कुबेर का छत्तीसगढ़ी लोक कथा संग्रह - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली

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छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली संकलन अउ लेखन कुबेर ISBN-978-81-89559-33-4 _ छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली संकलन अउ लेखन - कुबेर ...

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छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली

संकलन अउ लेखन

कुबेर

ISBN-978-81-89559-33-4

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छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली

संकलन अउ लेखन - कुबेर

अक्षर संयोजन तथा आवरण ःः लेखक

सर्वाधिकार ःः लेखक

प्रथम संस्‍करण ःः 2013

मूल्‍य ःः 175 रू

ःः प्रकाशक ःः

वैभव प्रकाशन

अमीनपारा चौक, पुरानी बस्‍ती रायपुर, (छ.ग.)

दूरभाष 0771-4038958

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Folk stories of Chhattisgarh, compiled and written by KUBER

Price : Rs. 175

भूमिका

संवेदना और शिल्‍प का सुंदर समन्‍वय

(डॉ. विनय कुमार पाठक)

लोकसाहित्‍य हमारे जीवन के अलिखित एवं व्‍यवहारिक शास्‍त्र हैं। आज इनकी उपेक्षा के कारण ही मनुष्‍य, समाज एवं संस्‍कृति से दूर होता जा रहा है। ऐसे संक्रमणकाल में लोकसाहित्‍य की वापसी किसी-न-किसी बहाने लोग स्‍वीकार कर रहे हैं और प्रयोग के आधार पर ही सही, इसकी उपादेयता ग्रहण कर रहे हैं। जब कभी भी संस्‍कृति पर पाश्‍चात्‍य प्रभाव हावी हुआ है, लोक तत्‍वों ने प्राणों का संचार कर भारतीयता की रक्षा की है। आधुनिक कहानियों में साम्‍प्रदायिक सद्‌भाव और अनेकता में एकता को प्रदर्शित करने वाले भावों की प्रस्‍तुति आनंद का विषय है किंतु भारतीय संस्‍कृति में 'वसुधैव कुटुम्‍बकम' की उदार नीति है जिसकी परिणति लोककथाओं में दृष्‍टिगत होती है। यहाँ समग्र जड़-चेतन एकसूत्रता में बद्ध नजर आते हैं। इनके परस्‍पर आत्‍मीय संबंध व मैत्री-अनुबंध वार्तालाप के रूप में ग्रथित हैं। प्रकृति से जुड़कर ही मानव पूर्ण होता है। इस शाश्‍वत सत्‍य की प्रतीति लोककथाएँ ही कराती हैं। छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में विश्‍वव्‍यापी संवेदना के समानांतर भारतीय संस्‍कृति का स्‍पंदन और प्रादेशिक लोकजीवन का अंकन पूरे परिवेश के साथ प्राकृतिक संवाद के रूप में समादृत हैं।

आज लोककथक्‍कड़ अपरिचय के धुंध में गुम होते जा रहे हैं। लोककथक्‍कड़ों की यह परंपरा राज्‍याश्रय के बाद बहुत समय तक रजवाड़े में पलती रही लेकिन स्‍वतंत्रता-प्राप्‍ति के पश्‍चात्‌ अब यह विलुप्‍ति के कगार पर है। छत्तीसगढ़ी लोककथक्‍कड़ों की भी लगभग यही स्‍थिति है। इसी परंपरा को प्रोन्‍नत करने और इसे संरक्षित व संवर्धित करने के पावन उद्‌देश्‍य से कथाकार कुबेर ने इस प्रलंब कथा-कंथली को प्रयोग-बतौर प्रस्‍तुत करके छत्तीसगढ़ी कथा-साहित्‍य को नयी दिशा प्रदान की है। लोककथक्‍कड़ बहुश्रुत-बहुज्ञ होते हैं तथा स्‍थिति व परिस्‍थिति के अनुकूल लोककथा प्रस्‍तुत करने में माहिर होते हैं। कुछ लोककथाएँ इतनी प्रलंब होती हैं कि उनकी बुनावट प्‍याज के पर्त की तरह खुलती जाती हैं। इसके विपरीत लोककथक्‍कड़ गुड़ी या चौपाल में निश्‍चित समय में आकर लोकरूचि के अनुरूप लोककथाओं की प्रस्‍तुति करते हैंं लोक-अभिप्राय लोककथक्‍कड़ों की पहचान होती है जिसे यथावसर प्रसंगानुकूल प्रभावी ढंग से प्रस्‍तुत करके वे अलौकिक लोककथाकार भी प्रमाणित होते हैं। ये श्रोताओं को लोकपरंपरा और लोकसंस्‍कृति से संपृक्‍त तो करते ही हैं, आधुनिकता की आहट को भी अंगीकार करते चलते हैं।

पूरे पखवाड़े को ध्‍यान में रखकर सोलह दिवसों में लोककथक्‍कड़ों की प्रतिभा का प्रदर्शन और संस्‍कारी श्रोताओं के मनोयोग का निदर्शन करके कुबेर ने इस लोककथा-प्रस्‍तुति में 'कच्‍चा माल' को 'पक्‍का' बनाने की दिशा में लोककथात्‍मक प्रलंब छत्तीसगढ़ी कहानी के रूप में नव्‍य प्रयोग किया है। इसमें ये लोककथाएँ मूल रूप की सुरक्षा करती हुई भी शिष्‍ट साहित्‍य के रूप में ही प्रस्‍तुत हुई हैं। इसमें लोककथक्‍क्‍ड़ ही नायक हैं जो एकाधिक भी हैं और नयी पीढ़ी के रूप में संस्‍कारी श्रोताओं की भी भागीदारी इसमें सुनिश्‍चित की गयी है जो इस परंपरा की विकास-यात्रा के सूचक हैं। पूरा परिवेश ग्रामीण है जो कृषि व्‍यवस्‍था से परिवेष्‍टित है। धान की 'मिसाई' हो रही है और 'पहला पैर' पड़ा है। नयी पीढ़ी का प्रतिनिधित्‍व करने वाला राजेश 'ढेले और पत्‍ते' की लोककथा प्रस्‍तुत करके श्रेष्‍ठ श्रोता के रूप में शाबासी प्राप्‍त करता है और बाबाजी से नयी लोककथा सुनने का अनुनय-विनय करता है। लोककथक्‍कड़ बाबा 'कोलिहा के चतुराई अउ डोकरी दाई के उदिम' वाली लोककथा सुनाते हैं। इस लोककथा के उद्‌देश्‍य पर समूह में चर्चा होती है। इस तरह क्रमशः 'सोलह पैर' पड़ते तक लोककथाओं का सिलिसिला चलता है और अंत में कृषि-कार्य के संपन्‍न होने अर्थात्‌ अन्‍नपूर्णा के कोष्‍ठागार में आ जाने के अनंतर कथा का समापन होता है। इस तरह सोलह लघु-वृहद्‌ प्रतिनिधि छत्तीसगढ़ी लोककथाओं को कृषि-संस्‍कृति के साथ पिरोकर और लोककथक्‍कड़ों की लोक-सम्‍पृक्‍ति को प्‍याज की पर्त की तरह संजोकर कुबेर ने प्रयोगधर्मी प्रलंब छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली को ही प्रतिष्‍ठित किया है।

प्रायः प्रत्‍येक लोककथा की अस्‍मिता को अक्षुण्‍ण रखते हुए अर्थात्‌ लोककथा-शिल्‍प-विधि का आश्रय लेते हुए और पूरी तरह पीठिका को प्रत्‍यक्ष करते हुए कुबेर ने मनोयोगपूर्वक इस कथा को न केवल संकलन करके छोड़ दिया है वरन्‌ लोककथक्‍कड़ों की समृद्ध परंपरा को प्रस्‍थापित करते हुए उसके मुख वै वसति लोककथा की इस अमूल्‍य धरोहर को भी संजो दिया है। यह आकार में वृहद्‌ होने पर भी उपन्‍यास-कला से कोसों दूर है और अनेक कथाओं के संकलन का संयोजन होकर भी कथा-संकलन के कलेवर और तेवर से अलहदा है। यह एक प्रलंब कहानी या लघु उपन्‍यास के रूप में भी विवेच्‍य नहीं है। यह लोककथक्‍कड़ की समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा को रू-ब-रू कराने और निरक्षर भट्‌टाचार्य की विरासत से प्राप्‍त अद्‌भुत-अलौकिक परंपरा-प्रवाह से परिचित कराने का संयोजन सिद्ध करने के लिए सोलह लोककथाओं को शिष्‍टकथा का बाना पहनाकर लोकसाहित्‍य की अन्‍य विधाओं यथा लोकगीत, लोकगाथा-लोकछंद, लोकोक्‍ति का भी समावेश करके कुबेर ने नये प्रयोग का सूत्रपात किया है। इसे मैं छत्तीसगढ़ी कथाकंथली के रूप में स्‍वीकार करूँगा और मुझे प्रसन्‍नता है कि अनायास आयातित प्रयोगपरक यह रचना-प्रक्रिया अन्‍य भाषा व बोली-रूपों में भी विकसित होगी।

यहाँ यह भी उल्‍लेखनीय है कि किंवदंती ही रूढ़ होकर लोककथा का आश्रय-ग्रहण करती है। स्‍थान-नाम इसे प्रमाणित करते हैं। यदि एक स्‍थान पर आधारित घटना या कथा हो तो वह किंवदंती कहलाएगी जबकि अन्‍यान्‍य स्‍थानों के रूप में बिखरकर अथवा यथावत्‌ और यत्‍किंचित्‌ आंचलिक परिवर्तनों के साथ जन-मन में प्रतिष्‍ठित होकर लोककथाओं से जानी जाएगी। इतर अंचलों से आकर यह उसके सार्वदेशिक रूपों और शाश्‍वत गुणों को प्रकाशित करेगी लेकिन उनमें आंचलिक रंग की निःसृति जरूर होगी। शिवनाथ के उद्‌गम की कथा हो या मालीघोरी के श्‍वान-देव की कथा-व्‍यथा हो, ये कहानियाँ किंवदंती से विकसित लोककथा-रूप हैं। इसी भांति बहादुर कलारिन की लोककथा छत्तीसगढ़ की नारी-अस्‍मिता की गौरव-गरिमा को उजागर करती है। छत्तीसगढ़ी में आल्‍हा-गायन की परंपरा प्रचलित है। यह एक लोकछंद है जिस पर आधृत बारामासी की योजना कुबेर के द्वारा रस-परिवर्तन, संकलन-संग्रहण और नवोन्‍मेषन का कार्यान्‍वयन कहा जावेगा। यहाँ ज्ञातव्‍य हो कि अनेक लोककथाएँ, लोकगााथा-रूप में प्रचलित हो जाती हैं। वैसे भी गेय कथा गाथा कहलाती है। जब लोकगाथाकार को कोई कथा भा जाती है तब उसे वह गाथा के रूप में सहज परिवर्तित कर लेता है। लोकस्‍वीकृति मिलते ही लोककथा, लोकगाथा के रूप में प्रचलित हो जाती है। समय-सापेक्ष यह अंतर्क्रिया गतिमान होती है। इसी भांति कुबेर ने प्रहेलिकाओं के बूझने अर्थात्‌ जनउला या बिसकुटक्‍क के बहाने नयी पीढ़ी में बुद्धि और प्रतिभा को उर्जस्‍वित करने की परंपरा को भी कथा के क्रम में संजोकर प्रयोगधर्मिता का परिचय दिया है। 'लालबुझक्‍कड़ बूझ के, और न बूझे कोय' के अनुरूप प्रत्‍येक प्रदेश व क्षेत्र में पहेलियों को बूझने वाले बुझक्‍कड़ मिल जायेंगे। लोककथक्‍कड़ भी बुझक्‍कड़ का बाना रखते हैं, इस तथ्‍य को भी यहाँ प्रमाणित किया गया है। इसी भांति लोकोक्‍तियाँ भी किसी प्रसंग, घटना या आख्‍यान के अंग होते हैं, इस तथ्‍य को 'पानी के पइसा पानी म, नाक गीस बइमानी म' विषयक लोकोक्‍ति प्रमाणित करती है। इन लोककथाओं में लोकगीत के अंश के साथ काव्‍यांश का समावेश करके कुबेर ने 'लोक-वेद मति मंजुल कूला' को चरितार्थ किया है। इसी भांति लोककथाओं के पाठ-भेद भी मिलते हैं। कुबेर ने इसी आशय से जहाँ 'कोलिहा के चतुराई अउ डोकरी दाई के उदिम' कहानी और 'महादेव के भाई सहादेव' दोनों रूपों को प्रस्‍तुत किया है, वहीं सरगुजांचलिक छत्तीसगढ़ी लोककथा 'मुसुवा अउ ढेला' को भी संग्रहित कर दिया है। नाटकीयता लाने के लिए कहीं-कहीं संवाद-योजना का सहारा लिया गया है जिससे प्रभावोत्‍पादकता की वृद्धि होती है।

कुबेर की प्रयोगपरक यह कथा-कृति लोककथक्‍कड़ों के वैदुष्‍य और वैविध्‍य की विवेचना के समानांतर कथात्‍मक छत्तीसगढ़ी कहानी लिखने अर्थात्‌ लोककथा की आत्‍मा को अक्षुण्‍ण रखकर उसकी काया की माया संसार को संवारने का ऐसा संयोजन है जो लोककथक्‍कड़ के परिवेश और प्रातिभ को प्रोन्‍नत कर पृथकता को प्रदर्शित करता है। छत्तीसगढ़ की कहानी-साहित्‍य के इतिहास में इस नयी प्रवृत्ति का स्‍वागत होगा, इसमें दो मत नहीं।

जब कथाकार कुबेर छत्तीसगढ़ी लोककथाओं को छत्तीसगढ़ी कथा-रूप में ढालते चलते हैं तब ठेठ भाषा के साथ आधुनिक प्रचलित भाषा का भी सहज समाहार करते चलते हैं। लोककथाएँ प्रायः भावप्रवण होती हैं अतः भाषा की काव्‍यात्‍मकता को प्रस्‍तुत करती हैं, यथा -

1 दुनों के बीच म बइठे हे बड़े सियान, राजेश मितान।

2 देखत-देखत आँखी पथरागे, रोवत-रोवत आँखी सुखागे।

3 कोन सुने ओकर रोवई ला, कोन पोंछे ओखर आँसू ला,

न कउआँ काँव करत हे, न चिरई चाँव करत हे।

ध्‍वन्‍यात्‍मक शब्‍दों के सार्थक प्रयोग से यह कृति अटी पड़ी है, यथा - कुड़कुड़-कुड़कुड़, कड़कड़उवाँ, कलर-बिलिर, कुड़कुड़ात, कलकलाए, खुलखुल-खुलखुल, खुम-खुम, चुटुर-चुटुर, चर्रस-चर्रस, डिगडिग-डिगडिग, तरतर-तरतर, धकधक-धकधक, दगदिग-दगदिग, पोट-पोट, भंगभंग-भंगभंग, ढांय-ढांय, लटलट, लुदलुद, लिचलिच-लिचलिच, रमंज-रमंज, दोरदिर, हबर-हबर, रझरिझ-रझरिझ आदि।

अंग्रेजी और अरबी-फारसी के प्रचलित शब्‍दों का भी यथावसर प्रयोग हुआ है। अंग्रेजी के प्रयुक्‍त शब्‍दों में जहाँ सइकिल, टायर, बिलांकिट, डिक्‍टो, स्‍वेटर, टेम, कैंसर, लाइन, पुलिस, फेल, स्‍कूल, सूटबूट, टेबुल, स्‍टूल, रेडियो, जेहेल (जेल), टेसन (स्‍टेशन), परोग्राम (प्रोग्राम), उल्‍लेखनीय है, वहीं उर्दू-शब्‍दों में फरियाद, दरबार, हाजिर, खातिर, मदद, सवाल, जवाब, गलती, खतरनाक, गजब, हुकुम, हिसाब, एलान, आसरा, मामला, जंजाल, शाबासी, घमंड, ईमानदार, इज्‍जत, औलाद, नीयत, मजाक, जमाना, फिकर (फिक्र), शरत (शर्त), उमर (उम्र), नजीक (नजदीक), इसारा (इशारा), लाइक (लायक), जिदियहा (जिद्‌दी), अक्‍कल (अकल), बखत (वक्‍त), खुदे (खुद ही), करेजा (कलेजा), जादा (ज्‍यादा) आदि महत्‍वपूर्ण हैं। मुहावरे-कहावतों के यत्र-तत्र प्रयोग से भाषा प्रभावी बन गयी है।

आंचलिकता और आधुनिकता, परंपरा और प्रगति तथा कथ्‍य और तथ्‍य से संग्रथित यह अनुपम कृति संवेदना और शिल्‍प के सुंदर समन्‍वय को संजोने वाली सिद्ध हुई है। इस प्रयोगपरक नयी प्रवृत्‍ति का स्‍वागत होगा, इन्‍हीं शुभकामनाओं के साथ -

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विमर्श

छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में अभिप्राय विमर्श

दादूलाल जोशी ‘‘फरहद’’

लोककथा, लोकसाहित्य की एक विशिष्ट विधा है। सीधे-सीेधे अर्थों में यह लोक-मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम है। इलेक्ट्रानिक उपकरणों की सर्वसुलभता के पूर्व इसका अपना बोलबाला था। कथा कहने और सुनने की प्रक्रिया जन में बिना नांगा चलती रहती थी। फुर्सत के समय में लोककथा का रसपान तो करते ही थे, श्रम करते वक्त भी किस्सागोई का व्यापार चलता था। जनमानस में लोककथाओं के प्रति अद्भुत सम्मेाहन होता था।

लोककथाओं की रचना कब हुई और किसने की, इसे ठीक-ठीक बता पाना असंभव है। यह आदिकाल से ही जनमानस में प्रचलित रही है। निश्चित रूप से लोककथाओं का सृजन ग्रामीण परिवेश में ही हुआ है और इनके सृजेता मेहनतकश जनता ही रही है, इसलिए इसका सम्बन्ध बहुत सीमा तक श्रम संस्कृति से रहा है। पिछली सदी में लोक साहित्य पर काफी काम हुआ है। स्वतंत्र लेखन के साथ-साथ विश्वविद्यालयों में शोध कार्य भी हुए हैं। लोककथा के तात्विक विवेचन के क्रम में प्रायः सभी मनीषियों ने इनमें निहीत अभिप्रायों की चर्चा की है। लोक कथाओं में अभिप्राय को महत्वपूर्ण तत्व माना गया है। डॉ. शंकुतला वर्मा के अनुसार - ‘‘अभिप्राय (Motifs) लोककथा का प्रमुख परम्परित तत्व है, शैली उसकी परिवर्तनशील है। अभिप्रायों द्वारा लोककथा की सामग्री प्रस्तुत की जाती है और शैली द्वारा उसे एक रूप प्रदान किया जाता है। बिना अभिप्राय के लोककथा का अस्तित्व ही नहीं है। विभिन्न कहानियों में विभिन्न अभिप्राय होते हैं।’’

डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपना मत इस प्रकार से रखा है- ‘‘कहानियों के लिए अभिप्रायों (Motifs) का वैसा ही महत्व है जैसा किसी भवन के लिए ईंट, गारे अथवा किसी मंदिर के लिए नाना भांति की साज से उकेरे हुए शिलापट्ट।’’

इस विचार के परिप्रेक्ष्य में अभिप्रायों का आशय लोककथा के गठन, रूपांकन अथवा साज-सज्जा की ओर लक्षित होता है।

डॉ. श्यामाचरण दुबे इस सम्बन्ध में लिखते हैं- ‘‘अभिप्राय के आधार पर सम्पूर्ण विश्व के लोककथा साहित्य का विश्लेषण हमें बतलाता है कि मानव की नये अभिप्राय निर्मित करने की शक्ति आश्चर्यजनक रूप से सीमित है। थोड़े से अभिप्राय नये-नये रूपों में हमें मानव जाति की लोककथाओं में मिलते हैं।’’

लोककथा के अभिप्रायों को कुछ अधिक स्पष्ट करते हुए डॉ. शंकुतला वर्मा अपने शोध प्रबन्ध- छत्तीसगढ़ी लोक जीवन और लोक साहित्य के अध्ययन में उदाहरण सहित लिखती हैं - ‘‘विभिन्न कहानियों में विभिन्न अभिप्राय होते हैं। उदाहरणार्थ एक कहानी है-

एक राजकुमार है। उसका एक मित्र या भाई है। राजकुमार किसी सुन्दरी राजकुमारी का सौन्दर्य वर्णन सुनकर या स्वप्न-चित्र दर्शन से मुग्ध होकर, उसे प्राप्त करने के लिए निकल पड़ता है। राजकुमारी किसी राक्षस के अधीन है या उसका निवास-स्थल जल के आवृत्त सागर, तालाब आदि स्थान है। राजकुमार की सहायता उसका मित्र या भाई करता है। अनेक संकटो को पार कर, कष्ट झेलते हुए साहसपूर्ण कृत्यों से अंततः राजकमार उस सुन्दरी को प्राप्त कर लेता है, किन्तु जब वे तीनों वापस लौटते हैं, तो पुनः विपत्तियां आती हैं। इन विपत्तियों के सम्बन्ध में राजकुमार और उसकी पत्नी को तो कोई ज्ञान या संकेत नहीं रहता है, पर उसके मित्र को अवश्य ही इस संबंध में जानकारी रहती है। बात यह है कि मार्ग में जब राजकुमार और उसकी पत्नी विश्राम करते हैं, तो मित्र जागता रहता है और तभी उसे उन दोनों पर आने वाले भावी संकटों की सूचना मिलती है। यह सूचना कभीे पक्षियों के परस्पर वार्तालाप से मिलती है, कभी आकाश या जलवानी से, तो कभी अन्य माध्यमों से। मित्र सजग हो जाता है और उन संकटों से अपने मित्र व उसकी पत्नी की रक्षा करता है। इस रक्षा कार्य में उसे अपने प्राणों की आहुति दे देनी पड़ती है। बाद में राजकुमार को सच्ची स्थिति का ज्ञान होता है और तब वह शंकर जी की आराधना कर, अपनी संतान की बलि देकर, अपने मित्र को पुनः जीवित कर लेता है और फिर तीनों सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। ’’

इस कथासार के आधार पर डॉ. वर्मा ने उसमें निहित अभिप्रायों (Motifs) का उल्लेख निम्नानुसार किया है-

1. किसी मानवेतर (राक्षस) प्राणी के अधीन एक सुन्दरी राजकुमारी।

2. राजकुमारी का निवास स्थल जल से आवृत्त।

3. राजकुमारी के सौंदर्य को सुनकर या स्वप्न या चित्र देखकर राजकुमार का उस पर मुग्ध होना और उसकी प्राप्ति के प्रयास।

4. मित्र की सहायता से राजकुमारी की प्राप्ति।

5. पक्षियों द्वारा विपत्तियों की सूचना।

6. मित्र द्वारा विपत्तियों का निराकरण किन्तु मित्र की मृत्यु हो जाना।

7. समय आने पर सत्य बात का ज्ञान होना और राजकुमार का मित्र को जीवित करने की आकुलता प्रदर्शित करना।

8. राजकुमार के प्रयास, उसकी कठिन परीक्षा और अन्ततः संतान-बलि देकर भी मित्र को जीवित कर लेना।

उपर्युक्त सभी अभिप्राय (Motifs) कथा में आये प्रमुख पात्रों एवं घटनाओं पर आधारित हैं। ये सभी स्थूल रूप में हैं। हो सकता है, प्राचीन काल में इस कथा के सभी पात्र एवं घटनाएं जनमानस को सत्य प्रतीत होते रहे हों, तथा इन पर उनकी पूरी आस्था और विश्वास भी पुख्ता रहे हों। किन्तु आज का मानव समाज इन्हें जस का तस स्वीकार नहीं कर सकता।

लोककथाएं शाश्वत होती हैं। उनमें हेर-फेर भी नहीं किया जा सकता किन्तु उनमें निहित प्रेरक-तत्वों की विवेचना विभिन्न कालों में भिन्न-भिन्न हो सकती है। वर्तमान युग विज्ञान का है। प्रकृति के सारे अबूझ रहस्य, तर्कों और अनुप्रयोगों के माध्यम से स्पष्ट रूप से खुलते जा रहे हैं। आज का समझदार व्यक्ति राक्षस, भूत-प्रेत, जादू-टोना और चमत्कारों पर विश्वास नहीं करता है, लेकिन साथ ही लोककथाओं के अस्तित्व और उसकी उपयोगिता को वह खारिज भी नहीं करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने अधुनातन तर्कों एवं प्रमाणों के आधार पर उनकी नई व्याख्या प्रस्तुत करेगा। और ऐसा किया जाना जरूरी प्रतीत होता है।

हम लोककथाओं के जिन अभिप्रायों की चर्चा करने जा रहे हैं, उसका आशय अंग्रेजी के motif शब्द से न होकर motive से सम्बन्धित है। अर्थात् प्रेरक तत्वों से हैं। इस दृष्टि से विवेचन करने पर लोककथाओं की सार्थकता वर्तमान संदर्भों में भी दिखाई देती है। दरअसल लोककथाओं में उल्लेखित मानवेतर प्राणी और अतीन्द्रीय घटनाएँ अच्छी और बुरी प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। आदिकालीन मानव ने इनका मानवीकरण करके कथाओं का सृजन किया था। अच्छी और बुरी प्रवृत्तियां मानव जाति में सहजात होती है। इसके साथ ही संकटों एवं कठिनाईयों से मुक्त होने की भावना उसका विशिष्ट गुण है। इसके लिए अदम्य जिजीविषा और सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास करना आवश्यक होता है। इन्हीं भावनाओं की प्रेरणा अप्रत्यक्ष रूप से लोककथाओं में भरी हुई है। लोक कथाकार की दृष्टि में कुछ भी असंभव नहीं हैं। हर असंभव दिखने वाले कार्य-व्यापार को मनुष्य अपनी बुद्धि और तन-मन-बल से संभव कर दिखाता है। जिन कथाओं में पशु-पक्षी, पात्रों के रूप में आये हैं, वे सभी मानव जाति के ही प्रतीकार्थ हैं। इस प्रसंग में डॉ. सत्येन्द्र का यह विचार ज्यादा मौजूं लगता है। वे लिखते हैं- ‘‘कहानी लोकमानस की मूल भावना के रूप को स्थूल प्रतीक से अभिव्यक्त करती है।’’

इस विचार के आलोक में यदि हम पड़ताल करें तो डॉ. शंकुतला वर्मा ने आठ बिन्दुओं में जिन अभिप्रायों का उल्लेख किया है, उन्हें आधुनिक संदभरें में निम्नांकित तरह से रूपांतरित कर सकते हैं।

1. राजकुमारी अर्थात व्यक्ति या समूह, जो किसी शक्तिशाली के कुटिल नियंत्रण में हो।

2. उसकी मुक्ति प्रथम दृष्टया दुःसाध्य हो अथवा उसका स्थान दुर्गम या दुर्लभ हो।

3. पीड़ित जन के प्रति प्रेम और उसकी मुक्ति का प्रयास करना अर्थात उनके नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा करना।

4. किसी भी अभियान में साथी या समूह को लेकर चलना क्योंकि अकेले की लड़ाई का कोई औचित्य नहीं हैं। सामूहिक शक्ति से प्रयास ही सफलता दिलाती है।

5. अपने पूर्व ज्ञान और अनुभवों से आने वाली विपत्तियों को जानना-समझना।

6. साथी या समूह द्वारा विपत्तियों का सामना करके उसका निराकरण करना किन्तु इसमें जन की हानि होना।

7. दिवंगत साथियों की कुर्बानियों को चिरस्थायी एवं प्रेरक बनाने का काम करना।

8. इस कार्य की पूर्णता हेतु अपना सब कुछ न्यौछावर कर देना।

इस तरह प्रायः सभी लोककथाओं के अभिप्रायों की व्याख्या अपने वर्तमान देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप की जा सकती है। उपर्युक्त व्याख्या एक अंदाज मात्र है, उसे हर काल में सजग मानव अपने विकास पथ का सम्बल बना सकता है।

इसी तरह एक अन्य सर्वप्रिय लोककथा है जो इस प्रकार है -

‘‘एक ठन नानकुन चिरई हा अपन चोंच मा चना दार के एक ठन दाना ला दाब के उड़त जावत रीहिस। वोकर चोंच हा थोरिक ऊल गे अऊ दाना हा एक ठन जांता के मेखा मा गिर परिस। चिरई हा वोला निकाले के अघात बूता करिस, फेर नई निकाल पाइस। तब वोहा जांता ला किहिस- ‘हे जांता, मोर दाना ला तंय दे दे। मोर पिलवा हा भूख मरत हे।’

जांता ह बोलिस - ‘जा बढ़ई ला ले आन। वोहा खूंटा ला चीर दीही तांहने दाना हा निकल जही।’

चिरई हा उड़के बढ़ई करा गीस अऊ कीहिस - ‘बढ़ई, चल तो खूंटा ला चीर देबे। मोर दाना हा उंहा खूसर गेहे।’

अतका सुनके बढ़ई हा सोचिस - ये नानकन चिरई के बात ला काबर मानहूं? वो हा इन्कार कर दीस। तब चिरई हा वोकर सिकायत लेके राजा करा गीस अऊ कीहिस के बढ़ई हा वोकर बात नई मानिस तेकर सेती वोला सजा मिलना चाही।

राजा हा वोकर बात मा धियान नई दिस। तब वोहा रानी करा जाके राजा ला समझाय बुझाय बर बोलिस। रानी हा वोला दुतकार के भगा दीस।

चिरई हा सांप करा जा के किहीस- ‘‘हे नागदेवता, तंय रानी ला डस दे। वोहर मोर मदद नई करीस।’’

अतका सुन के सांप हा वोकरे डाहर दउड़िस। चिरई ठेंगा करा पहुंचीस अऊ अरजी करिस के वोहा सांप ला मार के सजा दे। वहु हा वोकर अरजी मा धियान नई दीस। त चिरई हा आगी करा जा के विनती करिस- ‘हे अगिन देवता तंय हा जाके ठेंगा ला लेस-भूंज दे। वोहर मोर मदद करे बर राजी नई होइस।’

आगी हा घलो वोकर बिनती ला नई सुिनस। त वोहा समुन्दर करा पहुंचीस अऊ बोलिस हे समुन्दर देवता आगी हा मोर बिनती मा धियान नई दीस तेकरे सेती वोला बुझा के ठंडा कर दे।

समुन्दर हा घलो वोकर बात नई मानिस। त वोहा हाथी करा गीस अऊ समुन्दर के पानी ला पी के सोंखे बर किहीस। हाथी हा घलो इनकार कर दिस।

तब आखिर मा चिरई हा चांटी करा जा के मदद मांगिस। चांटी हा वोकर मदद करे बर तियार हो गे। दूनो झन हाथी के तीर मा गीन। चांटी हा हाथी के सोंड़ मा खुसरगे अऊ चाबे लागिस। हाथी हा हलाकान हो गे। तब वोहा चांटी ले बोलिस कि तंय मोर सोंड़ ले बाहिर निकल। मंय समुन्दर के पानी ला पी के सोंखे बर राजी हौं। अतका सुनके चांटी हा वोकर सोंड़ ले बाहिर आ गे। फेर तीनों झन समुन्दर के तीर मां हबरिन त वोहा हाथी ला आवत देख के समझ गे - अब मोर खैर नई हे। वोहा तुरते आगी ला बुझाय बर तियार होगे।

अब चारों आगी तीर मा गिन। आगी हा समुन्दर ला देख के कीहीस- मैं ठेंगा ला लेसे बर तियार हौं। अतका कहिके वोहा ठेंगा कर गीस। ठेंगा हा सांप ला मारे बर राजी होगे। जम्मो झन सांप कर पहुंचिन त ठेंगा ला देख के किहीस- मंय रानी ला डसे बर अभीच्चे जाथंव। अऊ फेर वोहा रानी ला डंसे बर चल दीस। रानी हा सांप ला देख के बोलिस- तंय हा मोला झन डंस। मंय राजा ला समझा के बढ़ई ला सजा दे बर राजी कर देथों। रानी हा राजा ला समझाइस। राजा हा बढ़ई ला बलाइस। बढ़ई हा जांता के मेखा ला चीरे बर राजी होगे। वोहा अपन बसुला-बिंधना ल घर के खूंटा तीर पहुंचिस त खूंटा हा कीहीस- मोला झन चीर बढ़ई। चिरई के दाना ला येदे निकाल देवत हंव। वोहा दाना ल बाहिर निकाल दीस। चिरई हा दाना ला चोंच मा धरिस अऊ खुशी-खुशी अपन खोंधरा डाहर उड़ गे।’’

इस लोककथा में छोटी सी चिड़िया एक दाना के लिए कितना प्रयास करती है? यही विशिष्ट बात है। लेकिन इस पूरे प्रयास में उससे अधिक सक्षम लोग, प्राणी या वस्तु ने उसकी मदद नहीं की। उसकी सहायता के लिए तैयार होता है तो सबसे छोटा प्राणी, याने चीटी। छत्तीसगढ़ी की उस लोककथा का सार-सौन्दर्य यहीं दिखाई देता है। जो हमारी नजरों में सबसे तुच्छ, उपेक्षित और कमजोर दिखाई देता है, वही समय आने पर बड़े-बड़े कार्य को सिद्ध करने में सहायक बन जाता है। यहां चींटी मेहनतकश मजदूरों और श्रमिकों का प्रतीक है।

चिड़िया अंत तक हिम्मत नहीं हारती और अपने मकसद में कामयाब होने तक निरंतर संघर्ष करती रहती है। इस कथा का प्रेरक तत्व यही है कि मनुष्य का हर काम पूरा हो सकता है। वह प्रत्येक विपत्ति से मुक्ति पा सकता है। बशर्ते वह हिम्मत न हारे तथा पूर्ण निष्ठा के साथ प्रयास करता रहे। हाथ में हाथ धरे बैठे रहने और अपनी किस्मत को कोसते रहने से समस्या नहीं सुलझ सकती। यदि अन्याय हो रहा है, किसी भी तरह का तो मानव का धर्म है कि वह न्याय पाने के उद्यम जरूर करे।

दाना को प्राप्त करना चिड़िया का नैसर्गिक अधिकार है। वह अपने इस प्रकृति प्रदत्त हक से वंचित करने वालों के विरूद्ध अनवरत संघर्ष करती है। कोई हमारे ही घर में हमारी ही धरती पर आकर हमें हमारे नैसर्गिक हक और न्याय से वंचित करने की कुचेष्टा करता है तो चिड़िया की तरह हमें भी उनसे संघर्ष करना चाहिए जब तक कि पूर्ण सफलता प्राप्त न हो जाये।

छत्तीसगढ़ी लोककथाओं में इसी तरह के प्रेरक तत्व मौजूद हैं। इनके माध्यम से जनता में चेतना पैदा की जा सकती है। इन कथाओं के वास्तविक अभिप्राय, मोटिव, तो यही है कि अपनी सजग बुद्धि और शारीरिक बल से हर प्रकार के जोर-जुल्म से मुक्त होने का अभियान चलायें।

इस कथा की खासियत यह है कि चिड़िया समस्त असहयोग करने वालों को अन्ततः अपना सहयोगी बना लेती है, अर्थात् प्रतिकूल परिस्थितियों और लोगों को अपने अनुकूल बना लेती है। किसी न किसी रूप में वह सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन करती है। ऐसी स्थिति उत्पन्न करने में सबसे छोटा प्राणी अपनी भूमिका निभाता है।

इसी तरह समस्त छत्तीसगढ़ी लोककथाओं की व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की जा सकती है। आजादी के पहले अंग्रेज अधिकारी ई.एम. गोर्डोन छत्तीसगढ़ी लोक कथाओं से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इसीलिए उन्होंने मुंगेली तहसील में प्रचलित आठ लोककथाओं का संग्रह सन् 1902 ई. के गजेटियर में किया था।

छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली के रूप में कुबेर ने इससे भी अच्छा प्रयास किया है जो आप के हाथों में है। आधुनिक संदर्भ में, जब हम अपनी लोक विरासत से विमुख होते जा रहे हैं, यह प्रयास न केवल प्रसंशनीय है, अपितु अन्य साहित्यकारों के लिये प्रेरक भी है। इस संग्रह में संग्रहीत कथाओं-कहानियों में छत्तीसगढ़ी जन-जीवन के प्रेरक तत्वों को कुशलता के साथ पिरोया गया है। कुबेर प्रयोगधर्मी साहित्यकार हैं। इस संग्रह में, कहानियों के प्रस्तुतीकरण में उनके द्वारा किया गया प्रयोग रूचिकर है।

हार्दिक शुभकामनाएँ।

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गोठ-बात

अपन चीज ह अपनेच्‌ होथे, सुख-दुख, मया-पीरा, सबके संगवारी; अब्‍बड़ गुरतुर, अब्‍बड़ मीठ। हमर छत्तीसगढ़ ह जइसे अन्‍न-धन, जंगल-पहाड़, खनिज-संपदा ले भरपूर हे, वइसनेच्‌ इहां लोकगीत अउ कथा-कंथली के भंडार घला भरे हे।

कथा-कंथली मन खाली मन बहलाय अउ टेमपास के साधन नो हे। येमा हमर सुख-दुख, मया-पीरा, हमर संस्‍कार, हमर रहन-सहन अउ व्‍यवहार, हमर तीज-तिहार, खेती-किसानी, पानी-बादर अउ नीत-अनीत के ज्ञान समाय रहिथे। कथा-कंथली म लोक के सपना, इच्‍छा अउ आकांक्षा घला झलकत रहिथे। दुनिया के जउन बात ह हमर बर सपना बरोबर होथे, जिनगी म जउन ल हासिल करना हमर बर नोहर हो जाथे; वइसन सबके इच्‍छा ल हम कथा-कंथली के ओखी म पूरा करे के, पाय के कोसिस करथन। कथा-कंथली मन ह समाज ल नीति, शिक्षा अउ ज्ञान देय के साधन घला आवंय।

वइसे तो हर घर म दाई-ददा अउ डोकरी दाई-डोकरा बबा मन तीर कथा-कंथली के खजाना रहिथे, अपन-अपन घर म अपन-अपन लोग-लइका, नाती-नतुरा मन ल सब सुनाथें, फेर कहानी कहना घला एक ठन कला आवय; सबो ल ये कला ह नइ आय। गाँव म कोनों न कोनों ये कला म माहिर होथे। माहिर मनखे के मुँहू ले रात म कोनों गुड़ी म, कोनों चंउक-चौंरा म बइठ के, गोरसी-भुर्री तापत, कि खेत-खार म कमावत-कमावत, कहानी सुने के अपन अलगेच्‌ मजा होथे। अब तो टी.वी.-सनीमा अउ इंटरनेट के जमाना आ गे हे, ये जिनिस मन नंदावत जावत हे। अब न तो लोग-लइका मन सियान मन तीर बइठ के कथा-कंथली सुने के संउक करंय अउ न तो कथा-कंथली सुनवइया वइसन सियानेच्‌ रहिगें। कथा-कंथली के मोल समझइया कोनों नइ दिखत हें। अइसन समय म कथा-कंथली ल हम भुलावत जावत हन।

अपन-अपन पुरखा के कमाय धन-दोगानी ल हम सबो झन सकेल के, संभाल के, जतन करके राखथन। कथा-कंथली मन ह तो घला हमर पुरखा मन के कमावल अनमोल धन आवंय; येला हम काबर भुलावत जावत हन? सोचव।

गाँव-गोढ़ा के, हमर पुरखा सियान मन के, भूले-बिसरे अइसने दू-चार ठन कहानी मन ल सकेल के मय ह आप मन तीर पहुँचाय के कोसिस करे हंव। 'सतवंतीन' अउ 'शिवनाथ', ये दुनों कहानी मन मोर छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह 'कहा नहीं' म अंतर्कथा के रूप म समाहित हें, ये संग्रह म येमन ल स्‍वतंत्र रूप म फेर सामिल करे गे हे। आसा हे, आप मन ल पसंद आही।

ये संग्रह म जतका कहानी मन ल जोरे गे हे, वोमे ले कोनो-कोनो कहानी मन के वास्‍ता ह हमर छत्तीसगढ़ के गाँव विश्‍ोष ले हे या फेर स्‍थान विश्‍ोष ले हे। मोर जानबो म ये मन ह एदइसन हें -

मालीघोरी के कुकुर देवता

अभी नवा-नवा बने बालौद जिला म डौंडीलोहरा-बालोद सड़क मार्ग म मालीघोरी नाव के एक ठन बड़ सुघ्‍धर गाँव पड़थे। ये गाँव म एक ठन विचित्र मंदिर हे जउन ह 'कुकुर-देव के मंदिर' नाव से जग-जाहरित हे। ये मंदिर म कोनों भगवान के मूर्ति स्‍थापित नइ हे बल्‍कि वोकर जघा कुकुर देवता के मूर्ति स्‍थापित हे। बड़ फुरमानुक हे कुकुर देवता ह। येकर दर्शन अउ पूजा करे बर रोज कतरो आदमी आथें अउ मनौती मानथें। सबके मनौती ल कुकुर देव ह पूर करथे। ये कहानी ह इही मंदिर ले जुड़े हे।

(बालोद जिला अंतर्गत डौंडीलोहरा-बालोद मार्ग में मालीघोरी नामक एक गाँव पड़ता है। इसी गाँव में स्‍थापित है कुकुर देव का प्रसिद्ध मंदिर, जहाँ भगवान की मूर्ति की जगह कुत्‍ते की मूर्ति स्‍थापित है। आज भी बड़ी तादाद में लोग यहाँ आते हैं, पूजा करते हैं और अपनी मुरादें पाते हैं। छत्तीसगढ़ ही नहीं शायद संसार भर में अपनी तरह का यह अकेला मंदिर है। लोग इस मंदिर का संबंध इसी कथा से जोड़ते हैं। )

करहीभदर के माता बहादुरकलारिन

हमर छत्तीसगढ़ म मंद-मंउहा बेचे के काम ल कलार जाति के भाई मन करत रिहिन। ये कहानी के नायिका बहादुर कलारिन ह इही कलार जाति के कुल-देवी के रूप म पूजित हे। राजनांदगाँव-बालोद-धमतरी सड़क मार्ग म बालौद अउ धमतरी के बीच म करहीभदर नाम के बड़ प्रसिद्ध गाँव हे। इही गाँव के डेरी बाजू म कोस भर के दुरिहा म सोरर नाम के गाँव हे। करहीभदर अउ सोरर के बीच म हे धाप भर के पटपर भाठा। इही सोरर गाँव म रहत रिहिस हे माता बहादुरकलारिन ह। माता बहादुरकलारिन ह मंद बेचे के काम करे। छछानछाड़ू नाम के वोकर एक झन बेटा रिहिस हे। आज घला सोरर अउ अतराब के गाँव मन म माता बहादुरकलारिन अउ छछानछाड़ू देव ह ग्राम देवता के रूप म पूजे जाथे। माता बहादुरकलारिन के मचोली अउ वोकर से जुड़े कुआँ, बहना मन के चिनहा ह आजो जस के तस माड़े हे। सरकार ह येला पुरातात्‍विक धरोहर मान्‍य करे हे।

बहादुरकलारिन के कथा म भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के कतरो बात देखे-सुने बर मिलथे। कलार जाति-समाज वाले मन बहादुरकलारिन के प्रेम-प्रसंग ल रतनपुर के महाराज के संग जोड़थें जबकि कतरो मन येला मुस्‍लिम धर्माववलंबी कोनों दूसर राजा मानथें। छछानछाड़ू के संबंध म घला भिन्‍न-भिन्‍न मत प्रचलित हे। बहुत झन मन वोला उच्‍श्रृँखल अउ अत्‍याचारी के रूप म प्रस्‍तुत करथें; जउन ह अपन वासना-पूर्ति बर अबोध कन्‍या मन के अपहरण करके लावय। फेर ये बात ह मोला नइ जंचे। अइसन होतिस त लोक म वो ह ग्राम देवता के रूप म मान्‍य कइसे होतिस?

