बब्बर शेरों का नया ठिकाना ? प्रमोद भार्गव आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात के बब्बर शेरों को गुजरात के गिर वनों से मध्य-प्रदेश क...
बब्बर शेरों का नया ठिकाना ?
प्रमोद भार्गव
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात के बब्बर शेरों को गुजरात के गिर वनों से मध्य-प्रदेश के श्योपुर जिले में स्थित कूनो-पालपुर के बियावान जगंलों में नया ठिकाना बनाने की अनुमति दे दी। हालांकि गुजरात सरकार ने 20 साल पहले मध्यप्रदेश की इस मांग को ठुकरा दिया था। जबकि 1993 में भारतीय जीव संस्थान ने इन बब्बर शेरों का पालपुर में दूसरा घर बनाने की इजाजत दे दी थी। हालांकि अदालत द्वारा छह माह की समय-सीमा में इनका पुनर्वास कूनों में वाकई हो जाएगा,फिलहाल ऐसा कहना मुश्किल है ? क्योंकि गुजरात के निर्दलीय सासंद परिमल नथवानी ने इस निर्णय पर सवाल उठाते हुए कहा है कि इस बात की पूरी आशंका है कि नई जगह इन शेरों को रास नहीं आएगी। क्योंकि नई बसाहट में पर्यावरण,भोजन,जमीन,पानी आदी सब कुछ बदला हुआ होगा। इधर गुजरात सरकार भी पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की तैयारी में जुट गई है। गिर क्षेत्र में अदालत के आदेश के विरोध में आंदोलन मजबूत हो रहा है दूसरी तरफ कूनों-पालपुर के वन-खण्डों का इतिहास रहा है कि ग्वालियर राज्य के तत्कालीन महाराजा माधवराव सिंधिया द्वारा जब-जब इन शेरों के पुनर्वास कोशिश की गई, तब-तब नाकाम रही है।
बब्बर मसलन एश्यिाई शेर या एशियाटिक लॉयन को नए घर में स्थानांतरित करने की इजाजत इसलिए दी गई है कि प्राकृतिक आपदा अथवा महामारी से इनकी प्रजाति सुरक्षित रहे। इस लिहाज से इन सिहों का दूसरा घर बसाए जाने की पहल गिर अभयारण्य के जीव विज्ञानी रवि चेल्लम ने की थी। सौराष्ट्र विश्व-विद्यालय से 1993 में बब्बर शेरों के पारिस्थितिकी तंत्र विशय पर पीएचडी करने वाले रवि चेल्लम ने वर्शों सासण गिर के वन प्रांतों में भटकने के बाद पाया कि कभी किसी रोग अथवा प्रकोप के चलते मानव समुदाय इस सिंह की दुर्लभ प्रजाति से वंचित हो सकता है। इसलिए इन्हें किसी अन्य राष्ट्रीय उद्यान में भी बसाया जाना चाहिए। शीर्श न्यायलय के न्यायाधीश केएस राधाकृश्ण और चंद्र्रमौली प्रसाद की खंडपीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले का आधार रवि चेल्लम की सिफारिश को ही बनाया है। लेकिन दूसरी तरफ एक समाचार के मुताबिक इस फैसले के बाद रवि को धमकिंया मिलने लगी है। वनाधिकारियों ने उन्हें कुछ समय के लिए गुजरात छोड़ देने का आग्रह किया है। हालांकि 2008 में ‘अंतरराष्ट्रीय प्रकृति सरंक्षण संगठन' ने भी इस प्रजाति के लुप्त होने के खतरे को वास्तविक मानते हुए इन्हें दुर्लभतम श्रेणी में रखा था। इस दृष्टि से भी इनकी सुरक्षा के वैकल्पिक उपाय जरूरी थे। दुनिया में बब्बर शेरों का एकमात्र प्राकृतिक ठिकाना गुजरात के गिर वन ही हैं। इस भूखण्ड की आवास,आहार व प्रजनन से