डाक्टर चंद जैन "अंकुर " चैत्र नवरात्रि पर मातृ वंदना माँ माँ तू सार है हम कृति है अपना आकार दे सदगति दे मेरा आलंबन विकार हर ले प...
डाक्टर चंद जैन "अंकुर "
चैत्र नवरात्रि पर मातृ वंदना
माँ
माँ तू सार है हम कृति है
अपना आकार दे सदगति दे
मेरा आलंबन विकार हर ले
पंचमेल से बने पाषाण है
ममतामयी वात्सल्य से भर दे
ज्योति दे अखंड भक्ति दे वैराग्य दे
हमारी दृष्टि दिव्य हो ,हमारा कर्म तेरा हो
हमारा अहंकार तेरे शरण हो
तेरा परमानन्द हमें दे दो माँ
कृपा करो ह्रदय में बसा लो माँ
हे परम आत्मा तेरी जय हो विजय हो
केवल तेरा ही हम में प्रसार हो
हमारी आंखें तेरी ज्योति का दिया हो
तेरी करुणा बूंद इसमें भर दे
अपनी ममता ,वात्सल्य को इसमें छलकने दे
कृपा कर हे शिखरेश्वरी ,कण कणमयी
हमारा आश्रय तेरा गोद हो
तेरी यात्रा का मुझमें आभास हो आरंभ हो
अपने गोद में मेरा वसीयत लिख दो
...
डाक्टर चंद जैन "अंकुर "
रायपुर छ ग
9 8 2 6 1 -1 6 9 4 6
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विजय वर्मा
कविता
कटु- वचन
मेरे शहर का हाल देखकर
सर पकड़ ली राम ने,
रोज होती अवैध-वसूली
ठीक थाने के सामने .
राम भजो,राम भजो
राम भजो बावरे,
आया चुनाव सर पे
होने लगी कॉव -कॉव रे.
आजकल के बच्चों का
क्या हाल बताएं आपको,
गूगल-सर्च में डालकर
ढूँढते है माँ -बाप को.
होठों पे ना मुस्कराहट
ना आँखों में कोई सपना,
जिए जा रहें हैं जिंदगी को
एक बददुआ की तरह.
ना फूलों पे कोई भौरे
न कलियों में बेताबी ,
सबके सुख-चैन बंद कहाँ ?
कहाँ खो गयी चाबी ?
बच्चे खेलते इंटरनेट पे
कहाँ गुम हुई तितलियाँ ?
इन बच्चों से बचपन को
आखिर किसने छिन लिया?
--
v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
--
शेर सिंह
कविता
अपने पिता के प्रति
मैं अक्सर
तुम्हारे बुढ़ा गए
चेहरे को देखता हूं तो मुझे तुम्हारे
चेहरे पर अंकित इतिहास दर इतिहास दिखता है ।
तुम्हरी कनपटी पर लटकते बर्फ हुए बाल तुम्हारे जीवन संघर्ष को लिखते- लिखते थक गए से लगते हैं ।
तुम्हारे माथे की
रेखाओं के जाल की भी अपनी - अपनी कथा है
हर रेखा की
अपनी व्यथा है ।
इन रेखाओं, सलवटों के मध्य ही
कहीं मुझे
असमय ही वसंत के मुरझा गए फूल दिखते हैं
और कहीं
मनुष्य का
मनुष्य के प्रति किये गए प्रेम, घृणा
दुराव - छिपाव के
शूल दिखते हैं ।
पिता !
अपनों के किये
घात, प्रतिघातों से तुम बाहर से
कठोर बने रहे लेकिन भीतर से
दरकते रहे, टूटते रहे ।
पिता !
तुम ने क्या- क्या
नहीं किया अपनों के लिए लेकिन क्या पता था सींचते रहे हो रेगिस्तान, पत्थरों को यह सोच कि अपने हैं खिलेंगे, फलेंगे, फैलेंगे ।
लेकिन पिता !