बहादुरकलारिन द्वारा छछानछाड़ू ल कुआँ म ढकेले के बारे म तो कोनों भिन्‍न बात सुनई नइ देवय फेर मोर मन ह कहिथे कि येमा कोनों अतिशयोक्‍ति हो सकथे। विही पाय के मंय ह अपन कहानी म व्‍यवहारिक रास्‍ता अपनाय हंव।

प्रसिद्ध नाटककार हबीबतनवीर ह इही कहानी ल नाटक-रूप म देश-बिदेश म देखा के प्रसिद्ध हो गे।

कलार समाज म अउ इतर जघा म ये कहानी के पाठ म थोर बहुत फरक मिलथे। इही अंतर ल बताय खातिर मंय ह ये कहानी के दू ठन पाठ देय हंव। ये कहानी ले समाज विश्‍ोष के आस्‍था जुड़े हे, कोनो के आस्‍था ह खंडित मत होवय, येकर मंय ह भरसक कोशिश करे हंव। तभो ले कहीं अइसन हो जाही ते मोला झमा करहू।

(छत्‍तीसगढ़ में शराब बेचने का व्‍यवसाय कलार जाति का पारंपरिक व्‍यवसाय माना जाता है। यहाँ इस लोकगाथा की नायिका बहादुरकलारिन को इस समाज के लोग कुल देवी के रूप में पूजते हैं। वहीं सोरर तथा आसपास के ग्रामवासी छछानछाड़ू देव को ग्राम-देवता के रूप में पूजते हैं। प्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर ने छत्‍तीसगढ़ की इस लोकगाथा को छत्‍तीसगढ़ और देश ही नहीं बल्‍कि विदेशों में भी नाट्‌य रूप में मंचित करके यश और कीर्ति अर्जित किया है। इस लोकगाथा का संबंध सोरर नामक गाँव से है। बालोद-धमतरी मार्ग पर करहीभदर नामक गाँव है, इसी गाँव से लगा हुआ है ग्राम सोरर। सोरर में आज भी माता बहादुरकलारिन और छछानछाढ़ू देव से संबंधित ऐतिहासिक स्‍थल भग्‍नावश्‍ोष के रूप में बिखरे पड़े हैं।

लोककथाएँ लोक संस्‍कृति को समृद्ध करती हैं। लोक की ये सामूहिक धरोहर होती हैं और वह इसे सहेज कर रखता हैै। लोक की आस्‍था, स्‍वाभिमान और गौरव लोककथाओं से जुड़े होते है। लोककथाएँ जैसे-जैसे कालातीत होती जाती हैं, लोक की कल्‍पनाशीलता के तत्‍व इसमें समाहित होते जाते हैं। लोकस्‍वीकार्यता के दबाव के कारण ये काल्‍पनिक-तत्‍व ऐतिहासिक यथार्थ के साथ इस कदर घुलमिल जाते हैं कि कालान्‍तर में इसे पहचान पाना और ऐतिहासिकता से इसे विलग कर पाना कठिन हो जाता है; और तब शिष्‍ट समाज के लिये इसे किंवदंती घोषित कर देना भी आसान हो जाता है।

इस लोककथा के, छत्‍तीसगढ़ के विभिन्‍न अंचलों में प्रचलित रूपों में कुछ भिन्‍नताएँ पाई जाती हैं। यहाँ इस लोककथा के दो प्रचलित रूपों को संकलित किया गया है। कथा को रोचक बनाने के लिये कल्‍पना का भी आश्रय लिया गया है। चूँकि इस लोकगाथा के केन्‍द्र में समाज विश्‍ोष की आस्‍था अवलंबित है, अतः कथानक में यथार्थ और कल्‍पना के बीच संतुलन बनाये रखते हुए लोक समाज की मर्यादाओं का भी ध्‍यान रखा गया है। तथापि प्रस्‍तुत कथा के किसी अंश से यदि किसी की आस्‍था आहत हो तो उसके प्रति मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।)

पहटिया, परेतिन अउ नकटानाच

छत्तीसगढ़ म परेतिन के मानता ह देवता के रूप म हे। कोनो आदमी ल, के लइका ल परेतिन ह लुका दिस कहिके कतरो कहानी सुने बर मिलथे। परेतिन ह मानुष चोला धर के कोनो आदमी संग बिहाव करिस, अइसनो कहानी घला सुने बर मिलथे। बहुत जघा अइसन परिवार मिलथे जउन ह अपन आप ल परेतिन के वंशज मानथे।

राजनांदगाँव के दक्षिण-पश्‍चिम छोर म मानपुर विकासखंड हे। मानपुर के नौ-दस किलोमीटर पहिली मानपुर-राजहरा सड़क मार्ग म भर्रीटोला नाम के एक ठन गाँव हे। ये गाँव म यादव मन के एक ठन परिवार रहिथे, जउन ह अपन आप ल परेतिन के वंशज मानथे। ये कहानी के विषय-वस्‍तु ल इही गाँव ले लेय गे हे।

(राजनांदगाँव के दक्षिण-पश्‍चिम छोर पर स्‍थित है, सघन वनों से आच्‍छादित विकास खंड मानपुर। मानपुर से नौ किलोमीटर पहले दल्‍लीराजहरा-मानपुर मार्ग पर विकासखंड का सबसे बड़ा गाँव पड़ता है, भर्रीटोला। इस गाँव में यादवों का एक परिवार रहता है जो अपने आपको परेतिन का वंशज मानता है। गाँव से लगा हुआ एक बड़ा सा सरार (छोटा झील) है जो गाँव की पहचान बन चुका है। छत्‍तीसगढ़ के कुछ अन्‍य गाँवों में भी स्‍वयं को परेतिन का वंशज बताने वाले परिवार मिलते है। इसे एक जनश्रुंति ही मानकर देखना चाहिये। इसी जनश्रुति को आधार बनाकर इस लोककथा की विषयवस्‍तु को लिया गया है। इस संबंध में किसी प्रकार का शोध नहीं किया गया है।)

'चियाँ अउ साँप', 'कुकरी अउ चियाँ' अउ 'मुसुवा अउ ढेला'

'चियाँ अउ साँप', 'कुकरी अउ चियाँ' अउ 'मुसुवा अउ ढेला', ये तीनों ठन कहानी मन ह सरगुजा अलंग के आदिवासी भाई मन के बीच कहे-सुने जाथे। जीवन के जउन सच्‍चाई ये कहानी मन म छुपे हे, वोला गुन के अपढ़ आदिवासी भाई मन के ज्ञान ऊपर गरब होथे।

सिरिफ छत्तीसेच्‌गढ़ नहीं, बल्‍कि देश भर म जेकर नाम अउ सनमान हे, जउन ह साहित्‍य के एक-एक ठन मरम ल जानथे; अइसन महान साहित्‍यकार डॉ. विनय कुमार पाठक, जउन मन के पलोंदी पा के साहित्‍य म कुछू करे के मोला मारग सूझथे; छत्तीसगढ़ अउ छत्तीसगढ़ी बर छाती अड़ा के खड़ा होवइया, 'माटी महतारी' के सपूत साहित्‍यकार, प्राध्‍यापक डॉ. नरेश कुमार वर्मा अउ 'सत्‍यध्‍वज' ल थाम के, बेहतर मानव-समाज के सपना देखइया, अपन सपना ल सच करे बर जी-परान होम करके, जोम दे के कोसिस करइया चिंतक, संपादक, साहित्‍यकार डॉ. दादूलाल जोशी 'फरहद', जउन मन ह मोला साहित्‍य के मरम ल समझाथें; मंय इखँर मन के सदा आभारी रहिहंव।

मया-पिरीत बनाय रखहू। चिट्ठी-पाती लिखहू, अपन बिचार भेजहू।

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खरही

(अनुक्रम)

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पैर क्रमांक कहानी के नाम पृष्‍ठ क्र.

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पहिली पैर ढेला अउ पत्‍ता तथा

कोलिहा के चतुराई अउ डोकरी दाई के उदिम 25

दूसर पैर महादेव के भाई सहादेव 32

तीसर पैर पंच मन के धरम नियाव तथा

राजा के धरम नियाव 41

चौथा पैर मयारुक बेंदरा अउ बांड़ा बाघ 50

पाँचवाँ पैर मितान के विद्या अउ मितान के धरम 56

छठवाँ पैर सतवंतिन के सत अउ जेठानी मन के परछो 63

सातवाँ पैर जानपांड़े 71

आठवाँ पैर सरग के लाड़ू 82

नवाँ पैर पानी के पइसा पानी म नाक गीस बईमानी म

तथा बाम्‍हन-बम्‍हनिन अउ सात ठन

रोटी के बँटवारा 90

दसवाँ पैर चियाँ अउ साँप तथा

कुकरी अउ चियाँ 99

ग्‍यारहवाँ पैर अपन-अपन करम-कमई, अपन-अपन भाग 105

बारहवाँ पैर मालीघोरी के कुकुर देवता 116

तेरहवाँ पैर करहीभदर के माता बहादुर कलारिन 122

चौदहवाँ पैर पहटिया, परेतिन अउ नकटानाच 142

पँद्रहवाँ पैर शिवनाथ नदिया के अवतार कथा 155

सोलहवाँ पैर मुसुवा अउ ढेला तथा

बरमासी आल्‍हा 162

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पहिली पैर

जड़कला के दिन रहय। बियारा म धान मिंजई के काम चलत रहय। घर तीर बियारा-डोली। डोली के मंझोत ल बने चिक्‍कन छोल के, बहर-लीप के बियारा बनाय गे हे। चारों मुड़ा खरही रचाय हे। बीच म बियारा हे, जेमा पैर डलाय हे। रतनू ह बेलन हांकत हे। कालिच्‌ गाँव बनाइन हें। आज मिंजाई के काम शुरू होइस हे। ये ह पहिली पैर आय। रतनू ह बेलन ल पहिलिच ले संम्‍हरा के,सुधार- सुधरी के राखे रिहिस, तभो ले आज ये ह गंज पदोवत हे। येती बइला मन घला दंवत हें। रतनू के जीव ह हदास हो गे हे। फेर सोचथे - साल भर के छुटल काम, आदमी होय के गरवा, टकर होय बर टेम तो लागहिच्‌?

अभी एको कोड़ान नइ होय हे। एक कोड़ान होही, तहां ले बेलन ढिलाही। पहाती, चरबज्‍जी फेर बेलन फंदाही। छोटकुन खरही; एकेच्‌ पैर के लाइक रिहिस हे। अन्‍न माता ह जभे कोठी म सकलाथे, तभे वो ह किसान के कहाथे। दूसर दिन सांझ-रात के होवत ले सकला जाही। रात म बियारा के रखवारी करे बर पड़ही। रतनू ह एक तीर दू ठन खरही के सेंध म कांड़-बांस ल बने खापखुपी के झाला बनाय हे। राजेश ल झाला सुते के गजब संउख। ''बाबू! महु ह तोर संग झाला म सुतहूँ''; कहिके झाला बनात देखे हे, तब ले टेक धरे हे।

कुड़कुड़ात ठंड म हाँथ-पाँव सेंके बर कहस, बिड़ी सिपचाय बर कहस कि बियारा म अंजोर करे बर कहस; रतनू ह झाला के आगू म बीता भर के गड्ढा कोड़ के भुर्री बना देय हे। एक ठन ठुड़गा ल धरा दे हे ओमा। सुलगत-सुलगत म सुलगथे ठुड़गा मन ह; अभी बड़ दंवत हे। झिटीझाटा के रहत ले बरथे; तहाँ ले धुँगिया ह मार दंदोरथे।

डेरहा बबा ह बिलांकिट ओढ़ के भुर्री तीर बइठे हे। ठुड़गा के गुंगुवाई म वहू ह हलाकान हो गे हे। तीर-तखार के ढेंखरा मन के झिटीझाटा ल सकेल के राखे हे; ठुड़गा ह गुंगुवाय बर धरथे तहाँ ले झट ले विही ल डार देथे।

सोरियात-सोरियात नंदगहिन ह घला आ गे। दुनों डोकरी-डोकरा मिल के हिसाब लगावत हें। डेरहा बबा ह कहिथे - ''पंदरही धरही एसो के मिजई ह। बहरानार के खरही ह एसो तीन पैर होही तइसे लगथे, बाम्‍हन चक के खरही ह घला तीन पैर होही, दू पैर ऊपर चक के अउ दू पैर धरसा वाले डोली के। आन साल ले कबार ह जादा हे, गाड़ा डेड़ गाड़ा अगराही तइसे लागथे।''

नंदगहिन ह कहिथे - ''लइका ह जब ले सियानी करत हे, तब ले साल पुट दू बीजा के बढौतरी होतेच्‌ हे। बिचारा ह रात जाने न दिन, घाम जाने न पियास; रांय-रांय कमातेच रहिथे। भगवान ह घला देखथे; मेहनत के फल ल तो देबेच्‌ करही।''

डेरहा बबा ह कहिथे - ''बने कहिथस डोकरी; बेटा ह सोला आना हे हमर। नइ ते आजकल के लइका मन खेती-किसानी म कहूँ चेत करथें?''

वोतका बेर सायकिल टायर के सिली ढुलात राजेश ह आगे। डोकरी दाई के तीर म बइठत-बइठत कहिथे - ''बबा! तुमन ल माँ ह जें बर बलावत हे।''

''तोर बाबू ह बेलन ढीलही तब संघरा खाबोन बेटा; जा, तोर माँ ल कहि देबे। अउ तंय ह जा, इहाँ बिलम झन, पढ़बे-लिखबे ।'' नाती के गजब दुलार, नंदगहिन ह राजेश ल अपन कोरा म लपटात कहिथे।

''हमू ह तुँहर मन संग खाबों।''

''त जा, पढ़बे।'' बबा ह कहिथे।

''सब ल पढ़-लिख डारे हन। याद तको कर डारे हन। पूछ के देख ले।''

अनपढ़ डोकरी-डोकरा, काला पूछे? बबा ह कहिथे - ''कोरी भर कुकरी, दर्जन भर हाथी। के ठन गोड़, के ठन आँखी? जल्‍दी बता।''

''परीक्षा म अइसन ह थोड़े आथे।''

''दिख गे न तोर पढ़ाई ह?''

राजेश ह अंगरी म हिसाब लगाथे। मति ह चकरा जाथे। कहिथे - ''हिसाब लगा के काली बताहूँ। आज ले न कहानी सुना।''

''तोर बर तो रोज-रोज कहानी। तोर डोकरी दाई ल नइ कहस, विही ह सुनाही।''

डोकरी के मन घला कहानी सुने बर होवत रहय। कहिथे - ''लइका ह कहत हे, त नानमुन सुना नइ दव।''

बबा ह कहानी शुरू करिस। ''एक ठन ढेला रहय अउ ...

''नइ, नइ.... दूसरा वाले कहि। नानचुक म भुरिया झन। येला हम जानथन।'' राजेश ह रेंध मता दिस।

''जानथस ते बता भला?''

राजेश ह बताय के शुरू करिस -

ढेला, पत्‍ता अउ पानी-बड़ोरा

एक जंगल रहय। जंगल म बेंदरा, भालू, बघवा, चितवा, कोलिहा, हुंड़रा, कोटरी-हिरना; नाना परकार के जनावर अउ तोता, मैना, बगुला-कोकड़ा, कोयली, मयूर; नाना परकार के चिरई-चिरगुन रहंय।

विही जंगल म एक ठन ढेला अउ एक ठन पत्‍ता घला रहंय। दुनों म पक्‍का मितानी रहय। दुनों मितान एक-दूसर ल देखे बिन नइ रहि सकंय। संघरा रहंय, संघरा खावंय, संघरा किदरंय। बखत परे म जी-परान दे के एक-दूसर के मदद करंय। धूंका-बंड़ोरा आतिस, पत्‍ता ह उड़ाय लगतिस, तब ढेला ह वोला चमचम ले चपक के राखे रहितिस। पानी बरसतिस, ढेला ह घूरे लगतिस त पत्‍ता ह वोला घुमघुम ले ढांप के राखे रहितिस।

एक दिन बंड़ोरा अउ पानी संघरा आ गें। अइसना घला होथे कहिके दुनों मितान सोचे नइ रिहिन। बांचे के कोनो उपाय करे नइ रिहिन। ढेला ह पानी म घूर-घूर के बोहा गे अउ पत्‍ता ह हवा म उड़ा गे।

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कहानी कहे के बाद म राजेश ह बबा ल कहिथे - ''अब तंय ह बता; कोलिहा अउ डोकरी के कहानी ल।''

डेरहा बबा ह मन म सोचथे; लइका ह होसियार हे, सुनथे तउन ल नइ भुलाय। परछो लेय बर पूछथे - ''कहानी ह चाहे छोटे होय कि बड़े; फोकट नइ होय। कोनों न कोनों रहस के बात वोमा अवस होथे। ये कहानी के रहस ल घला बता तब तो।''

राजेश - ''हम नइ जानन। तंय बता।''

बबा - ''बइहा! ढेला अउ पत्‍ता; दुनों के मितानी ह काबर छूटिस? काबर कि अवइया बीपत बर वोमन बिचार नइ करिन। गवघप रहि गें। आदमी ल हर बीपत बर पहिली ले तइयार रहना चाही, नइ ते ढेला-पत्‍ता कस हाल होथे। वोकरे सेती तोला कहिथंव; परीक्षा ह अभी चार महिना बांचे हे ते का होइस, तियारी अभी ले शुरू कर दे, हर काम के जोरा अगुवा के कर लेना चाही, समझे।''

राजेश - ''हव। अब बता न कोलिहा अउ डोकरी दाई के कहानी ल।''

डेरहा बबा ह शुरू करथे, कोलिहा अउ डोकरी दाई के कहानी ल सुनाय के।

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कोलिहा के चतुराई अउ डोकरी दाई के उदिम

एक गाँव म एक झन डोकरी दाई रहय। डोकरी दाई ह अपन बखरी म गजब अकन खीरा, कलिंदर, तरोई, बरबट्टी, जोंधरा, रमकलिया, बोंय रहय। विहिंचे एक ठन उतलंगहा कोलिहा घला रहय। वो ह डोकरी दाई के बखरी के कलिंदर अउ खीरा म पक्‍का पहिधे रहय। आतिस अउ बखरी के बेदरा-बिनास कर के चल देतिस। डोकरी दाई ह कोलिहा के उदबिरिस म थर खा गे रहय। रोज ताके फेर एको दिन नइ सपड़ाय। कोलिहा ह रोजे बुचक जाय। डोकरी दाई ल जीभ निकाल-निकाल के जिबराय अउ मजा लेय।

एक दिन डोकरी दाई ह एक ठन उदिम लगाइस। लासा, मोम अउ लाख के अपने सरीख एक ठन पुतरी बनाइस अउ मंझोत बखरी म वोला बइठार दिस। रोज के पहिधारे कोलिहा, खीरा-कलिंदर चोराय बर पहुँच गे। डोकरी दाई के भोरहा म पुतरी ल जिबराय अउ खीरा ल टोर-टोर के, टुहूँ देखा-देखा के खाय। पुतरी ह का बोलतिस, का कहितिस? डोकरी के चुप रहइ म कोलिहा ल मजा नइ आवत रहय। वोला गुस्‍सा आ गे। तीर म जा के वोला एक राहपट जमा दिस। कोलिहा के हाथ ह मोम के पुतरी म चिपक गे। छोड़ाय फेर छूटे नहीं। वोकर गुस्‍सा ह बाढ़त जाय, अउ मारत जाय। बारी-बारी कोलिहा के चारों हाथ-गोड़ ह पुतरी म चमचम ले पिचक गे।

डोकरी दाई ह सपट के, झाला ले देखत रहय, कोटेला धर के आइस। कोलिहा ल जी भर के कोटेलिस अउ रूख के पेड़ौरा म बांध दिस। डोकरी दाई ह वोला रोज संझा-बिहाने कोटेलय। कोटेला के मार खा-खा के कोलिहा ह ढुम-ढुम ले फूल गे।

एक दिन कोलिहा ल एक ठन खेखर्री आवत दिखिस; सोंचिस, अब मोर काम बन गे। दुरिहच्‌ ले जोहारिस - ''जोहार ले जी सगा।''

खेखर्री ह ढुम-ढुम ले फूले कोलिहा ल देख के डर्रा गे, कहिथे - ''तंय तो कोलिहा सरीख दिखथस जी। धोखा देय बर मोला तंय सगा कहत हस?''

कोलिहा ह थाप मारिस, किहिस - ''मंय ह कोलिहा नो हंव जी, तोरे सरीख खेखर्री आवंव। मोर मालिक ह मोला रोज घीव-शक्‍कर, खीर-तसमइ अउ दूध-मलाई खवाथे, तउने सेती मंय ह घुस-घुस ले मोटा गे हंव।''

खेखर्री ह कोलिहा के थाप म आ गे, दूध-मलाई के लालच म पड़ गे; कहिथे - ''आज भर तंय मोला अपन जघा रहन देबे का जी, महूँ ह दूध-मलाई के मजा ले लेतेंव।''

कोलिहा के तो भाग खुल गे। मनेमन गजब खुश होइस फेर ऊपरछाँवा कहिथे - ''काली तंय मोला धोखा तो नइ देबे न?''

कोलिहा के नरी म बंधाय डोरी ल खोल के खेखर्री ह अपन नरी म बांध लिस। दूध-मलाई के लालच म रात भर वोकर मुँहू ले लार बोहावत रिहिस।

बिहने डोकरी दाई ह खेखर्री ल देख के सोच म पड़ गे कि कोलिहा ह ओसक के खेखर्री कइसे बन गे? कोटेला म बजाय लागिस। खेखर्री के करलई हो गे। कोलिहा ह लुका के तमाशा देखत रहय। कहिथे - ''दूध-मलाई के सुवाद ह बने लागिस नहीं जी सगा?''

डोकरी दाई ह कोलिहा के चालाकी ल समझ गे। खेखर्री के डोरी ल छोरत कहिथे - ''तंय ह कोलिहा के फांदा म कइसे फंस गेस रे खेखर्री?''

खेखर्री ह रोवत-रोवत कहिथे - ''घीव-शक्‍कर, खीर-तसमइ अउ दूध -मलाई के लालच म पड़ गेव डोकरी दाई।''

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''दार-भात चूर गे, मोर कहानी पूर गे। अब बता, ये कहानी ले तंय का सीखेस?'' डेरहा बबा ह राजेश ल पूछथे।

राजेश - ''लालच नइ करना चाहिये।''

डेरहा बबा - ''अउ काकरो बारी-बखरी के उदबिरिस घला नइ करना चाहिये। चोरी करइ ह अपराध आय अउ पाप घला आय। चोर ल पकड़े बर डोकरी दाई कस उदिम खेलना अउ वोला सजा देना जरूरी हे।''

राजेश - ''बबा, बबा! 'महादेव के भाई सहादेव' कहानी ह तो घला अइसने हे।''

डेरहा बबा - ''कहवइया-कहवइया अउ देस-राज के हिसाब ले कहानी मन के रंग-रूप म भेद हो जाथे। तंय बने कहत हस। फेर वोती देख; तोर बाबू ह बेलन ढ़ीलत हे। वो कहानी ल काली कहिबो। घर जा, बेलन ढिला गे कहिके तोर माँ ल बता देबे।''

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nूसर पैर

दूसर दिन, अतकिच बेरा; डोकरा बबा, डोकरी दाई अउ नाती के बैठक फेर जम गे। राजेश ह कहिथे - ''बबा, बबा! 'महादेव के भाई सहादेव' के कहानी सुनाहूँ केहे रेहेस; सुना न।''

डेरहा बबा - ''सुनाहूँ; फेर काली के बिसकुटक सवाल के जवाब ल तंय पहिली दे।''

राजेश - ''अठ्‌यासी ठन गोड़ अउ चौंसठ ठन आँखी तो होथे।''

डेरहा बबा - ''कतिक ल कथे अठासी जी?''

राजेश - ''आठ आगर चार कोरी गोड़ अउ चार आगर तीन कोरी आँखी; अब जानेस।''

नाती के जवाब सुन के बबा ह खुश हो गे, फेर ऊपरछाँवा कहिथे - ''सरल असन पुछे रेहेंव, तउन पाय के जान गेस। अब पूछत हंव तेकर जवाब ल भला बता?''

राजेश - ''बिसकुटक वाले झन पूछ न, दूसर वाले पूछ।''

डेरहा बबा - ''दुसरच्‌ वाले पूछत हंव, सुन। दू झन कुकुर मन मितान बदे रहंय। ..

''कुकुर मन ह मितान बदे रहंय?'' राजेश बीच में चेंधियारिस।

''हव जी, मितान बदे रहंय। गली म कुकुर मन ल संघरा घूमत नइ देखे हस का? चेंधार मत, धियान लगा के सुन। दू झन कुकुर मन मितान बदे रहंय। खोर म किंजरत रहंय। रस्‍ता म एक ठन कुकुर ल दू ठन मुठिया रोटी मिल गे। बांटहीं ते वो मन ल के-के ठो रोटी अभरही, बता?''

राजेश - ''एक-एक ठो तो अभरही।''

''बड़ जान गेस मार। बने सोच के काली बताबे। अब सुन, 'महादेव के भाई सहादेव' के कहानी ल।'' बबा ह कहिथे अउ सुनाय के शुरू करथे।

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(डोकरी दाई अउ कोलिहा के कहानी ल बहुत झन मन ह 'महादेव के भाई सहादेव' कहिके एदइसने घला लमाथें, सुनव - कुबेर)

महादेव के भाई सहादेव

एक ठन कोलिहा रहय अउ एक ठन हाथी रहय। दुनो झन महापरसाद बदे रहंय। हाथी के पानी पियई ल देख के कोलिहा ल बड़ अचरज होय। सोंचे - 'मंय ह खोंची अकन पानी ल घला नइ पी सकंव अउ ये ह कोटना-कोटना पानी ल एके सांस म कइसे पी डारत होही? का होही येकर पेट म?'

एक दिन दुनों मितान घूमत-घूमत कटकटाय जंगल म पहुँच गिन, जिहाँ न तो चिरइ ह चांव करे अउ न तो कंउवा ह कांव करे। घाम-पियास के बेरा रहय, कोलिहा ल पियास लग गे। पानी खोजे के गजब कोसिस करिन, फेर कोनों जगा पानी नइ मिलिस। कोलिहा ह ढेंचरा मारिस - 'मितान! बिन पानी के अबक-तबक मोर परान ह निकले परत हे, कइसनों करके मोर परान ल बंचा।'

हाथी ह सोंचथे; 'धीरज, धरम मित्र अरु नारी, बीपत काल परखिये चारी।' बीपत म मित्र के मदद करना जरूरी हे। कोलिहा ल कहिथे -''मितान मंय ह मुँहू ल फारत हंव। तंय मोर पेट भीतरी खुसर जा। भर पेट पानी पी लेबे अउ विही रद्‌दा निकल आबे। फेर तंय अपन दुनों आँखी मन ल मुंदे-मुंदे जाबे अउ वइसनेच मुंदे-मुंदे आबे। आजू-बाजू, खाल्‍हे-उप्‍पर झन देखबे।''

कोलिहा ह मने-मन गजब खुस होइस। फेर ऊपरछांवा रोनहू बानी बना के, भगवान के दसों ठन किरिया खा के कहिथे - ''झपकुन फार मुँहू ल मितान, मोर अबक-तबक होवत हे।''

हाथी भल ल भल जानिस, सोंड़ ल ऊपर डहर टांगिस अउ मुँहू ल उला दिस। कोलिहा ह मितान के आगू म झपकुन दुनों आँखीं मन ल मुंदिस अउ भुस ले वोकर पेट म खुसरगे।

कोलिहा ह उहाँ सोसन भर पानी पीइस। पियास ह बुताइस तहाँ सोंचथे; मितान ह काबर केहे होही, 'आँखी मन ल मुंदे-मुंदे जाबे अउ वइसनेच मुंदे-मुंदे आबे।' जरूर कोनों न कोनों रहस होही। देखे जाय भला, का रहस हे येमा।

कोलिहा ह आँखीं मन ल उघार के देखथे, पेट के करेजा मन ह मार लाल-लाल दिखत रहय। मने मन कहिथे; जा! एकरे खातिर बरजे रिहिस हे, 'आजू-बाजू, खाल्‍हे-उप्‍पर झन देखबे।' घरे म भोजन, घरे म पानी, मन भर के करहूँ जजमानी। का करहूँ बाहिर निकल के।

कोलिहा ह हाथी के पेट म बिलम गे।

कतिक बेर मितान ह निकलही कहिके हाथी ह मुँहू ल फार के खड़े हे। अब्‍बड़ बेरा हो गे, कोलिहा ह निकले के नाम नइ लेवत हे। हाथी ह मन म सोंचथे; कोलिहा मितान के मन म कहूँ पाप तो नइ अमा गे? कहिथे - ''मितान, झपकुन निकल।''

भीतर ले कोलिहा ह कहिथे - ''घर म चारा, घरे म पानी; डट के करहूँ मंय जजमानी। मोला अपने सरीख मूरख समझथस का? काबर निकलहूँ?''

हाथी ह कोलिहा के बड़ अरजी बिनती करिस। मितानी के वास्‍ता दिस। भगवान के किरिया खाय रिहिस तेकर सुरता कराइस; फेर सब बेकार। हाथी ह चुरमुरा के रहिगे; का करतिस बिचारा ह?

कोलिहा ह हाथी के जम्‍मों करेजा ल चीथ-चीथ के खा डरिस। बिना करेजा के कते परानी ह जी सकही? हाथी ह मर गे। बाहिर निकले के रद्‌दा ह बंद हो गे। कोलिहा ह वोकर पेट भीतरी धंधा गे। बाहिर निकले बर रद्दा खोजे, कहाँ मिलतिस वोला रद्दा? पेट भीतर ले वो ह हाथी ल गजब गारी-बखाना करत हे। उल्‍टा विही ल दोसी बनात हे। कहत हे - ''तोर जइसे धोखाबाज मितान दुनिया म अउ कोनों नइ होही रे बईमान। तोर नीयत के खोंट ल मंय ह का जानतेंव? तंय तो मोला खाय बर सोंचे रेहेस। काबर उलाबे मुँहू ल?''

मरे हाथी के पेट म खुसरे-खुसरे कोलिहा ल अकबकासी लगे त वो ह रहि-रहि के नरियाय - ''जुग बुड़त हे, जुग बुड़त हे।''

वोतका बेर विही डहर ले माता पारबती अउ शंकर भगवान मन जावत रहंय, कोलिहा के चिल्‍लई अउ गोहार पार के नरियई ल सुन के माता पारबती ह कहिथे - ''कोनों परानी ह मुसीबत म परे हे। 'जुग बुड़त हे, जुग बुड़त हे' कहिके गोहरावत हे। वोकर मदद करना चाही।''

शंकर भगवान ह कहिथे - ''दुनिया म कतरो परानी ह अइसन मुसीबत म परे रहिथें। 'जुग बुड़त हे, जुग बुड़त हे' कहिके गोहार पारने वाला कतरों हें; कतका के परान ल बचाबे?''

माता पारबती ह कहिथे - ''नहीं भगवान! जभे येकर परान बचाबे, तभे मंय ह आगू जाहूँ।''

शंकर भगवान ह कहिथे - ''नारी ले देवता हारी।'' घूम-घूम के चारों मुड़ा ल देखथे, कोनों नइ दिखे। कहिथे - ''कोन अस, काबर चिल्‍लात हस, आगू आ।''

हाथी के पेट भीतर ले कोलिहा ह कहिथे - ''तंय कोन अस, पहिली तंय बता।''

''मंय तो महादेव आंव।''

''मंय ह महादेव के भाई सहादेव आंव। तें ह महादेव आवस त पानी गिरा के बता।''

महादेव ह गुसिया गे। तुरते सूपा के धार अतका पानी गिरा दिस। पानी परे ले मरे हाथी के पेट ह फूल गे। मुँहू ह उल गे। अतका ल तो कोलिहा ह देखत रहय। भुस ले निकलिस अउ पल्‍ला दे के भागिस।

महादेव ह सब बात ल समझ गे। कहिथे - ''रहा रे चंडाल, तोर तो मजा ल बताहूँ।'' धरे बर पिछलग्‍गा भागिस, फेर कहाँ पहुँचातिस कोलिहा के पूछी ल? वो दिन कोलिहा ह बुचक गे।

महादेव ह घला वोकर ऊपर बानी लगा दिस। मितान संग दगा करइया पापी ल भला कइसे छोड़ दिही? नदिया के जउन घाट म कोलिहा ह पानी पिये बर जाय विंहिचे वो ह मंगर बन के लुका गे। घटौधा म कोलिहा ह जइसने पानी पिये बर गिस, मंगर रूप महादेव ह वोकर गोड़ ल चमचमा के धर लिस।

कोलिहा ह मटका के कहिथे - ''तंय ह कउहा के जर ल धर ले हस, अउ कोलिहा के गोड़ ल धरे होहूँ सोचत होबे। तोर ले उजबक आउ कोन होही?''

शंकर भगवान ह सोचथे - कहूँ सिरतोनेच म कउहा के जड़ ल तो नइ घर परे हंव? वो ह मुँहु ल थोरकुन उला दिस। कोलिहा ह अतकच ल तो खोजत रहय। जंगल कोती भागिस पल्‍ला।

महादेव ह फेर चुचुवा के रहि गे। गजब उदिम करिस, फेर कोलिहा ह वोकर सपड़ म नइ आइस। सोचिस - ललचहा मन ल फांदे बर लालच बताना जरूरी हे। एक दिन वो ह मैन के पुतरी बनाइस, डिक्‍टो डोकरी दाई कस; अउ चरिहा-पर्रा म चना-मुर्रा धरा के रस्‍ता म वोला बइठार दिस। कोलिहा ल ताकत अपन ह ओधा म सपट गे।

थोकुन पाछू कोलिहा ह घूमत-फिरत विही रस्‍ता म आथे। मैन के डोकरी-दाई अउ वोकर आगू म माड़े चना-मुर्रा ल देख के वोकर मुँहू ह पनछिया गे। कहिथे - ''ये डोकरी दाई! दे न वो, चना-मुर्रा।''

कोलहा ह दू-चार घांव ले तिखारिस। मैन के पुतरी ह का बोलतिस। मारे गुस्‍सा के कोलहा ह तरमरा गे। खींच के राहपट डोकरी के गाल म लगाइस। कोलिहा के हाथ ह मैन म चिपक गे। दुसरा हाथ म झपड़ाइस; वहू ह चिपक गे। अइसने करत वोकर चारों गोड़-हाथ ह चिपक गे। कोलिहा ह अब भागतिस ते भागतिस कहाँ, तरमरा के रहि गे। महादेव ह अराम से आथे, अउ कहिथे - ''जय राम जी, महादेव के भाई सहादेव। जुग ह बूड़त हे कि ऊवत हे?''

महादेव ह कोलिहा ल मन भर के कोटेला म कोटेलिस अउ तरिया पार के पीपर पेड़ तरी वोला कांसड़ा म कंस के बांध दिस। तीर म कोटेला ल मड़ा दिस अउ गाँव भर म हांका परवा दिस कि नहवइया मन आती-जाती ये कोलिहा ल एक-एक कोटेला कोटेलंय।

दिन भर के मार खवई म कोलिहा ह ढुम-ढुम ले फूल गे। रात कुन विही डहर घूमत-घूमत एक ठन दुसरा कोलिहा ह पहुँच गे। ढुम-ढुम ले फूले कोलिहा ल देख के वो ह सोंच म पर गे, कि अतका मोटाय बर ये ह का खावत होही? पूछथे - ''सगा! का माल-पानी झड़कथस? कइसे अतका मोटाय हस?''

''चल रे जीछुट्टा, अपन रद्दा नाप। हमर मालिक ह रोज हमला घींव-मलाई, हलवा-पूरी खवाथे कहिके बता दुहूँ तहां ले तंय ह नंगाय बर नइ आ जाबे? बईमान कही के। जा, नइ बतान।''

घींव-मलाई, हलवा-पूरी, के नाव सुन के दूसर कोलिहा के लार टपके लगिस। फूलहा कोलिहा के चाल ल वो का जाने? सोचथे, भोकवा ह नइ बतांव कहत हे अउ वोती बतावत घला हे। कहिथे - ''आज भर तंय ह अपन जगा ल मोला दे दे भाई; घींव-मलाई, हलवा-पूरी, के सुवाद ल थोकुन महूँ ह ले लेतेंव।''

फूलहा कोलिहा ह अतकच्‌ ल तो खोजत रहय, मनेमन गजब खुस होइस, फेर ऊपरछांवा कहिथे - ''अपन पेट म भला कोन ह लात मारथे? फेर तोर करलई ल देख के मोला तोर ऊपर दया आवत हे। एकेच्‌ दिन बर मंय तोला अपन जगा ल देवत हंव। देख बईमानी झन करबे। झपकुन मोर गर के गेरुआ ल छोर, अउ अपन गर म बांध ले, कोनों देखे झन।''

दूसर कोलिहा ह फुलहा कोलिहा के गर के गेरुआ ल छोर के अपन गर म बांध लिस। दूध-मलाई अउ खीर-पूरी के लालच म रात भर वोकर मुँहू ले लार बोहावत रिहिस।

बिहने महादेव ह कोलिहा ल ओसके देख के सोच म पड़ गे कि ये रात भर म कइसे ओसक गे? कोटेला म मनमाड़े बजाय लागिस। कोलिहा के करलई हो गे, कहिथे - ''मोला झन मार ददा, मे ह दूसर आंव।''

फूलहा कोलिहा ह लुका के तमासा ल देखत रहय। जिबरा के कहिथे - ''दूध-मलाई के सुवाद ह बने लागिस नहीं जी सगा?''

महादेव ह फूलहा कोलिहा के चतुराई ल समझ गे। कहिथे - ''तंय ह फूलहा कोलिहा के फांदा म कइसे फंस गेस रे?''

दुसरइया कोलिहा ह रोवत-रोवत कहिथे - ''घीव-शक्‍कर, खीर-तसमइ अउ दूध-मलाई के लालच म पड़ गेव महराज, मोला छोंड़ दे।''

महादेव ह कहिथे - ''छोंड़े बर छोंड़हूँ, फेर मोर एक ठन बात माने बर पड़ही तोला। राजी हस?''

''सब बात ल मानहूँ महराज, फेर मोला छोड़ दे।'' दुसरइया कोलिहा ह हाथ जोर के कहिथे।

''चार पहर के रात होथे न? एक-एक पहर ह बीतत जाही अउ तंय ह हांका पारत जाबे, समझे।'' महादेव ह कहिथे।

''हव महराज पारहूँ।'' दुसरइया कोलिहा ह कहिथे।

महादेव ह कोलिहा ल ढील देथे। विही दिन ले कोलिहा मन ह रात भर म चार घांव ले हुँआ, हुँआ, कहिके नरियाथें।

दार-भात चूर गे, मोर कहानी पूर गे।

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कहानी के पूरत ले राजेश ह गजब कठल-कठल के हाँसिस। आखिर म कहिथे - ''कोलिहा ह हाथी के पेट म खुसरिस त अकबका के मरिस कइसे नहीं?''

''हत्‌! बइहा कहीं के। कहानी म अइसन बात ल नइ सरेखे जाय। ज्ञान के बात ल सरेखे जाथे। ये कहानी ले ज्ञान के का बात निकलथे; बता भला?''

''हाथी ले सीख मिलथे कि मुसीबत म मित्र के मदद जरूर करना चाही। फेर कोलिहा सरीख बेईमानी नहीं करना चाही।''

''हाँ! मित्र संग बइमानी करइया ल भगवान ह जरूर सजा देथे।''

''कोलिहा मन विही सजा ल आज ले भुगतत हें न बबा?''

''हाँ........।''

''ले न अब एक ठन जनउला कही।''

''तोर डोकरी दाई ल आथे, एक से एक जनउला । वोकर पूछल जनउला ल हम तो आज तक नइ बता सकेन; बता सकबे त तहीं ह पूछ ले।''

बबा के बात ल सुन के नंदगहिन डोकरी दाई ह तुनक गे। कहिथे - ''बुड़गा हो गेव तिहाँ ले ठट्ठा मड़ाय बर नइ छोंड़ेव। लइका लोग के लिहाज-मरजाद ल घला नइ राखव। कुकुर के पूछी ह कभू सोझियाही? टेड़गा के टेड़गा।''

डोकरी के तुनकई ल देख के नाती-बुढ़ा, दुनों झन कठल गें। डोकरी ह अपने अपन भुनभुनात घर कोती निकल गे। येती डोकरी दाई के मुँहू ले, कुकुर के पूछी वाले बात ल सुन के राजेश ल बबा के सवाल के सुरता आ गे। कहिथे - ''बबा! कुकुर मन रोटी ल के-के ठन बाँटिन; बता न?''

''काली बने सोंच के तिहिंच्‌ ह बताबे। तोर बाबू ह बेलन ल ढ़ील डरिस। जेवन के बेरा हो गे। अब घर चल।'' बबा ह कहिथे।

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तीसर पैर

मिंजई शुरू होय आज तिसरइया दिन आय। बियारा म नाती-बुढ़ा के कथा-कंथली जमथे कहिके सुनिस ते गनेसिया भौजी ह घला कथरी ओढ़ के थथमिर-थथमिर करत पहुँच गे। अँधियार रहय तिहाँ ले डेरहा बबा ह दुरिहच्‌ ले ओरख डारिस। कहिथे - ''आ भउजी बइठ।''

नंदगहिन ह पेरा के पिड़हा ल गनेसिया डोकरी डहर सरकावत पूछिस - ''जें डरेव दिदी? का साग रांघे रिहिस हे बहू ह? ले बइठ।''

गनेसिया - ''कमइया मन के आय बिना कइसे खा लेबे बहिनी। साग ल पूछेस? लाखड़ी भाजी तो रांधे हे बहू ह।''

''लाल मिरी अउ तिली के फोरन म बड़ मिठाथे, एकोदिन हमरो घर रांधतेव भला।'' डेरहा बबा ह कहिथे।

नंदगहिन ह गुरेरिस - ''जादा लालच झन करे कर। सियाना सरीर म लाखड़ी भाजी ह नइ सहे। डागदर बाबू ह का केहे हे, भुला गेस?''

