मन्नू भण्डारी से ज्योति चावला की बातचीत हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श का श्रेय राजेन्द्र को मिलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इस स...
मन्नू भण्डारी से ज्योति चावला की बातचीत
हिन्दी साहित्य में स्त्री-विमर्श का श्रेय राजेन्द्र को मिलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
इस साक्षात्कार को बहुत पहले ही पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन इसके आड़े आया मन्नू जी का स्वास्थ्य। इसका पहला ड्राफ्ट तो मध्य अक्टूबर की किसी तारीख़ में तैयार हो गया था, लेकिन तब से मन्नू जी निरन्तर अस्वस्थ चलती रही, और मैं उनके स्वास्थ्य की कामना करती रही, और इसमें अगर जोड़ दिया जाए, तो हरि भटनागर फोन पर फोन करते रहे। इस बीच घोषित होने के बवजूद यह साक्षात्कार ‘शब्द-संगत' का एक और अंक लाँघ गया। परन्तु इसी बीच हमारी मन्नत काम आई, ठण्ड कम हुई, धूप निकली और मन्नू जी ने फिर से अपनी कुर्सी पकड़ी, किसी साक्षात्कार के लिए कोई लेखक इतना कॉन्शॅस हो सकता है, इसका अनुभव मुझे इस दौरान हुआ। उन्होंने इस साक्षात्कार को कई बार आर-पार देखा। घण्टों हम साथ बैठे, और हर बार इसका अन्त डायनिंग-टेबल पर हुआ। तभी मैंने जाना कि मन्नू जी रोज़ खाना खाने के बाद सोती हैं... और यह कि राजस्थानी लोग खाना खाने के बाद पापड़ खाते हैं।
ज्योति ः आपकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ सन् 1950-60 के आसपास की हैं, जिस समय नई कहानी का दौर चल रहा था। आप खुद उसका एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर रही थीं, तो क्या नई-कहानी के बारे में कुछ बताएँगी?
मन्नू ः मैंने सन् 55-56 से लिखना शुरू किया था पर मेरी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ तो सन् 64 के बाद यानी दिल्ली आने के बाद आई। हाँ, इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरे लेखन की शुरुआत जरूर नई-कहानी के दौर में ही हुई थी। पर उसके बारे में कुछ बताने से पहले मैं इस प्रचलित धारणा को ज़रूर ध्वस्त करना चाहती हूँ मैं उसका एक महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर थी। ईमानदारी की बात तो यह है कि दो कहानी-संग्रह छपने तक तो मुझे नई कहानी का ककहरा भी नहीं आता था और न ही मेरा इससे कोई विशेष सरोकार था। मैं तो बस कहानियाँ लिखती थी वे छपती थीं और पाठको द्वारा स्वीकृत होती थीं और यही मेरा प्रमुख सरोकार था और सबसे बड़ा सन्तोष भी। अब क्यों कि मैं अपने लेखन के शुरुआती दिनों से ही राजेन्द्र, राकेश जी और कमलेश्वर जी के साथ रहती थी, जो नई-कहानी आन्दोलन के पुरोधा थे सो मेरा नाम भी इनके साथ जुड़ गया। यह भी हो सकता है कि मेरी कहानियों में भी वे सारी विशेषताएँ रही हों जो नई-कहानी के साथ जुड़ी हुई थीं और इसलिये मुझे भी इसके झण्डे तले डाल दिया हो। आज सोचती हूँ तो यह भी लगता है कि उस समय इन लोगों के नामों के साथ जुड़ने से मुझे भी कुछ महत्त्वपूर्ण होने का बोध होता होगा इसीलिये मैंने भी तो कभी इसका मुखर विरोध किया ही नहीं पर महत्त्वपूर्ण होने का बोध होना और महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर होना दो बिल्कुल अलग बातें हैं। हस्ताक्षर होने के लिये जरूरी है कि आपका उस आन्दोलन के साथ गहरा सरोकार हो और उसे आगे बढ़ाने में निरन्तर सक्रिय भी हों। सरोकार क्या होता, बरसों तक तो मुझे इसकी कोई जानकारी ही नहीं थी और बिना जानकारी के इसकी गतिविधियों को आगे बढ़ाने का तो प्रश्न ही कैसे उठता भला?
अब नई-कहानी की कुछ विशेषताएँ -जिस विषय पर कुछ लोगों ने पुस्तकें लिख डालीं, उसे तुम मुझसे एक-डेढ़ पृष्ठ में जानना चाहती हो। तो बहुत मुश्किल, फिर भी बहुत मोटे रूप में कुछ बातें बताने की कोशिश करूँगी!
नए कहानीकारों ने घोषित रूप में अपने को प्रेमचन्द जी परम्परा के साथ जोड़ा था। और इस ही आगे बढ़ाना इनका लक्ष्य था प्रेमचन्द की रचना दृष्टि और उनके लेखकीय मूल्य बहुत गहरे में समाज के साथ जुड़े हुए थे। समाज की विडम्बनाओं और विसंगतियों को उजागर करना, उन पर प्रहार करना ही उनकी रचनाओं के मुख्य विषय थे यानी कि समाज के बाहरी यथार्थ पर ही उनकी रचनाएँ केन्द्रित रहीं। इसीलिये नए कहानीकारों ने भी अज्ञेय, जैनेन्द्र जी आन्तरिक यथार्थ वाली दृष्टि को छोड़कर अपनी रचनाएँ भी समाज के बाहरी यथार्थ पर ही केन्द्रित की। इसके लिये उस समय बहुत ही अनुकूल अवसर भी था। गाँधीजी ने अपने समय में ही सामाजिक क्रान्ति की शुरूआत तो कर ही दी थी पर राजनैतिक आन्दोलन के चलते उस समय वह हाशिये में ही पड़ी थी। आजादी मिलते ही वह केन्द्र में आ गई, जिससे सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया ने गति पकड़ ली। रूढ़िवादी, दकि�यानूसी समाज को बदलने के लिये विभिन्न स्तरों पर प्रयास ही नहीं होने लगे, उन पर प्रहार भी होने लगे। अब समाज का प्रमुख हिस्सा है परिवार और परिवार टिका है स्त्री-पुरुष या नई-पुरानी पीढ़ी के सम्बंधों पर... सो इनके बदलाव अनिवार्य हो गये। महत्त्वाकांक्षी युवा अपना भविष्य बनाने के उद्देश्य सेगॉव-कस्बे छोड़कर शहर आ गये थे। शिक्षित होकर स्त्रियाँ भी शहरों में आकर नौकरियाँ करने लगीं तो अपने सहकर्मियों के साथ मित्रता होना स्वाभाविक था। इस स्थिति ने स्त्री-पुरुष सम्बंधों के बने बनाये ढाँचे को तोड़कर नये आयाम सामने रखे और इसकी स्वाभाविक परिणति प्रेम-प्रसंगो का सिलसिला भी चल पड़ा, जो दोनों पीढ़ियों के द्वन्द्व का कारण भी बना। शहरों में बसने के दौरान नई पीढ़ी का संघर्ष अपनी जगह और पुरानी पीढ़ी की उनसे उम्मीदें और निराशाएँ अपनी जगह। अपने आरम्भिक दौर की नई-कहानियाँ मुख्तः इन्हीं स्थितियों के विभिन्न पक्षों और पहलुओं पर केन्द्रित रहीं... फिर जैसे-जैसे सामाजिक स्थितियाँ बदलती गइर्ं, इनके विषय भी बदलते गये पर रहे वे सामाजिक स्थितियों पर ही केन्द्रित!
