ओस बनूँगा तांक झांक कर रही दुपहरिया अल्हड़ हो गई सारी अमियाँ गुलमोहर से कुमकुम बरसे सजी सेज पर सजनी हरसे छांव नीम की ठंडी ठंडी मदहोशी...
ओस बनूँगा
तांक झांक कर रही दुपहरिया
अल्हड़ हो गई सारी अमियाँ
गुलमोहर से कुमकुम बरसे
सजी सेज पर सजनी हरसे
छांव नीम की ठंडी ठंडी
मदहोशी में आंखे मूँदी
मटके से अमृत ले पीया
तर हो आया रोआं रोआं
आँगन में तसला भर पानी
रोज़ नहाती चिड़िया रानी
दादी कैसे रोज़ दिखाती
बबुआ देख, गिलहरी प्यारी
धन्य भाग , रामजी की दुलारी
अम्माँ की लोरी में
सपनों की डोरी से
बंधा हुआ था गाँव
इस मिट्टी में सने सने ही
बूढ़े हो गए पाँव
मैं इनमें था कहीं न खोया
जीवन के लंबे धागे में
एक एक कर इन्हें पिरोया
नहीं मिटूँगा इनमें मिलकर
इनमें मिलकर जी जाऊंगा
हवा बनूँगा ,ओस बनूँगा
सौंधी मिट्टी ,दूब बनूँगा
अमराई का बौर बनूँगा
अमलतास का फूल बनूँगा
यहीं रहूँगा आसपास मैं
इनमें खोजो तभी दिखूँगा
तभी दिखूँगा ।
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मेरे कॉलेज की वह लंबी लड़की
जिसे मैंने गूंगा प्रेम किया था
वेलेंटाइन पर कभी फूल नहीं दिया था
मेरे एकतरफा प्रेम की उसे
भनक पड़ गई थी
एक दिन वह तैश में आकार बोली थी देखो तुम्हारा मुझे प्यार करना एकदम गलत है
मेरी सगाई हो गई है
मैंने हँसकर उसी की तर्ज़ पर कहा
देखो प्यार अपने आप में कभी गलत नहीं होता
बस वक़्त की तराज़ू पर उन्नीस बीस हो जाता है
और फिर मैं कौन तुम्हें परेशान करूंगा
तुम रहो तुम्हारी दुनिया में
मैं कौन बीच में आऊँगा
उसका तैश कुछ कम हुआ था
होठों पर हंसी का गुलाब खिल गया था
हल्की सी डपट देकर चली गई थी वो
आज बरसों बाद कभी उसकी याद आती है
भूले से कहीं दिख जाए ये तमन्ना जाग जाती है
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मन्नत
नारद बोले प्रभु से
वह औरत कल से निर्जल है ,निराहार है
कहती है उसका बेटा इम्तहान मेन निकल जाए
तो तुलसी की माला चढ़ाएगी
जेठ की दुपरिया मेन नंगे पाँव मंदिर आएगी
प्रभु बोले अरे ,ये औरत कुछ दिन पहले बोली थी
बेटी का पहला जापा है ,सब ठीक कर देना
बेटी का आँचल दूध से भर देना
बच्चे के नामकरण पे तेरे नाम के
घुघरे बटवाऊंगी
सवा पाव पेड़े पहले तुझे ही खिलाऊंगी
नारद बोले स्वामी इसकी तो मन्नत खत्म ही नहीं होती
एक पूरी हुई कि दूसरी मांग लेती है
प्रभु बोले जो खुद के लिए कुछ नहीं मांगती
ममता कि मूरत बस ऐसी ही होती है
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बचपन नानी का
एक थी नानी बड़ी अनमनी नाती पोते व्यस्त बहुत है
सुनता कौन कहानी
याद आ गया फिर नानी को उसका अपना बचपन
भोली आँखों का जादू था भोला भाला था मन
कैसे सावन के माहों में आसमान तकते थे
रुई धुनकनेवाला ऊपर रहता है कहते थे
आँधी देख सहमकर कहते डायन झाड़ू झाड रही है
ऊपर गड़गड़ सुनकर कहते बुढ़िया चक्की चला रही है
साँझ पड़े नानी को घेरे सुनते नई कहानी
उसमें कैसे साँप फेंकती थी वह जादूगरनी
कैसे हँसती राजकुमारी कैसे रोती रानी
कैसे परियाँ रात को आकार माथा सहला जाती
छड़ी घुमाकर पलभर में यूं गायब हो जाती
कभी कहानी सुनते सुनते मुंह में परमल बजता
कभी कभी गुड़ की ड्ल्ली से मीठा रस भी घुलता
कभी बेर और इमली खाकर दाँत बांवले हो जाते
कभी हांथ में मोहन भैया ढेर आंवले दे जाते
साँझ समय मंदिर में जाकर घंटी रोज़ बजाते
चार चिरोंजी के दानों में दुनिया ही पा जाते
नानी ने देखा नन्हों को वे तो थके हुए थे
कांधे पर बस्ते को लादे कैसे झुके हुए थे
आँखों से वे बूढ़ा गए थे
भोलेपन को गाड़ गए थे
कैसी चक्की कैसी बुढ़िया
कैसे बादल कैसी परियाँ
बोले वक़्त नहीं है नानी
आज टेस्ट है कंप्यूटर की डांट नहीं है खानी