''हव भइ, सुरता हे, हमला नइ सहे। तोला सहि जाथे, काबर कि तंय तो मोटियारी हाबस न।'' बबा ह अंजेरी मारिस।

''अइ, कब खावत देखे हस? गजब के आभा मारत हस।'' दाई ह भड़किस।

वोतकी बेरा बटकी म का-का समान धर के देवकी अउ राजेश, दुनों महतारी बेटा घला पहुँच गें। देवकी ह कहिथे - ''मुठिया रोटी ए। बंगाला चटनी संग तात-तात खा लेव।''

मुठिया ल लाल मिरी के फोरन दे के बघारे रहय। सोंध बगरसि ते सब के मुँहू ह पनछिया गे।

देवकी ह राजेश ल कहिथे - ''जा बेटा, तंय खा डरे हस; बेलन हांकबे। तोर बाबू ल भेजबे, वहू ह खा लेही।''

देवकी ह सब झन ल कटोरी म मुठिया रोटी परोस दिस।

मुठिया के नास्‍ता होइस तहाँ ले कथा-कंथली फेर शुरू हो गे। बेलन हंकाल के आय रहय, स्‍वेटर पहिरे रहय तिहाँ ले राजेश ह कुड़कुड़-कुड़कुड़ कांपत रहय। दुनों डोकरी के बीच म आ के खुसर गे। राजेश ल जाड़ म कुड़कुड़ात देख के डोकरी दाई ह वोला अपन कोरा म ओधा लिस।

डेरहा बबा ह राजेश ल कहिथे - ''त.. काली के सवाल के जवाब सोंचेस जी मितान?''

गनेसिया ह कहिथे - ''अई! का सवाल ए, हमू ला नइ बताव।''

डेरहा बबा - ''अप्‍पड़ बर थप्‍पड़, पढ़इया-लिखइया बर सवाल। सुन के का करबे।''

गनेसिया तुनक के कहिथे - ''मत बता बबा, फेर पच्‍चर झन मार।''

''राम, राम! माई लोगन के रिस ह तो नाक के फुलगी म बइठे रहिथे। तहूँ ह सुन ले रे भई। दू झन कुकुर मन मितान बदे रहंय। खोर म किंजरत रहंय। रस्‍ता म एक ठन कुकुर ल दू ठन मुठिया रोटी मिल गे। बांटहीं ते वो मन ल के-के ठो रोटी अभरही, बता?''

''अई! कुकुर मन ल कभू बाँट के खावत देखे हव? जेन पाइस तेकरे हो गे रोटी ह। दुनों कुकुर म झगड़ा मात गिस होही।''

''सुने जी मितान? जवाब ह सही हे कि गलत हे?'' बबा ह राजेश ल कहिथे - ''आदमी होतिन तब बाँट बिराज के खातिन। बाँट बिराज के खाना आदमी के गुन आय, कुकुर मन के नहीं।''

राजेश - ''बबा! जउन मन बाँट के नइ खावँय, तउन मन कुकुर होथें का?''

''अब ये बात ल तँही ह गुन। बँटवारा अउ कुकुर के बात सुन के मोला एक ठन कहानी के सुरता आ गे; सुनव।''

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पंच मन के धरम-नियाव

एक गाँव म दू भाई रहंय। बड़े ह पक्‍का देंहचोर, आलसी, बेईमान अउ एक नंबर के धोखेबाज रहय। कभू खेत नइ जाय, छोटे के कमाई म फुटानी मारय, फुदरय अउ गली-गली मेंछराय। छोटे ह रात-दिन जांगर-टोर कमाय।

खेत म गहूँ के बिरता ह सोना कस पिंवराय रहय। कनिहा भर-भर के पेड़ म खुम-खुम ले बाली भराय रहय। देख के बड़े के नियत ह डोल गे।

बड़ मयारुक भाई कस छोटे ल पुचकार के, दुलार के कहिथे - ''भाई! मंय ह कतका दिन ले तोर कमाई ल खा-खा के मजा उड़ाहूँ? बँटवारा हो जातेन, अपन ऊपर आतिस त महूँ ह कमाय बर सीख जातेंव।''

गरुवा ताय छोटे ह, बड़े भाई के थाप म आ गे।

बड़े ह बाँटे के शुरू करिस। किहिस - ''भाई! तंय आवस सबर दिन के कमइया, सबो खेत ल तंय रख ले; बिरता-बिरवाँ मन ह मोर होही। टेंड़ा अउ कुआँ ह तोर ए, पानी ह मोर ए। खेत रखवार ये कुकुर के एक ठन घउवाहा गोड़ ह तोर ए, तीनों बने गोड़ मन मोर ए।''

छोटे ह भल ला भल जानिस, बड़े के बात ल कभू नइ काँटय, राजी हो गे।

रात म छोटे ह कुकुर संग खेत राखे बर गे रहय। भुर्री बार के तापत रहंय। छोटे ह कुकुर के घउवहा गोड़ म दवा लगा के फरिया म बांध दे रहय, विही फरिया म आगी धर लिस। कुकुर ह कुईं-कुईं करत गहूँ के खेत म खुसर गे। रनाय गहूँ, भुर-भुर ले बर गे।

बिहाने बड़े ह बइसका सकेल डरिस। पंच मन ल भाई बँटवारा के सबो बात ल अउ गहूँ खेत के घटना ल बता के अर्जी-बिनती करिस, किहिस - ''ददा हो! मोर छोटे भाई ल मंय ह बने कहत रेहेंव, फेर वो ह पक्‍का बेइमान निकलिस। मोर गहूँ के होरा भूँज दिस। मोर नियाव ल कर देव।''

पंच मन छोटे के बात ल घला सुनिन। बड़े के चालबाजी ल समझ गिन। मुखिया ह फैसला सुनाइस - ''भई हो! ककरो खेत के बोंता-बिरता म आगी लग जाना किसान के मुड़ी म बजरा गिरे बरोबर होथे। फेर एमा छोटे के कोनो गलती नइ दिखय। कुकुर ह जउन गोड़ मन म रेंग के खेत म खुसरिस, वो गोड़ मन तो बड़े के आवंय। गलती उँखरे मन के आवय।''

फैसला सुन के बड़े के आँखी ह उघर गे। अब छोटे भाई संग वहू ह मेहनत करे लगिस।

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कहानी ल सुन के राजेश ह कहिथे - ''भाई संग ठग-जग नइ करना चहिये न बबा?''

''ककरो संग नइ करना चाही। ठग-जग करे म पाप होथे।'' डोकरी दाई ह कहिथे।

''अउ नियाव करत समय पंच मन ल खाली नियाव के बात सोंचना चाही। तभे तो पंच परमेसर के मान रही।'' बबा ह बात ल पुरोथे। ''पंच मन के, राजा मन के धरम होथे नियाव करना, अपन-पराया देख के नियाव नइ करना चाहिये। एक झन नियायिक राजा के किस्‍सा अउ सुनव।''

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राजा के धरम-नियाव

एक झन गजब धरमात्‍मा अउ नियायिक राजा रहय। बड़ सुंदर वोकर रानी रहय। कातिक के महीना म रानी ह एक दिन अपन चेरी मन संग पुन्‍नी नहाय बर नदिया गिस। होत बिहिनिया के बात आय। जाड़ के मारे सब कोई लुदलुद-लुदलुद कांपत रहंय। सबर दिन के सुखियारिन; नदिया ले नहा के निकलिस तहाँ ले रानी के कंपई नो हे। रानी ह चेरी मन ल कहिथे - ''भुर्री जलाव न गोई हो, ठंड के मारे मोर परान ह निकले जावत हे।''

चेरी मन एती-वोती देखिन, खोजिन, न तो कहूँ झिटीझाटा मिलिस अउ न कहूँ पेरा-भूँसा मिलिस। थोरिक दुरिहा म एक ठन झाला दिखिस। सब के सब विहिंचे पहुँचिन। झाला के आगू म एक ठन गोरसी माड़े रहय। गोरसी म पलपला भराय रहय फेर वोतका म काकर जाड़ ह बुझातिस? झाला के भीतरी झांक के देखिन, झाला म अलवा-जलवा समान भर दिखिस, कोनों मनखे नइ दिखिस। एती-वोती हुँत पारिन, कोनों आरो नइ मिलिस।

रानी ह कहिथे - ''कोनो मंगइया-झंगइया के झाला होही, मांगे बर निकल गे होही। ये झाला ल भुर्री बारो, तापे म मजा आही।''

चेरी मन ह झाला के खदर ल निकाल के गोरसी के पलपला म सिपचाइन अउ झाला ल बार दिन। खदर, अउ डारा-पाना के बनल झाला, तुरत भरभर-भरभर बरे के शुरू हो गे। रानी अउ वोकर चेरी मन ह मन भर के आगी तापिन। बेर चढ़े पीछू सब के सब महल लहुट गिन। झाला ह राख बन गे।

गरीब ह लहुटिस त झाला के हालत ल देख के गजब देर ले कलप-कलप के रोईस। कोन वोकर आँसू पोछय?

रानी ह आगी तापे बर झाला ल बारे हे; जान के वोला गुस्‍सा घला आइस; फेर का करतिस बिचारा ह? फेर वोला अपन राजा के नियाव ऊपर भरोसा रिहिस। राजा ह कतिक नियायिक हे येकरो परछो मिल जाही, अइसने सोच के वो ह राजा के दरबार म फरियाद करे बर चल दिस।

गरीब के झाला ल बार के भुर्री तापे के काम ल रानी ह करे हे; ये जान के राजा ल गजब दुख होईस।

रानी ल दरबार म बला के दरियाफ्‍त करे गिस। रानी ह गरब म राजा ल कहिथे - ''महाराज! येमा आप अतका दुखी काबर होवत हव? वोला झाला के बदला म घर बना के दे दव न।''

राजा ह सोचथे, रानी ल धन के गजब घमंड हे। येला मेहनत के मोल के ज्ञान नइ हे। एक ठन झाला बनाय बर गरीब ल कतका तकलीफ होथे, कतका मेहनत करे बर पड़थे, येला ये ह नइ सोचत हे। राजा ह फैसला सुनाइस - ''गरीब के झाला ल भुर्री बार के रानी ह खाली अपराधेच्‌ भर नइ करे हे, महा पाप घला करे हे। ककरो घर-कुरिया ल उझारना सबले बड़े पाप आय। रानी बर इही सजा हे कि आज ले वो ह रानी के सवांगा ल उतार देय। गरीब के सवांगा पहिर के महल ले निकल जाय, रोजी मजूरी करे, गरीब के झाला ल जस के तस बना के देय। राज भर म हांका परवा दिया जाय कि फोेकट म रानी के मदद कोनों जनता झन करंय, अइसन करइया मन ह सजा के भागी बनहीं। झाला के बनत ले ये गरीब ह महल म रही। जउन दिन रानी ह येकर झाला ल बना के दिही, विही दिन वो ह महल म आही अउ रानी के पदवी ल फिर से पाही।''

राजा के नियाव ल सुन के जय-जयकार हो गे। रानी ह घला समझदार रिहिस हे। वोला अपन गलती के अहसास हो गे। राजा ल प्रणाम करके, बनिहारिन के भेस म निकल गे महल ले।

कातिक के महीना; कड़कड़ंउवा जाड़ा के दिन। न जठाय बर जठना रहय, न ओढ़े बर कथरी रहय। न खाय के ठिकाना, न रहे के ठिकाना। सेज-सुपेती म सुतने वाली। महल म रहने वाली। मुँहू ले निकलत देरी नइ, दसों नौकर चाकर काम करे बर हाजिर हो जावंय। बनिहारी के तो बातेच्‌ झन कर, कभू आड़ी के कांड़ी नइ करे रहय रानी ह; वोकर दुख-तकलीफ के पारावार नइ हे। सजा के डर, कोन वोकर मदद करतिस? जांगर के सिवा अब वोकर तीर का हे? ककरो एक ठन कांड़ी ल छूना घला अब वोकर खातिर अपराध हो गे हे।

रानी ह बनीभूती करके, मेहनत कर करके, तिनका-तिनका जोड़े के शुरू करिस। घाम-पियास म सुखा के हाड़ा-हाड़ा हो गे रानी ह; फेर शरीर ह जस-जस सुखावत जाय, रानी के शरीर म नवा ताकत; जिंदगी के लड़ाई ल लड़े के ताकत आवत जाय। गोरा बदन ह करिया पड़ गे; फेर मन ह वोकर उज्‍जर हो गे। गरीब के दुख-तकलीफ ल, मेहनत के महत्‍तम ल धीरे-धीरे समझत हे रानी ह।

समय के चक्‍कर ह कभू थमथे क? दिन बीतिस, हफता बीतिस, महीना बीतिस। धीरे-धीरे करके साल बीत गे। रानी ह बनीभूती करके, मेहनत करके, अउ खून-पसीना के कमाई के एक-एक ठन पइसा ल जोड़-जोड़ के, वो गरीब के झाला ल जस के तस बना के खड़ा कर दिस। गरीब के लत्‍ता-कपड़ा, बरतन-भांड़ा अउ जतका चीजबस ह भसम होय रिहिस, वो सब जिनिस ल बिसा के लान दिस अउ राजा के दरबार म जा के हाजिरी दिस।

राजा ह कहिथे - ''अभी तोर सजा ह नइ पूरे हे। ये गरीब ह, तोर बनावल झाला ल देख के जब संतुष्‍ट हो जाही, तब तोर सजा ह पूरा होही।''

वो गरीब ल लेग के रानी के बनावल झाला ल देखाय गिस अउ वोकर संतुष्‍ट होय के बाद रानी के सजा पूरा माने गिस।

राजा के आज्ञा अनुसार रानी के राजसी वस्‍त्र हाजिर करे गिस।

रानी ह कहिथे - ''हे महाराज, अइसन सजा सुना के तो आप मन ह मोर ऊपर उपकार करे हव। ये सजा ह तो मोर खातिर वरदान बन गे अउ वरदान म मंय दुनिया के चारों पदारथ मन ल पा गेंव। अब ये वस्‍त्र-आभूषण के का जरूरत हे? जनता के धन ह जनता के काम म लगना चाही महाराज। हे महाराज! ये सजा ह तो मोर बर तपस्‍या बन गे अउ वो तपस्‍या म मोला चारों वेद, छहों शास्‍त्र अउ अठारहों पुरान के ज्ञान हासिल हो गे। ये तपस्‍या म मंय ह मुक्‍ति के मारग ल पा गे हंव। राजसी सुख के बंधन म बंधना अब का उचित हे महाराज? अभी मंय जइसने हंव, जउन हालत म हंव, विही हालत म मोला स्‍वीकार करो महाराज।''

राजा ह रानी के जवाब ल सुन के गदगद्‌ हो गे। जनता मन राजा-रानी ऊपर फूल के बरसा करे लगिन। चारों तरफ राजा-रानी के जयजयकार होवन लगिस। सब के सब हाँसत-खेलत दिन बिताइन। रानी ल जइसन ज्ञान मिलिस, वइसना सब ल मिलय। दार-भात चूर गे, मोर कहानी पूर गे।

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राजेश ह पूछथे - ''बबा, बबा! राजा-रानी घर धन-दौलत के का कमी? राजा ह अपन खजाना ले वो भिखारी बर दूसरा झाला बनवा देतिस। रानी ल अइसन सजा दे के वोला अतका दुख काबर दिस?''

डेरहा बबा - ''तोर डोकरी दाई मन दिन भर चुटुर-चुटुर मारत रहीथें। दुनिया भर के गोठ ल गोठियावत रहिथें। अभी दुनों झन बइठे हें, विही मन ल नइ पूछस।''

डोकरा के अंजेरी बात ल सुन के डोकरी मन फेर भड़क गें। नंदगहिन ह अपन मुँहू ल मुरकेटत कहिथे - ''इही ल कहिथें - चिपरी ल भांव नही, चिपरी बिना रहांव नहीं। बात-बात म हमला धिरोथे बहिनी। जिनगी ह पहा गे, जब देखबे तब टेंचरहिच्‌ गोठ ।''

गनेसिया ह लड़ेरे बरोबर करिस। किहिस - ''ठंउका ताय। कोनों अदमी ल अतका गिरा के बात नइ करना चाही। रानी ह तो खुदे कहत हे, तोर सुनावल सजा ह मोर बर बरदान बन गे, तपस्‍या बन गे; येमा सोंचे के अउ का बात हे।''

डोकरी मन के तुनकई ल देख के दुनों बुढ़ा-नाती खुलखुल-खुलखुल हाँसत रहंय। डेरहा बबा ह कहिथे - ''सुने नहीं जी मितान, तोर डोकरी दाई के जवाब ल?''

राजेश ह कहिथे - ''नहीें, नहीें! तंय बता न?''

डेरहा बबा ह कहिथे - ''वोती देख, बेलन ढिला गे। काम बंद, कहानी बंद। सोच के बताबे काली। अउ सुन, ठुड़गा मन गंज गुंगुवाथे, काली मुंधियार होय के पहिलिच्‌ झिटीझाटा सकेल के राखबे।''

सब झन जेवन करे बर घर कोती चल दिन।

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चौंथा पैर

मिंजई शुरू होय आज चौंथइया दिन हे। बियारा म बेलन चलत हे। भुर्री तीर डेरहा बबा अउ नंदगहिन दाई, दुनों झन बइठ के आगी तापत हें। दुनों झन गनेसिया डोकरी के रस्‍ता देखत रहंय। वोतका बेर कमरा ओढ़ के, कान-नाक ल गमछा म बने चमचम ले बाँध के, बिड़ी के धुँगिया उड़ात, खाँसत-खाँसत अउ गोटानी टेंकत मनसुख डोकरा पहुँच गे। दुरिहच्‌ ले कहिथे - ''राम-राम भइया। भउजी ल महभारत के कथा सुनावत हस ग।''

डेरहा बबा ह मनसुख के आरो ल ओरख के कहिथे - ''जोहार ले मनसुख भइया। जिनगी ह तो खुदे एक ठन महभारत ए जी, सुनत-सुनत तो दिन पहा गे, का वोकर कथा ल सुनाबे? आ बइठ।''

''ठंउका केहेस भइया।''

नंदगहिन ह इसारा ल समझ गे। कहिथे - ''रंग भल, ते संग भल। माहिल के कमी रिहिस, पहुँच गे लढ़ारे बर।''

''तोर सरीख मयारूक भउजी अउ कहाँ मिलही। तोर गोठ ल सुने बर जी ह तरसत रहिथे। विही पाय के आ गेन रे भइ।''

''तोर बहिनी तीर नइ जातेस, मीठ-मीठ गोठ सुने बर। सरम आथे कि नइ आय? मोर घर निकाला कराय बर आय हस?''

मनसुख डोकरा के हँसी छूट गे। हाँसत-हाँसत वोला फेर खाँसी आ गे।

वोतका बेर गनेसिया ह घला ठुठरत-ठुठरत आ गे। आते साठ मुठा भर पेरा ल भुर्री म डार दिस। कहिथे - ''छि दई, एसो के जाड़ म कोन जाने मरबोन ते बांचबोन?''

डेरहा बबा ह मनसुख ल कहिथे - ''गजब खोखत हस जी?''

''तिहीं ह बने करेस भइया, बिड़ी ल छोड़ देस ते। मोर से तो छूटेच्‌ नहीं।़़''

राजेश ह अपन बाबू संग बेलन हाँकत रहय, सब मन ल सकलावत देख के बेलन ले कूदिस अउ उलानबाँटी खेलत वहू ह आ गिस।

डेरहा बबा ह राजेश कोती इसारा करत कहिथे - ''हमर मितान के कमाल ए रे भई। बता बेटा, बिड़ी-माखुर वाले मन बर तोर गुरूजी ह का कहिथे?''

राजेश - ''हमर गुरूजी ह कहिथे कि बिड़ी-माखुर म केंसर होथे। पियइया मन के धुँगिया तीर बइठइया मन ल घला होथे। तंय ह बीड़ी पीबे ते हम ह तोर तीर म नइ बइठन।''

''ले ददा नइ पीयन।''

''एको दिन झन पीबे तब तो।''

मनसुख ह कहिथे - ''तोर आघू म नइ पियंव बाप।''

डेरहा बबा ह मनसुख ल कहिथे - ''कहाँ गे रेहेस जी, दिखउल नइ देत रेहेस?''

''झन पूछ भइया। बेंदरा मन के मारे जी ह हदास हो गे हे। खार-भर म बसेरा करें हे। मेंड़ म राहेर हे, मिलखी मारत देरी नहीं, दोरदिर ले आ जाथें। राखे बर जाथंव।''

बेंदरा के बात ल सुन के राजेश ह कहिथे - ''बबा! आज बेंदरा वाले कहानी ल सुना न।''

''सुनाहूँ, फेर काली वाले सवाल के जवाब ल तो पहिली बता।''

''तंय बता न।''

''बइहा! वइसन सजा नइ देतिस तब रानी ह मेहनत के महत्‍तम ल कइसे समझतिस। गरीब के दुख ल का समझतिस? अब सुनव बेंदरा अउ बांड़ा बघवा के कहानी।''

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मयारुक बेंदरा अउ बांड़ा बाघ

जंगल म एक ठन लड़रिया बेंदरा रहय। कोरी अकन बेंदरी अउ कोरी-खांसर वोकर पील-पांदुर रहय। दिन भर ये पेड़ ले वो पेड़, ये डारा ले वो डारा कूदंय, खेलंय, पाका-पाका चार तेंदू खावंय अउ बड़ मजा म जिनगी गुजारंय।

एक दिन बेंदरा ह अपन परिवार संग ये जंगल ले वो जंगल जावत रहय। कोन जनी कते निर्दयी मानुष ह सुघ्‍घर अकन एक झन नोनी लइका ल नार-फूल सहित फेंक देय रहय। लकलक ले तिपे घाम; रोवत-रोवत लइका ह अबक मरों तबक मरों हो गे रहय। देख के बेंदरा-बेंदरी मन ल दया आ गे। बेंदरी मन लइका ल टुप ले गोदी म उठा लिन, अपन घर ले आइन। बेंदरी मन अपन दूध ल पिया-पिया के वो नोनी लइका ल नान्‍हे ले बड़े कर डारिन। अब तो विही मन ह वोकर दाई ददा हो गें।

केहे गे हे - 'समय जात नहि लागहिं बारा।' दिन जावत बेर नइ लगय। नोनी ह सज्ञान हो गे।

विही जंगल म एक झन बाबू ह रोज लकड़ी काँटे बर आवय। एक दिन नोनी संग उरभेट्टा हो गे। दूनों झन एक दूसर ल मन भर के देखिन अउ एक दूसर ऊपर मोहा गें। बेंदरी-बेंदरा मन ये बात ल जानिन ते वहू मन खुश हो गिन; किहिन हे भगवान! तोरो माया ह अपरंपार हे, घर बइठे दमाद मिला देस। हम बेंदरा के जात, दमाद खोजे बर कहाँ जातेन?

बेंदरी-बेंदरा मन बेटी के बिहाव के जोरा करे के शुरू कर दिन। जंगल भर घूम-घूम के पाका-पाका, मीठ-मीठ तेंदू सकेलिन, मउहा सकेलिन, चार सकेलिन। चार-चिरौंजी के लाड़ू बनाइन। मरार बारी ले हरदी लाइन, मंऊर लाइन। कंड़रा घर ले बिजना-पर्रा लाइन। कुम्‍हार घर ले करसी लाइन। कोष्‍टा घर ले तेलचग्‍घी अउ धोती-लुगरा लाइन। जंगल भर के बेंदरा-भालू, बघवा-चितवा मन ला नेवता दिन।

बेंदरी मन बेंदरा ल कहिथें - ''बघवा-चितवा मन ल नेवता दे के गलती कर परेन। वो मन हमर बेटी-दमाद ल देखहीं त छोड़हीं थोड़े?''

नेवतार मन के आय के पहिलिच जल्‍दी-जल्‍दी हरदी तेल चढ़ाइन, सात भाँवर पारिन अउ बेटी दमाद ल विही तीर एक ठन झुक्‍खा कुआँ रहय तउन म लुका दिन। कुआँ के मुँहू म डारा पतउआ तोप दिन।

जंगल भर के बेंदरा-भालू, बघवा-चितवा, हिरना-कोटरी, हुंड़रा, कोलिहा, हाथी, खरगोश, सब के सब मांदी म बइठे हें; चार-चिरौंजी के लाड़ू झड़कत हें। सब ल मजा आवत हे फेर शिकार खवइया बघवा मन ला चार-चिरौंजी म का मजा आतिस?

एक झन बंड़वा बघवा आय रहय तउन ह अपन मितान, कनवा बघवा ल कहिथे - ''अड़बड़ मनखइन-मनखइन ममहावत हे जी मितान।''

कनवा ह कहिथे - ''ठंउका कहिथस जी मितान; रहा देखथंव भला।'' कनवा ह कुआँ म लुकाय-बइठे बेटी-दमाद मन ल देख डारिस; मनेमन कहिथे - ''तुंहर मांदी खाय बिना हमला कइसे मजा आही।''

बिहान दिन बेंदरा मन ह बेटी-दमाद के बिदा कर दिन। बिदा करत खानी सब के सब बेटी ल पोटार-पोटार के खूब रोइन; खूब आशीर्वाद दिन।

हाथ म धनुष-बान अउ खांद म टंगिया धर के आगू-आगू बाबू ह अउ मुड़ी म मोटरी बोहे पीछू-पीछू नोनी ह अपन गाँव कोती जावत रहंय। आधा दुरिहा गेय रिहिन होहीं, नोनी ह कहिथे - ''बघवइन-बघवइन बस्‍सावत हे जोह़ी, रुख-राई म चढ़बोन तभे हमर परान ह बाँचही।''

बाबू ह घला कहिथे - ''बने कहिथस गोई, जल्‍दी कर। कनवा बघवा ह काली हमन ल देख डरे हे; वोकरे करनी होही।''

दुनों झन उत्‍ताधुर्रा एक ठन बड़े जन कउहा पेड़ म चढ़ गिन।

कनवा अउ बंड़वा, दुनों बघवा मन नोनी-बाबू के ताक म रस्‍ता म लुका के बइठे रहंय। बंड़वा ह कहिथे - ''अब कइसे करबोन मितान, वो मन तो रूख म चढ़ गें?''

कनवा ह कहिथे - ''फिकर झन कर। दुनों झन सोसन भर के खाबोन सोंचे रेहेंव, अब सब झन मिल के खाबोंन।''

कनवा ह जंगल भर के बघवा मन ल सकेल डरिस। सबो बघवा मन सकला गें। छलांग मार-मार के देखिन फेर नोनी-बाबू ल नइ पहुँचाइन। सब मिल के दूसर उदिम सोचिन। सब एक दूसर के खांद म चढ़त गिन। सब ले खाल्‍हे बंड़वा रहय अउ सब ले ऊपर कनवा।

नोनी-बाबू मन सोंचथे, अइसन म तो कनवा ह हमन ला अमर डारही; का करन? नोनी ह कनवा बघवा डहर देख के कहिथे -

''आ रे कनवा, तोला तो अब नइ छोंड़ों।

तोर दुसरइया आँखी ल फोड़ोंच्‌ फोड़ों॥''

बाबू ह कहिथे -

''दे तो बाई तेंदू सार के डंडा ल।

नइ छोडं़व आज तरी के बंडा ल॥''

बंड़वा ह डर्रा के भागे लगिस। सब के सब बघवा मन दोरदिर ले गिर गें। ककरो हाथ टूटिस त ककरो गोड़; ककरो मुड़ी फूटिस त ककरो कनिहा टूटिस। रोवत-कांखत सब जतर-कतर हो गें।

नोनी-बाबू मन उतरिन अउ हाँसत-गावत अपन गाँव गिन।

''दार-भात चूर गे मोर कहानी पूर गे।''

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कहानी ल सुन के राजेश ह गजब खुश होइस। कहिथे - ''बबा! नानचुक लइका ल कोन ह जंगल म फेंके रिहिस होही? बेंदरा मन ह आदमी के लइका ल कइसे पोसिन होहीं?

बबा - ''बइहा हस जी तहूँ ह। लइका ल कोन ह फेंकही? आदमिच्‌ ह तो फेंकही। फेर जेकर छाती म हिरदे के जघा पथरा होही, वइसने पापी मन अइसन काम ल कर सकथें। अउ रहि गे सवाल कि आदमी के लइका ल बेंदरा-भालू मन कइसे पालिन-पोसिन होही? तब ये ह कोनों अनहोनी बात नोहे। दुनिया म अइसन कतरो होए हे। जउन ल हम खतरनाक जानवर कहिथन, उँखरो छाती म हिरदे होथे। वहु मन म परेम, मया अउ दुलार होथे।''

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पाँचवाँ पैर

पाँचवा दिन बबा के बैठक फेर जम गे। सबो सुनइया मन जुरिया गें। डेरहा बबा ह कहिथे - ''ले मनसुख, आज तंय ह कछू कहीं सुना दे।''

मनसुख डोकरा ह कहिथे - ''मोला कुछू नइ आय भइया, काला सुनाहूँ?''

डेरहा बबा ह कहिथे - ''हत्‌! बइहा कहीं के। अइसन नइ बोलना चाही। अलवा-जलवा जउन भी आथे; वोला कहे म संकोच नहीं करना चाही। वो राजकुमार के किस्‍सा ल नइ सुने हस का?''

मनसुख - ''कते राजकुमार के?''

डेरहा बबा - ''तब सुन।''

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मितान के विद्‌या अउ मितान के धरम

राजकुमार अउ देवान के बेटा, दुनों झन पक्‍का मितान रहंय। एक दिन अपन-अपन घोड़ा म चढ़ के अउ भेष बदल के, दुनों मितान देस घूमे बर निकलिन। घूमत-घूमत रात हो गे। एक ठन सराय म ढार परिन। रात कुन देवान के बेटा ह राजकुमार ल कहिथे - ''मितान! नींद नइ परत हे, कुछु किस्‍सा-कहानी सुना न, तंय तो अब्‍बड़ जानथस।''

राजकुमार ल नींद आवत रहय, कहिथे - ''मोला तो एकोठन कहानी नइ आवय मितान, काला सुनावंव।''

देवान के बेटा ह गजब करलइ करिस। राजकुमार ह सुनाबेच नइ करिस अउ लघियांत सुत गे। देवान के बेटा ह घला मिटका दिस। जठना म ढलगे रहय फेर वोला नीद नइ आय रहय।

राजकुमार के कहानी-विद्या मन ह बाहिर निकले बर कलकलात रहंय। राजकुमार ह लबारी मार दिस अउ वो मन ल अपन मुँहू ले नइ निकालिस। विद्या मन ह राजकुमार ऊपर भड़क गें, किहिन - ''हत्‌ रे पापी! हमला तंय अपन मुँहू ले नइ निकालेस। निकाले रहितेस ते एक ले दूसर अउ दूसर ले तीसर तीर बगरतेन; हमर बढोत्‍तरी होतिस। जउन आदमी ह अपन विद्या ल नइ बाँटय, दुनिया म वोकर जीना व्‍यर्थ हे, कल बिहाने तंय नइ बांचस।''

विद्या मन के गोठ ल देवान के बेटा ह मिटकाय सुनत रहय। वोकर जी ह धक ले हो गे।

एक ठन विद्या ह कहिथे - ''बिहिनिया मंय ह बड़े जबर करिया केकरा बिच्‍छी बन के वोकर पनही म खुसरे रहूँ। गोड़ ल जइसने खुसेरही, रट ले चटकाहूँ। छिन भर म मुँहू डहर ले गजरा फेंके लगही, सरी देह ह करिया जाही अउ तुरते ये ह मर जाही।''

दुसरइया विद्या ह कहिथे - ''तोर ले बाँच जाही त मंय ह येला नइ छोड़ंव। जउन रस्‍ता म ये मन काली जाहीं, सरी मंझनिया के बेरा ये मन अउ इंखर घोड़ा मन लहकत रहीं, मंय ह अच्‍छा झपाटा रुख बन के रस्‍ता म खड़े रहूँ। सुस्‍ताय बर जइसने ये मन ह मोर छंइहा म आ के बइठहीं; बिना हवा, बिना बंड़ोरा, मंय ह इंखर ऊपर रटरटा के गिर जाहूँ। मोर पेड़ैरा म लदका के ये ह तुरते मर जाही।''

तिसरइया ह कहिथे - ''तुँहर दुनो झन ले बाँचिच्‌ जाही, त ये ह मोर ले नइ बाँच सके। रस्‍ता म एक ठन सुक्‍खा नदिया पड़थे। नदिया नहकत रहीं, बीच नदिया म पहुँचहीं, विही समय मंय ह बइहा पूरा बन के आहूं अउ येला बोहा के ले जाहूँ। हमर गोठ ल कहीं कोनों सुनत होहीं, ते खबरदार! ये भेद ल कहूँ राजकुमार तीर खोलही ते वो ह तुरते पथरा बन जाही।''

दुसरइया विद्या ह कहिथे - ''तब वो ह बने कइसे होही, वहू ल बता दे।''

तिसरइया - ''राजकुमार ह अपन पहिलावत लइका ल नारफूल समेत वोमा चढाही तब वो ह अपन असली रूप म आ सकही।''

देवान के बेटा ल विद्या मन के बात ल सुन के रात भर नींद नइ आइस। सोंच म पड़े रहय कि हे भगवान! अपन मितान के परान ल मंय कइसे बचाहूँ?

बिहने होइस। दुनों मितान चले बर तियार हो गें। राजकुमार ह पनही पहिरे बर जावत रहय। देवान के बेटा ह कहिथे - ''रुक जा मितान, पनही ल पहिली झर्रा के देख ले। भीतर म का पता कोनों कीरा-मकोड़ा खुसरे बइठे होही?''

राजकुमार ह पनही ल झर्राइस। बड़े जबर करिया बिच्‍छी ह भद्‌ ले गिरथे। राजकुमार ह कहिथे - ''बहुत बड़ अलहन ले आज तंय मोला बचायेस मितान।''

दुनों मितान अपन-अपन घोड़ा म सवार हो के जावत रहंय। जेठ-बैसाख के दिन। सुरुज ह लूक बरसात रहय। तात-तात बंड़ोरा चलत रहय, भुंइया ह लकलक ले तिपे रहय। कोनों जगह, न तो एको ठन रुख-राई रहय, न नरवा-तरिय, न बूंद भर पानी। भूख-पियास के मारे जीव ह अबक-तबक होत रहय। तभे राजकुमार ल धरसा के कोर म एक ठन बड़ झपाटा रुख दिखथे। रुख तरी घमघम ले ठंडा-ठंडा छाँव रहय। राजकुमार ह कहिथे - ''मितान! येदे रुख छंइहा म थोरकुन सुस्‍ता लेतेन; घाम के मारे परान ह निकले परत हे।''

देवान के बेटा ह कहिथे - ''एक ठन दांव खेलथन मितान, ये रुख के छंइहा ल तंय एके डंका म नहक जाबे तब सुरताबोन, नइ ते नइ सुरतान।''

राजकुमार ल ताव आ गे। अपन घोड़ा ल अइसे एंड़़ लगाइस के वो ह हवा हो गे। अइसे दंउड़िस के एके डंका म वो ह रुख छँइहा के ये पार ले वो पार नहक गे। जइसने नाहकिस, वइसने रुख ह रझरझ ले जड़ सुद्धा उलंड गे।

राजकुमार ह सोचथे, हे भगवान! न हवा, न गरेर, ये रुख ह जोरगिस कइसे। येकर भेद ल मितान ह जरूर जानत होही; तभे तो वो ह मोर संग दांव खेलिस, मोर परान ल बंचाइस? पूछथे - ''मितान! बिना हवा-गरेर, बिना बंडोरा, ये रुख ह कइसे जोरगिस?''

देवान के बेटा ह कहिथे - ''ठंउका केहेस मितान, इही ल तो महूँ सोचत हंव। फेर अभी जादा सोंचे के समय नइ हे, सांझ होय के पहिली, बेरा रहिती हमला राजधानी पहुँचना हे, चल घोड़ा ल दंउड़ा।''

रस्‍ता म एक ठन नदिया हबर गे। धाप भर के वोकर पाट रहय। बूंद भर पानी नइ, ये पाट ले वो पाट रेतिच्‌ रेती। देवान के बेटा ल तिसरइया कहानी के बात के सुरता रहय। सोंच म पड़े रहय, मितान ल अब कइसे बचाँव? कहिथे - ''मितान! तोर घोड़ा ले मोर घोड़ा ह जादा ताफुड़ हे। येकर चाल ल तोर घोड़ा ह नइ पा सके।''

राजकुमार ल फेर ताव आ गे। कहिथे - ''अइसन बात हे, त हार-जीत खेल लेथन। नदिया ल कोन आघू नहकथे, पता चल जाही।''

देवान के बेटा ह तो अतकच्‌ चाहत रिहिस। कहिथे - ''चल फेर, देरी मत कर।''

दुनों मितान अपन-अपन घोड़़ा ल अइसे एड़ लगाइन कि घोड़ा मन हवा बरोबर उड़े लगिन। आगू-आगू राजकुमार हे अउ पीछू-पीछू देवान के बेटा। कभू ये अगवाय, त कभू वो अगवाय। देवान के बेटा ह उपरंउस डहर देखथे, पाट भर के बइहा पूरा ह सनसन-सनसन करत आवत रहय। दुनों मितान लटपट पाट म चढ़िन हे अउ बइहा पूरा ह सनसन-सनसन करत धमक गे।

राजकुमार ह फेर सोंच म पड़ गे; न बिजली, न बादर, न पानी; बइहा पूरा कहाँ ले आ गे? आज तीन घांव ले मोर मितान ह मोर परान बचांय हे। सबो के भेद ल वो ह अवस जानत होही। पूछथे - ''मितान! आज बिहिनिया ले बड़ विचित्र अनहोनी होवत हे। तीन घांव ले तंय ह मोर परान ल बंचाय हस। इंखर भेद ल तंय अवस जानथस। जभे बताबे तभे मंय आगू रेंगहूँ।

राज हट के बाल हट; देवान के बेटा ह राजकुमार ल कहिथे - बताहूँ मितान, फेर महल पहुेँचे के बाद बताहूँ।

राजी-खुशी दुनों मितान घर पहुँचिन। राजकुमार ह कहिथे - ''अब तो तोला सरी भेद ल बतायेच्‌ बर पड़़ही मितान, नइ ते मंय ह अन्‍न-जल तियाग देहूँ।''

''बताय बर बताहूँ मितान, फेर भेद ल जइसे-जइसे बतात जाहूँ, मोर सरीर ह पथरा बनत जाही। सोच ले।''

''येकर कुछू उपाय तो घला होही मितान?''

''हाबे! फेर कर सकबे का?''

''ये जिंदगी ह अब तोर हो गे हे मितान, परान दे के घल उपाय करहूँ।''

''तब सुन, तोर पहिलांत लइका होही तउन ल नार-फूल समेत मोर पथरा के सरीर म चढ़ाय बर पड़ही।'' अइसन कहिके - देवान के बेटा ह सरी भेद ल बताय के शुरू करथे। जइसे-जइसे बतात जाय, वोकर सरीर ह पथरा बनत जाय। आखिर म वो ह पूरा के पूरा पथरा के बन गे।

राजकुमार ह घला जबान के पक्‍का रहय। जइसने वोकर पहिलांत लइका होथे, रानी ल रोवत-कलपत छोड़ के, नार-फूल समेत लइका ल धर के आ जाथे।

पथरा बने मितान म लइका ल जइसने चढ़ाय बर होथे, वोकर तीनों ठन विद्या मन परगट हो जाथें अउ देवान के बेटा ल जिया देथें। कहिथें - ''हम तो तुँहर मितानी के परछो लेवत रेहेन। तुँहर मितानी ह पक्‍का हे।''

दुनों मितान मन अपन-अपन घर-परिवार सहित हँसी-खुसी दिन बिताइन।

''दार-भात चुर गे, मोर कहानी पूर गे।''

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कहानी ल सुन के राजेश ह कहिथे - ''बबा! हमर कक्षा म गुरू जी ह कोठ म लिखे हे - विद्या धन खर्च करने से बढ़ता है।''

डेरहा बबा - ''अउ 'विद्या दान महा दान' कहिके नइ लिखे हे?''

राजेश - ''हाँ, वइसनो लिखाय हे।''

डेरहा बबा - ''एक बात अउ हे। अनुभो के बात हे। पनही के भीतरी में कीरा-मकोरा, सांप-बिच्‍छू खुसरे रही तउन ल का जानबे? वोकरे सेती पहिरत खानी वोला बने झर्रा के देख लेना चाही। रूख-राई के छंइहा म बइठत खानी वोकर जर ल देख लेना चाही अउ नदिया-नरवा नाहकत बेरा बीच म जा के नइ बिलमना चाही, समझे?

थोरिक थिरा के डेरहा बबा ह कहिथे - ''मनसुख! ले भइ अब तंय ह कुछू सुना।''

मनसुख ह कहिथे - ''मोला तो भई बरमासी आल्‍हा भर आथे, कहिहव ते एको दिन विही ल सुना देहूँ। आज तो भल बेर हो गे हे। अब घर चला जाय।''

डेरहा बबा - ''कस जी मनसुख, का दवाई खाएस जी, आज तो एको घांव नइ खाँसेस।''

मनसुख - ''ददा के डर कि बबा के डर। मितान के डर म काली ले बिड़ी ल हाँथ नइ लगाय हंव। वोकरे सेती होही।''

डेरहा बबा - ''अब तहूँ ल समझ मे आ गे तइसे लगथे।''

जाड़ म कुड़कुड़ात सब अपन-अपन घर के रद्‌दा धरिन।

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छठवाँ पैर

दिन म सब पैर निकालथें, धान ओसाथें तब डेरहा बबा ह ठेलहा बइठे रहिथे का? ठेलहा बइठइया जीव नोहे बबा ह। अपन लाइक कुछू न कुछू बूता जोख डरथे। आज तो पेरा ल गूँथ-गूँथ के तीन-चार ठन पेरा-पिड़हा बना डरे हे। ससुर-जेठ के रहत ले बहू मन बर बइठे के काम आथे।

नंदगहिन डोकरी ह घला कोनों कम हिसाबी नइ हे? भुर्री बर गजब अकन ले झिटीझाटा अउ छिलपा सकेल के राखे हे। दुनों डोकरी-डोकरा मन विही ल आज भुर-भुर जलावत बइठे हें। दुनों के बीच म बइठे हे बड़े सियान, राजेश मितान।

वोतका बेर मनसुख अउ गनेसिया डोकरी घुम-घुम ले कथरी ओड़ के आ गे। जय-जोहार करके बइठिन। डेरहा बबा ह कहिथे - ''अब्‍बड़ कलर-बिलिर माते रिहिस हे जी तुँहर पारा म? काकर घर झगरा होवत रिहिन?''

मनसुख - ''विहिंचे ले तो आवत हंव भइया। का करबे, दुनिया म भाँति-भाँति के लोग हें।''

गनेसिया - ''मंडल पारा के वो छुछुवाही हर नोहे। खुद तो पाटी पारे दुनिया भर छुछुवात रही अउ काली के आवल बिचारी छोटकी ल रात-दिन झगरा मतात रही। मरना नइ आय राँड़ ल।''

डेरहा बबा - ''काकर घर देरानी-जेठानी के झगरा नइ होवय?''

गनेसिया - ''होथे बाबू, फेर अइसन नइ होय। देवर ह भेलाई म कमाय बर गे हे। हफ्‍ता-पंदरा दिन म आथे। येती वो छिनार ह देरानी के बारा बजात हे, बारा हाल करत हे।''

डेरहा बबा - ''भगवान ह सब ला देखथे। वोकरो दिन बहुरही, जइसे सतवंतिन के दिन बहुरिस।''

राजेश - ''अच्‍छा, आज सतवंतिन के कहानी सुनाबे न बबा?''

