1. क्रान्ति और आदमी एक वैभव खोजता है खंडहरों में एक मरघट की चिता से राख ले पुतले बनाता एक तोडे जा रहा पत्थर मज़ारों के एक चुनकर म...
1. क्रान्ति और आदमी
एक वैभव खोजता है
खंडहरों में
एक मरघट की चिता से
राख ले
पुतले बनाता
एक तोडे जा रहा
पत्थर मज़ारों के
एक चुनकर मोरियों से ईंट
चौबारे सजाता
क्रान्ति का झण्डा उठाये
चढ गया अट्टालिका पर भ्रान्ति की
और ऊंचा बैठ छज्जों पर
वही झण्डे चबाता
और वो जो रात-दिन
जलता रहा है लकडियों सा
रोटियां पकते न पकते
देख पकती उम्र को
आँसू गिराता
आदमी के नाम पर
लाशें बची हैं
दौडता तो है रगों में ख़ून लेकर
क़त्ल होने पर मगर
पानी बहाता।
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2. अनाथ सत्य
ईमानदार धूप
मेहनती हवा को
तरस जाय
दूसरों की नीयत से उलझ
अपनी नियति
बदल जाय
अंधेरे बंद कमरे में
घुट कर मर जाय
या किसी सुनसान में
किसी हैवान के हाथों
निरीह बच्चों सा मारा जाय
खुली धूप में
हँस कर खिलना न सही
खुली हवा में
मर पाने का सुख भी नहीं
क्या आदमी
इसीलिए जिए जाता है
कि आदमियों को मारता रहे
या मरते देख मुंह मोड़ता रहे
पूछो, जरा उनसे पूछो
जिनकी देशभक्ति
क्रान्ति के नाम से चल
कुर्सी तक जाती है
जिनकी दृष्टि
आम आदमी से छिटक
विरोधी दल तक जाती है
और इस यात्रा में
सत्य अनाथ सा
काफिले से दूर
खड़ा एक किनारे उदास
हर गुज़रते दौर से
माँगता है
साथ लिए चलने की भिक्षा
और कहता है:
खेत का धान
आदमी का चेहरा
तभी खिलेंगे
जब मिलेंगे
उसकी नियति को न्याय
और नियत को शिक्षा।
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3. ठगा गाँव
गेहूँ की बाली पर
बादल की परछांई
छपरे की छांव तले
उदासी घिर आई
तपती बालू पर से
तिनके दो चार
चरते न चरते
गाय के नथुने झुलसे
सपनों के हाथों पर
कितने ही छाले उफसे
प्यास
कांच की चूडियों सी
चौखट के पार निकल
रेत की लहरों पर
तडक गई
अंचल की तरुणी
नाचती उमंग सी
आंगन में मुरझाई
सावन
कितने ही बीते
वह भटक रही दर दर
दो बूंद पानी को
जोबन तरस गया
बादल भी गाँव छोड
शहर पर बरस गया
भगवान भी हमें
छोड गया
आदमी के तरस पर
वादे बस वादे
खुशहाली के
सुख के
शिक्षा के
कानून के
वादे ही वादे
रह गये सभी
योजना के कागज
सादे के सादे
कब से कितनी बार
कागज पर बनी-मिटी
शहर से वह सडक
ढाणी तक फिर भी
अभी नहीं पहुंची
नेता से मांगा था
एक मास्टर
बच्चों को सिखलाता
सभ्य की तरह जीना
हमारी-तुम्हारी
देश की
अपनी भी इज्जत करना
और मांगा था
एक दरोगा
पैसे पर बिके नहीं
निरीह के कंधे पर टिके नहीं
गांव की गोरी देख
हवस नहीं हया जगे
न दरोगा मिला वैसा
न मास्टर
हम वैसे ही रह गये
ठगे के ठगे
एक बार फिर
वादों की हवा आई
कई बार टूटे सपनों ने
फिर से ली अंगडाई
हाँ! फिर घिर आई
गेहूं की बाली पर
बादल की परछांई।
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4. आह्वान बदलना होगा
हमने आँखें खोलीं तो
वो सपनों की दुकान
बढ़ा कर चले गये
ये जिनको कल
गद्दी पर बैठाया है
देखो तो
क्या रखते सूनी टांडों पर
ये भी शायद
सपने ही रख देंगे
हम फिर अपने हाथों में
लेकर खून-पसीना
वैसे ही सपने खरीदते जायेंगे
और किसी दिन लुट-पिट कर
फिर जागेंगे
व्यापारी ये नये
चले जायेंगे हमको छलकर
अभी बदलना चाहो तो
सामान बदल सकता है
ये जो बेचें
वही खरीदें हम
यह नहीं जरूरी
हम जो चाहें
वह यह बेचें
ऐसा कुछ करना होगा
इनके बदले
नहीं बदलता कुछ भी
हम अपनी मांगें बदलें
चाहें बदलें
राहें बदलें
इनको अपने आप
सभी सामान बदलना होगा
दोस्त समय है
सोचो ही मत केवल
करके तो कुछ देखो
पहले इन्हें बदलने से
खुद हमको
अपना आह्वान बदलना होगा।
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5. झटक दो कंधा
माना कि तुमने नहीं
किसी और ने धरी
तुम्हारे कंधे पर की गठरी
हैं कंधे तो तुम्हारे
कैसी यह विवशता
निकाल भी नहीं सकते
गठरी के नीचे से
अपना ही कंधा
ढो रहे चुपचाप
किसी और के पाप का बोझ
अबला की तरह
बस चुप हो रो रहे।
पेट की भूख
क्या इतनी बडी है
या कि तुम्हारा प्रमाद
बड़ा है उस से भी?
