काकी (कहानी) -गोविन्द बैरवा ‘‘तेरी अर्थी निकले, तेरी अर्थी को कुत्ते रोये। गधे की औलाद, तुझे शर्म नहीं आई, उन पैसों की दारू(शराब) पीते हु...
काकी (कहानी) -गोविन्द बैरवा
‘‘तेरी अर्थी निकले, तेरी अर्थी को कुत्ते रोये। गधे की औलाद, तुझे शर्म नहीं आई, उन पैसों की दारू(शराब) पीते हुए, जिन्हें मैंने कई महिनों से सम्भाल कर रखे थे, बेटे की प्रथम पुण्य-तिथि पर पुण्य कार्य करने के लिए पर इस शैतान की नजर उन पैसों पर पड़ गयी, पी आया कुत्ते का मूत।‘‘
दुलारी के कान में गालियों का स्वर सुनाई दिया। बूआ के घर से बाहर निकलकर देखने लगी,पड़ोस में रहने वाली औरत भले-बुरे ढंग से नशे में झूमते आदमी को बोले जा रही है। दरवाजे की चौखट पर खड़ी-खड़ी दुलारी बाहर का नजारा देखती रही।
आज काकी पति को इतना भला-बुरा बोल रही थी जिसे सामान्य व्यक्ति सुने तो जिन्दा ही मर जाए पर जिसे सुना रही थी वह दारू के नशे में इतना मदहोश था कि बुरी गालियाँ भी खुशी-खुशी सुन रहा था।
काकी के मुँह से निकलने वाली गालियों में बेटे के प्रति तड़प व वेदना समाहित थी। आँख से निकलने वाले आंसू यह व्यक्त करा रहे थे। दुलारी मन ही मन समझ गई कि काकी के जीवन में कुछ घटा है जिसमें काकी का सब कुछ चला गया है।
दुलारी दरवाजे पर खड़ी-खड़ी सोचने लगी कि इस दारू ने ना जाने कितने घरों की शान्ति छिन्न रखी है। आँखों के सामने चलने-फिरने वाला इंसान इस दारू के कारण यमलोक की यात्रा कर चुका है और यात्रा में जाने के लिए आतुर है। काकी की तरह ही कितने घरों में कलह का परिवेश फैली हुआ है। दारू ने घर का सारा वैभव, मान-सम्मान को नष्ट करके पीढ़ी-दर-पीढ़ी वेदना का जहर फैला रखा है।
काकी की गालियों को सुनकर सामने रहने वाली शारदा काकी बाहर आकर गाली देने वाली औरत से कहने लगी-‘‘अरी, विमला। इतना भला-बुरा मत बोल। तू जिसे बोल रही है वह तेरा पति है पगली। शांत हो जा विमला, शांत हो जा। तू ऐसे रोती रहेंगे तो बेटे की आत्मा तुझे देखकर दुःखी होगी आखिर वह भी तो देखता होगा, भगवान के घर से।‘‘
शारदा काकी के बार-बार समझाने पर विमला काकी के मुँह से गालियों का स्वर रूक-रूक कर अपना प्रभाव छोड़ रहा था पर गालियों का स्थान वेदना से लिपटी सिसकियों ने ले लिया। विमला फूट-फूट कर रो रही थी। गले से ऊँ-ऊँ की आवाज बाहर आ रही थी जिसे शारदा काकी बार-बार सहानुभूति देकर रोक रही थी। विमला काकी के आँख से बहते आंसुओं को देखकर शारदा काकी के आंख में भी आंसू भर आये थे, जिसे वह पलकों में छुपाए रखने का प्रयास कर रही थी।