डेरहा बबा - ''अब लाइन-रद्‌दा बन गे, त सुनव भइ सतवंतिन के कथा।''

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सतवंतिन के सत्‌ अउ जेठानी मन के परछो

एक झन सतवंतिन रहय, सात झन भाई के एक झन दुलौरिन, सबले छोटे। भउजी मन के आँखी के पुतरी कस; बड़ मयारुक, बड़ सुकुमारी, फूल कस, परी कस। पराया धन बेटी, समात ले भाई-भउजी के कोरा म समाइस, खेलिस, दुनिया भर के मया-दुलार पाइस। बाबुल के कोरा म बेटी ह कब तक समाही? एक न एक दिन कोरा ह छोटे होइच्‌ जाथे। भाई मन बड़ उछाह-मंगल से बहिनी के बिहाव कर दिन।

बड़ सुंदर दुल्‍हा रहय सतवंतिन के; गजब मया करे सतवंतिन ल। फेर जेठानी मन तो डायन रिहिन, देवर-देरानी के सुख ऊँखर आँखी म गड़े लगिस। झगरा शुरू हो गे।

रोज-रोज, रात-दिन के झगरा के मारे जोड़ी के मन उचट गे। सतवंतिन ल अघर म छोड़ के निकल गे परदेस, व्‍यापार करे बर। जावत-जावत सतवंतिन ल गजब समझाइस - 'सतवंतिन! मोर हिरदे के मया, मोर आँखी के पुतरी, तंय संसो झन कर; बहुत जल्‍दी लहुट के आहूँ ,तोर बिना का मंय जी सकत हँव? गाड़ा भर के पइसा कमा के लाहूँ , नवा घर बनाबोन, नवा दुनिया बसाबोन, सबले अलग, सबले दुरिहा; सबले सुंदर, सबले न्‍यारा जिहाँ बस तंय रहिबे, मंय रहिहू , अउ कोनों नइ रहय।'

पिया ह निकल गे पइसा कमाय बर परदेस; सतवंतिन ल चार-चार झन डायन मन के भरोसा छोड़ के।

जेठानी मन तो कलकलाय बइठेच्‌ रहंय, तपे के शुरू कर दिन। सतवंतिन के दिन गिने के शुरू हो गे। एक दिन निकलिस, दू दिन निकलिस; रस्‍ता निहारत छः महिना निकल गे। जोड़ी के दरसन नइ हे। देखत-देखत आँखी पथरा गे। रोवत-रोवत आँसू सुखा गे। हे जोड़ी अब तो आ जा। मरे के पहिली तोर मुँहू ल एक घांव तो देख लेतेंव।

एक तो जोड़ी के दुख, ऊपर ले जेठानी मन के तपई; सतवंतिन के शरीर ह निच्‍चट हाड़ा-हाड़ा हो गे हे, पिया दरसन के आस म को जनी कते करा जीव ह अटके होही?

बड़े जेठानी के जी कलकलाय रहय, कथे - 'नांगर के न बक्‍खर के,दँउरी बर बजरंगा। अरे छिनार, हमला तपे बर तोर धगड़ा ह तोला इहाँ छोड़ के मुंड़ाय हे। को जनी, साधु बन गे होही कि जोगी? तंय काबर इहाँ हमर छाती म बइठ के दार दरत हस। बइठे-बइठे खाथस, लाज नइ आय?'

मंझली जेठानी तो वोकरो ले नहके हे। छटना भर धान ल ला के सतवंतिन के आगू म भर्रस ले मड़ा दिस। किहिस - 'अरे कलमुँही, बड़ा सतवंतिन बने बइठे हस। बिन बहना, बिन मूसर, बिन ढेंकी के ये धान ल अकेल्‍ला कुट के ला, तब जानबोन कि तंय सिरतोन के सतवंतिन आवस।'

सब झन घर म खुसर गें। संकरी-बेड़ी लगा दिन।

सतवंतिन के सत के परीक्षा हे।

छटना के धान ल मुड़ी म बोही के निकल गे जंगल कोती सतवंतिन ह। बदन म ताकत नइ हे। लदलद ले गरू धान, मुड़ी ह डिगडिग-डिगडिग हालत हे। कनिहा ह लिचलिच-लिचलिच करत हे। माथा ले तरतर-तरतर पसीना बोहावत हे। पेट म अन्‍न के एक ठन दाना नइ परे हे। भूख-पियास म जिवरा ह पोट-पोट करत हे। धकधक-धकधक छाती ह धड़कत हे। बइसाख-जेठ के दिन, मंझनिया के बेरा, धरती-अगास ह तावा कस तिपे हे। आगी के लपट कस झांझ चलत हे।

हे भगवान, हे धरती माई, तोरे सहारा हे; रक्षा कर।

बीच जंगल म बर रुख के छंइहा म बइठ के सतवंतिन ह धार मार-मार के रोवत हे। कोन सुने वोकर रोवइ ल? कोन पोंछे वोकर आँसू ल। न कँउवा काँव करत हे, न चिरई चाँव करत हे।

विही बर रुख म एक ठन बाम्‍हन चिरई ह अपन खोन्‍धरा म बेर ढारत बइठे रहय। सुन पाथे सतवंतिन के कलपना ल। तीर म आ के कहिथे - 'तंय कोन अस बहिनी? का नाव हे तोर? कोन गाँव के दुखियारिन आवस? का दुख पर गे हे तोला कि कटकटाय, बीच जंगल म बइठ के रोवत हस। बघवा-भालू के तोला डर नइ हे?'

सतवंतिन ह कहिथे - 'का दुख तोला बतांव बहिनी। छः महिना हो गे हे, पति ह परदेस निकसे हे। जेठानी मन धान कुटे बर पठोय हें। बिन मूसर, बिन बहना, बिन ढेंकी के ये छटना भर धान ल मंय कइसे कूटंव। एको बीजा चाँउर झन टूटय। का करंव? कइसे अपन सत के परछो देवंव?'

बाम्‍हन चिरई ह सतवंतिन के मुँहू ल देख परथे, हे भगवान, ये तो मोर सतवंतिन गोई आय। येकरे अंगना म खेल-कूद के जिनगी बीते हे। आज ये बीपत म हे, करजा उतारे के मौका आजे हे। कहिथे - 'हत्‌ जकही, एकरे बर तंय जंगल म बइठ के रोवत हस? हमर रहत ले तंय फिकर करथस? ये तो हमर बर छिन भर के काम आवय। घर ले हुंत पारे रहितेस, हम दंउड़ के आय रहितेन। चुप हो जा बहिनी, चुप हो जा। रोवत आय हस, हाँसत भेजबोन। जोड़ी के फिकर करथस, झन कर; सच कहिथंव, तोर जोड़ी घला तोर बिना तरसत हे। गाड़ा भर सोना-चादी, मुंगा-मोती जोर के आवत हे। बड़ जल्‍दी पहुँचने वाला हे। बाम्‍हन चिरई के तंय बिश्‍वास कर।'

बाम्‍हन चिरई मन कभू लबारी बात नइ बोलय। जोड़ी जल्‍दी आने वाला हे? सुन के सतवंतिन के मन हरिया गे।

बाम्‍हन चिरई ह बर रुख के डारा म बइठ के अपन पील-पांदुर मन ल हुंत करात हे - 'अरे आवव रे मोर पील-पांदुर हो, दंउड़ के आवव। हमर सतवंतिन बहिनी ऊपर बजरा बीपत परे हे। छटना भर धान ल अइसे फोलव कि एको बीजा चाँउर झन टूटय। आज तुंहर परछो हे।'

छिन भर म जंगल भर के बाम्‍हन चिरई मन सकला गें। भिड़ गे धान फोले बर। बात कहत चाँउर अलग अउ फोकला अलग।

मिट्ठू मन बात कहत अमरित कस मीठ-मीठ गरती आमा के कूढ़ी लगा दिन। किहिन - 'खा ले बहिनी, जीव जुड़ा जाही।'

सतवंतिन ह खीला-खीला कस छटना भर चाँउर ल बोही के घर लहुट गे। वोकर मन हरियाय हे। जोडी जल्‍दी लहुटने वाला हे, बाम्‍हन चिरई के कहना हे।

देख के जेठानी मन ठाड़े-ठाड़ सुखा गें। सोंचत हें - 'अभागिन ह जरूर कोनों जादू-मंतर जानत होही।'

सतवंतिन के पसीना सुखाय नइ हे, अंतर-मंझली जेठानी ह कहिथे - 'वाह, बड़ सती सतवंतिन नारी हस। जेवन ल घला अपन सत के आगी-पानी म रांध डर? चुल्‍हा कामा जलही, तोर हाथ-गोड़ म? जा जंगल, अउ कतिक सती नारी हस ते बिन डोरी-बंधना के बोझा भर लकड़ी ला के बता।'

सबले छोटे जेठानी ह करसी ल कलेचुप वोकर आगू म ला के मड़ा दिस। एले कस किहिस - 'येदे म पानी घला ले आबे मोर मयारुक बहिनी, जेवन कइसे बनही बिन पानी के? थूँके-थूँक म बरा नइ चूरय।'

सतवंतिन ह करसी ल देखथे, एक आगर एक कोरी टोंका करे हें बइरी मन - 'हे भगवान कइसे लाहूँ येमा पानी?'

सतवंतिन ह निकल गे जंगल कोती। बोझा भर लकड़ी सकेल के बइठे हे भोंड़ू तीर। कलप-कलप के, सुसक-सुसक के रोवत हे, 'कामा बोझा बाँधंव?'

कटकटाय बीच जंगल म, जिहाँ न तो चिरई ह चाँव करत हे न कँउवा ह काँव करत हे। भोंड़ू के नागिन ह सोचथे, सरी मंझनिया के बेरा, कोन दुखियारिन ए, मोर भोंड़ू तीर बइठ के धार-धार रोवत हे? वोला दया आ गे। निकल के देखथे - हे भगवान, ये तो मोर मयारुक सतवंतिन बहिनी आय। दिया भर-भर के मोला रात दिन कतरो दूध पियाय हे। येकर करजा ल आज नइ छूटेंव तो कभू नइ छूट सकंव। कहिथे - 'हे सतवंतिन बहिनी, हमर रहत ले तंय काबर फिकर करथस?'

नागिन ह डोरी बनगे। बोझा ह बंधा गे। सतवंतिन ह हाँसत बदन बोझा भर लकड़ी ल धर के घर आ गे।

हे भगवान, अब टोंड़का करसी म पानी कइसे लाँव?

तरिया के पनिहारिन घाट म बइठ के कलप-कलप के रोवत हे, सतवंतिन ह। हे भगवान अब मोर सहायता करने वाला कोन हे?

घाट के मेंचकी मन कहिथें - हमर रहत ले काबर रोथस बहिनी, झन रो। एकेक ठन टोंड़का म अइसे चमचम ले बइठबोन कि बूँद भर पानी नइ गिरय। चल उठा करसी ल।

करसी भर पानी घला आ गे।

जेठानी मन सोचथे, नारी हो के एक सतवंतिन नारी के परछो ले के बड़ भारी अपराध कर परेन, हे भगवान छिमा करबे।

दिन बूड़े बर जावत हे। सतवंतिन ह जेवन बनाय के तियारी करत हे।

वोती जेठानी मन के चेथी डहर के आँखी मन अब आगू डहर आवत हे। 'हे भगवान! ये का कर परेन? सती सरीख सतवंतिन बहिनी ल बिन अपराध नाना प्रकार ले दुख देयेन, तपेन; क्षिमा करबे भगवान। हमर सतवंतिन सिरतोनेच के सतवंतिन हे।'

चारों जेठानी सतवंतिन ल पोटार-पोटार के क्षिमा मांगत हें।

सतवंतिन के जेवन चुरत हे। वाह, का महमहई बगरत हे जेवन के। गाँव भर महर-महर करत हे।

मिट्ठू मन के अमरित कस आमा घला अपन असर बतात हे। सतवंतिन के कोचराय-अइलाय बदन ह धीरे-धीरे भरात हे, हरियात हे, चेहरा ह फूल कस खिलत हे।

वोती परदेसी जोड़ी के बइला गाड़ी ह घला बियारा म ढिलात हे। बियारा म सब सकला गें। भउजी मन अचरज म बूड़े हे; देखथें, सेठ-महाजन कस दिखत हे देवर ह। गाड़ा भर ठस-ठस ले भराय हे धन-दोगानी ह। सबो परिवार ल देख के परदेसी के मन ह हुलसत हे। आँखी ह चोरी छुपा सतवंतिन ल खोजत हे, हे भगवान! कहाँ हे मोर सतवंतिन ह?

सतवंतिन ह मान करे बइठे हे अपन खोली म।

पाँचों भाई अउ भउजी मन जेवन करे बर बइठे हें। सतवंतिन ह हुलस-हुलस के सब ल जेवन परोसत हे। सब झन कहत हें - 'वाह! आज के जेवन ह तो अमरित कस मिठाय हे।'

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कहानी ल सुनत-सुनत नंदगहिन, गनेसिया अउ मनसुख ह कतरो घांव ले अपन आँसू ला पोंछिन।

गनेसिया ह कहिथे - ''अड़बड़ दुख पाइस बिचारी सतंतिन ह। भगवान ह अइसन दुख कोनों बैरी ल घला झन देवय।''

नंदगहिन - ''चिरइ-चिरगुन मन सरेखा लेइन, रक्षा करिन, तब बिचारी के बनौती बनिस। नइ ते कोन जानी का होतिस बिचारी के?''

राजेश ल संसो होइस। कहिथे - ''चिरई, साँप अउ मेचका मन कइसे मदद करहीं?''

मनसुख - ''असल बात वइसन नो हे जी मितान। अच्‍छा-बुरा के समझ पशु-पक्षी मन म घला होथे। मया-दुलार के भाखा ल वहू मन ह समझथें अउ बखत परे म अहसान के बदला घला चुकाथें। ये तो आदमी हरें, जउन मन गद्‌दारी करथें। पशु-पक्षी मन कभू नइ करंय। वोकरे सेती हमला पशु-पक्षी मन संग घला प्रेम के व्‍यवहार करना चाही।''

डेरहा बबा - ''समझेस जी राजेश मितान? एक बात अउ हे; संकट के घड़ी म धीरज कभू नइ खोना चाही। दुख के पीछू सुख अवस आथे। ले आज इही करा समापन करबोन। काली जल्‍दी आहू।''

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सातवाँ पैर

बबा के बैठका ह जम गे रिहिस। वोती पैर कोड़े के बेरा हो गे रहय। बनिहार मन कोनों हाथ म, त कोनों कलारी म कोड़े के शुरू कर दे रहंय। रतनू ह अपन कलारी ल खोज-खोज के हदास खा गे रहय। काम के बेरा कोन ह टिमाली करे हे कहिके मार बइहावत रहय।

डेरहा बबा ह कहिथे - ''काबर हदास होथस बेटा! पेरावट के डेरी बाजू कोन्‍टा म जा के देख भला।''

रतनू ह जा के देखथे, कलारी ह विहिच्‌ करा पेरावट म ओधे रहय। कहिथे - ''मिलिस ददा! कोन नानजात होही तउन ह ये करा ला के ठो दे हे?''

नंदगहिन दाई ह कहिथे - ''अइसने आदमी ल कहिथे जान पांड़े।''

डेरहा बबा ह कहिथे - ''तहूँ तो तइहा के इहिच्‌ करा बइठे हस, तंय काबर नइ जान सकेस?''

दुनों डोकरी-डोकरा के बाता-चीता ल सुन के गनेसिया ह कहिथे - ''इंखर मन के तो जब देखबे, खिबिरे-खाबर। गोठ-बात ह चाहे चुकुल जाय। तुँहर कुकुरकटायेन ल इही करा छोंड़व अउ जानपांड़े के गोठ-बात ह निकले हे ते आज वोकरेच्‌ कहानी ल सुनाव।''

डेरहा बबा - ''अइसने म तो हमर दिन पहाथे। तब हाँ भइ, अब तो सुनायेच्‌ बर पड़ही; तभे जानपांड़े के रहस ह खुलही।''

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जानपांड़े

एक गाँव म एक झन डोकरी अउ वोकर लेड़गा बेट रहंय।

एक दिन लेड़गा ह कहिथे - ''दाई ओ! दाई ओ! मोर बिहाव कब करबे? मोर संगवारी मन मोला कुँअरबोड़का कहिके कुड़काथें।''

डोकरी - ''अइ हाय! वो मन का जानहीं? बेटा, तहूँ नइ जानस ग; तोर बिहाव तो ननपनेच्‌ म हो गे हे। अब तंय सज्ञान हो गे हस; बहु घला सज्ञान हो गे होही, एकोदिन पठोनी लेय बर चल देबे।''

सुन के लेड़गा ह रुसा गे। कहिथेे - ''दाई, आज ले तंय अतका बड़ बात ल मोर ले लुकायेस। मंय ह अब बाई बिना नइ रहि सकंव। नाव-गाँव, पता-मोहल्‍ला, देस-राज, सब ल बता, पठोनी लाय बर अभीच्‌ जाहूँ। वो ह कोनो डहर भाग-भुगी जाही तब?''

डोकरी - ''अइ, अभीच्‌ कइसे चल देबे बेटा? दिन बादर धराय बर पड़ही, सगा-सोदर, कुटुम-परिवार सब ल पूछे बर पड़ही, नेवता-हिकारी, बाजा-मोहरी, दमउ-दफड़ा, सब लागही।बरात धर के जाय बर पड़ही। अउ तंय भागे-उड़े के बात झन कर, बरे-बिहई ये वो ह, कइसे भाग जाही?''

दाई के गोठ ल सुन के लेड़गा के मुँहू ओथर गे; कब दिन-बादर धराही? कब कुटुम-परिवार ह सकलाही? कब बरतिया जाही? कब दुलही आही? नहीं, अभीच्‌ होना। लेड़गा ह खवई-पियई, गोठ-बात सब तियाग दिस, मुँहू फुलो के, कथरी ओढ़ के, अंधियारी खोली म जा के, झोरकहा खटिया म सुत गे।

डोकरी ह मन म सोचथे, बड़ जिदियहा लइका हे, अपनच्‌े टेक ल पुरोथे। कहिथे - ''उवत-बुड़त के रस्‍ता हे बेटा, अभी ये बेरा हे, न वो बेरा हे। पर राजा के राज परथे। बिना रोटी-पिठा के ससुरार कइसे जाबे? रात म रांध के मोटरी म बांध देहू , काली होत बिहिनिया निकल जाबे।''

सुन के लेड़गा के मन हरिया गे। धरा-रपटा उठिस अउ गजब मयारु कस दाई के गोड़ ल पोटार के बइठ गे।

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मुंधेरहच्‌ ले तइयार हो गे लेड़गा ह। दाई ह रस्‍ता बाट, नाव-गाँव, पता-मोहल्‍ला, सब ल फरिया-फरिया के बता दिस। किहिस - ''बेर उते साट उत्‍ती डहर रेंगे के सुरू कर देबे। नाक के सोज म रेंगबे, डेरी-जेवनी झन मुड़कबे। कोनो जगा सुस्‍ताबे झन। दिन डुबतहा एक ठन गाँव भेंटबे, विही ह तोर ससुरार ए। जउन घर के पिछोत म दिन बुड़ही विही ह तोर सास घर ए; फेर अभी घर म खुसरबे झन, घर के पिछोत म ढार पर जाबे। बिहने होही तभे घर भीतर म जाबे।''

दाई के बात ल लेड़गा ह गांठ बांध लिस। गुर अउ चटनी संग भर पेट अंगाकर रोटी खा के, नवा अंगरखा पहिर के, पागा बांध के, तेंदूसार के लउठी धर के, रोटी के गठरी ल खांध म ओरमा के अउ दाई के पांव पर के, उत्‍ती डहर मुँहू करके तियार खड़े हो गे लेड़़गा ह, रेंगे बर। बेर उही तब तो रेंगे के सुरू करही?

अगास के झरोखा ले सुरुज नरायन ह झाउ करिस। लेड़गा ह दुनों हाथ जोर के सुरुज देवता ल परनाम करिस अउ रेंगे के सुरू कर दिस। रस्‍ता म रूख-राई, नरवा-ढोंड़गा, नदिया-सरार, टिकरा-पहाड़ कुछू सपड़े; फेर नाकेच्‌ के सोझ रेंगना हे, न डेरी, न जेवनी। कोनो जगा सुस्‍ताना नइ हे, सुरु-कुरु रेंगते जाना हे। जउन गाँव म, जउन घर के पिछोत म दिन बुड़ही, विही करा ढार पड़ना हे, विही ह आय ससुरार।

लेडगा के मन म दाई के बतावल जम्‍मों बात ह जस के तस बसे हे। दाई के बात भला लबारी कइसे होही?

दिन बुड़तहा एक ठन गाँव म पहुँच गे लेड़गा ह। गाँव अभरतिच्‌ म एक ठन टुटहा-फुटहा खदर छानी वाले घर रहय, चारो कोती के जम्‍मो भांडी मन ओदर गे रहय, वोकरे पिछोत म दिन बूड़ गे। विही करा ढार पर गे लेड़गा ह। कोनो गम नइ पाइन।

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घर भीतर दाई-बेटी के सुंदर अकन गोठ-बात चलत रहय। सुन के लेड़गा ह खुस हो गे। अजम डरिस, डोकरी ह सास होही, अउ बेटी ह, जउन ल डोकरी ह सुंदरी नाव धर के बलावत रहय, वोकर सुवारी।

सुंदरी - ''दाई, आज कंउवा मन खदर म बइठ के दिन भर चारा बांटे हें, कोनो सगा आही का वो?''

दाई - ''तोला दमाद के सुरता आवत होही, जकही। सांझ हो गे अब कोन सगा ह आही? मंझनिया के बासी माड़े हे, पिसान घला हे, गोरसी म छेना सिपचा ले, अंगाकर रोटी सेंक ले। आज मंझनिया बेरा बखरी के कांदा भाजी ल टोरे रेहंव, सुधार के झेंझरी म तोप के रख दे हंव, लाल मिरी के फोरन डार के बघार ले। बंगाला के चटनी पीस डर। जल्‍दी कर, काली खनती कोड़े बर जाना हे।''

सुंदरी ह पिसान साने बर भिड़े हे; दू ठन लोंदी धरना हे, मोट्ठा-मोट्ठा दू ठन रोटी सेंकना हे, एक ठन दाई बर, एक ठन अपन बर। अई! तीन ठन लोंदी काबर बन गे? गड़बड़ हो गे। सब ल एक म मिला के दू ठन लोंदी गढ़े बर फेर भिड़ गे सुंदरी ह। छी! फेर तीन ठन। असकिटा गे सुंदरी ह; कहिथे - ''दाई ओ, आज हमर घर कोन सगा आही वो? दू ठन बनाथंव, फेर तिनेच ठन बनथे।''

''अइ! का ह तीन ठन बनथे वो।''

''रोटी के लोंदी ह भैरी, अउ का ह?''

बेटी के बात सुन के दाई के हँसी छूट गे; कहिथे - ''लेड़गी! पिसान ल जादा सान परे होबे, तोर मुड़ी म तो सगा आही कहिके झक बइठे हे। तीन ठन बनथे ते तीन ठन रांध ले, एक ठन बांचही तउन ल मलवा म ढांप के रख दे, बिहने के काम आही।''

लेड़गा ह घर-पिछोत म बइठे-बइठे दाई बेटी के सरी बात ल सुनत हे। अहा! .... कतिक सुंदर गोठियाथे सुंदरी ह, मैना कस बोली हे। देखे म कतिक सुंदर होही? सुंदर सांवली मुहरन होही, पाका कुंदरू कस ओंठ होही, गोल-गोल गाल होही, बड़े-बड़े करिया-करिया आँखी होही, पातर कनिहा के आवत ले बेनी ह झूलत होही।

नींद काबर आवय लेड़गा ल? सुंदरी के इही चेहरा ह रात भर वोकर आँखी-आँखी म झूलत हे। लटपट बिहने होइस। कुकरा बासत उठ गे, नरवा चल दिस, दिसा-मैदान, दातुन-मुखारी, नहा- धो के आ गे। अब मन-मंदिर के देवी के दरसन करे बर बांचे हे। बेर चढ़ गे, खेत-खार निकले बर अभी टेम हे, इहिच्‌ बेरा हे; मंदिर के घंटी ल बजाय के।

दुनों महतारी बेटी, रात के बांचल रोटी ल खाय के तियारी म हें। खा के खनती कोड़े बर जाना हें। आ के मुहाटी म टुप ले खड़े हो गे लेड़गा ह, कहिथे - ''कोनों हाबो हो, सास पारा?''

''अइ! कोन होही बेटी, सास पारा कहके हुत पारत हे?'' दाई ह अचरज म पड़ गे, कहिथे - ''जा तो भला देख के आ।''

सास कहवइया ह दमादेच्‌ तो होही। सोंच के सुंदरी के चेहरा ह दसमत फूल कस ललिया गे। लजा के कहिथे - ''हमला लाज लगथे भई, तंय जा।''

मुहाटी म आ के देखथे दाई ह, अच्‍छा धाकड़, गबरू जवान खड़े हे दुवारी म; फेंटा वाले पगड़ी बांधे हे, मुड़ भर के तेंदू सार के लउठी धरे हे, खांध म मोटरी धरे हे। ननपन के देखल, कइसे के चिन्‍हे? धरम-संकट म पड़ गे दाई ह।

लेड़गा ह अजम डारिस, सास ह धरम-संकट म पड़ गे हे, कहिथे - ''मंय हरों, लेड़गा, तुंहर दमाद, भोलापुर वाले, नइ चिन्‍हत हवव लागथे?''

''अइ हाय... का चिन्‍हबों ददा, ननपन के देखे; ढेंखरा सरीख बाढ़ गे हवव। भीतर आवव।'' बेटी ल कहिथे - ''दमाद बाबू आय हे बेटी, गोड़ धोय बर पानी लान।''

लजाय-सुटपुटाय सुंदरी, लकर-धकर पागी-पोलखा ल बने करिस, अलगा डारिस, मुड़ी ढाँकिस अउ लोटा म पानी धर के निकलिस। पानी के लोटा ल लेड़गा के आगू म मढ़ाइस, टुप-टुप पाँव परिस, अउ विही पाँव लहुट गिस।

सास ह परछी म खटिया जठा दिस, किहिस - ''गोठ धो लव, अउ बइठव।''

अंगना म कुंदरू नार ह ढ़ेखरा म छिछले रहय, विही करा गोड़-हाथ धोय बर बड़े जबर पखरा मढा़य रहंय, विही पखरा म ठाड़ हो के लेड़गा ह गोड़-हाथ धोइस। बखरी म बगरे छेना के राख अउ जरहा केरा पान ल देख के वोला रात कुन वाले अंगाकर रोटी के सुरता आ गे। खटिया म आ के बइठ गे लेड़गा ह। लोटा के पानी ल मढ़ात खानी सुंदरी के मुँहू ल ललछरहा देख डरे रहय, रात कुन सपनाय रहय, डिक्‍टो वइसनेच ताय। सुंदरी के जवानी अउ रूप-गढ़न ल देख के भकवाय कस हो गे लेड़गा ह। सास के बोली ल सुन के झकनका गे।

सास ह कहत रहय - ''कते डहर ले आवत हव बाबू? कतिक रात के उसले रेहेव; होत बिहिनिया अमर गेव? तुँहर सियान ह बने-बने हे? पानी बादर के का हाल-चाल हे?'' एके घांव म कतरो अकन सवाल पूछ डरिस सियान ह।

''घरे ले आवत हंव, नहा-धो के चरबज्‍जी उसले रेहेंव, पानी-बादर, घर-दुवार, सब बने-बने हे। दाई ह किहिस, 'जा बेटा! तोर सास के सोर-संदेस ले के आ जाबे'; विही खातिर आय हंव।'' लेड़गा ह नांम भर के लेड़गा ए, थाप मारे म उस्‍ताद हे, सुरू हो गे।

''बने करेव ददा! अब तुँहरे तो आसरा हे।'' सास ह दमाद के गोठ सुन के खुस हो गे। बेटी ल कहिथे - ''बेटी, आगी बार अउ झपकुन दार-भात रांध डर।''

''रांधे म टेम लागही, रात कुन के मोर बांटा के अंगाकर रोटी अउ कांदा भाजी के साग ल लानव। '' लेड़गा ह कहिथे।

सन्‍न खाय रहिगे सास ह। कहीं थाप तो नइ मारत होही दमाद बाबू ह? परछो लेय बर कहिथे - ''अइ, कहाँ के गोठ करथो बाबू? ठट्ठा करथो का?''

''ठट्ठा काबर करहूँ दाई? मलवा म ढांप के राखे रेहेव न? झपकुन लानव। खनती कोड़े बर जाना हे न? मंय आ गे हंव, अब फिकर झन करव।''

डोकरी के अचरज के ठिकाना नहीं, सोचथे - हे भगवान! ये तो सब ल जानत हे। पूछथे - ''हमर घर के बात ल तुमन कइसे जान डरेव हो; अगमजानी बरोबर? जानपांड़े हरो का?''

लेड़गा ह फेर थाप मारिस - ''ठंउका केहेव। हम जान डारथन। कोनों बात हमर ले नइ लुकाय।''

बात कहत, घड़ी भर म बात ह गाँव भर म बगर हे। डोकरी-मोटियारी, लइका सियान, जउन ल कहस तउन ह, जे करा नहीं ते करा, फकत एकेच्‌ गोठ - ''सुनथस दीदी; अरे भइया सुनथस जी; सुंदरी के दमाद बाबू आय हे, बड़ा जानपांड़े हे?''

सोर उड़ गे। लेड़गा के का पूछना? बिलम गे ससुरार म। काकर हिम्‍मत हे गाँव म भला, जउन वोकर आगू म मुड़ी उचा के बात कर सके? कब काकर पोल ल खोल देही, का पता?

बात ह राजा के कान म पहुँच गे।

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एक दिन रानी के नवलखा-हार के चोरी हो गे। पुलिस-जासूस मन गजब जोर मारिन, कोनों गम नइ पाइन। पंडित-पुरोहित मन के बिचार घला फेल खा गे। रानी ह अन्‍न-जल तियाग दिस। राजा ह मुड़ी धर के बइठ गे; इज्‍जत के सवाल हो गे। जानपांड़े के सुरता आ गे। दंउड़ा दिस सिपाही मन ल।

मुहाटी म सिपाही मन ल देख के सन्‍न खा गे लेड़गा ह। घर म रोवाराई पर गे। ऊपरछाँवा हिम्‍मत करके सिपाही मन ल आय के कारण पूछथे लेड़गा ह। सिपाही मन राजा के हुकुम ल सुना दिन कि रानी के नवलखा-हार ह चोरी हो गे हे, पता करना हे। राजा ह खचित बलाय हे।

लेड़गा के परान निकले कस हो गे। आँखी म फाँसी के फंदा झूले लगिस; फेर थाप मारे म उस्‍ताद रहय, सिपाही मन ल कहिथे - ''राजा साहब ल परनाम हे, फेर मोर बर पालकी धर के आहू तभे मय जाहूँ।''

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पालकी म सवार हो के पहुँच गे लेड़गा ह राजा के दरबार म। एक-एक ठन बात ल तिखार-तिखार के, फरिया-फरिया के पूछिस। रानी माँ के के झन चेरी हें? कोन-कोन ह वोकर संग दिन-रात रहिथें? के झन नौकर चाकर हें? उँखर का-का नाव हें? वो मन के पता-ठिकाना का हे? अउ किहिस - ''महाराज! मोला चार दिन के मोहलत चाहिये। मामला सोझ नइ हे। फेर रानी माँ ह बेफिकर हो जाय। अन्‍न-जल तियागे चोर मन। रानी माँ ह काबर तियागे? चार दिन के भीतर नवलखाहार ह मिल जाही।''

राजा ह चेताइस - ''अउ नइ मिलिस ते फाँसी चढ़े बर तियार रहिबे, जा अब।''

लेड़गा ह गुपचुप ये राज ल छोड़ के अपन राज भागे के तियारी म रहय; फेर दूसर मन म सोचथे, - रात-दिन जउन मन संग म रहिथें, उँखर छोड़ दूसर ह थोरे चोराही। दू दिन उँखरे भेद पता करे जाय।

सोवा परे पहुँच गे माई-चेरी के घर के पिछोत अउ झरोखा तीर कान लगा के, लुका के बइठ गे जानपांड़े ह।

दू झन रहंय चेरी मन। चिंता-फिकर के मारे उँखर नींद नइ परे रहय। गोठियात रहंय। एक झन ह कहत रहय - ''रोगहा जानपांड़े ह सब बात ल जान डारथे कहिथें बहिनी। अब तो हमर बर फांसीच्‌ ह दिखत हे।''

दूसर ह कहत रहय - ''काली बिहिनिया ये हार ल रानी के नहानी पखरा के खाल्‍हे लुकाय कस कर देबोन। राजा तीर लबारी मारत तो बनही?''

सुन के लेड़गा ह खुस हो गे। चार दिन के मोहलत मांगे रहय, एके दिन म काम सध गे।

रानी ल नवलखा-हार मिल गे। चोर मन ल सजा मिल गे। लेड़गा ल मुँहमंगा इनाम मिल गे, वोकर सोर हो गे, जय-जयकार हो गे।

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जेठ-अषाड़ नहक गे, बूँद भर पानी नइ गिरिस। सावन, भादो, कुँवार देखते-देखते नहक गे, बूँद भर पानी नइ। खेत-खार म दर्रा पर गे। नरवा-ढोड़गा, झील-पोखर, नदिया-तरिया, कुँआ-बावड़ी, सब सुखा गे। आदमी ल कोन कहय, ढोर-ढांगर, चिरई-चिरगुन, टेटका-मेचका सब मरे लगिन। चारों मुडा त्राहि-त्राहि मच गे। परजा मन राजा कर दुहाई देय बर पहुँचे लगिन।

बड़े-बड़े पंडित-पुरोहित मन पोथी-पंचांग निकाल के बइठे हे, ककरो बिचार नइ लहत हे। राजा ल फेर सुरता आ गे जानपांड़े के। पालकी भेज के बलाय गिस जानपांड़े ल।

राजा कहिथे - ''पानी काबर नइ गिरत हे अउ कब गिरही अब तंय बता जानपांड़े। जनता त्राहि-त्राहि करत हे।''

जानपांड़े - ''पानी काबर नइ गिरत हे, येला तो नइ बता सकंव महराज; फेर कब गिरही, येला जरूर बता सकथंव। बिचार करे बर चार दिन के मोहलत चाहत हंव।''

जानपांड़े ह सोचथे - अब तो परान बचाना हे ते राज ल छोड़ के भागेच बर परही। कोनों मत जाने तइसे, अधरतियच्‌ मोटरा-चोटरा बांध डरिस अउ निकल गे अपन घर जाय बर। पंगपंगात ले निकल गे वो ह चार कोस। दिसा-मैदान सताइस, एक ठन सरार म थोकुन पानी रहय, बइठ गे विही करा। सबर दिन के पारखी ताय लेड़गा ह, चिरई-चिरगुन, मेचका-टेटका सब के बोली-भाखा, चाल-चलागन ल ओरखे अउ बिचार करे। बइठे-बइठे धियान ह मेचका मन के टोर-टोरी कोती चल दिस। सरार के खोंची भर पानी म मेचका मन सिगबिगावत रहंय। भिंदोल मन पार म बइइ के टोर-टोरावत रहंय। बुड़ती बाजू ले सुंदर अकन ठंडा-ठंडा पुरवइया आवत रहय। लेड़गा ह समझ गे आज संझा के होवत ले पानी जरूर गिरही। अब का? भागना केंसल।

येती गाँव भर हल्‍ला उडे गे रहय, जानपांड़े ह भाग गे, भाग गे। घर म रोवा-राई माचे रहय। लेड़गा ल देख के सास ह कहिथे - ''बिन बताय चेताय कहाँ रेंग दे रेहेव?''

''पानी बिचारे बर गे रेहेंव न।''

''मोटरी-चोटरी धर के?''

''ये काम ह अइसनेच म बनथे। तुम सब अड़ही, का जानहूँ मरम ल। मोर बर जल्‍दी जेवन बनाव, राजा तीर जाना हे।''

लउहा-झंउहा धमक गे लेड़गा ह दरबार म। एलान कर दिस - ''आज बेरा बुड़ती के समय रक्‍सउल-भंडार कोती ले चिरइजाम कस करिया-करिया बादर उमड़ही, अउ अतेक पानी गिरही कि नदिया-तरिया, खेत-खार एक हो जाही। सब किसान सावचेत हो जावंय, मुही-पार के हिसाब कर लेवंय।''

लेड़गा के बिचार कब फेल होने वाला रिहिस; संझा बेरा सूपाघार के अतका पानी गिरिस, अतका पानी गिरिस, के चारों खूँट पानिच्‌ पानी हो गे। रूख-राई, चिरई-चिरगुन, सब के मन हरिया गे, सब के पियास ह बुझा गे।

दार-भत चुर गे, मोर कहानी पूर गे।

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डेरहा बबा ह कहिथे - ''गनेसिया भउजी बता भला तंय कि जानपांड़े ह सब रहस मन ल कइसे जान जाय?''

गनेसिया - ''अई! कोनों इलम जानत रिहिस होही। चीज ल सुनगुन-सुनगुन खोजत रहही, एक-एक ठन बात के निगरानी करत रहिही तब कइसे नइ जान जाही?''

डेरहा बबा - ''तोर देरानी ल तहीं समझा रे भइ। बाबू ह पैर डारिस हे अउ कलारी ल धर के पेरावट कोती गे रिहिस हे। कलारी ल पेरावट म ओधात ललछरहा देखे रेहेंव। विही ह सुरता आ गे। जउन आदमी ह चिरई-चिरगुन, चांटी-मिरगा, कीट-पतंगा अउ रूख-राई के व्‍यवहार ल देखत रहिथे, गुनत रहिथे, वो ह भूत-भविस के घटना के अनुमान घला लगा सकथे। अइसने कुछू बात ल कहि देबे तब हम तो एकर बर दोकहा घला बन जाथन।''

नंदगहिन के मुँहू ह अउ नानचुक हो गे। कहिथे - ''तुँहर पंडित-बिचार ल काली बर रहन दव। जेवन के बेरा हो गे हे। अब घर चलव।''

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आठवाँ पैर

बबा के बैठका ह ठँउका जमत रिहिस वोतका बेरा गाँव के स्‍कूल के बड़े गुरूजी ह सूट-बूट लगा के पहुँच गिस। इही गाँव के रहवइया आय। बड़े गुरूजी के मान अउ दबदबा तो रहिबेच करथे। गुरूजी ल आवत देख के राजेश ह डोकरी दाई के पीछू कोती जा के सपट गे। दुरिहच ले गुरूजी ह जोहारिस - ''कका मन ल अउ काकी मन ल जय हिंद।''

डेरहा बबा - ''जय हिंद गुरूजी, गंज दिन म सपनाय हव। आवव बइठव। राजेश, जा बेटा टेबुल ल लान।''

राजेश - ''टेबुल ल लाँव कि स्‍टूल ल?''

डेरहा बबा - ''अरे! बइठे के ल लान बेटा। कते ह टेबुल ए अउ कते सुटुल ए, हम का जानी?''

गुरूजी के आरो पा के दुनों डोकरी दाई मन मुड़ी ढाँक लिन अउ बइठे रहंय तउन पिड़हा ल सरका दिन।

बबा के बात ल सुन के गुरूजी ल हाँसी आ गे। कहिथे - ''सियान मन ह खाल्‍हे म बइठे हव, मंय ह ऊपर म कइसे बइठँव? काकी मन ल देख ले, पेरा के पिड़हा म बइठे रिहिन हें, तउनों ल सरकावत हें। अरे भइ, तुँहरे कोरा म खेल के बाढ़े हंव; रतनू अउ मोर म का फरक हे?''

नंदगहिन दाई - ''फरक हाबे बाबू! सियान मन के बनावल रीत ल माने बर पड़थे।''

राजेश ह स्‍टूल धर के आ गे। डेरहा बबा ह कहिथे - ''खाल्‍हे म बइठे ले तोर टेकनी ह मइला जाही बेटा, बात मान, सुटूल म बइठ जा। कइसे आय हस, बता? राजेश ह तो आजकल कहानी सुने म भुलाय रहिथे; पढ़ई-लिखई म कोन जाने का हाल हे ते। सवाल मन ल बना के लेगथे कि नहीं?''

गुरूजी - ''राजेश बर फिकर झन करव कका। सब सवाल ल बना के लेगथे। बताय रहिबे तउन ल याद करके जाथे। अउ ये कहानी-किस्‍सा मन ह कोनों किताब ले कम थोड़े होथे। जीवन के जउन रस अउ रहस एमा हे वो सब किताब मन म कहाँ मिलही? विही पाय के आज महूँ ह सुने बर आय हँव।''

वोतका बेर राजेश के माँ ह गंजी म चहा अउ कोपरा म मग्‍गा धर के आ गे। गुरूजी के पाँव परिस, सबो सियान मन के पाँव परिस अउ सब झन ल मग्‍गा भर-भर के चहा बाँट दिस।

मनसुख ह कहिथे - ''अहा! खाँटी दूध के चहा, गजब मिठाइस हे बेटी।''

''अउ ले ले न कका; बाँचे हे।'' राजेश के माँ ह कहिथे।

''कमइया मन ल देय हस कि नइ देय हस बेटी? हमर बइठाँगुर मन के का रखे हे।''

''सब झन ल देय हँव न।''

''तब लान, इही म थोकुन ढार दे।''

मनसुख डहर इसारा करके गनेसिया ह नंदगहिन ल अँखिया दिस अउ कनखही देखत धीरे से हाँस दिस।

मनसुख ह ताड़ गे, कहिथे - ''अब जीछुट्टा कहव कि ललचहा, हम तो पीबोन मांग-मांग के चहा।''

गुरूजी ह कहिथे - ''वाह भइ, येला कहिथे कविता। तब का, आज बरमासी आल्‍हा सुनाय के बिचार हे का?''