जहाँ तक मेरा ख़्याल है, इस दौर के अधिकतर कथाकार प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े हुए थे। गनीमत यही है कि इनमे से किसी ने भी अपनी रचनाओं पर इस विचारधारा को आरोपित नहीं होने दिया वरना इनकी रचनाएँ कलात्मक कृति न रहकर इस विचारधारा की प्रचारक हो जातीं।
इसमे कोई सन्देह नहीं कि नये-कहानीकारों का आग्रह मुख्यतः रहता कथ्य पर ही अधिक था पर उसके बव़जूद किसी भी कथाकार ने शिल्प की उपेक्षा तो क�तईर् नहीं की। सब इस बात के प्रति पूरी तरह सचेत थे कि कलात्मक शिल्प ही किसी वास्तविक ब्यौरे को कला-सृजन में बदल सकता है और उनकी रचनाएँ अपने-अपने ढंग से इस बात का प्रमाण भी हैं।
वैसे जिस कथ्य पर कहानीकारों का आग्रह रहता था, उसके बारे में भी एक नारा उन दिनों काफ�ी प्रचलित था-भोगा हुआ यथार्थ या अनुभूति की प्रामाणिकता यानी कि वह कथ्य काल्पनिक नहीं बल्कि अपनी या किसी और की भोगी हुई वास्तविकता पर आधारित हो। हाँ, वह वास्तविकता कहानी बनने के दौरान यानी कि एक कलाकृत बनने के दौरान बदलेगी तो सही ही और कभी-कभी तो कहानी की ज़रूरत के हिसाब से इसका रूप इतना अधिक बदल जाएगा कि लेखक स्वयं नहीं पहचान पाएगा। कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि बाहरी रूप चाहे कितना ही बदला हुआ हो पर उसका मूल-रूप जरूर किसी वास्तविकता पर ही केन्द्रित हो। कहानी के विश्वसनीय लगने के लिये यह अनिवार्य भी है।
अब होने को तो और भी कई विशेषताएं होगी पर मैं अब अपने हिसाब से अन्तिम पर सबसे महत्त्वपूर्ण बात कहकर इस प्रसंग को यहीं समाप्त करती हूँ। सच पूछा जाए तो यह प्रसंग नई-कहानी की विशेषता के अन्तर्गत तो आता भी नहीं है पर इस दौर की कहानी के सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण बात ज़रूर है
इसमें कोई सन्देह नहीं कि नई-कहानी आन्दोलन के दौरान एक से एक सशक्त कथाकार सक्रिय थे पर यह जुड़ गया मात्र तीन नामों के साथ राजेन्द्र यादव, मोहन राकेश और कमलेश्वर। इन्हें लोग नई कहानी की तिकड़ी भी कहते थे। कारण-अपने रचनात्मक लेखन के साथ-साथ इन तीनों ने पुरानी पीढ़ी की कहानी से इसे दौर की कहानी की भिन्नता स्पष्ट करने के साथ इसकी वैचारिक पृष्ठभूमि उजागर करते हुए भी बहुत कुछ लिखा। सबसेे पहले राजेन्द्र यादव ने एक बहुत ही लम्बा सा लेख लिखा, जो इनके द्वारा ही सम्पादित नए-कहानीकारों के संकलन ‘एक दुनिया समानान्तर' की भूमिका के रूप में छपा। आज मैं क्या, कई लोग इसकी कुछ बातों से असहमत भले ही हो पर उस समय, या तो पहला होने के कारण या अपनी बातो के कारण इसने निस्सन्देह एक छाप तो छोड़ी थी। उसके बाद कमलेश्वर ने ‘नई-कहानी की भूमिका' नाम से एक पुस्तक ही लिख डाली। मोहन राकेश भी इन विषयों में सम्बंधित छिटपुट लेख लिखते ही रहते थे। अपने इन लेखों से राकेश जी और कमलेश्वर जी ने जब जहाँ मौका मिला अपने धुंआधार भाषणो से ‘नई कहानी' का ऐसा दबदबा जमाया और उसे एक सक्ऱिय आन्दोलन का रूप देकर तीनों उसके पुरोधा भी बन बैठे। इधर रेणु, अमरकान्त, शेखर जोशी, भीष्म साहनी, कृष्णा सोवती, ऊषा प्रियम्बदा जैसे अनेक एक से एक सशक्त कथाकार चुपचाप अपनी कहानियाँ लिखने में लगे हुए थे। आज इस सच्चाई से कौन इन्कार कर सकता है कि इतनी बड़ी संख्या में ऐसे सक्षम और सशक्त कथाकार हिन्दी कथा-साहित्य के इतिहास में फिर कभी हुए ही नहीं। इसे मेरी पक्षघरता न समझा जाए तो यह भी सच है कि इतनी बड़ी संख्या में एक ही दौर में इतनी अच्छी कहानियाँ भी एक साथ फिर कभी शायद ही लिखी गई हो। ये मात्र स्वघोषित किये गये इन तीन पुरोधाओं का योगदान नहीं था बल्कि उस दौर के सभी कथाकारों का मिला-जुला योगदान था, जिसने उस समय कहानी को हिन्दी साहित्य की केन्द्रीय विधा बना दिया था।
ज्योति ः समकालीन, ख़ासतौर पर उदय प्रकाश के बाद की कहानी कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तर पर बहुत हद तक बदल गई है, जिसका अपना एक स्टाइल है, एक शिल्प है। क्या आपको नहीं लगता कि इस, बदलाव के कारण आज की कहानी भी एक आन्दोलन की माँग करती है? इसका भी कोई नामांकन किया जाना चाहिये?
मन्नू ः इसमें कोई सन्देह नही कि अपनी पुरानी पीढ़ी की कहानियों से भिन्न होने के कारण ही हमारे दौर की कहानी को ‘नई कहानी' कहा गया था पर यह तो तुम भी जानती हो कि नई शब्द वैसे संज्ञा नहीं विशेषण है। यह तो जब कवि दुष्यन्त कुमार ने इन कहानियों के नयेपन को देखते हुए इन्हें “नई-कहानी ” नाम दे दिया, जो बाद में स्वीकृत होकर संज्ञा की तरह चल पड़ा। अब नई कहानी के तीन प्रमुख कथाकारों (राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश) ने अपने रचनात्मक लेखन के साथ-साथ, पुरानी पीढ़ी की कहानी से अपने दौर की कहानी की भिन्नता और उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि को उजागर करते हुए भी बहुत कुछ लिखा (इसका संक्षिप्त उल्लेख मैं पहले कर चुकी हूँ, इसलिये दोहराऊँगी नहीं) और अपने ऐसे लेखन से ही धीरे-धीरे इन्होंने इसे एक आन्दोलन का रूप भी दे दिया। यहाँ कहना मैं सिफ�र् यह चाहती हूँ कि इस दौर की कहानी को नाम देना रहा हो या आन्दोलन का रूप देना, जो कुछ भी किया इस दौर के रचनाकारो ने ही किया
आज जब सामाजिक स्थितियाँबदल गई ... पूरा परिवेश बदल गया... पारस्परिक संबंधों का स्वरूप भी बदल गया (इसके विस्तार में जाना तो सम्भव ही नहीं) तो स्वाभाविक है कि न पुराने मूल्य रहे होंगे... न पुरानी संवेदनाएँ। अब ऐसे मूल्यहीन, संवेदनहीन परिवेश में जो कथाकार पनप रहे हैं, बहुत स्वाभाविक है कि उनकी रचनाओं के कथ्य भी बदलें क्यों कि हर रचनाकार अपने समाज में... अपने परिवेश से ही तो अपनी सामग्री... अपना कथ्य जुटाता है। और जब कथ्य बदलता है तो अपनी अभिव्यक्ति के लिये वह नए शिल्प की तलाश भी कर ही लेता है। अब अपनी पीढ़ी के कहानीकारों की पैखी करते हुए तुम्हारा आग्रह है कि जब कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से अपनी पुरानी पीढ़ी की कहानी से समकालीन कहानी भिन्न हो गई तो क्या उसे भी नई-कहानी की तरह एक नाम नहीं मिलना चाहिये या कि इसकी विशेषताओं के आधार पर इसके नाम में भी कोई आन्दोलन नहीं चलाया जाना चाहिये?
सो ज्योति देवी मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है... मैं सोचती हूँ शायद किसी को भी नहीं होगी... पर करेगा कौन यह काम? कोई बाहर से तो आएगा नहीं। बेहतर तो होगा कि नई-कहानी के रचनाकारों की तरह यह काम इस पीढ़ी के रचनाकार स्वयं करें। हाँ, इतना ध्यान जरूर रखें कि हर आन्दोलन का एक वैचारिक धरातल जरूर होता है सो पहले वे अपनी कहानियों के इस वैचारिक धरातल की तलाश कर लें। रवीन्द्र कालिया के पहले ‘वागर्थ' और अब ‘ज्ञानोदय' के दो विशेषांको नेे और ‘कथा-देश' के एक युवा-पीढ़ी विशेषांक ने इस काम को बहुत आसान कर दिया है। इन सारी कहानियों को एक साथ पढ़कर इनके वैचारिक धरातल और कुछ सामान्य विशेषताओं का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है और उसी के आधार पर कोई चाहे और किसी को ज़रूरी लगे तो एक आन्दोलन की शुरूआत भी की जा सकती है वरना कम से कम उसका नामांकन तो किया ही जा सकता है। इसमें किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती है भला? पर करना यह काम युवा-पीढ़ी के रचनाकारों को ही होगा।
इस सन्दर्भ में एक बात और ज़रूर कहना चाहूँगी। तुम तो नई-कहानी के बाद छलाँग लगाकर उदयप्रकाश का ज़िक्र करते हुए सीध्ो समकालीन कहानी पर आ गइर्ं। यह शायद भूल ही गई कि नई कहानी के बाद साठ़ोतरी पीढ़ी की कहानी का दौर भी चला था। आज़ादी के मोहभंग की निराशा में लिपटी... राजनीति और राजनीतिज्ञों के निरन्तर पतन की प्रक्रिया का जीवन ओर सम्बंधों पर पड़ते प्रभाव को चित्रित करती इस युग की कहानियाँ क्या नई-कहानी से बिल्कुल भिन्न नहीं थीं? इस दौर में ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह जैसे सशक्त कथाकार उभरे थे और बदले हुए इस परिवेश के चलते जिनका नज़रिया... जिनकी संवेदना की बिल्कुल बदल गई थी।
ज्योति ः यहाँ बीच में ही एक बात पूछ लूँ? आप तो साठोतरी पीढ़ी की शुरुआत ही मोहभंग से मान रही हैं पर राजेन्द्र जी ने तो अपने लेख में इसे नई-कहानी के साथ भी जोड़ रखा है। फिर?