काकी के मन में वात्सल्य प्रेम आज भी सजीव व जीवित है जबकि दुनियां के लिए वह मर चुका है। वात्सल्य प्रेम में विश्वास की शक्ति रहती है जिसमें अंतर्गत शरीर से ज्यादा मन में व्याप्त विश्वास को महत्व दिया जाता है। विश्वास से विश्वास का वात्सल्य प्रेम माँ-बेटे में अपनी सम्पूर्ण भूमिका व्यक्त कराता है। काकी के मन का प्रेम लोगों को पागलपन लगता है जबकि काकी के लिए यह पागलपन ही प्रेम ही विश्वासमयी प्रेम है। दुलारी को शहर से आये हुए अभी एक दिन ही गुजरा था। बीते तीन-चार वर्षों से दुलारी बूआ के घर छट्टियां बिताने नहीं आ पाई अन्यथा हर वर्ष गर्मीं की छुट्टियां बूआ के घर बिताया करती थी। दुलारी ने उन बीते वर्षों में विमला काकी को कभी गाँव में नहीं देख सकी और ना ऐसा कलह भरा दृश्य गाँव में देख सकी थी।
आखिर सब कुछ सामान्य स्थिति में बदलता देखकर दुलारी दरवाजे की चौखट को छोड़कर घर के अन्दर जाने से पहले एक नजर नशे में चूर आदमी पर डालती है। वह आदमी नशे में झूमता हुआ गाँव के बाहर जाने वाली कच्ची सड़क पर लड़खड़ाता हुआ चला जा रहा था।
‘‘बूआ, वो औरत कौन है? जो सुबह-सुबह अपने पति को भला-बुरा बोल रही थी।‘‘ दुलारी, काकी के सन्दर्भ में जानना चाहती थी।
रसोई घर में बरतन साफ करती हुई सुगना बूआ कुछ देर दुलारी को एकटक देखकर कहने लगी-‘‘ विमला, विमला है वो औरत।‘‘
‘‘बूआ, पहले तो यह काकी कभी दिखाई नहीं दी।‘‘
दुलारी की बात सुनकर सुगना बूआ के हाथ बरतन साफ करते हुए फिर रूक गये। कढ़ाई को हाथ में पकड़े हुए कहने लगती है-‘‘ बेटी, विमला को इस गाँव में रहते हुए तीन वर्ष ही हुए है। बड़ी अभागी है, विमला। क्या कुछ नहीं था उसके पास। अच्छा मकान, अच्छी खेती, बड़े परवार में बड़ी बहू थी, विमला। किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। सुसराल में बेटे की तरह छोटे देवरों का पालन-पोषण करके उनको अपने पैरों पर खड़ा किया। पर इस दुनियाँ में बेटी, पैसों का मोह अपना-पराया नहीं देखता। विमला के पति को धोखा देकर भाईयों ने खाली कागज पर साईन लेकर सारी जायदाद अपने नाम कर ली अन्यथा आज विमला की दशा ऐसी नहीं होती।‘‘
दुलारी, सुगना बूआ की तरफ एकटक देखकर प्रत्येक शब्द को अंगीकार कर रही थी। सुगना भी घरेलू कार्य को जारी रखते हुए बीच-बीच में रूक-रूक कर विमला के जीवन के बारे में बता रही थी।
‘‘बूआ, वह काकी किस बेटे की बात कर रही थी।‘‘ दुलारी धीरे-धीरे विमला काकी के बारे में बूआ से सब कुछ जानना चाहती थी।