डेरहा बबा ह कहिथे - ''हमर धान मिंजई ह फदक जाही रे भइ, अभी आल्‍हा सुनाय बर झन कहि। पानी गिर जाथे कहिथें।''

गुरूजी ह बबा के गोठ ल सुन के हाँस दिस। कहिथे - ''तब सुनाव कका आपे मन ह कुछू कथा-कंथली।''

''तब आज सुनव ललचहा मन के कहिनी।'' बबा ह कहिथे अउ कहानी सुनाय के शुरू करथे।

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सरग के लाड़ू

एक गाँव म नाऊ-नवइन रहंय। नाऊ ह गाँव म दिन भर घूम-घूम के मालिक मन के डाढ़ी-सांवर बनाय अउ जेवर पाय तउन म गुजारा करे। सांझ होय तहां दाऊ के दरबार म पहुँच जाय, मालिस करे बर। बर-बिहाव, मरनी-हरनी, छट्टी-बरही जइसे ककरो घर काम आ जाय तब बुता ह बाढ़ जाय। जंगल जाय, मउहा के, परसा के पाना लाय अउ दोना-पतरी बनाय; मालिक मन घर पहुँचाय। नवइन के का पूछना, मालकिन मन जइसे रात-दिन पाटी पारे, छंइहा देखत रेगें, अरोस-परोस म मिटमिटावत फिरे, फलल-फलल मारे, एको काम-बुता नइ करे। रात-दिन नाऊ ल झगरा करे। एक ठन पुरखउती खेत रहय, वहू ह नाउच्‌ के बाँटा।

नाऊ ह अपन खेत म चना बोंय रहय। माड़ी भर-भर उपजे रहय चना ह अउ लटलट ले फरे रहय। रोज संझा-बिहाने खेत के हियाव करे बर जाय। देख-देख के नाऊ के छाती ह जुड़ा जाय। एक दिन बिहिनिया देखथे, चना ल कोन जानवर ह चर डरे रहय। रातकुन पासे बर कमरा ओढ़ के पहुँच गे खेत, नाऊ ह। अघ्‍धन-पूस के महीना कड़कड़ंउवा ठंड परत रहय। रुख के ओधा म सपट के बइठ गे।

ठंउका अधरतिया होइस। लकलक-लकलक करत एक ठन हत्‍थी ह अगास मारग ले उड़त आ के खेत म उतरिस, अउ चना ल हबर-हबर, चर्रस-चर्रस चरे लगिस। देख के नाऊ के एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ़ गे। कते बइमान ह बइमानी करत होही? मेड़ के ओधा लुकाय-लुकाय तेंदूसार के लउठी ल अंटियावत गिस, डेरी हाथ म वोकर पूछी ल धरिस अउ जेवनी हाथ के लउठी ल वोकर पीठ ऊपर कचार दिस।

हत्‍थी ह सन-सन, सन-सन उड़े लगिस। नाऊ ह वोकर पूछी ल दुनों हाथ म बने चमचमा के धर लिस। वो ह का जाने कि ये ह सरग लोक के राजा, इन्‍द्र के ऐरावत हाथी आय।

घड़ी भर म हत्‍थी ह इन्‍द्र लोक पहुँच गिस। देख के नाऊ ह चकरित खा गे। इन्‍द्र के दरबार म परी मन के नाच-गान होवत रहय, देख के नाऊ ह मोहा गे। बिहने सरोवर म जा के स्‍नान-ध्‍यान करिस। बाग-बगीचा म घूम-घूम के नाना परकार के फल-फूल खाइस। हाट-बजार म नाना परकार के मिठाई; खोवा, जलेबी, गुलाब जामुन, रसगुल्‍ला, लाड़ू, पपची खाइस; नवइन बर घला मोटिया लिस। अपन मयारुक नवइन खातिर पैरपट्टी, करधन, पहुँची, बिछिया, झुमका, नथनी-फूली नाना परकार के जेवर बिसाइस, चिकमिकी लहंगा-लुगरा बिसाइस। रात कुन विही हत्‍थी के पूछी ल धर के अपन घर आ गे।

नाऊ ह मर गे कहिके इहां नवइन के रोवाराई मच गे रहय। नाऊ ल अधरतिहा देख के नवइन ह खुस हो गे। सब बात ल फरिया-फरिया के पूछ डरिस। लकर-धकर मोटरी ल छोर डरिस, खोवा, जलेबी, गुलाब जामुन, रसगुल्‍ला, लाड़ू, पपची ल हबर-हबर खाय के सुरू कर दिस; सोसन के पूरत ले खाइस। नजर ह गहना-गूठा, कपड़ा-लत्‍ता कोती चल दिस; गहना मन ल तुरते हाथ-गोड़ म हुबेस डरिस, कान-नाक म अरो डरिस। चिकमिकी लहंगा-लुगरा मन ल पहिर डरिस। कतिक बेर कुकरा बासे त कतिक बेर मिटमिटावत निकलों कहिके वोकर मन होवत रहय; लटेपटे पंगपंगाइस अउ निकल गे नवइन ह गगरा धर के मिटमिटावत।

अरोसिन-परोसिन मन ल अचरज हो गे; दस बजे के उठइया नवइन ह आज पंगपंगावत कइसे उठ गे हे। सिंगार ल देख पाइन; सब समझ गें।

नाऊ ह कतरो बरजे रहय, गहना-गूठा, कपड़ा-लत्‍ता मन ल एके दरी झन पहिर, लोगबाग पूछहीं त का कहिबे? जी के जंजाल हो जाही। फेर नवइन ह कब मानने वाला।

वइसनेच्‌ होइस। नवइन ह जहू-तहू कर गोठिया डरिस, सरी भेद ल बता डरिस।

गाँव भर के आदमी सकला गें नाऊ के घर। धरना धर के बइठ गें। हठ कर दिन, आज हमू मन ल लेगबे तभे बनही।

नाऊ ह कहिथे - ''रात होवन देव, हत्‍थी ह जइसने उतरही, मय ह वोकर पूछी ल धरहूँ, मोर पीछू गोड़ ल धर-धर के सब ओरियावत जाहू। गोठियाहू झन, चुपेचाप रहू।''

लटपट म दिन ह बीतिस। रात होइस, सब के सब पहुँच गिन चना के खेत म। अधरतिहा होइस; लकलकावत उतरिस ऐरावत हाथी ह। नाऊ ह टप ले वोकर पूछी ल धर लिस। गाँव भर के मनखे वोकर पीछू ओरम गें।

कोनों कतेक बेर ले चुप रहय। पूछे के सुरू कर दिन। नवइन ह सब के जवाब देवत हे। कोनों पूछत हे, उहां के रसगुल्‍ला कतिक बड़ रहिथे? कोनों पूछत हे, उहां के लाड़ू ह कतिक बड़ रहिथे? नाऊ ह घला जोसिया गे; दुनों हाथ ल लाड़ू कस बना के कहिथे - ''अतिक बड़।''

हाथी के पूछी ह छूट गे। सब के सब पाना झरे कस झर गें अउ चर-चर ले मर गें।

दार-भात चूर गे, मोर कहानी पूर गे।

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कहानी ल सुन के सब झन कठल-कठल के हाँसिन। थिरा लिस तहाँ ले गनेसिया ह गुरूजी ल कहिथे - ''अभी तो जेवन म समय हे, आ गे हस ते तहूँ ह एकाध ठन कहानी सुना न बाबू।''

गुरूजी - ''लालच के किस्‍सा चलत हे, तब एक ललचहिन के कहानी अउ सुनव।''

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पानी के पइसा पानी म, नाक गीस बइमानी म

तइहा के बात आवय। एक गाँव म पहटिया-पहटनिन रहंय। पहटिया ह गाँव के बरदी ल चरावय। गाय-बछरू मन के गजब सेवा करय। दुधारू गाय कहस, गाभिन गाय कहस कि कलोर, बरदी ह सबर दिन भरेच्‌ रहय। दूध के गंगा बोहावत रहय। तीन दिन के तीन दिन बरवाही दूहे अउ दूध ल बेच के जिनगी करय।

पहटनिन ह घला कमेलिन रहय, रात-दिन पहटिया के पीछू-पीछू लगे रहय; फेर वो ह थोकुन ललचहिन रहय। पहटिया ह कतरो बरजे फेर दूध म पानी डारे बर नइ छोड़य। लालच के धुँधरा वोकर आँखी म छाय रहय, नेकी-बदी ह वोला कइसे दिखय? पहटिया रहय सीधा-सादा, ओग्‍गर मन के; इमान-धरम के मानने वाला, बदी ल डरावय।

एक दिन पहटनिन ह बुता-काम ल छोड़ के, मुँहू फुलो के बइठे रहय, हुँके न भेूँके। पहटिया ह कहिथे - ''का हो गे पहटनिन, काबर मुँहू फुलोय बइठे हस? बासी-पेज निकाल, बरदी ढीले के बेरा होवत हे।''

अतकेच्‌ ल तो खोजत रहय पहटनिन ह, सुरू हो गे, फुन्‍नाय नागिन कस गरजिस - ''गाँव म काकर बहू-बेटी ह बिना गहना-गुठा के होही? चिर-चिर ले पहिरे-ओढ़े हें सब। देखे म जी जरथे; फेर हमर तो भाग फूटे हे, नाक के एक ठो नथनी बर घला तरस गेन।''

पहटिया ह कहिथे - ''तोरेच्‌ सुख खातिर तो गरुवा मन के पीछू-पीछू दिन-रात घिरलत रहिथंव पहटनिन, रिसा झन, गऊ माता के किरपा होही, त तोर नाक के नथनी ह घला आ जाही।''

बाल हठ कहस के तिरिया हठ, इंखर आगू भगवान ह घला हार माने हे। बिहने के सांझ हो ग,े पहटिया ह जभे नथनी बिसा के लाइस, तभे पहटनिन के उतरे मुँहू ह सोझियाइस। नथनी संग चकमकी लुगरा घला लाय रहय पहटिया ह। पहटनिन के खुसी के का ठिकाना, फुरफुंदी कस उड़ाय लगिस। बड़ पुचपुचही ताय पहटनिन ह, पहिर के निकल गे, मिटमिटात, अरोसिन-परोसिन मन ल देखाय बर।

नहाय बर बिहिनिया तरिया गिस पहटनिन ह। हाथ-गोड़ ल रगड़-रगड़ के, साबुन रचा-रचा के गजब बेर ले नहाइस। काकर डर वोला; न सास न ननद; न देरानी न जेठानी। आखिर म डुबकी मारिस। नाक के नथनी ह लकलक-लकलक चमकत रहय। को जनी कते मछरी ह ताकत बइठे रहय ते; एके घाव म चीथ के ले गे। पहटनिन के नाक डहर ले रकत के धार बोहा गे।

एक तो नथनी के गँवई, ऊपर ले नाक के कटइ, पीरा के मारे पहटनिन ह कलप-कलप के रोय लागिस। कतरो झन जुरिया गें तमासा देखइया कस। अरोसिन-परोसिन मन पहटनिन ल ऊपरछाँवा तो ढाढस देवत रहंय फेर मनेमन गजब हाँसत रहंय।

राउत ह कहिथे - ''एकरे सेती तोला समझाथंव पहटनिन, इमान- धरम के कमइ ह पूरथे। लालच के फल ल भोगेस न आखिर?''

सियान मन तभे तो हाना कहिथें - 'पानी के पइसा पानी म, नाक गिस बइमानी म।'

दार-भात चूर गे, मोर कहानी पूर गे।

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कहानी सुनाय के बाद म गुरूजी ह राजेश ल कहिथे - ''राजेश! अब तंय ह बता, कबीर दास ह लालच के विषय म का कहिथे? काली स्‍कूल म पढ़ाय रेहेंव न।''

राजेश - ''माखी गुड़ म गड़ि रहय, पंख रहय लिपटाय।

हाँथ मलै अरु सिर धुनै, लालच बुरी बलाय॥''

गुरूजी - 'शाबास, अब एकर अर्थ घला बता दे।''

राजेश - ''लालच एक बुरी बला है। इसमें केवल पछतावा ही हाथ लगता है। लालच करने वालों की हालत छटपटा रही उस मक्‍खी के समान होता है जिसका पंख गुड़ में चिपक गया हो।''

ताली बजा के गुरूजी ह एक घांव फेर राजेश ल शाबासी दिस।

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नवाँ पैर

एक ठन मुसुवा के दू ठन दांत,

फोल-फोल के खावै धान, जय गंगा।

सूपा-सूपा करे ओकार,

रात लगे न लगे बिहान, जय गंगा।

जुच्‍छा परगे कोठी के धान,

माथा धर के रोवय किसान, जय गंगा।

जय गंगा के अटपटहा गीत ल सुन के नंदगहिन दाई ह कहिथे - '' अइ, यहा का कलयुग आ गे बहिनी, आजकल के बसदेवा मन बर रात लगे न दिन?''

गनेसिया ह कहिथे - ''सूपा भर धान ल निकाल के राखे रहा। आते भार वोकर मुड़ी म रूतोबे। आरो ल ओरख घला नइ सकस?''

''अइ! ये तो बड़े बसदेवा कस लगथे। बेलबेलहा गतर के।'' मनसुख के भाखा-बोली ल ओरख के नदगहिन ह मुँहू बिचकाइस।

डेरहा बबा ह कहिथे - ''आ भइ मनसुख; आज कइसे बसदेवा गीत झोरत आवत हस? बने कहिथस, बसदेवा कहस कि पंडा-पुजेरी कहस, भटरी कहस कि चिकारा कहस, अनाज ह किसान के कोठी म सकलाय नइ रहय अउ इंखर मन के सुरू हो जाथे, ऊपर ले बाम्‍हन दक्षिणा बाँचेच रहिथे।''

मनसुख - ''देख न भइया! बिहने-बिहने मुहाटी म टेंक देथें। मोला तो इंखर मन के मुख देखे बर नइ भाय।''

गनेसिया - ''अइ! तइहा के नेम-धेम चलत आवत हे तउन ल कइसे नइ मानबे?''

मनसुख - ''तइहा के बात ल ले गे बइहा। गरीब किसान मन के लहू पियइया गँउटिया-मुकड़दम मन के बनाय नेम-धेम विही मन मानय। धरम के नाव म लूट के सिवा अउ कुछू नोहे ये ह।''

डेरहा बबा - ''तब आज इही धरम-करम वाले परबचन ह चलही लागथे?''

मनसुख - ''अरे! बात ह मोरे डहर खपला गे। तब सुनो भइ, धरम-करम के परबचन करइया मन के नीयत के किस्‍सा ल सुनव।''

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बाम्‍हन-बम्‍हनिन अउ सात ठन रोटी के बँटवारा

एक गाँव म बाम्‍हन-बम्‍हनिन रहंय। चौंथा पन बीतत रहय फेर भगवान ह एको झन लोग-लइका नइ देय रहय। न खेत न खार, जजमानी म गुजारा चलय। रोज-रोज कोन ह पूजा-पाठ कराही, भीख मंगई ह सार रहय। रोज भीख म जउन मिल जातिस विही सेर-सिधा के अनाज के भरोसा चूल्‍हा जलय।

बाम्‍हन ल एक दिन जजमान घर ले खूब अकन सेर-सिधा मिलिस। सेर भर पिसान, पाव भर गुड़, पाव भर घींव, आलू, भांटा, गोंदली, पाव भर राहेर के दार, नून, मिरी अउ भूरसी दक्षिना म सवा रूपिया पइसा घला मिले रहय। कहिथें, बाम्‍हन ल मीठ प्‍यारा। बाम्‍हन ह बड़ खुस होइस कि चलो, गजब दिन म मन पसंद के भोजन करे बर मिलही। संझा बेरा हरे राम, हरे कृष्‍णा के जाप करत वो ह घर पहुँचिस। भरे-भरे झोली ल देख के अउ बाम्‍हन ल जोर-जोर से हरे राम, हरे कृष्‍णा के जाप करत देख के बम्‍हनिन ह समझ गे, आज ठोसलगहा सेर-सिधा मिले होही, तभे बाम्‍हन ह अतका खुस हे। बाम्‍हन ह झोली-झांगड़ ल खांद ले उतारेच्‌ नइ रहय अउ बम्‍हनिन ह लउहाँ-झउहाँ सब ल टमड़-टमड़ के देख डारिस।

बाम्‍हन ह कहिथे - ''झपकुन चुलहा सिपचा। गाय के असली घींव मिले हे आज जजमान घर ले। घींव अउ गुड़ संग अंगाकर रोटी खाय म मजा आ जाही। गोंदली म बघार के आलू-भांटा के साग अउ राहेर के दार घला रांध ले।''

घींव अउ गुड़ के नाव सुन के बम्‍हनिन के मुँहू ले लार चुचवाय लगिस।

रांधत-रांधत बम्‍हनिन ह आधा ल झड़ मत डरे, अइसे सोंच के बाम्‍हन ह रसोई के मुहाटी तीर मेड़री मार के बइठ गे।

ले दे के एक ठन रोटी ल रांधिस अउ गुड़ के एक ठन ढेली ल धर के बम्‍हनिन ह बइठ गे।

बाम्‍हन ह कहिथे - ''मंय जानत रेहेंव, खाय बर तोर जीव ह छूटत हे। देखत नइ रहितेंव, ते कोन जानी कतेक अकन ल भगोस डरे रहितेस?''

बम्‍हनिन ह कहिथे - ''महूँ जानत हंव, तुँहरे जीव ह रकरकाय हे। मेंडरी मार के बइठे हव। जीछुट्टी होतेन त तुंहर संग रहि सकतेन? हम तो वोला ठोवत रेहेंन।''

ले दे के जेवन चुरिस। बम्‍हनिन ह भगवान, अउ देवी-देवता के फोटू मन म लउहा-झँउहा उदबत्ती खोंचिस, दिया-आरती घुमाइस अउ बाम्‍हन ल थारी परोस दिस। बाम्‍हन ह थारी के रोटी ल गिन के देखिस, तीन ठन रहय। बम्‍हनिन ल कहिथे - ''रोटी मन ल मंय ह गिनत रेहेंव। सात ठन बनाय रेहेस। चार ठन ल मोला दे, तीन ठन ल तंय खाबे।''

बम्‍हनिन - ''तुँहर पाचन ह कमजोर हे। लालच म खा लेथव, अउ दिन भर ढाँय-ढाँय छोंड़त रहिथव। जादा लालच झन करव।''

बाम्‍हन - ''अपन किस्‍सा ल झन बता। दिन भर घाम-पियास म, गली-गली घुमई म, हमला सब ह पच जाथे। पोट-पोट भूख मरथन। तंय घरखुसरी, का जानबे भूख-पियास ल?''

बम्‍हनिन - ''एक दिन घर के बुता-काम ल कर के देखव भला, कनिहा ह टूट जाही, हाँ।''

बात-बात म बात बाढ़त गिस। दुनों परानी गजब झगरा होइन। तीन ठन बर कोनों राजी नइ होइन, दुनों के दुनों चार ठन बर अड़ के बइठ गें।

सोवा परे के बेरा हो गे। बाम्‍हन ह कहिथे - ''नइ मानस पंडिताईन, तब एक ठन उपाय करथन, अभी अइसने लांघन सुत जाथन, बिहिनिया जउन ह पहिली जाग जाही, तउन ह तीन ठन खाही। पीछू जागही तउन ह चार ठन खाही। सरत मंजूर हे?''

बम्‍हनिन ह कहिथे - ''मंजूर हे।''

रोटी, साग अउ दार रांधे रहय तउन ल बने तोप-ढांप के रख दिस बम्‍हनिन ह अउ दुनों परानी अपन-अपन खटिया म कलेचुप मिटका के सुत गिन।

एक तो खाली पेट, ऊपर ले जेवन के महर-महर महमहई, अउ वोकरो ले जादा - मंय सुत जाहूँ तहाँ ले वो ह उठ के सबो जेवन ल झड़क झन देय, अइसन सोंच, रात पहा गे, काबर ककरो नींद परे।

कुकरा बासिस। बम्‍हनिन ह सोंचथे - सबर दिन के चरबज्‍जी उठ के नहवइया अउ पूजा-पाठ के करइया बाम्‍हन, कतिक बेर ले सुते रहिही, उठबेच्‌ करही। चद्‌दर ल घुमघुम ले ओढ़ के अउ मिटका दिस बम्‍हनिन ह।

बाम्‍हन ह सोंचथे - सबर दिन के पहिली उठ के चौंका-चुल्‍हा करइया बम्‍हनिन, कतिक बेर ले सुते रहिही? उठही तहाँ ले मंय ह सरत ल जीत जाहूँ, चार ठन ह मोरेच्‌ भाग म आही। आरो लेथे; बम्‍हनिन ह सुत के उठिस कि नइ उठिस। कइसे उठ जातिस भला बम्‍हनिन ह?

बनिहार मन के खेत-खार जाय के बेरा हो गे, काबर कोनों उठे।

मुहाटी ल बंद देख के आरा-पारा वाले मन ल अचरज हो गे। एक झन ह मजाक करथे - ''चरबज्‍जी तोलगी छोरत तरिया कोती कोरकिर-कोरकिर दंउठइया बाम्‍हन, आज का हो गे, बेरा ह चढ़ गे हे तभो ले सुत के नइ उठे हे। कहूँ ऊ़पर डहर तो नइ रेंग दिस होही?''

दूसर परोसी ह कहिथे - ''जर न बुखार,अइसे कइसे रेंग दिही? बम्‍हनिन ह तो घला नइ उठे हे। रात म कहिनी-किस्‍सा किहिन-सुनिन होहीं, उसनिंदा होहीं, उठहिच्‌ नहीं, कोन मार के उनला खेत-खार जाना हे?''

खेत जवइया लइकोरहिन मन ह खेत ले लइका पियाय बर आ गें, बाम्‍हन घर के कपाट के बेंस ह काबर खुले। कोनों अनहोनी के भुरभुस म कोतवाल, सरपंच अउ गाँव भर के जम्‍मों सियान मन ह बाम्‍हन घर के आगू म जुरिया गें। महराज-महराजिन मन ल हुत पार-पार के जम्‍मों आदमी के नरी भंसिया गे। कपाट के संकरी ल बजा-बजा के हाँथ पिरा गे, चिट न पोट।

एक झन सियान ह कहिथे - ''सियाना हो गे रिहिन बपुरी-बपुरा मन, भगवान घर के बलउवा आ गिस होही।''

दूसर ह कहिथे - ''लोग न लइका, सेवा-जतन कोन करतिस? बने हो गे, एकेदरी चुमुक ले बुता गें।''

गजब सोंच-बिचार करइया, पक्‍का चुंदी वाले एक झन सियान रहय तउन ह कहिथे - ''ऊपरे-ऊपर काबर अपसगुन के बात गोठियाथो भाई हो? सांस के रहत ले आस रहिथे। कपाट के गुजर ल उसेल के मुहाटी ल खोलो अउ ऊँखर नारी मन ल टमड़ के देखो।''

सब झन एक संघरा कहिथें - ''बबा ह बने कहत हे जी, चलो भला कपाट के गुजर ल उसाल के देखथन।''

भीतर म सुते-सुते बाम्‍हन ह मनेमन बम्‍हनिन ल गारी देवत हे अउ कहत हे - अरे उठ रे बम्‍हनिन, जजमान मन कपाट ल टोरहीं तभे तोर जीव ह जुड़ाही क?

चुप्‍पे मरे कस मिटकाय बम्‍हनिन ह खटिया म परे-परे मनेमन कहत हे - कपाट ल टोरहीं ते टोरन दे, हमर बाप के का जाही?

ठकर-ठिकिर के आरो ल सुन के दुनों परानी मरे कस मिटका दिन, अउ घुमघुम ले ओढ़ के सुत गिन।

सियान मन भीतर जा के देखथें, बाम्‍हन-बम्‍हनिन दुनों झन अपन-अपन खटिया म परे रहंय। हला-डुला के देखिन, चिट न पोट।

पक्‍का चुंदी वाले बबा ह कहिथे - ''कोनों हाथ-नारी जानत होहू त टमड़ के तो देखव।''

एक झन बइगा गढ़न के सियान ह बाम्‍हन के नारी ल धर के गजब बेर ले टमड़िस। कोन जाने कते कर ल टमड़त रहय ते, टमड़त जाय अउ अपन मुड़ी ल डोलात जाय। वइसने बम्‍हनिन के नारी ल धर के गजब बेर ले टमड़िस। आखिर म कहिथे - ''तीन नाड़ी में एको नाड़ी नइये भई हो। कनकन ले जुड़ा गे हें। कोन जाने हंसा ह कतका बेर के उड़े होही ते।''

सियान मन पूछथें - ''दुनों के दुनों झन के जी?''

''दुनों के दुनों झन के जी।'' नारी टमड़इया ह कहिथे।

''कोनों जनम के पुन कमाय रिहिन होही बिचारा-बिचारी मन, दुख-तकलीफ नइ पाइन। भगवान ह सब ल अइसने मरना देय।'' एक झन सियान ह धरम के गोठ किहिस।

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कोतवाल-सरपंच अउ बांकी सियान मन मिलजुल के सलाह करिन - ''इंखर न कोनों रोवइया-गवइया, न कोनों लागमानी, हमीच्‌ मन ल सब करे बर परही। बांस-डोरी के बेवस्‍था करो।''

एक झन ह कहिथे - ''का करहू बांस-डोरी ल? खटिया सुद्धा नइ उठाव।''

बात ह सब ल जंच गे।

गाँव भर मिल के छेना-लकड़ी सकेलिन। गाड़ी म जोर के मरघट्टी लेगिन। पीछू-पीछू बाम्‍हन-बम्‍हनिन के खटिया ल निकालिन।

बाम्‍हन ह खटिया म मिटकाय-मिटकाय सोंचत हे - हत रे चंडालिन, जबरा किरिया खा के सुते हस। उठ जाबे ते का होही। परान ह तो बांच जातिस?''

बम्‍हनिन ह घलो सुते-सुते कहत हे - ''महूँ ह बीस बिसवा बाम्‍हन के बेटी हरों। तोला जिद हे, त महूँ ल जिद हे। काबर तीन ठन म रहिबों?''

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चिता रचा गे। सियान मन सोचिन; सात जनम के जुग-जोड़ी, अलग-अलग काबर करबोन? साथ जीयिन हें, साथ म मरिन हें, सरग घला एके अरथ म सवार हो के जाहीं।

दुनों परानी ल संघरा लेग के चिता म सुता दिन।

न कोनों आल-औलाद, न कोनों मानदान; चिता ल आगी कोन देय? पाँच झन सियान मन ल तय करे गिस।

बाम्‍हन ह मनेमन बम्‍हनिन बर भड़कत हे; अरे अब तो उठ जा रे निुठर, जीते जी चिता रचवा डरेस।'

बम्‍हनिन ह काबर उठे?

चिता ह गुंगुवाय लगिस। बाम्‍हन ह सोचथे - भभके के पहिली नइ जागेन, त जीते जी लेसा जाबों। झकनका के उठिस अउ कँस के एक लात बम्‍हनिन ल जमाइस। किहिस - ''अरे निठुर चार ठन ल तिही खा लेबे, मिही ह तीन ठन ल खा लेहूँ, अब तो उठ।''

बम्‍हनिन ह उठ के बइठ गे। कहिथे - ''अहा! चार ठन ल मंय खाहूँ? मजा आ जाही।''

बाम्‍हन-बम्‍हनिन मन के ये नाटक ल देख के सब झन के हक्‍काबक्‍का हो गे। सोचिन, ये मन तो भूत बन गें। एक झन ह चार झन ल अउ दूसर ह तीन झन ल खाहूँ कहत हे। कोन जाने कोन-कोन ल खाहीं ते। परान बचाना हे ते भागो ददा हो।

भूत-भूत कहि के चिल्‍लावत सब के सब बस्‍ती कोती भागिन।

पक्‍का चुंदी वाले बबा ह कहिथे - ''अरे दम तो धरो। मोला तो येमा कोनों बिसकुटक जनावत हे। ए मन ह कोनों भूत नों हे, जीयत हें तइसे लागथे।''

बाम्‍हन-बम्‍हनिन मन हाथ-पाँव जोरत अउ हमन भूत नो हन ददा हो, कहत-कहत नजीक आइन तब मटदेवाल मन देखिन। बाम्‍हन-बम्‍हनिन मन तो जीयत रहंय। सोचिन - 'कभू-कभू जम दूत मन ह धोखा घला खा जाथे, दूसर के बदला दूसर ल बांध के लेग जाथें। पता चलथे तब छोंड़ देथें। वइसने होइस होही।'

फेर बाम्‍हन ह जब चार ठन अउ तीन ठन के किस्‍सा ल सुनाइस त सब झन पेट रमंज-रमंज के हाँसे लगिन।

दार-भात चूर गे, मोर कहानी ह पूर गे।

कहानी ल सुन-सुन के सब झन हाँसत-हाँसत अपन-अपन घर गिन।

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nसवाँ पैर

आज बड़े गुरूजी ह मनसुख अउ गनेसिया ले पहिलीे आ के आसन जमा के बइठ गे रिहिस हे। थोरिक बेरा म वहू मन आ गिन अउ अपन-अपन जघा म बइठ गिन।

मनसुख ह कहिथे - ''काली दरसन नइ देव गुरूजी, कहाँ चल दे रेहेव भाई? तुँहर बिना गजब सुन्‍ना लगिस हे।''

गुरूजी - ''कहाँ जाबे कका? सरकार के कतरो काम रहिथे। कागज-पत्‍तर म भुलाय रेहेंव।''

डेरहा बबा - ''हमर अड़हा मन के ठट्ठा-दिल्‍लगी ह तो रोजेच्‌ होवत रहिथे बाबू ! आज तंय ह आय हस त आज तोरे मुखारबिंद ले कुछू कही ज्ञान के बात सुने के मन होवत हे; राम-रमायन के कुछू बात सुना।''

गुरूजी - ''वइसन नो हे कका! दू आखर पढ़ के न कोनों ज्ञानी बनय, अउ न सबो अपढ़ मन मूरख होवंय। ज्ञान ह किताब म नइ मिलय; ये ह तो जिनगी के अनुभव ले आथे। देश-दुनिया के व्‍यवहार ल नजीक ले देखे से आथे। तंही ह तो हाना कहिथस 'खुद के मरे बिना सरग नइ दिखय।' कबीर दास ह तो घला केहे हे -

''पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े से पंडित होय।'

पोथी पढ़ के न कोई पंडित बन सकय अउ न कोनों ह ज्ञानी बन सकय। ये जग के, नदिया-पहाड़, पेड़-पौधा, जीव-जन्‍तु, सबके रचना करने वाला प्रकृति हर आय। प्रकृति के ये जम्‍मों रचना खातिर जेकर हिरदे म प्रेम हे, मया अउ दुलार हे, विही ह सच्‍चा ज्ञानी आय। 'जान हे ते जहान हे'; जीयइया बर पूरा संसार हे, सब कुछ हे, मर गेस त बस खाली हे, शून्‍य हे। दुनिया म जीना हे त दुनिया से लड़े बर पड़थे। दुनिया से लड़े बर दुनिया के अनुभव ह काम आथे, पोथी-पुरान के लिखा ह काम नइ आय। वो कथा ल तो आप मन जानथव?

डेरहा बबा - ''कते कथा ल बाबू?''

गुरूजी - 'चार वेद, छः शास्‍त्र, अउ अठारहों पुरान के जानने वाला एक झन महापंडित रिहिस। वोला अपन पंडिताई के बड़ा घमंड रहय। कका! पढ़े-लिखे आदमी ल अपन विद्या के घमंड होइच्‌ जाथे, अनपढ ह का के घमंड करही? अब ये दुनों म तंय कोन ल ज्ञानी कहिबे अउ कोन ल मूरख कहिबे? पढ़े-लिखे घमंडी ल कि सीधा-सादा, विनम्र अनपढ़ ल?

एक दिन वो महापंडित ह अपन खांसर भर पोथी-पुरान संग डोंगा म नदिया ल पार करत रहय। डोंगहार ल वो ह पूछथे - ''तंय ह कुछू पढ़े-लिखे हस जी? वेद-शास्‍त्र के, धरम-करम के, कुछू बात ल जानथस?''

डोंगहार ह कहिथे - ''कुछू नइ पढ़े हंव महराज? धरम कहव कि करम कहव, ये डोंगा अउ ये नदिया के सिवा मंय ह अउ कुछुच्‌ ल नइ जानव। इही ह मोर पोथी-पुरान आय।''

महापंडित - ''अरे मूरख! तब तो तोर आधा जिंदगी ह बेकार हो गे।''

डोंगहार ह भला का कहितिस?

डोंगा ह ठंउका बीच धार म पहुँचिस हे अउ अगास म गरजना-चमकना शुरू हो गे। भयंकर बड़ोरा चले लगिस।सूपा-धार कस रझरिझ-रझरिझ पानी गिरे लगिस। डोंगा ह बूड़े लागिस। डोंगहार ह महापंडित ल पूछथे - ''तंउरे बर सीखे हव कि नहीं महराज? डोंगा ह तो बस डूबनेच्‌ वाला हे।''

सामने म मौत ल खड़े देख के महापंडित ह लदलिद-लदलिद काँपत रहय; कहिथे - ''पोथी-पुरान के सिवा मंय ह अउ कुछुच्‌ ल नइ जानव भइया।''

डोंगहार ह कहिथे - ''तब तो तोर पूरा जिनगी ह बेकार हो गे महराज।''

कका! विही नदिया ह तो भवसागर आय। जउन ल तंउरे बर आही, विही ह पार उतरही। पोथी-पुरान पढ़ के कोनों ह तंउरना नइ सीख सकय। नदिया म, पानी म जाबे तभे तंउरे बर सीखबे। पोथी-पुरान पढ़ के कोनों ह धान बोंय बर, खेत जोंते बर अउ अन्‍न उपजाय बर नइ सीख सकय। खेत म जाबे तभे सीख सकबे। पेट ह अनाज ले भरथे, पोथी-पुरान ले नइ भरय। खुद ल पंडित-ज्ञानी बताने वाला मनखे मन जउन किसान ल अड़हा कहिथें, शूद्र कहिके हिनमान करथें, उँखर मन के ज्ञान बड़े हे कि अन्‍न उपजा के दुनिया के पेट भरने वाला किसान मन के ज्ञान ह बड़े हे? भवसागर ल कोन ह पार कर सकही, डोगहार ह कि महापंडित ह?

रहि गे बात राम-रमायेन के; तब कका! रोज इहाँ कथा-कंथली के चर्चा होवत हे तउन ह का ये? रमायन तो पीछू बनिस हे, हमर कथा-कंथली ह कब के बने हे तउन ल कोनों बता सकथें? पोथी अउ रमायन मन तो कवि के रचना आय। अउ कथा-कंथली मन ह? ये मन तो समाज के रचना आय। येमा कोनों नायक के, कोनों राजा के, कोनों बंस अउ खानदान के चारण-गाथा नइ रहय। येमा तो जिंदगी के सच्‍चाई अउ समाज के बरणन रहिथे। ये ह कइसे छोटे हो गे? एक ठन नानचुक कहानी सुनव -

चिंया अउ साँप

जंगल म बर रुख के खोड़रा म सुवा रहय। ़़एक दिन वो ह गार पारिस। गार ल रोज सेवय। एक दिन वोमा ले ननाचुक चिंया निकलिस। तोता ह दाना लाय बर जंगल कोती गे रहय। एक ठन साँप ह चिंया ल देख डरिस। चिंया तीर आ के कहिथे - ''मोला गजब भूख लागे हे, मंय ह तोला खाहूँ।''

चिंया ह कहिथे - ''अभी तो मंय ह नानचुक हंव; तोर पेट नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।''

साँप ह चिंया के बात ल मान गे। रोज वो ह चिंया तीर आय अउ खाय बर मुँहू ल फारे। चिंया ह रोजे वोला विहिच बात ल कहय - ''अभी तो मंय ह नानचुक हंव; तोर पेट नइ भरही। बड़े हो जाहूँ, तब पेट भर खा लेबे।''

धीरे-धीरे चिंया के डेना मन उड़े के लाइक हो गे।

एक दिन साँप ह कहिथे - ''अब तो तंय बड़े हो गे हस। आज तोला खा के रहूँ।''

चिंया ह किहिस - ''खा ले।'' अउ फुर्र ले उड़ गे।

साँप ह देखते रहिगे।

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अब बता कका! ये कहानी के बनाने वाला कोन आय? ये कहानी ह कब बनिस? अरे भई जउन दिन चिंया अउ सांप बनिस होही; सांप के मुँहू ले अपन परान ल बंचाय बर चिंया ल जउन दिन कोनों आदमी ह छटपटात देखिस होही, विही दिन वो आदमी ह ये कहानी ल बनाइस होही। हमर ये लोककथा मन म, ये कहानी मन म न तो सरग हे, न तो नरक हे, न पाप हे, न पुण्‍य हे। सिरिफ जिनगी के लड़ाई हे। अउ जिनगी के ये लड़ाई ह महाभारत के लड़ाई ले कम होथे का? लड़ाई म साम, दाम, दण्‍ड अउ भेद सब जायज होथेे। काबर? अरे! जिनगी ह हाबे तभे तो सरग-नरक अउ पाप-पुण्‍य हे। तभे तो पोथी अउ पुरान हे। जिनगी ह नइ रही तब का ह बांचही? का ह रही? तब तो खाली शून्‍य ह बांचही।

कहानी ल सुन के डेरहा बबा ह कहिथे - ''वाह बेटा! अइसन बात ल तो कोनों गुरूजीच्‌ ह बता सकथे, आज तंय मोरो गुरूजी बन गेस।''

राजेश ह कहिथे - ''बबा, बबा! एक ठन कहानी महूँ ह कहूँ।''

डेरहा बबा - ''वाह! गुरू के बात ल सुने हन जी, अब चेला के बात ल घलो सुनबो। बता बेटा।''

राजेश ह कहानी सुनाय के शुरू करथे।

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कुकरी अउ चिंया

एक ठन कुकरी के चार ठन चिंया रहंय। कुकरी ह रोज अपन चिंया मन ल संगे संग फिराय अउ चारा चराय। एक दिन कुकरी ह चिंया मन ल कहिथे - ''चलो, चरे बर आज भांठा कोती जाबोन।''

चिंया मन कहिथे - ''भांठा म का मिलही? भांटा बारी म जाबोन, उहाँ कीरा-मकोरा गजब मिलही।''

लइका मन के जिदियाही म कुकरी के एको नइ चलिस। चरे बर माई-पिला भांटा बारी गिन। गोड़ म खोधर-खोधर के सब झन चरत रहंय। एक ठन भांटा पेड़ म बड़े जबर गोलिंदा भांटा फरे रहय, कुकरी ह वोकरे खाल्‍हे म बिधुन हो के चरत रहय। भांटा पेड़ ह जोरंग गे अउ कुकरी ह गोलेंदा भांटा म चपका के मर गे।

चिंया मन गजब चींव-चींव करिन। किहिन - ''हमर पेलियाही म हमर दाई के परान चल दिस।''

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राजेश के कहानी ल सुन के मनसुख ह कहिथे - ''वाह भइ वाह! गुरू ह तो गुड़ेच्‌ रहि गे, अउ चेला ह शक्‍कर बन गे।''

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Xयारहवाँ पैर

पूस महीना के जाड़ के का पूछना? नस के रकत ह जमें कस लागत हे। विही पाय के आज दुनों नाती-बुढ़ा मिल के भारी बेवस्‍था करे हें। भुर्री म बम्‍भूर के बड़े जबर ठुड़गा ल झपाय हें। डेरहा बबा ह राजेश ल कहिथे - ''मालिके-मालिक म काम नइ बने बेटा; दू-चार ठन टेनपा रहिथे तब काम ह बनथे।''

मालिक अउ टेनपा के भाव ल राजेश ह समझ गे। कहिथे - ''सोझ-सोझ अउ पतला-पतला सुक्‍खा लकड़ी मन वोदे करा माड़े हे बबा, दू-चार ठन लाँव का?''

डेरहा बबा - ''कीरा-मकोरा ल देख के अउ हाथ-गोड़ ल बचा के; सकउ-सकउ मन ल लानबे रे भइ।''

विही लकड़ी मन ह आज दगदिग-दगदिग बरत हें तभो ले गनेसिया के जाड़ ह भगातेच नइ हे। अंगीठी मन ल मार कोचके परत हे।

मनसुख - ''एसो के जड़कला ह बुड़गा-बुड़गी मन ल ऊपर डहर रेंगाही तइसे लागत हे भइया।''

डेरहा बबा - ''अभी वोकर चढ़त जवानी हे रे भइ, धरे बर पूछी न पकड़े बर कान, लाहो तो लेबेच करही। फेर किसान ल सबो दुख-तकलीफ ल सहे बर पड़थे। पानी-बादर, शीत-घाम, भूख-पियास ल डराही तउन ह कइसे खेती करही?''

मनसुख - ''खून-पसीना ल दिन-रात अंउटाथन भइया, तभो ले हमर कोठी ह खाली के खाली। आदमी अउ जानवर के रहवइ-खवई म फरक हाबे का भला?''

डेरहा बबा - ''अपन-अपन करम-कमाई, अपन-अपन भाग तो आय रे भाई''

मनसुख - ''भइया, करम-कमई म हमर न तो खोट हे, अउ न तो कोनों कमी हे।''

डेरहा बबा - ''हाबे रे भइ! कमी हाबे। काली गुरूजी ह का किहिस हे, सुने हस नहीं? ताकत अउ मेनत के संगेसंग दिमाग घला लगाय बर पड़थे। इही म हम पिछवा जाथन। नइ ते अब कोन ह हमर हाथ ल बांध के राखे हे? साम, दाम, दण्‍ड अउ भेद के नीति म नइ चल पावत हन। घरम के नाव म हमर मन म डर समाय हे, इही ह हमर बंधना बन गे हे। इही पाय के हम पिछवा गे हाबन। चाहे किस्‍मत घला अपन जघा हे फेर मोर समझ तो इही कथे। अब एक ठन कहानी सुनव।''

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अपन-अपन करम-कमाई, अपन-अपन भाग

एक झन राजा रहय। राजा के दू झन बेटी रहिथें। राजा ह अपन बेटी मन ल अघात मया करे। एक दिन बेटी मन ह अंगना म सगा-पाना खेलत रहंय। राजा ह दरबार के काम-काज निपटा के घर आइस। बेटी मन ल खेलत देख के गजब खुस होइस। बेटी मन ह बाप ल आवत देख के कुलकत-कुलकत आथें अउ वोकर गोड़ ल पोटार लेथें। राजा ह दुनों बेटी मन ल कोरा म ले के अपन आसन म जा के बइठ जाथे। बेटी मन के बुद्धि के परछो लेय खातिर राजा ह पूछथे - ''मोर मयारुक बेटी हो! आज मंय ह तुँहर ले एक ठन सवाल पूछत हौं, बने सोच-विचार के जवाब देहू।''

सवाल के नाव सुन के बेटी मन संसो म पड़ गें।

राजा ह कहिथे - ''बेटी हो! तुमन काकर भाग के रोटी खावत हव?''

बड़े बेटी ह उनिस-गुनिस कुछू नहीं, चट ले कहिथे - ''हम तो तोर भाग के रोटी खाथन पिता जी।''

बड़े बेटी के जवाब ल सुन के राजा ह गजब खुस होइस। मनेमन सोंचथे; मोर बेटी ह गजब बुद्धिमान हे।

छोटे बेटी ह कलेचुप बइठे रहय। राजा ह कहिथे - ''तंय कइसे कुछू नइ बतास बेटी?''

छोटे बेटी ह गजब बेर ले गुनिस अउ कहिथे - ''पिता जी! ये दुनिया म जनम धरइया सबे जीव, चाहे चाँटी होय कि मिरगा होय, सब अपन-अपन भाग ल ले के जनम धरथें। सब कोई अपन-अपन भाग अउ अपन-अपन कमाई के रोटी ल खाथें। महू ह अपन भाग के रोटी ल खाथों।''

राजा ल छोटे बेटी के जवाब ह बने नइ लगिस। सोंचथे; नानचुक लइका म कतका बुध रही? बड़े बाढ़ही तहाँ ले खुदे समझ जाही।

लइका मन के उमर ह पढ़े-लिखे के लाइक हो गे। राजा ह वोमन ल शिक्षा पाय बर गुरू के आश्रम म भेज दिस।

गुरू के आश्रम म रहि के दुनों राजकुमारी मन बेद-शास्‍त्र, इतिहास, राजनीति, युद्धनीति, संगीत अउ सब प्रकार के विद्‌या सीखे लगिन।

कुछ दिन बीते ऊपर एक दिन राजा ह बेटी मन के हाल-चाल जाने खातिर आश्रम जाथे। गुरू जी ह छोटे राजकुमारी के गुण, बुद्धि, चतुराई अउ समझ के गजब बड़ाई करथे। सुन के राजा ह गजब प्रसन्‍न होथे।

बेटी मन के बुद्धि के परछो लेय खातिर राजा ह फेर विही सवाल ल पूछथे। कहिथे - ''मोर गजब मयारुक, चतुर-सुजान बेटी हो! बताव भला, तुमन काकर भाग के रोटी खाथव?''