जुड़ी कुछ ऐसी विलक्षण्ता है कि यहां विश्व में सबसे अधिक प्राणी घनत्व है। गिर का क्षेत्रफल 1412 वर्ग किमी है। इसमें 2010 की आधिकारिक प्राणी-गणना के अनुसार 411 सिंह अठखेलियों में मशगूल हैं। इनमें 97 नर,162 मादा और 152 शावक है। अपनी दहाड़ से आठ किमी के दायरे में दहशत फैला देने वाले सिहों के शिकार के लिए यहां करीब 50 हजार बारहसिंहे हैं। चीतल और चिंकारा हिरण भी बड़ी संख्या में हैं। यही अनुकूल परिवेश इनकी आखिरी रियाहशगाह के लिए बड़ा खतरा भी है। मार्च 2007 में दो धटनाओं को अंजाम देकर अंतरराष्ट्र्रीय प्राणी तस्करों ने 14 शेरों की हत्या कर दी थी। इतनी बड़ी घटना इस अभयारण्य में इसके पहले कभी नहीं घटी। बाद में गुजरात सरकार ने स्थानीय ग्रामीणों की मदद से न केवल पारधि कबीले के 35 लोगों को धर पकड़ा, अलबत्ता इनकी सुरक्षा के अन्य कठोर कानूनी उपाय भी किए। नतीजतन गिर में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति फिर से नहीं हुई।
वन्य जीव विशेषज्ञों का मानना है कि सिंह जैसी दुर्लभ प्रजातियों के लिए प्राकृतिक विपदा और महामरी तो संकट का सबब हैं ही,गिर के जंगलों में इनकी आबादी लगातार बढ़ती चली जाने के कारण मानवीय बसाहटों के साथ भी टकराव के हालात उत्पन्न हो रहे हैं, जो शेरों के वजूद के लिए शुभ नहीं हैं। गुजरात सरकार का तर्क है कि बब्बर शेर केवल गुजरात की ही वन्य प्राणी संपदा है,इसलिए इसे किसी अन्य प्रांत में स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। जबकि सच्चाई यह है कि पर्यावरण व जैव विविधता से जुड़ा हर सवाल आज वैश्विक आकार ले चुका है। इसलिए दुनिया की दुर्लभ जीव तथा वनस्पति प्रजातियों को बचाने की चिंता वैश्विक स्तर पर हो रही है। यहां तो केवल शेरों को गुजरात से मघ्यप्रदेश भेजने का सवाल है, जिसे किसी राजनीतिक कारण से नहीं, बल्कि सिंहों के वंश को अक्षुण्ण बनाए रखने की दृष्टि से अंजाम दिया जा रहा है। क्योंकि इन्हें अपने हिस्से की ही संपदा मान लेने का ही परिणाम रहा है कि आज एशियाई सिंह भारत और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में बचे रह गए हैं।ं
एक समय भारत के वनों में सिंह बहुतायत में थे। इसलिए अथर्ववेद से लेकर अन्य संस्कृत ग्रंथों में सिंह की महिमा का खूब बखान है। देवी दुर्गा का तो मुख्य वाहन ही सिंह है। कर्मठ पुरूषों की तुलना भी सिंह से की गई है, 'पुरुशसिंहमुयेति लक्ष्मी'। अर्थवेद में राजा को सिंह के समान पराक्रमी माना गया है, ‘सिंहप्रती को विशो अद्वि सर्वा।' हालांकि शारीरिक शक्ति व फूर्ति की दृष्टि से बाघ अधिक बलिष्ठ माना गया है,किंतु सिंह को अपने व्यक्तित्व के विलक्षण गुणों के कारण पशुराज की महिमा से नवाजा गया है। ऐसा माना जाता है कि गिर में ऐश्यिाई शेरों की जो वर्तमान प्रजाति है,उसके वंशज ईशा पूर्व 480 में दक्षिण यूरोप में पैदा हुए थे। खासकर यूनान में जहां अर्से तक ये वजूद में रहे। एक जानकारी के मुताबिक