विश्व चेतना के पथ प्रदर्शक महावीर आत्म ध्यान से अन्तर्भाव को आलोकित करने वाले वीतराग महावीर ,जैन सनातन श्रमण परम्परा के २४वे तीर्थंकर एवं प...
विश्व चेतना के पथ प्रदर्शक महावीर
आत्म ध्यान से अन्तर्भाव को आलोकित करने वाले वीतराग महावीर ,जैन सनातन श्रमण परम्परा के २४वे तीर्थंकर एवं पथ् प्रदर्शक हैं। विश्वप्रेम को केवल कुछ शब्दों ,”जीयो और जीने दो “में परिभाषित करने वाले विरले द्रष्टा थे ,महावीर। जिस देह के सापेक्षता में “मैं”तत्व विश्व को अनुभूत करता है उसी की अन्तर्यात्रा कर उन्होंने पूर्ण चेतना को विकसित किया। उन्होंने ,अपनी देह बूंद से विश्वसागर को प्राप्त कर लिया। माता त्रिशला के स्वप्नों ने संजोया था माहवीर को और पिता राजा सिद्धार्थ ने थाम लिया नन्हे उँगलियों को अग्रिम पथ के लिये। छत्रीयकुण्ड राज्य के प्रगति ने कुमार का नाम रख दिया “वर्धमान “।
आत्मध्यान के अद्वैत्य यज्ञ से उन्होंने आत्मज्ञान को अपने अंदर ही पा लिया और कहा यही केवल ज्ञान है ,बाकी सब सपेक्ष ज्ञान है। सारे जीवों का उद्देश्य भी इसी परम ज्ञान को प्राप्त करना है।देह हवन कुण्ड है जिसमें अपने विकारों और द्वेश भावों की आहुति देना है ,संयम ,तपश्चर्या ,आत्मध्यान साधन है और जीव साधक है। अहिंसा को भावों के सूक्ष्मतम सतह तक अनुभूत किया ,यही आनंदमयता है यही पूर्ण मुक्तता है।
आत्मदीक्षित महावीर ने पूरे परिवार का व्यवहार निभाया। माता त्रिशला और पिता सिद्धार्थ के अश्रु बिंदु ने रोक लिया कुमार वर्धमान के क़दमों को। जिसने जन्म दिया है उनके वात्सल्य भाव का पूर्ण सम्मान किया उन्होंने , दो वर्ष भ्राता नन्दिवर्धन के आग्रह पर रुक गये। ३२ वेर्षों के इंतजार ने और विशाल बना दिया वीर को ,कोई शीघ्रता नहीं पूर्ण संतुलन ,पूरे समाज के लिये अनुकरणीय है उनकी दीक्षा विधि ,कोई प्रदर्शन नहीं क्योंकि ये तो आत्म महोत्सव है ,स्वदर्शनीय है। आत्म कल्याण से विश्व कल्याण की कल्पना लिये कुमार ने अपने कदमों को आगे बढाया।
राज सिंहासन और छत्रियकुण्ड राज्य से पहले उन्होंने राजकुमार वर्धमानं को मुक्त किया ,ऐश्वर्य का त्याग ईश्वर तत्व प्राप्त करने के लिये किया ,सब कुछ छोड़ने के बाद भी मान बच जाता है वो भी सौप दिया कुमार ने , यही तो सत्य अपरिग्रह है। आज का सामाज और देश परिग्रह की पराकाष्ठा बन गया है। मातृभूमि और पूरी मानवता पीड़ित है। ऐसे में महावीर की आवश्यकता पुरे मानवता को है,पुरे विश्व को है। मुक्त पथ में आत्मध्यान की यात्रा प्रारंभ हो गया ,सुरक्षा प्रतनिधियों को भी सविनय अस्वीकार कर दिया वर्धमान ने। पूर्ण स्वराज्य स्थापित करना था पर शासक नहीं बनना था वीर को।
