मेरी कविता " संगे मर मर से श्री विग्रह तक " उस अमर चेतना का प्रतिनिधित्व करता है जो कण कण में समाया है । जड़ और चेतन से विश्व वि...
मेरी कविता " संगे मर मर से श्री विग्रह तक" उस अमर चेतना का प्रतिनिधित्व करता है जो कण कण में समाया है । जड़ और चेतन से विश्व विकसित हुआ है पर जड़ता पूरे मानव जगत में धुंद बन कर छा गया है । आज का मानव समाज भौतिकता के पागलपन से इतना ग्रसित हो गया है कि सारे रिश्ते नाते गौड़ हो गये हैं । मनुष्य चेतनाविहीन होते जा रहा है और मानव मुद्रायंत्र बन गया है ,सचमुच ये कलयुग का विशेष सोपान है । ईश्वर के मंदिर और मूरत में भी कालेधन से बने हीरे जडित स्वर्ण मुकुट ,हार अर्पित कर उस परमात्मा का विशेष प्रतिनिधि बन जाता है । मनुष्य में मनुष्यता के "अंकुर "को तलाशता ये कविता अपनी चेतना को संगे मर मर संग जीने का प्रयास किया है । अद्वैत की कल्पना द्वैत की सापेक्षता में संभव है । ये कविता जड़ता का विरोधी है ,पर जडत्व का नहीं । संग मर मर की यात्रा पत्थर से मूरत ,मंदिर ,मस्जिद और गुरुद्वारा बनने तक की आध्यात्मिक यात्रा है । गुरु और ईश्वर की प्रतिमा को श्री विग्रह कहा गया है और विग्रह्जी भी कहा गया है । हमें ये जीवन जिस अनंत से मिला है उनकी प्रति मूर्ति बना कर हम अपना प्राण उसमें प्रतिष्ठित करते हैं ,और उस सर्वाकार ,निराकार से बात करने का आध्यात्मिक प्रयास करते हैं । ये स्वनिर्माण की सनातन यात्रा है । इतिहास साक्षी है कि भक्तों और संतों के इंतजार में प्रतिमाओं को लोगों ने रोते हुए देखा है । "अंकुर "उनका भी विरोध करता जो मूरत को केवल बुत मानता है । ,कुछ वर्ष पहले एक देश ने गौतमबुद्ध की विशाल प्रतिमा को बुत मान कर छिन्न भिन्न कर दिया था कुछ वर्ष पश्चात ही वो देश कंगाली के कगार में पहुंच गया वहां की शांति भंग हो गयी ,। आज वो देश छिन्न भिन्न हो गया है ,वहां युद्ध के अलावा कुछ नहीं होता । अंत में अपनी चेतना से परमाणु चेतना तक पहुँचने का प्रयास कर रहा हूँ आप सब पढ़ने वालों का आशीर्वाद चाहता हूँ _
संगे मर मर से श्री विग्रह तक
१
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छिपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अनु देख रहा
आकर रहित प्रतिकार रहित न जाने मैं क्या था
मेरा मन या उसका मन न जाने वो कब आया
पर ये निश्चित है उसको आना ही था ,और आया
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छिपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
२
कौन तराशे भाग्य हमारा , जो पाषाणों में रहते है
मैं अविचल हूं पर गति तो मेरे अंदर भी है
मेरा उदभव होना था पाषणों में ये भी निश्चित है
तुम चेतन हो चल सकते हो परमाणु चेतना मुझमें है
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
३
में आदि पिता का आदि अंश ,निश्चल उर्जा मुझमें है
वो था रस से मढ़ा हुआ कुछ आकृति मन में गढ़ा हुआ
वो आया मुझे तोड़ दिया चीत्कार भरा पाषाणों ने
प्रतिध्वनि गूंजी शिला खण्ड में ,में मुक्त हुआ पाषाणों से
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
४
गर हमको कुछ पाना है तो तुमको ही आना होगा
में संगे मर मर हूँ पर जीवित हूं तेरे ही आकारों में
मैं फर्श बनूँ या मूर्ति बनूँ या मंदिर के आकारों में
मैं गिरजा या गुरुद्वारा या मस्जिद के मीनारों में
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
५
तू सोचे तो गढ़ सकता हूँ मेरे अंदर ईश्वर है
में प्रति हूँ प्रतिबिम्ब तेरा, प्रतिध्वनि भी मेरे अंदर है
मैं रामकृष्ण ,मैं महावीर, मैं जगत पिता का दर्शन हूँ
मैं मातृ भवानी ,माँ अम्बे मैं जग जननी की प्रतिमा हूँ
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
६
नाभि प्रतिष्ठित हुआ केंद्र में तब मैं जड़ता से मुक्त हुआ
तू भी तो माता के नभ में नाभि से जीवन रस पाया
तू चेतन है मैं अवचेतन,अवचेतन चेतन रचता है
आदि काल से जग निर्माता हम को संग संग गढ़ता है
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
७
जो मुझको केवल बुत माना वो ह्रास हुआ इतिहासों में
पर मैं अब भी वर्तमान हूँ साक्षी बन इतिहासों का
तू चाहे तो मुझमें पढ़ सकता है गाथा अपने पूर्वज की
अंतर्दर्शन मुझमें गढ़ ले , अनचाहे परतों को हर ले
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
८
प्राण प्रतिष्ठित किया मनुज ने तब मैं कृत कृत्य हुआ
मान ब्रह्म का पाकर ,मैं सचमुच निर्रब्रह्म हुआ
मान दिया जब भक्ति भाव से, तब निर्गुण को जाना
ज्ञान ब्रह्म का पाकर जग ने उस निराकार को भी माना
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
९
संगे मर मर से श्री विग्रह तक, तुझ से मैं जीवन पाया
जड़ तो है मूल वृक्ष का जिससे जग चेतन पाया
पर जड़ता है तेरे अंदर जिसने तुमको रोक दिया
देह वृक्ष है, जड़ चेतन है कण कण में परमाणु चेतना है
तू अंदर है तू बाहर है कण कण में तू ही समाया है
तू जड़ता है तो क्या जीता , आ संगे मर मर जा
मुझ संग घुल जा ,मुझ संग मिल जा और अमर आत्म हो जा
परमाणु चेतना अवचेतन मन पाषाणों में छुपा हुआ
कौन तराशे मेरा मन निर्द्वन्द भाव अणु देख रहा
द्वारा
डाक्टर चंद जैन "अंकुर"
रायपुर छ .ग .mob. 98 26 1 1 6 9 4 6
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