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ग़ज़ल, मुक्तक की अनूठी एवं अद्भुत कृति
काव्य संग्रह धरोहर बनेगी ः रफत आलम
संवाददाता ‘चुभते फूल महकते कांटे' का विमोचन
मऊ, 17 जून। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रफत आलम नें कवि राम अधार ‘‘व्याकुल'' की पुस्तक ‘चुभते फूल महकते कांटे'काव्य संग्रह का लोकार्पण किया। न्यायमूर्ति ने इस संग्रह को लाकोपयोगी तथा काव्य जगत की धरोहर सिद्ध होने की कामना की। वलीदपुर भीरा गाँव में कल आयोजित विधिक शिविर के दौरान इस काव्य संग्रह का लोकार्पण हुआ। इस अवसर पर न्यायमूर्ति रफत आलम ने कहा कि आज इस तरह की काव्य संग्रह की जरुरत है। इसके माध्यम से लोगों की दुश्वारियाँ, गरीबों के हालात और देश की स्थिति का पता चलता है। लोगों में जागरुकता आती है, वे अपने अधिकारों के प्रति सजग होते है। श्री आलम ने कहा कि इसके माध्यम से इंसान को इंसान बनने की प्रेरणा मिलती है। उन्होने कामना की कि यह लोकोपयोगी बने और काव्य जगत की धरोहर सिद्ध हो। काव्य संग्रह के रचयिता राम अधार ‘‘व्याकुल'' ने कहा कि सामाजिक कुरीतियों आदि को कविता के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है। इसमें साहित्यिक-सांस्कृतिक मूल्यों को महिमामंडित करके लोगों में जागरुकता का आह्वाहन किया गया है। उन्होंने अतिथियों का आभार प्रगट किया इस अवसर पर एस0डी0एम0 मुरली मनोहर लाल, सीएमओ पी0एन0 सिंह, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रीतम सिंह, विधिक सेवा प्राधिकरण के प्रांत सचिव वी0के0 दीक्षित सहित तमाम लोग उपस्थित रहे।
पानी में आग
बचे हुए हो जि़न्दा अभी गनीमत है,
दस रुपये लीटर पानी की कीमत है।
छद्म रहनुमाओं की लिप्सा के चलते,
हर प्राणी के आगे खड़ी मुसीबत है॥
प्रणेता-
आचार्य राम आधार‘‘व्याकुल''
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पानी में आग
पानी में आग
प्रकाशक-
राष्ट्रीय काव्य सृजन परिषद्
पानी में आग
(ग़ज़ल व मुक्तक कृति)
प्रणेता
आचार्य राम अधार ष्व्याकुलष्
एम․ए․
प्रथम संस्करण 2004 ई․
ह्मप्रणेताधीन
मुख्य पृष्ठ सज्जा
अर्चना यादव
प्रकाशक-
राष्ट्रीय काव्य सृजन परिषद्
कसारा, मऊनाथ भंजन, मऊ (उ․प्र․)
पिन कोड-275102
पुस्तकालय मूल्य रू0 400ध्․ मात्र
पुस्तक प्राप्ति हेतु सम्पर्क सूत्र-
चन्दन ''ब्रह्मयोगी''
ग्राम व पत्रालय-कसारा, जि़ला-मऊ (उ0 प्र0) भारत ।
फोन नं0- 05474 ․ 266766
अक्षर संयोजन-
विश्वकर्मा डिजिटल वर्ल्ड़
कोपागंज, मऊ।
ष्च्।छप् डम्प्छ ॥ळष् ;ळं्रंसे - डनाजां ज्ञतपजपद्ध
ठल् ॥ब्भ्।त्ल्। त्।ड ।क्भ्।त् ष्टल्॥ज्ञन्स्ष्
ग़ज़ल एवं मुक्तक-कृति
3 4․
पानी में आग
रचनाकार-
आचार्य राम अधार ''व्याकुल''
प्रकाशक-
राष्ट्रीय काव्य सृजन परिषद्
पानी में आग
ण्
‘‘दुष्ट काँटों के बीच सौम्य, सुकोमल गुलाब के खिले
होने से साफ़ ज़ाहिर है कि कोमलता उसकी कमज़ोरी
नहीं ,शौर्य का प्रतीक है ।
आचार्य‘‘व्याकुल''
जन सेवा ही जिनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य है, ऐसे महान् मानवतावादी यशस्वी शल्यक
को सादर समर्पित
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पानी में आग
पानी में आग
अनुक्रमणिका
विषय पृष्ठ सं0
ढाई आखर․․․․․․․․․श्री आर․के․पाण्डेय,आई․ए․एस․ 16-17
दो शब्द․․․․․․․․․․․․․श्री शम्भूनाथ, पी․सी․एस․ 18
मेरा मानना है कि․․․डा0 पी․एल․ गुप्ता 19-20 ग़ौर करें तो․․․․․․․․․आचार्य राम अधार ''व्याकुल'' 21-29
वंदना․․․․․․․․․․․․․․․․तदैव․․․․․․ 30
देशगीत․․․․․․․․․․․․․․तदैव․․․․․․․ 31 ग़ज़ल-एक सौ इकतीस
1․ कोई भी शै इस दुनियाँ की, इंन्साँ से नायाब नहीं। 32
2․ पूछिये मत आजकल कितनी परेशानी में हैं। 33 3․ बिछुवा डंक जिसे मारे हो, रस्सी को भी नाग कहे। 34 4․ नाख़ुदा सहमे हैं सरिता की रवानी देखकर। 35
5․ फूल खिलते हैं तो हम हार बना लेते हैं। 36
6․ आँगन में झील गाँव समन्दर से कम नहीं। 37
7․ माना कि उन्हें याद हमारा शहर न हो। 38
8․ क़ब्रों से भी अधिक भयानक बस्ती में कुछ घर दीखे। 39
9․ तस्वीर रंग के बिना बेजान अधूरी। 40
10․ दम्भ खरेपन का अक्सर ही, भरते रहते खोटे लोग। 41
11․ हर ओर से उठती हुई नज़रों को भाँप कर। 42
12․ याद की धुंध है फैली हुई तनहाई है। 43
13․ मुफ़लिस को जो मुफ़लिस कहे वो तरफ़दार है। 44
14․ डोली के लूटने में कहारों का हाथ है। 45
15․ पाते ही ख़बर मीत मुलाक़ात करोगे। 46
16․ हम आज रात भर तेरे चमन में रहेेंगे। 47
17․ कुछ चिडि़यों के पर ख़तरे में। 48
18․ लगने लगे हर चीज़ सुहानी बसन्त में। 49
19․ रंग-रूप तो पुरूष सरीखे किन्तु नपुंसक हैं। 50
20․ कुछ ताल-मेल का महज़ अभ्यास कीजिए। 51
21․ सिन्धु की गहराइयाँ बन जाइये। 52
22․ साक़ी कहे शराबी चेहरा। 53
23․ तंगी में हँसकर जीने की आदत जब हमने डाली। 54
24․ बोझ धरती के न सीने पे बढ़ाना यारो। 55
25․ जान से बढ़कर हमें अपना वतन प्यारा लगे। 56
26․ लगता है ये एहसान जताते ही रहेंगे। 57
27․ जो अपनी सरज़मीं का एहतराम करेगा। 58
28․ यदा-कदा सूरज-चन्दा को राहु-केतु ग्रस लेते हैं। 59
29․ इस क़दर भी क्या कोई मजबूर है। 60
30․ कुछ काँटों की भी िख़दमत की, फूलों की अभिलाषा में। 61
31․ क्या मज़ाल कि सरहद पर मनमानी हो। 62
32․ दुनियाँ भले कहती है मुझे यार आपका। 63
33․ तितली गुलों को नोच रही चील की तरह। 64
34․ बरवक़्त अब शिकवा-गिला करना फ़जूल है। 65
35․ आइये आज ही ऐसी, क़सम लिया जाये। 66
36․ चना-चबेना खाकर ख़ुद को पाल रहे। 67
37․ हर आशिक़ की ही कुछ ऐसी राम कहानी है। 68
38․ पर्वत से गिरकर उठना तो है मुमकिन। 69
39․ तिमिर घना है, हमे दीप जलाना होगा। 70
40․ सागर से जब बूँद बग़ावत करके विगुल बजा देगी। 71
41․ बरवक़्त मेरे मुफ़लिसी के दिन हैं ताड़कर। 72
42․ पेड़ों से शाखों का लड़ना। 73
पानी में आग
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पानी में आग
43․ ये हस्र है मेरा, किसी के इन्तज़ार में। 74
44․ पाँव सुर्ख़ अंगारों पर, हाथों में कुछ गुलदस्ते हैं। 75
45․ जि़न्दगी का लुत्फ़, यूँ घुट-घुट के जीने में नहीं। 76
46․ तेरी नज़र से, नज़र मिले। 77
47․ तेज़ है शम्मा की लौ ज़ाहिर है अंतिम दौर है। 78
48․ सवालों की बस्ती में ठहरा हुआ हूँ। 79
49․ नेक इन्सान जो कुछ काम ग़ैर के आये। 80
50․ लाज मेरी लंगोटी तेरी। 81
51․ तिमिर में चाँद-तारे आ गये हैं। 82
52․ सोचकर सीने लगाओ, जिसके अन्दर दिल न हो। 83
53․ हिंसा में, बच्चा भी कहे महारत है। 84
54․ साँपों के दरमियान भी चन्दन बने रहो। 85
55․ हमें देखकर मुस्कुराये न होते। 86
56․ पीछे-पीछे चलने वाले, चढ़ बैठे हैं छाती पर। 87
57․ नदी तक में पानी के लाले पड़े हैं। 88
58․ मानता हूँ कि कुछ ख़्वाब झूठे रहे। 89
59․ ये मत देखो, बीच हमारे दूरी कितनी है। 90
60․ ख़ुशियों का अम्बार जगत में, मेरे हिस्से ग़म क्यूँ है। 91
61․ काँटों पे बहरहाल अब चलना ही पड़ेगा। 92
62․ जबसे तुमसे प्यार हुआ सरकार मेरे। 93
63․ हो गयी जाने कहाँ पर गुम अकल हम क्या करें। 94
64․ कामना दिल में सरफ़रोशी की। 95
65․ कब तक यूँ ही रहना होगा। 96
66․ वक़्त का तेवर बदलना सीखिए। 97
67․ क्या बतलायें, कुछ मत पूछो, हाल आजकल गाँव का। 98
68․ बात ये जो लोग कहते, भाग्य पर कुछ वश नहीं। 99
69․ जिस जगह देखो, मचा कोहराम है चारो तरफ़। 100
70․ क्या घबराना जीवन पथ में कुछ अँधियारा छाने से। 101
71․ रेत के नीचे बहती धारा। 102
72․ हम सब जिसकी शाखायें हैं, उस तरू को ही भूल गये। 103
73․ प्यार में ठोकर खाकर दिल क,े अरमाँ चकनाचूर हुए। 104
74․ कब तलक इस असह्य बोझ को ढ़ोना होगा। 105
75․ आज जब मेरी नज़र के सामने दर्पन हुआ। 106
76․ वक़्त माकूल है, अब सफ़र का आग़ाज करो। 107
77․ जब तक ऊँट न पर्वत देखा, तब तक बल-बल करता है। 108
78․ हुस्न वालों के बदन तो चाँदनी में जल रहे। 109
79․ चल के तो देखो ज़रा मंजि़ल तेरे पाँवों में है। 110
80․ हमारा जि़क्र भी करने से वे गुरेज़ किये। 111
81․ जब सोलवाँ बसन्त मेरे क़द में आ गया। 112
82․ हर तरफ़ गहरा अंधेरा, चीख है, कोहराम है। 113
83․ परमेश्वर से ज़्यादा ख़ुद का मान समझते हैं। 114
84․ लकीरें सिर्फ़ हाथों की उसे दिखला रहा था मैं। 115
85․ सनम आँख में काजल हो जाये। 116
86․ कहीं काई, कहीं दलदल, कहीं काँटें डगर में हैं। 117
87․ रेत के सब महल ढ़ह गये। 118
88․ जितने फूल सजे हैं तेरी, गेसू के इन गजरों में। 119
89․ सितम आशिक़ों पर किया जा रहा है। 120
90․ संगीनो से होट सिल रहे, ज़बाँ किसी ने गर खोली। 121
91․ चुम्बनों, आलिंगनों के जि़क्र से परहेज़ है। 122
92․ सोये हैं, टहलने गये, स्नानघर में हैं। 123
पानी में आग
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पानी में आग