समकालीन सनातन धर्म की दो मुख्य धारा ब्राम्हण एवम श्रमण परम्परा के मध्य संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य लिये वीर अग्रसर होने लगे ,यही तो मात् भूमि का आदि मंत्र ,और पुकार थी। ध्यान घनीभूत होने लगा ,किसी से कोई विरोध नहीं ,पूर्ण अन्तेर्लिन हो गये महावीर। चंड कौशिक सर्प दंश ,ग्वाला का कर्णभेदन और गौशालक का तेजो लेश्या तंत्र प्रयोग भी नहीं रोक पाये महावीर के अग्रिम पथ को। ”क्योंकि ये तो केवल प्रतिबिम्ब है , बिम्ब तो मेरे अंदर है जब तक वो पूर्ण चेतन्य नहीं होगा ,पूर्ण आत्मस्वरूप नहीं होगा ,बाहर का दृश्य कैसे बदल सकता है,कैवल्य कैसे प्राप्त हो सकता है “।
आत्मध्यान शृंखलाओ ने दृश्य दर्शन कराये महावीर को ,बेड़ी से बंधी हुई बंदिनी कन्या और आँखों में अश्रुधारा ,इसे दृश्यमान करने का संकल्प लिये वीर चल पड़े ,उन्होंने प्रकृति परमात्मा का आदेश स्वीकार किया और अभिग्रह कर लिया ,जब तक कन्या मुक्त नहीं होगी ,महावीर कैसे मुक्त हो सकता है ,अन्नग्रहण कैसे कर सकता है। जब अभिग्रह फलित हुआ तो चंदना मुक्त हो गयी और इसके साथ ही वज्जी गणराज्य से दासप्रथा का अंत हो गया। प्रकृति परमात्मा ने चंदना के चन्दन से वीर के मस्तक पर तीर्थंकर का तिलक लगा दिया। अभिग्रह का उद्देश्य धर्म , समाज और मानवता के प्रगति के लिये होनी चाहिये। यही महावीर का सन्देश था ,आज के आन्दोलन के युग में महावीर का अभिग्रह एक मंत्र है वर्ना आन्दोलन केवल दूरदर्शन और मीडिया का प्रचार तंत्र बन कर रह जाता है।
समकालीन समाज द्वेश तंत्र प्रयोग से पीड़ित था महावीर ने उसका निषेध किया ,पशुबलि यज्ञ का भी निषेध किया। और कहा की एक ही चैतन्य आत्मा सब में है। इसलिए सबको जीने का अधिकार है। यही तो विश्व परिवार है ,विश्व चेतना है। आज के प्रतियोगिता के युग में पूरा तंत्र ,पूरी मानवता द्वेश और हिंसा से पीड़ित है ,ऐसे में पुरे मानव समाज को महावीर के सिद्धांतों को अपनाना होगा ,यही संतप्त धरा की पुकार है। महावीर किसी समाज या सम्प्रदाय नहीं अपितु भारत भूमि के अध्यात्मिक धरोहर है। उनका जीवन दर्शन “तमसो मा ज्योतिर्गमय ,मृत्योर्मा अमृतगमय “के पथ प्रदर्शक है। उन्होंने सारे जीवों और पदार्थों में एक ही चेतना ,एक ही उर्जा को अनुभूत किया ,इसलिए परमज्ञान से परमभाव तक की यात्रा का आगाज किया “जीयो और जीने दो का विश्व मंत्र दिया “।
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मेरी यात्रा
रात्रि के रंध्रों में डूबा हुआ मैं
रक्तबीज के दंश ने सोने नहीं दिया
मैं सोने वाला क्यूं जाग रहा हूं
अपनी ही यात्रा के उलटी दिशा से
कराहता मैं
मैं हंसने वाला क्यूं रो रहा हूं
मच्छर के वध से क्या होगा हासिल
कही मेरा रावण न जाग जाये
मच्छर तो युगों युगों से डायनासौर
की कहानी कह रहा है
दंश तो मेरे अपने है दर्पण दोषी क्यूं
अपनी यात्रा को पूरब की ओर मोड़
अपने सुप्त महावीर को वर्धमान से जोड़
अपने वर्धमान को वर्तमान से जोड़
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डाक्टर चंद जैन “अंकुर”
दवा प्रतिनिधि ,नोवार्टिस
ब्राह्मणपारा ,रायपुर छ ग
मोब ९८२६११६९४६
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