तुम भूल गए कि पत्थर फल नहीं सकते नहीं उग सकता उन पर फूल
बनते हैं केवल जी के लिए शूल ।
शूल चुभते हैं
चोट पहुंचाते हैं मर्मस्थल पर
देते है असीम पीड़ा
रूलाते हैं अंदर ही अंदर ।
पिता ! तुम सब के लिए
अपने तन को
गलाते रहे
जलाते रहे
अपनी जान को
लेकिन तुम्हारे कपटी सहोदर, स्गोत्र तुम्हारी निष्ठुर संतानें
देते रहे तुम्हें केवल पीड़ा
करते रहे तुम्हारे अंत:करण को घायल ।
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मोतीलाल
कविता
काल के कालक्रम में
खंडित हुए किरचें
समा जो गये हैं
इस काल खंड में ।
उन्हीं किरचों के
तलाश में
भटका हूँ मैं
जंगल-जंगल
पहाड़-पहाड़
अनेक कालक्रम में
ताकि बटोर सकूँ
और दे सकूँ
उन्हें एक सार्थक अर्थ ।
अर्थ काल का
या उससे खंडित
किरचों का
कोई अर्थ तब नहीं रहता
जब टूट रहा होता है
भीतर तक ।
हाँ उनका अर्थ
तब सार्थक हो उठता है
जब उनका सही दिशा दिखता है
मैं उसी दिशा की ओर बढ़ जाता हूँ ।
* मोतीलाल/राउरकेला
* 9931346271
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अमरेन्द्र सुमन
कविताएँ
बेटी
माँ की शिक्षा
पिता की दीक्षा
ससुराल एक परीक्षा
अक्खड़ लड़की
उसने न पकड़ी
ब्याह पूर्व गीली लकड़ी
मैके में मस्त
उसके सोलह बसंत
स्वप्न सजे अनंत
घूप -झॉव झेली
सखी - सहेली
संग - संग खेली
पूनम की एक रात
चौखट पर बारात
असह्य वज्राघात
विदाई के वक्त
शिथिल हुआ रक्त
जज्बात जब्त
पोटली में जान
अंजाम मुकाम
मन में ईशकाम
रोज चौपाई
लेकर जम्हाई
वर की माई
श्राप सुबहों-शाम
दहेज की माँग
पक गया कान
बदला घर का रंग
छिड़ा अस्थिर जंग
हुआ अंग-भंग
दुखद एहसास
हास - परिहास
देवर, ननद न सास
खाकर खेली होली
नींद की गोली
वीरान अब खोली
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चतुष्पदियॉ
पोस्टर लगे दीवार का
नक्शा गया बदल
तुलसी का पत्ता झड़ा
घर हुआ दलदल
वर्षा, बादल और बारात का
नहीं कभी भी ठौर
आदत जब शैतान हुआ
आम में आए कब बौर ?
शबरी का जूठन संजीवनी
लक्ष्मण को लियो बचाय
मन - तन अब रैहन हुआ
ढ़ूंढ़े कौन कब क्या उपाय
माटी खूब मूरत गढ़े
सूरत मचाए शोर
बगुला भगत दशों दिशा
मन में घुस आया चोर
राम - रहीम जब तक लड़ें
धरती रही उजाड़
वर्षा से आकाश बहे
देख हाड़ पिघला जाय
बरगद, पीपल अब नहीं
बनते बुढ़-पुरान
जन्म लिया जिस शिशु ने कल
हो गया आज जवान
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ग़ज़ल
बहक गए हैं यार वे तो, यौवन भी गदराई है
ख्वाबों में लगता है जैसे परि संवर कर आई है
धीमी-धीमी उसकी आहट, और फिजां में तन्हाई है
कोमल-कोमल गाल हैं उसके, आँखें शराबी पायी है
तन्हाई में छुपकर उसने, मेरा दिल बेहाल किया
बैठ सखियों संग बाबरी, सपनों का इजहार किया
नेकी उनकी भूल न जाउॅ ऐसी उनकी ख्वाईश है
उनके मांग सिंदूर से सजें हों, ऐसी ही फरमाईश है
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अकाल मृत्यु
बेटी-बेटा
नाती-पोता
दोस्त-यार
अपना-पराया
घर-परिवार
इन तमाम तरह की जिम्मेवारियों को देखने,
समझने-बुझने
समझाने-बुझाने से पहले ही
जिन्हें आमंत्रित कर लेता हो काल अपनी ओर
असमय
समय
जो किसी के वश में नहीं
जिसके आगे-पीछे कोई नहीं
जो किसी के लिये नहीं
जिसकी कोई सीमा नहीं
जिसका कोई आकार नहीं
कोई मुकम्मल पहचान नहीं
उठा ले जाता हो
बिना किसी सूचना के
किसी को भी
किसी भी क्षण
किसी भी स्थान से
बिना किसी पूर्वाग्रह के
माँ-बाप की नजरों से
बेटा-बेटी को
बेटा-बेटी की नजरों से माता-पिता,दादी-दादा को
पति की मौजूदगी में पत्नी को
सास की मौजूदगी में बहु को
बहु की नजरों से सास को
पूरे परिवार की मौजूदगी में किसी बच्चे को
जो नहीं देखता
धूप-छाँव
दिन-रात
अंधेरा-उजाला
गोरा-काला
एक आम आदमी की न्यूनतम आयु से पहले ही
छोड़ जाने को विवश कर देता हो जो
किसी को धरा-संसार
क्या कहेंगे इसे
अकाल मृत्यु ही न ?