93․ रात-रातभर ख़्वाब में जिसकी बाँहों में मैं होती हूँ। 124
94․ गुलशन में आने वाले ख़तरों से जो आगाह नहीं। 125
95․ मज़हबों की भीड़ में इन्सान अब खोने लगा है। 126
96․ चतुर नाख़ुदा वह, लहर से जो खेले। 127
97․ चौपट राजा, मंत्री पाजी, टके सेर सब मिसरी-भाजी। 128
98․ कितनी है दरमियान मुहब्बत न पूछिये। 129
99․ टूटे शीशे की तरह चाहे बिखर जाऊँगा। 130
100․ साफ़ ज़ाहिर है इतराने लगे हैं। 131
101․ मुहब्बत की शम्मा जलाकर तो देखो। 132
102․ यार! जितनी ग़ज़ल, मस्त-प्यारी लगे। 133
103․ काली रात अंधेरी, पथ अन्जाना है। 134
104․ कैसे थे शराबी हैं जो जाम से डरते हैं। 135
105․ चिल्लाना तो बड़ा सरल है चुप रहना आसान नहीं। 136
106․ नित्य यादों के नये कुछ तीर दिल में लग रहे हैं। 137
107․ ज़हर भी जो ढूँढ़ोगे खाँटी न पइहो। 138
108․ श्वानो की हिफ़ाज़त में है गोदाम चर्म का। 139
109․ अब तो फूलों में न कलियों में नज़र आती हो। 140
110․ जीतिए दिल हर किसी का प्यार, श्रद्धा भक्ति से। 141
111․ ऐसा वातावरण बनाओ सच कहना लाचारी हो। 142
112․ दोस्तों सुनिए ख़बर, बिल्कुल है, ताज़ा आज की। 143
113․ किसी शख़्स के साथ कभी मनमानी मत करना। 144
114․ ईश्वर कितना अद्भुत है संसार तेरा। 145
115․ ख़ूब चला जब राह नहीं थी। 146
116․ भाई की शह दुश्मन पाये। 147
117․ बेहद नाज़ुक स्थिति में हैं। 148
पानी में आग
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मुक्तक-दो सौ पच्चीस
1․ (क) रात का चाँद․․ (ख) सारी दुनियाँ․․․ (ग) जहाँ रौशनी, वहीं․․․
(घ) कुछ स्वर ऐसे․․․ (ड․) यार पर भी भरोसा․․ 163
2․ (क) पाँव भी नंगे․․․ (ख) क्या पता था․․․ (ग) भौंहे कमान, पैनी․․․
(घ) क्या कहें हम․․․ (ड․) दुधमुँहें नौजवाँ․․․ 164
3․ (क) पत्थर को․․․(ख) जीवन के संकट․․(ग) एक बेहद हसीन,․․․
(घ) पंछियों सा․․․(ड․) चितवन से कुछ ऐसे․․․ 165
4․ (क) दीप की इच्छा․․․(ख) टूटा जब प्राकृतिक․․․(ग) जि़न्दगी का,लुत्फ
(घ) पहले छुपकर,․․․ (ड․) माया के चक्कर में․․․ 166
5 (क) कुछ लोग․․․․․․․․․(ख) अद्भुत ग़ज़ब․․․(ग) वायु की भाँति․․․
(घ) विद्यार्थी के गुण․․(ड․) कैसे होगा भला․․․ 167
पानी में आग
6․ (क) आँखों से․․․ (ख) कीजिए ग़ौर․․․ (ग) जि़न्दगी, पल-पल․․․
(घ) एक चेहरा कई․․․(ड․) लक्ष्य भेदन करो․․․ 168
7․ (क) अब तलक․․․ (ख) डगमगाती,डूबती․․․(ग) पथ में ठोकर․․․
(घ) चर्चा में जो․․․ (ड․) बिगड़े हुए माहौल․․․ 169
8․ (क) जाति, धर्म व․․․ (ख) आप थोड़ी․․․ (ग) पत्थर के कुछ․․․
(घ) ना ये सिर․․․ (ड․) कुछ ताजे़ कुछ․․․ 170
9․ (क) जिसके लिए․․․ (ख) दिलों की․․․ (ग) पता नहीं था․․․
(घ) बिगड़ा हुआ․․․ (ड․) हम समन्दर उलीच․․․ 171
10․ (क) कूड़ा-कचरा मुफ़्त․․․(ख) किस पर․․․ (ग) बुज़दिलों की․․․
(घ) आदमी क्रूर․․․ (ड․) पाषाण का हृदय․․․ 172
11․ (क) कल का नकारा․․․ (ख) शुद्ध मस्तिष्क․․․ (ग) झूठ-मूठ में․․․
(घ) मुफ़लिसी हौसले․․․(ड․) रिश्वतें क्या?․․․ 173
12․ (क) मुख़ यूँ ही नहीं․․․(ख) चाटुकारों की․․․(ग) हुज़्ाूर ग़ौर․․․
(घ) बाहुबली, कद्दावर․․․(ड․) वाकि़या सहनीय․ 174
13․ (क) यह स्थिति․․․ (ख) जि़न्दगी में․․․ (ग) काँटे अगर न․․․
(घ) पल में महि, कुछ․․․(ड․) अपनी करेनी पर․․ 175
14․ (क) बिच्छू का मंतर․․․ (ख) हमारी तबाही․․․ (ग) चोट तो कर ही․․․
(घ) घर के अन्दर जाम․․․ (ड․) कुछ इस क़दर फँसे․․․ 176
15․ (क) कुछ लेटेरों, को․․․ (ख) जहाँ दौड़․․․ (ग) दिल में अब․․․
(घ) जिधर-जिधर भी․․․ (ड․) सफ़र लम्बा है अभी․․․ 177
16․ (क) फूलों व काँटों․․․ (ख) जल रहा तन․․․ (ग) काश! कि मैं․․․
(घ) रहबरी के लिए․․․ (ड․) कुछ तो करिये आज․․․ 178
17․ (क) भरी दरिया, में․․․ (ख) दिन बुरे हैं लाख़․․․(ग) सिलसिला नित․․․
(घ) मक्खी थी सिरफिरी (ड․) देखा नहीं नज़ारा․․․ 179
18․ (क) बौनों में भी क़द․․․ (ख) अच्छा है माहौल․․․ (ग) फूल ख़ुशबू चाँदनी․
(घ) हमारी जि़न्दगी․․․ (ड․) जड़वत दिमाग़ जिगर․․․ 180
19․ (क) कैसे किसी पे․․․ (ख) तंगी के दौर․․․ (ग) आइने से भागता․․․
(घ) तरू, पत्त्ाी-डाली․․․ (ड․) माना कि साठ-गाँठ․․․ 181
पानी में आग
पानी में आग
34․ (क) लेखनी नित्य․․․ (ख) परदे में ये․․․ (ग) भले किसी पे नहीं․․․
(घ) नज़र को चैन․․․ (ड․) कभी डबडबाई नज़र․․․ 196
35․ (क) यह बला का नूर․․․(ख) लोग कुछ इस․․․(ग) उड़ते पत्थर, पंगू․
(घ) लघु जीवन․․․ (ड․) यह रात समर्पित हैं․․․ 197
36․ (क) आइये कुछ दूर․․․ (ख) दुवा दे रहे हैं․․․ (ग) अब तो चाँदी है․․․
(घ) माना कि सच․․․ (ड․) माँ बदौलत हाथ में․․․ 198
37․ (क) मन्दिर-मस्जिद․․․ (ख) फूल चमन में․․ (ग) घटा जब घिरेगी․․․
(घ) आग कुछ चकवे․․․ (ड․) अश्क बनकर कुछ दिल के․․․ 199
38․ (क) गति समय की․․․ (ख) एक वर्ष का․․․ (ग) रूत की मुस्कान․․․
(घ) हर टहनी फल․․․ (ड․) ज़ख़्म ख़ुद्दार बन गये․․ 200
39․ (क) हंस हिंसक हो․․․ (ख) आग-पानी के․․․ (ग) धनुष पे रण में․․․
(घ) बात ख़ालिस लब․․․ (ड․)फिर भी अलख जगाना․․․ 201
40․ (क) जग-ज़ाहिर है․․․ (ख) धर्मान्धों से धर्म․․․(ग) शेख-पण्डित जब․․․
(घ) आँखों से आँसुओं․․․(ड․)एक साथ मिल पाँच तत्व․․․ 202
41․ (क) चाहता तो था․․․ (ख)आग-पानी में ठनी․․(ग)साज़ छेड़े निशा․․․
(घ) फूल मानिन्द․․․ (ड․) भवसागर पार उतार․․․ 203
42․ (क) गुमसुम बैठे हैं․․․ (ख) फूल देखने में․․ (ग)जि़न्दगी एक इसका․․․
(घ) रोता है ना मुस्काता․ (ड․) नीचे चावल ऊपर भूसी․․․ 204
43․ (क) रात से ज़्यादा․․․ (ख) कुल्हाणी के घाव․․․ (ग)कब तलक दीवार․․․
(घ) रंग गेरू में वेश․․․ (ड․) जुर्म अति संगिन है․․․ 205
44․ (क) जो दिल कह रहा․․․(ख)फूल को बस․․․․․(ग) वक़्त ने खिलवाड़․․․
(घ) घोर तिमिर के․․․ (ड․) हर कोई जो फ़र्ज․․․ 206
45․ (क) काव्य गंगायें लिए․․․(ख) आँखें तर्कश․․․ (ग) भले जि़न्दगी भर․․․
(घ) क्या कमी गर․․․ (ड․) बोल कड़वे न बोलो․․․ 207
मत-अभिमत․․․․․․ 208 से 220 तक
ढ़ाई आखर
सामाजिक कदाचार, विसंगतियों, कुरीतियों पर करारा प्रहार तथा मानवीय मूल्य, प्रेम, एकता, भाईचारगी एवं देश-प्रेम हेतु उत्प्रेरणात्मक भावों का जो मार्मिक चित्रण,ग़ज़ल-काव्य में जन शैली को माध्यम बनाकर श्री‘‘व्याकुल‘‘जी ने किया है, उससे हिन्दी साहित्य में एक अनूठी गंगा-यमुनी छवि दृष्टिगोचर हो रही है। किसी न किसी रुप में जन-सामान्य के निकट होने के कारण, जन-मानस पर यह कृति अमिट छाप छोड़ने के साथ ही आने वाले समय में और अधिक प्रासंगिक होगी।
‘‘पानी में आग‘‘ काव्य-कृति में लगभग सारी साहित्यिक मर्यादाओं का पालन तथा लोकप्रिय सम्मानित हिन्दी काव्यानुशासन, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्,‘ ‘सर्वे भवन्तिु सुखिनः,‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते,‘ ‘सत्यं वद्, धर्मं चर‘ एवं ‘तमसो मा, ज्योतिर्गमय‘ इत्यादि, जैसी भावनाओं का चित्रण दृष्टव्य है। मूलतः यही इस काव्य-कृति की भावभूमि है। कवि का अन्तर्मन संवेदनशील और व्यथित तो है, किन्तु दिग्भ्रमित,हतोत्साहित या निराश कदापि नहीं। कर्म,संघर्ष और धैर्य का दामन कितनी मज़बूती से कवि ने पकड़ रखा है,इन पंक्तियों में देखा जा सकता है -
पूछिये मत आजकल कितनी परेशानी में हैं।
एक जर्जर नाव लेकर सिन्धु के पानी में हैं॥
ज्वार-भाटा और तूफ़ानी थपेड़ों में फँसा।
धैर्य मेरा देखने वाले भी हैरानी में हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
दो शब्द
अमीर खुसरो की क़लम से जो ग़ज़ल तन्हाँ चली थी, आचार्य राम अधार ''व्याकुल'' की लेखनी तक आते-आते एक विशालकारवाँ का रुप अख्तियार कर चुकी है। आचार्य श्री ‘‘व्याकुल''जी ने ग़ज़ल को उस जन समुदाय से जोड़ने का कार्य
मेरे विचार से इस संग्रह का प्रादुर्भाव एक ऐसी निर्झरिणी के रुप में हुआ है, जिससे हिन्दी साहित्य प्रेमी को तृप्ति मिलने के
साथ हिन्दी साहित्य का सागर भी समृद्ध एवं संतृप्त होगा।
काव्य का वह तत्व जो मात्र पढ़ने या श्रवण करने से आश्चर्यजनक उत्प्रेरक का कार्य करता है, आज भी विज्ञान के लिए एक चुनौती बना हुआ है। विज्ञान किसी वस्तु में किसी वस्तु को प्रविष्ट या मिलाकर ही उत्प्रेरित करने में अभी तक सक्षम है, जबकि काव्य की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। कहने का तात्पर्य यह है कि आचार्य राम अधार ‘‘व्याकुल'' के काव्य में उक्त उत्प्रेरक तत्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं, काव्यकृति का प्रत्येक श़े'र अनूठा एवं बेजोड़ है । अतः ‘‘पानी में आग'' काव्य-कृति के विषय में कम से कम लिखकर ज़्यादा से ज़्यादा सुधी पाठकों के पढ़ने तथा मनन-मंथन के लिए छोड़ना ही श्रेयस्कर होगा। आचार्य श्री ‘‘व्याकुल''जी की इन पंक्तियों के साथ-
धैर्य का दामन न छूटे, कोटि ग़म-उल्लास में।
