आत्माराम यादव, पीव की कविताएँ

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आत्माराम यादव, पीव प्रेमपर्ण,कमलकुटी, विश्वकर्मा मंदिर के सामने, शनिचरा मोहल्ला, होशंगाबाद मोबाइल नम्बर-९९९३३७६६१६ (१) अपराधी मन पथभ्रष्ट ...

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आत्माराम यादव, पीव
प्रेमपर्ण,कमलकुटी, विश्वकर्मा मंदिर के सामने, शनिचरा मोहल्ला, होशंगाबाद
मोबाइल नम्बर-९९९३३७६६१६
(१)

अपराधी मन पथभ्रष्ट युवा
मैं एक घृणित अपराधी हॅू
हर निषिद्घ अपराध मुझे जानता है
मेरा अपराधों से चोली-दामन का नाता है।
पर इस दुनिया में सभी
मुझे नैतिक शीलवान समझते है
मेरे चरित्र का अनुकरण हेतु
अपने बच्चो/युवाओं को प्रेरित करते है।
मैं भी अपने पूर्वजों के चरित्र का अनुगामी हॅू
जिन्होंने राम कृष्ण ईषा मोहम्मद
कबीर नानक जैसों के चरित्र को सराहा है
इसलिये नकली रंगमंचों पर
उसे बार-बार दोहराहा है।
वैसे ये लोग कभी भी
चरित्रवान नहीं रहे है
औरो की तरह स्वार्थ प्रपंचना में बहे है।
यदि ये चरित्रवान होते
तो क्या हम इनके चरित्रों की ढ़ोते ?
आज हम गधों का काम कर रहे है
जो चरित्रवानों के चरित्र को ढो रहे है।
इनका चरित्र काले कम्बल की तरह रहा है
जिस पर अभी तक किसी का भी रंग नहीं चढा है
यदि ये चरित्रवानों के चरित्र का अनुकरण न कर
अपने आचरणों में लेते
तो दुनिया में सभी चरित्रवान होते।
दुनिया के आदि से अब तक
कुछ गिने चुने व्यक्तियों का चरित्र मिलता है
बाकी अधिकांश मनुष्यों का
चरित्र से नहीं पशुता से गहरा रिश्ता है।
इस पशुता की खोल में
मै चरित्र की ओढ रहा हॅू।
राम रहीम के व्यक्तित्व से
खुद अपने को तौल रहा हॅू।
मेरे पूर्वज खुद कभी
राम रहीम नहीं बन पाये है
राम का मिश्रित नाम आत्माराम
वे मुझे जरूर दिला गये है।
चरित्रवानों का नाम मिलने से
कोई कभी चरित्रवान नही हो जाता है?
इस दुनिया में व्यक्तियों का
चरित्र से नहीं
जीवन के अभावों से गहरा नाता है।
जिसको जिसकी कमी है
वह उसे पाने दौड रहा है।
कोई-कोई तो अपनी हवश में
कुछ भी नहीं छोड रहा है।
जिसको जो मिलता है
वह उसे उठा लाता है
कोई धन में मगन है तो कोई
शरीर की हवस मिटाता है।
इसीलिए एक आदर्श नैतिक चरित्रवान को
आज तक हम जन्म नहीं दे पाये है
और अनैतिक चरित्रहीन अंधकूल में
हम खुद पूरे के पूरे समाये है।
जहॉ से हमें कुछ गिने-चुने
चरित्रवानों की खबर मिलती है
पर चरित्रवान होने की किसको पड़ी है?
सभी चाहते है खुद उन्हें छोडकर
बाकी सभी चरित्रवान बन जाये
किन्तु कोई चरित्रवान नहीं बन पाता है
लोगों का चरित्र से नहीं पशुता से  गहरा नाता है।