फेरीवाला
घर की मुंडेर पर
कौओं के कॉव-कॉव करने से पहले
कपड़े का गट्ठर कंधे पर सहेजे
अविराम वह चला जा रहा था एकान्त, अंतहीन दिशा की ओर..............
वह चला जा रहा था..............
उन असंभावित ठिकानों की ओर
जहॉ से दो जून रोटी के लिये
नकद प्राप्ति की आशा बेईमानी भी हो सकती थी
उसके लिये
विश्वास की नैया में सवार
रोज की भांति फिर भी वह चला जा रहा था
वह चला जा रहा था
देश-समाज की समस्याओं से इतर
घर चलाने की चिंता में कोल्हू के बैल की तरह
खुद को शामिल करते
वह चला जा रहा था
उन मासूम बच्चे-बच्चियों की परवरिश की चिन्ता में अकेले
असमय काल के गाल में समा गए
जिनके माता-पिता पिछले साल
दूध की जगह जिन्हें प्राप्त हो रही थी
नमक घुला पानी
गिनती की रोटियाँ
कई-कई दिनों की थकावट से
लगातार संघर्ष के बावजूद
पगडंडियों से शहर तक
उसे तय करने थे वे रास्ते
जिनके भरोसे वह आश्वस्त कर चुका था बच्चों को
अगले कुछ दिनों के राशन-पानी की जुगाड़ के लिये
वह चला जा रहा था अपने छोटे-छोटे कदमों पर बल देते
उसी एक ठिकाने की ओर
दूसरे दिन आने का आश्वासन देकर
जो ग्राहक चाह रहे थे अपना पिंड छुड़ाना
एक छोटी सी पूँजी का गट्ठर
संभाले जा रहा था एक फेरीवाला के संपूर्ण जीवन का बोझ
बच्चों की स्वाभाविक हँसी
उनके मृत माँ-बाप की इच्छा
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एक पागल
बस स्टॉप,
कचहरी परिसर
नुक्कड़, चौक-चौराहों पर
प्रतिदिन हाथ फैलाकर भीख मॉगता
नहीं देखा जा रहा वह इन दिनों
वह नहीं देखा जा रहा
चाय की दुकानों पर काम करने वाले उन लड़कों को गरियाते
कपटी भर चाय पिलाने के एवज में
अपनी उम्र के हिसाब से जो परोसते भद्दी-भद्दी गालियाँ उसे
कंकड़-ढेलों की मार से जिसका होता आतिथ्य सत्कार प्रतिदिन
और माथे पर हाथ धरे बचने की मुद्रा में जो बढ़ता जाता गुर्राता हुआ आगे
उन वकीलों-मुवक्किलों के आजू-बाजू भी नहीं देखा जा रहा वह इन दिनों
रुपये-दो रुपये देने के एवज में जो चाहते उससे
लगातार कई-कई घंटों तक की हँसी
न समझने वाली उसकी मुस्कुराहट में
महसूसते समाप्त होती दिन भर की जो अपनी थकावटें
कहाँ और क्यूँ चला गया किसी को कुछ भी पता नहीं
उसके न रहने से लोगों के चेहरे पर छा गई खामोशी
अवरुद्ध सा हो गया हँसी का फव्वारा
दिन भर काम समाप्त कर वापस घर लौट जाने की एक बड़ी शान्ति
पूरा पागल था वह
सभी यही कहते
वह पागल था, क्योंकि
जलपान की दुकान पर लोगों के छोड़े जूठन खाकर
मिटाया करता अपनी भूख आवारा कुत्तों के साथ
गंदे पानी पीकर बुझाता दिन भर की प्यास
सड़क पर रात्रि विश्राम कर कटती जिसकी जिन्दगी
नहीं दिख रहा कई दिनों से इधर
लोग चाह रहे जबकि वह दिखे पुरानी मुस्कुराहट के साथ
पहली नजर उसके दीदार से जिनके बीतते दिन शुभ
अनायास उसके गुम हो जाने से शिथिल हो गई लोगों की जुवां
किसी ने कहा, पड़ी मिली
गटर किनारे उसकी लाश
चार पहिऐ वाहन से कुचल कर हो गई होगी मौत
भुरभुरी पुल के समीप किसी ने कहा
उड़ती हुई किन्तु बाद में बिल्कुल पक्की
खबर आई कहीं से दोस्तों !
