पु स्तैनी सम्पत्ति को बिगाड़ने की जरा सी भी इच्छा गोविन्द के मन में नहीं थी.वह चाह रहा था जिस तरह उसके दादा की सम्पत्ति को पिता ने सहज कर रख...
पुस्तैनी सम्पत्ति को बिगाड़ने की जरा सी भी इच्छा गोविन्द के मन में नहीं थी.वह चाह रहा था जिस तरह उसके दादा की सम्पत्ति को पिता ने सहज कर रखा और पूरी ईमानदारी के साथ उस सम्पत्ति की रक्षा की, उसी तरह उसका पुत्र जीवेश भी उसे सम्हाल कर रखे पर जीवेश खेती किसानी न करके व्यवसाय करना चाहता था. वह भी जमीन बेंचकर.गोविन्द की पत्नी मालती ने कहा - जब लड़का खेती किसानी करना ही नहीं चाहता तो उस पर जबरन क्यों लादते हो ? वह धंधा करना चाहता है तो जमीन बेचकर उसे रुपये क्यों नहीं दे देते ?
- मालती तुम समझती क्यों नहीं. आजकल व्यवसाय में भारी प्रतिस्पर्धा है. व्यापार करने वाले ही जानते हैं कि वे कि स तरह दो वक्त की रोटी लायक कमाते हैं । पत्नी के प्रश्न का उत्तर गोविन्द ने दिया.
- यहां लाभ - हानि सबके साथ लगा रहता है. हम भी तो खेत में बीज डालकर कभी - कभी हानि उठाते हैं. जैसे हम खेती में जुआ खेलते हैं वैसे ही उसे व्यवसाय में जुआ खेलने दो.लड़के का मन खेती - किसानी में बिलकुल नहीं है. जबरन थोपोगे तो वह मन लगाकर खेती करेगा क्या यह संभव है ?
- तुम्हारा कहना सच है पर वह निश्चय तो करे कि आखिर कौन सा व्यवसाय करना चाहता है उसे. किराना व्यवसाय में रखा ही क्या है. देख ही रही हो गॉँव में कितनी किराने की दुकान हो गयी है. दुकानदार दिन भर मक्खी मारते बैठे रहते हैं जिसका व्यवसाय चलता है तो वह उधारी.
- लड़का पढ़ा - लिखा है.खेती - किसानी करना नहीं चाहता. अपना हित - अहित की समझ उसे भी है. पढ़ - लिखकर हल जोंते क्या यह उचित है ?
- यहीं पर तो हम मात खा जाते हैं. यदि सभी पढ़े लिखे लोग यही सोचने लगे तब खेती कौन करेगा ? अन्न आयेगा कहॉँ से ? एक बात याद रखनी चाहिए कि जो जितना अधिक पढ़ा लिखा होता है. खेती करता है तो वह अधिक अन्न उत्पन्न करने की क्षमता रखता है .पढ़ा - लिखा व्यक्ति अत्याधुनिक कृषि करके कृषि उत्पादन में बढ़ोत्तरी करता है. पर पता नहीं आजकल के बच्चों को क्या हो गया है , जरा सा पढ़ा लिखा नहीं कि वह दूसरे के घर नौकरी करना चाहेगा या फिर व्यवसाय.
- तुम सदैव अपनी बात मनवाने तर्क पर तर्क देते हो.
- मैंने जीवन का कटु अनुभव किया है. मैं कोई जीवेश का शत्रु तो नहीं. मैं भी उसका हित चाहता हूं पर उसकी माँग मुझे उचित नहीं लगती. क्या तुम भी यही चाहती हो कि हम उस व्यवसाय के लिए अपनी जमीन बेचकर राशि झोंक दें जिसके विषय में हमें जरा भी जानकारी न हो ?
मॉँ - पिता में चल रहे वार्तालाप को जीवेश सुन रहा था. पिता के कठोर वाक्य को जीवेश सह नहीं सका. वह सामने आया. कहा - दद्दा आप व्यवसाय के लिए पैसा नहीं देना चाहते , न दे पर याद रखे मैं खेती - किसानी नहीं करुंगा यानि नहीं करुंगा.
