जीत अनुवादक – डॉ. विजय शिंदे (मूल कहानी मराठी के प्रसिद्ध लेखक शंकर पाटिल की है। इनका जन्म कोल्हापुर से नजदीक हातकणंगले तहसिल के पट्टण ...
जीत
अनुवादक – डॉ. विजय शिंदे
(मूल कहानी मराठी के प्रसिद्ध लेखक शंकर पाटिल की है। इनका जन्म कोल्हापुर से नजदीक हातकणंगले तहसिल के पट्टण कोडोली गांव इ. स. 1926 में हुआ। मराठी भाषा, साहित्य और फिल्म जगत् के लेखक के नाते बडा योगदान रहा। इनकी ग्रामीण कथाकार के नाते पहचान बनी। इन्होंने वावटळ, युगे युगे मी वाट पाहिली, गणगौळण, भोळीभाबडी, पाहुणी, पिंजरा, भुजंग, एक गाव बारा भानगडी आदि मराठी फिल्मों का पटकथा लेखन भी किया; यह फिल्में मराठी फिल्म जगत् में मानदंड मानी जाती है। वळी॓व-1958, भेटीगाठी-1960, आभाळ-1961, धिंड-1962, ऊन-1963, वावरी-1963, खुळ्यांची चावडी-1964, खेळखंडोबा-1974 प्रसिद्ध कहानी संग्रह रहें। इ. स. 1985 को नांदेड में संपन्न मराठी साहित्य संमेलन के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। मृत्यु इ. स. 1994 में हो गई।)
मैदान में चारों ओर भीड़ उमड़ पड़ी थी। चारों तरफ लोग ही लोग दिखाई दे रहे थे। पास-पड़ोस के गांवों के सारे लोग मुकाबला देखने के लिए मैदान में इकठ्ठा हो रहे थे।
जैसे ही समय नजदिक आने लगा, एक-एक बैलगाड़ी मुकाबले के स्थान पर आकर खड़ी होने लगी। गांव के तुका पाटिल की भी गाड़ी वहां आकर खड़ी हो गई। जैसे ही उसकी गाड़ी आ गई लोगों का हुजूम उसकी ओर उमड़ पड़ा, गाड़ी के चारों तरफ घेरा करके खड़े हो गए। उसकी ओर दर्शक पागलों की तरह देखने लगे।
तुका पाटिल ने गाड़ी को अपना बूढा हर्ण्या बैल जुतवाया था। हर्ण्या अपने साथी जवान खिलारी (गाय और बैलों की एक अच्छी नस्ल जो केवल पश्चिम महाराष्ट्र में पाई जाती है।) सांड़ के साथ खड़ा था और लोग उसकी ओर आश्चर्य से बिना पलक झपकाएं देख रहे थे। असल में लोगों को मालूम भी था कि जवानी में हर्ण्या ने कई मुकाबले जीते थे। उसकी दौड़, ताकत और खासियतें किसी से छिपी नहीं थी। यह सच था कि सारे इलाके में नाम कमाने वाला वह अकेला बैल था। लेकिन अब... वह बूढा हो चुका था। उसकी पसलियां निकली थी। वह पूरी तरह थक चुका था। चेहरे और शरीर पर अब तेज नहीं था। अपने साथी खिलारी जवान बैल के साथ कैसे दौड़ सकेगा? लोग चकित थे, चिंतित भी हो रहे थे और तुका पाटिल को मन ही मन कोस रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस पागल ने बूढे बैल को क्यों जोता है?
धीरे-धीरे गाड़ियों की संख्या बढ़ने लगी और मुकाबले की कतार में खड़ी होने लगी। कुछ बैल फूर-फूराने लगे। किसी के जवान सांड़ जैसे बैल डरकने लगे। कोई गर्दन झुका कर सींग हिला रहा था, और कोई खुरों से जमीन खुरच रहा था। हर्ण्या का साथी भी मचल रहा था। सारे लोगों की नजरें हर्ण्या पर टिकी थी, वे उसे टकटकी लगाए देख रहे थे। हर्ण्या की गति और दौड़ना उन्हें मालूम था। उसकी तेज रफ्तार से सभी परिचित थे। एक जगह पर ठहरी हुई बैलगाड़ी के साथ वह कभी भी शरारतें नहीं करता था। डरकता नहीं। सींग हिलाता नहीं। लेकिन एक बार दौड़ना शुरू हुआ और पहियों की खड़खड़ाहट कानों पर पड़ी कि उसके पांव हवा से बाते करने लगते थे। पहियों की आवाज के साथ वह छलांगे भरने लगता था। उसे कभी भी हांकने की जरूरत नहीं पड़ती थी। समय आ भी गया तो वह अपने साथी बैल को भी खिंचते हुए दौड़ने लगता था!