करीब ढाई हजार साल पहले सिंहों का एक झुण्ड बादशाह जरकसिज के मालवाहक उंटों पर टूट पड़ा था। हिरोडोट्रस ने मेसिडोनिया में पाए जाने वाले सिंहो का ज्रिक किया है। किंतु यूरोप में इनका अस्तिव शिकार व महामारी के चलते ईसा पूर्व 100 में एकाएक खत्म हो गया। इसके बाद ये एश्यिा के चंद देशों और भारत में ही बचे रह गए। एक जमाने में सीरिया,फिलिस्तान,और इराक में भी इनकी बड़ी तदाद रही थी। इजराइल में भी ये एक समय बड़ी तादाद में थे,किंतु 15 वीं शताब्दी में इनका वंश पूरी तरह लुप्त हो गया। बींसवी सदी के आरंभ तक अरब देशों में भी इनकी मौजदूगी बनी रही। ईरान के कुछ क्षेत्रों में उन्नीसवीं सदी तक ये खूब दिखाई दिए,किंतु 20वीं सदी की शुरूआत में ही इनका अंत हो गया। हालांकि ईरान में अभी भी कुछ सिंह जीवित है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि एशिया के सभी देशों में सिंहो का अस्तित्व नहीं रहा। मंगोलिया,चीन,जापान,दक्षिण पूर्व एशिया, वर्मा, श्रीलंका और इण्डोनेशिया ऐसे देश हैं, जिनमें सिंह कभी भी वजूद में नहीं रहे। जब पकिस्तान अखंड भारत का हिस्सा था,तो यहां भी खूब सिंह थे,लेकिन भारत से विभाजित होने के बाद सिंहों का पाक में एकाएक लोप हो गया। बाईबिल में सिंहों का 130 मर्तबा उल्लेख होना भी इस बात की तसदीक है कि मानवजाति सिंहों के आचरण-व्यवहार से बखूबी परिचित थी।
गुजरात में एशियाई शेरों की जो पहलकदमी सासण-गिर के जंगलों में दिखाई देती है, इसका श्रेय केवल सौराष्ट्र के जूनागढ़ राज्य के नवाबों को जाता है। हालांकि 19 वीं शताब्दी के अंत तक लगभग समूचे भारत में सिंह बड़ी संख्या में पाए जाते थे। अंग्रेज यात्री मेजर स्लिमन ने अपनी यात्रा गथा में दिल्ली के आसपास 40 सिंहों की टोली देखने का जिक्र किया है। मुगलकाल में भी भारत में खूब सिंह थे। मुगलों ने इसके शिकार पर भी प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में यह रोक हटा ली गई। नतीजतन अंग्रेज शिकारी और फौजी अफसरों ने सिंहों का बेरहमी से शिकार किया। अकेले कर्नल जॉर्ज स्मिथ ने 300 सिंहों को मारा। एक अन्य फौजी ने दिल्ली के पास 50 सिंहों को मारा। बिहार,पंजाब और दक्षिण भारत में भी अंग्रेजों ने सिंहों का होड़ लगाकर शिकार किया। किंतु जूनागढ़ के नवाबों ने सौराष्ट्र में सिंहों के शिकार का अंग्रेजों को अवसर नहीं दिया। उन्होंने झूठ बोलकर इस क्षेत्र में सिंहों की उपस्थित को नाकारा, नतीजतन आजादी के बाद जब 1955 में इन सिंहों की गिनती की गई तो इनकी संख्या महज 55 थी। किंतु उचित सरंक्षण के चलते इनकी संख्या में इजाफा होता गया और ये आज गिर में 400 से भी ज्यादा हैं। इनका वंश आगे भी सुरक्षित रहे,इस हेतु इनका नया ठिकाना कूनो-पालपुर तलाशा गया है।