बड़े बेटी के टकर रहय; उनिस न गुनिस, चट ले कहि दिस - ''अउ काकर भाग के रोटी ल खाहूँ पिता जी, तोरे भाग के रोटी ल तो खाथंव।''

बड़े बेटी के जवाब ल सुन के राजा ह गद्‌गद्‌ हो गे।

छोटे बेटी ह कहिथे - ''पिता जी! ये दुनिया म सब प्राणी अपन-अपन भाग ले के जनम धरथें। सब कोई अपन-अपन भाग के अउ अपन-अपन कमाई के रोटी ल खाथें। महू ह अपन भाग के रोटी ल खाथों।''

छोटे बेटी के जवाब ल सुन के राजा ल खूब क्रोध आइस। सोंचथे; तोता रटे कस एके ठन जवाब ल ननपन ले रट डरे हे लड़की ह। गुरू जी ह येकर गुण, बुद्धि, चतुराई अउ समझ के बड़ाई करथे। भड़क-भुड़का के राजा ह चल दिस।

समय बीतिस। राजकुमारी मन अपन पढ़ाई ल पूरा करके गुरू आश्रम ले राजधानी आ गिन। राजकुमारी मन अब सज्ञान हो गे हें। आज राज-दरबार म राजकुमारी मन परजा मन ल दर्शन देहीं। राजा ह गजब प्रसन्‍न हे। सब तैयारी हो गे हे।

राजा ह सोंचथे; राजकुमारी मन के बुद्धि के परछो लेना चाहिये। दुनों राजकुमारी मन ल बला के फेर विही सवाल ल पूछथे। कहिथे - ''मोर बुद्धिमान अउ चतुर-सुजान बेटी हो! मोर तो अब चौथापन आ गे हे। आगू राजकाज के काम ल तुहीं मन ल चलाना हे। मोर सवाल के जवाब बने सोंच-समझ के देहू; आज तुँहर आखरी परीक्षा हे। बताव, तुमन काकर भाग के अन्‍न खाथव?''

बड़े बेटी ह फेर विही जवाब देथे। कहिथे - ''प्रजा पालक, अन्‍नदाता, महाप्रतापी हमर पिताजी! हम जो भी हन, जइसन हन, सब तोर कृपा से हन। तोरेच्‌ देय अन्‍न ल खा के हमर पालन-पोषण होथे।''

बड़े बेटी के जवाब सुन के राजा प्रसन्‍न हो गे।

छोटे बेटी ह कहिथे - ''न्‍यायप्रिय महाराज की जय हो। पिताजी! ये सृष्‍टि के रचना ल भगवान ह करे हे। नाना प्रकार के जीवजन्‍तु के रचना ल घला भगवान ह करे हे। जीवजन्‍तु मन खातिर हवा, अन्‍न-जल, धरती, अगास, नदिया, झरना, जंगल, पहाड़ सब ल ईश्‍वर ह बनाय हे। जीव जन्‍तु के किस्‍मत ह घला वोकरे बनाय आय। सब प्राणी अपन-अपन किस्‍मत के हवा-पानी, अन्‍न-जल के सेवन करथें।''

बेटी के जवाब सुन के, धन-दौलत के नशा म चूर राजा ह मारे क्रोध के कांपे लगिस। कहिथे - ''पागल लड़की! झन भूल कि तंय राजा के लड़की आवस। तंय राजा के घर म जनम लेय हस। विही पाय के आज तंय ह राजा के आगू म बइठे हस।''

बेटी ह कहिथे - ''राजा-प्रजा, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, जाति-पांति, ये सब तो समाज के व्‍यवस्‍था आवय पिताजी; आदमी के बनावल आवय। ईश्‍वर के व्‍यवस्‍था म तो सब बराबर हें। कोन ह कहाँ जनम लेथे, काकर घर जनम लेथे, ये हर तो संजोग के बात आवय; इही ल हम किस्‍मत मान लेथन।''

''आज तंय जउन हस, जइसे हस, राजा के बेटी आवस, तउन पाय के हस।''

''आज मंय जउन हंव, जइसे हंव, अपन किस्‍मत से हंव पिताजी। आगू जइसन रहिहंव, अपन करम से रहिहंव।''

''तोला अपन किस्‍मत अउ अपन करम ऊपर अतका घमण्‍ड हे?''

''मोला कोनों घमण्‍ड नइ हे पिता जी, मंय तो सच्‍चाई ल कहत हंव।''

गुस्‍सा के मारे राजा के तन-बदन म आगी लग गे। कहिथे - ''तोर सच्‍चाई ह अभी दिख जाही, घमंडी लड़की। देखथंव, तोर भाग कइसन हे, अउ अपन करम म तंय का कर लेबे।''

राजा ह मंत्री ल आदेस देथे - ''जाव! अइसन बिमरहा आदमी खोज के लाव, जउन ह घंटा-दू घंटा ले जादा मत जी सके; अउ तुरत वोकर संग ये लड़की के बिहाव कर दव।''

राजा के आज्ञा सुन के चारों मुड़ा सिपाही दंउड़ गे। संजोग ले मेड़ो तीर एक ठन बर पेंड़ के छँइहा म एक झन बिमरहा आदमी सुते रहय। तन म हाड़ा के सिवा अउ कुछू नइ रहय। कब मर जाही तेकर कोनों ठिकाना नइ रहय। सिपाही मन विही ल धरके ले आइन।

देख के राजा ह गजब प्रसन्‍न होइस। तुरत-फुरत वोकर संग राजकुमारी के भांवर पार दिस अउ विही बर रूख तीर लेग के वो मन ल छोड़वा दिस। राज भर म हांका परवा दिस कि कोनों इँखर मदद झन करय। मदद करने वाला ला फाँसी म टाँग दे जाही।

घपटे अँधियारी रात। हाथ ल हाथ नइ सूझत रहय। बघवा के हाँव-हाँव अउ कोलिहा के हुआँ-हुआँ के मारे जंगल के सबो प्राणी मन अपन-अपन माड़ा म लुका के खुसरे रहंय। येती बर पेड़ के छँइहा म छोटे राजकुमारी ह अपन पति के सिर ल अपन गोद म मड़ा के बइठे रहय। पति के बीमारी ह कइसे माड़ही; इही बात ल गुनत रहय। ठंउका रात के बारा बजे कोनों प्राणी के बोली ल सुन के वो ह झकनका गे। विही करा एक ठन बड़े जबर भिंभौरा रहय। भिंभौरा म एक ठन साँप रहय, तउने ह मार फुँफकार-फुँफकार के कहत रहय - ''अरे चंडाल, पापी! तोर सरी धोखेबाज, विश्‍वासघात अउ नीच, ये दुनिया म अउ कोनों नइ होही। मितान ह अपन मित्रता निभाय बर, तोर परान ल बचाय बर, तोला अपन पेट म जावन दिस; अउ तंय वोकरे जान के दुश्‍मन बन गेस? मोर बोली ल कहूँ कोनो समझत होही ते कड़कत घींव ल ये बिला म रूको देतिस। घींव म भुंजा के मंय ह जड़ी बन जातेंव। भिंभौंरा ल कोड़ के वो जड़ी ल निकाल लेतिस। जड़ी ल पीस के, घींव अउ गुड़ म सान के तीन ठो लाड़ू बना लेतिस। तीन जुवार ले ये लाड़ू ल राजकुमार ल खवातिस। तंय ह पेट भीतरिच मर के गल-पच जातेस; अउ येकर परान ह बांच जातिस। इही भिभौंरा म सोन के मुहर ले भरे हंडा हे, तउन म वो ह राज करतिस।''

वोती राजकुमारी के पति के पेट भीतर ले दूसरा साँप ह गरजत रहय - ''तंय ह मोर कुछ बिगाड़ नइ कर सकस रे नादान। तोर बोली ल इहाँ कोन मानुख ह समझही? फोकट अपन करेजा ल तंय झन जरा। चुप रह।''

छोटे राजकुमारी ह गुरू के आश्रम म पशु-पक्षी, सबके बोली ल सीखे रहय। दुनों साँप के गोठ-बात ल सुन के वो ह सब बात ल समझ गे। वो ह जान गे कि वोकर पति ल का बीमारी हे अउ वो ह कोन आय। कहिथे - ''हे पति देव! तंय ह कोन अस, का अस अउ तोला का बीमारी हे, मंय ह सब ल जान गेंव। तंय ह अब कोनों फिकर झन कर। भगवान के कृपा होही ते बहुत जल्‍दी तोर बीमारी ह बने हो जाही। फेर मंय ह तुँहर जबान ले सुनना चाहत हंव कि साँप बैरी ल तुम अपन पेट म काबर खुसरन देव?''

छोटे राजकुमारी के पति ह साँप के नाव सुन के अचरज म पड़ गे कि ये सब भेद ल राजकुमारी ह जानिस ते जानिस कइसे? मन म आस बंध गिस कि अब परान ह जरूर बाँच जाही। वो ह राजकुमारी ल अपन कहानी बताय के शुरू करिस। किहिस - ''हे राजकुमारी! सुन। मँहू ह कोनो देश के राजकुमार आवंव। जउन साँप ह मोर पेट म खुसरे बइठे हे, विही धोखेबाज संग मंय ह मितानी बदे रेहेंव। एक दिन हम दुनों मितान शिकार खेले बर जंगल आयेन। जंगल म ये धोखेबाज ह पियास मरे के बहाना करिस। कोनों जगह बूँद भर पानी नइ मिलिस, तब मितानी धरम निभाय खातिर येला पानी पिये बर मंय अपन पेट म खुसेर लेंव। पेट भीतर जा के ये ह मोर जान के दुश्‍मन बन गे। खुसरिस ते फेर निकले के नाव नइ लिस। भीतरेभीतर रात-दिन मोर करेजा ल खा-खा के मोला मरे के लाइक कर दिस।''

अइसने गोठ-बात करत रात ह पहा गे। पनिहारिन मन पानी भरे खातिर तरिया के घटौंधा म आय रहंय। एक झन पनिहारिन के महल भीतर आना-जाना रहय। निझमहा देख के राजकुमारी ह वोला बिनती करथे। कहिथे - ''हे बहिनी! बाप ह भले निठुर हो गे हे, महतारी ह मोर जरूर मदद करही। कहिबे कि तोर बेटी ह एक टाँड़ी घींव अउ एक सेर गुड़ मंगाय हे।''

महतारी ह अपन मयारूक बेटी के बात भला कइसे नइ मानतिस? तुरते चोरी-लुका बेटी बर एक टाँड़ी घींव अउ एक सेर गुड़ पठो दिस।

बीच खार। दू गाँव के मेड़ो। मदद करने वाला कि देखने वाला उहाँ भला कोन हे? राजकुमारी ह घींव ल कड़का के आधा ल भिंभौरा के बिला म रुको दिस। कइसनो उपाय करके भिंभौरा ल कोड़िस। लकलक-लकलक करत सोन के हंडा ऊपर साँप ह कड़कत घींव म भुँजा के जड़ी बन के बइठे रहय। राजकुमारी ह हंडा के बेसाव करके, जड़ी ल पीस के तीन ठो लाड़ू बनाइस। तीन जुवार के खवाय ले राजकुमार के पेट भीतर के साँप ह गल-पच के नाश हो गे।

अब तो राजकुमार ह दिनोदिन टेहराय लगिस। राजकुमारी ह सब विद्‌या म सिद्ध रहय; बैदांग घला जानय। जंगल ले पुष्‍टई जड़ी-बुटी लान-लान के राजकुमार ल खवाय के शुरू करिस। पंदरा-महीना दिन म राजकुमार ह टंच हो गे।

राजकुमार ह राजकुमारी संग जब अपन राज म पहुँचिस। पुत्र अउ वोकर संग में अप्‍सरा कस सुंदर बहु ल देख के पुत्र-वियोग म अधमरा होवल माता-पिता के जान म जान आ गे। अपन गँवाल राजकुमार ल सामने देख के सरी परजा राजकुमार के जय-जयकार करे लगिन। उहाँ अघात उछाह-मंगल होइस।

कुछ दिन बाद राजकुमार ल राजगद्‌दी सौंप के राजा-रानी मन तीरथ-धाम करे बर चल दिन। छोटे राजकुमारी ह अब तो महारानी बन गे।

अब ये डहर के हालचाल सुनव। राजा ह अपन छोटेबेटी ल जउन दिन बिमरहा आदमी संग भांवर फेर के बिदा करिस विही दिन ले वोकर दुर्दिन शुरू हो गे। ओरीपारी विपत्‍ति के पहाड़ टूटे लगिस। पड़ोसी राज के राजा संंग वोकर लड़ाई शुरू हो गे। लड़ाई म राजा ह राज-पाट सब ल हार गे। अपन प्राण बचाय बर वो ह भेस बदल के जंगल-जंगल, ये गाँव ले वो गाँव घूमे लगिस। भिखारी के भेष म घूमत-घूमत एक दिन वो ह अपन विही छोटे बेटी, जेकर बिहाव ल बिमरहा संग करे रहय, के राज म चल दिस।

बिहने-बिहने के बात आय। सतखंडा राजमहल के आगू म राजा-रानी के जय-जयकार करत भिखारी मन के लाइन लगे रहय। राजा-रानी मन सबे भिखारी मन ल बड़ आदर सहित अन्‍न-धन, कपड़ा-लत्‍ता के दान देवत रहंय। देख के भिखारी रूप धरे राजा ह घला ह लाइन म खड़ा हो गे।

जनम के भिखारी अउ किस्‍मत के मारल भिखारी म फरक होथे। भिखमंगा राजा के व्‍यवहार अउ चाल-ढ़ाल ल देख के महारानी ल अचरज होइस। बने नजर भर के देखिस ते वोकर छाती ह धक ले हो गे। जउन बाप के कोरा म खेल के अपन बचपन बिताय हे; तउन बाप ल भला बेटी ह नइ पहिचानतिस? राजकुमार संग सलाह करथे अउ सिपाही मन ल आदेश देथे - ''ऐ सिपही हो! लाइन के सबले पीछू म खड़े, डाढ़ी-मेछा बढ़ाय, पक्‍का चूँदी वाले वो आदमी ल देखव। वोला बड़ आदर-सनमान के साथ महल म लाव। वोला स्‍नान-ध्‍यान कराव, हजामत कराव, अउ राजवस्‍त्र पहिरा के मोर महल म हाजिर करव।''

सिपाही मन ल अपन कोती आवत देख के भिखमंगा राजा ह लद्‌लद्‌-लद्‌लद्‌ कांपे लगिस। वोकर नजर म फाँसी के फंदा ह झूले लगिस।

सिपाही मन कहिथे - ''डर मत बबा; अपन किस्‍मत ल सहुँरा। तोर ऊपर हमर दयालु महारानी के कृपा बरसने वाला हे। चल हमर संग।''

भिखमंगा राजा ह मन म सोंचथे, अपराधी संग सबे सिपाही मन अइसनेच्‌ व्‍यंग्‍य करथें। फेर वो ह अब भागतिस ते भागतिस कहाँ?

महल म दसों झन नौकर-चाकर पहिली ले तैयार खड़े रहंय। नहवइया, हजामत करइया, मालिश करइया, सवांगा करइया, सब अपन-अपन काम म लग गें।

भिखमंगा राजा ह सोचथे; बलि चढ़ाय के पहिली बोकरा ल अइसने सजाय जाथे।

भिखमंगा राजा ल राजवस्‍त्र पहिरा के, बने सजा-संवार के सिपाही मन ह महारानी के महल म लेग के सिहासन म बइठा दिन।

डर, संकोच अउ मन के हीनता के कारण मुड़ी उचा के देखे के हिम्‍मत नइ होवत रहय राजा के।

महारानी ह आ के बाप के पाँव परे बर निहरथे। राजा ह डर के मारे पीछू घूँच देथे। कहिथे - ''हे राजमाता! मोला ये कइसन सजा देवत हव?''

महारानी - ''पिताजी! तंय आज तक मोर से नाराज हस कि मोला पहिचान्‍हत नइ हस?''

राजा ह बेटी के बोली ल ओरख डरिस। मन म कहिथे; ये ह तो मोर छोटे बेटी के बोली कस लागत हे। नजर उठा के देखथे ते महारानी के भेष म सिरतोनेच्‌ के वोकर छोटे बेटी ह आगू म आरती धर के खड़े रहय।

बेटी ह बाप के छाती म लिपट गे।

बाप के दुनों आँखी ले गंगा-जमुना के धार बोहाय लगिस। राजा के घमंड तो पहिलिच्‌ चकनाचूर हो गे रहय; अब पछतावा के आँसू म वोकर पाप ह घला धोवा गे।

दार भात चुर गे, मोर कहानी पूर गे।

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बारहवाँ पैर

आज तो राजेश ह कहाँ ले कुकुर के एक ठन सुंदर अकन पिला ल धर के ले आय रिहिस। कुँई-कुँई करत पिला ह बइठे रहंय तिंंखर बीच म खुसरे परे। नंदगहिन दाई ह कहिथे - ''हत रे चण्‍डाल, काला धर के ले आय हस। कुकुर-बिलई ह हमला बने नइ लगय। भगा येला।''

डेरहा बबा - ''आदमी जात ह जब ले घर-गिरस्‍ती वाला होय हे, तब के संगवारी आय कुकुर ह। आदमी ह भले नमकहरामी कर दिही, फेर ये ह कभू नइ करय। सरग जावत समय पांच भाई पाण्‍डव म चार झन ल देह तियागे बर पड़ गे। धरमराज के घला एक ठन अंगरी ह गल गे फेर वोकर कुकर ह साबुत सरग पहुँचिस। अइसन इंकर महत्‍तम हे। अपन छत्तीसगढ़ म घला कुकर के मंदिर हे। लोग वोकर पूजा करथें। काबर करत होहीं पूजा? आज वोकरे कहानी ल सुनव।''

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मालीघोरी के कुकुर-देवता

एक सहर म एक झन महाजन रहय। बारा कोस ले वोकर बैपार बगरे रहय। हँसत-खेलत परिवार रहय। दसों झन नौकर-चाकर अउ मुंसी-मुनीम रहंय वोकर।

महाजन ह एक ठन कुकुर घला पोंसे रहय, बड़ गुनिक, बड़ ईमानदार। महाजन के चीजबस, धन-संपत्‍ति, घर-परिवार, सब के रक्षा करय कुकुर ह; काकर हिम्‍मत हे कि वोकर रहत ले कोनों एक ठन कांड़ी ल घला येती के वोती कर सकतिन? बेटा बारोबर चाहे महाजन ह वोला।

बैपार म नफा-नुकसान तो लगेच्‌ रहिथे, फेर एक दफा महाजन ल अइसे नुकसान होइस कि वोकर घर-दुकान, सोना-चांदी, गहना-गुरिया सब बेचा गे। गरीब ले दून गरीब हो गे महाजन ह, फेर जेकर तीर बुद्धि होथे, हिम्‍मत होथे, हुनर होथे वो ह कभू हार मान के बइठे नइ रहय।

दुकान अउ बैपार ल जन्‍म-भूमि के गाँव म कभू नइ करना चाही, बैपार ह तो परदेसेच्‌ म पनपथे। महाजन ह सोचिस, हाँथ म दू पइसा कहूँ ले आ जातिस, त परदेस जा के एक घांव भाग ल अजमा लेतेंव। फेर हे भगवान! हारे जुआँरी के कोन विस्‍वास करही ये दुनिया म? कोन मोला पतियाही? का हे अब मोर पास, जउन ल बेच के, कि रहन धर के दू पइसा के बेवस्‍था कर सकंव?

कुकुर ह मालिक के गोड़ तीर बइठे रहय। मालिक के दसा देख के मनेमन सोचत रहय कि हे भगवान! मंय कुकुर के जात, का काम के?

कुछु सोच के मालिक के चेहरा म पानी आ गे। कुकुर कोती देख के कहिथे - ''धन-संपत्‍ति, नौकर-चाकर सगा-संबंधी, हितु-पिरितु, ये दुनिया म सब मोर साथ छोड़ दिन, फेर अरे कुकुर! तंय मोर साथ ल नइ छोड़ेस। तही मोर सच्‍चा मितान हरस। अब तंय मोर एक ठन मदद अउ कर दे।''

मालिक के गोठ सुन के अउ मालिक के हरियर चेहरा ल देख के कुकुर घला खुस हो गे। मालिक के गोड़ म घोलंड के कुँ कुँ.... करे लगिस; जइसे कहत होय कि हे मालिक! ननपन के तंय मोला पोसे-पाले हस, आज तोर काम नइ आहूँ ते अउ कब आहूँ?

नगर म एक झन अउ सेठ रहय, जउन ह ब्‍याज-बट्टा के कारोबार करय। वोकरे तीर जा के महाजन ह कहिथे - ''सेठ जी! बड़ आस ले के मंय ह तुँहर तीर आय हंव, नहीं मत कहू।रहन धरे बर, कि बेंचे-भांजे बर तो मोर पास कुछ नइ हे, अगर बिस्‍वास होय ते मोर ये कुकुर ल अमानत समझ के रख लेव अउ मोला कुछ पइसा चला देव।''

कुकुर के ईमानदारी अउ स्‍वामि-भक्‍ति के किस्‍सा ल सहर भर म कोन नइ जाने? सेठ ह मन म सोचथे - कुकुर माकर के का बिस्‍वास करबे? फेर बीपत के मारा हे बेचारा महाजन ह, धंधा म आज तक कभू बईमानी नइ करिस, जात-बिरादरी के घला आय, खाली हाँथ लहुटाना उचित नइ हे। अइसना सोच के रूपिया के थैली ल महाजन ल देवत कहिथे - ''महाजन! मन ल उदास झन कर। वो भिखारी बच्‍चा के किस्‍सा ल सुने होबे, जउन ह मरे मुसवा ल बेच के नगर सेठ बने रिहिस। मेहनत, लगन अउ बुद्धि के बल म आदमी ह अपन किस्‍मत के रेखा ल घला बदल सकथे। थैली म देवत हंव, फेर जउन दिन लहुटाबे, बोरा भर-भर के लहुटाबे।''

महाजन ह गदगद्‌ हो के सेठ जी ल परनाम करिस। कुकुर ल कहिथे - ''अरे कुकुर! अब आज ले तोर मालिक सेठ जी ह हरे। जइसन सेवा मोर करेस, वइसने सेवा सेठ जी के करबे। तोला छोड़ाय बर एक दिन लहुट के मंय जरूर आहूँ। मोर बचन के लाज रखबे।''

रूपिया के थैली ल धर के महाजन ह परदेस जाय बर निकल गे। महाजन ल जावत देख के कुकुर के दुनों आँखी ले तरतर-तरतर आँसू बोहाय लगिस।

समय के गति ल, समय के रूप ल अउ समय के मरम ल, भला कोन जान सके हे? दिन-महीना करत समय गुजरत जावत हे।

एक दिन अनहोनी हो गे। सेठ जी के घर डाका पर गे। सेठ-सेठानी, नौकर-चाकर सब बेसुध हो के सुते रहंय। कुकर ह भला कइसे सुतही? वोला तो मालिक के करजा चुकाना हे। फेर का करे? चोर मन के हाथ म नंगी तलवार हे, भूंकही ते खुद के अउ मालिक-मालकिन के परान जाही।

चोर मन के करनी ल चुपचाप मिटकाय देखत हे कुकुर ह।

बिहान होइस। सेठ जी के घर रोवा-राई मात गे। जंगल के आगी जइसे बात ह बात कहत नगर भर म बगर गे।

नगर भर के आदमी सकला गें। पुलिस-कोतवाल जांच म आ गें।

सेठ जी ह एक पल रोय अउ दूसर पल कुकुर ल मारे, दुत्‍करे; कहय - ''हत्‌ रे नमक हराम कुकुर, तोर मालिक ह तो तोर कतका बड़ाई करे रिहिस, अउ तंय ह का निकलेस? एक घांव तो भूंके रहितेस? अरे नमक हराम, दूर हो जा मोर नजर से।''

बेजुबान पसु; मुँह ले का जवाब देतिस? जतका दुत्‍कारे सेठ जी ह वोतका तीर म आय अउ वोकर धोती के कोर ल मुँहू म धर के खींचे। कुकुर के ये इसारा ल कोई नइ समझे। कोतवाल ह जानकार रहय अउ सियान घला रहय; कुकुर के ये हरकत ल देख के वो ह समझ गे कि कुकुर ह कुछ कहना चाहत हे। सेठ जी ल कहिथे - ''सेठ जी, तुंहर कुकुर ह कुछ कहना चाहत हे। वोला दुत्‍कारो झन अउ वोकर पीछू-पीछू चलव।''

सेठ जी ह वइसने करिस। कुकुर ह सेठ जी के धोती ल चाबे-चाबे वोला जंगल बीच ले गे। सेठ जी के पीछू-पीछू कोतवाल अउ सहर भर के जनता घला चल दिन। घोर जंगल बीच एक ठन बर रुख के छाँव तरी जा के कुकुर ह थम गे अउ अपन गोड़ मन म जमीन ल कोड़े लगिस। कोतवाल ह कहिथे - ''जमीन के भीतर जरूर कोनो रहस्‍य छुपे हे, ये जगा ल कोड़वा के देखना चाही।''

जमीन ल कोड़ के देखिन। सेठ जी के घर के चोरी के सब हीरा-जवाहरात, सोना-चाँदी, रूपिया-पइसा उहाँ गड़े रहय।

कुकुर के चलाकी ल अब तो सब समझ गें। सेठ जी ह कुकुर ल पोटार के गजब रोइस। कुकुर ह चोर मन ल पक्‍का चीन्‍हें रहय; वहू मन ल पकड़वा दिस। आनंद-मंगल सब घर आइन।

सेठ जी ह कुकुर ल कहिथे - ''तंय ह आज अपन मालिक के कर्जा ल छूट डारेस। आज मंय ह तोला मुक्‍त करत हंव।''

सेठ जी ह एक ठन चिट्ठी लिख के वोकर गर म बाँध दिस अउ किहिस - ''अरे कुकुर! अब तंय अपन मालिक के पास जा। जा के वोला मोर चिट्ठी ल देखा देबे, वो ह सब समझ जाही।''

कुकुर ह लुहँगी चाल चलत अपन मालिक तीर जावत हे।

परदेस म जा के महाजन के बैपार ह गजब फरिस-फूलिस। अपन माल-असबाब ल गाड़ी म जोर के वहू ह देस आय बर निकले रहय। कुकर ह दुरिहच ले मालिक ल चीन्‍ह डरिस अउ गजब खुस होइस। रस्‍ता म दुनों झन के उरभेट्टा हो गे। कुकुर ल देख के महाजन के एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ़ गे। किहिस - ''हत्‌ रे नमक हराम! सेठ जी ल देय मोर बचन ल आज तंय टोर देस। मोला बइमान ठहरा देस।''

गुस्‍सा में महाजन के बुद्धि ह हरा गे। वो ह उनिस न गुनिस, मयान ले तलवार निकालिस अउ कुकुर के छाती म घोंप दिस। गुस्‍सा उतरिस त वोकर नजर ह कुकुर के गर म बंधाय चिट्ठी ऊपर पड़ गिस। कलेजा ह वोकर धक ले हो गे। लकर-धकर चिट्ठी ल खोल के पढ़िस, लिखाय रहय - ''हे महाजन! बड़ भागी हस तंय, कि अइसन कुकुर पाय हस। तोर ये कुकुर ह जतका ईमानदार अउ स्‍वामिभक्‍त हे, वोतका बुद्धिमान घला हे। आज येकर कारन हमर जान ह बांच गे। हमर चोरी गेय धन ह मिल गे। तोर करजा ल ये ह छूट दिस। आज ले मंय ह तोर ये कुकुर ल अउ तोला, दुनों झन ल मोर करजा ले मुक्‍त करत हंव।''

चिट्ठी ल पढ़ के महाजन के करेजा ह फट गे। हे भगवान! ये का पाप कर परेंव? निरपराध के हत्‍या कर परेंव? धार मार-मार के, कुकुर ल पोटार-पोटार के रोय लगिस महाजन ह। फेर छूटे जीव ह लहुट के कभू आय हे?

सेठ जी ह विही करा एक ठन सुंदर अकन मंदिर बना दिस अउ उहाँ विही कुकुर के मूर्ति मढा़ दिस। निस दिन वो ह वोकर पूजा करय अउ अपन पाप के परास्‍चित करय।

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तेरहवाँ पैर

आज तो मनसुख के संग एक झन अउ संगवारी आय हे। जय-जोहार करके सब झन भुर्री के चारों मुड़ा अपन-अपन जघा म बइठिन तहाँ ले डेरहा बबा ह मनसुख ल पूछथे - ''कोन गाँव के सगा ए भइया? हमर गाँव म पहिली घांव आय हे तइसे लागथे।''

मनसुख - ''ये ह मोर समधी के भांटो आय भइया। करहीभदर डहर येकर गाँव हे।''

डेरहा बबा - ''वाह! समधी के भांटो आय, तब तो हमरो मन के भांटो होही। इहाँ लाएस ते बने करेस रे भइ। करहीभदर तीर के रहवइया आय जिहाँ बहादुरकलारिन माई के वास रिहिस हे कहिथें, आज भांटो के मुखारविंद ले वोकरे कथा ल सुनबो।''

भांटो - ''किस्‍सा-कहानी सुनाय बर तो मोला नइ आय रे भइ हो, फेर सुनव।''

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करहीभदर के माता बहादुरकलारिन

करहीभदर गाँव म रहय एक झन बहादुरकलारिन। अदक मोटियारी, वोकर अंग-अंग ह जोत बरे कस जगजग ले उज्‍जर, दिन-रात चमकत रहय। पातर कनिहा, कनिहा के आवत ले झूलत बेनी, काजर आंजे कस बड़े-बड़े करिया-करिया आँखी, लंबा नाक, संतरा चानी कस ओंठ, देवारी के दिया कस जगमग-जगमग करत दांत। पाटी पारे, बीच मांग निकाले, माथा म सुरुज कस चमकत टिकली लगाय, बांह म पहुँची, हाँथ म एैंठी, कनिहा म सात लर के करधन, पाँव म पैजन, गर म सूंता, नाक म हीरा जड़े करनफूल-फूली, कान म बाली पहिर के अउ सवा बीता के बाँस के पोंगरी म समा जाय तइसन पातर, सोन के लरी गुंँथाय, चिकमिक-चिकमिक करत कोसाही लुगरा पहिर के, छाती म चोली बांध के, आँखी म काजर आंज के, मंद के मटकी ल बोहि के, मचोली म जाय बर, गली म मटकत निकलतिस बहादुरकलारिन ह, त जवान होय कि सियान, कोन अभागा होही जउन ह सरी काम-बुता ल छोंड़ के, वोला एक नजर देखे बर घला मुहाटी म नइ निकलत रिहिस होही? वोला देख के, वोकर रूप ल, वोकर सवांगा ल देख के, गाँव भर के टुरी, मोटियारी, लइकोरी, सियान काकर जीव ह नइ जरत रिहिस होही? फेर अगास म लाखों चंदैनी रथे, तभो ले, चंदा ह ककरो गरज करथे का?

चारों मुड़ा के, बारा-बारा कोस के, कोन आदमी होही, कोन महाजन, कोन दाऊ, कोन मालगुजार, कोन गंउटिया होही, जउन वोकर रूप के बखान नइ सुने होही? कोन आदमी होही, जउन ह वोकर मंद के सुवाद ल नइ लेय होही? कोन आदमी होही, जउन वोला एक नजर देखे बर करहीभदर के बजार, बहादुरकलारिन के मचोली म नइ आय होही? आदमी ते आदमी, सोवा परतिस तहाँ अगास मारग म बिचरन करइया, सरग के देवता मन घला अपन-अपन विमान ल खड़ा कर देतिन, बहादुरकलारिन के मचोली म; एक दोना मंद पिये बर अउ एक नजर वोला निहारे बर। फेर वो तो रिहिस हे सती नारी, देवी के साक्षात अवतार कस। काकर हिम्‍मत रिहिस कि वोकर सत ल डिगा सकतिस? वोकर ऊपर नान्‍हे नीयत कर सकतिस?

पियइयच्‌ मन बता सकतिन, कामे जादा नसा रहय, वोकर हरदम खिल-खिल, खिल-खिल खिलखिलात चेहरा म, कि वोकर आभा मार के कनखी-कनखी देखइ म, कि ब्रम्‍हा के सबले सुंदर सांचा म ढलाय वोकर फूल सरीख नाजुक अंग म, कि वोकर अंग-अंग ले छलकत जवानी म, कि वोकर हाथ के उतारे मंद म?

जंगल बीच रस्‍ता रहय अउ रस्‍ता के आजू-बाजू पांत के पांत चार, महुआ, तेंदू , के पेंड़ रहंय। चिर-चिर ले पींयर-पींयर फूल फूले धनबाहार के पेंड़ रहंय। मंद के मटका ल बोहि के रेंगतिस बहादुरकलारिन ह ते पेड़ के डारा मन ओरम-ओरम जातिस; थोकुन परस तो पा लेतेन सुंदर बदन के।

जंगल बीच गाँव अउ गाँव के बाहिर जंगल। जंगल बीच रहय वोकर मचोली, जिहां बइठ के बेंचय वो ह मंद। सांझ होतिस नहीं, दिन बूड़तिस नहीं कि सुरू हो जातिस बघवा-चितवा मन के गरजइ। बहादुरकलारिन ह जब मचोली म बइठतिस, बघवा-चितवा मन गरजइ छोड़ के वोला चारों मुड़ा ले घेर के बइठ जातिन, जानो-मानों भगवान ह ये मन ल वोकर रक्षा करे खातिर पठोय होय।

ं देवी के रक्षा देवी के सवारी मन नइ करतिन त अउ कोन मन करतिन।

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एक बखत रतनपुर राज के राजा ह फौज-फाटा धर के आखेट बर निकलिस। आखेट करत-करत पहुँच गे करहीभदर-सोरर के जंगल म। रात होइस अउ तंबू गड़ गे राजा के, सोरर के भांठा म। गजब सोर सुने हे राजा ह बहादुरकलारिन के, वोकर रंग-रूप, गुन अउ वोकर मंद के। मंत्री ल हुकुम करिस कि बहादुरकलारिन ल दरबार म हाजिर करे जाय।

पहुँच गें सिपाही मन राजा के फरमान धर के बहादुरकलारिन के मचोली म। राजा के फरमान ल सुना दिन बहादुरकलारिन ल। सुन के बहादुरकलारिन ह कहिथे -

''बड़ परतापी, बड़ गुनिक

राज रतनपुर के महराज हे

अहो भाग हमर,

हमर राज पधारिन,

हमर बड़ भाग हे।

फेर हमू रानी अपन राज के

नहीं वोकर कोनों प्रजा

नहीं हम वोकर कोनों बांदी

अउर न कोनों बंदी

काबर मानबोन वोकर सुनावल सजा?

तभो ले,

सुवागत हे महराज के ये मचोली म

मंद बेचथन, मान-सनमान नहीं

हमर मान, हमर इज्‍जत ल

बांध के रखथन हम अपन ओली म।''

लहुट गिन सिपाही मन खाली हाँथ अउ सुना दिन राजा ल बहादुरकलारिन के जुवाब ल।

चक्रवर्ती राजा रतनपुर के, जेकर राज के सीमा के न कोनों ओर हे न छोर हे, काकर हिम्‍मत हे जउन वोकर हुकुमउदेली कर सके? राजा के एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ़ गे सुन के बहादुर- कलारिन के जुवाब ल। नारी हो के अतिक घमंड? चक्रवर्ती महराज के अइसन अपमान? कइसनो होय, अभीच्‌ वोला दरबार म हाजिर करे जाय।

''रथ वाले के रथ संभर गे,

सज गें घोडा़ के असवार,

राजा सज गे,

सज गे महावत,

सज गें गज असवार,

पद सैनिक मन घला संभर गें,

धरे हाँथ म ढाल-तलवार।''

दंउड़ गे राजा ह फौज-फाटा धर के तुरते बहादुरकलारिन के घमंड ल टोरे बर। दुरिहच्‌ ले दिखत हे बहादुरकलारिन के मचोली ह। सरग के चंदा ह उतरे हे वोकर मचोली म, तभे तो उहाँ जगजग ले अंजोर बगरे हे? मचोली के मंझोत म बइठे हे बहादुरकलारिन ह, अंग-अंग ले जेकर आभा निकल-निकल के बगरत हे। अपन-अपन सवारी ले उतर के देवता मन सुंदर आसन म बइठे हें अउ मउहा पान के दोना म झोंका-झोंका के पीयत हें मंद। सब ल मंद बाँटत हे बहादुरकलारिन ह। मचोली के चारों मुड़ा बघवा-चितवा मन घूम-घूम के देवत हें पहरा, कोन पापी के हिम्‍मत हे जउन बहादुर- कलारिन के तीर म जा सके?

राजा ह गुनिक हे, ज्ञानी हे, जान गे; बहादुरकलारिन ह कोन ए। मने मन गुनत हे राजा ह -

''नो हे ये कलजुग के नार

सतजुग के ये नारी ए,

नर, किन्‍नर, गंधर्व, देवता

सबके ये महतारी ए।

करे रखवारी बघवा-चितवा

सत्‌ येकर भारी हे,

नाम हवै बहादुरकलारिन

बघवा के असवारी हे।

अंग-अंग म सजे हे गहना

बिजली जइसे चमकत हें,

अंग-अंग ले फूटे आभा

चाँद-सुरूज कस दमकत हे।''

साक्षात दुर्गा संग लड़ के भला कोई जीत सके हे? लहुटा दिस फौज-फाटा ल राजा ह। उतार दिस राजा के अपन बाना-सवांगा ल अउ बन गे बटोही। पहुँच गे बहादुकलारिन के मचोली म अउ दुवार म ठाड़ हो के कहत हे -

''तोर दुवार खड़े हे एक बटोही

दूर देस के एक अनजान,

होतिस किरपा, मिलतिस ठउर

जीव जुड़ातिस, करतिस बिश्राम।

थकेमांदे दिन भर के,

सोतिस रात नींद भर के?''

राजा के बचन ल सुन के बहादुरकलारिन ह कहिथे -

''धन भाग कलारिन के, कि

दुवार अतिथि आइस आज,

इन्‍द्र कस हे जेकर जस

पृथ्‍वी भर म जेकर राज।

बन बटोही परछो झन लव

रतनपुर के हे महराज।

झाला मोर हो गे पबरित

परनाम स्‍वीकारो सुवागत हे,

रख लो मान गरीबिन के

अउ अबला के राखो लाज।''

महराज ल सुंदर अकन आसन म बइठारत हे बहादुरकलारिन ह।

जब ले देखे हे बहादुरकलारिन के खुबसूरती ल राजा ह, वोकर तो चेत-बुध हरा गे हे। मनेमन सोचत हे - बटोही के रूप म खड़े राजा ल कइसे चीन्‍ह डरिस होही बहादुरकलारिन ह? ये ह जतका सुंदर हे, वोतका चतुर अउ बुद्धिमती घला हे। ....तब का, ये ह मन के बात ल घला जान डरत होही? राजा ह कहत हे -

''हे देवी! हे जती-सती,

हे रूपमती, हे बुद्धिमती,

तंय जनकार भूत-भविस के,

सरसती ह तोर सहित हे,

सबके मन म करथस बास,

तब का? नइ जानत होबे तंय

मोर मन के बात?

बहादुरकलारिन ह जब ले राजा ल देखे हे, वोकरो हालत बिचित्र हे। लाज के मारे चेहरा ह ललिया गे हे। मुड़ी ह उचत नइ हे, आँखी ह धरती म गड़े जावत हे। खांद के पल्‍लू ह घेरी-बेरी खांद ले सरके जावत हे। छाती ह धकधक-धकधक करत हे। मुँहू ले बोली-बचन नइ निकलत हे। सुध-बुध हरा गे हे बहादुरकलारिन के। मनेमन सोचत हे वो ह-

''हे भगवान!

अइसन कभू तो नइ होइस,

का होवत हे मोला आज?

देवता देखेंव, मानुस देखेंव,

कभू नइ आइस अइसन लाज?

छाती धकधक काबर करथे,

काबर चलथे ऊपर साँस?

मुँहू सुखत हे, कंठ सुखत हे,

लागत हाबे कइसन पियास?

सपना भर गे आँखीं मन म

कोन भड़उनी गावत हें?

कोन बजाथे सिंग बाजा,

अउ मोहरी कोन बजावत हे?''

राजा के बचन ल सुन के झकनका गे; फेर चतुर-सुजान बहादुरकलारिन; चेत-सुरता ल बटोर के राजा के बात ल गुनत हे। राजा के मन म का हे, समझ गे बहादुरकलारिन ह। मरद जात के मन के बात ल कोन नारी ह नइ ताड़ जावत होही? आँखी के बात ह आँखी ले लुकाही कहीं? कहिथे -

''हे देव! हे महराज!

झन लव परछो मोर आज।

नारी बिन हे नर अधूरा -

अउ नर बिन नारी हे,

बरम्‍हा के हे इही नियम,

अइसने दुनिया सारी हे?

फेर, दिन बादर म तेंदू पाकथे,

दिन बादर म मउहा,

राखो धीरज मन म देव,

काबर करथव लाकर-लउहा?

लेख लिखे हे बरम्‍हा जइसन

वइसने-वइसने होही,

इन्‍द्र के जब निसान बजही,

तब तो पावस होही?''

एक दिन बीतिस, दू दिन बीतिस, देखत-देखत हप्‍ता नहक गे; काबर उसलथे राजा के पड़ाव ह? बहादुरकलारिन के मचोली छोड़ अउ कोई दूसर ठिकाना, दूसर जिनिस सुहावत नइ हे राजा ल। दिन-रात के बसेरा बन गे हे राजा के, बहादुरकलारिन के मचोली ह। सुंदर औसर देख के एक दिन राजा ह बहादुरकलारिन ल कहिथे -

''हे बाला!

रूप, गुन, मरजाद, लाज के,

मया, दुलार के देवी तंय।

मया-प्रेम के भिक्‍छा दे दे,

हाथ पसारे खड़े हौं मंय।

खाली हाथ लहुटही वो,

कि भरही झोली जोगी के?

प्रेम बिना वो तजही प्रान

कि बचही जीवन रोगी के?''