सबके साथ जो गुजरती है
उसे मैं बताता हॅू
औरों की तरह मैं
एक घृणित अपराधी हॅू।
मैं सत्य कहता हॅू
औरों की नहीं
अपनी कहता हॅू।
मैं कईयों से मिला हॅू
वे मुझसे सहमत है
पर सच कहने में
आती उनको तोहमत है।
मेरा अपराध संगीन है
जिसे सुनकर दुनिया की कोई भी अदालत
मृत्युदण्ड से कम सजा नहीं देगी।
वैसे एक जन्म में
एक संगीन अपराध की
और अनेक संगीन अपराधों की सजा
एक बार मृत्युदण्ड से दण्डित होगी।
ये तथाकथित न्यायविद खुद नहीं जानते
जिसे सजा दी जा रही है
वह पहले से ही मरा  है
मैंने सुना है हर आदमी
चाहे वह कोई भी क्यों न हो
जीते जी अनेक बार मरता है
पर लोगों को कहॉ फर्क /असर पडता है
परन्तु मुझे तो पडता है
इसलिये सत्य बयान कर रहा हॅू
मैं एक घृणित अपराधी हॅू।
मेरा अपराध समस्त नारीत्व के प्रति है
मैं राह चलती हर खूबसूरत
युवती के कोमार्य को भंग करता हॅू।
मेरी ये नजरें बडी ही कामुकता के साथ
वासनाओं को हवा देती है
और ये मेरा मन अन्दर ही अन्दर
खूबसूरत युवती के कोमार्य को
बडी बेरहमी से मसल देता है।
ये विचार युवती के औझल हो जाने तक
उसके साथ मनमानी से बलात्कार करते है
फिर भी तुम मुझे
चरित्रवान समझते हो?
इतना सब कुछ सुनने के बाद
तुम मेरे चरित्र पर किसी को चला सकते हो
नहीं , मैं चरित्रवान नहीं हॅू?
बडी ही खूबसूरती के साथ
मन के तल पर
मैं बलात्कार करता हॅू
पर इसकी खबर कानोकान
किसी को नहीं हो पाती
क्योंकि अक्सर हर नजरें
इसे दोहराती है।
ये मेरे दोनों हाथ
जो भगवान का अनुपम वरदान है
वह भी मन के तल पर
बलात्कार में मौजूद होते है?
ये किसी अबला की रक्षा तो नहीं
उसे कुचलने में लगे होेते है
यदि तुम्हारें साथ ऐसा नहीं होता है
तो तुम बेशक मुझे
व्यभिचारी कह सकते हो
नहीं तो चुपचाप मुझसे
सहमत हो सकते हो।
क्या अब भी तुम मुझे
नैतिक चरित्रवान समझते हो ?
मैं कोई और नहीं
आज का पथभ्रष्ट  हुआ नौजवान हॅू
जो सदियों से
कल के युवा हुये बुजर्गो के
पदचिन्हों पर  चल रहा हॅू।
जिन्होंने रामायण गीता कुरान,
बाईबिल और गुरूगंथ साहिब जैसी
धार्मिक विरासतों पर
अपनी थोथी अस्मिता को सर्वोच्च रखकर
इनके अमृततुल्य नैतिक आदशरें को
विस्मृत करके कभी अपने जीवन में
नहीं अपनाया
और स्वार्थलिप्त वासनाओं में मन को लगा
राजनैतिक अधर्म में  को अपनाया है?
सच पूछा जाये तो
हम युवाओें को इन्होंने
एक विषभरी विरासत दी है।
जहॉ सारी दुनिया बुझी-बुझी है।
जिस पर हम युवा कभी
गौरव नहीं कर सकेगें ?
मैं एक घृणित अपराधी हॅू
अपराधों से मेरा चोली दामन का नाता है।
मैं कोई और नहीं
आज का पथभ्रष्ट युवा नौजवान हॅू।

