खामोश होते हम तकनीक ने समाज को खामोश कर दिया है, शेखर ने अपने मित्र शिशिर को कहा। वो कैसे, शिशिर ने पूछा । वो ऐसे, शिशिर, शेखर कहना शुरू कि...
खामोश होते हम
तकनीक ने समाज को खामोश कर दिया है, शेखर ने अपने मित्र शिशिर को कहा। वो कैसे, शिशिर ने पूछा ।
वो ऐसे, शिशिर, शेखर कहना शुरू किया, हम और तुम जिस तरह प्रतिदिन मिलते हैं और घंटों बातें करते हैं वैसे कितने लोग है जो ऐसा करते हैं। चालीस-पचास विद्यार्थियों को तो हमलोग जानते हैं, क्या कोई एक दूसरे के साथ मेल-मिलाप, बातचीत करता नजर आता है ? शेखर ने शिशिर से पूछा ?
शिशिर सोचने लगा और कहा हाँ यार शेखर, तुम ठीक कह रहे हो, आजकल मेरे मोहल्ले के लोग पर्व-त्योहारों की शाम अपने-अपने घरों में ही रहते है, कोई किसी के यहां आना-जाना नहीं करता।
शेखर ने कहा कि हम भूलते जा रहे है कि हम एक सामाजिक प्राणी है। आत्मकेन्द्रित होते जा रहे है हम। शेखर का मुंह लाल हो गया था बोलते-बोलते।
शिशिर ने दार्शनिक अंदाज में जवाब दिया कि हम खुद से बात करने के आदि होते जा रहे हैं,, सोचते हैं खुद ही, सोच प्रक्रिया में खुद ही खलल डालते हैं, बहस भी खुद ही करते हैं। ऐसा लगता है, शिशिर उत्तेजना में आ गया था, कि सभी ने अपने अंदर एक अलग दुनिया बसा ली है, जहां सिर्फ उसे अपने आप से मतलब है, दूसरे से नहीं। अगर कोई दूसरा, शिशिर ने एक सेकेंड रूक कर फिर बोलना शुरू किया, हमारी सोच प्रक्रिया में खलल डालने का प्रयास भी करता है तो हम उसकी सुनते नहीं हैं बल्कि उसे जल्द से जल्द चलता करने की जुगत भिड़ाते रहते हैं।
शेखर ने शिशिर के दार्शनिक वक्तव्य का समर्थन करते हुए कहा कि अपने शर्मा जी का क्या हुआ, तुम्हें पता है शिशिर ?
कौन शर्माजी, शिशिर ने पूछा ?
अरे राजकिशोर शर्मा, लैंड़ ब्रोकर, मेरे मोहल्ले में सबसे बड़ा मकान उन्होंने ही तो बनाया है, शेखर ने कहा।
शिशिर अब शर्माजी को पहचान चुका था, शिशिर ने कहा, हॉ-हाँ, याद आ गया, कल ही एक संगीत कार्यक्रम में मैंने शर्माजी को देखा था, आंखें मूंद कर सितार वादन का आनंद ले रहे थे।
शेखर ने पूछा, कहां सितार वादन का कार्यक्रम था ?