चतुर-सुजान बहादुरकलारिन, फेर लाज के मारे जुबान नइ उलत हे। अंग-अंग रोमांचित हे, मन चलायमान होवत हे। कते फूल ल भंवरा के अगोरा नइ रहत होही? अंचरा म मुँहू ल छुपा के कहिथे -

''नइ फूले हे अभी तो परसा,

अमवारी नइ महकत हे।

सुवा नइ दिखे कोनो डार म,

कोयली घला नइ कूकत हे।

प्रेम-गीत के ले संदेसा,

भंवरा घला नइ आये हे।

ठहरव देव! करव अगोरा,

प्रेम-रुत नइ आये हे।''

दिन बीतिस, रुत बदलिस। जंगल के रूख-राई मन के जुन्‍ना पींयर-पात मन झर गे अउ बदला म सुंदर अकन हरियर-हरियर पाना म जंगल ह हरिया गे। परसा मन चरचर ले फूल गें। जंगल म चारों मुड़ा लालिमा बगर गे; अइसे लागत हे कि वन देवी के चेहरा ह मानों लाज के मारे ललिया गे होय। अमवारी घला महक गे। डारा-डारा म कोयली मन फुदके लगिन हे, कूके लगिन हे। भंवरा मन घला सुंदर अकन प्रेम-गीत के गुंजार करे लगिन हे। जंगल भर के पसु-पक्षी, पेड़-पौधा सब अपन-अपन म मगन हे; कोनों ल ककरो सुध नइ हे। इही जंगल के बीच म, हरियर-हरियर बेल के छांव म, रतनपुर के राजा ह बहादुरकलारिन के गोदी म अपन राज ल निछावर करत हे, प्रणय-निवेदन करत हे। गाँव म कते सुजानिक ह अब्‍बड़ सुघ्‍घर अकन ले येदे मया-गीत ल गावत रहय -

''इही रद्‌दा ले टुरी इतरात गे हे न।

वोती मउहा मतउना टुरा मात गे हे न।

परसा ह फूल गे हे, चार घला फूल गे।

आमा के मउरे ले कोयली ह कुहके।

जइसे हिरना, बड़ोरा मेछरात गे हे न।

चार पाका मीठ-मीठ तेंदू हे गुरतुर।

देख-देख बाबू के मन होवे लूहु-टुपुर।

जिवरा नोनी के घला बउरात हाबे न।

संझा अगोरे अउ बिहने निहारे।

जोड़ी बिन रतिहा हा नइ तो पहाये।

मन ह मिले बर अड़बड़ लउहात हाबे न।

कल के अवइया, तंय धोखा म डारे।

जिनगी ल हारेंव मंय, काला तंय हारे?

वोकर बुढ़ना ल नोनी झर्रात गे हे न।''

गीत ल सुन-सुन के दुनों परानी के हिरदे ह हुलस गे। बहादुरकलारिन कहिथे - ''हे महराज, मन से मन मिल गे, आत्‍मा से आत्‍मा मिल गे, का सरीर ले सरीर के मिलना जरूरी हे? इहाँ के नारी अपन सरीर ल अपन पति के छोड़ दूसर मरद ल नइ सौंपे महराज। बहादुरकलारिन के सरीर ल विही ह पा सकथे, जउन ह वोकर मांग म सेंदूर भरही, वोकर हाथ म चूरी पहिराही।''

''अइसन बात हे देवी! तब मंय ह अभिचे, अपन रकत से तोर मांग भरत हंव, फेर मोर निवेदन ल आज तंय झन ठुकरा।'' राजा ह किलोली करत हे, अपन रकत के धार ले बहादुरकलारिन के मांग ल भरत हे।

बड़ सुजान बहादुरकलारिन; कहिथे - ''न कोनों गवाह, न कोनों साक्षी, कोन पतियाही राजा ये बात ल। मरद के जात, भंवरा के जात होथे; काली के दिन का तहूँ ह बिसरा नइ देबे मोला? तब दुनिया ल मंय ह का मुँहू देखाहूँ? भंवरा ल सुरता रहिथे का; कते-कते फूल ल वो ह जूठा करे हे?''

अपन अंगठी के हीरा के अंगूठी ल, अउ अपन गर के मोती के हार ल निकाल के राजा ह बहादुरकलारिन ल दे के कहिथे - ''हे सुजानी! बने कहिथस तंय। ले स्‍वीकार कर। ये दूनों चीज ह हमर मिलन के, हमर मया-प्रेम के निसानी रही, गवाही रही, साखी रही। अब तो तंय मोला अपन मया के भीख दे दे।''

बेल ह पेड़ौरा ले लपट गे।

फूल ह अभिच फूलिस हे, फेर बइमान भंवरा ह का जाने? जुठा कर दिस फूल ल।

मन भर फूल के रस ल पीइस अउ उड़ गे बैरी भंवरा ह। फूल ल, बहादुरकलारिन ल, रोवत-कलपत छोड़ के एक दिन निकल गे निरमोही ह अपन राजधानी बर।

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हीरा के अंगूठी अउ मोती के हार ल देख-देख के बहादुरकलारिन ह दिन पहावत हे। एक दिन अम्‍मट खाय बर वोकर मन ह गजब कलकलाइस।

फूल म अब फर के जिकी धर लेय रिहिस।

समय के गति ह कब थमथे? आदमी ह सुख म हे कि दुख म, वोला का लेना-देना हे? दिन पूरिस अउ बहादुरकलारिन के कोख ले सुंदर अकन बाबू अवतरिस। नाम धरिन वोकर छछानछाड़ू।

बाप के दुलार बिना ननपन बीत गे छछानछाड़ू के। राजा के बेटा, राजा के गुन ल धर के आय रिहिस छछानछाड़ू ह। घर म पाँव काबर माड़य वोकर?

ननपन के जंगल-पहार के घुमइया छछानछाड़ू। दाई ह उड़नपखेरू घोड़ा बिसा दे हे अपन मयारुक बेटा बर। घर म वोकर पाँव नइ माढ़े। उड़नपखेरू घोड़ा म सवार हो के रात-दिन ये जंगल ले वो जंगल, ये पहाड़ ले वो पहाड़ फिरत रहिथे छछानछाड़ू ह, हिरना-मिरगा के सिकार करत। रात दिन हिरना-मिरगा के सिकार म भुलाय रहिथे। आगू-आगू छछानछाड़ू अउ पाछू-पाछू गाँव भर के लइका।

जवान हो गे छछानछाड़ू ह। बड़ बहादुर, बड़ लड़इया। तलवार चलाय बर कहस कि बरछी-भाला चलाय बर, कुस्‍ती लड़े बर कहस कि पहलवानी करे बर, नीत-नियाव करे बर कहस कि जनता के सुख-दुख म ठाड़ होय बर, कोन हे वोकर बरोबर अतराब म?

दाइच्‌ भर के नहीं, गाँवेच्‌ भर के नहीं, अतराब भर के आदमी के दुलरुवा छछानछाड़ू। छछानछाड़ू ह अब लोगन बर हो गे छछानछाड़ू देव।

एक दिन अड़ के बइठ गे दाई के आगू म छछानछाड़ू देव ह, किहिस - ''हे मोर मयारुक माँ, हे दाई, रोजेच्‌ मोला टरकाथस, आज तोला बतायेच्‌ बर पड़ही कि मोर बाप कोन आय। सुन ले महतारी, नइ बताबे आज, ते ये कटार ल करेजा म घोप के मय अभिच्‌ अपन परान ल तियाग देहूँ।''

धक ले हो गे बहादुरकलारिन के करेजा ह; बेटा के आगू आज वो ह हार गे।

बेटा के रीस ल जानथे वो हा, ननपन ले बाप के कोरा बर, बाप के मया-दुलार बर तरसे हे बेटा ह। दाई ल पति-बिछोह म दिन-रात घुर-घुर के जीयत देखे हे बेटा ह; अइसन निरमोही बाप बर वोकर मन म कतका रीस भरे हे, दाई ह वोला ननपन ले जानत हे। रीस म कहूँ अपन बाप के कोनों अहित झन करय, वोकरे सेती कहिथे - ''आज तोला तोर बाप के अता-पता ल मंय जरूर बताहूँ बेटा, फेर तोला एक ठन बचन हारे बर पड़ही। देथस का मोला तंय बचन? जाने के बाद तंय अपन बाप बर कोनों परकार के रीस अपन मन म झन रखबे।'' अइसन परकार से वचन ले के बहादुरकलारिन ह हीरा के अंगूठी अउ मोती के हार ल ला के बेटा के आगू म मढ़ा दिस; किहिस - ''चीन्‍ह सकथस ते चीन्‍ह ले ये दुनों जिनिस ल। बेटा! ये दुनों संवागा ल अपन सरीर म धारन करइयच्‌ आदमी ह तोर बाप ए।''

दुनों जिनिस ल लउहा-झंउहा उलटा-पुलटा के देखत हे छछानछाड़ू देव ह। रतनपुर राज के राजा के मुहर छपे हे तउन ल देख के जान गे छछानछाड़ू देव ह कि वोकर बाप कोन हरे। तभो ले महतारी ल पूछथे - ''माई मोर! ये तो रतनपुर राज के राजा के सवांगा कस दिखथे। तब का मोर बाप रतनपुर के राजा हर आय?''

कंठ भर गे हे, आँखी मन ह बोटबिटा गे हे, का जवाब देय महतारी ह? दुनों जिनिस ल माथा म लगा के फफक-फफक के रो डरिस।

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मारे क्रोध के तिलमिला गे छछानछाड़ू देव ह। आगी बर गे छाती म। माथा तन गे। अंग-अंग फड़के लगिस। हाथ ह तलवार के मुठिया म चल दिस। मनेमन सोचत हे छछानछाड़ू देव ह; ''हत्‌ रे पापी! एक निरपराध, निष्‍कलंक, कन्‍या के संग छल करेस तंय। देवी के समान एक नारी ल जीवन भर तरसे बर, तड़पे बर, मझधार म छोड़ के चल देस तंय। एक अबोध बालक ल पिता के कोरा बर, बाप के मया-दुलार बर तरसायेस? अइसने छल कोन जाने अउ कतका संग करे होबे? देवी समान महतारी ल बचन देय हंव, नहीं ते अभीच्‌ तोला तोर करनी के सजा मिल जातिस।''

मयान के तलवार ह मयानेच्‌ म रहि गे।

अपराधी ल सजा खचित्‌ मिलनच चाही। बदला के अंगरा दिन-रात धधकत हे छछानछाड़ू देव के छाती म। न तो आँखी म नीद हे, न मन म चैन हे। हुँके न भूँके ककरो संग छछानछाड़ू देव ह।

एक दिन तरुवा ल धर के बइठ गे महतारी ह, बेटा के करनी ल देख के। एक झन रोवत-कलपत निरपराध, कन्‍या ल लान के काल-कोठरी म धांध दिस छछानछाड़ू देव ह।

माता ह पूछथे - ''का अपराध करे हे बेटा! ये अबला ह? काबर येला काल कोठरी के सजा देवत हस?''

कुछू जंवाब नइ दिस छछानछाड़ू देव ह।

अब तो निस दिन के बात हो गे ये ह। एक-एक करके कोरी भर हो गे। महतारी ह मना करे, समझाय-बुछाय, फेर नइ मानय छछानछाड़ू देव ह।

एक-एक ठन बहना कोड़ देय, एक-एक ठन मूसर दे दे अउ एक-एक छटना धान दे देय छछानछाड़ू देव ह। बिचारी अबला मन रोवत-कलपत दिन-रात धान कुटत दिन ल बितावंय।

समझ गे माता ह, अपन मन के क्रोध के धधकत अंगरा ल बुझाय बर ये खेल ल, ये अपराध ल करत हे बेटा। रात-दिन समझाय बेटा ल बहादुरकलारिन ह। फेर बेटा के मन म बदला लेय के भूत सवार रहय, काबर मानय वो ह? दुनिया म अइसन बदला अउ कोनों लेय रिहिन होही? बिचारी निरपराध कैना मन के दुख ल देख के दिन-रात धारो-धार रोवत रहय माता बहादुरकलारिन ह।

देखते देखत सात आगर सात कोरी बहना-मूसर बन गे। माता बहादुर कलारिन के मन के धीरज ह अब जुवाब देवत हे।

बिहने फजर के बात ए। माता बहादुरकलारिन ह कुआँ पार म दतोन-मंजन करत रहय। टेंड़ा ले पानी खींचत रहय छछानछाड़ू देव ह। माता ह फेर विही बात ल समझाथे। पूछथे, बेटा आखिर काबर करथस अइसन नीच काम ल? का हो गे हे तोला?

हुँके न भूँके छछानछाड़ू देव ह।

माता ल क्रोध आ गे। छछानछाड़ू देव के सरीर ल झकझोर के कहिथे, ''तोर मुँहू म लाड़ू गोंजा गे हे का? काबर नइ बोलस?''

बिधाता के खेल निराला होथे। कब का हो जाही कोनों नइ जान सके। छलंड गे छछानछाड़ू देव के गोड़ ह, अउ गिर गे कुआँ के अथाह जल म वो ह। जा के समा गे जल देवता के गोदी म। लील डरिस कुआँ ह माता बहादुरकलारिन के परान के अधार, दुलरुवा बेटा ल।

माता बहादुरकलारिन के चेत-बुध हरा गे। कहिथे - ''हे बिधाता! ये का हो गे? आज काबर तंय मोला पुत्र के हत्‍यारिन बना देस। पुत्र के हत्‍यारिन कहाय बर अब ये दुनिया म जी के का करहूँ मंय ह।'' जीभ रोखे बर दतोन ल चीर के धरे रहय हाथ म, खोंच दिस वोला कुआँ के पार म अउ कूद गे बेटा के पिछलग्‍गा माता बहादुरकलारिन घलो ह। समा गे वहू ह जल देवता के अथाह कोरा म।

माता बहादुरकलारिन की जय!

छछानछाड़ू देव की जय!

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(केहे गे हे; कोस-कोस म पानी बदले, चार कोस म बानी। चार-चार कोस म बानी बदल जाथे अउ संगेसंग लोककथा अउ लोकगाथा मन के सरूप ह घला बदल जाथे। लोक के पास लोक व्‍यवहार के जानकारी के तो खजाना रहिथेच्‌, कल्‍पना के रंग-बिरंगा संसार घला रहिथे। बहादुरकलारिन लोकगाथा के सरूप ह घला इही पाय के अलग-अलग जघा अलग-अलग देखे-सुने बर मिलथे। लोक म बहादुरकलारिन लोकगाथा के एक ठन अइसन रूप ह घला प्रचलित हे।)

छछानछाड़ू देव ह सज्ञान हो गे हे। ननपन के जंगल-पहार के घुमइया छछानछाड़ू देव। दाई ह उड़नपखेरू घोड़ा बिसा दे हे अपन मयारुक बेटा बर। घर म वोकर पाँव नइ माढ़े। उड़नपखेरू घोड़ा म सवार हो के रात-दिन ये जंगल ले वो जंगल, ये पहाड़ ले वो पहाड़ फिरत रहिथे छछानछाड़ू देव ह, हिरना-मिरगा के सिकार करत।

दाई ल चिटको नीक नइ लागे बेटा के घुमइ-फिरइ, रात-दिन हिरना-मिरगा के सिकार करइ ह। दाई ह सोंचथे - लइका ह सज्ञान हो गे हे, कइसे मन माड़ही घर म। मन ल बंधइया घर म कोई होय तब न? घर-गिरस्‍ती म बांधना जरूरी हे बाबू ल। जात-बिरादरी म बहु देखे के सुरू हो गे।

सुभ घड़ी-मुहूरत देख के बाबू के बिहाव माड़ गे। सब सगा-सोदर, हितु-पिरीतू, नेवता गे। बाजा-मोहरी संग बड़ उछाह-मंगल होइस। बिहाव होइस। सुंदर अकन बहु घर आ गे।

दिन बीतिस, महीना बीतिस, दू महीना बीतिस; बाबू के रेवा-टेवा वइसनेच हे। दुलहिन के मुख ल एक दिन तो देख लेतिस; वाह रे निष्‍ठुर। बहु ह अपन खोली म रात-दिन सुसक-सुसक के रोवत हे।

दाई ह समझ गे, सब बात ल जान गे, बेटा ह बहु ल मन नइ करत हे। ''हे भगवान! अब का उपाय करंव?'' दाई ल फिकर धर लिस।

दूसर बहु ला दिस दाई ह।

बेटा ह यहू ल मन नइ करिस।

तिसरइया लानिस, वहू ल मन नइ करिस। ओरी-पारी, धीरे- धीरे, छः आगर छः कोरी बहु लान डरिस। बेटा ह एकोच्‌ ल मन नइ करिस।

दाई ह अब का करे?

अंगना म पांत धर के छः आगर छः कोरी बहना कोड़वा दिस। छः आगर छः कोरी मूसर बनवा दिस। बहु बिचारी मन रातदिन धान कूटंय, रुखम-सुखम खा के, रोवत-कलपत दिन कांटय।

बहु-बेटा के फिकर म बहादुरकलारिन ह दिनों-दिन घूरत हे।

एक दिन बिहिनिया बहादुरकलारिन ह असनांदे बर कुआँ म गे हे। कुआँ पार के चारों मुड़ा अघात सुंदर-सुंदर फूल के बिरवाँ मन लहर-लहर करत हें। मोंगरा हे, सदासुहागी हे, बैजंत्री हे, दसमत हे, सब घुम-घुम ले फूले हें। दरमी के पेड़ मन म सुंदर लाल-लाल दरमी फरे हे। बड़े-बड़े खाम के भार म केरा के पेड़ मन ह लहसे जावत हे। कुआँ पार के तिरे-तीर बड़े-बड़े नहानी पखरा माड़े हे, पानी भरे बर बड़े-बड़े कोटना माड़े हे। पानी टेड़े बर टेड़ा लगे हे।

बहादुरकलारिन ह पहिरे के लुगरा-पोलखा मन ल दसमत पेड़ के डंगाली म अरो के मुखारी करत हे। बेरा ह चढ़त जावत हे, कतका बेर ले मुखारी करही? मुखारी ल चीरे बर दांत म चाबत रिहिस हे बहादुरकलारिन ह, ठंउका वोतकच्‌ बेरा बेटा ह पहुँच गे।

सुत उठ के आय रहय बेटा ह, मुँहू-आँखी ल धोवत रहय, फेर धियान रहय दाई कोती।

दाई ह मन म सोचथे - जवान बेटा के आगू म कइसे छाती बांधव, कइसे नहावंव। लेड़प्‍पा तीर अक्‍कल हे कि नइ हे?

बेटा के उदास चेहरा ल देख के, मुखारी ल चीरत-चीरत पूछथे बहादुरकलारिन ह - ''बेटा, तोर बर छः आगर छः कोरी बहु बिहायेंव, कोनोंच्‌ ल मन नइ करस बाबू; अब कइसन बहु लावंव तोर बर?''

छछानछाढ़ू देव ह कहिथे - ''दाई, तंय मोर बर छः आगर छः कोरी बहु बिहायेस; फेर कोनों ह तो तोर सरीख सुंदर नइ हे; कइसे मन करंव?''

बेटा के जुवाब ल सुन के ठाड़े-ठाड़ सुखा गे, पखरा कस हो गे बहादुरकलारिन ह। बेटा के मन म का भाव हे, का जाने बहादुरकलारिन ह? फेर मन म सोंचथे - हे भगवान! चंडाल के मन म कोनों पाप तो नइ भरे हे?

बहादुरकलारिन के आँखी आगू घुमुक अंधियारी छा गे। मुरदा बन गे बहादुरकलारिन ह, चेत-बुध हरा गे बहादुरकलारिन के, सोंचथे - बेटा के मन म मोर बर अइसन भाव हे; हे भगवान! अपन मरजाद के रक्‍छाा मंय कइसे करंव? जीना अकारथ हे, अब संसार म जी के का करहूँ,?

जीभ रोखे बर मुखारी ल चीर के हाथ म धरे रहय बहादुरकलारिन ह। उनिस-गुनिस नहीं अउ दुफंकिया मुखारी ल कुआँ के पार म खोंच दिस; दुनों हाँथ ल जोर के देवता ल सुमरिस अउ चालीस हाथ गहुरी कुआँ के अथाह जल म कूद गिस।

दाई ल कुआँ म कूदत देख के बमफार के रो डरिस छछानछाढ़ू देव। मन म सोंचथे - हे भगवान, दुनिया ह मोर बर अब का सोंचही? मोला पापी, अधमी अउ न जाने का का कहिही? दुनिया ल अब मंय का मुख देखाहूँ? उनिस-गुनिस नहीं अउ कूद गे वहू ह दाई के पिछलग्‍गा, चालीस हाथ गहुरी कुआँ के अथाह जल म।

जल देवता ह दुनों महतारी-बेटा ल समो लिस अपन कोरा म।

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बहादुरकलारिन के कहानी ल सुन के डेरहा बबा ह कहिथे - ''तइहा के बात ल कहस कि आज के बात ल, नारी जाति के मान-सनमान, ईज्‍जत-मरजाद, इच्‍छा, अउ नारी जाति के जीवन, सब म मरद जाति ह अपन कब्‍जा जमाना चाहिन। वोकर अधिकार अउ वोकर सुतंत्रता के हरन करिन। वोला जमीन-जायदाद समझिन। नारी ल हम दुर्गा, लक्ष्‍मी, सरस्‍वती तो मान सकथन फेर वोला नारी नइ मान सकन। नारी ह घला जीयत-जागत परानी आय, येला कभू नइ समझे गिस। नारी के दुख ल देख के तो दुख ह घला दुखी हो जाही। इही पाय के नारी ह सुवा ल कहिथे 'कि सुवा न, तिरिया जनम झन देय।' नारी ल दुख देय म नारिच मन ह आगू रहिथें। इहाँ माता बहादुरकलारिन ल राजा ह धोखा दिस, जनम भर बर वोला दुख भोगे बर छोड़ के चल दिस। नारी जनम के दुख ल वो ह जानत रिहिस, भोगे रिहिस, तभो ले वोकर मन म ककरो प्रति बदला के भावना नइ रिहिस। बेटा ह जब नारी मन ल तकलीफ देवय तब वोला ये बात ह नइ सहे जाय। वोकर विरोध करिस। विही पाय के वो ह महान्‌ हे। जय हो माता बहादुरकलारिन के।''

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चौदहवाँ पैर

सब कोई सकलाइन तहाँ ले आज फेर बैठका जम गे। डेरहा बबा ह मनसुख ल पूछथे - ''कस जी मनसुख! साँझकुन गाँव भर के कमइया आदमी मन जतका बेर खेत-खार ले घर लहुटत रिहिन हे, तब तंय ह खार कोती जावत रेहेस। तोर तो सबे काम ह उटपुटांग चलथे रे भइ।''

मनसुख - ''ठाकुर के चार महीना के नाती हे तेला तो जानतेच्‌ हस? अड़बड़ रोवत रिहिस हे। उदिम कर-करके हार गे रिहिन हें। कुछू जानत होबे ते कुछू उपाय कर दे, कहिके ठाकुर ह मोला बलाय रिहिस हे। सबेच्‌ उपाय करके तो हार गे रिहिन हें, अउ का उपाय करतेंव? परेतिन पाट म चुरी चढ़ाय के बांचे रिहिस हे। विही उदिम ल करे बर खार कोती गे रेहेंव।''

डेरहा बबा - ''अच्‍छा! अइसन बात ए। तब लइका के रोवई ह मोड़िस जी?''

मनसुख - ''को जानी भइया, अउ पता नइ करे हंव।''

डेरहा बबा - ''परेत-परेतिन के बात होय के मटिया-चटिया के, तोर संग कोन पुरही? अइसन गजब अकन कहानी जानथस तंय ह; आज एको ठन सुना भला, हमू मजा ले लेतेन।''

येला सुन के सबे झन बबा के सरेखा तिरे लगिन। मनसुख ह कहानी सुनाय के शुरू करिस।

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पहटिया, परेतिन अउ नकटानाच

पानाबरस राज के सुंदर अकन एक ठन गाँव के बात आय। धन-धान अउ गऊ-लक्ष्‍मी ले भरपूर रहय गाँव ह। गरीब कहस कि अमीर कहस, सबके कोठा ह गऊ-लक्ष्‍मी ले भरे रहय। दूध-दही के नदिया बोहावय गाँव म। गाँव के पहटिया ह दिन-रात बड़ चेत लगा के गऊ माता के सेव-जतन करे। होत पहाती घरोघर जा के दुहानू गाय मन ल छोड़ के बाकी गरुवा मन ल ढील के बरदी म सकेल लेतिस। टेनपा ल बरदी रखवार छोड़ के आ जातिस अपन ह; गाँव भर, घरोघर जा के दुहानू गाय मन ल दुहतिस। बासी-पेज खातिस, धोती ल कनिहा म कंसतिस, हरियर-पींयर, छिटकी-बुंदकी के अंगरखा पहिरतिस, गोड़ म भदई, खांद म कमरा, मुड़ी म खुमरी, एक हाथ म तेंदूसार के लउठी अउ दूसर हाथ म बांसुरी ल धरतिस, अउ दसबज्‍जी निकल जातिस, दुहानू गाय मन ल ढीले बर। सब ल बरदी म सकेल लेतिस अउ उसेल देतिस बरदी ल चराय बर।

गाँव के अमरतीच्‌ म एक ठन बड़ गहुरी, धाप भर के लाम्‍ही-लामा सरार रहय। सरार ह कभू नइ सुखाय, वोमा बारो महिना काजर सरीख निरमल जल लहर-लहर लहरात रहय। पहटिया ह इही सरार म गऊ-लक्ष्‍मी मन ल पहिली सोसन भर पानी पिया लेतिस, तब फेर बरदी ल तँउरा के वो पार जंगल म लेगतिस, चराय बर। सांझ कुन लहुटती खानी घला बरदी ल इही सरार म पानी पियातिस अउ तँउरा के गाँव म आतिस।

एक दिन के बात आय। नदिया के तीरे-तीर गहदे कछार म बरदी ह बगरे रहय। पहटिया ह एक ठन परसा रुख के छंइहा म बइठ के सुंदर अकन बांसुरी बजावत रहय। बांसुरी के तान म मोहाय कस, जम्‍मो गरुवा मन बिधुन हो के चरत रहंय। बरदी के बीच म एक ठन धंवरी गाय ल देख के पहटिया के मति ह चकरा गे। दूध सरीख धंवरा रंग, कुंदवा-कुंदवा सींग, बड़े-बड़े कान, चिक्‍कन-चिक्‍कन चमकत रोंवा, बरदी भर के गरुवा ले अलग चिन्‍हारू दिखत रहय।

सोंच म पड़ गे पहटिया ह - 'काकर घर के गाय होही? अइसन गाय ह तो गंउटिया मन घर, नइ ते मुकड़दमेच्‌ मन घर रहिथे। बिहिनिया तो घरोघर जा के दूध दूहे हंव, फेर ये गाय ल तो ककरो घर नइ देखे हंव। कहीं कोनों मालिक ह ये गाय ल कालिच्‌ कहुँचे ले बिसा के तो नइ लाइस होही? अइसनेच्‌ होही। मोला आरो करे बर बिसर गिस होही। मोरो नजर के चूक हो गिस होही। नइ ते फेर कोनों दूसर गाँव के हरही गरुवा होही, मौका देख के मोर बरदी म मिंझर गिस होही। कहीं नइ होय, लक्ष्‍मी ताय, कुछू उपद्रो तो घला नइ करत हे बिचारी ह, चरन दे। फेर येकर निगरानी जरूरी हे, कहीं ऊँच-नीच हो गे त मालिक मन ल कोन ह जवाब देही? लहुट के आज येकर बिसय म जानकारो करेच्‌ बर पड़ही।'

सांझ होइस, दिन-बुड़तहा बरदी हा गाँव के रद्‌दा धरिस। लहुटती खानी आदत मुताबिक मवेसी मन सरार म सोसन भर के पानी पीइन अउ अपन-अपन घर कोती किल-बोर करत दंउड़े लगिन। पहटिया ह तुक-तुक के वो धंवरी गाय ल देखत हे, फेर वो ह इहाँ रहितिस तब तो दिखतिस? पहटिया ह सोंचथे - 'जरूर कोनों दूसर गाँव के हरही गाय होही, रद्‌दा म कोनों जघा छटक गिस होही। हरही गरवा के पार ल कोन पाही? अउ कोनों मालिक के होही तब?'

चिंता धर लिस पहटिया ल।

जब वो धंवरी गाय के बिसय म फुराजमोगी करे बर कोनों मालिक ह पहटिया ल नइ बलाइस तब पहटिया के जी म जी आइस। हरहिच गरुवा होही वो ह। मालिक मन के होतिस ते अब तक पेसी हो जाय रहितिस।

चिंता-फिकर ह कम होइस पहटिया के।

वो गाय के निगरानी करे बर सुरू कर दिस पहटिया ह। दू दिन, चार दिन, हफ्‍ता दिन अउ पंदरा दिन बीत गे। पहटिया ह एक-एक ठन बात के जानकारो कर डरिस। बड़ मायाधारी, करामाती कस लागथे ये गाय ह। कोनों गाँव, कोनों रद्‌दा-बाट ले नइ आवय ये ह, अउ न कोनों रद्‌दा बाट म जावय। ये पार गाँव हे, वो पार कछार हे, बीच म हे सरार। विही पार दिखथे, ये पार अंतरधियान हो जाथे। तब का ये गाय ह सरारे ले निकलत होही, अउ सरारेच्‌ म अमा जावत होही? ये ह का माया ए? काकर माया ए? पहटिया के चिंता अउ बाढ़ गे।

गजब दिन ले अजमिस पहटिया हा। जरूर सरार अउ गाय म कुछू करामात हे? पता करे बर पड़ही।

रात-दिन डोंगरी-पहाड़, जंगल-झाड़ी के घुमइया, रात-दिन बघवा-भालू के सपेड़ा म पड़ने वाला पहटिया, गजब के हिम्‍मती; का के डर हे पहटिया ल?

देखा जाय आज, कहाँ जाथे ये धंवरी ह? एक दिन लहुटती खानी, सरार म गरुवा मन ल तंउराय के बेरा पहटिया ह विही धंवरी गाय के पूछी ल धर लिस। धंवरी ह सनसन-सनसन तंउरत हे। बीच सरार म अमरिस हे अउ सरार के बांस भर पानी म बूड़ गे धंवरी गाय ह। पूछी ल धरे-धरे पहटिया ह घला गाय के संग बूड़ गे।

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चेत-सुरता आइस पहटिया के, जघा ल देख के वोकर मति हरा गे। महल जइसे घर म, सुंदर अकन पलंग म सुते रहय वो ह। झकनका के उठ गे। हे भगवान! मंय तो सरार म बूड़ गे रेहेंव, कोन ह मोर परान ल बचाइस होही? मोर घर तो नो हे ये ह; कते मालिक के घर होही? कइसे कोनों दिखत नइ हें? मोर पहटनिन ह कहाँ गे होही?

भांति-भांति के बिचार वोकर मन म आवत हे। अंगना कोती नजर चल दिस, धंवरी गाय ह खूँटा म बंधाय रहय। भीतर कोती ल देखथे, एक झन अदक मोटियारी माई लोगन ह किंवाड़ के ओधा म खड़े हो के टकटकी बाँध के वोकरे कोती ल देखत रहय। पहटिया ह वोला देखिस ते देखते रहि गे। गोड़ के अंगरी ले माथ के मांग तक, सोना-चाँदी, हीरा-जवाहरात, मुंगा-मोती के किसिम-किसिम के गहना-गूठा पहिरे रहय। सोनधार के लुगरा ह चिकमिक-चिकमिक करत रहय। माथा के टिकली ह सुरूज जोत कस लकलक-लकलक करत रहय; फेर मांग ह वोकर खाली रहय।

पहटिया ह फेर सोच म पर गे; हे भगवान! कोन देस के, कोन लोक के नारी होही ये ह; रानी मन सही दिखत हे। अइसन रूप-गढ़न के हमर गाँव म तो एकोझन नइ हें ? कहाँ आ गे हंव मंय ह? हड़बड़ा के पलंग ले उतर के ठाड़ हो गे पहटिया ह। कइसे बइठे रही मालिक के पलंग म? सोचथे, सरग के परी कस ये अदक मोटियारी बाई के छोड़ इहां अउ कोनों नइ दिखय। अउ कोनों इहाँ नइ रहत होही क?

''का सोंचथस पहटिया? ले गोड़-हाथ धो अउ जेवन कर ले; बेरा हो गे हे।'' लोटा म पानी देवत-देवत वो बाई ह कहिथे।

पहटिया के मन म कतरो सवाल घुमड़त हे, फेर पूछे बर मुँहू ह नइ उलत हे। मोहनी-थापनी डारे कस मोहा गे हे पहटिया ह। बाई ह जइसने कहत हे, पहटिया ह वइसने करत हे।

भोजन के थारी ल देख के पहटिया के मति ह फेर छरिया गे। महर-महर करत दुबराज चाँऊर के भात हे, रहेर के दार हे, दार म कटोरी भर घींव हे, कटोरी भर दही हे, तसमई हे, सोंहारी हे, पापर, बिजौरी हे; कटोरी भर-भर के करेला, रमकेरिया, आलू-बरबट्टी, जिमीकांदा, पालक, चौंलाई, अउ न जाने कतिक परकार के साग हे; खोवा, रसगुल्‍ला, नाना भांति के मिठाई हे।

पहटिया ह सोचथे; हे भगवान ये ह तो कोनों राजा महराजा के भोजन कस लागथे। फेर इहां एको झन नौकर-चाकर कइसे नइ दिखे?

वो बाई ह बिजना धर के पहटिया के बाजू म बइठ गे अउ पंखा झले लगिस। खाय बर पहटिया के हाथ नइ उचत रहय। बाई ह कहिथे - ''जकर-बकर काला देखथस पहटिया, अउ कोन ल अगोरथस? तोर अउ मोर सिवा इहाँ अउ कोनों नइ हे। ले जेवन कर ले, अब्‍बड़ मन लगा के रांधे हंव।

पहटिया ह झिझकत-झिझकत, लजात-सरमावत भोजन करिस। पहटिया के सुध-बुध नइ हे, मनेमन सोंचत हे; अहा! अतिक सुवादिष्‍ट जेवन जिनगी म कभू नइ मिले रिहिस हे, आत्‍मा ह तिरिप्‍त हो गे।

बाई ह मन म सोंचथे, मरद के जात, जेवन करके चोंगी-माखुर खोजथें। पान के बीड़ा, अउ चोंगी-माखुर धर के हाजिर हो गे। कहिथे - ''पहटिया! ले चोंगी-माखुर पी ले।''

सोवा परे के बेरा हो गे। बाई ह पहटिया के बांसुरी ल धर के हाजिर हो गे, कहिथे - ''पहटिया! तोर बांसरी बजइ ल सुन के मोर मति ह हरा जाथे। गरवा चरात-चरात तंय बंसी बजाथस त मंय ह दिन भर सुनत-सुनत तोर पीछू-पीछू बही-भुती कस किंजरत रहिथंव। ले न थोकुन सुना दे।''

पहटिया ह सोंचथे, येला तो मंय ह बरदी म एकोदिन नइ देखंव, कते करा ले सुनत होही?

पहटिया के मन के बात ल जान गे वो बाई ह। कहिथे - ''लुका-लुका के सुनथंव पहटिया, मोला कइसे देखबे तंय?''

पहटिया ह सोंचथे, जंगल-झाड़ी म कोनों जघा लुका के सुनत होही, काला देखबे?

बंसी ल मुँहू म लगात खानी वोला अपन कमरा अउ खुमरी के सुरता आ गे। कौड़ी के साजू के सुरता आ गे। तेंदू सार के लउठी के सुरता आ गे। येती-वोती देखथे। कहूँ नइ दिखय। सोंचथे, कते खुँटी म टांग परे होहूँ? बिन संवांगा करे कइसे बजांव बंसी?

बाई ह जान गे, बिन सवांगा के बंसी नइ बजा सकय पहटिया ह। कमरा, खुमरी अउ कौड़ी के साजू ल धर के आ गे। कहिथे, पहिरे रेहेस तउन हा भींग गे हे पहटिया, ये ह नवा ए। तोरे बर तो बिसा के राखे रेहेंव। पहिर ले, गजब सुंदर फबही।

पहटिया ह सरी सवांगा मन ल पहिर के, बंसी ल धर के पलंग म बइठ गे। बजे लगिस बंसी।

बंसी के तान ल सुन के वो बाई ह अपन सुध-बुध ल हार के, पहटिया के बगल म आ के, मुड़ी ल पहटिया के खांध म मड़ा के बइठ गे। बंसी के तान ल सुनत-सुनत बिधुन हो गे बाई ह। जइसे-जइसे पहटिया के बांसरी बाजे, बाई ह पहटिया के अंग म लपटत जाय, लपटत जाय।

पहटिया के घला कहाँ सुध-बुध हे। वहू ह बिधुन हो के बजात हे बंसी ल। आँखीं के आगू म वोला राधा-किसन के मुरती के सिवा अउ कुछू नइ दिखत हे।

बिंदाबन म बगरे हे भगवान के बरदी ह। भगवान ह एक गोड़ ल दूसर गोड़ म खाप के खड़े हे। माथा म मोर पाँख के मुकुट ह गजब सुंदर लागत हे। बंसी वाले ह बिधुन हो के बजात हे बंसी। बंसी के एकएक ठन बोल म राधा के नाव ह समाय हे। राधा ह बंसी के तान ल सुन के दंउड़त आ गे अउ वोकर बाजू म आ के खड़े हो गे, भगवान के खांद म अपन मुड़ी ल मड़ा के।

भगवान ह अब रास लीला करे के सुरू कर दिस। कतेक सुंदर अकन गीत गावत हें दुनों झन -

राधा मया के गोठ बड़ लम्‍हरी होथे न।

किसन ले ले रहन दे गोई, लबरी;

मया अँखरी होथे न।

राधा मया म जग दुलरावय,

मया म जग बउरावय,;

बिन मया मयारूक, जल बिन,

जइसे मछरी होथे न।

किसन मया-डोरी के बंधना म बंध के,

मन एके होथे न;

कहे कबीरा, प्रेम गली,

बड़ सँकरी होथे न।

किसन मया म तन-मन फूल बन जाथे,

राधा मया ह हिरदे के सूल बन जाथे,

किसन मया बिन जिनगी ह लगथे अधूरा,

राधा मया ह भादो के घपटे कस पूरा,

बड़ गहरी होथे न।

दुनों तेल-फूल म लइका बढ़थे,

बात-बात म झगरा।

मया-मया म मया ह बढ़थे,

बात अतरी होथे न।

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मन ले मन मिलात, अंग ले अंग लपटात अउ हाँसत-गावत रात ह कइसे पहाइस, कोनों ल गम नइ मिलिस।

पहटिया ह कहिथे - ''मोहनी, तंय तो मोर मन ल मोहि डारेस। फेर तंय ह कोन अस, का अस, कते लोक के रहवइया अस, कुछू नइ बताय?''

''बने नाम धरेस पहटिया, मोहनिच्‌ तांव मंय हर। अभी ले घला तंय ह मोला नइ चीन्‍हेस?''

''जनउला पूछे कस मोला अउ मत बेंझवा मोहनी, सच-सच बता, तंय ह कोन अस?''

''जउन ल तुमन परेतिन कहिथव पहटिया, मंय ह विही आंव। तंय ह हमर दुनिया म आ गे हस। सिरतोन म कहिबे ते तोर बांसरी अउ तोर सुंदरता म मंय मोहाय हंव अउ मिही ह माया के जाल म फंसा के तोला इहाँ लाय हंव। फेर तंय डरा झन, तोला कुछू नइ होय, तंय तो मोर परान के अधार अस।''

''अउ के दिन ले मोला मोह के राखबे मोहनी?''

''का तंय मोला मन नइ करस पहटिया? का मंय तोला पसंद नइ हंव?''

''तोर मया-पिरीत ल पा के तो मोर आत्‍मा ह अघा गे मोहनी। मोर तो अंग-अंग म तंय बस गे हाबस। तोर सही सुंदर, तोर सही मया करइया नारी ये दुनिया म अउ कोन होही मोहनी? फेर तंय परेतिन के जोनी अउ मंय ह मानुस के जात; कइसे निरबहा होही? तुँहर दुनिया म मंय कइसे रहि सकहूँ?''

''काबर नइ रहि सकबे पहटिया? का दुख हे तोला हमर दुनिया म? इहाँ तो बस सुखेसुख हे।''

''इही दुख हे इहाँ मोहनी, कि इहाँ कोनों दुख नइ हे। दुनिया तो सुख-दुख के दूसर नांव आय। सुख-दुख दुनों के मेल से बनथे दुनिया ह। बिना दुख सहे सुख के का मोल? तुँहर दुनिया ह अधूरा हे मोहनी, अधूरा हे। मंय मानुस के जात, तुँहर दुनिया म कइसे रहि सकहूँ?''

''तोला रेहेच्‌ ल पड़ही पहटिया, मोर मरजी के बिना तंय कहूँ नइ जा सकस।''

''तब का, तंय मोला जेहेल म धांध के राखबे मोहनी? तंय तो मोला गजब परेम करथों कहिथस। का अइसने होथे परेम ह? पिरीत के तो अइसन कोनों रीत नइ होवय।''

''तब का करंव पहटिया, तंही बता?''

''मोहनी! तोर बिना तो अब महूँ ह नइ रहि सकंव। का तंय हमर दुनिया म जा के नइ रहि सकस?''

सोच म पर गे मोहनी ह।

पहटिया ह कहिथे - ''ये आत्‍मा के मुक्‍ति के मारग तो हमरे दुनिया म हे मोहनी, तोर दुनिया म नइ हे। का सोंचथस पगली? छोड़ ये दुनिया ल अउ चल हमर दुनिया म वापिस। मोर मन ह कहिथे, तोर मुक्‍ति विहिंचेच्‌ होही।''

''बने कहिथस पहटिया। ये दुनिया ह अधूरा हे। मोला तंय ह अपन जुग-जोड़ी बना लेबे, ते मंय ह तोर संग, तुँहर दुनिया म जरूर जा सकथंव पहटिया।''

''जुग-जोड़ी तो हम बनिच्‌ गे हन मोहनी। अब हमर संग ल भला कोन ह छोड़ा सकथे?''

''बने कहिथस पहटिया; फेर तोला चार ठन बचन हारे बर पड़ही।''

''का बचन मोहनी?''

''हम तो ठहरेन हवा के जात। छिन म इहाँ, छिन म उहाँ। मंय कहूँ घला आहूँ-जाहूँ, मोला बरजबे झन।''

''मंजूर हे मोहनी।''

''हमर सरीर तो आगी के बने होथे पहटिया। अउ जुग-जोड़ी म तो खिट-पिट होते रहिथे; मोर ऊपर कभू हाँथ झन उचाबे, जर जाही।''

''मंजूर हे मोहनी।''

''अगिन धार के जउन लुगरा ल अभी मंय पहिरे हंव, तुँहर दुनिया म येला नइ पहिर सकंव पहटिया। अउ येला तज के जा घला नइ सकंव। येला पहिरे बर मोला कभू झन कहिबे। पहिरेंव ते फेर अपन दुनिया म आ जाहूँ मंय।''

''नइ कहंव मोहनी, कभीू नइ कहंव। अउ आखिरी बचन का हे, तउनों ल बता डार।''

''हमर लोग लइका होही पहटिया; ऊँखर बर-बिहाव होही। बिहाव म मोला नकटी-नाच नाचे बर कोनों झन कहिहीं। काबर? फेर तो तंय मोला नइ पाबे।''

''यहू बचन मोला मंजूर हे मोहनी।''

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पहटिया ह अपन मन के मोहनी ल धर के अपन घर आ गे।

समय बीतत गिस। बाल-गोपाल से पहटिया के घर ह आबाद हो गे।

लइका ह जवान हो गे। बर-बिहाव के दिन घला आ गे।

लइका के बरात धर के पहटिया ह बहू बिहाय बर गे हे। येती घर म माई लोगन मन के नकटा नाच सुरू हो गे। कोनों माई लोगन ह धोती-कुरता पहिर के नाचत हे, कोनों ह केंरवछ के नकली डाढ़ी-मेंछा बना के नाचत हे। नाना परकार के नकल उतारत हें। ननद-जेठानी मन ह कहिथे - ''अइ! दुलहा के महतारी ह कहाँ लुकाय हे, वोकर नाचे बिना कइसे बिहाव होही? बेटा के बिहाव करत हे। लाव धर के, अउ नचाव वोला।''

मोहनी ह अपन कुरिया म लुकाय बइठे हे। पहटिया के बात वोला सुरता आवत हे। का केहे रिहिस हे पहटिया ह? केहे रिहिस हे - ''ये आत्‍मा के मुक्‍ति के मारग तो हमरे दुनिया म हे मोहनी, तोर दुनिया म नइ हे। का सोंचथस पगली? छोड़ ये दुनिया ल अउ चल हमर दुनिया म वापिस। मोर मन ह कहिथे, तोर मुक्‍ति विहिंचेच्‌ होही।''

मोहनी ह दसों अंगरी ल जोर के भगवान ल सुमरत हे। ''हे भगवान! का अब मोर मुक्‍ति के बेला आ गे हे कि मोला फेर विही परेतिन के दुनिया म जाय बर परही? दया कर भगवान! न मंय मुक्‍ति चाहंव, अउ न लहुट के फेर वो दुनिया म जाना चाहंव। मोर सरग तो इही ह आय। बहू-बेटा, नाती-नतुरा मन के सुख ले बढ़ के तोर सरग के सुख ह होही क?''