मन्नू ः इस बात के जवाब में अब मैं एक बात तुमसे पूछ लूँ? जब तुमने उस लेख को पढ़ा है तो उस संकलन (एक दुनिया समानान्तर) की कहानियाँ भी ज़रूर पढ़ो होगी। अपने हिसाब से राजेन्द्र ने उसमें प्रमुख नये-कहानीकारों की रचनाओं को ही संकलित किया है। अब तुम बताओं कि क्या उसमें से एक कहानी का कथ्य भी मोहभंग की मानसिकता पर आधारित है? हम कहानियों को आधार मानेंगे या लेख की बात को?
ज्योति ः पर एक जिम्मेदार लेखक जब ऐसी बात लिखता है तो उसका कुछ आधार तो रहता ही होगा?
मन्नू ः लगता है इस बात के चक्कर में हम अपनी बात के असली प्रंसग से ही भटक रहे हैं। चलो तुम्हारी इस बात का जवाब भी दे ही दूँ। असल में राजेन्द्र ने यह लेख सन् 64 में लिखा था और देश में मोहभंग का सिलसिला शुरू होता है सन् 62 में जब पहली बार काँग्रेस के राज्य को चुनौती देते हुए कुछ प्रान्तो में मिली जुली सरकारें बनी थी। अब इस समय तक आते-आते तो नई कहानी के रचनाकार भी इस भावना से न तो वंचित थे न ही अप्रभावित और न ही उनका लेखन बन्द हुआ था। पर उनकी रचनाओं का प्रमुख दौर तो मुख्य रूप से 50 से 60-65 तक ही माना जाता है..... उसके बाद तो सठोत्तरी पीढ़ी का दौर आ जाता है अब राजेन्द्र जी ने क्यों कि यह लेख 64 में लिखा था।तो मोहभंग की इस भावना से प्रभावित होना तो बहुत ही स्वाभाविक था पर ग़लती की तो यह कि इसे नई-कहानी पर चस्पा कर दिया। एक बात यहा और स्पष्ट कर दूँ कि किसी भी दौर के कहानीकार का लेखन-समय तो कभी निश्चित किया ही नही जा सकता क्यों कि नये कहानी कार या साठोत्तरी पीढ़ी के या सचेतन कहानी के कथाकार आज भी लिख रहे हैं पर जब उनकी पीढ़ी की बात की जाती हैं तो उसके प्रमुख दौर को नज़र में रखकर ही की जाती है। सोचती हूँ तुम मेरी बात समझ गई हो। अब यह प्रसंग बन्द और अपने असली प्रसंग पर ही लौटते हैं।
हाँ तो बात चल रही थी कि नई-कहानी के बाद कथ्य शिल्प भाषा, संवेदना सभी दृष्टि में भिन्न साठोत्तरी-पीढ़ी आई पर इस सारी भिन्नता के बावजूद न तो किसी ने उस समय इसके लिये किसी आन्दोलन की माँग की न ही नामांकन की। वह तो बस अपने समय के हिसाब में साठोत्तरी-पीढ़ी कहलाई। पर सच्चाई यह है कि बिना किसी नाम और आन्दोलन के इन कथाकारो ने हिन्दी कथा साहित्य के इतिहास में अपनी एक अमिट छाप तो छोड़ी ही। उसके बाद ‘सचेतन' कहानी ‘अकहानी' जैसे कुछ हिस्पुट पर आन्दोलन नाम के साथ ही आए तो जरुर पर न तो उनकी कोई पैठ बनी नही कोई खास पहचान। सो कहना मैं सिर्फ� इतना चाहती हूँ कि किसी भी युग की कहानियों की पहचान किसी आन्दोलन या नामांकन से नही बनती...बनती हैं तो उस युग के कथाकाएँ की अपनी सृजनात्मक क्षमता और महत्त्वपूर्ण योगदान से। इसकेे बावजूद यदि तुम आन्दोलन और नाम के प्रति आग्रण्ही हो तो मुझे तो उसमें कतई कोई आपत्ति नही। बस कुछ कथाकार मिल कर इस काम को सम्पन्न करे तो बेहतर होगा या फिर कोई समीक्षक करे यह काम।
ज्योति ः एक सपळल कहानीकार होते हुए आप कविता को क्या दर्जा देती हैं? राजेन्द्रजी इसे साहित्य का प्रदूषण कहते हैं। कविता के पाठक कम हैं। एक उपेक्षा की दृष्टि रही है कविता को लेकर। आखिर क्या कारण है कि कविता की तुलना में कहानी को ज्यादा महत्त्व मिल रहा हैं? क्या आपने कभी कविताएँ लिखी हैं?
मन्नू ः राजेन्द्र जी कविता के बारे में जो कुछ कहते हैं जरूरी नही कि वही धारणा मेरी भी हो। हालाँकि कविता में न मेरी रुचि है न गति उसके बावजूद यह तो मैं मानती हूँ कि रचना के केन्द्रीय भाव को एक अच्छा कवि बहुत ही थोड़े शब्दों में बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से....मारक ढंग में कह सकता है पिळर हमारी तो परम्परा ही कविता की रही हैं। गद्य तो आधुनिक युग की देन है। रही उपेक्षा की बात सोे यह धारणा तुमने उनकी बिक्री के आधार पर बना ली है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कविता कि पुस्तकें कहानी की अपेक्षा बहुत ही कम बिकती हैं क्यों की कथा-तत्व एक आम पाठक को भी बाँध लेता है जबकि कविता के लिये एक विशेष साहित्यिक समझ की ज़रूरत होती है जो सबके पास तो होती नही। पर बिक्री की बात छोड़ दे तो साहित्यक जगत में तो कविता की उपेक्षा है नही। साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की सूची देखिये कवियों को कहानीकारों की अपेक्षा कही अधिक पुरस्कार मिले हैं। नई कहानी आन्दोलन के पहले नई कविता का आन्दोलन शुरू हुआ था जो खूब प्रचलित भी हुआ सो यह धारणा भ्रामक है कि कविता को लेकर उपेक्षा की दृष्टि रही है.... हाँ उसका क्षेत्र ज़रूर साहित्यिक जगत तक ही सीमित है जो निरन्तर छोटा भी होता चला जा रहा है और कहानी के लिये जरूरी है मात्र शिक्षित होना.....और शिक्षितों की संख्या तो निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। पर इसके बावजूद प्रमुख कवि हमेशा पढ़े गये हैं और आगे भी पढ़े जायेंगे। इस तथ्य को क्या कहोगी कि अधिकतर लेखक अपना रचनात्मक-जीवन कविता से शुरू करते हैं। आखिर कुछ सोच कर ही करते होगें। मैंने जिन्दगी में न कभी कविता लिखी नही लिखने की क्षमता हैं। पर यह उपेक्षा नहीं मेरे अपने सामर्थ्य की बात है। मेरा व्यक्तित्व शुरू से ही काव्यात्मक नहीं गद्यात्मक रहा है।
ज्योति ः आपके महाभोज उपन्यास की रचना 1979 में हुई थी जबकि कांशीराम ने तो दलितो की पार्टी बसपा की स्थापना 1984 में की थी। आर्श्चय है कि आपने कांशीराम द्वारा उठाये गये दलित शक्ति और दलित राजनीति के मुद्दे को पहले ही समझ लिया और जान गई कि दलित-वोट बैंक क्या चीज़ है और भारतीय राजनीति में इसकी क्या अहमियत है? जानकारी की प्रेरणा स्रोत?
मन्नू ः लगता है तुमने इस उपन्यास को थोड़ा गलत समझ लिया है। हाँ इस उपन्यास का पे्ररण-स्रोत जरूर बेलछी-कांड रहा है और बेलछी में तेरह किसानो को पेड़ से बाँध कर जिन्द जला दिया जाना, इस कांड का आधार था। एक पत्रिका मेंं इसका वर्णन पढ़कर में इतनी भाव- विह्निल रही और सोचा भी कि इस पर कुछ लिखूगी पर तलाश थी किसी वैचारिक आधार की क्यों कि केवल भाव-विह्नलता के आधार पर तो कुछ लिखा नही जा सकता। कुछ महीनो बाद अपराधी-व्यक्ति के पैरोल पर छूटकर चुनाव लड़ने और थम्पिंग मैजोरिटी से जीतने पर मुझे वह आधार मिला-हमारे यहाँ की चुनाव-प्रक्रिया की जोड़-जोड़, उठा पटक और तिकड़म बाजी! सो इस उपन्यास का केन्द्रीय भाव दलित राजनीति से नही, यहाँ की चुनाव प्रक्रिया से सम्बधित है। हो सके तो इस दृष्टि से एक बार उपन्यास पिळर से पढ़ो.... बात सापळ हो जाएगी।
ज्योति ः यू. पी. में मायावती के मुख्यमंत्री बनने के बाद आज दलितों की अपनी पार्टी की विजय तो हो गई लेकिन क्या यह प्रश्न आज भी बरकार नही है कि अत्यन्त दलितों की स्थिति का क्या होगा? महाभोज के सन्दर्भ में कहूँ तो उन दलितो का क्या होगा? जिन्हें जला दिया गया।
मन्नू ः वैसे तो यह खुशी की बात है कि यू. पी. जितने बड़े प्रान्त की मुख्यमंत्री आज एक दलित महिला बनी। वैसे कुछ दलितो को मैंने इस बात पर आपत्ति करते जरूर सुना कि सवर्णो का सहयोग लेकर वे कांशीराम केे लक्ष्य से ही च्युत हो गई। व्यक्तिगत रूप से मुझे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं दिखाई दी बशर्ते वे निम्न वर्ग के दलितो की स्थिति सुधारने के लिये कुछ ठोस काम करे।
ज्योति ः वर्तमान में आप दलितों की स्थिति को कैसे देखती हैं?