चंद्रमा किंचित न विचलित,तीस गति,प्रतिमास में॥
वक़्त हर्गि़ज एक सा रहता किसी का भी नहीं।
सूर्य की भी तीन गति होती है नित आकाश में॥
आपका-
धन्यवाद सहित-
(ऋषि केशव पाण्ड़ेय)
जिलाधिकारी, मऊ।
सेवा में -
आचार्य राम अधार ‘‘व्याकुल''
ग्राम व पत्रालय- कसारा
जनपद- मऊ (उ0 प्र0)
किया है, जो कभी ग़ज़ल को अपनी पहुँच से काफ़ी दूर राज दरबार, शहंशाहों की शानों-शौकत, दीवानों की प्यार-मुहब्बत, कवियों-शायरों की कल्पित अभिव्यक्ति के रुप ही मानते रहे हैं। किन्तु आज देश की बहुसंख्य जनता की व्यथाभिव्यक्ति के प्रतीक स्वरुप निम्न शेर कितना स्वाभाविक बन पड़ा है।यथा-
ग़ज़ल का यह शेर हिन्दुस्तान के नब्बे प्रतिशत लोगों की तर्जुमानी करता है, इसमें ज़रा सा भी शक की गुंजाइस नहीं हो सकती। आज मानवता से भटके कुछ मानव भले ही अपवाद लगें, अन्यथा कवि की दृष्टि में तो -
अन्त में यह कहना समीचीन होगा कि ग़ज़ल रुपी गंगा को भगीरथ प्रयास से जन सामान्य के दिल रुपी ज़मीन पर प्रवाहित करने का जो विलक्षण कार्य आचार्य ‘‘व्याकुल'' जी द्वारा हुआ है,वह साहित्य जगत में राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नयन के पथ पर मील का पत्थर सिद्ध होगा। उक्त के निमित्त कवि प्रवर को कोटिशः धन्यवाद । ह0-
- शम्भूनाथ,(पी․सी․एस․)
मुख्य विकास अधिकारी, मऊ
तंगी में हँसकर जीने की आदत जब हमने डाली ।
समाधान बन गयी समस्याओं की मेरी कंगाली॥
धूल-धूसरित बाहर से हम,अन्दर से नितान्त धवल।
साफ़-सफ़ेद दिखें वो हरदम, जिनकी करतूतें काली॥
कोई भी शै इस दुनियाँ की, इन्साँ से नायाब नहीं।
गुल अनेक गुलशन में लेकिन, दूजा होय गुलाब नहीं॥
जाने कितने प्रश्नचिन्ह, लग जायेंगे सार्थकता पर ।
सदा जोड़ना और घटाना, जीवन महज़ हिसाब नहीं॥
पानी में आग
पानी में आग
․ ․
मेरा मानना है कि ․․․․․․
जनहित के कार्यो का निष्पादन करने की वृत्त्ाि से जुड़ा होने के बावज़्ाूद आज ‘‘पानी में आग'' ग़ज़ल संग्रह की व्याख्या हेतु उपयुक्त शब्द-शैली तथा अभियव्यक्ति-बोध के अभाव में मेरी लेखनी समुचित न्याय नहीं कर पा रही है। क्योंकि इस अनन्त आकाश की भाँति ही उक्त ग़ज़ल संग्रह के विषय में ‘‘व्याकुल'' जी की ही उक्ति ‘‘जहाँ तक जो उड़ ले, वहीं तक गगन है'' कहकर ही संतोष कर लेने की विवशता है। मैं तो क्या कोई भी व्यक्ति अपनी ज्ञान-परिधि से बाहर तो अज्ञानी ही होता है न? तभी तो रामायण में कहा गया है कि ‘‘जाकी रही भावना जैसी। हरिमूरत देखहिं तिन तैसी॥'' इस आधार पर ही मुझे पूरा विश्वास है कि ‘‘पानी में आग'' ग़ज़ल संग्रह में आप हमसे ज़्यादा ही कुछ ग्रहण करने में सक्षम होंगे। जैसे एक लोहा दज़ीर् के लिए सुई, कसाई के लिए छुरी, किसान के लिए कुदाल, राजा के लिए तलवार, शिकारी के लिए तीर, वैज्ञानिक के लिए आविष्कार का साधन बनता है वैसे ही उक्त ग़ज़ल संग्रह जन-जन के लिए नितान्त उपयोगी सिद्ध होगा। कुछ ऐसा मेरा अपना मानना है।
श्री ‘‘व्याकुल'' जी को पढ़ने के बाद लगता है कि ये ज़रा सा भी किसी जाति-धर्म, सम्प्रदाय या राजनीति इत्यादि के पक्षधर नहीं हुए हैं। मानव-सभ्यता, जीव-जीवन, भाव-भावना, दृष्य-दर्शन, कर्म-कर्मयोग, सत्य-सत्यनिष्ठा इत्यादि पर लेखनी चलाकर जन-जन हिताय की मंगल कामना करते हैं तथा मानवीय मूल्य की मशाल थामे लगातार समाज में गहराते अन्धकार से जूझते हुए सृजन पथ पर अग्रसर हैं। इस भौतिकता के दौर में भी जीवन पर्यन्त फ़क़ीरी को सहर्ष स्वीकार कर अपनी शायरी के माध्यम से उच्चकोटि के विचारों को ही स्थापित करने का जो संकल्प कवि द्वारा लिया गया है वह काव्य की मान-मर्यादा की रक्षा करने वालों की पंक्ति में श्री ‘‘व्याकुल'' जी को प्रतिष्ठित करने के लिए काफ़ी है।शेर कुछ यूँ है-
जो कविता पिंजरे के पक्षी के आस-पास घूमती रही है उसे कविवर ‘‘व्याकुल'' जी ने चमन की बहार तथा गगन के विस्तृत आकार तक लाने का भगीरथ प्रयास किया है, उनका कहना है कि-
साथ ही उनका यह कथन जागृत प्रगतिशील चेतना के उद्घोष से रत्त्ाी भर कम नहीं, कि-
ऐसे उत्कृष्ट मानसिकता के धनी, शब्दों के कुशल शिल्पी, कालजयी रचनाकार श्री ‘‘व्याकुल'' जी कोटिशः साधुवाद के पात्र हैं। इनकी प्रखर लेखनी काव्य-जगत की समृद्धि का साधन बने।
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ-
‘‘सन्त कबीर जयन्ती''
14 जून, शनिवार 2003 ई0
‘पानी में आग' की अनुभूति के लिए जिस गहरी समवेदना की आवश्यकता होती है वह लाख़ों-करोड़ों में शायद इक्के-दुक्के महापुरूषों में ही पायी जाती है। ये महापुरूष रूहानी तौर पर संसार के किसी कोने में होते हुए भी दिव्य अन्तर्चक्षुओं के माध्यम से अखिल विश्व की सूक्ष्मतम् क्रियाओं से अवगत होते रहते हैं तथा उसको समाज के समक्ष प्रतीकों-बिम्बों के माध्यम से प्रस्तुत कर मानव कल्याण की पृष्ठभूमि तैयार करते रहते हैं। शायद इसी के चलते कवि को ब्रह्म स्वरूप माना गया है। ब्रह्मा की रचना में जिस तरह स्थान, काल, वातावरण आदि के कारण विविधता पूर्ण समानता झलकती है ठीक वैसे ही कवि की रचना में भी कटु-मृदु, घृणा-प्रेम, सुख-दुःख, निन्दा-स्तुति का संयोग स्वाभाविक है। कुछ ऐसी ही अनूठी रचनाओं का अद्भुत बृहद संग्रह है सुकवि श्री ‘‘व्याकुल'' जी का ग़ज़ल-काव्य संग्रह ‘‘पानी में आग''।
आज भले ही कुछ इन्सान इन्सानियत की राह से भटक गये हों किन्तु कवि की दृष्टि में तो-
यही नहीं जीवन की सार्थकता की ओर संकेत करते हुए कवि मानव समाज को सचेत करते हुए कहता है कि-
आज समाज तथा परिवार के बदले हुए परिवेश से प्रभावित होकर कवि ने विनम्रता पूर्वक आग्रह करते हुए लिखा है कि-
समाज में एक-दूसरे के प्रति तो अलग, ख़ुद अपने ही इर्द-गिर्द विश्वास का जो एक संकट पैदा हो चला है, चिराग़ तले अन्धेरा नहीं बल्कि अंधेरा तले चिराग़ की सी स्थिति में यह शेर कितना सार्थक बन पड़ा है-
जहाँ तक कविवर ‘‘व्याकुल'' जी के बारे में कहना पड़े तो शायद इससे कठिन काम कुछ भी नहीं, क्योंकि जिसके पास इन्सानियत है, एक प्यार भरे दिल के साथ अशआर के ख़जाने हैं उसका वर्णन कर पाने में भला मैं कहा सक्षम। क्योंकि कवि प्रवर ने लिखा है कि-
काश! हर भारतवासी अपने देश की मिट्टी को उसी दृष्टि से देखता जिस दृष्टि से निम्न पंक्तियों में श्री ‘‘व्याकुल'' जी ने देखा है-
यह मेरा परम् सौभाग्य ही है कि श्री ‘‘व्याकुल'' जी के हज़ारों अशआर मैंने पूरे मनोयोग से पढ़ा है, कुछ उनके श्री मुख़ से सस्वर सुनने का सौभाग्य भी प्राप्त किया है, किन्तु उनके बारे में कुछ लिखते वक़्त महाकवि तुलसीदास की ‘‘गिरा अनयन, नयन बिनु बानी'' की सी स्थिति उत्पन्न हो गयी है। वषोंर् से चिकित्सकीय एव
कोई भी शै इस दुनियाँ में इन्साँ से नायाब नहीं।
गुल अनेक गुलशन में लेकिन दूजा होय गुलाब नहीं॥
जाने कितने प्रश्नचिन्ह लग जायेंगे सार्थकता पर।
सदा जोड़ना और घटाना, जीवन महज़ हिसाब नहीं॥
ऐसा वातावरण बनाओ, सच कहना लाचारी हो।
लाख़ सबल हो अत्याचारी, न्याय का पलड़ा भारी हो॥
हँसी-ख़ुशी से जंगल में भी जीव-जन्तु रह लेते हैं।
मत उसको परिवार कहो, जिस घर में मारा-मारी हो॥
अब तो साक़ी को भी शक होता है हाला देखकर।
जो पिलानी है उसे, वह ज़हर है कि जाम है॥
गुल तो गुल, ख़ारों से भी होती है बारिश नूर की।
इस चमन की सरज़मीं कुछ इस क़दर ज़रखे़ज़ है॥
कट जाय फ़क़ीरी में भले ही ये जि़न्दगी।
उम्दा ख़याल सिफ़र् मेरे फ़न में रहेंगे॥
हम आज रात भर तेरे चमन में रहेंगे।
उड़ते हुए पंछी खुले गगन में रहेंगे॥
हत्या कर डालूँ ज़मीर की पुरस्कार-धन की ख़ातिर।
बन्दा नहीं चिपकने वाला इस मामूली लासा में॥
आपका-
(डा0 पी․एल․ गुप्ता)
अध्यक्ष
इण्डियन मेडिकल एसोसियेशन,
मऊ ।
पानी में आग
पानी में आग
जो लोग दिल से चाहते हैं ख़ैरियत मेरी, शायद उन्हे पसन्द है इन्सानियत मेरी।
अशयार चन्द और एक प्यार भरा दिल, इसके सिवा नहीं है कोई मिल्कियत मेरी॥
ग़ौर करें तो․․․․․․․।
ग़ज़ल शब्द तीन अक्षरों ग,ज,ल के योग से बना है। इन तीन अक्षरों का अलग-अलग जोड़ा बनाने पर तीन शब्द बनते हैं, जैसे ‘‘गज'' (हाथी) ,‘‘जल'' (पानी) ,‘‘गल'' (बात) अर्थात् जिस ‘‘गल'' (बात) में गज (हाथी) सा सारगर्भित वज़न, जल (पानी) सा पारदर्शी प्रवाह हो उसे भी ग़ज़ल कहा जा सकता है।
‘गल जो गज सा वज़न युक्त हो, जल प्रवाह सा बंधमुक्त हो।
सचमुच वही ग़ज़ल है जिसको, श्रोता सुनकर पूर्णतृप्त हो॥'
इस अविरल प्रवाह को किसी भाषा के बन्धन में बाँधना स्वक्षन्द ग़ज़ल के पाँव में बेडि़याँ डालने जैसा ही होगा। जैसा कि-
भाषा वही भाषा है सबको लगे जो प्यारी,
स्वक्षन्द गति, अनवरत, इसका प्रवाह जारी।
बँधकर कभी न भाषा, सीमा में रही जि़न्दा,
सबका है हक़ बराबर, मेरी है ना तुम्हारी।।