एक भारी वाहन के नीचे किसी बच्चे को बचाने में
कुर्बान कर दी अपनी जान उसने
जबकि बच्चे की जाति-धर्म, अमीरी-गरीबी, घर-मुकाम से था वह पूरी तरह बेखबर
उसकी मुस्कुराहट वैसी की वैसी ही थी बावजूद इसके
चेहरे पर जो दिखा करता उसके प्रतिदिन
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मीनाक्षी भालेराव
कविताएँ
माँ
माँग लेती थी मैं
माँ से जब भी कुछ चाहा
बाँट लेती थी, अहसास
अपनी बेजान,नादान
भावना के लिए ,
जीवन भरी मुस्कान
तृप्त हो जाती थी उस के
इस तरह निस्वार्थ
समर्पण से !
जब भी मन
ना समझ होता था
माँ अपनी सूझ बूझ से
उस को भर देती थी !
अपने अनुभवों से
मैं डालती रही सदा
उसकी झोली में
सवालों का बोझ
पर वो कभी नहीं थकी !
और मेरे बोझ को
हल्का करती गयी
अपने आँसू बहाकर
उसके आंचल में !
मन का मेल धोती रही
उसके मन को दुखाती रही
पर फिर भी ना देख सकी
उसके दिल पर पड़े छाले
आज जब में माँ हूँ !
समझ गयी के
माँगना कितना
आसान होता है
पर देना पड़े तो !
इश्क
इश्क कर ले के जवानी अभी बाकी है
तेरे चेहरे की रवानी अभी बाकी है
पल खो जायेगें पलक झपकते ही
वक्त की रफ्तार अभी बाकी है
क्यों गुजारते हो तन्हा जिन्दगी
हमसफर का साथ अभी बाकी है
ढूंढ़ता फिरता है क्यों राहें इधर-उधर
चल तलाश ले मंजिल अभी बाकी है
तलाशी
मेरी आँखों की तलाशी में जो तुझे मिल जाए
मैं बेवफा नहीं हूँ जो पोल खुल जाए
इश्क एक जुआ है तो जुआ ही सही
हार जित की किस को परवा है
में मुहब्बत में तुम पर जान देती हूँ
सांसें रुक जाने की किस को परवाह है
प्यार का हर मौसम मुझ को गवारा है
फिर पतझड़ भी आये तो किस को परवाह है
मेरे मालिक का मुझ पर करम
उस के बन्दों की किस को परवाह
संपर्क - meenakshibhalerao24@gmail.com
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मनोज 'आजिज़'
ग़ज़ल
रातों की नींद कोई उड़ाता गया
सितारों से बात मैं करता गया
खुद को आईने के पास खड़ा किया
दरिया-ए-दिल फिर बहता गया
आँखें तो कई दफ़ा पिघलीं मगर
हर बार खुद ही सम्हलता गया
सफ़र-ए-हयात में आए कई नदीम
कोई भाया कोई जी चुराता गया
आग अपने दिए ग़ैरों ने हवा
चराग़े जश्न यूँ जलता-बुझता गया
संपर्क - mkp4ujsr@gmail.com
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सुनील जाधव
कविताएँ
बची हैं कितनी इंसानियत ...
१.
उसने सोचा
आज मैं देखूंगा
लोगों के दिलों में
बची हैं कितनी इंसानियत
या फिर हैं सिर्फ
इंसानियत शब्द
मस्तिष्क कोष में
विभिन्न अर्थों वाला ‘शब्द मात्र ‘
बन कर रह चूका हैं ।
२.