सुगना के हाथ बरतन को पानी से धोते हुए रूक गये। सुगना के मुख पर वेदना दौड़ने लगी। शरीर का संचालन भी असन्तुलन स्थिति दिखा रहा था। बरतन पकड़ने की क्षमता भी हाथों में नहीं दिखाई दे रही थी। आँखों में आंसू भर आए थे, जिसे दुलारी मन ही मन महसूस कर रही थी। कुछ देर बूआ आंसू को पलकों में छुपाने का प्रयास करती रही पर आंसू रूकना नहीं चाहते थे। दुलारी, बूआ के करीब आकर आंसू पोंछने लगी। दांये तरफ मिट्टी के मटके से गिलास पानी भरकर बूआ के हाथ में थमाकर मुंह की तरफ बढ़ाने लगी। बूआ ने मुशकिल से पानी की दो घुट गले के नीचे उतार कर कहने लगी-‘‘बेटी, उसके बेटे का नाम प्रकाश था। माँ-बेटे का ऐसा प्यार मैंने कभी नहीं देखा। दुबला-पतला शरीर, गौरा रंग, घुंघराले बाल, छोटा कद का बेटे प्रकाश की अवस्था बीस-इक्कीस के आस-पास ही हुई थी। इतनी कम अवस्था में घर की आर्थिक स्थिति का सहारा था, प्रकाश। प्रकाश के पिताजी छोटे भाईयों के व्यवहार से दुःखी होकर शराब पीने लग गये थे। शराब की आदत दिनों-दिन बढ़ती ही रही। ना गृहस्थी की चिन्ता, ना अपनी चिन्ता उनके लिए तो शराब ही जीवन की गतिविधियां बन गई। घर का सारा खर्च प्रकाश के सहारे तय होता था। प्रकाश ने कभी अपने सुख-दुःख, शौक-मौज के बारे में नहीं सोचा और ना ही उसकी कोई चाहत थी। हाँ, अपने माता-पिता को जीवन की सारी खुशियाँ देना चाहता था। सौ कोश दूर शहर के कारखाने में काम करता था। शहर से जब भी आता माँ के लिए ढे़रों सारा प्यार लाता। विमला भी वात्सल्य रस बेटे के प्रति मन में बनाये रखती थी।‘‘
दुलारी को विमला के बारे में बताते-बताते सुगना सिसकियां भरती हुई रोने लगी गई। सुगना की आँखों की पलकों ने आंसू दबाने की क्षमता खो दी थी। दुलारी, बूआ को गले लगाकर दिलासा देते हुए स्वयं भी आंख से आंसू बहा रही थी। बीते दुःख का अहसास इतना वेदनामयी है तो घटी घटना का दिन कितना कष्टदायक होगा। महसूस करने वाला ही कर सकता है अन्यथा दुःख सिर्फ दुःख ही कहलाता है। पर सुगना के मन में दुःख का सजीव स्वरूप नजर आता है जिसमें अपना-पराया दुःख में समानता झलकती है।
‘‘बू...आ-बूआ, प्रकाश को क्या हुआ था?‘‘
‘‘शाम का समय था। विमला के मुख पर खुशी दौड़ रही थी। विमला के जीवन में सब कुछ अच्छा चल रहा था। विमला, घर में बहू लाने की तैयारी कर रही थी। अपने बेटे को अपने हाथों से दुल्हा बनाना चाहती थी। उसी दिन प्रकाश का रिश्ता पडोस के गांव में तय करके खुशी-खुशी मुझे सुना रही थी। मैं भी उसकी खुशी में अपनी खुशी महसूस करती रही क्योंकि प्रकाश के प्रति मेरे मन में भी वात्सल्य प्रेम बहता रहता था जिसे सहर्ष प्रकाश भी स्वीकार करता था। मुझे छोटी माँ कहकर पुकारता था। मन में खुशी पहुंचने से पहले ही हीरालाल सारी खुशियों को मातम में बदलने का समाचार देने आ गया। हीरालाल का चेहरा बुझा हुआ था। आंखें आंसुओं से भरी हुई थी। विमला से कहने लगा-‘काकी-काकी, प्रकाश के कारखाने में कुछ देर पहले भीषण आग लग गई। आग ने दस लोगों को जिन्दा जला दिया। अपना प्रकाश भी दस लोगों के साथ जिन्दा जल गया, काकी।‘ प्रकाश का नाम सुनते ही विमला चिल्लाती हुई, बेहोश हो गई। विमला कई दिनों तक अचेत ही पड़ी रही। मुशकिल से सम्भाला इस विमला को मैंने व गाँव की औरतों ने अन्यथा विमला आज दिखाई नहीं देती। आज भी विमला के लिए प्रकाश जीवित है। दुनियां के लिए प्रकाश की मृत्यु हो चूकी है पर विमला के मन में आज भी प्रकाश, प्रकाश फैला रहा है।‘‘