   (२)
श्मशान की राख
मुझे अभी-अभी
शव के साथ सुलगाया है
मैं श्मशान घाट की
सुलगती लकडियों का ढेर हॅू।
मेरे अन्दर की आद्रता /नमी /गीलापन
अग्नि से तादाम्य जोडकर
बेशुमार धॅुआ उगल रही है
शव के चारों ओर का वातावरण
निशब्द शांत और धुंआ धूसिल हो रहा है।
शव के साथ जलती आद्रता
अपनी कडुवाहट
धुंए की शकल में उगलकर
शव को पंचतत्व में
विलीन करने
सहायक बना हुआ हॅू।
इत्मीनान से मेरे साथ जलता शव
और धुए की कडुवाहट की परिधि में
शव की शाश्वत परिणिति का
दृष्टा बना ये मूक मानव
अभिश्रापित है अपने शाब्दिक अनुभव
और जीवन की असारता भरी
पुट फोडने की इस अन्तिम परिणिति से।
कुछ अलसाये से
भूल जाते है अपने को
तभी श्मशान में रहकर भी
वे भटकते हैं समारोह भरे मायाबाजारों में।
मृत मानव चर्म के साथ जलते  मुझे
घृणाहीन देखने वाली ये जिन्दा लाशें
अपनी अनन्त खुशियों का अनुभव लिये
विस्मृत कर देती है अपनी इस अन्तिम परिणिति को
अपनी आत्मवंचना से परे यहॉ मौजूद सभी
अपने अंतकरण में बारीकी/ सूक्ष्मता से
अवलोकन निरीक्षण करें तो पायेंगे
वे भी अपने अन्दर ही अन्दर सुलग रहे है
जिसकी आद्रता से निकलते अदृश्य विषेले धुए ने
सारी धरती को श्मशान बना दिया है।
पर मैं इस धरा का
एक छोटा सा श्मशान घाट का
सुलगती लकड़ियों का ढ़ेर हॅू।
मैं यहॉ आने वाली हर मृत देह को
अग्नि के साथ धू-धू  कर जलाता हॅू
तव दाहसंस्कार में आने वाला हर व्यक्ति
बोझिल हुये वातावरण में
तत्वदर्शी बन जाता है
और जीवन की असारता का
मंथन करते लौटता है।
फिर सुनसान हुये श्मशान घाट पर
रात की अंधेरी रात में छा जाती है खामोशी
और चारों और रह जाता है सन्नाटा  ही सन्नाटा
काली रात और मुझसे निकले धुऍ के तादात्म की
फिर किसी को परवाह नहीं होती ।
स्याह रात के सन्नाटे को चीरती
भयावह चीत्कारे,
कुत्ते बिल्ली और सियारों का रोना
सर्प की सरसराहट
उल्लू और चमगादड़ों की आवाजें
उस मौत के सन्नाटे का मौन तोड़ती है
मृतक के घर छा जाती है खामोशी ।
भुनसारे मेैं पूरी तरह जलकर
राख हो जाता हॅू
फिर कभी  न खत्म होने वाला
सदियों पुराना सिलसिला चल पड़ता है।
मृतक के स्वजन
मुझ राख के ढ़ेर को रौंद डालते है
ताकि मृतक क ा अस्तित्व
नाखूनो के रूप में संजोकर ले जा सके
नाखून पाकर मेरे थोड़े से अंग को
चुटकी भर मात्रा में नदी/तालाब में
विसर्जित करते है
और अपने स्वजनी मृतक को
अलविदा कहने से पहले
उसकी रूचिकर वस्तुओं का भोग लगाते है
मृतक के बचे हुये अवशेषों को
वेदशास्त्रों की दुहाई देकर
तीर्थो में विसर्जित करते है
कई कर्मकाण्ड के उपरांत
मृतात्मा की शांति के रूप में
मृतक भोज कराते है और
श्मशान घाट की मुझ राख के ढ़ेर के
अकस्मात भाज्य खुल जाते है
अतिवृष्टि होने पर जब नदियों के कूल फैलते है
तब मैं नदी के शरीर में समा जाता हॅ
और फिर शुरू होती है मेरी अनन्त की यात्रा
दूर दराज के खंदकों,
तालों और पहाड़ों को लॉघता हुआ
मैं नदी के साथ पहॅुच जाता हॅू
अनन्त असीम  सागर की बॉहों में
जहॉ मुझे श्मशान  से कहीं अच्छी
परम सौन्दर्यवान सृष्टा की गोद मिलती है
और मैं श्मशान की राख का ढ़ेर,
परमसत्ता में विलीन हो जाता हॅू
अपने पीव से मिलने को।
   
