नितेश जैन की कविता कैसे भुलाऊँ मैं वो पल... जब एक आस लिये मैं उसके शहर जा रहा था अपना काम काज छोड़ बस उसके ही नगमे गा रहा था जब कोई स्टेश...
नितेश जैन की कविता
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
जब एक आस लिये मैं उसके शहर जा रहा था
अपना काम काज छोड़ बस उसके ही नगमे गा रहा था
जब कोई स्टेशन आता तो मैं खिड़की से बाहर देखता
शायद वो कहीं दिख जाए, बस यहीं ख्याब मेरे मन में रहता
रात भर जागने के बाद सुबह, जब मेरी मंजिल नज़दीक आई
अपना कीमती समय निकाल वो परी मुझसे मिलने आई
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
जब सुबह होते ही अपनी मीठी बोली से उसने मुझे जगाया
अपनी लहराती जुल्फों को बिखेर, सूरज की किरणों से मुझे बचाया
जब मुझे भूख सताती तो वो अपने हाथों से खाना परोसती
कभी खुद खिलाती तो कभी मरे हाथों से खाया करती
जब कभी मैं उदास होता तो उसने मुझे हंसना सिखाया
अपनी गोदी में सुलाकर मेरे बालों को सहलाया
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
जब कभी शाम होती तो वो मुझे अपना शहर दिखाती
कभी किसी मोड़ पे तो कभी किसी अनजान जगह ले जाती
कभी चाट खाने को कहती तो कभी आइसक्रीम खिलाती
उसकी इन बदमाशियों से बस उसी के लिये जीनों को मन करता
जब सूरज ढलने को होता तो वो मुझे वापस घर ले जाने को कहती
अपना सिर मेरे कंधों पर रखना चाहती लेकिन ना जाने वो क्यों डरती
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
जब रात होती तो वो मुझे छुप-छुप के इशारे किया करती
कभी पास आती तो कभी दूर से ही इशारे किया करती
कभी इडली तो कभी मूली के पराठे बनाया करती
खुद भूखी रहती लेकिन पहले मुझे खिलाती
जब मुझे नींद आती तो वो एक प्यारी सी मुस्कान दिया करती
अपनी मुस्कुराहट से वो मुझे सोने का इशारा किया करती
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
जब चारों ओर अन्धेरा होता, तो पलके हमारी भी नम हो जाती
कभी मैं उसे महसूस करता तो कभी वो मुझे याद करती
सच जानो तो दोनों एक दूसरे के बारे में ही सोचा करते
कभी मेरी धड़कने उसकी धड़कनों को महसूस करती
तो कभी मेरी साँसे उसकी आहट बना करती
ऐसे ही एक दूसरे में खोते हुये हमारी रात गुजरा करती
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
जब वो मुझे वापस स्टेशन छोड़ने आई
मुझे मेरी जीने की वजह दूर जाती नजर आई
मेरे हाथों में था उसका कोमल हाथ
लेकिन एक खलिश सी थी मेरे साथ
एक तरफ मुस्कुराहट तो दूसरी तरफ आंखों में पानी भी था
कुछ ऐसा मेरी जिन्दगी का वो हसीन सफर था
कैसे भुलाऊँ मैं वो पल...