दुलारी, बूआ की स्थिति देखकर मन में उस मनहूस दिन की वेदना का कहर महसूस कर थी। उस मनहूस दिन ने एक माँ को नहीं, दो माँ के वात्सल्य प्रेम को सूखा दिया। माँ के आँखों का तारा क्षण में माँ को छोडकर इतना दूर चला गया और जाते-जाते अपना मुँह भी नहीं दिखा पाया। दुलारी को माँ-बेटे का वात्सल्य प्रेम दुनियाँ में अनोखा महसूस हुआ क्योंकि दुनियाँ के लिए प्रकाश अंधेरे में है पर विमला के लिए प्रकाश, मन में आज भी प्रकाश फैला रहा है।
‘‘अरी, सुगना। ओ, सुगना।‘‘ दरवाजे पर जोर-जोर से पुकार सुनाई दी। जिसे सुनकर दुलारी रसोई घर में काम कर रही बूआ से कहती है-‘‘बूआ-बूआ, आपको कोई दरवाजे पर पुकार रहा है।‘‘
रसोई घर से बाहर आते समय बूआ के हाथ में चाकू था जिसे देखकर महसूस हो रहा था कि बूआ इस समय सब्जी बनाने की तैयारी कर रही थी। दरवाजे पर विमला खड़ी थी जिसे देखकर सुगना कहने लगी-‘‘क्या हुआ, विमला जीजी।‘‘
-‘‘कुछ नहीं हुआ, जो होना था वो तो हो चूका। अब होने के लिए रखा ही क्या है।‘‘
-‘‘जीजी, क्या हुआ है।‘‘
‘विमला‘ नाम जब दुलारी ने सुना तो कमरे से बाहर निकलकर सुगना बूआ के पास आकर विमला को एकटक देखने लगी। विमला के हाथ में कुल्हाड़ी देखकर दंग रह गई। विमला की आँखों में सुनापन था। पर चेहरे की झुरियों में तेज झलक रहा था। सिर के आधे काले व आधे सफेद बालों की दशा बिगड़ी हुई थी। शरीर का सारा मांस गल चूका था। दुबला-पतला विमला का शरीर देखकर दुलारी सोचने लगी कि इस शरीर में इतनी वेदना व कष्ट सहन करने व छुपाने की शक्ति है। शायद वात्सल्य प्रेम देता है।
-‘‘वहीं जा रही हूँ। जहां प्रकाश के रूठने के बाद ना चाहकर भी जाना पडता है।‘‘
‘‘अच्छा।‘‘ सुगना ने विमला को देखकर कहा।
‘‘अरी, सुगना। प्रकाश के बापू आये तो उनको ये चाबी दे देना।‘‘
दुलारी ‘उनको‘ शब्द सुनकर दंग रह गई। दो घण्टे पहले काकी पति को इतना भला-बुरा बोल रही थी। वही काकी पति का नाम लेने में संकोच कर रही है। शायद दो घण्टे पहले औरत का रूप पत्नी का नहीं था। पुत्र के वियोग में तड़पती माँ का रूप था।
‘‘बूआ, काकी कहा जा रही है।‘‘ विमला के जाने के बाद दुलारी ने बूआ से पूछने लगी।
सुगना के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। बीते कल की घटना को इंसान याद नहीं रखना चाहता क्योंकि यादें इंसान को हँसी से ज्यादा रुलाती है। इस दुनियाँ में मन से जुडे़ प्यार के लिए कोई स्थान न होकर भी मन के प्रेम में विश्वास रखने वालों की कमी नहीं है। विश्वास प्रीत में इंसान नफा-नुकसान नहीं देखता, देखता है प्रेम में प्रेम।