- तेरी मर्जी में जो आता है कर... मुझे यह मंजूर नहीं कि खेती बेचकर व्यवसाय कराऊं .
बहस बढ़ती इससे पहले जीवेश वहां से चलता बना.
रात गहरा चुकी थी.जीवेश अब तक लौटा नहीं था.उसकी मां मालती की आँख नहीं लग पायी थी.गोविन्द खर्राटे भर रहा था.मालती की द्य्ष्टि बराबर दरवाजे पर टिकी थी. मालती को लगा रात गहरा चुकी है.उसने खर्राटे भर रहे गोविन्द को झकझोर कर कहा - तुम खर्राटे भर रहे हो.जीवेश अब तक नहीं आया है.
- आ जायेगा....।
गोविन्द ने करवटे बदलते हुए नींद में ही बड़बड़ाया.मालती सोने का प्रयास करती रही पर नींद आंखों से दूर हो चुकी थी. अब मालती के मन में तरह - तरह की शंकाएं - कुशंकाएं जन्म लेने लगी.उससे रहा नहीं गया तो उसने फिर से गोविन्द को झकझोरा - तुम्हें जरा भी चिंता नहीं. पता नहीं, लड़का कहां चला गया होगा ?
- तुम जैसी माताओं की वजह से ही संताने बिगड़ती है. अरी, वह आ जायेगा न. तुम खुद सोती नहीं जो सोया है उसे टोचक - टोचक कर उठाती हो. तुम चुपचाप सो क्यों नहीं जाती ? गोविन्द ने झल्लाकर कहा .
- तुम पता क्यों नहीं कर लेते ?
- क्या पता करुं, कहां पता करुं. गया है तो आयेगा ही ..... ।
और फिर गोविन्द की आँख लगने लगी. रात गहराने के साथ मालती समय का अंदाजा लगाती रही. आधी से भी ज्यादा रात गुजर चुकी थी पर जीवेश का पता नहीं था.पुत्र के इंतजार में मां की आंख कब लगी वह जान नहीं पायी.पहट होने के साथ उसकी आंखें खुली.जीवेश आया नहीं था. गोविन्द अब तक नींद में ही था.मालती ने कहा - तुम घोड़े बेचकर सो रहे हो. तुम्हारा लड़का रात भर नहीं आया.इसकी जानकारी तुम्हें है..... ?
अब गोविन्द रटपटाया. कहा - क्या... जीवेश रात भर नहीं आया... ?
- नहीं, मैं झूठ बोल रही हूं... । मालती ने झल्लाकर कहा.
नींद खुलते ही गोविन्द की आदत लोटा लेकर दौड़ने की थी पर आज वह इस आदत को बिसर गया.वह दौड़ा दिलीप के घर की ओर.दिलीप, जीवेश का अभिन्न मित्र था. जब दिलीप से उसने जीवेश के संबंध में पूछा तो दिलीप ने बताया - कल कोई तीन - चार बजे के लगभग उससे मेरी मुलाकांत हुई थी.उसके बाद वह कहां गया मैं भी नहीं जानता.वह कुछ उदास सा था. घर में कोई बात हो गयी क्या काका ?
- बात कोई बहुत बड़ी नहीं थी दिलीप.वह चाहता है मैं जमीन बेचकर उसे व्यवसाय करने पैसा दूं. अब तुम ही बताओ, क्या व्यवसाय करने के लिए जमीन बिगाड़ना अच्छी बात है ?
- काका आप भी न, यदि वह चाहता है व्यवसाय करना तो आप उसे रुपये क्यों नहीं दे देते ?
- पर मेरे पास इतने रुपये नहीं है कि बिना जमीन बिगाड़े उसे दे सकूं .