मन्नू ः खुशी की बात है ं कि सदियाँ से असह्य-यातनाएँ सहता हुआ हाशिये में पड़ायह वर्ग धीरे-धीरे अब सभी क्षेत्रों में केन्द्र में आ रहा है। सांसदो और विधायको की बढ़ती संख्या के साथ राजनीति में इसके बढ़ते प्रभुत्व से सभी परिचित है। यू. पी. जैसे बड़े प्रान्त की मुख्यमंत्री आज दलित वर्ग की महिला है। इधर आरक्षण द्वारा ऊँची शिक्षा पाकर ऊँचे ओहदों पर पहुँचना, अपळसर शाही में इनकी स्थिति को उजागर करता है। अनेक कवि-कथाकारों ने अपनी रचनाओं में विशेषकर अपनी आत्मकथाओं से दलित-साहित्य की भी एक अलग पहचान बनाई है। ये सारी बाते इसी बात का प्रमाण है कि दलितो की स्थित में (विशेषकर एक वर्ग के दलितो की) तो काफी सुधार आया है। पर जहाँ तक इस वर्ग के लोगों की बात भी है, सामाजिक स्तर पर गाँव-देहात के अशिक्षित लोगो के बीच आज भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता । एक छोटे से उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करूगी।
एक बार मुझे कॉलेज की छात्राओं के साथ सूखा पीड़ितो के राहत कार्य के लिये बीकानेर जाना पड़ा। कलेक्टर अन्दरूनी गाँवों में जाने की हमारी सारी व्यवस्था करवाने वाले थे, सो हम उनसे मिलने पहुँचे। उनके पास पहले से कोई बैठा हुआ था इसलिये हम बाहर इन्तज़ार करने लगे। एकाएक एक लड़की ने उनकी नेम प्लेट देखकर ऐसे ही जिज्ञासावश पूछ लिया-अरे इन्होंने अपना सरनेम तो लगा ही नहीं रखा.... अधूरी नहीं लग रही नेम प्लेट?
बाहर सापळा बाँध्ो स्टूल पर बैठे चपरासी ने यह सुनते ही जिस हिकारत से कहा “अरे कैसे लगाएगा सरनेम... मीणा जो है। “वह बात आज तक मेरे मन पर खुदी हुई हैं। ओहदे में चपरासी पर अपने बास कलेक्टर के लिये मन में ऐसी हिकारत सिर्फ इसलिये कि वह मीणा है। और अशिक्षितों के बीच में आज भी यह एक हक़ीक़त है जो शिक्षा के प्रचार-के साथ ही दूर होगी।
अब एक शिकायत इस वर्ग से मेरी भी। जो लोग किसी क्षेत्र में आज ऊपर पहुँच गये वे अपने से नीचे के दलितो को ऊपर उठाने की बजाए अपनी ही और और तरक्की की जोड़ तोड़ से लगे रहते हैं दबा कुचला एक बार भी नही सोचते कि और एक बहुत बड़ा वर्ग उनकी मदद की... उनके सहयोग की उम्मीद में आज भी नीचे ही पड़ा है क्यो नही ये लोग उनके लिये भी कुछ करते हैं।
ज्योति ः दलित जातियों में क्रीमीलेयर का भी एक मुद्दा है। आपकी इस बारे में क्या राय हैं?
मन्नू ः मुद्दा तो शायद क्रीमीलेयर के आरक्षण का है। जानती हूँ इस बारे मेें मुँह खोलते ही मुझ पर आरोपों की बौछार होने लगेगी पर अब इस से चुप रहना भी तो मेरे लिये सम्भव नही हैं।सच बात तो यह है कि क्रीमीलेयर में आने वाले दलित सभी स्तर पर सुविधा सम्पन्न है-चाहे राजनीति हो अफसरशाही हो या अर्थिक स्तर दलितो के नाम पर मिलने वाली सारी सुविधाएँ ये अपनी ही झोली में तो डालते रहे हैं आज तक। वंचित रहा है तो अन्त्योदेय वर्ग, इसीलिये उसकी स्थिति में आज तक कोई सुधार नहीं हुआ। इतना ही नहीं, इस वर्ग का शोषण करने में भी क्रीमीलेयर का दलित वर्ग पीछे नहीं रहा। शोषक और सब प्रकार से सम्पन्न क्रीमीलेयर के दलितो को आरक्षण ? अब आज यदि लालू यादव का मुलायम सिंह यादव के बच्चो को इस आधार पर आरक्षण मिले तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है? इस बारे में मेरी बहुत स्पष्ट धारणा है कि दलितो में भी आरक्षण का आधार आर्थिक ही होना चाहिए। इस स्थिति में क्रीमीलेयर के दलित अपने आप इस सुविधा से वंचित हो जाएँगे
ज्योति ः पहले हिन्दी साहित्य के रचनाकारो पर फ़िल्म बनने की एक परम्परा रही है, जैसे प्रेमचन्द, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, और आपकी रचनाएँ आज ऐसा कम देखने को मिलता है-इसका कारण? साहित्य और फ़िल्म की इस बढ़ती दूरी को आप कैसे देखती हैं? फ़िल्मे ज्यादा कमर्शियलाइज़्ड हो गई है या साहित्य ज्यादा कठिन?
मन्नू ः हिन्दी कथा साहित्य के इतने लम्बे दौर में पाँच सात फ़िल्मे बन गई तो इसे परम्परा नही अपवाद स्वरूप हो कहा जाएगा। हाँ बंगला में ज़रूर साहित्यिक रचनाओं पर फ़िल्मे बनने की परम्परा है और शरदचन्द्र की रचनाएँ तो हिन्दी तक में बराबर बनती रही हैं। उनकी देवदास तीन बार और परिणीता अभी दूसरी बार बनी। कारण, एक तो इनकी रचनाओं में दृश्य तत्व बहुत है यानी विजुअल में बड़ी आसानी से ट्रान्सफॉर्म हो सकते है जो फ़िल्म के लिये बहुत ही आवश्यक गुण हैं.... दूसरा उनकी कहानी में दर्शकों को अपने साथ बाँध सकने की अद्भुत क्षमता भी है। हिन्दी में तुमने जिन फ़िल्म के नाम गिनाए उनमें प्रेमचन्द की केवल शतरंज के खिलाड़ी चर्चित रही पर शुद्ध सत्यजित के नाम की वजह से या बदले हुए अन्त पर कुछ विवाद चला पर अर्थिक रूप से तो यह भी सम्भव नही रही राजेन्द्र के ‘सारा आकाश' ने नाम कमाया केेवल इसलिये कि एक सही सफल कलात्मक फ़िल्म की शुरूआत हुई थी इस फ़िल्म से। पर चली यद भी कुछ बड़े शहर के मार्निग शो में ही। कमलेश्वर की फ़िल्म तो कमलेश्वर की कहानी पर ही बलात्कार थी... चली भी नही। केवल मेरी ‘यही सच है' कहानी पर बनी फ़िल्म रजनी गन्धा'..... एक साल तक डिब्बो में बन्द रहने के
बाद चली तो फिर केवल सिल्वर जुबली ही नही मनाई बल्कि कई अवार्ड भी जीते। मात्र एक अपवाद, सो तुम इस तकलीफ से तो मुक्त हो ही जाओ कि पहले की रचनाओं पर तो फ़िल्म बनने की परम्परा थी और समकालीन रचनाओं पर फ़िल्म बनने का कोई सिलसिला ही नज़र नही आता। वास्तविक स्थिति तो यह है कि हिन्दी की साहित्यिक कृतियों पर फ़िल्म बनने की बंगला की भाँति कोई नियमित परम्परा कभी रही ही नही हालाँकि इतना तो मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि हिन्दी में भी कुछ रचनाएँ तो ऐसी जरूर होगी जो फ़िल्म बनने की सारी जरूरतों को पूरी कर सके। उसके बाव़जूद यदि नही बनती तो इसे निर्देशक और साहित्य के बीच का अन्तराल ही कहा जाएगा अच्दी फ़िल्में तो हिन्दी में भी आती रहती हैं। अभी अभी कुछ अच्छी फिल्मे आई हैं जिन्हे कामर्शियल भी नही कहा जा सकता जैसे इकबाल ‘ब्लैक' और तारे जमीन पर'। ये निर्देशक की क्षमता तो प्रमाणित करती है पर साहित्य के साथ उनका रिश्ता नही, क्यों कि इनमें से तो एक भी फ़िल्म साहित्यिक कृति पर आधारित नही है। इन प्रसिद्ध निर्देशको के अकाउण्ट में कोई और साहित्यिक फ़िल्म भी नही मिलेगी क्योकि साहित्य के प्रति इनका कोई रुझान ही नही है।
ज्योति ः ‘आपका बंटी' एक मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास है। इसमें आपने दिखलाया है कि आधुनिकीकरण और शहरीकरण की देन एकल-परिवार में से परिवार नामक संस्था में जो आस्था ख़त्म हो रही है उसके क्या दुष्परिणाम हैं और आजतो यह समस्या अपने विकराल रूप में है। परिवार-संस्था में आप कितना विश्वास रखती हैं?