मेरा मानना है कि कठिन भाषा में लिखना जितना सरल तथा अरूचिकर है, सरल भाषा में लिखना उतना ही कठिन किन्तु रूचिकर होता है। सरल लेखन की छोटी सी त्रुटि भी जन-सामान्य की नज़र में आ जाती है लेकिन जटिल लेखन की बड़ी-बड़ी त्रुटियाँ भी बड़ी कठिनाई से उजागर हो पाती हैं। आम बोल-चाल की भाषा, यानी साझा ज़बान ही ग़ज़ल के लिए सर्वोत्त्ाम है। कई सौ वर्ष पूर्व महाकवि सन्त कबीर दास को ‘बरसे कम्बल भींगे पानी' किन परिस्थितियों में कहना पड़ा था, यह तो मैं नही जनता, किन्तु आज मेरा व्याकुल मन, जिस शीतोष्णता का अनुभव रोज़मर्रा की जि़न्दगी में कर रहा है, उसके परिणाम स्वरूप आप बीती की अभिव्यक्ति ‘‘पानी में आग'' के माध्यम से करके थोड़ी सी भी जन-सहानुभूति या स्नेह, राहत स्वरूप पा सका तो मेरा परम् सौभाग्य होगा। दर असल कविता मैंने कभी वातानुकूलित पुस्तकालय में बैठकर लिखने का कार्य नहीं किया। जेठ की दुपहरी में जलती पगडंडी पर नंगे पाँव चलते श्रमिकों, सावन-भादों की घनघोर काली रातों में टपकती, गिरती खपरैलों में सहमें, जागते परिवारों तथा पूस की हाड़ कँपा देने वाली भीषण ठंड में कुछ अलाव तापकर तथा पुवाल के घरौंदों में दुबके लोगों के बीच रहकर निजी अनुभूतियों की मौलिक अभिव्यक्ति करने की कोशिश की है। मैंने इन्सान को कभी चाँदपर ध्वज फहराते तो किसी के घर में सेंध काटते, कभी सर्वस्च दान करते, तो कभी किसी की जेब टटोलते, कभी सिर पर ताज धारण करते, तो कभी किसी के पाँव पर नाक रगड़ते, कभी जान की बाज़ी लगाकर किसी की इज़्ज़त बचाते तो कभी, किसी अबला से दुराचार का प्रयास करतेे, कभी हँसते तो कभी रोते, कभी जीते तो कभी मरते जैसी अनेक परिस्थितियों में मूर्धन्य विद्वानों तथा महामूर्खों को बहुत क़रीब से देखा है। इसमें ज़रा भी संदेह नहीं कि ऐसी स्थिति में कहे गये अशआर समय के प्रमाणित दस्तावेज़ न सिद्ध हों। इस संग्रह की हर रचना अपने आप में मुकम्मल आइना है। हक़ीक़त बयानी है, अद्भुत किन्तु सच्ची कहानी
है। भुक्त भोगियों के चश्मदीद की ज़बानी है।
आज ग्लोब्लाइजेशन के दौर, में तथा विश्व की वर्तमान परिस्थितियों में ख़ुद-ब-ख़ुद मेरी शायरी उस तरफ़ मुड़ गयी, जिधर मंज़र कुछ बदला-बदला सा तथा अजीबो-ग़रीब नज़र आया। अमेरिका-पेंटागन की घटना, ईराक की परिस्थितियाँ भारतीय संसद, अक्षरधाम तथा कश्मीर सहित विश्व के अनेक भागों में मानवीय मूल्यों पर हो रहे कुठाराघात की वारदातों से शायर/कवि का दिल भला कैसे प्रभावित हुए बिना रहा सकता है। काली घनघोर अंधेरी रातें उल्लू के लिए तो सुहानी हो सकती हैं, किन्तु उषाकालीन अनुपम मनोहारी बेला में किल्लोल करते मानसरोवर के हंस के लिए कदापि नहीं। इस नाते भी मेरे अशआर ‘‘पानी में आग'' की अनुभूतियों के संवाहक बन पड़े हैं।
मानव मन भी पानी की तरह स्वच्छ, शीतल और शान्त होता है किन्तु उसमें जब विचारों की आग प्रज्जवलित हो उठती है तो शीतल, शान्त मन का खौल उठना स्वाभाविक ही है। विचार समाज और परिस्थितियों के संयोग से जन्म लेते हैं। अब यह विचारों की शीतोष्णता पर निर्भर करता है कि वे मन रूपी पानी को वाष्पित करें या बर्फ़ बना दें। दोनो स्थितियों में पानी तो अन्ततः पानी ही रहता है। क्योंकि बर्फ़ भी पिघलने पर तथा वाष्प भी ठंडा होने पर अपने मूल स्वरूप पानी में ही परिवर्तित होता है। पानी और आग की क्रिया से उत्पन्न वाष्प को सहेज कर जेम्स वॉट ने रेल इंजन का आविष्कार कर डाला, ठीक उसी प्रकार मन और विचार की क्रिया से उत्पन्न भावों को शब्दों का जामा पिन्हाकर मैंने ग़ज़ल काव्य सृजित कर डाला। अतएव इसमे कल्पना की उड़ान कम, हक़ीक़त का बखान ज़्यादा है। और हक़ीक़त को तल्खी से चाहकर भी बचा पाना कठिन है। इसका मैने काव्य साधना के दौरान गहराई से अनुभव किया है।
यक़ीनन ‘‘पानी में आग'' देखने के बाद ‘‘व्याकुल'' होना स्वाभाविक है। अन्तर्मन की व्याकुलता की काव्यात्मक अभिव्यक्ति को भी ग़ज़ल कहना ग़लत न होगा। यह व्याकुलता प्रेम, चाहत, मिलन, समर्पण, मानवीय मूल्य, कर्तव्य-बोध आदि किसी भी कारण उत्पन्न हो सकती है। जहाँ तक ग़ज़ल की भूमिका का प्रश्न है उसके लिए गद्य को माध्यम बनाना सुई के छेद से हाथी निकालने जैसा हैं। फिर भी पूर्व परम्परा को क़ायम रखते हुए भी इस वास्तविकता केा कैसे नकारा जा सकता है कि-
पूरा गद्य-सिन्धु भर देता कवि, कविता के गागर में।
किन्तु पद्य की पंक्ति, समाती नहीं गद्य के सागर में॥
कविता का मुक़ाबला सिफ़र् कविता ही कर सकती है क्योंकि-
है सैकड़ों संगीन पे भारी ग़ज़ल का शेरः
पल भर में उतर जाय, करोड़ों दिलों के पार।
जहाँ तक विभिन्न भाषा के शब्दों का प्रश्न है, उत्कृष्ट निर्माण के लिए उच्चकोटि की सामग्री नितान्त आवश्यक है। विकल्प का सहारा लेने पर निश्चित रूप से गुणवत्त्ाा
पानी में आग
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पानी में आग
प्रभावित होगी। प्रकृति ने पंचतत्व से निर्मित शरीर में कभी विकल्प का सहारा नहीं लिया। ऐसी स्थिति में कवि व शायर अगर आलोचना या अन्य बातों के चलते यदि शब्दों के विकल्प के चक्कर में पड़ेगा तो उसकी रचना का क्या हश्र होगा। वैकल्पिक शब्दों से निर्मित काव्य कभी मौलिक, उत्कृष्ट और सर्वग्राह्य हो ही नहीं सकता। जैसे जाति, धर्म से उपर मानव, मानव है। ठीक वैसे ही बोली-भाषा से उपर शब्द, शब्द है। शब्द को विवादित या उपेक्षित करने पर काव्य कर्म में नफ़ा कम नुक़सान ज़्यादा उठाना पड़ेगा। जिस देश/विश्व की अनेकता ही एकता का आधार है वहाँ कुछ शब्दों से प्यार या परहेज़ का भला क्या औचित्य। अगर ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्'' की भावना से कार्य करना है तो समन्वय की भाषा अपनानी ही पड़ेगी।
हमारी दृष्टि में देवनागरी का स्वरूप निश्चित रूप से सागर जैसा है। उसको किसी नदी-नाले, वर्षा इत्यादि के जल से कोई परहेज़ नहीं, क्योंकि उसकी विशालता के पीछे इन सबका ही योगदान है। ठीक वैसा ही दृष्टिकोण अपनाकर देवनागरी (हिन्दी) एक दिन सिफ़र् राष्ट्रभाषा ही नहीं अपितु विश्व भाषा का स्थान स्वतः ही ग्रहण कर लेगी। आग, पानी, हवा जैसे ही सर्वग्राह्य होनी चाहिए हमारी भाषा भी। शायद यह बात आज हास्यास्पद लगे किन्तु जिन भावनाओं के वशीभूत होकर समन्वयात्मक शैली में काव्य सृजन किया जा रहा है यही पहल भविष्य में उदार हिन्दी को विश्व की लोकप्रिय भाषा के स्थान पर स्थापित करने में सार्थक सिद्ध होगी। संसार में जिस तरह आग, पानी, हवा, (पवन) हमारे लिए प्रकृति के नैसर्गिक ख़जाने हैं ठीक उसी प्रकार शायर के अशआर जाति,धर्म सम्प्रदाय के भेद-भाव से उपर उठकर मानवीय मूल्यों प्यार-मुहब्बत की भावना से ओत-प्रोत अनमोल तोहफ़े जैसे होने चाहिए। यदि मैं हिन्दी के परिमार्जित शब्दों के व्यामोह में फँस जाता तो मेरी भावनाओं का निःसन्देह अपने ही हाथों ख़ून हो जाता।
निर्विवाद रूप से काव्य मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति का उत्कृष्ट माध्यम है। भावनाओं पर भीषण चोट के फलस्वरूप आर्तनाद की कोख से होेता है प्रसव एक मोरस्सा ग़ज़ल का। कुछ ऐसा ही एहसास, महासागर के बीचों-बीच फूटते ज्वालामुखी की आग, और पानी की लहरों की भीषण टक्कर से उत्पन्न आग की फूटती चिंगारी और पानी की उछलती बूँदों जैसी अनोखापन लिए हुए हैं ‘‘पानी में आग'' संग्रह की ग़ज़लें।
आज सर्वत्र साझा ज़बान का ही बोल-बाला है। कुछ कवि/साहित्यकार/पत्रकार भले ही हिन्दी ज़बान, उर्दू ज़बान की सीमा में रहकर संतुष्ट तथा गौरवान्वित होते हैं, किन्तु जब गाँव,नगर, शहर, देश-विदेश, सर्वत्र बहुभाषियों के मेल-जोल प्रगाढ़ता, सामंजस्य से जब एक गंगा-यमुनी सभ्यता का बोध होता है, तब वहाँ अकेली कोई भी भाषा अपूर्ण प्रतीत होने लगती है।किसी को रात्रि तो किसी को दिन प्रिय लग सकता है किन्तु उषाकाल निर्विवाद रूप से सभी को अत्यन्त प्रिय लगता है, ठीक यही स्थिति साझा ज़बान की भी है।
बहुसंख्य लोगों के रोज़मर्रा की भाषा-बोली के माध्यम से प्रणीत काव्य संग्रह ‘‘चुभते फूल महकते कांटे'' की आशातीत सफलता के फलस्वरूप ही ‘‘पानी मे
आग'' जैसा तोहफ़ा सुधी पाठकों को देने का मन बना सका हूँ। साथ ही प्रत्येक दशा में इस बात पर मैंने ध्यान दिया है कि-
सरल भाषा में सृजन हो, यह हमारा यत्न है,
काव्य का संसार हो समृद्ध यह प्रयत्न है ।
और पाठक बन्धुओं अगर आप-
चाहते हो यादि सरस काव्यात्मक संतुष्टि तो,
इस ग़ज़ल के सिन्धु को मथिए इसी मेें रत्न है।
‘‘पानी में आग'' देखने के बाद जिनमें थोड़ा भी ज़मीर होगा, क्रिया-प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। जिनमें ऐसा कुछ न दिखे उनको इन सवालों का सामना तो करना ही पड़ेगा।-
इनका ज़मीर क्या हुआ, ये लोग कौन हैं?
