल में भी तुम्हारी गति का अवरोध नहीं है. तुम असुर, गन्धर्व, नाग, नर, देवता, सागर, और पर्वत सहित समस्त लोकों को जानते हो. वीर महाकपे ! गति, वेग, तेज और फ़ुर्ती- ये सभी सदगुण तुममें अपने महापराक्रमी पिता वायु के ही समान है. तुम्हारे समान इस पृथ्वी पर दूसरा कोई तेजस्वी नहीं है. अतएव वीर ! ऎसा प्रयत्न करो जिससे सीता का शीघ्र पता लग जाए. नीतिशास्त्रविशारद हनुमान ! तुममें बल, बुद्धि, विक्रम,तथा देश एवं काल का अनुसरण और नीति का ज्ञान भी पूर्णरुप से है.”
हनुमानजी को अपनी भूली हुई शक्ति का तब अहसास हो आता है. तब महावीर हनुमानजी ने सभी को आश्वासन दिया और सौ योजन समुद्र को लांघ गए. सर्वथा अपरिचित लंकापुरी में उन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि, नीति, पराक्रम, बल, शौर्य का प्रदर्शन किया और रामजी की महिमा का यशोगान किया. राम-रावण युद्ध में उनके द्वारा प्रयोग मे लाया गया युद्धकौशल, पराक्रम, तेज, वेग,और फ़ुर्ती के बारे में हम सभी भलि-भांति परिचित हैं. श्रीरामचन्द्रजी से प्रथम भेंट के बाद से लेकर रामराज्य की स्थापना और बाद के अनेकानेक प्रसंगों को पढ-सुनकर हृदय में अपार प्रसन्नता तो होती ही है, साथ में हमें सदकर्मों को करने की प्रेरणा भी मिलती है.
श्रीमदहनुमानजी की जितनी भी स्तुति की जाए, कम ही प्रतीत होती है. श्री हनुमानजी के व्यक्तित्व को पहचानने के लिए यह भी आवश्यक है कि हम उनके चरित्र की मानवी भूमिका के महत्व को समझें. यदि हम यह विश्वास करते हों कि श्रीराम के रुप में स्वयं भगवान श्री विष्णु और मरुत्पुत्र के रुप में स्वयं शिव अवतारित हुए थे, तब भी हमको यह समझना चाहिए कि दैवी-शक्तियाँ दो उद्देश्य से अवतरित होती हैं. इन उद्देश्यों की सूचना गीता द्वारा हमें आज भी प्राप्त होती है. इन उद्देश्यों मे पहला उद्देश्य है-धर्मसंस्थापना और दूसरा है दुष्टसंहार. इनमें भी ध्यान देने की बात यह है कि दूष्टसंहार को पहला स्थान प्राप्त नहीं है. पहला स्थान धर्मसंस्थापन को दिया गया है. धर्मसंस्थापन के लिए जब भगवान और देवता मनुष्य समाज में अवतरित होते हैं, तब ठीक वैसा ही आचरण करते हैं,जो धर्माकूल और मनुष्यों जैसा ही हो. भगवान श्रीराम और रामसेवक हनुमान यावज्जीवन संहारकर्म के ही व्यस्त नहीं रहें. वे समाज के धर्म संस्थापन के कार्य में अग्रणी बनकर, जीवन भर उसका नेतृत्व करते रहे और जब आवश्यक हो गया, तभी उन्होंने शस्त्रों का उपयोग किया. इसलिए यह आवश्यक है कि हम हनुमच्चरित्र की मानवीय भूमिका को अपने जीवन में उतारें और युग-युग में व्याप्त धर्मसंस्थाना के कार्य में सहयोगी बनें एवं भारत का नाम रौशन करें.
इस प्रसंग के चलते एक बात बतलाना और भी आवश्यक हो गया है कि हनुमानजी द्वारा किस प्रकार गरुडजी ,श्रीचक्र एवं सत्यभामा का गर्व हरण किया था.