मन्नू ः इसमें कोई सन्देह नही कि बंटी की समस्या परिवार के टूटने यानी माता-पिता के अलग होने से आरम्भ होती है पर वह विकराल रूप तो धारण करती है माँ के पुनर्विवाह से पिता से अलग होने पर भी वह माँ के साथ प्रसन्न है उसका घर है फूकी है, बगीचा है, माली काका हैं। माँ के नया-परिवार बसाते ही एक एक करके सब उसकी जिन्दगी से निकलते है और वह अपने और माँ के लिऐ एक साथ समस्या बन जाता है यहाँ बन परिवार में आस्था की नहीं क्यों कि परिवार तो अजय और शकुन दोनो ही फिर से बसाते हैं। तुम्हारा प्रश्न होना चाहिये कि आधुनिकीकरण के बावजूद (स्वेच्छा से शादी जिसमें निहित है) पति पत्नी में तलाक की नौबत क्यों आती है और दुर्भाग्य से जिनकी संख्या दिन...पर...दिन बढ़ती ही जा रही है। वैसे तो हर पति-पत्नी के अलग होने के अपने निजी कारण तो होते ही होंगें पर मैं यहाँ संक्षेप में कुछ सामान्य कारणों की बात जरूर करना चाहूँगी। पिछले 50-60 सालों में शिक्षित आर्थिक रूप से स्वतंत्र और अपनी अस्मितो के प्रति पूरी तरह सचेत होने से स्त्री की स्थिति मेंं निरन्तर सुधार आता रहा हैं या कहूँ कि वह सही अर्थो में आधुनिक बोध से मुक्त हुई है। विभिन्न क्षेत्रों में बड़े बड़े ओहदो पर कार्यरत होकर उसका आत्मविश्वास भी बहुत बड़ा हैं अब इनकी तुलना में पुरुषों में कम परिवर्तन आया है। सारी शिक्षा-दीक्षा और आधुनिकता के बाव़जूद वे आज भी अपने सामन्ती संस्कारों से पूरी तरह मुक्त नही हो पाए हैं। आधुनिक से आधुनिक व्यक्ति की जरा सी खाल खींचिये एक सामन्ती पति बैठा मिलेगा। अब ऐसे पुरुष के साथ जिसका जामा तो आधुनिक हो पर संस्कार सारे सामन्ती हो अपनी सारी कोशिशों के बाव़जूद सही अर्थों में आज की आधुनिक स्त्री के लिये तालमेल बैठाना मुश्किल होता जा रहा है। परिणाम तलाक।
ज्योति ः अभी हाल ही में संडे-पोस्ट में राजेन्द्रजी ने कहा कि मात्र एक कप कॉफी माँगना भी मन्नू को मेरा फ्यूडल व्यवहार लगता है। इस पर आप क्या कहना चाहेगी?
मन्नू ः अपनी असली हरकतों को छिपाने के लिये ऐसी बातों के आवरण डालते रहना राजेन्द्र की मजबूरी सो है डालते रहते हैं। अभी जुमा-जुमा आठ दिन ही तो हुए हैं मेरी किताब आए। जिन्होंने उसे पढ़ा होगा वे ये सारी असलियत जानते ही होगें। मुझे ऐसी बातों पर कुछ नही कहना।
ज्योति ः आप भारत के सन्दर्भ में विवाह-संस्था को कैसे देखती हैं?
मन्नू ः मेरे ख्याल में तुम भारत के सन्दर्भ के विवाह-संस्था के भविष्य के बारे में जानना चाहती हो... तो इतना समझ लो कि सारे आधुनिकी करण के बावजूद कुछ सदियों तक तो इसे कोई ख़तरा नही है लेकिन इसके स्वरूप को ज़रूर बदलना होगा। इसके परम्परागत दक़ियानूसी रूप ने तो इसे परिवार में पुरुष के वर्चस्व का आधार बना रखा है, जिसमें स्त्री के लिये विवाह सम्बन्ध नही, मात्र बन्धन बनकर रह गया हैे। अब आजकी आधुनिक स्त्री इस बन्धन को स्वीकार करने को तैयार नहीं परिणाम जैसी कि अभी हमारी बात हुई थी तलाक की बढ़ती संख्या। ऐसी स्थिति में विवाह की जरूरत पर हो प्रश्न उठने लगे हैं। आजकल विशेषरूप से महानगरो में ‘लिव-इन' परम्परा की जो शुरूआत हुई है वह एक तरह से विवाह संस्था का नकार ही है। जब तक सम्बन्ध अच्छी तरह निभा साथ रहे...जैसे ही सम्बन्ध गड़बडाया अलग। यहाँ तलाक भी उस बेहुदी और झंझटिया प्रक्रिया से गुजरने की आवश्यकता नहीं होती। यही कारण है कि युवा लोगों का इसकी और रुझान बढ़ रहा है। पर बच्चों का इसमे एक तरह से नकार ही है और यदि स्वीकार है तो अलग होने पर उनकी समस्या फिर बंटी वाली ही होगी। अब बच्चों के लिये जो समस्या ग्रस्त हैं लिव-इन की वह परम्परा इस देश मेें जड़े जमा पाएगी भला?सम्भव ही नही है। स्कैंडिनेवियन-कंट्रीज-स्वीडन, फिनलॅड, नार्वे में कोई तीन पीढ़ियाँ से लिब-इन की परम्परा चल रही है पर मात्र चालीस पैंतालिस प्रतिशत लोग ही इस तरह रहते हैं। इन आँकड़ो की मेरी जानकारी बहुत प्रमाणिक नही है कुछ कम ज़्यादा हो सकती है पर इतना तो तय है कि वहाँ भी आधी जनता के करीब तो विवाह करके ही रहती हैं। अब हमारा तो परम्परा वादी देश है यहां से तो विवाह संस्था के समाप्त होने का प्रश्न ही नही उठता। बस जैसा कि मैंने पहले कहा विवाह के रूप को बदलना होगा और महानगरों में तो इसका सिलसिला शुरू भी हो गया है जा धीरे-धीरे आगे भी फैलेगा।
ज्योति ः सिंगल पेरेण्टस की अवधारणा जोर पकड़ती जा रही है सुस्मिता सेन इसका ताजा उदाहरण हैं। क्या परिवार को तोड़कर हम समाज की कल्पना कर सकते हैं?
मन्नू ः अभी तो सिंगल पेरेण्टस की स्थिति न के बराबर हैं। सुस्मिता सेन भी उस बच्चे को गोद लिया हुआ कहती हैं। केवल नीना गुप्ता ने यह साहस दिखलाया है देखोऋ एक समय में विधवा विवाह वर्जित था आज बच्चे के साथ विधवा स्त्री से विवाह किया जा रहा है या नहीं? लिव-इन परम्परा में तो ऐसी स्थितिेयाँ की पूर सम्मावना है। जब यह स्थिति बढ़ेगी तो इसके समाधान भी निकलेगे वैसे अभी मैं ऐसी लड़कियों की... थोड़ी बहुत अभी वे जहा कही भी हैं प्रशंसा ही करती हूँ जो लड़को के डिच कर देने पर बच्चे को अपने बलबूते पर पाल रही है... समाज के सारे आरोप और लाछन सहने के बावजूद।
ज्योति ः हिन्दी में जो स्त्री विमर्श है उसको लाने का श्रेय
बहुत हद् तक राजेन्द्रजी को जाता है। हिन्दी का स्त्री विमर्श महज तीन चार स्त्री साहित्यकारो के साहित्य को ही स्त्री विमर्श का पुरोधा मानता है जिससे रमणिका गुप्ता, मैत्रयी पुष्पा, प्रभा खेतान, जैसी रचनाकार हैं। स्त्री विमर्श की जो परिभाषा हिन्दी में बन रही है वह है देह से मुक्ति। डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘तीन द्विज हिन्दू स्त्रीलिंगो का चिंतन' मेें इन तीनों पर विचार किया गया है कि ये तीनों अपनी अनैतिकताओं को छिपाने का एक माध्यम ढूँढ रही हैं। स्त्री विमर्श में आप देह की महत्त्वा को किस तरह समझती है?