‘‘पानी में आग‘‘ देख रहे, किन्तु मौन हैं।
मुद्दत से ये ‘‘व्याकुल‘‘थे इन्क़लाब के लिए,
परिपूर्ण लग रहे थे किन्तु, आधे-पौन हैं॥
ग़ज़ल के काफि़या व रदीफ़ कभी-कभी ग़ज़लकार से यह सब भी कहलवा लेते हैं, जिनसे वह भरसक बच कर निकल जाना चाहता है किन्तु स्वभाविक ढंग से कहे गये अशआर कुछ ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे-
हर प्रकार के पुष्प एक संग खिलते ज्यों मधुमास में,
आती-जाती हर सुगंध दिल तक घुलमिल कर साँस में।
हर भाषा के शब्द-रंग चुन घोला जो इन ग़ज़लों में,
यह मिश्रण ही इन्द्रधनुष बन उगा साहित्याकाश में॥
आज वैश्वीकरण के इस दौर में भाषा का योगदान भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। विश्व स्तर पर अपनी पहचान तथा लोकप्रियता हेतु भाषा को भी समन्वयात्मक तथा उदारवादी दृष्टिकोण अपनाना अपरिहार्य होगा। इन परिस्थितियों में-
हर जाति के इन्सान को मुस्कान चाहिए,
विज्ञान अक्षरों का, अनुसंधान चाहिए।
चाहत है कि समृद्ध बने, शब्दकोष तो,
साहित्य में हर शब्द को सम्मान चाहिए॥
भाषा रूपी नदियों में, शब्दों के जल का जब मेरा मस्तिष्क संगम बना और उसमें जब विचारों ने डुबकी लगायी तब पुण्य कर्मफल के रूप में कुछ ग़ज़लें प्राप्त हुई जो प्रसाद स्वरूप आप सभी को भेंट करता हूँ। साथ ही यह भी बता देना चाहता हूँ कि-
एकान्त में जो शब्द मेरे मीत बन गये,
कुछ ढल गये ग़ज़ल में, शेष गीत बन गये।
पानी में आग
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पानी में आग
आलम मेरे अशआर के मक़्बूलियत का ये,
हर शख़्स के लबों की बातचीत बन गये॥
‘कवि और कविता' शीर्षक से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का लेख जिसमें उन्होंने एक स्थान पर लिखा है- ‘प्रतिभा ईश्वरदत्त्ा' होती है। अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती है, इस शक्ति को कवि माँ के पेट से लेकर पैदा होता है․․․․․․․․․․․․ कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि जो कवि नहीं है, उनकी पहुँच वहाँ तक हो ही नहीं सकती ․․․․․․ एक मात्र सूखी शब्द झंकार ही जिन कवियों की करामात है उन्हें चाहिए कि वे एकदम ही बोलना बन्द कर दें।''
‘‘भाव चाहे कैसा भी ऊँचा क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। यह ऐसे शब्दों द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए जिनसे सब लोग परिचित हों। मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो, क्योंकि कविता की भाषा बोलचाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है, उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। बोलचाल से मतलब उस भाषा से है जिसे ख़ास और आम सब बोलते हैं, विद्वान और अविद्वान दोनों जिसे काम में लाते हैं।․․․․․․․․ हिन्दी और उर्दू में कुछ शब्द अन्य भाषाओं के भी आ गये हैं। वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता। उन्हें त्याज्य नहीं समझना चाहिए।
․․․․․․․ जब अन्य भाषा का कोई शब्द किसी और भाषा में जाता है, तब वह उसी भाषा का हो जाता है।''
‘‘किसी राजा या किसी व्यक्ति विशेष के गुण-दोषों को देखकर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों, उन्हें यदि वह बेरोक-टोक प्रकट कर दे तो उसकी कविता हृदयद्रावक हुए बिना न रहे परन्तु परतन्त्रता या पुरस्कार प्राप्ति या और किसी कारण से सच बात कहने में किसी तरह की रूकावट पैदा हो जाने से यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस नहीं होता तो कविता का रस ज़रूर कम हो जाता है। इस दशा में अच्छे कवियों की भी कविता नीरस अतएव प्रभावहीन हो जाती है।․․․․․․․ कवि के लिए कोई रोक न होनी चाहिए अथवा जिस विषय में रोक हो, उस विषय पर कविता ही न लिखनी चाहिए।''
आज सम्मानों/पुरस्कारों की होड़ सी लगी हुई है, प्रतिवर्ष अनेक कवि सम्मानित/पुरस्कृत हो रहे हैं किन्तु एक भी कविता पुरस्कृत नहीं हो रही। काश! कविता पुरस्कृत होती तो कवि स्वतः ही पुरस्कृत/सम्मानित हो जाता।
कविता के वर्तमान स्वरूप विषय पर बात-चीत के दौरान, हिन्दी साहित्य-परिषद् मऊ के अध्यक्ष मेरे मित्र डॉ0 श्रीनाथ खत्री ने मुझसे कहा ‘‘व्याकुल जी'' जब मैं इस नगर में 25 वर्ष पहले आया था तो मात्र कुछ लोगों के पास ही कार तथा बंगला इत्यादि था। किन्तु आज मात्र कुछ ही लोग ऐसे हैं जिनके पास यह सब सुविधायें नहीं हैं। विकास कुछ इस गति से हुआ है किन्तु कविता आज भी बदहाली, विपन्नता, आह-कराह इत्यादि में ही उलझी हुई है फिर ऐसे साहित्य को समाज का दर्पण कहना कहाँ तक उचित होगा।''
बात मुझे भी जंची क्योंकि-
वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान ।
निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अंजान ॥
जैसी पंक्तियों को हम लकीर के फ़कीर की तरह एक ज़माने से दुहराते चले आ रहे हैं। उपरोक्त पंक्तियों के परिधि में ही कविता की सुरक्षा का भ्रम अनेक कवियों में घर कर गया है।जिससे साहित्य समाज का दर्पण न होकर कूड़ा-कचरा बनता जा रहा है, जिसका प्रथम उत्त्ारदायित्व रचनाकार का ही है ऐसा आज कुछ लोगों का मानना है। साथ ही रचनाधर्मिता में त्याग-भावना, निष्पक्षता, दूरदर्शिता तथा कर्मशीलता का अभाव भी इसके कारण हो सकते हैं। यथा-
जो निकम्मे हैं वही महरूम ख़ुशहाली से हैं।
इनके रिश्ते आज भी क़ायम जो कंगाली से हैं॥
सबके सब कमज़र्फ़ हैं, मैकश ये हो सकते नहीं।
मैकदे में हैं मगर, दहशतज़दा प्याली से हैं॥
उक्त के परिपेक्ष्य में तथा वर्तमान परिस्थितियों में अब यह कहना ही उपयुक्त प्रतीत होता है कि-
‘‘व्याकुल'' ही होगा दूजा कवि बातें यथार्थवादी कहकर,
नूतन प्राचीन, मध्यकालिक, स्थितियाँ दुनियावी कहकर।
जो आदि लगायत वर्तमान पर डाल एक निष्पक्ष दृष्टि,
रच देगा निज युग का दर्पण, अशआर प्रतिवादी कहकर।
हम बैठकर अंधेरे का रोना रोने के बजाय रौशनी करने में यक़ीन रखते हैं, भले ही यह कुछ लोगों की दृष्टि में उचित न हो तथा हम उन्हें क़सूरवार नज़र आयें। उनकी नज़र में-
दूसरा पक्ष यह है कि सहज और सामान्य बातों की ओर से हम बिल्कुल उदासीन तथा असहज और असामान्य की ओर ही आकर्षित हैं। एक कंगाल और करोड़पति की इच्छाओं में तो अन्तर हो सकता किन्तु संतुष्टि में नहीं, क्योंकि संतुष्टि तो त्याग में है। त्याग-भावना ही मनुष्य को विवेकशील और संयमी बनाती है और ऐसे ही व्यक्ति को संसार में हर वस्तु अनुपम तथा चाहुँओर ख़ुशहाली नज़र आती है। ख़ुशहाली-बदहाली के दर्शन में अपना नज़रिया ही प्रमुख है, क्योंकि ये दोनों ही शाश्वत और चिरंतन है दर्द को मुस्कराकर झेलने की बात करते-करते हम मुस्कुराहट में भी दर्द महसूस करने के आदी होते चले गये। जिसके कारण काव्य-जगत में ख़ुशी से कहीं ज़्यादा स्थान ग़म ने घेर लिया वही स्थिति कमोबेश चलती चली जा रही है जिस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने का उपयुक्त समय काव्य के द्वार पर दस्तक देने लगा
पानी में आग
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हमारा जुर्म इतना है कि कर दी रौशनी थोड़ी,
चिराग़ों से चिराग़ों को जलाता जा रहा था मैं।
पानी में आग
है। इस दस्तक की अनसुनी कर हम साहित्य को समाज का दर्पण बनाये रख सकने में असमर्थ होंगे क्योंकि आज तो-
मरूथल में पानी पहुँचाया नहरों से,
गाँव-गाँव को जोड़ दिया है शहरों से।
कभी दिखी सूखी काई जिस दरिया में,
उसके तट अब जूझ रहें नित लहरों से।
‘‘पानी में आग'' ग़ज़ल-संग्रह की भूमिका लिखने का प्रस्ताव अनेक कवियों/शायरों के समक्ष रखा, किन्तु दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि इस चक्कर में अनावश्यक रूप से समय व श्रम की क्षति उठानी पड़ी। मात्र कुछ कवितायें या ग़ज़लें कहने वाले आजकल-आजकल कह कर टालते रहे या फिर संग्रह का विशाल तथा उत्कृष्ट, स्वरूप देखकर कुछ लिखने का साहस जुटाने में असमर्थ रहे। जबकि मेरी दृष्टि में रचनाकार, रचनाकार होता है ऐसी परिस्थिति में स्मरण होता है, मूर्धन्य विद्वान, साहित्य वाचस्पति डॉ․ श्रीपाल सिंह ‘‘क्षेम'' का जिन्होंने मेरे प्रथम प्रकाशित काव्य संग्रह ‘‘चुभते फूल महकते काँटे'' जिसमें सत्त्ााइस मुक्तक, अट्ठारह गीत तथा एक सौ दस ग़ज़लें कुल (155) एक सौ पचपन रचनायें संग्रहीत हैं, की भूमिका लिखना सहर्ष स्वीकार किया था। संग्रह के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखते-लिखते अंत में उनके द्वारा यह लिखा जाना कि ‘‘व्याकुल'' जी का यह प्रथम प्रकाशित संकलन है। इसके अतिरिक्त इनके पास सैकड़ों और रचनायें हैं, जिन्हें वह अलग-अलग पहचान की रक्षा के लिए एक में गड्ड-मड्ड नहीं करना चाहते। इस संकलन का अपना एक विशिष्ट स्वभाव है, जो सभी रचानओं को एक सूत्रित करने में संलग्न है। इन ग़ज़लों, गीतों एवं मुक्तकों पर जितना विचार-विवेचन होना चाहिए, वह इन कतिपय पँक्त्त्ाियों में न सम्भव है और न मैं उसके लिए अपने को उपयुक्त अधिकारी ही मानता हूँ।'' उनकी महानता, सहृदयता, विद्वता, न्यायप्रियता, श्रेष्ठता तथा सहजता का प्रमाण है। क्योंकि जहाँ लोग अपनी दो कौड़ी की रचना को कालजयी तथा दूसरे की कालजयी रचनाओं को भी दो कौड़ी की सिद्ध करने में ऐड़ी से चोटी तक का बल लगाने से नहीं चुकते, डॉ․श्री ‘क्षेम' जी के उपरोक्त कथन को पढ़ने के बाद ‘‘इक्ज़ामिनी इज बेटर दैन इक्ज़ामिनर'' कि घटना बरबस याद आ जाती है। इस सम्बन्ध में मैं गर्व के साथ कह रहा हूँ कि डॉ․ श्री ‘क्षेम' के उक्त कथन से प्राप्त ऊर्जा के फलस्वरूप ही मेरी सृजनात्मक निरन्तरता बनी हुई है।
‘‘पानी में आग'' संग्रह जिसमें वंदना, देश गीत , 225 मुक्तक तथा 131 ग़ज़लें, कुल 357 रचनाएं संग्रहीत हैं। जिसमें कुल 1615 अशआर हैं। पूर्व प्रकाशित काव्य संग्रह तथा इस संग्रह में प्रकाशित कुल रचनाओं की संख्या 511 हैं तथा कुल 2551 से भी अधिक अशआर हैं।