- एक ही तो लड़का है. उसकी इच्छा पूरी नहीं करोगे तो काम कैसे बनेगा. अब पता नहीं वह कहां गया होगा.मेरी मुलाकात तो हुई थी पर उसने ऐसा कुछ नहीं बताया कि वह कहां जायेगा.उसने इतना अवश्य कहा था - खेती - किसानी मुझसे होगी नहीं. कहीं जाकर नौकरी करनी पड़ेगी. मैं तैयार होकर पता करता हूं वह कहां गया होगा.... ।
दिलीप तैयार होने चला गया. चाय आ गयी थी. चाय की चुस्की लेते हुए उसका मन अशांत था.उसके भीतर एक प्रकार से अज्ञात भय घर करता जा रहा था. उसमें विचार उठने लगा था कि जीवेश कोई ऐसी - वैसी कदम न उठा ले जिससे उसे परेशानी में पड़ना पड़ जाये.चाय खत्म कर उसने खाली कप जमीन पर रख दिया. दिलीप तैयार होकर आया. गोविन्द ने कहा - मैं उसकी बात मानने तैयार हूं. भले ही जमीन बेचनी पड़े मैं उसे व्यवसाय करने पैसा दूंगा.
दोनों निकल पड़े जीवेश की खोज में. वे सारा दिन आसपास के गाँवों में जीवेश की खोज करते रहे. उसकी खोज खबर लेते रहे. सारा दिन निकल गया. जीवेश का कहीं पता नहीं चला.उनके अन्य संगी साथियों से जानकारी लेने का प्रयास किया गया पर किसी ने भी जीवेश के संबंध में कुछ नहीं बता सका.संध्या थके - हारे दोनों वापस गांव आ गये.घर पहुंचते ही उसकी पत्नी मालती ने पूछा - जीवेश का कहीं पता चला.... ।
- नहीं..... ।
गोविन्द पूरी तरह थक चुका था.
दिन सरकता गया.गोविन्द ने सभी संभावित जगहों पर जीवेश का पता लगाया पर आशा जनक खबर कहीं से नहीं मिली.इसी तरह दिन महीना में बदल गया और छै माह हो गये.जीवेश का कहीं पता नहीं चला.एक बार तो गोविन्द के मन में इश्तिहार निकलवाने का विचार आया पर वह यह सोच कर चुप रह गया कि जीवेश आज नहीं तो कल अवश्य आयेगा.गोविन्द आशावान था पर छैमाह बाद भी जीवेश न खुद आया और न उसकी चिठ्ठी - पत्री आयी.मां की आंखें रो - रो कर पथरा गयी थी. सोच - सोच कर गोविन्द का मन बैठ गया था.
उस दिन छपरी की खाट पर पड़े गोविन्द कवेलू वाले छानी को निहार रहा था.पास ही बैठी उसकी पत्नी मालती चांवल साफ कर रही थी. सूपे की थाप के साथ ही गोविन्द का विचार रफू चक्कर हो जाता.अभी भी वह जीवेश के बारे में सोच रहा था. सूपे की थाप के बीच ही उसे अनुभव हुआ कि किसीने घर के दरवाजे की कुण्डी खटखटाया है. उसने मालती से कहा - लगता है किसी ने कुण्डी खटखटायी, देखो तो ?
मालती चांवल भरे सूपे को वहीं पर रखकर दरवाजे की ओर दौड़ी. दरवाजा खोलकर देखी. सामने पोष्टमेन खड़ा था. उसने एक पत्र मालती को थमा दिया.मालती गोविन्द के पास आयी.पत्र उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली - पोष्टमेन आया था. ये चिठ्ठी दे गया...।
क्षण भर देर किये बगैर गोविन्द खाट से उठा. पत्नी के हाथ से पत्र लिया. तुरंत खोला.यह पत्र उसके पुत्र जीवेश का था. मालती ने पूछा - किसकी चिठ्ठी है ... ?
- जीवेश का... । गोविन्द की आँखों में चमक आ गयी.उसने चिठ्ठी पढ़ना शुरु किया. पता नागपुर का दिया था.वह तुरंत तैयार हुआ और घर से निकलने लगा.