मैले कुचैले
फटे वस्त्रों में लिपटे
मटमैले
पसीना रहित शरीर को
उसने भरी दुपहरी में
प्यासे गले के साथ
लोगों से भरे चौक में
बीचों-बीच फटे–पुराने
टावेल पर रख दिया ।
३.
मशीन बन चुके मशीन
मशीन मानव मशीनों में
सवार होकर
देखते हैं हर वस्तु को
मशीन की नजर से सोचते हैं
वह भी तो हैं मशीन मानव ।
और फिर इंसानियत निकलती हैं
मशीनों में से कांट-छांट कर
आकर्षक सुन्दर औपचारिक रूप में ..।
४.
किसी के मस्तिष्क कोष से
उछल कर निकलेगा
एक–एक शब्द
सहज
या सोच –समझकर
या फिर जान बूझकर
अरे ..
बापरे ...
हे भगवान ...आदि ।
५.
कोई बुदबुदा कर
तो कोई मन ही मन
दया वाले शब्दों को
इंसानियत का मुलम्मा चढ़ा कर
अपने शब्दों को चमकाएगा
और अपने ही शब्दों के
चमक को देखकर
प्रफुल्लित होते हुए
आनंदोत्सव मनायेगा ।
६.
या यंत्र बना मानव
अपनी कृत्रिम व्यस्तताओं के कारण
कुछ सेकंडों के लिए
ऑफिशियल ,फिल्मी
या साहित्यिक शब्दों
में कहेगा
काश मेरे पास समय होता ।
काश मैं उसकी मदद करता ।
हे भगवान ऐसा दृश्य क्यों दिखाया ।
७.
अपने बुद्धिमान बुद्धि से
बुद्धिमानो के बीच चर्चाओं का
विषय बन जाएगा
और फिर घड़ी में घर जाने
सोने ,आदि का समय देखेगा
सुबह होने पर नया विषय
चाय का कप और अख़बार होगा ।
निकलेगा फिर से वह
घर के बाहर ...।
८.
वह फिर तंग आकर
उठ गया अपने मैले कुचैले
बदबूदार शरीर के साथ
सताया हुआ ,
रो-रो कर भावनाहीन
उसने एक भूखे को
कूड़े से उठाकर खाना दिया तो
उसने कहा उससे
मुझे इन्सान मिल गया ।
सुनील जाधव ,नांदेड [महाराष्ट्र ]
संपर्क - suniljadhavheronu10@gmail.com
--
राजीव आनंद
हाइकु, मुक्तक व कविताएँ
हाइकु
पागल मन
चाहता रहा तुम्हें
तू बेखबर
चांदनी रात
दो परछाईयों ने
की कुछ बात
आँसू की बूंदें
ढलकती गालों पर
ओस की बूंदें
असाधारण
होता है रह जाना
साधारण-सा
प्यार के गीत
सुबह-शाम मैंने
गाए, सुनाए
मुक्तक
तारों से भरा आकाश
चावल दानों से भरा हो जैसे थाल
टूट रहा है एक तारा
मैं भी तोडूंगा उपवास
बैलों के गले में टंगी
घंटियों से आती आवाज
सुरमयी शाम की आगाज
डूबते सूरज को सुनाती साज
सभी इंजीनियर चाहते है बनना
कई हो जाते है इसमें नाकाम
घर लौट कर क्या कर पाते है
ये असफल इंजीनियर दूसरा कोई काम
रेल के धड़धड़ाती आवाज में
मुझे एहसास हो आया
माँ की छाती में
इन दिनों होता धक-धक
पहले और अब
गौरैया के आवाज में है दर्द
पहले गौरैया गाती थी
अब गौरैया कराहती है
कविताएं
भूख के नाखूनों ने
खरोंचा है इतनी बेरहमी से
कि लगता है
खरोंच के जख्मों से उबरना मुश्किल है
प्राण ही जाएगी
खुशी
जिंदगी के बिस्तर पर
करवटें बदलती रही
और सुबह होते-होते
दम तोड़ दी
सपनों के तकिए पर
बिखरी थी लहू की कुछ बूंदें
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंड़ा
गिरिडीह, झारखंड़ 815301
मो. 9471765417
---
संजय वर्मा
कविताएँ
माय की पाती पोरिया का नाम
माय केवे की पोरिया तू भणवा जा
भणी के कई बणी के मके जरा बता
भणवा से थारा सब काम हुई जावेगा
थके कई से भी कम मिली जावेगा
भणेला मनक के लाडी झट मिलेगा
समाज में सब से थारे सम्मान मिलेगा
भणेगा तो थारा पोरिया -पोरी भी भणेगा
प्रदेश में गावं को नाम साक्षरता से ऊँचो करेगा
(थारी भणी थकी माय )
--
बेदर्दी इन्सान
मोहल्ले में रात को भौंकती कुतिया
सतर्क कर देती
कोई आ रहा है ?