श्रीरामचन्द्रजी और श्री कृष्णजी के नाम और रुप में अन्तर जरुर है,वस्तुतः वे दोनों एक ही हैं. इसी तरह जनकनन्दिनी सीता और वृषभानु दुलारी राधाजी भी एक ही हैं. इसमे कोई भेद नहीं है और ज्ञानमुर्ति पवननन्दन श्री हनुमानजी भी इससे परिचित हैं, किन्तु उन्हें धनुर्धर श्रीराम और माता सीता ही अधिक प्रिय है. द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों के गर्वहरण के लिए पवनकुमार को ही निमित्त बनाया था. भगवान श्रीकृष्ण की प्राणप्रिया सत्यभामा को एक बार अपने सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी होने का और अपने स्वामी की सर्वाधिक प्रिय होने का घमण्ड हो गया था. उन्होंणे श्रीकृष्ण से पूछा –“क्या जनकदुलारी सीता मुझसे भी अधिक सुन्दरी थीं, जो आप उनके लिए वन-वन भटकते रहे?. इस पर श्रीकृष्ण ने कोई उत्तर नहीं दिया. इस प्रकार परम तेजस्वी श्रीचक्र ने भी इन्द्र के व्रज को पराजित कर दिया था. इस बात को लेकर उन्हें भी गर्व हो आया था कि उनके बलशाली होने की वजह से श्रीकृष्ण उनका बार-बार स्मरण करते हैं. ठीक वैसे ही प्रभु के वाहन गरुड को भी अपनी शक्ति और वेग से उडने का अभिमान हो गया था कि उन्होंने अकेले ही सुर-समुदाय को परास्तकर अमृत हरण कर लिया था तथा इन्द्र का व्रज भी उन्हें रोक नहीं पाया था. अपने इन तीन भक्तों का गर्व हरण करने के लिए श्रीकृष्णजी ने हनुमानजी का स्मरण किया. हनुमानजी तुरन्त ही द्वारका पहुँच गए और राजकीय उद्यान में पहुँचकर, एक वृक्ष पर चढकर फ़ल खाने लगे और वाटिका के वृक्ष तोडकर तहस-नहस करने लगे. जब यह समाचार द्वारकाधीश के पास पहुँचा तो उन्होंने गरुड से कहा-“ कोई बलशाली वानर वाटिका में घुस आया है. तुम सशस्त्र सेना लेकर जाओ और वानर को पकड लाओ.”
गरुड को यह सुनकर बडा आघात लगा. उन्होंने कहा-“ प्रभु, एक वानर को पकडने के लिए सेना ले जाने को कह रहे हैं.? मैं अकेला ही पर्याप्त हूँ”. प्रभु ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा-“ जैसे भी हो, उस वानर को पकड ले आओ.” परमशक्तिशाली गरुड राजोद्यान में पहूँचे. उन्होंने देखा. एक वानर वृक्ष पर बैठा फ़ल खा रहा है. उन्हें क्रोध हो आया. आँखें लाल हो आयीं. उन्होंने कहा-“ हे दुष्ट वानर, तू है कौन और वाटिका क्यों नष्ट कर रहा है.”. हनुमानजी ने कहा-“ मैं तो वानर हूँ और वही कर रहा हूँ, जो करना चाहिए.”.गरुड ने कहा-“अच्छा..तो चल महाराज के पास ’. श्रीहनौमानजी ने कहा-’मैं किसी महाराज के पास क्यों जाऊँ”.