‘‘लकड़ी काटने का काम करती है, विमला। पास के जंगल से लकड़ियाँ काटकर व्यापारी को बैंच देती है। लकड़ियों से प्राप्त पैसों से घर खर्च चलाती है।‘‘ दुलारी, बूआ की बातें ध्यान से सुन रही थी। विमला काकी में नारी चेतना का स्वरूप जाग्रत था। विपरीत परिस्थितियों में सक्षम भूमिका निभाने है, नारी। जहां पुरूष विपरीत परिस्थितियों में अपना धैर्य खो देता है वही नारी धैर्य व संघर्ष की मिसाल कायम करती है। पुरूष प्रधान समाज आज भी नारी की शक्ति व महानता से अनभिज्ञ है अन्यथा नर-नारी में भेदभाव नहीं करता और ना बेटी जन्म को बोझ समझता।
अचानक बाहर से रोने की आवाज दुलारी को सुनाई देती है। घर से बाहर निकलकर दुलारी देखती है कि प्रकाश के पिता जमीन पर गिरे हुए पेट पकड़कर जोर-जोर से रो रहे है। दुलारी यह दृश्य देखकर बूआ-बूआ आवाज लगाती हुई रसोईघर में, रसोई सफाई करती बूआ से कहने लगती है-‘‘बूआ-बुआ, प्रकाश के पिता को ना जाने क्या हो गया? पेट पकड़कर जोर-जोर से रो रहे है।‘‘
इतना सुनते ही बूआ झाड़ू एक तरफ पटककर दुलारी के साथ बाहर की तरफ तेजी से चलने लगी। सुगना जानती है कि विमला के पति का लीवर व गुर्दे की समस्या ज्यादा शराब पीने से बढ़ गई होगी क्योंकि कुछ माह पहले गाँव के डॉक्टर ने संकेत कर दिया था।
सुगना, विमला के पति की पीड़ा देखकर समझ गई। गली में खेल रहे लड़के को पुकारने लगी-‘‘रमेश, ओ रमेश।‘‘
‘‘क्या हुआ, मौसी।‘‘
‘‘अरे बेटा, जल्दी से दौड़कर विमला काकी को बुला ला। काकी से कहना की काका की तबीयत ज्यादा खराब हो गई है।‘‘ सुगना मौसी की बातें सुनकर रमेश जंगल की तरफ दौड़ा चला जा रहा था। गाँव में सभी को मालूम है कि विमला काकी लकड़ियां काटने पास के जंगल में जाती है। इसलिए रमेश को समझना में देर नहीं लगी। विमला आये, उससे पहले सुगना ने दुलारी के माध्यम से तड़पते व्यक्ति को पानी पिलाया।
कुछ ही समय बाद रमेश के साथ विमला दौड़ी चली आ रही थी। पैरों का असन्तुलन मन में छाया भय व घबराहट व्यक्त करा रहा था। विमला के हाथ में कुल्हाडी व भोजन की गठरी नहीं थी पर आँखें में डर का खौफ छाया हुआ था।
‘‘क्या हुआ?, क्या हुआ?, प्रकाश के बापू।‘‘ विमला कुछ देर पति को संभालने के बाद सुगना की तरफ देखकर कहने लगी-‘‘सुगना-सुगना। शहर जाना है, जल्दी से हीरालाल को बुला ला।‘‘
सुगना बिना देर किये सामने वाली गली की तरफ दौड़ी चली जा रही थी। हीरालाल रिक्शा चलाता है। शहर से गाँव आने-जाने के लिए रिक्शा ही उपयोग में लिया जाता है क्योंकि सरकारी बस दिन में दो बार ही गाँव से होकर गुजरती है। दोपहर का समय था। हीरालाल भोजन के लिए घर आया हुआ था अन्यथा समस्या खड़ी हो जाती। हीरालाल, भोजन करके जाने की तैयारी में था।
