रंग के पर्व होली पर रचनाकार पर भी रंग का बुखार चढ़ गया है. यह पूरा सप्ताह होलियाना मूड की रचनाओं से रंगीन बना रहेगा. आप सभी अपनी रंगीन रचन...
रंग के पर्व होली पर रचनाकार पर भी रंग का बुखार चढ़ गया है. यह पूरा सप्ताह होलियाना मूड की रचनाओं से रंगीन बना रहेगा. आप सभी अपनी रंगीन रचनाओं के साथ इस रंग पर्व में शामिल होने के लिए सादर आमंत्रित हैं.
॥ होली-डे ॥
मैं हिन्दी का पुजारी था। और आवश्यकता पड़ी तो रहूँगा। ऐसा मैंने सोच रखा था। बच्चे के एडमीशन के लेकर बुखार आ रहा था। सोचा की हिन्दी मीडियम में ही डलवा देते हैं। लेकिन लोगों से सलाह मशवरा करने के बाद सभी ने कहा- तुम तो हिन्दी-हिन्दी करके भूखे मर रहे हो। अब बच्चे का भी भविष्य क्यों खराब करोगे। बात सचमुच चिन्तनीय थी। अभी हिन्दी को कौन पूछता है। केवल कविताओं, गीतों, गजलों, साहित्य के अलावा, या तो अखबार में जिसे लोग पढ़ते कम देखते ज्यादा हैं और बाद में ठोंगा बनाकर उसमें चूरन या समोसा बेंच देते हैं, नहीं तो टेबल पे बिछा के खाना खा लेते हैं।
मेरे भ्रम के बादल घीरे-घीरे छंटने लगे। बच्चे को इंगलिस मीडियम में डलवा दिया। उसमे तो बच्चा रोता तो भी उसे अंग्रेजी में ही चुप कराते, अंग्रेजी में खिलाते, अंग्रेजी में ही लिखाते पढाते। मेरे लिए तो गलाघोटू जैसा हो गया। लेकिन समय की मॉग थी स्वीकार करना पड़ा। मेरी पत्नी श्री भी बच्चे के नक्शो कदम पे चलने लगी। और अंग्रेजी मेम बन गयी। मैं घर में अकेला पड़ गया। दादा जी थोड़ा मेरी भावनाओं को समझते थे। लेकिन वो अब कितने दिनों के मेहमान थे। मुझे लगा मुझे अपना नरक अपनी ऑखों से देखना है।
मुझे अँग्रेज़ी के अर्थ समझ में ही न आते थे। और इच्छा भी न होती थी। यही चलते फिरते शब्द थोड़ा समझ लेता था। जैसे रोड, टेबल, लाइट, ट्रेन, और ज्यादा से ज्यादा मार्केट, या स्कूल। मैं तो उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का छात्र था। जिसका शाब्दिक अर्थ ही था। ज्ञान का घर। विद्या+आलय। अब स्कूल का क्या माने निकाले। इसलिए हमें यह एकदम रूखी सूखी लगती थी। इसमें दिल न लगता।
जीवन में रस न हो, स्त्री में श्रृंगार और लज्जा, साहित्य में अलंकार, भाषा में भाव न हो तो बेकार है ऐसी शिक्षा-दीक्षा। वैसे ही जैसे खाने में नमक, रिश्तों में विश्वास, वाणी में मधुरता, नदी में पानी और सूर्य में प्रकाश न हो। सम्मान जैसी कोई चीज नहीं दिखती इस भाषा में बड़े छोटे का कोई लिहाज नहीं। छोटे को यू, बड़े को यू। अपने यहाँ सबके लिए एक सम्मान जनक शब्द है। रिश्तेदारी में भी अलग अलग शब्द और भाव हैं अब देखो- दीदी-जीजा, सास-ससुर, नाना-नानी, और उसमे सिस्टर-सिस्टर हसबैंड, मदर इन लॉ, फादर इन ला, सिस्टर इन लॉ, एक ही शब्द को इधर उघर घसीटते रहते हैं और कहते हैं कि विकास का साधन है। क्या खाक साधन है मुझे तो ढकोसला लगता है। इसी की वजह से दूसरे राज कर रहे हैं। सरकार और सेठों की कमाई हो रही है। किताबों के नाम पे अंधा धुंध पैसे लूटे जा रहे हैं। स्कूल वाले दुकान खोले बैठे हैं। कपड़े की टाई की किताब की, जूते की। अजीब तरीका निकाल लिया है कमाई का। अंगरेजी मीडियम के नाम से।
