नारी होने का सच जब से मुक्ता गर्भवती हुई थी, घर में जैसे रौनक सी आ गई थी। घर का हर सदस्य एक आशा संजोए बैठा था। रानो अपने भतीजे के लिये अभ...
नारी होने का सच
जब से मुक्ता गर्भवती हुई थी, घर में जैसे रौनक सी आ गई थी। घर का हर सदस्य एक आशा संजोए बैठा था। रानो अपने भतीजे के लिये अभी से स्वेटर बुनने में लग गई थी, तो नंदू अपने छोटे चचेरे भाई के लिये खिलौने इकट्ठे करने लगा था। घर की बड़ी, होने वाले बच्चे की दादी मां तो सुबह शाम ठाकुर जी को घी के दीये लगाती और कहती-” ठाकुर जी आप ही बालक बनकर मेरे आँगन में पधारना“। उसे क्या पता था कलियुग में अवतार होगा पर बहुत देरी से। होने वाले बच्चे के दादा आंगन में घुटने के बल चलते और कहते हाथी आया, हाथी आया, मेरा राजकुमार हाथी पर बैठेगा।
जन्म लेने वाले बच्चे के पिता भी उसके जन्म को लेकर उत्साहित थे रोज नये-नये नाम सोचते, उसके भविष्य के लिये अभी से संचय करने का विचार करते। पर मुक्ता के मन में एक उहापोह की स्थिति थी। वह सोचती थी कि क्या वह इस घर को कुल दीपक देगी या दो कुलों को उज्जवल करने वाला सेतु। आशंकित थी घरवालों की प्रतिक्रियाओं को लेकर, मां के घी का दिया क्या फल देगा? हर समय चिंतित रहती थी। भला हो कानून का जो उसकी सोनोग्राफी नहीं हुई , नहीं तो उसे अपना सतीत्व साबित करने इस अग्निपरीक्षा से और गुजरना पड़ता, घरवालों के सपनों का महल पल में घराशायी हो जाता और इसमें दबकर मारी जाती वह, क्योंकि जब ख़ुदा का कहर बरसता है तो कमजोर पहले मरता है।
इन्हीं चिंताओं, आशंकाओं के बीच उसको उसका समय निकालना था , वह एक ऐसे दोराहे पर खड़ी थी जहां एक ओर तो खुशियों के अंबार थे ,बधाईयों का तांता, घर का सम्मान , दूसरी ओर लानत ठोकरें, और ऐसी घृणा जिसका ना कोई कारण था ना आधार। जिनके यहां बेटी होती है वहां तो हिजड़े भी नाचने नहीं आते। रोज उसका पति उसे कुछ नया खाने लाता, उसे एहसास होता उन चीजों में छिपी उन अपेक्षाओं का , वह उन्हें निगलती तो लगता कि नमक खाकर भी गद्दारी हुई तो परिणाम क्या होगा। उसे रामायण पढ़ने को कहा जाता इससे बच्चे में अच्छे संस्कार आयेंगे, लेकिन वह मन से वैसा नहीं कर पाती थी, क्योंकि उसे इस संसार की मूर्खता पर हंसी आती कि देखो एक मांस के लोथड़े पर भी दांव लगाये जा रहे हैं कि वो भी हमारे अनुरूप आकार ले। इंसान चाहता है खुशियां ही खुशियां ऐसा शायद कोई एकाध ही हो जो गम चाहता हो। कुन्ती इस मामले में महान थी जो उन्होंने कृष्ण से विपत्ति मांगी।
उदर बढ़ने के साथ-साथ मुक्ता की चिंतायें भी बढ़ रहीं थी वह अपने नाम के अनुरूप ऐसे मामले में भी मुक्त नहीं थी जिस पर उसका कोई वश नहीं था। आठ महीने हो चुके थे अब एक महीना मात्र शेष था। ड़ाक्टर रोज चैक अप करने घर आता, मुक्ता को फल दूध आदि खाने की सलाह देता। पर मुक्ता को जिस आशंका ने घेर रखा था अभी उसके पटाक्षेप में कुछ समय था, यही वजह थी मुक्ता कमजोर होती जा रही थी। सब बस उस दिन के इंतजार में थे जब घर किलकारियों से गूँजेगा। मुक्ता की यह आशंकायें कहां से उपजीं ये तो वह भी नहीं जानती थी परन्तु समाज में रहते रहते वह भी जान चुकी थी कि बेटी अगर बेटी पैदा करे तो अपशकुन होता है। समाज में रहते रहते वह भी स्त्री बन चुकी थी ।