हर्ण्या की दौड़ के बारे में किसी को शक नहीं था, लेकिन अब उसकी उम्र हो गई थी। बाजार या मेले जाते वक्त एकाध झलक दिखाना अलग बात होती है और मैदान में उतर कर दौड़ना अलग। यह जिम्मेदारी वह कैसे निभाएगा, इसकी चिंता दर्शकों को सता रही थी। और इधर तुका बेफिक्र था। हर्ण्या भले ही बूढा हो पर उसका उस पर भरौसा था। लोग चिंतातुर होकर उसकी गाड़ी की ओर देख रहे थे और तुका बेफिक्री से चेहरे पर हंसी बिखराते उनकी ओर देख रहा था।
इशारा हो गया। बैलगाड़ियां दौड़ने लगी, पहियों की खड़खड़ाहट शुरू हो गई। हर्ण्या के अंग-अंग में फूर्ति आने लगी। सभी को चिंतित करने वाला बूढा बैल जवान घोड़े के समान लंबी-लंबी छंलागे भरने लगा। उसके पांव जमीन पर ठहरने का नाम नहीं ले रहे थे। साथ वाले दूसरे खिलारी जवान बैल की बाजू पीछे पड़ने लगी। देखते ही देखते बाकी बैलगाड़ियों को पीछे छोड़ते हुए बूढे बैल की गाड़ी आगे निकले लगी। तूफानी रफ्तार से हर्ण्या अंतर कम करने लगा। दूसरे गाड़ीवान औंधे हो-होकर बैलों पर कोड़े बरसाने लगे। सभी लोग पागलों की तरह आंखें फाड़ कर देख रहे थे।
बैलगाड़ियां दूर-दूर गई, आंखों से ओंझल हो गई। इधर लोगों की जबान पर हर्ण्या की बातचित शुरू हो गई। जैसे-जैसे बैलगाड़ियां वापस लौटने का समय हो गया वैसे-वैसे दर्शक गर्दन उठा-उठा कर देखने लगे। आस पास के सारे पेड़ दर्शकों से लदा-लद भर गए। दूर से ही गाड़ीवानों का शोर और पहियों की आवाज कानों पर पड़ रही थी। वैसे ही दर्शकों का मन मचलने लगा यह जानने के लिए की किसकी गाड़ी आगे है? लोग टीलों पर, पेड़ों पर चढ़-चढ़कर देखने लगे। उसी समय एक पेड़ से कोई जोर से चिल्लाया, ‘बैलगाड़ी आ गई, बैलगाड़ी आ गई, बूढे बैल की ही!’
दर्शकों की उत्सुकता चरम पर थी, वे मैदान में इधर-उधर दौड़ कर अपनी जगह पक्की करने लगे ताकि बैलगाड़ियों को साफ देख सके। मानो उनकी आंखों मे जान आ गई थी। हर्ण्या को देखने के लिए लोग रास्ते पर दोतरफा खड़े हो गए थे। इतने में तुका पाटिल की बैलगाड़ी नजदीक आ गई। दो-तीन बैलगाड़ियां उसके पीछे से आगे निकलने की कोशिश कर रही थी। कांटे का मुकाबला शुरू था। बैलों के नथुनों और मुंह से झाग टपकने लगा था। पहियों की खड़खड़ाहट कानों में गुंजने लगी थी और हर्ण्या का ताकत लगा कर दौड़ना जारी था। पीछे से आ रही किसी भी बैलगाड़ी को वह आगे निकलने नहीं दे रहा था। मुकाबले का अंतिम लक्ष्य नजदीक आने लगा था। हर्ण्या के मुंह से निकलने वाली झाग सामने वाले दोनों पैरों पर गिरने लगी थी, उसे अपनी जान की भी परवाह नहीं थी, लक्ष्य था केवल जीत हासिल करना। पीछे से आने वाली बैलगाड़ी के पहियों की जैसे ही आवाज आती वैसे ही वह और अधिक छलांगे भरने लगता था...