‘‘हीरा के बापू, प्रकाश के पिता की तबीयत ज्यादा खराब है। शहर के होस्पीटल लेकर जाना है।‘‘ सुगना ने बिना संकोच हीरालाल के सामने चलने का प्रस्ताव रखा अन्यथा गाँव की परम्परा पराये पुरूष से बात करने की अनुमति नहीं देती।
‘‘अच्छा, चलते है।‘‘ हीरालाल रिक्शा विमला के घर की तरफ घुमाकर तेज गति से रिक्शा चलाने लगा। सुगना रिक्शा में बैठी हुई थी।
‘‘सुगना-सुगना। तू भी मेरे साथ चल।‘‘
‘‘हाँ-हाँ, जीजी। मैं चलती हूँ।‘‘ सुगना इतना कहकर अपने घर में चली गई। सुगना कुछ पैसे लेने गई थी क्योंकि विमला की आर्थिक स्थिति से सुगना परिचित थी।
‘‘दुलारी-दुलारी, सुन तेरे फुफा आये तो उनसे कह देना कि बूआ विमला काकी के साथ शहर के बड़े होस्पीटल में गई है।‘‘ दुलारी ने सिर हिलाकर ‘हाँ‘ का संकेत कर दिया। सुगना के जीवन में संतान सुख चाहकर भी प्राप्त नहीं हुआ। प्रकाश पर वात्सल्य प्रेम लुटाया करती थी। भाग्य का लेखा ये सुख भी दो वर्ष ही दे पाया क्योंकि विमला को गाँव में बेटे के साथ रहते हुए दो वर्ष ही हुए थे। तीसरे वर्ष के दूसरे माह में तो बेटा बहुत दूर चला गया था। प्रकाश के पिता की तड़प व मानवीय धर्म सुगना को सहयोग देने की ललक जगाये हुए था।
गाँव के अन्य व्यक्ति भी धीरे-धीरे विमला के घर इक्ट्ठे को गये थे। वैसे भी गाँव के लोगों में आपसी प्रेम बना रहता हैं। गाँव के युवकों ने विमला के पति को रिक्शा में लेटा दिया। रिक्शा तेज गति से शहर की तरफ जाने वाली सडक पर दौड़ा चला जा रहा था। होस्पीटल पहुंचने में एक घण्टा व्यतीत हो गया कारण दो-तीन बार रास्ते में रिक्शा रोकना पड़ा। जब-जब विमला के पति का पेट दर्द बढ़ा, तब-तब रिक्शा रूका अन्यथा चालीस मिनट समय लगता है गाँव से शहर और शहर से गाँव आने-जाने में।
मरीजों की भीड होस्पीटल के ईद-गिर्द फैली हुई थी। होस्पीटल के मुख्य दरवाजे पर हीरालाल ने रिक्शा रोक दिया। हीरालाल के सहयोग से विमला व सुगना ने मरीज को धीरे-धीरे होस्पीटल के अन्दर ले जाते है। पर्ची काउण्टर के सामने रखी बैंच पर मरीज को लेटाकर सुगना काउण्टर पर पर्ची बनवाने चली जाती है।
पर्ची बनाने के लिए लम्बी लाईन लगी हुई थी। जिसमें आदमी-औरत की अलग-अलग नहीं, एक लाईन में खड़ा होना पड़ता था। नर-नारी में समानता का संदेश दे रही थी। जिसे जागरूक व्यक्ति ही समझ पाता है।
सुगना का नम्बर आने में कुछ समय लगा। जब नम्बर आया तो पर्ची बनाने वाले व्यक्ति ने मरीज का नाम, बीमारी व पता पूछा। सुगना बिना संकोच बताने लगी-‘‘ मरीज का नाम, छगनलाल। निवास स्थान, रामपुरा। उम्र, पचास वर्ष। बीमारी, पेट दर्द।‘‘