इतना सुनते ही गरुड क्रोधित हो गए और उन्होंने कहा-“ सुन रे वानर, तू नहीं जानता,मैं कौन हूँ? तिस पर खिजाते हुए हनुमानजी ने कहा-“मैंने तुम्हारी जैसी कितनी ही चिडिया देखी है. अगर तुममें कुछ शक्ति हो तो दिखाओ.”. गरुड ने आव देखा न ताव और आक्रमण कर दिया. हनुमानजी ने उसे अपनी पूँछ में लपेट लिया तो गरुडजी छटपटाने लगे. फ़िर गिडगिडाते हुए गरुड ने कहा-“श्रीकृष्णजी ने आपको बुला भेजा है.”. हनुमानजी ने कसाव कम करते हुए कहा-“ मैं तो रामजी का भक्त हूँ, कृष्ण के पास क्यों जाऊँ?. गरुड को फ़िर क्रोध हो आया, तो हनुमानजी ने उन्हें उठाकर दूर समुद्र में फ़ेंक दिया और स्वयं मलयगिरि पर्वत पर चले गए. गरुडजी सीधे मुँह समुद्र मे गिरे और क्षण भर को मुर्छित हो गए और समुद्र का पानी पी गए. भींगे पंख ,लज्जित गरुडजी प्रभु के समीप पहुँचे. व्यंग्यपूर्वक कृष्णजी ने पूछा-“ समुद्र में स्नान करके आ रहे हैं क्या गरुडजी ?”.गरुडजी श्रीचरणॊं में गिर गए और बोले-“ प्रभु वह वानर असाधारण है और उसने मुझे समुद्र में फ़ेंक दिया था”. लेकिन इतने पर भी गरुडजी को अपने वेग से उडने का अहंकार शेष था. आगे की बात बतलाते हुए उन्होंने कहा-“हनुमानजी ने अपना परिचय देते हुए बतलाया था कि वे श्रीराम के अनन्य भक्त हैं और वे अभी मलयगिरि जा रहे हैं,
श्रीकृष्णजी ने गरुड से कहा- “तुम मलयगिरि जाओ और उनसे कहो कि तुम्हें श्रीरामचन्द्रजी द्वारका में बुला रहे हैं” गरुडजी प्रणामकर चल दिए. तब श्रीकृष्णजी ने सत्यभामा से कहा वे सीताजी का रुप धारणकर मेरे समीप ही बैठी रहें, क्योंकि श्रीहनुमानजी को सीता-राम का रुप ही प्रिय है.और फ़िर सुदर्शनचक्र को आज्ञा दी कि वे द्वार पर उपस्थित रहें और कोई भी मेरी अनुमति के बगैर अन्दर न आने पाये.
श्रीकृष्णजी स्वयं राम का रुप धरण कर बैठ गए. उधर गरुडजी अपने वेग से उडकर मलयगिरि पहुँचे और हनुमानजी से कहा कि आपको श्रीरामचन्द्रजी द्वारका में बुला रहे हैं हनुमानजी ने कहा कि तुम चलो, मैं आता हूँ.
गरुडजी अत्यन्त ही वेग से उडकर चल दिये. उधर पवनपुत्र द्वारका पहुँचे तो द्वार पर सुदर्शनचक्र ने रोक लिया. अपने प्राणनाथ के दर्शन में विलम्ब होता देखकर श्री हनुमानजी ने सुदर्शन को अपने मुँह में रख लिया और अन्दर जाकर प्रभु के चरणॊं में बैठकर वन्दना करने लगे. फ़िर प्रभु के मुख को निहारकर बोले-“ हे नाथ ! आज माताजी कहाँ हैं? आज आप किसी दासी को गौरव प्रदान कर रहे हैं”. यह सुनकर सत्यभामा अत्यन्त ही लज्जित हो गईं और उनका सौंदर्याभिमान नष्ट हो गया. उधर हांपते-हांपते गरुडजी पहुँचे. वहाँ पहले से ही हनुमानजी को देखकर उनका मुख नीचा हो गया. उधर द्वारकाधीश ने पूछा-“हनुमान, तुम्हे राजभवन में प्रविष्ट होते समय किसी ने रोका तो नहीं?.” हनुमानजी ने अत्यन्त ही विनयपूर्वक कहा-“प्रभु, द्वार पर श्रीचक्र ने मुझे आपके श्रीचरणॊं में उपस्थित होने में बाधा डाली थी. व्यर्थ में विलम्ब होता देख, मैंने उन्हें अपने मुँह में रख लिया है”. तब हनुमानजी ने चक्र को मुँह से निकालकर प्रभु के सामने रख दिया. चक्र श्रीहत हो गए. इस प्रकार तीनों भक्तों का गर्व चूरकर, श्री हनुमानजी ने अपने प्रभु के चरणॊं में प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेकर मलयगिरि की ओर चल दिये. ऎसे हैं हमारे भक्त शिरोमणी श्री हनुमानजी.
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