इसी जोश में तुका पटिल की गाड़ी लक्ष्य को लांघ कर थोड़ा आगे जा कर रूक गई। वैसे ही लोगों के हुजूम ने हर्ण्या को घेर लिया। दर्शक गर्दन उठा-उठा कर हर्ण्या को देख रहे थे।
...लेकिन हर्ण्या अपनी ओर उमड़ी भीड़ से मोहित नहीं था, शांत था। उसने प्रतिक्रिया स्वरूप कान नहीं उठाए। सींग नहीं हिलाए। गर्दन से जुआ हटाते ही वह धम से नीचे बैठ गया और एकाएक उसकी गुदा से खून की धार बहने लगी। र्ह्ण्या ने गर्दन लुढ़काई और अपने चारों पांवों को फैला कर करवट बदली। उसके पिछले दोनों पैरों की एड़िया जमीन पर घिसने लगी। मिट्टी उछल कर ऊपर उठने लगी और गढ्ढा पड़ने लगा...
मूल मराठी कहानी – शंकर पाटिल
अनुवाद – डॉ. विजय शिंदे, देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद.
marmantak kahani...sadha hua anuvaad...abhar..
जवाब देंहटाएंकविता जी यह ताकत और कमाल मेरा नहीं मूल ग्रामीण लेखक के नाते पहचान प्राप्त कर चुके और मराठी फिल्म जगत को बडा योगादान देनेवाले शंकर पटिल जी के कलम का है। कहानी के अनुवाद के पिछे यहीं उद्दे्श्य था कि एक उत्कृष्ट कहानी हिंदी पाठकों तक पहुंचे। टिप्पणी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंअत्यन्त शानदार कहानी। बैल को मानुषिक वेदना प्रकट करता उकेरा गया है कहानी में। बहुत ही प्रेरक।
जवाब देंहटाएंविकेश जी कहानी पसंद आई, आभार। सच कहा आपने बैल को मनुष्य रूप में वर्णित किया है और उसमें मानवीय भाव भी भरे हैं। भारतीय किसानों के लिए बैल बैल नहीं तो उनके घर का एक सदस्य ही होता है। यह बात बैल के लिए ही लागु होती है ऐसी बात नहीं उसके परिवार में पल रहे प्रत्येक पशु सदस्य के लिए लागु होती है।
हटाएंबहुत ही मार्मिक कहानी,आभार.
जवाब देंहटाएंराजेंद्र जी अप कहानी के मर्म तक पहुंचे इसका अर्थ होता है आपके हृदय में भारतीय संस्कृति और किसान बैठा है।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंकांटे का मुकाबला शुरू था। बैलों के नथुनों और मुंह से झाग टपकने लगा था। kaante ka mukabla hota hi aisa hai ......sikh deti hui kahani .....
जवाब देंहटाएंडॉ. निशा जी बैलों के माध्यम से कह दूं की भारतीय किसान भी अपनी जान जोखिम में डाल लंबी दौड लगा रहा है सालों से। आपके माध्यम से अपेक्षा करूं कि उसकी जान न जाए पर जीत अवश्य हो।
हटाएंखुप खुप आभार शिंदे जी,
जवाब देंहटाएंआले हं आताच कहानी वाचायेला !
सुमनताई आभार हो। किचन मधुन भाज्यांचा सुंदर गंध येतोय आणि माझ्याचं घरचं कोणीतरी मला थांब येते म्हणतय, याचा आनंद दोन वाक्यातून मिळाला.