लेखक - नितेश जैन
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रचना सिन्हा की कविता - बचपन
बचपन है प्यारा न्यारा
खेल कूद कर दिन गुजारा
फिर आई यौवन कि घड़ियाँ
मस्ती में बीता सब बढ़िया
रात दिन एक सा ख्वाब देखती
आधी जागी आधी सोयी
कभी आइने के सामने बैठती
कभी शरमा कर अपना मुंह ढंक लेती
एक दिन आया उसके सपनों का राजकुमार
उसके सपनों को पूरा करने
पर जब हकीकत सामने आई
बहुत देर हो चुकी थी
जिसे वो समझ रही थी अपना खुदा
उसे पा कर मिली उसे सबसे बड़ी सजा
बन के रह गई वो कठपुतली
किस्मत की मारी बेचारी
पर एक दिन आई हिम्मत उसके हाथ
बता दी फिर उसने अपनी औकात
जब भी समझा लोगों ने नारी को लाचार
किया उस पर हर बार वार
नहीं डरी वो खूब लड़ी वो
जीत हुई उसकी हर बार
उसके साहस का लोहा माना सब संसार
आज उसका मुस्कान देख कर सब जग मुस्काता है
लेकिन आज भी उसे अपना वो बचपन याद आता है।
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रचना सिन्हा
गिरिडीह, झारखण्ड
संपर्क %& rachanasinha6@gmail.com
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अमित सिंह की कविता - तितली और संगीत
तितली और संगीत
शिमला की एक सुबह
अजीब दास्तां है यह
कहाँ शुरु, कहाँ खत्म,
माउथाआर्गन की स्वर लहरी में
मैं तल्लीन था,
तभी,एक सुन्दर
लाल, भूरे और पीले रंग की
चौडी पंखों वाली अकल्पनीय
रंगीन तितली,
मेरे संगीत नोटस पर
आकर चुपचाप बैठ गई
मानो वह भी मेरे संगीत का
लुत्फ उठा रही हो,
यकायक,
मैं बचपन की
यादों की गलियों में
खो गया,
तितलियों के लिये
मेरा दूर तक भागना,
परेशान होना,
उसका पीछा करना,
और अंततः
खाली हाथ लौटना;
आज अचानक,
क्या हो गया?
इतनी सुन्दर तितली
और बिना प्रयास,
संगीत,सौन्दर्यॅ
आनन्द और शांति का
यह एक अकल्पनीय समागम था,.
यह पल;
मै़ तितली को पकडना चाह्ता था
जैसे ही यह विचार मेरे मन में आया
संगीत को मैंने विराम दिया
उसी क्षण तितली उड़ गई
मैं अवाक रह गया......
तितली का उड़ जाना,
वैसा ही अप्रत्याशित था
जैसे तितली का आना,
मैं दुखी था
परंतु सुख भी,
तो ऐसा ही होता है,
सहज आता है
जब हम शून्य में जीते हैं
या पूर्ण में,
जैसे ही हम
इसे पकड़ने की कोशिश करते हैं.,
यह उड़ जाती है
तितली की तरह.
और हम
अफसोस करते रह जाते हैं
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AMIT KUMAR SINGH
ASSISTANT PROFESSOR
R.S.M. (P.G.) COLLEGE
DHAMPUR (BIJNOR)-246761
U.P.
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उमेश मौर्य की कविता - फारमेलिटी
फारमेलिटी
कुछ लोग फारमेलिटी कुछ ज्यादा ही निभाते हैं
मिलो तो तपाक से हाथ मिलाते है
हाल चाल पूछते हैं, खिल के मुस्कराते हैं
लेकिन जब वक्त आता है, तो बड़ी सफाई से निकल जाते हैं,
कुछ लोग फारमेलिटी कुछ...........................
माँ बाप के बारे मे खूब चिन्ता दिखाते हैं,
पास बैठते हैं, हमेशा पैर छू कर जाते हैं,
पर जब होते है वो बीमार,
तो ये अपने कामों मे बिजी हो जाते है
कुछ लोग फारमेलिटी कुछ...........................
धर्म की बातें भी ये खूब सुनाते हैं,
दया भाव की बातें भी मार्मिकता से सुनाते हैं,
पर जब होता है, किसी बेसहारे को उठाना,
तो कहते है, बस थोड़ा रुको, हम अभी आते हैं,
कुछ लोग फारमेलिटी कुछ...........................
वे लोग जो व्यस्त रहते हैं लोगों की सेवा में,
दबे होते हैं कामों के बोझ तले हाथ,
न खुलकर वो कभी हाथ उठा पाते हैं,
न ही मुस्करा पाते है,
वो महलों की नीव मे दबे ही रह जाते है॥
कुछ लोग फारमेलिटी कुछ...........................
-उमेश मौर्य
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मिलन चौरसिया की ग़ज़ल -
मैं भी किताब लिखूंगा .
अपनी जिंदगी में एक मैं भी किताब लिखूंगा .
जो बचपन से पाल रखे हैं , वो सारे ख्वाब लिखूंगा .
बहुत बेचैन है दिल आज कुछ लिखने को,
सोच रखा है आज़ादी की मुक़म्मल किताब लिखूंगा .
बहुत लंबी होगी किताब में लिस्ट शहीदों की ,
फ़क़त एक दो नहीं ,सैकडो भगत,शेखर,सुबास लिखूंगा .