फेर बिधाता के लेख ल भला कोन ह मेट सके हे? ननद-जेठानी मन चेचकारत हें। कहत हें - ''अई! देख तो दाई, दुल्‍हा बाबू के महतारी ल? कइसे अँधियारी खोली म लुका के बइठे हे।'' चिंगीचांगा धर के मोहनी ल नाचे बर झीेंकत हे सब झन। मोहनी ह गजब हाँथ-पाँव जोरत हे, बहाना बनात हे, अटघा लगात हे। सुनने वाला कोन हे?

निकलिस अगिन धार के लुगरा ल पहिर के मोहनी ह अउ नाचे लागिस। बगर गे परेतिन के माया जाल चारों मुड़ा। माया जाल म सब मोहा गें; कोनो ल चेत नइ हे, सब बिधुन हो के नाचत हें। कोनों ल काकरो सुध नइ हे।नाचत-नाचत मोहनी ह कब अंतरध्‍यान होइस कोनों ल गम नइ मिलिस।

होस म आइन तब मोहनी ल खोज-खोज के सब हार गें।

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पहटिया ह बहु बिहाय बर गे हे। मोहनी के चौंथा बचन के सुरता कर-कर के छटपटात हे वोकर मन ह। अपन मन के बात ल वो ह कोन ल बतातिस?

बहू बिहा के बरतिया ह लहुटिस। इहाँ के हाल-चाल सुन के पहटिया ह मुड़ी धर के बइठ गे। कहिथे - ''वो ह तो हवा आय। जिंहा ले आय रिहिस, विहिंचे फेर चल दिस। कहाँ खोजहू तुम वोला; अउ कहाँ वो ह तुम्‍हला मिलही?''

सरार के पार म बोईर के एक ठन रूख रहय। पहटिया ह सगा-सोदर सहित बहू-बेटा ल धर के विही बोईर पेड़ के तीर म आ गे। पेड़ के अटघा ले के; दिया बार के हूम-धूप, नरिहर-उदबत्‍ती जला के परेतिन माई के पूजा-पाठ कराईस। करिया चूरी अउ करिया फुंदरी के संवांगा चढ़ाइस। पहटिया के दुनों आँखीं डहर ले तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे, बहू-बेटा ल कहिथे - ''अपन महतारी के आसीरवाद ले लेव मोर बेटी-बेटा हो।''

बहू-बेटा मन पेंड़ के पेंडौरा म मुड़ी ल मड़ा दिन। अतका तीपत गरमी म घला कोन जानी कते डहर ले सुरसुर-सुरसुर ठंडा बडौरा कस आइस; पेड़ के डारा-पाना मन डोले लगिस। बेटा-बहू के ऊपर पाना मन झर-झर के गिरे लगिस।

बडौरा ह अब धीरे-धीरे अगास म ऊपर डहर उठे लगिस। पहटिया ह दुनों हाथ ल जोर के, अगास डहर मुड़ी उचा के देखत हे। बड़ौरा ह धीरे-धीरे ऊपर उचत गिस, उचत गिस; अउ अगास म जा के चुपचाप समा गे। दुनिया के मोह-माया के बंधना ले छूट गे होहनी ह। चल दिस भगवान के दुनिया म। पहटिया के दुनों आँखी ले झरझर-झरझर आँसू बोहावत हे।

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iंदरहवाँ पैर

राजेश ह जब ले झाला म डेरा जमाय हे, रेडिया ल संगवारी बना ले हे। सांझ कुन रायपुर टेसन लगा देथे। बरसाती भइया वाले खेती-किसानी के परोगराम आवत रहय, विही म येदे सुग्‍घर अकन गीत ह बाजन लगिस -

अरपा-पैरी के धार,

महानदी हे अपार,

इन्‍द्रावती ह पखारे तोर पँइयां -

जय हो, जय हो, छत्तीसगढ़ मैया। ...

गीत ल सुन के सबो झन के मन ह हरिया गे। मनसुख ह कहिथे - ''कतक सुग्‍घर बरनन हे भइया हमर छत्तीसगढ़ महतारी के। कतरो सुनबे ये गीत ल फेर मन ह नइ भरय।''

डेरहा बबा - ''ये गीत म छत्तीसगढ़ मइया के अरथ ल घला सुग्‍घर अकन समझाय गे हे।''

गनेसिया ह कहिथे - ''तुहिंच्‌ तुहीं मन ह जानिकजाना होहू कि हमू मन ल कुछू जनाहू?''

मनसुख - ''छत्तीसगढ़ महतारी ह हमर-तुँहर जइसे नाशवान शरीर ले तो नइ बने हे। फेर वोकरो शरीर हे, वोकरो आत्‍मा हे। छत्तीसगढ़ माता के शरीर ह बने हे इहाँ के धरती, इहाँ के जंगल-पहाड़, इहाँ के नदिया-झरना ले अउ वोकर आत्‍मा हरे इहाँ निवास करइया दू करोड़ ले जादा जनता-किसान इहाँ के चिरई-चिरगुन, इहाँ के हिरना-मिरगा। छत्तीसगढ़ महतारी से परेम करना हे त इही सब मन संग हमला परेम करे बर परही।''

नंदगहिन - ''तब ये गीत म हमर सिवनाथ नदिया के बरनन हे कि नइ हे?''

मनसुख - ''वहू ह हाबे। अब तंय ह शिवनाथ के बात कर देस त आज हम वोकरे कहानी ल सुनन।''

डेरहा बबा ह कहिथे - ''धन भाग हमर।''

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शिवनाथ नदिया के अवतार कथा

पानाबरस राज म घोर जंगल बीच एक ठन गाँव हे कोटगुल। तइहा जमाना म उहाँ के पटेल के सात झन बेटा अउ सबले छोटे एक झन बेटी रिहिस। सात झन भाई के एक झन बहिनी, तउन पाय के सब झन वोला सतवंतिन कहंय। सातों भाई अउ सातों भउजी के गजब मयारुक। एक गिलास पानी बर घला वोला कोनों नइ तियारे, अतका फुलक-झेलक, फूल कस बदन, अघात सुंदर, अतराब म अउ कोनों नइ तइसन। वो ह कोनों मानुस थोड़े रिहिस, काली माई के अवतार रिहिस। वोकर अंग-अंग ले, चेहरा ले काली माई के तेज निकलत रहय।

जवान हो गे सतवंतिन ह। घोटुल मा जावय सतवंतिन ह संगी मोटियारी मन संग। रीलो नाचय, अइसे नाचय मानों कोनों अप्‍सरा नाचत होय। सतवंतिन ह जब नाचय तब मांदर अउ मंजीरा बजाय बर संउहत सरग के देवता मन ह आ जावंय। गाँव भर के चेलिक मन वोकर आगू-पीछू मंड़रावँय। काकर हिम्‍मत होतिस वोला हाथ लगाय के? अइसने नाचत-नाचत एक दिन एक झन चेलिक ह मंद के नशा म ओकर बांह ल धर दिस। जेकर अंग म संउहत काली माई के बास रिहिस; कोनो पाप के बसीभूत होके वोला छूही त का वो ह बाँचही? जल के भसम नइ हो जाही?

तुरते लुलवा हो गे। फेर तो अउ ककरो हिम्‍मत नइ होइस सतवंतिन के शरीर ल छुए के।''

ये धरती म का एके झन ह अवतार लेथे? देवी के संग देवता ह तो घला अवतार लेथे न? दूसर गाँव म वोकर देवता ह तो घला अवतार ले डरे रिहिस। ........ फागुन के महीना रहय। परसा मन सुंदर अकन ले चर-चर ले लाल-लाल फूले रहंय। महुवा मन अपने फूल के नशा म जानो-मानों मात गे रहंय। चार, आमा सब बउराय रहंय। तेंदू के पेड़ मन मीठ-मीठ फर ले लहसत रहंय अउ धनबहार के पींयर-पींयर फूल मन अइसे दिखत रहंय मानो कोनो ह हरदी ल पीस के, पानी म घोर के, जंगल देवी के अंचरा म छींच दे होय। ....... ...गाँव म सुंदर अकन मडई भराय रहय। इही मंडई म आय रहय वोकर देवता ह। भीम सही शरीर, दुरिहच ले सबले अलग, सबले न्‍यारा दिखत रहय। दूनों झन तो एक दूसर बर बनेच्‌ रिहिन, मन मिले म कतका बेरा लगथे? सीता माई ह पुष्‍प वाटिका म जब भगवान ल देखिस त ऊँखर मन मिले बर टेम लगिस का?

वोकर नाव रिहिस हे नाथ! अउ जानथव, सतवंतिन के का नाव रिहिस? शिव। भाई मन के जोर म नाथ ल लमसेना बने बर पड़ गे। लमसेना के का कदर? चरवाहा बरोबर ताय। घर भर के सरी काम ल करवांय। नाथ ह तो रिहिस देवता के अवतार, बड़े से बड़े काम के छिन भर म वारा-न्‍यारा। भाई मन अचरज म बूड़ जावंय। भउजी मन के मन म पाप पले के शुरू हो गे।

शिव अउ नाथ दूनों झन एक दूसर ल गजब मया करंय। एक दूसर ल देखे बिना कोनों नइ रहि सकंय। दूनों झन के प्‍यार ह भउजी मन के आँखींं म काँटा गड़े कस गड़े लगिस। अषाड़-सावन के महीना रिहिस। झड़ी लगे सात दिन हो गे रहय। वो दिन तो मानों बादर ह फट के धरती म आ गे रिहिस। परलय आना रिहिस; सुपा के धार कस पानी रटरट-रटरट बरसे लगिस। बिहने ले संझा हो गे, संझा के फेर बिहने हो गे, काबर थिराय पानी ह? नदिया-नरवा बकबका गे, खेत-खार डोली-बहरा सब एकमेव हो गे। जेती देखतेस पंड़रच्‌ पड़रा। सब डहर पानिच्‌ पानी।

दुनिया ह थरथर कांपत हे; कहीं परलय तो नइ हो जाही? फेर अभी कहाँ परलय होय हे। अभी तो छत्तीसगढ़ के इतिहास लिखाय बर बाँचे हे। प्रेम के अमर कथा ह पूरा होय बर बाचे हे। ........... भाई मन देखिन, बड़े-बड़े बहरा, जिंखर तरिया-पार कस मेंड़ हे, उँखर मुहीं-पार मन लिबलिब-लिबलिब करत रहंय। माई बहरा के मुंही ह अब फूटे तब फूटे होत रहय। सातों भाई मन मुहीं बाँधे बर दँउड़ गें। नाथ ल कब घर म छोड़ने वाला रिहिन?

सातों भाई मन चटवार म माटी के लोंदा चटका-चटका के देवत हें। बीच मुहीं म खड़े हो के नाथ ह सबके माटी-लोंदा ल झोंक-झोंक के रचत जावत हे मुंही म। माटी के लोंदा ल मड़ान नइ पावत हे, धार म बोहा जावत हे। मुही ह नइ बँधातिस, विही म भलाई रिहिस हे।

वोती भाई मन के मन म तो पाप पलत रहय, का जाने नाथ ह? भाई मन आँखीं-आँखीं म गोठया डरिन। बहुत दिन हो गे हे धरती माई ल पूजन देय। बिना बलि लेय मुही ह कइसे बँधाही? नाथ जइसे बलि ह आगू म खड़े हे, अउ कहाँ जातिन बलि खोजे बर? अब तो सातों भाई मन उत्ताधुर्रा माटी के लोंदा काँट-काँट के नाथ के मुड़ी म फेंके लगिन। डेड़सारा मन के नीयत ल, मन के पाप ल समझ के काँप गे शिव ह; फेर कनिहा भर लद्‌दी म सड़बड़ाय वो बिचारा ह भला का कर सकतिस? कलप-कलप के प्राण के भीख माँगत हे नाथ ह, फेर राक्षस मन के हिरदे म दया रहितिस तब न?...............''

दमाद ल मुँहीं म पाट के आ गे राक्षस मन। येती सतवंतिन ह जोही के चिंता म बिन पानी के मछरी कस तड़फड़ात रहय। भाई मन संग जोही ल नइ देखिस ते वोकर मन ह धार मार के रो डरिस। सदा दिन आगू-आगू रेंगइया जोही ह आज को जनी कहाँ पिछवा गे होही? घेरीबेरी मुहाटी म निकल-निकल के देखत हे। ये भाई तीर जा के पूछत हे, वो भाई तीर जा के पूछत हे। करनी ल कर के तो आय रहंय, का बतातिन चण्‍डाल मन?........सांझ होय बर जावत हे, सूपा कस धार रझरझ-रझरझ रुकोवत हे बादर ह; चिरिरीरी ..चिरिरीरी..........बिजली चमकत हे; घड़घड़-घड़घड़ बादर गरजत हे। सब जीव-जंतु अपन-अपन ठीहा-ठिकाना म परान बचा के लुकाय हें। सतवंतिन ह निकल गे जोड़ी ल खोजे बर। कछोरा भिरे हे, कनिहा के आवत ले चुंदी ह बगरे हे। भाई मन छेंकत हें, भउजी मन छेंकत हे; बइहा पूरा ह ककरो छेंके छेकाथे का? न पाँव म पनहीं हे न मुड़ी म खुमरी हे, जकही-भुतही मन सरीख दंउड़त हे सतवन्‍तिन ह; खोचका-डबरा, भोंड़ू-भरका, नरवा-ढोंड़गा, डोली-बहरा, सब छलकत हे; कोनों म हिम्‍मत नइ हे, सतवन्‍तिन के रस्‍ता रोके के। चारों मुड़ा पानिच्‌ पानी हे, पानी के मारे न जंगल ह दिखत हे, न पहाड़ ह दिखत हे, न रुखराई मन दिखत हे। धार मार-मार के चिल्‍लावत हे सतवन्‍तिन ह, 'नाथ.... तंय कहाँ हस?' सतवन्‍तिन ह जस-जस गोहार पारत हे, जोही ल पुकारत हे, जस-जस एती-वोती दंउड़त हे, तस-तस बिजली चमकत हे, चिरिरिरि.........., बादर गरजत हे, घड़घड़ घिड़ीड़ि .......रझरझ-रझरझ पानी गिरत हे। ........'नाथ तंय कहाँ हस?'

नाथ के शरीर ह मुँही म बोजाय हे, निकले बर छटपटात हे, नरी ह दिखत हे, दुनों हाथ ह दिखत हे। शिव के गोहार ल सुन डरिस नाथ ह; वहू ह गोहार पारत हे, शिव......।

दूनों एक दूसर के गोहार ल सुन डरिन, दुनों एक दूसर ल देख डरिन। शिव ह अपन भाई मन के करनी ल जानतेच्‌ रिहिस हे। बंधिया-तरिया कस बड़े जबर बहरा हे जेकर मुँहीं म पटाय हे नाथ ह, मुड़ी अउ हाथ भर ह दिखत हे।

बगरे-छितरे चूंदी, भिरे कछोरा, का खोचका का डबरा, का भोंड़ू का भरका, सतवंतिन ह पल्‍ला दंउड़त हे अपन नाथ से मिले बर।

बजुर गिरे बरोबर बिजली कड़क ग,े चिर्र ........। अगास जइसे फट गे। अपन अनसंउहार वेग ल ले के गंगा मइया ह जइसे धरती म उतर गे। बहरा के मुँही ह गंगा के वेग ल भला संउहार सकतिस? फूट गे मुँही, बोहा गे नाथ ह अउ बन गे नदिया। गोहार पारत हे नाथ ह, शिव ............। एती ले शिव ह गोहरावत हे, नाथ.....मोला छोड़ के झन जा।

सच्‍चा अउ पवित्र प्‍यार करने वाला मन ल भला कोई रोक सके हें? सतवंतिन शिव ह गंगा माई ले कहत हे, हे गंगा माई जइसे मोर नाथ ल अपन आप म समो लेस, वइसने महूं ल अपन कोरा म समो ले।

फेर बजुर गिरे कस बिजली चमक गे। फेर प्रगट हो गे गंगा मइया ह। बोहा गे शिव घला ह नदिया बन के।

नाथ ह सोझ बोहावत हे। शिव ल तो अपन जोही से मिलना हे, घूम के अरकट्‌टा बोहावत हे वो ह। गोहार पारत हे, नाथ......।

येती ले नाथ घला अपन शिव से मिले बर तड़पत हे, पुकारत हे, शिव ...........।

''एक कोस, दू कोस .... बीस कोस। आखिर कतिक दूरिहा ले नइ मिलतिन? दूनों मिल गें अउ बन गे शिवनाथ। ..................।

शिव ह घूम गे तउन पाय के वो ह जहरित हो गे घुमरिया के नाव से।

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ये ह कोनों मन के उपजे कहानी नो हे संगी हो, ये ह तो प्‍यार के सच्‍चा कहानी आय। शिवनाथ तो साक्षात, कलकल-कलकल करत तब ले अब तक प्रगट रूप म हम सब के जीवन ल पबरित करत आवत हे। येला कहानी कइसे मान लेबे?

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सोलहवाँ पैर

आज झरती पैर रिहिस हे, बियारा बनाय के दिन हे। सबे खरही के धान ह अब कोठी म सकला गे हे। कुटउर मन ल रंउद के वोकरे धान ल ओसा के आज डोहारत हें। सबे काम ह बने संझकेरहा निबट गे हे। बियारा ह आज चाँतर दिखत हे, सुन्‍ना-सुन्‍ना लागत हे। डेरहा बबा के बैठका जमे हे। वोती घर म बरा-सोंहारी अउ खीर के तइयारी चलत हे। सबे बनिहार मन ल, अरोसी-परोसी मन ल, बँटइत मन ल, अउ मनसुख, गनेसिया, सब झन ल झारा-झारा नेवता हे। काम ल झर्रा के रतनू अउ सबे सपरिहा, बनिहार मन घला भुर्री तीर सकला गे हें। रतनू ह दाई-ददा अउ सबे सियान मन के पाँव पर के एक तीर म बइठ गे। सबे मन रतनू ल आसीस दिन। राजेश ह घला विही कर बइठे रहय; बाबू ल पाँव परत देखिस तहाँ ले वोकर पीछू-पीछू वहू ह पाँव परे के शुरू कर दिस। खूब आसीरवाद पाइस। मनसुख ह पूछथे - ''कतिक कमायेस बाबू''

रतनू - ''भगवान के किरपा ले बनेच सोला आना होइस हे कका।''

डेरहा बबा - ''भगवान के किरपा ह घला कमइया मन ऊपर होथे बेटा, सब तोर मेहनत के फल आय। सबर दिन अइसनेच्‌ किरपा होवत रहय। ले जाव, अब मुँहू-हाथ धोव।''

रतनू - ''आज तो मनसुख कका के बरमासी आल्‍हा सुनबोन तभे जाबोन। राजेश ह बतावत रिहिस हे, आज बरमासी आल्‍हा के परोगराम हेे कहिके।''

सपरिहा रहंय तउन मन ह कहिथें - ''बरमासी आल्‍हा तो सुनबेच करबोन कका, हमन एको दिन कहानी म सपड़े नइ हन, पहिली कोनो कहानी सुनातेस ते हमु मन सुन लेतेन।''

मनसुख - ''तब सुनो रे भाई हो। चतुर मुसुवा अउ ढेला के मितानी के किस्‍सा ल -

मुसुवा अउ ढेला

एक झन डोकरी रहय। डोकरी के एक झन नतनिन रहय। नतनिन ह गजब सुंदर रहय अउ बिहाव करे के लाइक हो गे रहय। विही घर म एक ठन अतलंगहा मुसुवा रहय। डोकरी के घर म वो ह पक्‍का पइधारो करे रहय अउ ओकर-ओकार के घर-कुरिया के कहस कि कोठी-डोली के कहस, सब के बारा हाल कर दे रहय। डोकरी ह वो मुसुवा ल मारे के कतरो उदिम करय फेर वो ह बोचकिच्‌ जाय।

मुसुवा ह डोकरी के नतनिन ऊपर मोहाय रहय। रात-दिन, मनेमन वोकर संग बिहाव करे के सोचे। एक दिन डोकरी ल कहिथे - ''डोकरी दाई! तंय ह मोला नतनिन-दमाद बना ले, मंय ह तोर घर ल ओकारे बर छोड़ देहूँ।

मुसुवा के अंजेरी कस गोठ ल सुन के डोकरी के एड़ी के रिस ह माथा म चढ़ गे। बहरी मुठिया म फेंक के मारिस। किहिस - ''हत्‌ रे रोगहा, अतलंगहा मुसुवा, मोर बेटी बर दमाद के कोनो अंकाल परे हे का रे, जेमा तोर संग वोकर भांवर पार देहूँ। आजी के दिन वोकर बरतिया अवइया हे, अइसन गोठ करथस, तोला मरना काबर नइ आय?''

मुसुवा ह वोतका बेर तो बाहरी के मुठिया ल देख के भाग गे, फेर मनेमन कहिथे - 'देखथंव भला, कइसे बेटी नइ देेबे।'

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मुसुवा ह ढेला संग मितानी बदे रहय। जा के कहिथे - 'मितान! चल न आज नदिया के वो पार आमा बगीचा घूमे बर जाबो। आमा पेड़ मन ले जोरदार गरती झरत हे। इहाँ ले खुसबू आवत हे। मोर मुहूँ ह पनछिया गे हे।''

ढेला ह कहिथे - ''दहरा मन म बांस-बांस भर पानी भरे ह मितान, मोला तो तंउरे बर नइ आवय, कइसे नहकहूँ?''

मुसुवा - ''एकदम सरको हे, मंय ह तंउरहू, तंय ह मोर पीठ म बइठ जाबे। अइसने करके दुनों झन नहक जाबोन।''

दुनों मितान घाट म जाथें। मुसुवा ह नदिया ल कहिथे - ''हे जल देवता! हमला गरती आमा खाय बर वो पार जाना हे, रद्दा दे दे ना।''

नदिया ह कहिथे - ''मोरो बर मीठ-मीठ गरती आमा लाहू तब तो।''

मुसुवा ह कहिथे - ''काबर नइ लाबोन जी। रद्दा तो दे। फेर मोर मितान ल तंउरे बर नइ आवय, तोला वोकर रक्षा करे बर पड़ही।''

मुसुवा ह ढेला ल अपन पीठ ऊपर बइठा के नदिया म तंउरत जावत रहय। लहरा म ढेला ह पानी भीतर गिर गे अउ घूर गे। मुसुवा ह नदिया ल कहिथे - ''तंय तो बड़ दगाबाज निकलेस जी, मोर मितान ल बुड़ो देस। मोर मितान ल दे नइ ते वोकर बदला म मछरी दे। नइ ते नियाव मांगे बर मंय ह राजा तीर जाहूँ।''

नदिया ह कहिथे - ''तोर मितान ह तो घुर गे, वोला कहाँ ले लाहूँ, मछरी ले ले रे भइ, फेर राजा तीर मत जा।'' अइसे कहिके नदिया ह वोला एक ठन बड़े जबर मोंगरी मछरी दे दिस।

मुसुवा ह वोतकेच्‌ ल तो खोजत रहय। मनेमन गजब खुस होइस। ला के वो मछरी ला वो ह एक ठन थुन्‍ही ऊपर टांग दिस। थुन्‍ही ल कहिथे - ''थुन्‍ही भइया! मंय ह आमा खाय बर आमा बगीचा जावत हंव, आवत ले मोर मछरी ल देखे रहिबे क?''

थुन्‍ही - ''मोरो बर आमा लाबे तब तो।''

मुसुवा ह तो फांदा खेले रहय। कहाँ जाना हे वोला आमा बगीचा? हव! तोरो बर लाहू, कहिके थुन्‍ही ल किहिस अउ अपन ह बिला म लुका गे। विहिंचे ले सपट के देखत रहय। एक ठन कँउआ आइस अउ मछरी ल चोंच म धर के उड़ा गे। मुसुवा ह मन म कहिथे - जोखा जम गे। अब चलना चाही। आ के थुन्‍ही ल कहिथे - ''थुन्‍ही भइया, अपन आमा ल ले ले, अउ मोर मछरी ल दे दे।''

थुन्‍ही - ''वोला तो कँउआ ह ले गे, कहाँ ले लाहूँ?''

मुसुवा - ''तंय तो जबर दगाबाज निकलेस जी! सोझबाय मोर मछरी ल दे दे, नहीं ते वोकर बदला लकड़ी-फाटा दे दे। नइ देबे ते मंय ह राजा तीर जाहूँ, नियाव मांगे बर।''

राजा अउ नियाव के बात ल सुन के थुन्‍ही ह कांप गे; कहिथे - ''जतका लकड़ी-फाटा लेगना हे ले जा, फेर राजा तीर मत जा भइया।''

मुसुवा ह एक ठन बढ़िया सरीख लकड़ी ल धर के डोकरी दाई तीर चल दिस, किहिस - ''डोकरी दाई, डोकरी दाई! मंय ह आमा खाय बर आमा बगीचा जावत हंव, आवत ले मोर लकड़ी ल देखे रहिबे क? तोरो बर बने मीठ-मीठ आमा लाहूँ वो।''

डोकरी ह कहिथे - ''फेर आ गेस रे रोगहा मुसुवा, विही करा मड़ा दे तोर लकड़ी ल अउ जा, जल्‍दी आबे।''

मुसुवा ल कहाँ जाना हे? बिला म जा के सपट गे।

डोकरी दाई ह तेलई चड़ाय रहय, चुल्‍हा ह गुंगुवावत रहय, झुक्‍खा देख के विही लकड़ी ल वो ह चुल्‍हा म धरा दिस। लकड़ी ह भंगभंग-भंगभंग बर गे। मुसुवा ह सोचथे, बन गे अब मोर जोखा। डोकरी तीर आ के कहिथे - ''डोकरी दाई, डोकरी दाई! ये ले तोर आमा, अउ मोर लकड़ी ल मोला दे दे।''

डोकरी दाई - ''वोला तो मंय ह बार परेंव, कहाँ ले लांव?''

मुसुवा - ''तंय ह मोर संग दगा काबर करेस? सोझबाय मोर लकड़ी ल दे दे, नइ ते मंय ह फरियाद करे बर राजा के दरबार म जावत हंव।''

फरियाद के बात ल सुन के डोकरी के हाथ-गोड़ ह फूल गे, कहिथे - ''येदे झेंझरी टुकनी भर मंय ह बरा रोटी रांधे हंव। तोर लकड़ी के बदला म ये सबो ल ले ले, फेर राजा के दरबार म मत जा मोर ददा।''

मुसुवा के जोखा ह जम गे।

परिया म छेरका ह अपन छेरी मन ल चरावत रहय, वोकर तीर चल दिस। किहिस - ''छेरका भइया, छोरका भइया! मंय ह आमा खाय बर आमा बगीचा जावत हंव, आवत ले मोर बरा रोटी ल देखे रहिबे क? तोरो बर बने मीठ-मीठ आमा लाहूँ जी।''

बरा रोटी ल देख के अउ आमा के गोठ ल सुनके छेरका ल लालच आ गे। कहिथे - ''का होही जी संगवारी, विही करा मड़ा दे तोर बरा रोटी के टुकनी ल, अउ जा, जल्‍दी आबे।''

मुसुवा ल कहाँ जाना हे? बिला म जा के सपट गे।

बरा रोटी के सोंध म छेरका के लालच ह अउ बाढ़ गे। मुसुवा ह गिस तहाँ ले वो ह जम्‍मों बरा ल खा डरिस।''

मुसुवा ह तो फांदा खेले रहय। बिला ले सपट के देखत रहय, सोचथे, बन गे अब मोर जोखा। छेरका तीर आ के कहिथे - ''छेरका भइया, छोरका भइया! ये ले तोर आमा, अउ मोर बरा रोटी ल मोला दे दे।''

छेरका - ''वोला तो मंय ह खा परेंव, कहाँ ले लांव? अब तंय बरा के नाव लेबे ते एकेच्‌ लउठी म तोर बुता ल बना देहूँ। परान बचाना हे ते भाग इहाँ ले।''

मुसुवा ह काबर डरे? वहू ह अकड़ के कहिथे - ''तंय ह मोर संग दगा काबर करेस? सोझबाय मोर बरा रोटी ल दे दे, नइ ते मंय ह फरियाद करे बर राजा के दरबार म जावत हंव।''

राजा अउ फरियाद के बात ल सुन के छेरका के कंपकंपी छूट गे; हाथ-गोड़ ह फूल गे, कहिथे - ''मोर छेरकाही म छै अगर छै कोरी छेरी हाबे। तोला जउन ह पसंद हे वोला अपन बरा के बदला म ले ले, फेर फरियाद करे बर तंय राजा के दरबार म मत जा मोर ददा।''

मुसुवा ह वोतकेच्‌ ल तो खोजत रहय। मनेमन गजब खुस होइस। एक ठन रोटहा दढ़ियारा बोकरा कोती अंगरी देखा के कहिथे - ''तब एदे बोकरा ल दे दे।''

बोकरा ल धर के मुसुवा ह डोकरी दाई के घर चल दिस। उहाँ वोकर नतनिन के बरतिया आय रहय। मुसुवा ह दुलरवा दुल्‍हा बाबू तीर जा के कहिथे - ''दुल्‍हा भइया, दुल्‍हा भइया! मंय ह आमा खाय बर आमा बगीचा जावत हंव, आवत ले मोर बोकरा ल देखे रहिबे क? तोरो बर बने मीठ-मीठ गरती आमा लाहूँ जी।''

जम्‍मा बरतिया अउ दुल्‍हा दुलरू के नीयत ह तो बोकरा म गे रहय, कहिथे - ''ले का होही, बोकरा ल वोदे खूँटा म बांध दे, अउ जा। झपकुन आ जाबे।''

मुसुवा ह मनेमन गजब खुस होइस। सोचिस, ये ह मोर झरती फांदा ए। अब तो मोर काम ह सिद्ध हो के रइही। जा के अपन बिला म सपट गे।

मुसुवा ल जावन दिन अउ बरतिया मन ह वोकर बोकरा ल मार के, रांध के खा डरिन।

मुसुवा ह ठंउका वोतका बेरा आ गे, दुल्‍हा ल कहिथे - ''''दुल्‍हा भइया, दुल्‍हा भइया! मंय ह तोर बर ये दे आमा लाय हंव, अब मोर बोकरा ल मोला लहुटा दे।''

बरतिया मन कहिथें - ''तंय ह बोकरा के नाव झन ले रे मुसुवा, परान बचाना हे ते जा अपन बिला म खुसर जा।''

मुसुवा - ''एक तो मोर संग तुम सब दगा करे हव जी। ऊपर ले नान्‍हे जान के मोला धमकाथो। फेर, जेकर कोनो नइ होय तेकर बर राजा होथे। मोरो बर राजा हे, राजा के नियाव हे। जावत हंव।''

राजा के नाव सुन के सब झन के बोलती बंद हो गे। कहिथें - ''बदला म कुछू अउ ले ले रे भइ, फेर राजा तीर झन जा।''

मुसुवा - ''अइसन बात हे तब बदला म ये दुल्‍हिन ल दे दव।''

राजा के डर ते बबा के डर, दुल्‍हा ह अपन दुलहिन ल मुसुवा ल दे दिस। अतकच्‌ ल तो खोजत रहय मुसुवा ह। एकरेच्‌ बर तो सरी उदिम ल करे रहय। खुसी के मारे नाचे लगिस, गीत गाय लगिस -

मीत के मछिरी पायेंव,

मछरी के लकड़ी।

लकड़ी के बरा

अउ बरा के बोकरी।

बोकरी के दुलहिन,

बता रे दुल्‍ही, का मोर नाव?

दुलहिन ल मुसुवा ह फुटे आँखी नइ सुहाय, गजब रोइस, फेर का करे, मुसुवा ल खुस करे बर वोकर संग ऊपरछांवा हाँसत-गोठियात वोकर घर आ गे। कहिथे - ''सुनथव? घर म एको बीजा चाँउर नइ हे, कइसे जेवन राँधंव?''

मुसुवा - ''फिकर झन कर, एदे छटना भर धान हे, एदे ढेंकी हे, कूट ले। एदे बहना अउ मूसर हे अउ एदे राहेर माड़े हे। छर ले, अउ बने सुंदर असन जेवन रांध ले। मंय ह किंजर के आवत हंव।''

दुलहिन - ''धान ल एके झन कइसे कुटहूँ, कोन ह खोही?''

मुसुवा - ''मोर रहत ले तंय फिकर झन कर। चल कुटे के सुरू कर, मंय ह खोवत हंव।''

मुसुवा ह बहना तीर धान खोय बर बइठ गे। धान ल खोय अउ झुमर-झुमर के विही गीत ल गाय -

मीत के मछिरी पायेंव,

मछरी के लकड़ी।

लकड़ी के बरा

अउ बरा के बोकरी।

बोकरी के दुलहिन,

बता रे दुल्‍ही, का मोर नाव?

धान खेवत-खोवत मुसुवा ह बहना म झपा गे अउ कुटा के मर गे। दुलहिन कहिथे - ''मर रे रोगहा मुसुवा, अड़बड़ अतलंग नापत रेहेस। ठग के मोला लाय रेहेस।''

सांझ होवत ले दुलहिन ह अपन घर लहुट गे। अपन दुलहा संग हँसी-खुसी दिन बिताइस।

दार-भात चुर गे मोर कहानी पूर गे।

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रतनू ह कहिथे - ''गजब मजा आइस कका। ले अब चोंगी-माखुर पी ले अउ बरमासी आल्‍हा सुना दे।''

मनसुख - ''चोंगी माखुर के अब नाव झन ले बेटा। पीेये बर छोड़े हँव तउन दिन ले मोर बनउती ह बन गे हे। सब खाँसी-खोखरी ह माड़ गे हे। बरमासी आल्‍हा सुनव फेर मंय ह अपढ़ आदमी ताँव, कोनों कवि-विद्वान तो आवंव नहीं, अलवा-जलवा दू लाइन सुनावत हँव।''

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बरमासी आल्‍हा

सहड़ा देव के सुमिरन करके, माता देवाला सीस नवांव।

भानेश्‍वरी के चरण पखारंव, आदिशक्‍ति ल माथ नवांव।

बुढ़ा देव के बंदन करके, गौरा-गौरी के माड़ी ल छवांव।

बोइर रूख के दाई परेतिन, करिया चूरी जिहाँ चढ़ांव।

हनुमान बर घींव अउ बंदन, भुमियारिन म धजा चढा़ंव।

पाँव परत हंव माता-पिता के, छत्‍तिस कोटि देव मनांव।

डोंगरगढ़ के बंमलई सुमिरंव, दंतेसिरी के धियान लगांव।

बरमासी मंय आल्‍हा कहिथंव, सुनलव भइया ध्‍यान लगाय।

सावन महिना बड़ मनभावन, चारोंखूँट हरेली छाय।

नदिया-नरवा बइहा बन गे, खेत-खार म पूरा बोहाय।

आय हरेली सवनाही संग, गरवा मन ल लोंदी खवांय।

नांगर-बक्‍खर, रापा-कुदारी, धो-मांज के चिला चढ़ांय।

बड़ अतलंगहा इहाँ के टूरा, छाती भर-भर गेंड़ी खपांय।

कँउवा मन ह चारा बाँटय, कोन सगा के सोर सुनांय।

नवा बिहाती रद्‌दा देखंय, आतिस ददा ह मोला लेवाय।

भादो महीना कांसी फुल गे, लाल चिरैया बड़ इतराय।

भादो महीना बड़ सुखदाई, तीजा-पोरा धर के आय।

आय कमरछठ, लइका मन बर, एहवाती मन जेला मनांय।

सब झन मिल के सगरी कोड़ंय, लाई, नरिहर जिहाँ चढ़ांय।

आठे कन्‍हइया के दिन आ गे, बर पेंड़ म झूला बनांय।

आठ पूत भइस देवकी माँ के, कोठ म जेकर छाप बनांय।

बड़ सरधा ले पूजा करिके, नरिहर, कतरा के भोग लगांय।

आइस पोरा, बरा-सोंहारी, घर-घर चूरे, घर ममहाय।

तिजहारिन मन निकल-निकल के, रद्‌दा-बाट म नजर गड़ांय।

कमा-कमा के जांगर टुट गे, मइके जातेंव लेतेंव सुसताय।

गंगाबारू अउ भोजली संग, सुख-दुख मंय लेतेंव गोठियाय।

नंदिया बइला महादेव के, खुरमी-ठेठरी जेमा चढ़ाँय।

बेटा मन के नंदिया बइला, गली-खोर म रहिद मतांय।

बेटी मन के जांता-पोरा, सगापाना के खेल रचांय।

फुगड़ी नाचंय, गोड़ा खेलंंय, खुड़ुवा खेलंय, सब सकलांय।

भूंज-भूंज के जोंधरा खावंय, अउ खीरा के रहित उ़ड़ांय।

झोरें ददरिया, खेत निंदइया, अंगरी-अंगरी ल केंदवा खाय।

आइस तीजा, बेटी मन बर, बेटी मन के मान बढ़ाय।

घर-घर चुर गे करू करेला, अधरतिया ले जेला उडा़ंय।

मुसुवा म चढ़ के गनपति आइस, मोदक के वो भोग लगाय।

भादो महिना के अइसन महिमा, मनसुख दास ह जेला सुनाय।

कुवाँर महीना पितर पधारे, पंदरा दिन ले पितर मनांय।

माड़े मुहाटी भर-भर लोटा, कुम्‍हड़ा-तरोई फूल चढ़ांय।

दतौन-मुखारी घला माड़ गे, बड़ सरधा ले पितर बलांय।

बरबट्टी अउ तोरई साग संग, बरा-सोंहारी भोग लगांय।

पितर बिदा जब होइस संगी, जोत-जंवारा लगिन सजांय।

नौ रात अउ नवेच्‌ दिन ले, दुरगा मैया के सेवा बजांय।

नम्‍मी के दिन नवा खाय बर, नवा बहुरिया लाय लेवाय।

आय दसेला रवनी मारंय, सोना पत्‍ती कान खोंचांय।

कातिक महीना आय देवारी, गाँव-गाँव म गौरा जगांय ।

बैगा जगावंय, बैगिन जगावंय, छत्तीस कोटि देवता जगांय।

राय-रतन के सुमिरन करके, राजा इसर के गीत सुनांय।

चढ़े डड़रिया बड़ बेड़जत्‍ता, कुम्‍हड़ा-तुमा के रहिद मचांय।

सुरहोती के रात म संगी, घर-घर करसा जा परघांय।

दूसर दिन हे गोरधन-पूजा, गउ लक्ष्‍मी ल खिचड़ी खवांय।

नवा हे कुरता नवा हे धोती, नवा अन्‍न के भोग लगांय।

सजे निसान अउ सजे मड़ाई, फुटे फटाका ठांय-ठांय।

दोहा पारंय बांधे सोहाई, राउत मन ह साज सजांय।

गोर्रा म रहिथे देव गोर्रइयाँ, जिहां ले कांछन निकलत आंय।

माते लुवाई अग्‍घन महीना, पूस म बेलन-दौंरी फंदाय।

किसान बन गे मालिक संगी, अन्‍न माता जब कोठी म आय।

गाँव-गाँव म मेला-मड़ाई, नाचा-गम्‍मत बड़ मन भाय।

माघ महीना गजब सुहाती, चना-लाखड़ी होरा खवाय।

छेरछेरा पुन्‍नी आइस संगी, छेरछेराय बर घर-घर जांय।

अमीर नइ हे, गरीब नइ हे, जम्‍मों झन दानी कहलांय।

फागुन महीना के कहना, कोयली खार म फाग सुनाय।

परसा रानी बड़ लजकुरहिन, लाज के मारे वो ललियाय।

राजा हे आमा अमरइया के, देख-देख के वो बउराय।

बजे नगारा, फाग गीत अउ, रंग-गुलाल म सबे बोथांय।

लुका-लुका के रांड़ी रोवय, कोन आज मोला रंग लगाय।

बिहाव-पठोनी, के दिन आ गे, मोटर भर-भर जांय बरात।

जोत-जंवारा मंदिर-मंदिर, आइस भइया जब नवरात।

बड़ा महत्‍तम अकती के भइया, खेती के होवय जब सुरुआत।

जेठ महीना घुमरत आइस, बरखा रानी ल परघात।

असाड़ महीना बइला रोवय, नांगर-बक्‍खर रहित मताय।

सावन-भादो डोकरी रोवय, एसो के दिन ल कइसे बितांव।

मारे सलप्‍फा, झोरे पानी, गोरसी धर के दिन बिताय।

कुंवार-कातिक कुकुर रोवय, गली-गली म पिला बियाय।

अग्‍धन-पूस म कोलिहा रोवय, हुँवा-हुँवा कहिके नरियाय।

माध महीना छँड़वे रोवय, आतिस सगा ते लेतेंव बनाय।

फागुन महीना रांड़ी रोवय, जोड़ी रहितिस रंग लगाय।

चैत महीना रोय कुँवारी, आतिस सगा ते होतिस बिहाव।

अकाल परगे किसान रोवय, काला खा के दिन बितांव।

बारो महीना रोय बहुरिया, मन के दुख ल काला बतांव।

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जय-जोहार

dथाकार - कुबेर

जन्‍मतिथि - 16 जून 1956

i्रकाशित कृतियाँ

1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003

2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009

3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010

4 - कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011

5 - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्तीसगढ़ी लोककथा संग्रह 2013)

प्रकाशन की प्रक्रिया में

1 - माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्‍यंग्‍य संग्रह)

2 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)

संपादित कृतियाँ

1 - साकेत साहित्‍य परिषद्‌ की स्‍मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010

2 - शासकीय उच्‍चतर माध्‍य. शाला कन्‍हारपुरी की पत्रिका 'नव-बिहान' 2010, 2011

सम्‍मान

गजानन माधव मुक्‍तिबोध साहित्‍य सम्‍मान 2012, जिला प्रशासन राजना्रदगाँव

(मुख्‍ष्‍मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा)

पता

ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441

संप्रति

व्‍याख्‍याता,

शास. उच्‍च. माध्‍य. शाला कन्‍हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.)

मो. - 9407685557

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आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कुबेर का छत्तीसगढ़ी लोक कथा संग्रह - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली
कुबेर का छत्तीसगढ़ी लोक कथा संग्रह - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली
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