समाज कैसे अपने विचार किसी पर नियम कायदे कहकर लाद देता है, समाज गतिशील होने की बात करता है पर उसकी शर्त ये होती है कि दौड़ में केवल पुरूष ही शामिल हों स्त्रियों को इसमें भाग लेने का अधिकार नहीं है भ्रूणहत्या समाज की कृत्रिम गतिशीलता का ही परिणाम है प्राचीन समाज स्त्रियों का शोषक कहा जायेगा तो आधुनिकता का ढ़ोंग करता यह समाज स्त्री का हत्यारा कहा जायेगा। नवां महीना लग चुका है मुक्ता किसी भी पल इस संसार में अपना प्रतिबिंब जोड़ सकती हैं। वह भी ईश्वर के समान रचना करने की शक्ति पाने वाली है घर किलकारियां भरने को तैयार हो रहा है, रानो का स्वेटर भी तैयार है और नंदू के खिलौने भी, दादी भी नन्हे मेहमान के लिये बांहे फैलाये बैंठी हैं प्रकृति भी अपने तरह से उसका स्वागत करने को बेताब है आखिर वही तो उसे यहां रहना सिखायेगी। प्रसव पीड़ा तीव्र होते ही सब मुक्ता को लेकर अस्पताल दौड़ते हैं। मुक्ता कराह रही है सब खुश हैं यही है नारी जो अपनों की खुशियों के लिये क्या-क्या पीड़ा नहीं सहती।
मुक्ता बैड़ पर है अचानक उसकी वेदना तीव्र होती है और आगमन होता है इस संसार में एक प्यारी सी बेटी का। मुक्ता उसे देख मुस्कुराती है अचानक रो पड़ती है सोचती है क्यों नारी भी नारी की शत्रु बन जाती है एक बाहर दूसरी कोख में ही मारी जाती है। क्या इसलिये कि वह नहीं चाहती कि ये भी सहे इस समाज के सितम या यह ईर्ष्या चिरकाल से चली आ रही है दरवाजे पर अपेक्षाओं की दस्तख़ सुन वह धबरा जाती है कहती है-” बेटी भले ही समाज कितने ढकोसले भरता रहे भले ही कितने कार्यक्रम कागज पर चलते रहे तुझे हमेशा से अभिशाप माना जाता है और आगे भी माना जाता रहेगा शोषण के रूप बदल जायेगें तरीके और हथियार बदल जायेगें। परन्तु तू पिसती रहेगी ये संसार तुझे प्यार से कभी नहीं अपनायेगा, आज मुझ पर ताने मारेंगे कल तुझ पर , मैनें एक युक्ति सोची है तू मुझ में वापस समा जा मुझ में ही पल बढ़। जब ज्यादा परेशान होकर मुझे तुझ से पीछा छुड़ाना होगा तो मैं अपना ही गला दबा लूंगी“। इतना सुनते ही बच्ची अपनी मां में समा जाती है दरवाजे के पीछे से आवाज आती है मुक्ता क्या हुआ। मुक्ता कहती है- ”मांजी आज तो मेरा ही नया जन्म हुआ है“।
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प्रस्तुति- नवीन पटवा
सहायक प्राध्यापक अंग्रेजी
शासकीय नेहरू महाविद्यालय अशोकनगर (म.प्र)
चंजूंदंअपद/लींववण्बवउ
अच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी
जवाब देंहटाएंअति -उत्तम एवम समय सापेक्ष कहानी !
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !!
अति -उत्तम एवम समय सापेक्ष कहानी !
जवाब देंहटाएंसाधुवाद !!