मन्नू ः एक ही प्रश्न में तुम कई बातें मिला देती हो इसलिये मेरे लिये मामला थोडा़ गड़बड़ा जाता है। फिर भी कोशिश करती हूँ कि सिलसिलेवार उत्तर दूँ।
हिन्दी साहित्य में तो स्त्री की दयनीय स्थिति, उसके अधिकारों की बात उस समय से लिखी जा रही थी जब विमर्श शब्दकोश में कहीं दबा पड़ा था। यह तो कोई पन्द्रहएक साल पहले एकाएक कोश से निकला और फिर तो चारों ओर अपना परचम फहराते हुए इसने सबको अपनी गिरफ्त में ले लिया नामवर सिंह के विमर्श ‘अशोक वाजपेयी के विमर्श' ‘दलित विमर्श' ‘स्त्री विमर्श। साहित्य मेें तो बरसों पहले लिखी गई महादेवी वर्मा की ‘श्रंखला की कड़ियाँ' क्या स्त्री विमर्श की पुस्तक नही है? इसीलिए हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श का श्रेय राजेन्द्र को मिलने का तो प्रश्न ही नही उठता है हाँ हंस द्वारा प्रचारित स्त्री विमर्श का श्रेय जरूर राजेन्द्र यादव को जाता है। यदि अपने स्त्री विमर्श के प्रचार प्रसार के लिये उन्होंने मात्र तीन महिला-साहित्यकारों को इसके केन्द्र में रखा है तो यह उनका अधिकार है, इस पर मुझे कुछ नही कहना।
डॉ. धर्मवीर की पुस्तक मैंने भी देखी है ...उन्होंने इन तीन महिलाओं के बारे में जो निष्कर्ष निकाले है वह उनकी अपनी राय है और व्यक्ति को किसी भी विषय पर अपनी राय रखने और उसे लिखित रूप से व्यक्त करने का भी पूरा अधिकार तो है ही। उन्होंने बस वही तो किया है। बेहतर होगा हम असली बात पर चर्चा करे यानी कि स्त्री विमर्श का वास्तविक रूप।
मेरे हिसाब से ‘हंस' का जो स्त्री विमर्श है वह ‘कथनी' का स्त्री-विमर्श है.... मात्र बौद्धिक विलास और मेरा विश्वास है ‘करनी' के स्त्री विमर्श पर। आज दूर-दूर के कस्बो गाँवों में बेपढ़ी लिखी स्त्रियाँ कुछ संस्थाओें की मदद से जिस प्रकार अपने अधिकारो के प्रति सचेत होकर उन्हें पाने के लिये साक्रिय हो रही हैं वह ‘करनी' का विमर्श है। उदाहरण के लिये राजस्थान के अनेक गावो में चलाई जा रही साथिन संस्था। कैसे गाँव की स्त्रियाँ पहले सुन-समझ कर अपने अधिकारों के प्रति सचेत होती है और फिर उन्हेंं पाने के लिये... स्त्रियाँ के प्रति होने वाले किसी भी अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध सामूहिक मोर्चा बाँधती हैं। इसी तरह हरियाणा की सरपंच महिलाओं का क़िस्सा पढ़ा। कैसे पहले तो वह अपने अधिकारो के प्रति सचेत हुई और फिर हिम्मत जुटाकर निष्क्रिय पड़े उस सरकारी तंत्र की कलाई मरोड़ कर उसे सक्रिय किया और औरतो को रोज चार-पाँच किलोमीटर से पानी लाने की यातना से मुक्ति दिलाई। पति या ससुराल द्वारा प्रताड़ित स्त्री का मुक़दमा सामने आया नही कि सबके अन्याय को ठिकाने लगाते हुए फैसला स्त्री के पक्ष में। ऐसे ही कई शहरों में स्त्रियो की काउन्सलिंग करने वाली संस्थाएँ पहले बातचीत से पतियों को रास्ते पर लाने की कोशिश करती है बाद में स्त्रियों को उनके कानूनी अधिकरों की जानकारी देकर जरूरत पड़ने पर उनके पतिया का कोर्ट में भी घसीटती हैं। इस तरह आज हर प्रान्त के शहरों में, गांवों में बिना किसी प्रचार प्रसार के स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिये कई संस्थाएँ सक्रिय है और मेरे लिये यही असली स्त्री विमर्श है।
ज्योति ः पर ये सारे उदाहरण क्या स्त्री सशक्तीकरण के नही है?
मन्नू ः तुम क्या स्त्री सशक्ती करण को स्त्री विमर्श सें भिन्न मानती हो?
ज्योति ः अच्छा अब देह की मुक्ति पर आप क्या सोचती हो।
मन्नू ः बेहतर तो होता कि राजेन्द्र खुद स्पष्ट करते कि उनका इससे क्या तात्पर्य है? अपनी बात मैं स्पष्ट कर देती हूँ इस पुरुष प्रधान समाज में सदिया से स्त्री के शरीर के साथ पवित्रता का जो तमगा लटका रखा है उससे स्त्री के मुक्ति। क्यो कि इसके चलते ही तो आज तक विधवा तलाक़शुदा या बलात्कार की शिकार स्त्रियाँ त्याज्य मानी जाती थी किसी एक के साथ सम्बन्ध जुड़ने पर फिर वह किसी और के साथ सम्बन्ध रखने लायक मानी ही नही जाती थी... क्यों कि उस स्थिति में तो उसका शरीर अपवित्र माना जाता था। पुरुष चाहे दस जगह मुँह मारता फिरे उसके लिये पवित्रता का ऐसा कोई बन्धन कभी रहा ही नही पर स्त्री को केवल एक पुरुष यानी पति के साथ ही सारा जीवन गुजारना होता था । पति की मृत्यु के बाद वैधव्य-जीवन की यातनाओें से कौन परिचित नही? सो मेरा भी आग्रह है कि स्त्री के शरीर को पवित्रता के इस तमगे में बिल्कुल मुक्त किया जाए और जो अधिकार पुरुष को प्राप्त हैं वे उसे भी मिले।
हाँ देह की मुक्ति अगर किसी के लिऐ सेक्स की मुक्ति का पर्याय हो यानी कि स्त्री को एक साथ कई जगह सेक्स सम्ंबध रखने की छूट हो तो इससे मेरी असहमति है। कम से कम इस देश में तो यह सम्भव भी नहीं क्यों कि इसके लिऐ एक सम्बन्ध हीन जीवन अनिवार्य है और आज तक तो हमारे देश का स्त्री विमर्श न पति-परिवार निरपेक्ष है...न सन्तान-निरपेक्ष हाँ, इतनी छूट तो उसके लिये अनिवार्य है कि एक या पति के साथ सम्बन्ध गडबड़ाने पर वह उसे छोड़कर दूसरे के साथ सम्बन्ध जोड़ ले... पर कइयो के साथ सेक्स सम्बन्ध साथ-साथ चलने वाली स्थिति कम से कम मुझे तो स्वीकार्य नही, क्यों कि सम्बन्धों की भी अपनी एक नैतिकता होती है एक गरिमा होती है।
ज्योति ः स्त्री विमर्श कारों की जब भी चर्चा होती है तो आप उसकी गिनती में नही आना चाहती। जबकि सच यह है कि आपका साहित्य और आपका जीवन स्त्री विमर्श के कई आयामों को उठाता है। अभयकुमार दुबे भी अपने तद्मव वाले लेख में इस ओर इशारा करते है। क्या स्त्री विमर्श किसी झण्डे तले इकठ्ठे होने का नाम ही है।
मन्नू ः स्त्री विमर्श की धारणा को अपने साहित्य और जीवन में ढालने के लिये इस झण्डे के नीचे आना क्या जरूरी है? सच पूछो तो मैने तो विमर्श नाम ही कोई दस वर्ष पहले ही सुना होगा। इसके पहले तो न लेखन न भाषण में इसका कँही अता-पता ही नही था। पर मैं तो अनभिज्ञता के अपने उसी पुराने ठीये पर ही खड़ी रही। नाम तो जान लिया पर उसके साथ और लोगों की तरह जुड नही सकी। पर बिना जुड़े ही मुझे जो लिखना है ,लिखूँगी और जो करना है सोकरुँगी तो सही ही। अरे मेरी बात छोड़िये... मैंने अभी कस्बों गाँवों की जिन बेपढ़ी लिखी स्त्रियों का जिक्र किया था जो कैसे धीरे धीरे अपने अधिकारों के प्रति सचेत होकर उन्हें पाने के लिये सक्रिय भी हो रही हैऋ वे भी तो न इस झण्डे के नीचे है... न ही इसका नाम जानती हैं । पर स्त्री विमर्श में उनका योगदान कम तो नही ।
ज्योति ः दलित विमर्श और स्त्री विमर्श दोनो ही हशिये पर के विमर्श हैं। पर जब हम दलित साहित्य को देखते हैं तो उसमेे स्त्रियों की स्थिति उतनी ही बदहर है। ऐसे में स्त्री दोहरी मार रखा रही है। मोहनदास े नैमिश्यराय का एक महत्वपूर्ण लेख भी है इस सन्दर्भ में -दोनो गाल पर थप्पडे़ ऐसा क्यों है कि ये दोनो अस्तित्ववादी को विमर्श एक साथ नही चल पाते ?