यहां गौरतलब यह है कि इस वनखण्ड को गुजरात के गिरवन के सिंहों को बसाये जाने के लिए पैंसठ करोड़ रूपये खर्च कर विकसित किया गया है। 26 आदिवासी ग्राम बेरहमी से अपनी जड़ों से उखाड़ दिए गए हैं। इन ग्रामवासियों का डेढ़ दशक बीत जाने के बावजूद न तो अब तक समुचित पुनर्वास हो पाया और न ही इन्हें अपनी अचल संपत्त्ाि का पूरा मुआवजा मिला है। मुआवजे की जायज मांग को लेकर आदिवासियों, वनकर्मियों और पुलिस के बीच कई हिंसक झड़पें भी हो चुकी हैं।
ग्वालियर राज्य का राजपत्र इसका प्रमाण हैं। लार्ड कर्जन ने ग्वालियर राज्य के महाराजा माधवराव सिंधिया प्रथम को सिंहों के संरक्षण व पुनर्वास की सलाह दी थी। 1904 में लार्ड कर्जन शिवपुरी, श्योपुर और मोहना के जंगलों में शेरों का शिकार करने आए थे, पर उस समय तक यहां शेर लुप्त हो चुके थे।
कर्जन की सलाह पर अमल करते हुए 1905 में डेढ़ लाख रूपये का सालाना बजट निर्धारित कर सिंहों के पुनर्वास की पहल शिवपुरी, श्योपुर व मोहना के जंगलों में की गई थी। वन्य जीवन के एक पारसी जानकार डीएम जाल को सिंहों के पुनर्वास की जिम्मेबारी सौंपी गई। जाल ने पहले जूनागढ़ के नवाबों से चीते लेने का प्रयास किया लेकिन नवाबों ने साफ इनकार कर दिया। बाद में जाल, लार्ड कर्जन का एक सिफारिशी पत्र लेकर इथोपिया गए और दस सिंह-शावक पानी के जहाज में बिठाकर मुंबई लाए गए। इन शावकों की अगवानी करने ग्वालियर महाराज खुद मुंबई पहुंचे थे।
मुंबई तक आते-आते दस में से सात शावक ही बच पाए थे। इनमें तीन नर और चार मादा थीं। इन शावकों को पहले ग्वालियर के चिडि़याघर में ही पाला गया। वयस्क होने पर दो मादाओं ने गर्भधारण किया और पांच शावक जने। इन शावकों के बडे़ होने पर आठ सिंह शिवपुरी के सुल्तानगढ़ जल-प्रपात के पास बियाबान जंगल में छोड़े गए। चिडि़याघर के कृत्रिम माहौल में पले व बढ़े हुए ये सिंह वन्य प्राणियों का शिकार करने में तो सर्वथा नाकाम रहे, अलबत्ता भूख के लिए इन्होंने पालतू मवेशी व ग्रामीणों को शिकार करने का सिलसिला शुरू कर दिया। 1910 से 1912 के बीच इन सिंहों ने एक दर्जन लोगों को मारकर आदमखोर हो जाने की आदत की तसदीक कर दी। इससे गांवों में हाहाकार मच गया। नतीजतन ग्वालियर महाराजा ने ग्रामीणों को राहत पहुंचाने की दृष्टि से सिंहों को पकड़वा लिया। 1915 में इन्हें एक बार फिर श्योपुर के कूनो-पालपुर जंगल में बसाने का असफल प्रयास किया गया। यहां भी इनकी आदमखोर प्रवृत्ति जारी रही। इन्हें पकड़ने के प्रयास किए गए, पर ये पकड़ में नहीं आए। बाद में इन्हें नीमच, झांसी, मुरैना व पन्ना में मार गिराए जाने के समाचार मिले। यहां सवाल उठता है कि जब एकतंत्री हुकूमत के दौरान सिंहों अथवा चीतों का पुनर्वास संभव नहीं हुआ, जबकि तब एक शताब्दी पहले इस इलाके में घनघोर जंगल थे और अपेक्षाकृत पर्याप्त आहार के लिए वन्य प्राणी भी बड़ी संख्या में उपलब्ध थे, तो अब कैसे संभव हैं ? ऐसे में अभयारण्यों में चीतों अथवा सिंहों के पुनर्वास के प्रयास लाचार व परेशान वनवासियों के लिए आफत के अभयारण्य ही सिद्ध होंगे ? गिर के सिंह नहीं मिलने के कारण मध्यप्रदेश के वन अमले ने कूनों में चीता बसाए जाने की 300 करोड़ की योजना बनाई थी। किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रस्ताव को यह कहकर खारिज कर दिया कि इससे अच्छा हो वन महकमा जंगली भैंसा और लुप्तप्रायः सोन चिडि़याओं के पुर्नवास व संरक्षण को प्राथमिकता दें।