सभी धर्म के लोग उसे रोटी डालते
वो खा लेती
दुम आभार स्वरुप हिलाती ।
कुतिया के पिल्लों को
चोरी से कुछ लोग उठा ले गये
माँ का स्नेह -दुलार क्या होता है
उन्हें इससे क्या वास्ता ?
रोती -कराहती कुतिया
ढूंढ रही अपने बच्चों को
वो अब दी जाने वाली रोटी भी
नहीं खा रही ।
खाए भी तो कैसे
बच्चों के माँ से अलग होने का दर्द
एक माँ ही समझ सकती है
जैसे भ्रूण -हत्या होने पर
इंसानों में माँ को होता है
दर्द ।
कुतिया सोच रही है
यदि में इन्सान होती तो बताती
इंसानों को अपनी वेदना
कौन सुने -समझे उसकी वेदना
वो समझ रही है
कैसे -कैसे दुनिया में है
बेदर्दी इन्सान जो करते है भ्रूण हत्या
और कुछ लोग चुराकर दूर करते है
हमसे हमारे पिल्ले ।
--
****दिये कि पाती*****
टिमटिमाते दीये से पूछे
महंगाई का हाल
मुस्कुराके वो हौले से बोल उठा
मेरी तरह हर इन्सान त्रस्त है
मैं तो ईश्वर का माध्यम हूँ
मेरी बदौलत ही इन्सान
ईश्वर से जीवन में कठिनाइयों को
दूर करने की चाह रखता है
तो क्यों मांग लू ईश्वर से
महंगाई दूर करने का वरदान
मे तो एक छोटा सा दीया हूँ
जो देता आया हूँ हर घर में
विश्वास और आस्था का हौसला
किन्तु मुझे भी डर है भ्रष्टाचारियों की
आँधियों से जो मुझे बुझा ना दे
सच्चाइयों की आड़ लेकर
ढांक लो जरा मुझे
अगर बुझ गया तो इन्सान कभी
महंगाई कम होने का वरदान
मांग ना सकेगा ईश्वर से |
--
उड़ान
पिता
बेटी की आंखों में देखता
सपने, कल्पनाएं
अन्तरिक्ष में उड़ानों के
पंख संजोता सपनों में |
मन ही मन बातें करता
बुदबुदाता
मेरी बेटी का ध्यान रखना
जानता हूँ अन्तरिक्ष में
मानव नहीं होते
इसलिए हैवानियत का
प्रश्न ही नहीं उठता |
पिता हूँ
फिक्र है मुझे
बड़ी हो चुकी बेटी की
छंट जाते हैं ,जब भ्रम के बादल
तब दूर से सुनाई देती है
भीड़ भरी दुनिया में
कई प्रकार की उत्पीड़न की आवाजें
उन्हें रोकने का बीड़ा उठाती
बेटी की आक्रोशित आंखें |
संकेत देती चीखों के उन्मूलन का
देखता हूँ विस्मित नजरों से
फिर से संजोये सपनों को
बेटी की आंखों में
उड़ान
उत्पीड़न से निपटने की
कल्पनाओं के साथ |
--
सेवा जल
वक्त भी ढूंढने लगा है
सहारों को
जो जिंदगी के थपेड़ों में
हो चुके गुम ।
ऐनक ,लकड़ी के सहारे
डगमगाते कदम
बताने लगे है अब
उम्र को दिशा ।
दूरियों के पनपते
रिश्ते जो भ्रमित हो जाने लगे
अपनों में ।
वे ही अब
पाना चाहते सुखद छांव
आसरों के वृक्ष तले
जिनको झिड़का यह कभी ।