मन्नू ः ज्योति समझ नही आता कि तुम्हारे इस प्रश्न पर हँसू या तुम्हारी अनभिज्ञयता पर चकित होऊँ। अरे इस बात को कौन नही जानता कि पुरुष हर जगह पुरुष ही होता है, वह चाहे सवर्ण वर्ग का हो या दलित वर्ग का। हशिये में पडे दलित वर्ग का पुरुष अपनी अस्मिता के लिये... अपने अधिकारो के लिये सवर्ण वर्ग से चाहे लोहा लेता रहे पर हाशिये में पड़े, दोहरी मार से रुटी स्त्री के अधिकरों की बात ... उसके सुख की बात तो कभी भूलकर भी नही सोचेगा। सोचना मलतब अपने अधिकारों मेे कटौती करना, ऐसा भाला वह क्यों चाहेगा? ऐसी बातें सोचना तक उसे दायरे के बाहार की बात है। शिक्षित होकर आज स्त्रियाँ हो इस दिशा में कुछ सचेत होने लगी है निर्मला पुतुल की कविताएँ इस बात का प्रमाण है जैसे-जैसे स्त्रियो में यह चेतना बढे़गी वे खुद अपने अधिकारो के लिये लड़गी और वह दिन भी अब बहुत दूर नहीं है यह भी सच है कि जैसे उनकी यातना दोहरी है वैसे ही उनकी लड़ाई भी दोहरी होगी-पहले अपने वर्ग के पुरुषों से बाद में सवर्णो से।
ज्योति ः एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न, आज एक बहुत ही आमधारणा बना दी गई है कि यदि आप बौद्धिक है तो प्रगतिशील हैं और यदि प्रगतिशील है ता आपको धर्म , पूजा, पाठ, और त्यौहार आदि इन सब चीज़ों से कटे रहना पडे़गा। सही मायने में यदि पूरी तरह खु़द को धर्म से काट लिया जाए तो जीवन से अनुराग ही खत्म हो जाएगा। एक खालीपन आ जाएगा। ईश्वर और कट्टरता से अलग करेके भी ता इसे देखा जा सकता है। ईश्वर में आस्था संघर्ष के दिनों को सबसे बड़ा साथी है बड़े-बडे़ विकसित देशों में भी धर्म प्रभाव हीन तो नही हुआ है। आपकी इस बारे में क्या राय है। रिचर्ड डॉकिन्स की पुस्तक द गाड डिल्यूजन्स तथा भारत में ब्ैक्ै का धर्म में लोगो की आस्था का सर्वेक्षण एक अलग तरह से सोचने की माँग करता है।
मन्नू ः यह प्रगतिशील लोगो की नही बल्कि प्रगतिवादी लोगो की धारणा है जो लोगो को ईश्वर और धर्म से करने के लिये पेरित करती है। उनके हिसाब से व्यावहारिक स्तर पर धर्म लोगों के जीवन में अफीम का काम करता है। प्रश्न करने की उनकी बुद्धि को कुन्द करके उनकेे विकास को एक तरह से अवरूद्ध ही कर देता है। पर यही प्रगतिवादी मार्क्सवादी-कोलकाता में जहाँ सरकार भी उन्ही की है और बहुसंख्यक जनता भी दूर्गापूजा के समय किस कदर पगला जाते है यह तो मैने खुद अपनी आँखो से देखा है। दुर्गा जी स्थापना से लेकर भसन तक ये शायद अपनी घोषणाएँ भूल जाते है। दुर्गा पूजा इन का धार्मिक आयोजन भी है और शायद वर्ष का सबके बड़ा त्यौहार है। किसी भी धर्म के सिलसिले मेें कट्टरता की तो कतई पक्षध नही हूँ कट्टरता के बिना भी तो ईश्वर में ,धर्म मेंंं एक आस्था रखी जा सकती है और मेरा विश्वास है बल्कि अनुभव है कि यह आस्था संकट के दिनों में आपको एक अनाम सी शक्ति देती है। मैंने आज तक कभी पूजा पाठ नही किया, मन्दिर नही गई जैनी होने के बाव़जूद कोई व्रत उपवास तक नही किया उसके बाव़जूद ईश्वर मेेंं मेरी अटूट आस्था है बड़े से बड़े संकट के समय यदि कोई मुझे याद आता है तो या तो ईश्वर या फिर माँ जो मृत्यु के बाद मेरे लिये ईश्वर का ही पर्यायत बन गई है कौन नही जानता कि इस देश कीे बेहद गरीब संकट ग्रस्त जनना अपने सारे दुखों को भगवान भरोसे ही तो झेलती है।
जहाँ तक त्यौहारो की बात है, जीवन की उबाऊ एकरसता को तोड़ने के लिये त्यौहार भी अनिवार्य है। हालाकि बाजारवाद के चलहे आज उनका रूप काफी विकृत हो गया है।
रही ‘द गॉड डिल्यूजन' पुस्तक की बात या भारत में ब्ैक्ै के सर्वेक्षण का सन्दर्भ सो फिलहा ल तो मैं दोनो हो वातो से अनभिज्ञ हूँ
ज्योति ः यह तो सच है कि राजेन्द्र यादव ने अपनी दूसरी पारी की शुरूआत ‘हंस' से की जितने चर्चित वे एक लेखक क रूप में हुए उससे कहीं अधिक सम्पादक के रूप में। आखिर हंस में ऐसा क्या खास और नया था कि हंस भी इतनी सफल पत्रिका हुई और राजेन्द्र जी भी इतने सफल सम्पादक?
मन्नू ः इसमें कोई सन्देह नहीं हैं हंस ने राजेन्द्र को अपनी प्रतिष्ठा के चरम तक पहुँचाया अब हंस में ऐसा क्या था, यह तो उसके पाठक बताएँगें। मेरा जहाँ तक ख़्याल है पाठको का एक बहुत बड़ा वर्ग है जो इसके संपादकीय का घोर प्रशंसक है। अनेक पाठकों के पत्र तो इसी आशय के आते है कि हम आपके संपादकीय के लिये ही हंस लेते और पढ़ते हैं। हालाँकि यह मेरी अपनी राय कतई नही है।
ज्योति ः हंस का भविष्य क्या हैं?
मन्नू ः यह हंस के लोगो से पूछो मैं कैसे बता सकती हूँ?
ज्योति ः आपका और राजेन्द्रजी का सम्बन्ध अब बहुत हद तक खुल कर आ गया है। दो छोटे छोटे प्रश्न जो अब भी खुल नहीं पाए हैं उसमें एक तो यह कि राजेन्द्र जी के वर्तमान जीवन पर, दिनचर्या और हंस के दफ़्तर पर क्या आप अब बिल्कुल विचार नही करती? दूसरा यह कि आपके सम्बन्ध अब क्या बिल्कुल समाप्त हो गये है ?
मन्नू ः ज्योति, इस तरह के साक्षात्कारो में अपने व्यक्तिगत जीवन पर बात करना मै बिल्कुल पसन्द नहीं करती। जितना लिखना था लिख दिया... अब बस।
ज्योति ः अपने समकक्ष साहित्यकारों में राजेन्द्र जी के अलावा नामवर जी जीवित हैं जिनसे आपका परिवारिक सम्बन्ध रहा है। नामवर जी का जितना राजेन्द्र जी से सम्बन्ध रहा उतना ही आपसे भी । उनके पत्रों मेंं आपका उल्लेख भी देखने को मिलता है । राजेन्द्रजी तो उन्हें कभी अपना अच्छा मित्र नही मान पाये पर आप अपने को उनके कितना करीब मानती हैं?
मन्नू ः मैने नामवर जी को अग्रज की तरह माना और आज भी वैसे ही मानती हूँ। कुछ बरसो पहले तक जो घरेलू गोष्ढियाँ होती थी उसमें वे आते थे आते थे और इसमें कोई सन्देह नही कि उनकी बाते मुझे बहुत इन्सपायरिंग लगती थी। अब गोष्ठियाँ ही समाप्त हो गई तो मिलना भी बन्द सा ही हो गया पर राजेन्द्र की तरह उनसे मेरी अन्तरंगता तो कभी रही ही नही। यह तुम्हारी गलत धारणा है कि राजेन्द्र कभी उन्हें अपना अच्छा मित्र नही मान पाए। मित्रता का यह मतलब तो नही कि विचारो में भी असहमति न हो और उसे खुलकर व्यक्त न किया जाए। राजेन्द्र बोलने के साथ-साथ उसे लिखकर भी व्यक्त करते हैं, नामवर जी केवल बोलकर सीलिये उनका विरोध ज्यादा प्रकट होता है। अभी कुछ दिन पहले ही प्रियंवद को साक्षात्कार देते हुए नामवर जी ने कहा था कि ‘राजेन्द्र ही मेरे एक मात्र मित्र है।' राजेन्द गद्गद् होकर इसका उल्लेख करते रहते है। अब यह मित्रता इस हद् तक तो एकतरफ। हो ही नही सकती पर मेरे साथ अन्तरंग मित्रता वाली बात न पहले थी न आज है। हाँ वक्त जरुर कभी फोन पर बात हो जाती है पर मात्र एक दो मिनिट की और वह तो हमेशा रहेगी ही इतना जानती हूँ कि मेरे मन में यदि उनके लिये सम्मान है तो उनके मन में भी मेरे लिये थोड़ा स्नेह तो अवश्य है।
ज्योति ः उन्हे आप बिल्कुल शुरूआत सेे देख रही हैं। उन पर यह आरोप लगता रहा है कि वे स्थिति को देखकर अपना विचार बदल देते हैं। पंत वाला विवाद उनमे सबसे ताजा है। आपको क्या लगता है?