(३)                               
अधूरी मंजिल
अजीज तूने क्या पिलाई मदिरा मुझे
ख्याले गम दुनिया मेरी मिट गई हो जैसे।
कयामत थी या वह हॅसी रात मेरी
मिल गई हो मानो जैसे मंजिल मुझे।
अहा शबाव तेरा कयामत का रहा
उड़ा दी नींद मेरी उल्फत की तरह।
मैंने समझा न मिल पायेगी तू
बंदिश है तुझ पर कुछ रिश्तों की तरह।
ये रिश्ते हमारे अपने खूं के नहीं
फिर दिखते है जैसे ही नजदीकियॉ।
मंजिल मेरी तू राह मेरी
रिश्तों से हॅू पर मैं तुझसे जुदा।
यकीं करों गर जान भी दॅू
होगा न संगम कभी हमारा कदां।


(४)
प्रभु तू तो बेईमान न था
यदि मेरे भाग्य में समृद्वि का बरदान नही था
कैसे कह दॅू मेरा सम्राट बनने का अरमान नहीं था?
धन-दौलत को देने वाला था वह
देखा निर्धन मेरा रूप अनोखा
जिसे मिटाने में निष्फल था
प्रभु खजाने का हर एक लुटता स्वर्णिम मौका ?
नित प्रभुश्रद्वा में लीन मेरी प्रार्थनाओं का झौका।
तब दुनिया की अमीरी देखी
और उसे पाने को ओंठ यदि न हिल पाये मेरे
कैसे कह दॅू मेरे जीवन में
प्रभु मेरी समृद्घि का स्थान नही था।
कब से उम्मीद बंधी हुई थी
राजमहल सा हो मेरा रत्नजटिल बिछौना
कब से नजरें पथराई थी
देख छिथडों में लिपटा अपना दिल बौना ?
जिस निर्धनता का अपमान किया
मैंने मॅुह बिचला-बिचला कर
अपनी उस निर्धनता पर भी
कभी मैेंने भी बहुत गुमान किया था।
मेरी पीड़ायें सब झर-झर कर
तुझ पर अपना सारा दर्द बारे
मेरे अन्दर की अकुलाहट भी
रो-रो कर हरदम तुझे पुकारे
प्रभु  कैसे तुझको मना न पाया
मेरे शरीर का दर्द असीमित
पीव दोनों हाथ लुटाने वाले
प्रभु तू तो बेईमान न था?


(५)
विसर्जन
जीवन की विषमताओें का पैमाना
कुछ इस कदर छलक गया
कि मेरे अन्दर
मन के तल पर
विश्वासों की बहुमंजिला
खूबसूरत इमारत
पलक झपकते ही
एक पल में ढह गई
जब मैने असीम विश्वासरूपी
नींव का पहला पत्थर
निश्चल श्रद्घा को
निजी स्वार्थ की चमकीली कुदाली से
दिवा स्वर्णिम भविष्य कें लिये
खींचकर बाहर कर दिया।
इस तरह अपने स्वार्थ के दल-दल में
मैंने अपने महत्वाकांक्षी मन का
और नैतिकता के पवित्र जल में
निश्चल श्रद्घा का
पीव अनचाहा
विसर्जन कर दिया


                                    (६)
    चितायें लाख देखों वहॉ जली जा रही हैं
ये उदासी क्या गजब़ ढृा रही है
जिन्दगी मेरी उसमें रंगी जा रही है।
मोहब्बत के जुनून में मगरूर लोगों
देखों मोहब्बत ही खुद अब मुझे खाये जा रही है।
खून में डूबे हुये है मेरे जिगर के टुकड़े
दाग रो रो कर खून के, ऑखें ऑसुओं से बहा रही है।
अश्क पीता हॅू मैं खुद अपनी गैरत में रहकर
अब गैरत ही मेरी मुझे खतावार ठहरा रही है।
जिन्दगी अब तेरी खैर नहीं खुदा की कसम
खैरियत भी आज मुझे सरेआम ठगे जा रही है।
सूर्ख लबों पर ये बात आकर ठहर गई
वफा ही जिगर में मेरे बेबफाई निभा रही है।
चाहा जिगर में हम गम को दफन कर देंगे
पीव चितायें लाख देखों वहॉ जली जा रही है।

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. मै एक घृणित अपराधी हू कवि ने अपने बहाने आज के समाज की मानसिकता का वर्णन किया है एक उत्तम रचना

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  2. मैं भी अपने पूर्वजों के चरित्र का अनुगामी हॅू
    जिन्होंने राम कृष्ण ईषा मोहम्मद
    कबीर नानक जैसों के चरित्र को सराहा है
    इसलिये नकली रंगमंचों पर
    उसे बार-बार दोहराहा है।
    वैसे ये लोग कभी भी
    चरित्रवान नहीं रहे है

    यादव जी,
    कड़्वा सच बयान किया है आपने, एक आईना जैसे किसी को उसका बदसूरत छवि दिखा रहा हो,

    मेरा एक शे र याद आ रहा है

    क्या कभी खुद से भी कर पाये हम

    या नाम पुरखों के ही गिनाये हम

    जवाब देंहटाएं
  3. आत्माराम यादव(पीव)जी,

    बहुत सुंदर कविताये है | कविता में छुपे भाव स्पस्ट रूप से प्रकट हो रहे है |

    जवाब देंहटाएं
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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: आत्माराम यादव, पीव की कविताएँ
आत्माराम यादव, पीव की कविताएँ
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