इस जंगल को कूनों-पालपुर अभयारण्य के नाम से करीब ढाई दशक पहले अधिसूचित किया गया था। कूनों नदी इस अभयारण्य के वन्य प्राणी व वनवासियों की जीवन रेखा रही है। गुजरात के गिर अभयारण्य के एशियाई सिंह बसाने के फेर में इन घने वनप्रांतरों से सुविधाजनक पुर्नवास और समुचित मुआवजा दिए जाने के सरकारी आश्वासन पर हजारों आदिवासियों को डेढ़ दशक पहले खदेड़ दिया गया था। उनका अब तक न तो स्तरीय पुनर्वास हुआ और न ही मुआवजा मिला। नतीजतन रोटी, कपड़ा और मकान के असुरक्षित भाव के चलते आदिवासी आज भी आक्रोशित हैं। सहरिया मुक्ति मोर्चा जनसंगठन के बैनर तले आदिवासी समूह अपने हकों के लिए जब तब उठ खड़े होते हैं। ये अपने पुराने आवासों में बसने के लिए जंगल की ओर कूच भी कर जाते हैं। आदिवासी जब अभयाण्य में घुसने लगते हैं तो पूर्व से ही तैनात पुलिस और वनकर्मियों द्वारा निहत्थों पर गोलीबारी भी कर दी जाती है। अब तक के संघर्षों में एक वनपाल राजकुमार आदिवासी वनकर्मी बृजेन्द्र बाथम और मुरारी कढ़ेरे जान गंवा चुके हैं। दूसरी तरफ पुलिस फायरिंग में तीन दर्जन आदिवासी घायल हुए हैं, जिनमें से कई स्थायी विकलांगता के शिकार हो गये हैं। करीब 500 लोगों पर सरकारी काम में बाधा डालने का मामला चलाकर इनकी आवाज को फिलहाल दबा दिया गया है।
यह अजीबोगरीब विडंबना हमारे देश में ही संभव है कि वन और वन्य प्राणियों का आदिकाल से संरक्षण करते चले आ रहे आदिवासियों को बड़ी संख्या में जंगलों से केवल इस बिना पर बेदखल कर दिया गया कि इनका जंगलों में रहना वन्य जीवों के प्रजनन, आहार व नैसर्गिक आवासों के दृष्टिगत हितकारी नहीं है। इसलिए ऐसे आवासों को चिन्हित कर परंपरागत रहवासियों का विस्थापन किया जाना नितांत आवश्यक है। इसी कथित जीवन दर्शन के आधार पर संपूर्ण मध्यप्रदेश में आदिवासियों को मूल आवासों से खदेड़े जाने का सिलसिला निर्ममता से जारी है।
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास जितना पुराना है आदिवासियों को वनों से बेदखल कर वन अभ्यारणयों की स्थापना का इतिहास भी लगभग उतना ही पुराना है। जिसकी बुनियाद अंग्रेजों के निष्ठुर और बर्बर दुराचार पर टिकी है। दरअसल जब मंगल पांडे ने 1857 के संग्राम का बिगुल फूंका था, तब मध्यप्रदेश के हिल स्टेशन पचमढ़ी की तलहटी में घने जंगलों में बसे गांव हर्राकोट के कोरकू मुखिया भूपत सिंह ने भी फिरंगियों के विरूद्ध विद्रोह का झंडा फहराया हुआ था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तो अंग्रेजों ने कुटिल व बांटों और राज करो जैसी नीतियों तथा सामंतों के समर्थन के चलते जल्दी काबू में ले लिया, लेकिन भूपत सिंह को हर्राकोट से विस्थापित करने में