उपरोक्त के सम्बन्ध में अनेक सुझाव प्राप्त हुए जैसे कुछ ने सुझाया कि इसमें कई संग्रह बनाया जाये तथा कुछ ने मुक्तक तथा ग़ज़ल का अलग-अलग संग्रह बनाने की बात सुझायी आदि-आदि। किन्तु व्यवसायिकता तथा कई संग्रहों के प्रणेता होने का मोह
त्याग कर मैंने जनहित तथा पाठकों के हित को ही अपना प्रमुख लक्ष्य बनाकर संग्रह का स्वरूप निर्धारित किया। हमारे नज़दीकी लोगो ंको इस बात का कष्ट होना स्वाभाविक है कि मैं उनके साथ पर्याप्त समय नहीं बिताता। लगभग तीन दशकों से हमारा समय तीन दशाओं में व्यतीत हो रहा है। दैनिक कार्यांे में, कार्यक्रमों में योगदान तथा सोने में। इधर अनेक वर्षो से देर रात तक साधना के परिणामस्वरूप उषाकाल के सूर्य-दर्शन तक को तरस गई हैं मेरी आँखें। संसाधनों का अभाव तथा साधना की प्रबल इच्छा तथा जीवन की क्षणभंगुरता ने मेरे अन्तर्मन को आकुल-व्याकुल करके रख दिया है। किन्तु कुछ शान्ति तथा संन्तुष्टि इस बात से मुझे ज़रूर मिली कि जिसने भी मुझे पढ़ा या सुना, दिल खोलकर प्रशंसा किए बिना न रह सका। समय का रोना तो व्यर्थ होगा क्योंकि राजा या फ़कीर सबके लिए ही दिन-रात बराबर होते हैं। अलबत्त्ाा बल, बुद्धि, कर्म संसाधनों की उपलब्धता तथा सदुपयोग की ही देन हैं मेरे अशआर, जिनमें विपन्नता की झलक, संमृद्धि की ललक तथा कल्पनाओं के फ़लक की अनुभूति स्वाभाविक है। साथ ही मुझे यक़ीन है कि जिस्मानी तौर से दूर होते हुए भी रूहानी तौर पर हम आपके अत्यन्त क़रीब है अपने ग़ज़लियात के माध्यम से।
जिसके लब पे शेर हमारा, हम उसकी रूह में होेंगे।
जैसे ख़ुशबू सदा फूल के इर्द-गिर्द ही रहती है॥
कुछ बातें जो संकेतों के माध्यम से व्यक्त की जाती हैं, उनका आनन्द तो कुछ और ही होता है। फूल के खिलने की ख़बर भौरों को तथा शमा की जलने की भनक परवानों को, बसन्त बहार के आने का गुमान कोयल को, आकाश में सावनी घनघोर घटाओं का घिरना मयूर को, चाँद की आभा चकोर को, जैसे स्वतः सम्प्रेषित होती है, ठीक वैसे ही जिनसे मेरा थोड़ा भी अनुराग है, मेरे आभार की अभिव्यक्ति भावनाओं के माध्यम से अवश्य हो जायेगी। मुझे पूर्ण विश्वास है इस लिए-
हम राज़ खोलकर उन्हें नाराज़ क्यूँ करें।
कुछ लोग तो हमराज़ हमारे बने रहें॥
मेरे पूर्व प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह ‘‘चुभते फूल महकते काँटे'' के कुछ अशआर जिसमें ख़ास तौर से - इन्साँ जो आचरण करे इन्सान की तरह ।
लगने लगेगा ख़़्ाुद वही भगवान की तरह॥
विधिक सेवा प्राधिकरण जनपद-मऊ तथा इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन, शाखा-मऊ के अध्यक्ष डा․पी․एल․गुप्ता के सौजन्य से कैसेट का स्वरूप प्रदान कर प्रदेश के लगभग समस्त जनपदों के विधिक सेवा प्राधिकरणों, मऊ जनपद के संस्थानों, समाजसेवी संगठनों विशिष्ट व्यक्तियों आदि को उपलब्ध कराकर प्रेम, एकता तथा भाईचारगी का संदेश जन-जन तक पहुँचाने का पुनीत कार्य हुआ है।
इसी क्रम में आभारी हूँ तत्कालीन जनपद न्यायाधीश श्री राम सूरत जी तथा सी․जे․एम․ मऊ, श्री प्रीतम सिंह जी का जिन्होंने मऊ जनपद के समस्त
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पानी में आग
न्यायिक/प्रशासनिक अधिकारियों, वकीलों, डाक्टरों, समाजसेवियों, व्यवसाईयों, वादकारियों तथा जन सामान्य की उपस्थिति में दिनाँक 24․03․2002 ई․ को दीवानी न्यायालय के सभागार में आयोजित भव्य कार्यक्रम में विधिक सेवा प्राधिकरण में उत्कृष्ट योगदान हेतु अंगवस्त्रम्, प्रशस्तिपत्र इत्यादि भेंटकर मुझ जैसे अज्ञानी को भी उपरोक्त कविता के लिए सम्मानित किया । अपने व्यस्ततम् समय में से जनपद-न्यायाधीश श्री राम सूरत जी ने उक्त काव्य संग्रह की शुभाशंसा लिखने हेतु जो समय तथा अमूल्य विचार व्यक्त किया उसके लिए जितना भी आभार व्यक्त किया जाय कम होगा। उच्च न्यायालय इलाहाबाद के तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री रफ़त आलम साहब ने विधिक सेवा प्राधिकरण के 41 वें शिविर की ऐतिहासिक भीड़ में दिनांक 16․06․2002 ई․ को उक्त काव्य संग्रह का लोकार्पण कर मेरी कृति को जो गौरव तथा प्रतिष्ठा प्रदान किया मैं उनका आजीवन ऋणी रहूँगा।
मेरे काव्य संग्रह के प्रति जो आदर भाव श्री आर․ एन․ सिंह वरिष्ठ कोषाधिकारी, श्री विद्यासागर यादव, अधिशासी अधिकारी, श्री राम दर्शन यादव, पूर्व विधायक, डा0 श्रीमती सुधा राय, अविनाश कृष्ण सिंह, पी0सी0 एस, अयोध्या प्रसाद पी0सी0एस0,इरशाद कम्प्यूटर इंजिनीयर, अखिलेश कुमार, ई0 एस0एस0एच नकवी,डा0 ओ0पी0 सिंह एवं समस्त साहित्यकार, पत्रकार, जनसेवी बंधुओं, छात्रसंघ, शिक्षक संघ तथा प्रधानाचार्य परिषद् की ओर प्रदर्शित किया गया है उससे भी उऋण होना सम्भव नहीं। साथ ही वह पाठक जिसके संम्पर्क में कविता दीप की तरह जल उठती है, मन की तरह मचल उठती है, फूल की तरह खिल उठती है, समाज के उस अन्तिम व्यक्ति के हाथों में अपनी जीवन की थाती सौंपता हूँ इस आशा एवं विश्वास के साथ कि वह भी इसे पढ़ने के उपरान्त ,अपने अमूल्य विचारों से मुझे अवगत कराने का अवश्य कष्ट करेगा । क्योंकि नामी-गिरामी कुछ कारोबारी साहित्यकारों तथा आलोचकों की बैसाखी का सहारा भले ही हमारी काव्यकृति को न मिला हो किन्तु जिन सच्चे साहित्य प्रेमियों ने मेरे कन्धे से कन्धा एवं क़दम से क़दम मिलाया है उनका निः स्वार्थ अभिमत ही हमारी उपलब्धि व प्रेरणास्रोत है। इस काव्यकृति को आपका हार्दिक प्यार मिले, इन्हीं कामनाओं के साथ अब आप के समक्ष प्रस्तुत हैं मेंरी रचनाएं। किन्तु․․․․
और-
कोटिशः धन्यवाद! आपकाः-
‘‘श्रीकृष्ण जयन्ती'' राम अधार‘‘व्याकुल''
20 अगस्त 2003 ई․ ग्राम व पत्रालय-कसारा
दिन बुधवार जि़ला-मऊ-275102
फ़ोन नं․-05474-266766
भूल होगी ही नहीं , यह बात कहना भूल होगी ,
कुछ क्रिया अनुकूल तो कुछ क्रिया प्रतिकूल होगी।
देखने में आपके कैसी लगी ‘‘पानी में आग'',
बात कड़वी या मधुर, मुझे सहर्ष क़बूल होगी।
वंदना
वंदना
वंदनीया, पूजनीया माँ, हृदय में बासकर।
जगत् के, हर जीव के पथ से, तिमिर का नाश कर॥
ज्ञान की आकाश गंगायें, समाहित कोटिशः।
इस तरह विस्तृत, बृहदतम्, काव्य का आकाश कर॥
छन्द, नवरस-अलंकारों से सुसज्जित शब्द को।
यमक, उत्प्रेक्षा, अपुन्हुति, श्लेष व अनुप्रास कर॥
भूल जाये दर्द पतझड़ का, पलों में यह चमन।
इस तरह का कुछ अनूठापन लिए मधुमास कर॥
हो चुकीं अब तक बहुत ही आम बातें किन्तु अब।
है तक़ाज़ा वक़्त का, माते! सृजन कुछ ख़ास कर॥
कर्म मुझ अज्ञान प्राणी के लिए यह है कठिन।
काव्य-सेवा कर रहा, तव-चरण विश्वास कर॥
प्राणियों में जगत् के, भर दे मनुजता, शिष्टता।
सृजन, शिक्षा, ज्ञान का, निशदिन समग्र विकास कर॥
आत्मा घुटने लगी, काया के अन्धे कूप में।
नष्ट कर मम् , उर का तम्, अन्तःकरण में प्रकाश कर॥
अनपढ़ा भी अति प्रखर विद्वान बनता, तव-कृपा।
बैठ चरणों में तुम्हारी साधना-अभ्यास कर॥
माँ तेरे आह्वान बिनु, होती न पावन लेखनी।
आज ‘‘व्याकुल'' भावनाओं का, मेरी एहसास कर॥
पानी में आग
पानी में आग
पढि़ए इसे पढ़ने के बाद शोध कीजिए,
तत्वों को ग्रहण करके आत्मबोध कीजिए।
स्वागत् है हर सुझाव शिरोधार्य आपका,
बन मेरे पथ-प्रदर्शक, दिशाबोध कीजिए॥
पानी में आग
देशगीत
1
कोई भी शै इस दुनियाँ की, इन्साँ से नायाब नहीं।
गुल अनेक गुलशन में लेकिन, दूजा होय गुलाब नहीं॥
सिफ़र् यही निष्कर्ष निकाला, इसके पढ़ने वालों ने।
चेहरे जैसी अब तक कोई, पढ़ने योग्य किताब नहीं॥
जाने कितने प्रश्न चिन्ह, लग जायेंगे सार्थकता पर।
सदा जोड़ना और घटाना, जीवन महज़ हिसाब नहीं॥
नंगी धरती, नभ के नीचे, भूख़ा सोया, अधनंगा।
ऐसी मीठी नींद में सोये, शायद नृपति-नवाब नहीं॥
अपने और पराये का हो, भेदभाव जिसके दिल में।
उसे आदमी का जीवन भर, मिलता कभी खि़ताब नहीं॥
देखा फिर भी देख न पाये, क्यूँ हमको ऐसा लगता।
झुकी-झुकी पलकों से बेहतर कोई लगे नक़ाब नहीं॥
जिस भी साक़ी से पूछा तो, सबने एक जवाब दिया।
जिससे हो कल्याण किसी का, ऐसी कोई शराब नहीं॥
हैरत में पड़ना स्वाभाविक है, मेरी इन नज़रों का।
मुझको अब तक इस दुनियाँ में, ऐसा दिखा शबाब नहीं॥
जाँच-परख कर सौदा करने में भी क्या ‘‘व्याकुल'' होना।
कुछ तो अच्छा भी है जग में, हर सामान ख़राब नहीं॥
पानी में आग
पानी में आग
2
3
बिछुवा ड़ंक जिसे मारे हो, रस्सी को भी नाग कहे।
जले आँसुओं की उष्मा में, वह ‘‘पानी में आग'' कहे॥
ऋतु बसंत में पिया मिलन को, बेसुध होती जो विरहन।
बाग़ीचे में कोयल पल में, मुण्डेरी पर काग कहे॥
जिसका मन वश में हो जाये कुत्सित-घृणित वृत्त्ाियों के।
स्वार्थ-पूर्ति को भी निज कपटी, दुनिया के प्रति त्याग कहे॥
ठाँव लगे जो गुण कहलाये, दोष कुठाँव वही होता।
आँखि छाडि़ अन्यत्रा लगे काजल को दुनियाँ दाग़ कहे॥
संगीतज्ञों कभी न छेड़ो उसके आगे स्वरलहरी।
चीपों-चीपों को गर्दभ की, अद्भुत दीपक राग कहे॥
बहुत बड़ा है अलादीन का नाम मगर दर्शन छोटे।
जिसमे तेल न बाती, कोई कैसे उसे चिराग़ कहे॥
अश्मसान ही जन्नत लगता है जिस कफ़न खसोटे को।
जली राख की ढेरी को भी केशर-पुष्प-पराग कहे॥
अरूचि सुलभ से दुर्लभ के प्रति आकर्षित होती दुनियाँ।
अपने घर की मुर्गी को भी दो कौड़ी का साग कहे॥
मक़सद जीवन का हल होवे, इतना भी जो ध्यान रहे।
वक़्त तुम्हारी हर करनी को, जग के प्रति अनुराग कहे॥
भले विसंगतिपूर्ण लगे पर पीड़ा से होकर ‘‘व्याकुल''।
प्रकृति प्रेम दीवाना कवि हिमगिरि को पय का झाग कहे॥
पूछिये मत, आजकल कितनी परेशानी में हैं।
एक जर्जर नाव लेकर, सिन्धु के पानी में हैं॥
ज्वार-भाटे और, तूफ़ानी थपेड़ों में फँसा।
धैर्य मेरा देखने, वाले भी हैरानी में हैं॥
ये नयी साजि़श कोई लहरों की लगती है मुझे।
एकजुट होकर मेरी कश्ती की अगवानी में हैं॥
किन्तु मुंसिफ़ तक मेरी अज़ीर् न पहुँची आज तक।
चाह में इन्साफ़ की, वर्षों से दीवानी में हैं॥
कल मिली जिनको शरण, इस छत के साये के तले।
आज वे ही लोग, बैठे घर की निगरानी में हैं॥
जो दरिन्दे, वहशियाना कृत्य में मारे गये।
नाम उनके, भी पड़ोसी घर की क़ुर्बानी में हैं॥
एक धोती में भले ही राष्ट्रपितु गाँधी जिये।