शर्म यह नहीं
कि तुम बोझ से लदे हो
बल्कि यह कि
तुम्हारे कंधों में
झटक देने की
इच्छा नहीं
कहते हो शक्ति नहीं
यह असमर्थता
दी नहीं किसी ने
स्वयं ओढी है तुमने।
बोझ धरने वाला
कहता रहा
बस थोडी दूर और
तुम कहते रहे
रे दुष्ट! बोझ उतार
उसकी भलमनसाहत
कहने भर की
तुम्हारा आक्रोश भी
बस कहने भर का ही।
बुरा न मानो तो कह दूं
दोष उसका कम
तुम्हारा अधिक
वह बस तुम्हारे कंधे पर
रखता है बोझ
तुम चुप रहकर
प्रोत्साहन देते
वह और भी कंधो पर
रखता रहे बोझ।
झटक दो कंधे
पटक दो गठरी
गठरी के साथ
गिर पडो तुम भी
तो ग़म न करना
तुम उठो न उठो
अनुचित के विरोध की
इच्छा उठेगी तुम्हारी
प्रतिबिम्बत हो
कंठ कंठ में गूंज
एक आँधी बनेगी
बस वही आँधी
मांगता है देश
अपनी ही मत सोचो
सब की सोचो
आज की ही नहीं
कल की भी सोचो।
हाँ!
झटक दो कंधा
पटक दो गठरी!
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6. रीते लोग
जब कहा
यही कहाः
उसने कुछ नहीं किया
या फिर
उसने जो भी किया
गलत किया
कभी यह नहीं सोचा:
तुम यह करो
कि ऐसे करो
या कि आओ
हम तुम मिल
यह ऐसे करें
बोलना मना था
तब चुप थे
बोलने मिला तो
बस दे रहे गालियां
कितने गये बीते हैं
वो - हम - ये
शायद सभी
कितने रीते हैं।
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7. मार्ग के खड्डे
उस मार्ग पर
जहाँ कृष्ण चलते थे
खड्डे अवश्य रहे होंगे
उन्होंने पाटे भी अवश्य होंगे
क्योंकि उनका रथ
चलता रहा
उनके हाथ का
सुदर्शन चक्र भी
चलता रहा
मार्ग पर
आज भी खड्डे हैं
हम पाटते भी हैं
हर रोज अधिक मेहनत से
पर खड्डे पाटे नहीं जाते
शायद खोदने वाले
मारे नहीं जाते
खडे ही रह जाते हम
समय
रथ सा आगे बढ जाता
सुदर्शन चक्र
हमारे हाथ का
चलता नहीं
भटक जाता
सुविधा के बियाबानों में।
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8. यथार्थ
दर्पण की दरक
चेहरे की नहीं होती
ठीक वैसे ही
जैसे
चेहरे का धुंधलका
दर्पण का नहीं होता
वैसा समझने से
धुंध का हटना नहीं होता
पोंछ कर तो देखो
दर्पण पर की धुंध
कहीं चेहरे की तो नहीं
पर नहीं
ठिठका निर्णय
कुछ इंगित करता है
कहीं ऐसा तो नहीं
कि सहमे हो
अपने ही यथार्थ से
दर्पण पोंछो
और धुंध न मिटे।
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9. ताजा हवा
छोडो बासी बातों की चर्चा
और कभी कर लेंगे
आज समय को थम जाने दो
और दरीचों से झोंको को
हौले-हौले आने दो
जाले वे जो
मकडी कल की छोड गई है
कोनों में कमरे के बुढिया
कीलें ठोक गई है
टांडों पर जो धूल जमी है
और सील की बदबू
जिससे
सदियां घुटी हुई थीं
एक हवा के झोंके के
आने जाने से
कुछ तो बासीपन टूटेगा
और हमारी मुक्त हँसी से
दीवारें गूजेंगी
जितनी देर रहेगी प्रतिध्वनि
प्यार भरे गीतों की
उतनी देर झरेंगी शायद
दीवारों से पर्तें
इसीलिए
आओ ना हम तुम
प्यार करें
बासी बातों की चर्चा
अब और कभी कर लेंगे
आज समय को थम जाने दो
और दरीचों से झोंकों को
हौले-हौले आने दो।
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10. दोस्तों ने मार दिया
वो एक आदमी
जो शायद
ज़िन्दा रहता
दुश्मनों के बीच
दोस्तों ने मार दिया
और वह भी
दिन दहाडे़
रास्ते के बीच
यह समाचार
कुछ नहीं बन सका
समाचार से अधिक
आदमी
अपनी सुविधाओं से परे
हट नहीं सका
नया कुछ
सोच नहीं सका
तोड़ नहीं सका
वह व्यामोह
जिसमें उलझा आदमी
मन से
दोस्त बनता नहीं
कुछ मीठे दायित्व
बढ़ाता नहीं
बढ़ाता रहता
परिचितों की
एक फेहरिश्त
छुपाता रहता
चिकनी पर्तों के नीचे
औपचारिकता की
पीप भरे
टीसते घाव
ये टूटा हुआ
साबुत आदमी
दुश्मन के आने पर
अकेला ही लड़ता
या फिर
दोस्तों के हाथों
अकेला ही मरता
आदमियत के टीसते घाव
पीप की सड़ी गंध लिये
यों
नित्य ही
उघड़ते
पर समाचार से अधिक
कुछ नहीं बन पाते।
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[पुस्तक: मैंने तुम्हारी मृत्यु को देखा है
कवि - सुरेन्द्र बोथरा 'मनु'
प्रकाशक: सर्जना, शिवबाडी रोड, बीकानेर - 334003. Email: vagdevibooks@gmail.com]
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