छगनलाल नाम की पर्ची बनाने वाला काउण्टर में बैठा व्यक्ति पडौस में बैठे व्यक्ति की तरफ मुँह करके कहने लगा-‘चन्द्रप्रकाश जी, अब आपको रामपुरा गाँव जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जिससे आप मिलना चाहते थे। वे मरीज रूप में आपको यही मिल जायेंगे।‘ सुगना की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। पर्ची बनाने वाले व्यक्ति ने सुगना को पर्ची देते हुए कहा-‘रूम नम्बर पाँच में चले जाना।‘‘
होस्पीटल की ऊपरी मंजिल पर ले जाने वाली सीढ़ियों के नीचे रूम नम्बर पाँच में डॉ. आलोक गुप्ता का रूम था। हीरालाल भी छगनलाल की सेवा में साथ रहा। आखिर सुख-दुःख में सहयोग व बिन स्वार्थ सेवा की भावना ही व्यक्ति को इंसान बनाती है अन्यथा व्यक्ति सिर्फ व्यक्ति कहलाता है, इंसान नहीं।
छगनलाल के शरीर की जांच करके डॉ. कहने लगा-‘‘आँपरेशन करना पडे़गा। ज्यादा शराब पीने से लीवर में सूजन व पेट की छोटी-बड़ी आँतों में घाव के साथ रस्सी भर गई है।‘‘
विमला आँपरेशन का नाम सुनकर भयभीत हो गई। डॉ. के सामने लाचार व बेबस स्थिति व्यक्त कराना चाहती थी पर व्यक्त कराने की शक्ति ही शांत थी। सुगना ने हिम्मत करके डाँक्टर से पुंछने लगी-‘‘साहब, कितना पैसा खर्च होगा, आँपरेशन में।‘‘
कुछ देर सोचकर डाँक्टर गुप्ता जी बताने लगे-‘‘वैसे कुछ सुविधा होस्पीटल से मिल जायेंगी। परन्तु बाहर से मेडिकल व रोग संबंधित अन्य डाँक्टर को बुलाना पड़ेगा। अनुमान चालीस-पचास हजार रूपयों के आस-पास खर्च हो जायेगा।‘‘
इतना खर्च सुनकर सुगना की ‘आँखें फटी की फटी रह गई‘। विमला के मन में एक नया घांव उभर आया था। जिसका अहसास सुगना महसूस कर रही थी। छगनलाल को हीरालाल व विमला को सुगना संभाल कर धीरे-धीरे डॉ. के रूम से बाहर ले आते है। छगनलाल के मन में ‘कोड़ में खाज‘ वाली वेदना छा गई थी। डॉ. के मुंह से इतना खर्च सुनकर पेट का दर्द भी शांत हो गया था।
डॉ. के रूम से बाहर आते-आते विमला फुट-फुट कर रोने लग गई। गले से सिसकियों की आवाज कम पर आंख से आंसू ज्यादा निकल रहे थे। सुगना भी विमला की स्थिति देखकर धीरे-धीरे अपना धैर्य खो रही थी। विमला को सहानुभूति व हिम्मत देती हुई आंसू बहा रही थी। हीरालाल भी कुछ कह नहीं पा रहा था। बडी मुशकिल से घर-गृहस्थी चलाने वाले व्यक्तियों के साथ परिस्थितियां ऐसा खेल खैलती है जिसे खेलने वाला व्यक्ति खेल की रीति-नीति ही नहीं जानता। बिन पतवार नाव आगे बढ़े तो बढ़े कैसे।