हटाएंबहुत ही मार्मिक कहानी
जवाब देंहटाएंरंजना जी आपकी टिप्पणी मेरा हौसला बढाएगी। भारतीय भाषाओं के साहित्य में अद्भुत क्षमता है। इतनी रोचक और मार्मिक कहानियों का आदान प्रदान होना चाहिए। इससे दो तरफ फायदा होगा, विभिन्न भाषाओं का साहित्य विस्तृत पाठकों के पास पहुंचेगा और हिंदी भाषा भी ताकतवर बनेगी।
हटाएंशंकर पाटिल यांच परिचय आणि उत्कृष्ट कहानी आमच्या पर्यन्त
जवाब देंहटाएंपोचवल्याबद्दल आभार ....सुन्दर कहानी आणि त्याच हिंदी अनुवाद छान केलात !
सुमन जी आपको कहानी पसंद आई, आभार। मराठी भाषा जानती, बोलती और लिखती भी हैं तो आपकी टिप्पणी मेरे लिए मायने रखती है कारण आप अनुवाद के भीतर की कमियों को आसानी से पकड सकती है। आगे और अधिक हमारी साहित्यिक चर्चा होती रहेगी।
हटाएंमार्मिक ओर हृदय्स्पर्शीय ... लेखनी बाँधे रही अंत तक ...
जवाब देंहटाएंमानवीय संवेदनाएं लिए अच्छी कहानी ...
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हटाएंदिगंबर जी आपको कहानी अच्छी लगी आभार। आपके हृदय को स्पर्श करने का एहसास हो गया।
हटाएंदिगंबर जी कहानी पसंद आई आभार। पशु-पंछियों में भी मानवीय भाव होते हैं और मालिक के साथ हृदय से जुडने के कारण मालिक की मंशा को जानने की बैल की क्षमता वाले मर्म और संवेदना को आपने समझा है। लगता है कहानी की सूक्ष्मताओं को भी आपने बारीकी से पकड लिया।
हटाएंशंकर पटिल जी की कहानी का सुन्दर अनुवाद किया है अन्यथा ये हम तक आ भी नहीं पाती . आपका आभार . इसे पढ़ते हुए सारा दृश्य जीवंत हो उठा..
जवाब देंहटाएंअमरिता जी अनुवाद करना सार्थक हुआ। लेखक की भावनाओं एवं अभिव्यक्ति को तोडे बिना अनुवाद करने का प्रयास भर किया था। डर यह भी था कि कहीं शंकर पाटिल जी के मूल कहानी को ठेंस तो नहीं पहुंचेगी। आप सभी पाठकों और दोस्तों के बदौलत मन के भीतर का वह डर काफुर हो गया।
हटाएंमूल मराठी कहानी का अनुवाद 'जीत' अत्यन्त बढ़िया कहानी है। कहानी में बैल के भीतर मानव की कोमल भावनाओं को दर्शाया गया है।जो पाठकों के लिये प्रेरक है। धीरे-धीरे आप के लेखन कार्य को पढ़्ने की कोशिश करूँगी।
जवाब देंहटाएंविजय जी, मैं ब्लोग के क्षेत्र में नयी हूँ। अतः आप से अनुरोध है कि जरा मेरे ब्लोग'Unwarat.com' पर भी समय निकाल कर जाइये | कहानी वा लेख पढ़ने के बाद अपने विचार अवश्य व्यक्त कीजियेगा। मुझे अच्छा लगेगा।
विन्नी,
विन्नी जी 'जीत' कहानी का अनुवाद पसंद आया धन्यवाद। मूल कहानी की क्षमता के बदौलत यह संभव हुआ है कि कहानी पाठकों की रूचि में खरी साबित हो गई। आप मेरे लेखन में रूचि रखती है आभार।
हटाएंआपने अपने ब्लॉग का जिक्र किया है। बिल्कुल मैं आपके ब्लॉग पर प्रकाशित साहित्य पढता रहूंगा।
प्रवाहमयी अनुवाद , जो कहानी का भाव बनाये रखता है....
जवाब देंहटाएंकथा ...हृदयस्पर्शी
मोनिका जी आपको कहानी का अनुवाद और मूल कहानी पसंद आई आभार। आपकी प्रतिक्रिया स्वरूप एहसास हो रहा है कि शंकर पाटिल जी के मूल कहानी को न्याय देने में मैं सफल हो गया हूं।
हटाएंअनुवाद अप्रतीमं जमलाय
जवाब देंहटाएंछान कथा व तितकाच छान अनुवाद आहे. अभिनंदन लिहित रहा.
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