शुक्र उनका आज हम रेशम की शेरवानी में हैं॥
अनवरत जद्दोजहद पलकों पे काजल से करें ।
अश्क-बूँदे, जो नयन की, सूर्मेदानी में हैं॥
लोग कुछ एहसान मुझपर कर रहे यूँ ही नहीं।
हर किसी के कुछ न कुछ अरमाँ मेहरबानी में हैं॥
अब तो विस्तर से भी उठने को सहारा चाहिए।
शेष स्मृतियाँ, हमारी अब पहलवानी में हैं॥
एक मुद्दत से रहे प्यासे जो ‘‘व्याकुल'' प्राण के।
आज वे ही लोग, मेरे घर की दरबानी में हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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5
नाख़ुदा सहमें हैं सरिता की रवानी देखकर।
ख़ौफ़ भ्रमरों में है फूलों की जवानी देखकर॥
दर्द मेरा देख आँखें डबडबायीं आपकी।
आग दिल की बुझ गयी, दो बूँद पानी देखकर॥
राज्य में तेरे भले ही है मचा कोहराम पर।
हो गये हम धन्य तेरी राजधानी देखकर॥
ये हसीं दिलकश नज़ारा, वश में परदे के नहीं।
नूर चेहरों का उड़ा, चेहरा नूरानी देखकर॥
जि़न्दगी भर अब उबरना कत्त्ाई मुमकिन नहीं।
जो लगा सदमा तुम्हारी मेहरबानी देखकर॥
खो गये हम किन ख़यालों में बता सकते नहीं।
बाद मुद्दत यार की, चिट्ठी पुरानी देखकर॥
यह परिस्थिति क्या भला कम है सज़ा-ए-मौत से।
घर अतिथि आते नहीं, तंगी-गिरानी देखकर॥
क़ीमती सामान की सोचे दहेजों में पिता।
दिन-ब-दिन होते हुए बिटिया सयानी देखकर॥
अंश जब मौज़्ाूद है दुनियाँ की हर शै में तेरा।
क्यूँ न हो ‘‘व्याकुल'' कोई रिश्ता रूहानी देखकर॥
फूल खिलते हैं तो हम हार बना लेते हैं।
लोग मिलते हैं उन्हें यार बना लेते हैं॥
दुश्मनों से भी हिफ़ाजत की कला आती है।
शत्राु-कंकाल की दीवार बना लेते हैं॥
तन-पसीने से सींचकर वतन की मिट्टी को।
नोट, डालर कभी दीनार बना लेते हैं॥
दाल-चावल व नमक-मिर्च, सब इकट्ठा कर।
क्यूँ न खिचड़ी सही चटकार बना लेते हैं।
प्यार पूजा है, ईश्वर है, मेरा अल्ला है।
मनचले तो इसे व्यापार बना लेते हैं॥
अन्न-जल जो भी परिश्रम से हाथ लग जाये।
उसी प्रसाद को आहार बना लेते हैं॥
जिनको जीने की कला में है महारत हासिल।
राह चलते हुए व्यवहार बना लेते हैं॥
गर्चे उँची है तमन्न्ना महल बनाने की।
उस अनुपात में आधार बना लेते हैं॥
ग़ज़ल के शेर में हम जान डालते हैं तब।
शब्द कुछ चुन के जब आकार बना लेते हैं॥
दिल में ‘‘व्याकुल'' के ज़रा सी भी जगह है काफ़ी।
प्यार से हम वहीं घर-बार बना लेते हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
6
7
आँगन में झील गाँव समन्दर से कम नहीं।
इस हादसे के बाद भी विचलित हैं हम नहीं॥
दुःख-दर्द बटाने की जो मिसाल दिखी है।
सदियों भुला सकेगा, ज़माने में दम नहीं॥
नफ़रत की होलिका जले सर्वस्व हो स्वाहा।
प्रहलाद प्यार का बचे तो कोई ग़म नहीं॥
राहत में पीडि़तों के लगी जान की बाज़ी।
कैसे वो दृष्य देखकर हो आँख नम नहीं॥
सब एक दूसरे के मददगार बन गये।
क्या बाढ़ से पैदा हुई अद्भुत रसम नहीं॥
कैसे कोई कहता है कि हम एक नहीं हैं।
किसकी ज़बान को भला आती शरम नहीं॥
सहयोग की इक बानगी जग आज देखले।
मन में पले किसी के भी मिथ्या वहम् नहीं॥
तटबन्ध टूट जायँ जो रिश्तों के तो टूटें।
‘‘व्याकुल'' कभी ये फ़ज़र् की टूटे क़सम नहीं॥
माना कि उन्हें याद हमारा शहर न हो।
फिर भी मेरे दीदार को प्यासी नज़र न हो॥
आओ चलें बनायें क्षितिज पार आशियाँ।
हम तुम हों मगर इर्द-गिर्द कोई घर न हो॥
न पाँव न बैसाखियाँ कैसे सफ़र कटे।
फिर क्या हो परिन्दे का जो उड़ने को पर न हो॥
क्वारी अधेड़ हो गयी बिटिया ग़रीब की।
देता दहेज क्या मज़ाल कोई वर न हो॥
मालिक भी तोड़ते नहीं मर्यादा जब कभी।
इन्सान वो कैसा जिसे इज़्ज़त का डर न हो॥
दिल बेवफ़ा पत्थर तेरा होता तो ठीक था।
वेश्या का दुपट्टा है जो आँसू से तर न हो॥
इज़्ज़त व शराफ़त जिन्हें प्यारी है जान से।
वह कौन सा लम्हाँ है जो लगता समर न हो॥
अपने लिए जीना सरल, अपने लिए मरना।
मर जाय देश के लिए ‘‘व्याकुल'' अमर न हो॥
पानी में आग
पानी में आग
8
9
क़ब्रों से भी अधिक भयानक बस्ती में कुछ घर दीखे।
इन्सानों से ज़्यादा ख़ुश बेजान अस्थि-पंजर दीखे॥
सब कुछ उल्टा-पुल्टा ये अन्धेरपुर नगरी है क्या।
हंस यहाँ पर रेंग रहे केंचुओं के निकले पर दीखे॥
दिल के अन्दर प्यार भरा है बेहद ही ज़्यादा मेरे।
अलग बात है बाहर से कुछ लोगों को नफ़रत दीखे॥
अत्याचार सहन करना ही, है नीयति निर्बल जन की।
शापित शिला अहिल्या पथ में ठोकर बन पत्थर दीखे॥
अगर किसी से हाथ मिलाना मजबूरी ही क्यूँ ना हो।
दिल के अन्दर जो कुछ भी हो, आँखों में आदर दीखे॥
कोई फ़र्क़ न पड़ने वाला गुरू बिरंचि सम हो तो भी।
जिस मनुष्य को भैंस बराबर ही काला अक्षर दीखे॥
उसकी डोर ज़रूर कोई मज़बूत शख़्स थामे होगा।
जिस पतंग को सिर पर धारण किये हुए अम्बर दीखे॥
आदम का इतिहास साक्षी और शोध भी बतलाते।
निश्चित ही वह ‘‘व्याकुल'' होगा, जो सबसे ऊपर दीखे॥
तस्वीर रंग के बिना बेजान अधूरी।
बिनु ताजमहल हिन्द की पहचान अधूरी॥
कुतूब की सरगम से गगन झूम रहा है।
जिसके बिना जय हिन्द की है तान अधूरी॥
माथे पे लालकिले के फहरे तो क्या छटा।
बिनु लालकिले तिरंगे की शान अधूरी॥
चुटिया हो या दाढ़ी की हिफ़ाज़त है ज़रूरी।
दोनों के मेल के बिना दूकान अधूरी॥
यह ठीक है कि चाँद औ सूरज हैं दो मगर।
दोनो के बिना, है प्रकृति बेजान, अधूरी॥
जिसपर है हमें नाज़, वो थाती है देश की।
उसके बिना है सारी आन-बान अधूरी॥
जब पढ़ लिया बाईबिल, गुरूगं्रथ व गीता।
क्यूँ बिनु पढ़े ही छोड़ दूँ कुरआन अधूरी॥
रोना भी सुहाता नहीं नितान्त अकेले।
‘‘व्याकुल'' के बिना मुल्क की मुस्कान अधूरी॥
पानी में आग
पानी में आग
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दम्भ खरेपन का अक्सर ही, भरते रहते खोटे लोग।
मुर्दे तक के कफ़न खींचते रहते कफ़नखसोटे लोग॥
सीना ताने घूम रहे हैं चौराहे के बीचों-बीच।
बनकर मुँहनोचवा,अन्धेरे में तन-बदन बकोटे लोग॥
मूक-बधिर सिंहासन हूँ मैं मुझ पर जो आसीन हुए।
लेकर मेरी ओट, मलाई-माल गपागप घोंटे लोग॥
ऊँच-नीच का भेद-भाव जो मूल मिटाने की ठाने।
बड़े गर्व से माँग रहे हैं आरक्षण के कोटे लोग॥
अरे रईसों, दौलतमंदों कुछ तो गौ़र करो इस पर।
रोटी, कपड़ा, घर होता क्यूँ मैला सिर पर ढ़ोते लोग॥
मिलना-जुलना दूर, नहीं इतनी फु़रसत कि दें दर्शन।
वक़्त पड़ा तो नाक रगड़ कर जो पैरों पर लोटे लोग॥
सही व्यंजना करके देखो शब्दों में ही है सब कुछ ।
ग़लत निकाले अर्थ वही कहलाते अक्ल से मोटे लोग॥
हीन भावना के शिकार या मनोरोग से हैं पीडि़त।
बहुत बड़ा अपने को कहते जो भी होते छोटे लोग॥
फटने पर पैबन्द लगाने को कोई तरसे ‘‘व्याकुल''।
सोने के धागे से मख़मल में लगवाते गोटे लोग॥
हर ओर से उठती हुई नज़रों को भाँप कर।
परदे में जिस्म रख लिया है तोप-ढाँप कर॥
चौकस हैं जो गिर करके सम्भलने की बात से।
रखतेे हैं डगर में क़दम वो नाप-नाप कर॥
बिजली गिरी अद्भुत अदा से मुस्कुरा दिये।
कोना जो दुपट्टे का वो दाँतों से चाप कर॥
जब वादी-ए-कश्मीर में पायल तेरी बजी।
धड़के है हिमालय का कलेजा भी काँप कर॥
फ़रहाद और मजनू तुम्हें याद करेंगे।
क़ब्रों में तेरे नाम का नित मौन जाप कर॥
कमज़ोर के संग ज़्यादती करना गुनाह है।
ताक़त तो चंचला है न मदान्ध पाप कर॥
ठुकरा न मुझे बेवजह इल्ज़ाम लगाकर।
जो भी तेरा मुरीद हो उससे मिलाप कर॥
‘‘व्याकुल'' का मरज़ लाइलाज हो चला है अब।
कहने लगा है रोम-रोम अब विलाप कर॥
पानी में आग
पानी में आग
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याद की धुंध है फैली हुई, तनहाई है।
आपके प्यार में क्या ख़ूब सज़ा पाई है॥
टूटना दिल का, खेल तेरे वास्ते होगा।
बात मेरे लिए तो जान पे बन आयी है॥
आग भीलों ने ही ख़ुद वन में लगायी होगी।
बस यही सोच के आँखों में घटा छायी है॥
सौ गुना साँप से ज़्यादा ज़हर सपेरे में।
लगे है झूठ मगर आज की सच्चाई है॥
सफ़र का हाल जानने के लिये उनसे मिलो।
जिसकी कश्ती अभी मंजि़ल पे चलके आयी है॥
रोज़ कपड़ों की तरह दोस्त बदल देते हैं।
नज़र में उनकी, क्या वफ़ा व बेवफ़ाई है॥
रू-ब-रू बेनक़ाब जब नहीं होना तुमको।
इस मिलन से कहीं अच्छी तेरी ज़ुदाई है॥
भँवर से बचके किनारे न बच सकी कश्ती।
नाख़ुदा पे ही आज शक की सुई आयी है॥
पेश आती हैं जो दुश्वारियां दौरान-ए-सफ़र।
दास्ताँ कह रही यह पाँव की बिवाई है॥
कत्ल करने के लिए आजकल जो है ‘‘व्याकुल''।
जन्मदिन पर मुझे, उसकी मिली बधाई है॥
मुफ़लिस को, जो मुफ़लिस कहे वो तरफ़दार है।
क़ातिल को जो क़ातिल कहे वो गुनहगार है॥
हमीं नहीं कहें, यही दस्तूर-ए-ज़माना।
हक़ मेरा भी खा जाये, मेरा मददगार है॥
अज़ीर् लिये चला गया दफ़तर में एक दिन।
सब मशवरा करने लगे किसका शिकार है॥
ख़ुद की प्रगति में राष्ट्र का उत्थान देखता।
उस आदमी में आजकल कितना निखार है॥
बस कील व काँटे को नोचने में लगा है।
वो आदमी भी नाव में ख़ुद जो सवार है॥
सारी ज़रूरतें हों राजकोष से पूरी।
दौलत उसी के पास आज बेशुमार है॥
कहते हैं तक़ाज़ा इसे कुछ लोग वक़्त का।
कन्धें पे घुड़सवार के घोड़ा सवार है॥
चाहा बहुत कि आँख, कान बन्द मुख़ रहे।
सुननी पड़ी हमें जो समय की पुकार है॥
हर शख़्स बेसबब यहाँ ‘‘व्याकुल'' बना हुआ।
जिस सम्त नज़र डालिये लम्बी क़तार है॥
पानी में आग
पानी में आग
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15
डोली के लूटने में कहारों का हाथ है।
कलियों के टूटने में बहारों का हाथ है॥
भगदड़ के लिए बेक़सूर रेश के घोड़े।
ढ़ीली हुई लगाम सवारों का हाथ है॥
गिरते रहे कट-कट के क़दर भूल के अपनी।
इस रेत के टीले में किनारों का हाथ है॥
आशिक़ फ़रेब खा रहे, गिन-गिन के रात भर।
इस हादिसे में चाँद-सितारों का हाथ है॥
दिलवर की हर अदा पे फि़दा इस तरह हुए।
बरबादियों में उनके इशारों का हाथ है॥
कल पालकी चढ़ी वही अर्थी पे आज है।
लालच के तमाशे में कुँवारों का हाथ है॥
यूँ ही नहीं खड़े हैं भरी बज़्म में नंगे।
इसमें मेरे लँगोटिया यारों का हाथ है॥
घर,गाँव,देश, विश्व में आतंक के पीछे।
बेरोज़गार लम्बी क़तारों का हाथ हैै॥