सच तो है क्योंकि वे ही दे सकेंगे
आशीर्वाद के मीठे फल
जिन्होंने उन्हें सींचा होगा
सेवा के जल से ।
--
संग मेरे
दीपों की रोशनी में
ढूंढ़ रहा पिता को
जो खो गए अंधेरों में ।
रिश्ते भी कितने
निर्जीव हो जाते
जब पड़ जाती उनकी
तस्वीर पर गर्त ।
गुजर जाने का दुःख
सालता है जब
उनके कमरे में अकेला
पाता हूँ खुद को ।
भ्रम हो जाता है कभी
जैसे पिता ने
आवाज दी हो
मुझे बुलाने की ।
स्मृतियाँ उतर आती है
बन के आँसू
त्यौहार बन जाते है
मेरे लिए सूने ।
सोचता हूँ
काश आज पिता होते तो
पटाखे और खुशियों के
दीप जलाते संग मेरे ।
---
पिता
पिता मील पत्थर
जो, सचाई की राह बताते
पिता पहाड़
जो, जिंदगी के उतार -चढ़ाव समझाते
पिता जौहरी
जो ,शिक्षा के हीरे तराशते
पिता दीवार
जो ,अपने पर भ्रूण हत्या पाप लिखवाते
पिता पिंजरा
जो ,रिश्तों को जीवन भर पालते
पिता भगवान
जो ,पत्थर तराश पूजे जाते
पिता सूरज
जो ,देते यादों के उजाले
पिता हाथ
जो ,देते सदा शुभ आशीष
पिता दुआएँ
जो ,बिन उनके अब साथ मेरे
पिता आसूँ
जो ,अब मेरी आँखों में है बसे
---.
मालवी रचना
बात हुई री है
आज देखो साँझ केसी
मजा की हुई री है |
यहां तो चमकता चाँद की
रात में घणी बात हुई री है |
चांदनी बी दूब का साते
न्हाई है ओंस से |
यंहा तो पत्ती का खोला में
मोती होण की बात हुई री है |
भले ज चाँद मुहब्बत की
चांदनी नि बिखेरे |
यंहा तो चापलूस सितारा होण की
चमकवा की बात हुई री है |
********
हायकू
होवे लालची
दायजा का भिखारी
मांग्या करे
जावा शादी मे
दूसरा की बढाई
केसा हितेसी
देवे कहाँ से
मन तो फोटू मे
शुभ आशीष
लोग होण के
पानी को भी नी पूछें
काहे का सेठ
आलू सबके
बनई लेवे दोस्त
दिल नरम
संजय वर्मा "दृष्टि "
१ २ ५ ,शहीद भगत सिंग मार्ग
मनावर जिला -धार (म .प्र .)
---
रचना सिन्हा
कविताएँ
अरमान
प्यार वो दर्द से जिसे दिखाया नहीं जाता,
सीने में उठते हैं, गमों के तूफान आंखों में समाया नहीं जाता,
कितनी तकलीफ होती है,यादों से बताया नहीं जाता,
ख्वाबों के तिनके बिखरे हैं, जिसे अब तो उठाया नहीं जाता,
दिल पे नाम है, उनका जिसे लबों पे लाया नहीं जाता,
सोचा था साथ चलेंगें उनके कदम बढ़ाया नहीं जाता,
साथ रहने की तमन्ना थी, अब तो अक्स दिखाया नहीं जाता,
आंसुओं का नामोनिशान ना था जहां, वहां अब मुस्कुराया नहीं जाता,
उनके बारे में सोचना चाहता है, दिल पर नाम याद दिलाया नहीं जाता।
--.