मालती ने पूछा - कहां जा रहे हो... ?
- मैं दिलीप के पास जा रहा हूं. आज ही नागपुर जाकर जीवेश को ले आता हूं.
इतना कह कर वह दिलीप के घर की ओर दौड़ा. दिलीप घर पर ही था. दिलीप ने गोविन्द को देखकर कहा - कैसे आना हुआ काका... ?
गोविन्द ने चिठ्ठी उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा - ये जीवेश की चिठ्ठी आयी है. वह नागपुर में रहता है.बेटा, उसे कैसे भी करके ले आओ. अब वह जो चाहेगा, वही होगा.
गोविन्द का मन अधीर हो उठा.दिलीप ने चिठ्ठी लेकर पढ़ा. कहा - काका, मैं कल ही नागपुर जाकर उसे ले आता हूं... ।
- कल क्यों .. आज क्यों नहीं ... ?
- अभी कहां गाड़ी मिलेगी काका.. कल सुबह की गाड़ी से चला जाऊंगा. देर रात तक उसे लेकर लौट आऊंगा.
गोविन्द का मन उदास हो गया.गोविन्द चाहता था - दिलीप अभी जाये. जितनी जल्दी हो सके लाल को लेकर आये पर यह संभव था ही नहीं उसे एक दिन प्रतीक्षा करनी ही थी.
दूसरे दिन दिलीप नागपुर जाने के लिए निकल गया.जब दिलीप प्रस्थान कर रहा था तो न सिर्फ गोविन्द अपितु उसकी पत्नी मालती ने भी कई बार कहा - उसे लेकर ही आना.वह जो चाहेगा, जैसा चाहेगा, अब घर में वही होगा.पुत्र के लिए वह धरती का मोह त्याग देगा कहा.
दिलीप, जीवेश के बताये पते पर पहुंच गया.दिलीप को देखकर जीवेश ने उसे गले से लगा लिया. दिलीप ने कहा - तुम यहां मजे में हो, वहां तुम्हारी मां का रो - रो कर बुरा हाल हो गया है. तुम्हारे पिता सोच - सोच कर दुबले हो गये हैं.. चलो गाँव.. ।
- नहीं मित्र, मैं गाँव नहीं जाऊंगा... ।
- तुम व्यवसाय करना चाहते हो न, मैंने काका को समझा दिया है. वे तैयार हैं, खेत बेचकर पैसा देने के लिए..।
- यदि नहीं दिए तो.. ?
- क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं.. ?
यदि जीवेश का सबसे विश्वसनीय मित्र था तो वह दिलीप ही था . उसने कहा -तुम कैसी बातें करते हो.मुझे तुम पर उतना विश्वास है जितना स्वयं पर नहीं.. ।
- तो फिर चलो, मैं तुम्हारे विश्वास का खून नहीं होने दूंगा.
दिलीप तैयार होकर जीवेश के साथ गाँव आ गया. जीवेश के आने की खबर गॉँव भर दावानल की तरह फैली.गाँव के लोग उसके घर पर आने लगे. रामदीन ने कहा - बेटा, तुम चले गये. वहां सुख शांति से रहे होगे पर पता है तेरे माता - पिता पर क्या - क्या बीता होगा ? दिन रात ये तुम्हारे नाम लेकर जीते मरते रहे .
जीवेश चुप रहा. उसी समय घनश्याम ने आकर गोविन्द से कहा - मैंने जमीन का सौदा पक्का कर दिया है. कल हमें रजिस्ट्री कराने जाना है.
- हां , वह तो करना ही पड़ेगा.बारिस भी लगने वाली है. इससे पहले वह खेत में फसल डालने खेती की साफ सफाई भी तो करेगा. गोविन्द ने कहा.