शिशिर ने बतलाया कि स्व.पंडित रविशंकर के एक अमेरिकन शिष्य पॉल लिविंग स्टोन का कल शाम टाउन हॉल में कार्यक्रम था, मैं गया था, वहीं शर्माजी को देखा था। आनंदविभोर चिंताओं से मुक्त आखरी सीट पर आखें मूंद कर संगीत का आनंद ले रहे थे शर्माजी।
मैं कह रहा था शेखर ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा कि शर्माजी बड़े मिलनसार व्यक्ति है और सुबह-शाम मोहल्ले के लोगों से बातचीत करना भी चाहते हैं पर मोहल्ले के और लोग उन्हें आता देख ये कहते हुए भाग खडा होता है कि अरे शर्माजी आ रहे हैं बात करने लगेंगे।
शेखर ने कहा वैसे भी हम भारतीय बातचीत करने पर विश्वास नहीं करते। पहले ही बातचीत का जिम्मा बुर्जगों पर ही रहता था। आज तो भारत युवाओं का देश है सत्तर प्रतिशत आबादी युवा है, सभी संजाल के जाल में फंस चुके है। फेसबुकिया गए है और ट्विटियाते रहते हैं, बात नहीं करते, शेखर ने व्यंग्य के लहजे में कहा।
शिशिर ने चिंता जताते हुए कहा कि कहीं ये परिपाटी लोकतंत्र के उस व्यवस्था को ही खत्म न कर दे जिसे ‘डिस्कोर्स' कहते हैं। तुम्हें याद है शेखर, शिशिर याद दिलाते हुए शेखर को कहा कि आज से चार वर्ष पूर्व हमलोगों के कॉलेज में अमर्त्य सेन आए थे और अपने डिस्कोर्स के दौरान श्री सेन ने कहा था कि हमलोग बात करना भूलते जा रहे हैं।
शेखर ने कहा कि हाँ मुझे याद है।
शेखर ने शिशिर से पूछा कि कभी तुमने सोचा है कि हमलोग बातचीत से क्यों कतराने लगे हैं ? शिशिर सोचता रहा पर चुप ही रहा। शेखर ने कहना शुरू किया क्योंकि बातचीत करने में हम क्या बोलने जा रहे हैं उसपर हमलोगों का कोई पकड़ नहीं रह जाता जबकि हमलोगों की आदत एडिट यानी सुधारने और डिलिट यानी हटा देने के विकल्पों की हो गयी है। बातचीत के बजाए लिखना और ईमेल करना हमलोगों की दूसरी प्रकृति बनती जा रही है। इसलिए हमलोग खामोश होते जा रहे हैं।
शिशिर ने सिर्फ सहमत होने का इशारा किया, और खामोश हो गया।
शेखर ने जाते-जाते शिशिर को कहा कि कल हमलोग फिर यहीं मिल कर आगे इसी मुद्दे पर विचार-विमर्श करेंगे।
शिशिर ने समर्थन में अपना सर हिला दिया।
मातृ प्रेम
माँ जब बीमार पड़ी उस वक्त उनका तीसरा बेटा रंजन प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था। बीस वर्षों से मधुमेह से पीड़ित रंजन की माँ जब तक खूद को संभाल पाती, अपने पांच बेटों को कुछ करने नहीं देती पर अब स्थिति यह थी कि चलना-फिरना मुश्किल हो रहा था।
पांच बेटों में तीसरा बेटा रंजन कुछ दूसरे मिजाज का था। दर्शनशास्त्र और इतिहास का स्नातकोत्तर विद्यार्थी, उसने जिंदगी को दूसरे नजरिए से देखा और जाना था। रंजन के दो बड़े भाई अपने-अपने नौकरियों में व्यस्त थे। बड़े भाई लेक्चरर और दूसरा भाई जियोलोजिस्ट था। तीसरा रंजन अभी नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था। रंजन के अन्य दो छोटे भाई वकालत कर रहे थे।
माँ जब खटिया पकड़ ली तो पांचों बेटे दुखी तो थे लेकिन अन्य चारों भाईयों का मत था कि चूंकि रंजन की नौकरी नहीं लगी है इसलिए माँ की देखभाल रंजन ही करेगा। रंजन को ऐसा करने में कोई एतराज भी नहीं था। वह अपनी माँ की देख भाल करने लगा और इतनी तन्मयता से अपनी माँ की सेवा में जुट गया कि चिकित्सकों के अनुसार रंजन की माँ को उपर वाला ही बचा सकता था और ऐसी परिस्थिति में रंजन अपनी माँ को खटिया पर दस वर्षों तक जीवित रखा। न खुद खाने-पीने की सुध, न कुछ और करने की, बस माँ की सेवा में तन्मयता से जुटा रहता, माँ को जब सुला देता तब खुद माँ के सिरहाने बैठ कर न जाने क्या-क्या सोचा करता। हर वक्त रंजन की आंखें भीगी रहती।