याद
तेरी याद जब भी आती है, महफिल में तन्हा कर जाती है,
तूने इतना दर्द दिया कि मरहम भी कम पड़ जाती है,
बरसात कि बूंदों सी हर वक्त आंखें मेरी नम पड़ जाती हैं,
यादों के घने कोहरे से, हर वक्त दूर होना चाहती हूं,
पर लगता है, जिन्दगी कम पड़ जाती हैं,
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लहर
हवाओं की लहर जब बागों में आती हैं,
चुपके से फूलों की डालियों को लहरा जाती हैं,
किसी को पता भी नहीं चलता,
वीराने में कब बहार आ जाती हैं,
अच्छाई के साथ बुराई का भी वास होता है,
जैसे कांटों के साथ गुलाब होता है,
वक्त खराब हो अपना तो हर काम में नुक्स होता है,
इतनी शिद्दत से चाहा था तुझे कि इसमें भी खोट नजर आई
एक छोटी सी बात पर यूं नाराज हुए
जैसे सदियों से तलाश थी दुर जाने कि
तुझे याद ना करुं मगर किस तरह भुलाऊँ
तू पास नहीं होता है फिर भी साथ होता है।
आइने के सामने देखती हूं खुद को,
सुरत मेरी होती है, अक्स तेरी नजर आती है,
आज सारे तूफान थम गए हैं,
गमों के बादल जम गए हैं,
फिर वही सुखी धरा है, पर
बारिश से मन डरा है।
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उमेश मौर्य
कविता
॥ कहना चाहता हूँ ॥
आज मैं खुद से ही, कहना चाहता हूँ,
दर्द फिर से इक पुराना चाहता हूँ॥
कब से निकले ही नहीं, आँखों के आँसू
आँख से दरिया बहाना चाहता हूँ॥
दर्द होता ही नहीं, अब चोट खाकर,
दर्द का एहसास पाना चाहता हूँ॥
अब तो अपने भी, नहीं हैं याद आते,
यादों का वो दिन पुराना चाहता हूँ॥
फिर से दिल के, घाव सारे भर गये,
जो भरे न घाव ऐसा चाहता हूँ॥
इस महल में, नींद क्यूं आती नहीं,
झोपड़ी सी नींद पाना चाहता हूँ॥
चल नहीं पाता हूँ, तनहा राह में,
भीड़ को हिस्सा बनाना चाहता हूँ॥
लोग एहसानों, के नीचे दाबते है,
अपनी राहें खुद बनाना चाहता हूँ॥
छोड़ दो मुझको, बहुत खुदगर्ज हूँ मैं,
अपने दम पे मुस्कराना चाहता हूँ॥
लोग कहते हैं, तू किस्मत का धनी है,
मौत से मैं आजमाना चाहता हूँ॥
बेवजह मरना भी, क्या बुजदिल है हम,
मौत से आँखें मिलाना चाहता हूँ॥
फेंक दो मुझको, समन्दर के कहर में,
लड़ के अपने दम पे, मरना चाहता हूँ॥
मर भी न पाते, जो जीना चाहते हैं,
मैं तो हर पल मौत पाना चाहता हूँ॥
कौन कहता है, कि मैं खामोश हूँ,
मैं कलम से सच बताना चाहता हूँ॥
जानता हूँ मैं भी, दुश्मन के हुनर को,
वार करने का बहाना चाहता हूँ॥
है खबर सब, कुछ बरस की जिन्दगी है,
फिर भी, दुनिया भर को पाना चाहता हूँ॥
सोचता हूँ, कौन है, अपना पराया,
इसलिए बीमार होना चाहता हूँ॥
हंस के भी, जीवन बसर होता नहीं,
दर्दे दिल का, एक खज़ाना चाहता हूँ।
-उमेश मौर्य
वर्मा जी के कटु वचन सत्य वचन है सत्य हमेशा कटु होता है उत्तम रचना
जवाब देंहटाएंउमेश भाई, कमाल की गज़ल कही है,
जवाब देंहटाएंइस महल में, नींद क्यूं आती नहीं,
झोपड़ी सी नींद पाना चाहता हूँ॥ वाह्
कौन कहता है, कि मैं खामोश हूँ,
मैं कलम से सच बताना चाहता हूँ॥ वाह वा
विजय भाई, आपके कतु वचन मीठे लगे
शेर सिंग जी, पिता के लिये कविता दुर्लभ है, अच्छी लगी
मोती लाल के आपकी कवि ता बहुत अच्छी है
सौमन भाई, आपकी चतुष्पदियॉ अच्छी लगी
राजिव भाई आप्की हाईकु और मनोज भाई आपकी रचनाये भी भली लगी
सुनील भाई, संजय भाई, रचना जी, और मिनाक्षी जी आपकी भी रचनायें पठ्नीय हैं
Shukriya Bhandari ji!
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'
dhanyvaad ji aap kaa bahut bahut dhanyvaad ji
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