मन्नू ः पिछले कुछ वर्षो से लिखित और मौखिक रूप से बराबर नामवरजी पर यह आरोप लगता रहा है तो यह निराधार तो होगा नही। मैंने तो पिछले कुछ वर्षो सेें उनके भाषण सुने ही नही पर पंत वाला भाषण संयोग से वसुधा में पढ़ने को मिला। महादेवी जी की शतवार्षिकी का अवसर, तो उन्हें ऊपर तो उठाना ही था... तो उनके पद्य गद्य और व्यक्तिगत जीवन को आधार बनाकर जितना चाहते उठाने... पंत को गिराना क्या जरूरी था? इसमें कोई सन्देह नही कि पंत की बाद की रचनाएँ उनकी आरम्भिक रचनाओं की अपेक्षा बहुत ही हल्की हैं... उनके बारे में नामवरजी ने कोई नकारात्मक टिप्पणी की तो इसे कुछ बहुत अनुचित तो नही कहा जा सकता । विचार हैं ये उनके, जिन्हें अभिव्यक्त करने की उन्हेें पूरी स्वतन्त्रता भी है। पर कूड़ा जैसे शब्दों का प्रयोग? नामवरजी जैसे दिग्गज समीक्षक सेे भाषा के संयम की अपेक्षा तो की ही जाती है। कूड़ कह देने से महादेवीजी ज़्यादा बड़ी हो जाएगी
कवि कवि की तुलना तो खौर फिर भी वाजिव है मुझे हँसी तो तब आई और हँसी से भी ज्यादा आश्चर्य हुआ जब महादेवी जी को उठाने के लिये उन्होंने एक तब दूलती मुझ पर झाड़ दी। वे पांक्तियाँ ज्यों कि त्यों कोट करूगी तभी बान समय में आएगी।
“सम्पूर्ण लेखन में महादेवी जी ने जिस व्यक्ति से उनकी शादी हुई थी उसके बारे में एक भी कटु शब्द नही लिखा। आजकल दो कहानीकारों स्त्री और पुरुष के बीच जो लिखा पढ़ी हो रही है वह आप पढ़ ही रहे होगे। कोई बख्शता नहीं है। इसलिये महादेवी के स्त्री-विमर्श पर बात करते हुए ये बात बराबर ध्यान में रहें। '' अगर महादेवी जी कुछ समय के लिये भी पति के साथ रहती... उनकी ज्यादतियों और उनलके अनौतिक सम्बंधो को बर्दाश्त करती और फिर भी कभी मँह नही खोलती तो तुलना करना बिल्कुल वाज़िब होता। पर इस स्थिति में... खैर छोड़िये इस प्रसंग को।
ज्योति ः आपकी पुत्री रचना के बारे में बहुत कम जानकारी है। आपका बंटी में कँहो आपकी बेटी की भी छवि हैं?
मन्नू ः उपन्यास की भूमिका में ही मैने स्पष्ट रूप से लिख दिया था कि किन तीन बच्चों की प्रेरणा से मैं यह उपन्यास लिख पाई। अन्नतः जब ये तीनों बच्चे गड्डमड्ड होकर एक सामाजिक समस्या के रूप में परिवर्तित हो गये तभी बंटी का जन्म हुआ था। उपन्यास लिखते समय रचना की उम्र भी बंटी के बराबर ही थी और मैं कुछ-कुछ उन्हीं हालात से गुज़र रही थी, इसलिये कँही अचेतन में उसकी भी कोई परोक्ष सी छवि उपन्यास में आई हैे, तो नही कह सकती पर प्रत्यक्ष रूप से तो वह कहीं नहीं है।
ज्योतिः आपके मना करने के बावजूद एक प्रश्न जरूर पूछना चाहती हूँ। कभी-कभी लोग जब कहते है कि पैंतीस साल तक तो साथ रह ली... राजेन्द्र जी से जितना फ़यदा उठाना था उठा लिया और अब यह अलग होने की मुदा्र। आपको भी बुरा तो जरूर लगेगा पर में चहती हूँ कि आप इसका उत्तर जरूर दें।
मन्नू ः नहीं बिल्कुल बुरा नही मान रही। पर उत्तर (कुछ देर सोचने के बाद) आत्मीय सम्बन्धों के दौरान भी कभी-कभी मनुष्य की यंत्रणाओं से असह्य यातनाओं के बीच से गुजरना पड़ता है, पर उस सबके बीच भी उम्मीद की डोर पकड़े कैसे वह आशा-अपेक्षाओं के बीच डूबता उतराता ही रहता है। मनुष्य-मन की इन बारीकियों की भावनाओं की... इस तरह ऊहापोह को जो लोग बिल्कुल समझ ही नही पाते... उसे हमेशा लाभ-हानि, फायदा नुकसान की तराज़ू पर ही तौलते रहते हैं, उनकी बात का भी कोई जवाब हो सकता हैं क्या? छोड़ो इस बात को।
ज्योतिः लेकिन अन्नतः फिर आपने सम्बन्ध तोड़ा ही।
मन्नू ः जीवन में एक बिन्दु ऐसा आता है, जब महसूस होता है कि बस। अब और आगे नहीं, और वही जीवन का निर्णायक क्षण होता है।
ज्योति ः बेटी ने इस अलगांव को किस तरह लिया?,
मन्नू ः बहुत ही सहज रूप में लिया। तब तक उसकी शादी हो चुकी थी और आज उसके हम दोनों से अलग-अलग और बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं
ज्योति ः अभी हाल ही में कृष्णा सोबती को व्यास सम्मान देने की घोषणा की गई, और उन्होंने सम्मान ठुकरा भी दिया। आप इसे कैसे देखती है?
मन्नू ः उन्होने इंकार करके बहुत ही सही कदम उठाया । व्यास सम्मान तो उन्हें बहुत पहले मिलना चाहिए था। उनका कद बहुत ऊँचा हैं। व्यास सम्मान देने वाली समिति को यह सोचना चाहिऐ था। कृष्णा जी ने अस्वीकार करके अपने व्यक्तित्व की गरिमा के अनुकूल ही कदम उठाया।
ज्योति ः कृष्णा जी कहती है कि ये सम्मान अब युवाओं को दिया जाना चाहिए ।
मन्नू ः यह तो और भी अच्छी बात है। साहित्य अकादमी की महन्तर सदस्यता के बाद कोई सम्मान बाकी रह भी नहीं जाता। युवाओं के पक्ष में उनका यह निश्चय नििश्चित रूप से सराहनीय है।
ज्योति ः बार-बार इस घोषणा के बावजूद कि आपका लिखना बंद हो गया। कुछ वर्षों से टुकड़ों टुकड़ों में लिखी जा रही आपकी ‘एक कहानी यह भी' पुस्तक अंततः हमें पढ़ने को मिल ही गई। ऐसी ही कोई और रचना तो नही चल रही... जो निकट भविष्य में हमें पढ़ने को मिल सकेगी?
मन्नू ः हाँ, लिखना मुझे अब पक्का शुरू करना है। अपने पिता पर और कमलेश्वर पर शब्द चित्र लिखना है। कमलेश्वर की मृत्यु के बाद लोगों ने उन पर बहुत लिखा क्योंकि मृत्यु के बाद हर व्यक्ति महान् बन जाता है। मुझे भी कई लोगों ने कहा कि मैंभी कुछ लिखू पर कमलेश्वर की पूजा अर्चना का दौर जरा खत्म हो जाए। मैं उनके सकारात्मक और नकारात्मक दोनो पक्षों पर लिखूगीं।
रिंकी भट्टाचार्य (विमल राय की बेटी) ने कुछ समय पहले अलग-अलग क्षेत्रों की छः महिलाओं से कहा कि अपने पिता का यदि एसेसमेंण्ट करें तो क्या पाएँगीं। मुझे भी लिखने को कहा गया। मैंने हिन्दी में लिखा,सुधा अरोड़ा ने उसका अनुवाद किया, और मीनाक्षी मुखर्जी ने उसकी समीक्षा की, और मुझे कटिगं भी भेजी और कहा कि आपका हिस्सा सबसे बढ़िया हैं
नामवर जी ने जब ‘एक कहानी' यह भी पढ़ी तो उसकी खूब तारीफ की और शुरू के हिस्से के बारे में कहा कि मैं अपने पिता और उज्जैन वाले हिस्से पर विस्तार से लिखू । सही बात तो यह है कि पिता जी के जीवनकाल में उनसे वैचारिक विरोध तो बहुत रहा, उनसे खूब लड़ी भी, पर आज बैठ कर देखने पर उनके कई प्लस प्वाइंट्स दिखाई देते है। कई कहानियाँ हैं, जो पूरी करनी हैं लेकिन आज कल तो कलम तक पकड़ना भारी लग रहा हैं। अब तो तुम लोग बस यही दुआ करो कि जल्दी से जल्दी मुझे इस बीमारी से मुक्ति मिले, रोज इस सेडेटिव की इतनी मात्रा न खानी पडे़।
ज्योति ः मैं तो हार्दिक रूप से आपके स्वास्थ्य की दुआ करूगीं ही, पर विश्वास रखिये आपके पाठक भी यही दुआ करेंगे कि आप जल्दी से जल्दी स्वस्थ होकर पहले की तरह सक्रिय होंगी, जिससे हमें फिर से आपकी रचनाएँ पढ़ने का मौका मिले, धन्यवाद।
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मन्नू भण्डारी
103 हाज खास अपार्टमेन्ट्स
दिल्ली
ज्योति चावला
। 561/2 शास्त्री नगर
दिल्ली 110052
E-mail : jyoti-chl@redffmail.com
(शब्द संगत / रचना समय से साभार)
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