विमला, रोते-रोते प्रकाश को पुकार रही थी-‘‘प्रकाश, बेटा प्रकाश। तू कहाँ है, बेटा। देख तेरे बापू की हालत क्या हो गई है। देख तेरी माँ आज तेरे बापू को रोग से बचा पाने में असमर्थ है। ऐसी परिस्थिति में बेटा अपनी माँ को सहारा दे। देख तेरी माँ तुझे पुकार रही है। प्रकाश-प्रकाश।‘‘ होस्पीटल की चहल-पहल, शोर-शराबे के बीच बहता यह दुःख एक हृदय से दूसरे हृदय से जुड़ा हुआ था। जिसे देखने वाला व्यक्ति कुछ देर के लिए अपना दुःख भूल जाता है।
‘‘सुनिये, आप लोग रामपुरा गाँव से आये हो?‘‘ शहरी वेशभूषा पहने व्यक्ति हीरालाल की तरफ देखकर पूछने लगा।
हीरालाल कुछ देर व्यक्ति की तरफ एकटक देखने के बाद सिर हिलाकर ‘हाँ‘ का संकेत देन लगा।
-‘‘मेरा नाम चन्द्रप्रकाश है। मैं सरकारी बीमा कम्पनी में कार्यरत हूँ। आप में से विमला कौन है? जिनके पति का नाम छगनलाल है।‘‘
-‘‘साहब, ये विमला है।‘‘ सुगना ने कहा। सुगना, बीमा व्यक्ति को पहचान गई थी। काउण्टर पर पर्ची बनाने वाला व्यक्ति इस व्यक्ति से कुछ कह रहा था।
‘‘साल भर पहले मैंने ही शहर के सभी कारखानों में कार्य करने वाले श्रमिकों का बीमा किया था। जिस कारखाने में अग्निकांड की घटना घटी थी। उसमें। दस व्यक्तियों को मृत्यु हो गई थी उनमें से एक व्यक्ति रामपुरा गाँव का निवासी प्रकाश कुमार पुत्र छगनलाल का बीमा मैंने ही किया था। प्रकाश ने नोमिनेट में विमला नाम लिखवाया था। पिछले महीने बीमा क्लैम पास हो चुका है। क्लेम की राशी दो लाख रूपये है। कार्य की अधिकता के कारण में आपके पास नहीं पहुंच पाया, इसके लिए मैं माफी चाहता हूँ। ये दो लाख रूपयों का चैक आपको सौंपकर मैं अपना कर्तव्य ईमानदारी के साथ पूरा करता हूँ।‘‘
माँ, की पुकार सुनकर बेटा इस रूप में सहारा देने आ गया। विमला यह स्थिति देखकर खुलकर रोने लग गई। दो लाख रूपयों का चैक विमला की जगह सुगना ने ले लिया। बीमा सज्जन चैक थमाकर धीरे-धीरे वेदना के परिवेश से दूर जा रहा था।
थोडी देर सब एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। विमला सिसकियाँ भरती हुई कहने लगी-‘‘सुगना, देख मैं सच कहती थी। मेरा बेटा प्रकाश आज भी मेरे साथ है। मेरा बेटा आज भी अपनी माँ का दुःख दूर करने के लिए इस रूप में आ गया।‘‘
‘‘हाँ-हाँ, विमला। हमारा प्रकाश हमारे साथ है।‘‘ सुगना भी विमला के साथ खुलकर रोने लग गई। माँ-बेटे का ये प्रेम देखकर हीरालाल भी दुःख के दौर में वात्सल्य प्रेम का सुख अंगीकार कर रहा था। छगनलाल भी अपनी पीड़ा भूलकर वात्सल्य प्रेम देखकर आंसू बहा रहा था। आंसुओं में माँ-बेटे का वात्सल्य प्रेम एक लकीर खींचकर लिख रहा था। ‘मैं विश्वास के सहारे जीवित रहता हूँ।‘ जहां विश्वास है वहां मैं न होकर भी हूँ।‘
लेखक-गोविन्द बैरवा पुत्र श्री खेमाराम जी बैरवा
आर्य समाज स्कूल के पास, सुमेरपुर
जिला-पाली, राजस्थान, 306902
मो0-9928357047, 9427962183
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