दो साल का समय लगा। इस जंगल से आदिवासियों की बेदखली के बाद ये वन 1859 में ‘बोरी आरक्षित वन' के नाम से घोषित कर दिए गए। इसके बाद 1862 में वन महकमा वजूद में आया। हैरानी इस बात पर है कि तभी से हम विदेशियों द्वारा खींची गई लकीर के फकीर बने चले आ रहे हैं। नीति और तरीके भी वहीं हैं। दरअसल हम विकास के किसी भी क्षेत्र में विकसित देशों का उदाहरण देने के आदी हो गए हैं। जबकि हमें वन, वन्य जीव और उनमें रहवासियों के तारतम्य में अपने भूगोल वन और वन्य जीवों से आदिवासियों की सहभागिता और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को समझने कि जरूरत है।
विकसित देशों में भारत की तुलना में आबादी का घनत्व कम और भूमि का विस्तार ज्यादा है। इसलिए वहां रहवासियों को बेदखल करके वन्य प्राणियों को सुरक्षित की जाने की नीति अपनाई जा सकती है, परंतु हमारे यहां यह स्थिति मौजूदा परिवेश में कतई संभव नहीं है। जिन भू-खण्डों पर वन और प्राणियों की स्वछंद अस्मिता है, मानव सभ्यता भी वहां हजारों-हजार साल से विचरित है। दरअसल यूरोपीय देशों में वनों के संदर्भ में एक अवधारणा ‘‘विल्डरनेस'' प्रचलन में है, जिसके मायने हैं मानवविहीन सन्नाटा, निर्वात अथवा शून्यता। जबकि हमारे पांच हजार साल से भी ज्यादा पुराने ज्ञात इतिहास में ऐसी किसी अवधारणा का उल्लेख नहीं है। इसी वजह से हमने अभी तक जितने भी अभयारण्यों अथवा राष्ट्रीय उद्यानों से रहवासियों का विस्थापन किया है वहां-वहां वन्य जीवों की संख्या अप्रत्याशित ढंग से घटी है। सारिस्का, कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना और रणथम्बौर जैसे बाघ आरक्षित वन इसके उदाहरण हैं। सच्चाई यह है कि करोड़ों अरबों रूपये खर्चने के बावजूद जीवन विरोधी ये नीतियां कहीं भी कारगर साबित नहीं हुई हैं। बल्कि अलगाव की उग्र भावना पैदा करने वाली विस्थापन व संरक्षण की इन नीतियों से स्थानीय समाज और वन विभाग के बीच परस्पर तनाव और टकराव के हालात तो उत्पन्न हुए ही आदिवासियों को वनों और प्राणियों का दुश्मन बनाए जाने पर भी विवश किया गया।
शिवपुरी जिले का ही करैरा स्थित सोन चिडि़या अभयारण्य गलत वन नीतियों का माकूल उदाहरण है। 1980 में यहां पहली बार एक किसान ने दुर्लभ सोन चिडि़या देखकर कलेक्टर शिवपुरी को इसकी सूचना दी थी। तत्कालीन कलेक्टर ने वनाधिकारियों के साथ जब इस अद्भुत पक्षी को देखा तो इस राजस्व वन को अभयारण्य बना देने का सिलसिला शुरू हुआ और 202 वर्ग कि․मी․ का राजस्व वन सोन चिडि़या के स्वछंद विचरण के लिए 1982 में अधिसूचित कर दिया गया। इसके बाद देखते-देखते झरबेरियों से भरे इस वन खण्ड में सोन चिडिया और काले हिरणों की संख्या आशातीत रूप से बढ़ गई। लेकिन इनके संरक्षण के लिए अभयारण्य क्षेत्र में आने वाले 11-12 ग्रामों के विस्थापन की प्रक्रिया ने जोर पकड़ा तो देखते-देखते करीब साढ़े तीन हजार काले हिरणों और चालीस सोन चिडि़याओं की आबादी के चिन्ह मिटा दिए गए। नतीजतन विस्थापन का सिलसिला जहां की तहां थम गया। यहां ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि विस्थापित किये जाने वाले गांव आदिवासी बहुल ग्राम नहीं थे। इनमें सवर्णों और पिछड़ी जातियों की बहुसंख्यक आबादी थी। ये राजनीति में रसूख तो रखते ही थे, प्रशासन में भी प्रभावशील हस्तक्षेप रखते थे। आर्थिक सक्षमता ने इन्हें विस्थापित नहीं होने देने में मदद की।