ना छूटेगा मेरी कलम से एक भी गांधी,
मैं सभी गांधियों क़ा वो पूरा सैलाब लिखूंगा .
जो हंसते हंसते झूल गये फांसी के फ़ंदों पर,
उन शहीदों का भी मैं सारा हिसाब लिखूंगा .
कुछ ऐसे सवाल तब के जो लाज़वाब थे,
आज़ मैं उन सबका भी ज़वाब लिखूंगा .
जितने भी दरिंदे थे मेरी आज़ादी के खिलाफ़,
उन सबकी दरिंदगी का सारा अज़ाब लिखूंगा .
अब जब कि लिखूंगा मैं , दास्तान-ए-आज़ादी,
बहुत कम हरफ़ों में मग़र बेहिसाब लिखूंगा .
जब हो जायेगी मुक़म्मल यह किताब अपनी,
अपने लहू से आख़िर में 'मिलन' इंकलाब लिखूंगा .
- मिलन चौरसिया 'मिलन' माँदी सिपाह,मऊ.
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मनोज 'आजिज़' की ग़ज़ल
रातों की नींद कोई उड़ाता गया
सितारों से बात मैं करता गया
खुद को आईने के पास खड़ा किया
दरिया-ए-दिल फिर बहता गया
आँखें तो कई दफ़ा पिघलीं मगर
हर बार खुद ही सम्हलता गया
सफ़र-ए-हयात में आए कई नदीम
कोई भाया कोई जी चुराता गया
आग अपने दिए ग़ैरों ने हवा
चराग़े जश्न यूँ जलता-बुझता गया
आदित्यपुर २
जमशेदपुर-१४
झारखण्ड
09973680146
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गिरिराज भंडारी की ग़ज़ल
हंगामों से ही बहलने लगा है
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समा फिर से देखो बदलने लगा है
समन्दर का पानी उछ्लने लगा है
हर इक दिल डरा है,हर इक मन में शंका
हर इक रूह से कुछ पिघलने लगा है
ज़बां पे है गाली, दिमागों में ग़ुस्सा
हर कोई अब, हथेली मसलने लगा है
इंसान भारत का पहले कहां था
गिर के कहां तक फिसलने लगा है
निज़ामों से इस बार भी कुछ न होगा
यही सोच के दिल दहलने लगा है
मगर क्या करें, आज लोगों का मन फिर
हंगामों से ही बहलने लगा है
गिरिराज भंडारी
गिरिराज भंडारी, मनोज 'आजिज़',मिलन चौरसिया, अमित सिंह, रचना सिन्हा, नितेश जैन सभी की रचनाए बहुत सुंदर लगी|
जवाब देंहटाएं*गिरिराज जी की रचना में जो धाराप्रवाह,और भाव प्रवाह बंधा उससे आनंद आ गया|
* तितली के भी अच्छे रंग नजर आये|
* नितेश जी का ट्रेन का सफ़र बढ़िया लगा |
* रचना जी की बचपन की कविता में सार्थकता लगी |
* मनोज जी की गजल सुन्दर है |
सभी रचनाकारों को बधाई
बहुत बहुत धन्यवाद उमेश जी
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद उमेश जी और बाक़ी रचनाये भी अच्छी लगीं ! सब रचनाकारों को बधाई !
हटाएंkhubsurat rachnaaye....
जवाब देंहटाएंउमेश भाई, सुशमा जी , आपका धन्यवाद,
जवाब देंहटाएंउमेश भाई,आपकी कविता, फारमेलिटी " सच मे आज का सच है , जैसे कि आइना दिखा दिया हो , मनोज भाई आपकी गज़ल बहुत अच्छी लगी , नीतेश जी के साथ सफर अच्छा रहा, तितली सही मे बचपने मे ले गई ! और बाक़ी रचनाये भी अच्छी लगीं ! सब रचनाकारों को बधाई !
बहुत बहुत धन्यवाद भंडारी जी .और बाक़ी रचनाये भी अच्छी लगीं ! सब रचनाकारों को बधाई !
हटाएंउमेश जी और भंडारी जी धन्यवाद मेरी कविता को सराहने के लिए... और आप सभी को बहुत बहुत बधाई .....
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