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समर्पित मन
अव्यक्त और अशरीरी प्रेम ! मैं नहीं जानता
मैं तो अपने प्रेम को व्यक्त करना चाहता हूँ
तुम्हारी आँखों में डूबकर ,तुम्हारे कांधे से टिककर
हांथों में हांथ देकर ,तुम्हारे बाजुओं से सटकर
तुम्हारे होंठो को छूकर ,तुम्हें बांहों में लेकर
तुम्हारे प्यार की बारिश में भीगना चाहता हूँ
जब जब मै तुमसे ऐसा प्रेम करता हूँ
तब तब शिख से नख तक समर्पित मन बन जाता हूँ
शायद तब मैं अशरीरी हो जाता हूँ
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ढाई अक्षर
वो कहता है मुझसे ‘ तुम्हें बहुत चाहता हूँ
लेकिन तुम मेरी चाहत को
ऊन के गोलों सी उलझाती हो
सही गलत की सलाइयों पर बुनती हो उधेड़ती हो
ढाई अक्षर प्रेम के किन किताबों में ढूंढती हो
मेरी दीवानगी किन मायनों में खोजती हो
मुहब्बत नापने के लिए कौनसा पैमाना लाओगी
समुंदर की गहराई में कहाँ तक जाओगी
मैं तो स्पर्श की भाषा जानता हूँ
दिल की इबारत पढ़ता हूँ
जब भी तुम्हें छूता हूँ ,एक नई कविता गढ़ता हूँ
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कोयल को समझाए कौन
पनघट रूठे ,नदियां रूठीं
पनिहारिन की गगरी फूटी
झरनो की झर झर से कुट्टी
बगिया की अस्मत क्यूँ लूटी
नीर नहीं अब शीतल निर्मल
कटे जा रहे जंगल जंगल
नग्न हो रहे पहाड़ पर्वत
किस वहशी ने रौंदी मिट्टी
कुएं की मुंडेर है सूनी
आए कौन ,कहाँ है पानी
दादुर ने साधा है मौन
कोयल को समझाए कौन
समुंदर की आँखों में पानी
उसकी पीड़ा किसने जानी
चीर हरण से रोटी अवनि
कृष्ण कौन ,दुर्योधन कौन
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जागो इंसान जागो
जाता साल और आता साल ,चिंता में थे
कहने लगे “ इंसान बहुत पढ़ लिख गया है
तकनीकी दुनिया में बहुत आगे बढ़ गया है
चाँद पर जाकर पानी खोज आया है
आसमान पर जाकर तारे तोड़ लाया है
फिर क्यूँ किसी औरत में ,चुड़ैल घुस आती है
डायन की छाया है कहकर मारी जाती है
झाड़ फूँक के सिलसिले बंद नहीं हुए हैं
नर बलि के किस्से कम नहीं हुए हैं
अंधविश्वास की जड़ें ज़िंदा हैं अभी भी
गलत रूढ़ियों में वो बंधा है अभी भी
वो किस विरोधाभास में जी रहा है
दवा समझकर कौनसा जहर पी रहा है
इंसान को अब सम्हलना होगा
मानसिक प्रदूषण से बचना होगा
वे दोनों हांथ उठाकर बोले चेतो इंसान चेतो
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रेशम की डोरी
देख उसे माँ की गोदी में
मैं लेने को मचली थी
मैं थी कोई पाँच बरस की
उस नन्हें की दीदी थी
मुझे देख वह कभी किलकता
खिले फूल सा ऐसे हँसता
मेरी अंगुली मुट्ठी में भर
झट से मुंह में लेता
भूली थी मैं संगी साथी
बस उसमें रमती थी
नन्हें की भोली आँखों में
मैं ही मैं दिखती थी
साँझ को दादी हम दोनों पर
राई लूण घुमाती थी
अम्माँ अपनी आँखों के
काजल से टीका करती थी
कहती बहना की आशीषे
भाई का घर भरती है
रेशम की बस एक डोरी से
बुरी नज़र भी डरती है
हे ईश्वर , मेरे भैया को
उमर मेरी लग जाए
खूब सजे घर आँगन उसका
अला बला टल जाए
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जल बूंदों के मोती
असंख्य जल बूंदों के मोती ,आसमान से बरसे हैं
इन्हें सहेजो , इन्हें समेटो ,नीर बिना सब तरसे हैं
यह निर्मल है ,यह पावन है
यही तीज है सावन है
यह है अनाज की बाली मेँ
बच्चों की बजती ताली मेँ
धरती की धानी चूनर मेँ
मुनिया के हरे समंदर मेँ
यह है कोयल की कुहुकन मेँ
यह है मयूर की थिरकन मेँ
यह खूब झरेगा झरनों मेँ
यह इठलाएगा नदियों मेँ
नीले पीले छातों पर
टप टप करता छप्पर पर
रिमझिम करता भिगो रहा है
वसुंधरा का तन
जैसे आँखों के पानी से
भीगे मेरा मन
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