दरअसल कूनों में गिर के एशियाई सिंह बसाए जाने की योजना डेढ़ दशक पूर्व इस इलाके के 24 वनवासी ग्रामों को विस्थापित कर पुर्नवास की प्रक्रिया के साथ अमल में लाई गई थी। विस्थापितों को यह भरोसा जताया गया था कि सर्व सुविधायुक्त पुनर्वास स्थलों में बसाए जाने के साथ समुचित मुआवजा भी उपलब्ध कराया जाएगा। 1998 से 2002 तक पुनर्वास की प्रक्रिया के तहत विस्थापितों को आंशिक सुविधायें हासिल भी कराई गईं। परंतु मुआवजे की जो धनराशि 2003 में देनी चाहिए थी, उससे इन्हें आज तक वंचित रखा गया। हालांकि कई मर्तबा मांगों के ज्ञापन और प्रदर्शन के बाद दिसंबर 2007 में मुआवजा की चार करोड़ 71 लाख रूपये की राशि वनमंडल द्वारा एक सूची संलग्नीकरण के साथ कलेक्टर श्योपुर को दी भी गई, लेकिन राजस्व महकमा की जैसी की आदत है वह राशि और फाईल पर कुण्डली मारकर बैठ गया, जिससे कुछ भेंट पूजा की व्यवस्था बने ? दाने-दाने को मोहताज सहरिया आदिवासी रिश्वत कहां से दें ? विस्थापन के ऐसे ही कारणों के चलते इनके जीवन स्तर संबधी जो भी अध्ययन सामने आऐ हैं उनमें पाया गया है कि इनकी आमदनी 50 से 90 प्रतिशत तक घट गई है। यह अध्ययन सतपुड़ा टाइगर रिजर्व फॉरेस्ट, माधव राष्ट्रीय उद्यान, शिवपुरी और कूनो पालपुर में किये गए हैं। कर्नाटक में बिलीगिरी रंगा स्वामी मंदिर अभयारण्य में लगी पाबंदी के कारण सोलिंगा आदिवासियों को दो दिन में एक ही मर्तबा भोजन नसीब हो पा रहा है।
सच्चाई तो यह है कि आधुनिक और औद्योगिक विकास का जो भी मार्ग हैं, वे आदिवासियों की जमीन से होकर गुजरते हैं। उद्यानों और अभयाण्यों में सिंह बसाने हों अथवा खदानों में उत्खनन किया जाना हो, उजड़ना आदिवासियों को ही पड़ता है। इस उजाडवाद का एक रास्ता नक्सलवाद की ओर भी जाता है, जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक बताया है। लेकिन यह नक्सलवाद न तो आदिवासियों की समस्या का समाधान है और न ही सरकार इस समस्या का समाधान ढूंढ पा रही है। ऐसे में सही यह है कि हम ऐसे उपाय ही न करें जिससे आदिवासी बस्तियों को उजाड़ना पड़े। जितनी कसरत सरकार नाकाम विस्थापन में करती है, उतनी कसरत यदि इनको यथास्थान बनाए रखते हुए इन्हें वन्य आधारित रोजगारों से जोड़ा जाए तो वन और वन्य प्राणियों की सुरक्षा की ज्यादा उम्मीद की जा सकेगी।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म․प्र․
मो․ 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार है।
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