जब आम को हिन्दी में आम बोलकर समझ रहे थे तो क्या तकलीफ थी। मैंगो बोलने से क्या उसकी मिठास बढ जायेगी या उसमें अमृत भर जायेगा। क्या समझाये लोगों को पता नहीं दुनिया पागल है या हम। पढे़ लिखे लोग तो बड़े वाले अंधविश्वासी है। मैं तो कहता हूं ये भी एक प्रकार से भाषा का अंधविश्वास लोगों में फैल गया है। विज्ञान को विज्ञान कह दो तो मुंह फुला लेंगे। लेकिन साइन्स कह दो तो इंटेलिजेन्ट लड़का है। ये अंधविश्वास नहीं तो क्या है। जब न्यूटन ने पेड़ से फल गिरता देखा तो सोचकर गुरूत्वाकर्षण बल के सिद्धान्त की खोज की। अब कोई उसे अंगरेजी में बताता है तो सब उसके मुंह ताकते है। चाहे समझें या न समझें, लेकिन ये जरूर बोलेंगे, ये बड़ा होशियार लड़का है। लेकिन उसी सिद्धान्त को बच्चा हिन्दी में कहता है तो उदास हो जायेंगे। अब हिन्दी में न्यूटन का सिद्धान्त बोलेने से सेव ऊपर तो चला नहीं जायेगा। जो भी हो फालतू चिल्लाकर क्या होने वाला है। सब अंधे, बहरे, गूंगे भरे है इस देश में। कोई देखता है तो सुन नहीं पाता। कोई सुनता है तो देख नहीं पाता, जो देख और सुन पाता है वो बोल नहीं पाता। जो देख सुन और बोल पाता है वो कर नही पाता। क्या होगा इस देश का।
बच्चे का एडमीशन तो हो गया। ड्रेस पहन कर निकलता तो बहुत सुन्दर लगता। स्कूल जाते समय मम्मी को गुड मारनिंग, और मुझे गुड मारनिंग पापा। बच्चे के मुंह से चाहे जो बोले अच्छा तो लगता ही है। लेकिन वहॉ भी मेरा हिन्दी मन खिलखिला न पाता। कुछ दिन बाद बच्चा अंग्रेजी के काफी शब्द बोलने लगा। लेकिन अर्थ नहीं समझ पाता था। स्कूल में किसी त्योहार पर छुट्टी हुई। बच्चे ने आ के घर पे बड़े खुशी के साथ बताया- पापा कल होली डे है। मैं सकपका गया । होली तो अभी आ के गई फिर कहाँ आ गई इस स्कूल में। चलो किसी से बोला नहीं। छुट्टी होगी तो होगी अपने को क्या करना है। लेकिन 10-15 दिन बाद फिर किसी त्योहार की छुट्टी हुई। बच्चा फिर चहक पड़ा - पापा पापा आज फिर होली डे है। फिर मेरा मन खटका न रंग, न गुलाल, ये कैसी होली है जो रोज रोज आ जा रही है। बहुत दिमाग दौड़ते-दौड़ाते डे तो समझ में आ गया। क्योंकि रोज उसकी मम्मी उसे सण्डे, मण्डे पढाया करती थी तो मेरे कान कभी कभी उधर चले जाते थे। लेकिन होली नहीं समझ सका। कुछ दिन बीते एक और होली डे आया। फिर बच्चा खुशी से चिच्लाया आ के गले से लिपट गया। और प्यार से बोला- पापा पापा अब तो तीन दिन का होली डे है। फिर मैं अपने आपको रोक न सका, इसका मतलब पता लगाना होगा। बच्चे से पूछा-उसने कहा पापा होली डे में बहुत मजा आता है। खूब खेलने को मिलता है। इस उत्तर से मुझे संन्तुष्टि न मिली। सोचा उसकी माँ से ही पूछ लेते है शरमाते हुए पत्नि के पास गया और पूछ लिया- अंश की मॉ एक बात पूछूं। उसने कहा क्या बात है ? आज बहुत रोमांटिक लग रहे हो।
''नहीं ऐसी कोई बात नहीं, न रंग न गुलाल ये अंशू के स्कूल में क्या रोज-रोज होली डे होली डे होता रहता है।''
अब तो उसकी हॅसी पटाखे की तरह फूट पड़ी। रोके न रूकती। मैंने सोचा जो सोच रहा था वही हुआ। लगता है गलत सवाल हो गया। फिर उसने खुद को रोक के मुस्कराते हुए, मीठे से स्वर में कहा-
''मेरे भोलेनाथ, प्राणनाथ, हिन्दी के पुजारी। ये होली डे रंगों वाला नहीं है। इसका मतलब छुट्टी का दिन। आपका हिन्दी वाला अवकाश। हो....ली डे।''
आज पहली बार उसकी इतनी खुल के हँसी देखी थी। मैं अपने आपको रोक न सका। बाहों में भरकर चिल्ला पड़ा। आज होली डे है। आज होली डे है।
लेकिन पुनः मेरा स्वाभिमान जागा। और गर्व से बोला आज अवकाश है। अंशू की मम्मी फिर से हँस पड़ी।
-उमेश मौर्य
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