रंजन के बड़े भाईयों ने अपने फर्ज आदायगी में रंजन की शादी ठीक कर दिया था। लड़की पढ़ी-लिखी थी और कॉलेज में नौकरी करती थी। रंजन ने शादी करने से इंकार कर दिया, उसका कहना था कि बिना नौकरी किए वह शादी कर लेता है तो अपनी कमाउ पत्नी को क्या मुंह दिखाएगा और पता नहीं उसकी होने वाली पत्नी, उसकी बीमार माँ को और उसके द्वारा बीमार माँ को दी जा रही सेवा को किस नजर से देखे। झंझट में नहीं पड़ना चाहता था रंजन जिससे माँ की सेवा में कोई खलल पड़े।
समय बीतता गया, रंजन का भी खाना-पीना माँ के वियोग में कम होता गया और एक रात माँ ने जो दस वर्षों से बोलना बंद कर दी थी मरते वक्त ‘रंजन' का नाम पुकारते हुए अपनी सुन्न पड़ी हाथों को न जाने कैसे उठाया जैसे आशीर्वाद दे रही हो और हमेशा के लिए दुनिया से चली गयी।
घर के किसी भी सदस्य को कोई खास दुख हुआ नहीं प्रतीत होता था, तिल-तिल कर मरते हुए माँ को देखते आ रहे थे सभी लेकिन रंजन को बहुत जोर का सदमा लगा था। भाईयों ने रंजन का माँ के साथ लगाव को देखते हुए यह निर्णय किया कि रंजन ही मुखाग्नि देगा। रंजन सदमे से सुन्न सा हो गया था वह कब मुखाग्नि दिया और कब माँ जल कर स्वाह हो गयी उसे पता भी नहीं चला। रंजन के लिए सिर्फ माँ ही नहीं जली बल्कि उसके अंदर भी बहुत कुछ जल गया था।
रंजन अब माँ के नहीं रहने पर बहुत खालीपन महसूस कर रहा था। खुद को एकत्रित कर, अपने अंदर जो जल गया था उसपर मरहम लगाता, लोक सेवा आयोग की प्रतियोगिता परीक्षा देने पटना चला गया। परीक्षा देने के बाद रंजन जब घर लौटा तो घर उसे खाने को दौड़ता हुआ महसूस होता। माँ के नहीं रहने का वियोग रंजन सह नहीं पा रहा था। एक दिन रंजन भी बीमार हो गया। बीमारी की अवस्था में ही वह अपना सारा काम कर लेता और बिना दवा लिए ही सो जाता। घर पर उसके दो छोटे वकील भाईयों को और सेवा निवृत्त दारोगा पिता को कोई खास मतलब नहीं रहता था कि रंजन ने कुछ खाया भी या नहीं। दिन-प्रतिदिन रंजन कमजोर होता जा रहा था। चिकित्सक आते, देखते, दवा देते लेकिन मरज था कि ठीक ही नहीं हो रहा था। दरअसल रंजन कोई भी दवा खाता ही नहीं था और घर वालों को कोई मतलब था ही नहीं इसलिए रंजन की तबीयत लगातार बिगड़ती जा रही थी।
देखने में रंजन बहुत ही सुंदर और गोरा था लेकिन बीमार रहने की वजह से दाढ़ी बढ़ गयी थी, गोरा बदन धीरे-धीरे पीला होता जा रहा था, आंखें धंस गयी थी और आंखों के आसपास काली परछाई जम गयी थी। होंठ एकदम सूखे से लगते मानों प्यास होंठों पर जम गयी हो।
एक दिन शहर के एक मानिंद चिकित्सक जो रंजन के चाचा के मित्र थे, रंजन के घर आए थे, उन्होंने जब रंजन को देखा तो वे बड़े सख्त नाराज हुए और रंजन के पिता और दो छोटे भाईयों को डांटने लगे थे कि उन्हें पहले खबर क्यों नहीं किया गया। उन्होंने रंजन को तुरंत अस्पताल में भर्ती करने की ताकीद करते हुए खुद इंतजाम के लिए अस्पताल चले गए।
रंजन को किसी तरह से अस्पताल पहुंचाया गया। शाम के सात बज रहे थे। एक घंटे के अंदर सभी जांच पड़ताल हो जाने के बाद खून चढ़ाने के लिए खून की व्यवस्था की गयी लेकिन अफसोस रंजन की नाड़ियां बाहर से खून लेने को तैयार नहीं थी। रंजन ने रात के दो बजते-बजते अंतिम सांस माँ-माँ करते हुए लिया।
रंजन के मृत्यु के बाद महीना बीत चुका था। रंजन के पिता घर के बाहर वाले कमरे में बैठ शहर के किसी थाने का कार्य निपटा रहे थे कि डाकिया आया और रंजन के नाम का लोक सेवा आयोग से आया लिफाफा थमा गया। रंजन के पिता लिफाफे को खोला तो पाया कि रंजन को आयोग ने डीएसपी पद के लिए साक्षात्कार के लिए बुलाया था। लिफाफे को हाथ में थामे रंजन के पिता विगत स्मृतियों में चले गए थे।
राजीव आनंद
प्रोफेसर कॉलोनी, न्यू बरगंडा, गिरिडीह, झारखंड़
815301
COMMENTS