रात होने के साथ एक - एक कर गाँव वाले गोविन्द के घर से छंटने लगे. दिलीप ने कहा - काका मैं भी चलता हूं. कल समय पर तैयार हो जाऊंगा. रजिस्ट्री कराने जाने के लिए.
अब घर में तीन जन रह गये थे.गोविन्द , जीवेश से यह पूछना तो चाहता था - जमीन बेचकर प्राप्त रुपये से कौन सा व्यवसाय करेगा पर वह डर रहा था कि बात बिगड़ न जाये. उसने जीवेश से कुछ नहीं कहा.
प्रातः होते ही गोविन्द उठकर तैयार हो गया. उसने मालती से कहा - तुम जमीन के कागजात थैली में डाल देना. ऐसा न हो कि जाते वक्त उसे ही लेना भूल जाऊं.
- तुम चिंता मत करो. मैंने सारे पर्चे पट्टे थैली में डाल दिये है.
माता - पिता की वार्तालाप जीवेश सुन रहा था.वह अंर्तद्वंद में फंसा था - वह जमीन बिकवा कर जो व्यवसाय करने को सोच रहा है क्या उचित है ? कहीं वह भविष्य सुधारने की फिराक में उसे अंधेरे में तो नहीं धकेल रहा है. दादा - परदादाओं की भावनाओें के साथ कहीं वह खिलवाड़ तो नहीं कर रहा है ? उसका एक मन कहता - वह जो करने जा रहा है वह उचित है पर दूसरे ही क्षण उसके दूसरे मन उसे भंवर जाल में फंसा देता.
दस बज चुके थे.गोविन्द तैयार हो चुका था.दिलीप और घनश्याम के साथ जमीन के खरीददार मंगलू उसके घर आया.गोविन्द ने जीवेश को आवाज दी.जीवेश घर पर नहीं था.उसने मालती से पूछा. मालती ने भी अनभिज्ञता जाहिर की. अब फिर गोविन्द के मन में शंका सिपचने लगी - कहीं जीवेश फिर से शहर की ओर तो नहीं भाग गया ? वह बाहर निकला. गाँव में तीन - चार लोगों से पूछा.पर किसी ने संतोष जनक जवाब नहीं दिया.खेत की ओर से चरवाहा सहदेव आ रहा था. उसने गोविन्द से कहा - तुम जीवेश को खोज रहे हो न ?
- हां, क्या तुमने उसे देखा है ... ?
- हां, हां... मैंने उसे तुम्हारी खेत की ओर जाते देखा है .
- क्या... ? गोविन्द की आँखें आश्चर्य से फटी की फटी रह गयी. एक प्रकार से भय भी उसके भीतर सिपचने लगा - जीवेश खेत में जाकर उलटा सीधा न कर ले. गोविन्द, घनश्याम , मंगलू और दिलीप के साथ खेत की ओर दौड़ा.वे खेत की मेड़ पर खड़े होकर एक एक करके आवाज दी. उधर से आवाज आयी - मैं लीमाही खेत में हूं. यहां आ जाओ .. ।
सबके सब लीमाही खेत की ओर दौड़े . उन्होंने देखा - जीवेश उथला खेत को खोदने में व्यस्त है. वे उसके पास गये. गोविन्द ने कहा - ये तुम क्या कर रहे हो ?
- दद्दा इस पर पानी नहीं चढ़ पाता इसलिए यहां पर अन्न उत्पन्न नहीं होता है.उबड़ - खाबड़ जमीन को समतल बनाने में जुटा हूं .... ।
- अरे , हमने तो इस जमीन को बेचने का निर्णय ले लिया है. अब इसकी सुधार की जिम्मेदारी हमारी नहीं. चलो, हमें इस जमीन की रजिस्ट्री कराने जाना है ... ।
- नहीं दद्दा अब यह जमीन नहीं बिकेगी.
और वह उथली जमीन को खोदकर नीचली जमीन में मिट्टी डालने लगा.... ।
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साईं मंदिर के पीछे,
वार्ड नं. 16,
तुलसीपुर, राजनांदगांव - छग
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