दुश्मन हो दानेदार तो फिर पूछना ही क्या।
‘‘व्याकुल'' बुरे फँसे हैं गँवारों का हाथ है॥
पाते ही ख़बर मीत मुलाक़ात करोगे।
लब से न सही, नज़र भर के बात करोगे॥
रूह में उतर जायेगी जो चन्दा की चाँदनी।
तारों से बात तुम तमाम रात करोगे॥
दीदार को उमड़ रहा सैलाब भीड़ का।
चिलमन उठाके बज़्म मेें उत्पात करोगे॥
तुम बेमिसाल प्यार की मिसाल के लिये।
सब आशिक़ों की हर अदा को मात करोगे॥
चाहत में मेरे दिन को तुम बनाके मुहर्रम।
हर रात को अपनी शब-ए-बरात करोगे॥
गर मार भी डालोगे मुझे इश्क़ में सनम।
आसाँ मेरी हर एक मुश्किलात करोगे॥
बेदर्द हो ज़ालिम हो, बेवफ़ा भी हो मगर।
आता नहीं यक़ीन कभी घात करोगे॥
उमड़ेगा रगों में मेरी सैलाब प्यार का।
होटों से जो गीतों भरी बरसात करोगे॥
सब लोग तुम्हें देखने के वास्ते ‘‘व्याकुल''।
हो जायेंगे, कुछ ऐसी करामात करोगे॥
पानी में आग
पानी में आग
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कुछ चिडि़यों के पर ख़तरे में।
इन्सानों के घर ख़तरे में॥
पर्यावरण प्रदूषित हो तो।
धरती क्या अम्बर ख़तरे में॥
खल, अत्याचारी के आगे।
झुका अगर तो, सर ख़तरे में॥
उसको क्या, श्रृंगार सुहाये।
जिस दुल्हन का, वर ख़तरे में॥
आविष्कार, क्लोन मानव का।
जग के नारी-नर ख़तरे में॥
औरों को ख़तरों में डालें।
ख़ुद अपने को, कर ख़तरे में॥
अक्सर ही पायी जाती है।
लापरवाही, हर ख़तरे में॥
बने खिलाड़ी जो ख़तरों के।
वो भी, जाते मर ख़तरे में॥
अच्छे-अच्छों को देखा है।
रोते, आहें भर ख़तरे में॥
सबको अपनी-अपनी सूझे।
लेता कौन, ख़बर ख़तरे में॥
तब ‘‘व्याकुल'' की पीड़ा जाने।
पड़े जो कोई गर, ख़तरे में॥
हम आज रात भर तेरे चमन में रहेंगे।
उड़ते हुए पंछी, खुले गगन में रहेंगे॥
होके ज़ुदा चले भी गये दूर कभी हम।
ख़ुशबू की तरह देखना सुमन में रहेंगे॥
जब भी तुम्हें, सतायेंगी यादों की गर्मियाँ।
राहत के लिये डोलती पवन में रहेंगे॥
मुमकिन है कि साँसें भी तेरा साथ छोड़ दें।
हम पंचतत्व सा, तुम्हारे तन में रहेंगे॥
देखा जो तूने प्यार से ये क्या हुआ मुझे।
ताजि़न्दगी क्या, अश्क ही नयन में रहेंगे॥
जो भी मरे-जीयेंगे वतन के लिये सदा।
मरणोपरान्त, तिरंगे-कफ़न में रहेंगे॥
कट जाय फ़क़ीरी में भले ही ये जि़न्दगी।
उम्दा ख़याल सिर्फ़ मेरे फ़न में रहेंगे॥
‘‘व्याकुल'' का भरी बज़्म में ये वायदा रहा।
बन कर के एक जान दो बदन में रहेंगे॥
पानी में आग
पानी में आग
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लगने लगे हर चीज़ सुहानी बसन्त में।
हर शै पे मेहरबान जवानी बसन्त में॥
खै़रात बाँटता फिरे दिल खोलके मौसम।
सारी प्रकृति लगे महादानी बसन्त में॥
श्रृंगार की चपेट में देखी गयीं सभी।
लौंड़ी हो या कोई महारानी बसन्त में॥
ऐसा लगे कि दिल पे कोई वश नहीं रहा।
ताज़ा हुई जो याद पुरानी बसन्त में॥
मौसम तो कई आये-गये, वो नहीं आये।
जिनके लिए है आँख में पानी बसन्त में॥
वर्षान्तक दिमाग़ न क़ाबू में रहेगा।
जिसने लगी दिल की नहीं जानी बसन्त में॥
क़ुदरत की ये सौग़ात जिसे रास न आये।
क़ीमत उसे पड़ेगी चुकानी बसन्त में॥
खुद को निहार के भी नहीं, मन भरे कभी।
दरपन से कठिन, नज़र हटानी बसन्त में॥
कुछ सोचिए फिर सामने ज़बान खोलिए।
‘‘व्याकुल'' व्यथा किसे है सुनानी बसन्त में॥
रंग-रूप तो पुरूष सरीखे किन्तु नपुंसक हैं।
बाँध के पट्टी आँख पे चलने वाले अहमक़ हैं॥
प्रतिरोधक क्षमता में उनकी वृद्धि हुई इतनी।
स्वर्ण मुकुट से महज़ चिपकते ऐसे चुम्बक हैं॥
वादे जड़ से अन्धकार को करें मिटाने का।
बाती-तेल की सौदेबाज़ी ऐसे दीपक हैं॥
सर बलन्द कर जीने का हक़ हमको क्या देंगे।
सिफ़र् एक माया के चलते सब नतमस्तक हैं॥
किये जाप बदले में जिसके माथे ताज बँधा।
नाम उसी का भूल गये, कैसे आराधक हैं॥
दोष पड़ोसी के सिर मढ़ना मिथ्या कमज़ोरी।
स्वयं प्रगति में पग-पग पर अपनी हम बाधक हैं॥
छींटा देख किसी के उपर हंगामा करते।
जिसमें हम सब ख़ुद ही डूबे नख से शिख तक हैं॥
ख़ाक मिलेगा शहद, खोखला करके दम लेंगे।
मधुमक्खी के भ्रम में पाला, पर सब दीमक हैं॥
एक तमाशा हर तमाशबीं, देखे अलग-अलग।
रंग-बिरंगी इन सबकी आँखों पे ऐनक हैं॥
तन से मानव किन्तु, कर्म बदतर शैतानों से।
‘‘व्याकुल'' कुछ तो मानवीय मूल्यों के मानक हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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कुछ ताल-मेल का महज़ अभ्यास कीजिए।
काया ही पलट जायेगी विश्वास कीजिए॥
एस․पी․ व कलक्टर का ख़ाब छोडि़ए जनाब।
पी․एच-डी․ कर चुके हों तो अब घास कीजिए॥
कुछ भी नहीं दीनों के मसीहा तो बनोगेे।
नेताजी व गाँधीजी का उपहास कीजिए॥
गर गाँव में रहते हैं तो बन जाइए प्रधान।
अनुदान की रक़म का सत्यानाश कीजिए॥
लड़कर चुनाव हार गये हों तो फ़क़र् क्या।
जो जीत गया उसका पर्दाफाश कीजिए॥
नेताओं पे कोई भी न उगली उठा सके।
बहुमत से एक ऐसा भी बिल पास कीजिए॥
कड़की में पले कवि कबीर, तुलसी, निराला।
मजबूरियों का मेरी भी एहसास कीजिए॥
‘‘व्याकुल'' हो ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए।
तो आज से काव्यात्मक बकवास कीजिए॥
सिन्धु की गहराइयाँ बन जाइये।
व्योम की ऊँचाइयाँ बन जाइये॥
साथ देने का इरादा है अगर।
आइये परछाइयाँ बन जाइये॥
मीर ग़ालिब सी हमें शोहरत मिले।
ग़ज़ल या रूबाइयाँ बन जाइये॥
होश तितली की तरह उड़ता फिरे।
फागुनी अमराइयाँ बन जाइये॥
यार-दुश्मन सब फि़दा हों आप पर।
इस क़दर कुछ काइयाँ बन जाइये॥
दर्द कहते हैं किसे अहसास हो।
पाँव की बीवाइयाँ बन जाइये॥
मीत आँखों में घटा घिरने लगीं।
सावनी पुरवाइयाँ बन जाइये॥
नाम लेकर विष भी मीरा पी सके।
कृष्ण ‘‘व्याकुल'' साइयाँ बन जाइये॥
पानी में आग
पानी में आग
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साक़ी कहे शराबी चेहरा।
भौंरा कहे गुलाबी चेहरा॥
जितने आशिक़ उतनी बातें।
शायर कहे किताबी चेहरा॥
मन पे करने लगे हुकूमत।
देखे कोई नवाबी चेहरा॥
लाख़ों नज़रों के सवाल का।
हँसता एक जवाबी चेहरा ॥
जन्नत की हूरों में ऐसा।
है कोई नायाबी चेहरा॥
धड़कन-धड़कन पर क़ाबू है।
सबके दिल की चाबी चेहरा॥
देख के जलने वाले कहते।
ख़तरनाक तेजा़बी चेहरा॥
बेमिसाल एकता झलकती।
बंगाली, पंजाबी चेहरा॥
सबको सम्मोहित कर लेता।
देखे जो मायावी चेहरा॥
एक झलक को ‘‘व्याकुल'' चातक।
नित ढूँढ़े माहताबी चेहरा॥
तंगी में हँसकर जीने की आदत जब हमने डाली।
समाधान बन गयी समस्याओं की, मेरी कंगाली॥
अगर सार्थक जीवन जीने की है मन में अभिलाषा।
कुछ भी करते रहो मगर, पलभर भी मत बैठो ख़ाली॥
चश्मदीद है सोने की चिडि़या जो बन्दरबाँट मची।
बाग़ीचा तो उजड़ रहा, आबाद हो रहे कुछ माली॥
मुर्दे-मैकश, पावक-हाला, स्मशान सी मधुशाला।
साक़ी बन बैठे जो वंशज, बज्र निठल्ले थे ख़ाली॥
हम किसान ये बिचौलिये फल, अन्न, दूध निर्यात करें।
मुख़ मुरझाये हुए हमारे, इनके चेहरे पर लाली॥
धूल-धूसरित बाहर से हम अन्दर से नितान्त धवल।
साफ़-सफ़ेद दिखें वो हरदम,जिनकी करतूतें काली॥
सुनने लायक बात हुई है, तब करतल ध्वनि गूँज रही।
कुछ सुविज्ञ श्रोताओं की कुछ यूँ ही नहीं बजी ताली॥
प्रसव-वेदना से ग़ैरों की बाझ होय कित मर्माहत।
जन कल्याण हेतु ‘‘व्याकुल'' हैं, बच्चे हैं ना घरवाली॥
पानी में आग
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पानी में आग
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बोझ धरती के न सीने पे बढ़ाना यारो।
वक़्त अब कम है ज़रा होश में आना यारो।
जंगली आग की मानिन्द बढ़ी आबादी।
लपट घरों पे न आ जाय, बुझाना यारो॥
आँख रहतेे हुए जिनको न दिखायी देता।
उन भटकते हुए लोगों को सुझाना यारों॥
एक अर्से से है तूफ़ान में फँसी कश्ती।
मत इसे और रसातल में धँसाना यारों।
नज़र में लक्ष्य लिए पाँव निकालो घर से।
जानवर की तरह बेकार न धाना यारो॥
प्यार की टीस-जलन कुछ ज़रूर कम होगी।
किसी की याद में आँसू से नहाना यारो॥
उसी के रंग में ढ़ल करके कुछ कमाल करो।
जब किसी पर हो कभी रंग ज़माना यारो॥
देख लेना ज़रूर आईने में अपने को।
किसी को दाग़ जो, चेहरे के दिखाना यारो॥
बड़ा सुकून मिलेगा तेरे ‘‘व्याकुल'' मन को।
एक रोते हुए इन्साँ को हँसाना यारो॥
जान से बढ़कर हमें अपना वतन प्यारा लगे।
मुल्क का हर देशवासी आँख का तारा लगे॥
दीन-दुखियों के पसीने, आँसुओं की बूँद भी।
दिल की धमनी से निकलती रक्त की धारा लगे॥
मंदिरो-मस्जिद में जब तक रौशनी होती नहीं।
जगमगाता घर-शहर भी घुप्प अँधियारा लगे॥
पाँव सत्पथ से अगर विचलित न हो इन्सान के।
क्या वजह कि आदमी असहाय बेचारा लगे॥
ईश्वर हमको अगर दे शक्ति तो तहज़ीब दे।
हम उसे आराम दें जो भी थका-हारा लगे॥
झील का वातावरण अच्छा नहीं है आजकल।
हर बड़ी मछली यहाँ छोटी को मछुआरा लगे॥
नाम ही लेता नहीं कुछ पल ठहरने का कहीं।
आज ‘‘व्याकुल'' मन भटकता एक बंजारा लगे॥
पानी में आग
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पानी में आग
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लगता है ये एहसान जताते ही रहेंगे।
ख़ामोश हम रहे तो सताते ही रहेंगे॥
बन जाय ना ये जि़न्दगी जीते जी जहन्नुम।
जन्नत के ख़्वाब रोज़ दिखाते ही रहेंगे॥
हुलिया बिगाड़ने पे तुले हैं ये हमारी।
बातों के धनी बात बनाते ही रहेंगे॥
फूलों की सेज के ये सब्जबाग़ दिखाके।
ख़न्जर जिगर में नित्य चुभाते ही रहेंगे।
जब तक न लूट लें ये कारवाँ बहार का।
झूठी सही, मुसकान लुटाते ही रहेंगे॥
ये कोसते रहेंगे भगीरथ को सर्वदा।
फिर शौक से गंगा में नहाते भी रहेंगे॥
चुपके से राहबर का गला रेतने के बाद।
इल्ज़ाम हमसफर पे लगाते ही रहेंगे॥
इस जि़न्दगी की आखि़री धड़कन की क़सम है।
‘‘व्याकुल'' जहाँ में अलख जगाते ही रहेंगे॥
जो अपनी सरज़मीं का एहतराम करेगा।
उस देशभक्त को जहाँ सलाम करेगा॥
तक़लीफ़ से घबरा के जो छोड़े न रास्ता।
मंजि़ल पे पहुँच कर वही आराम करेगा॥
गिर जायेगा कभी न कभी ख़ुद की नज़र में।
नाहक़ जो किसी और को बदनाम करेगा॥
बेशक कभी लग जायेगी उसकी भी दाव पर।
जो ग़ैर की इज़्ज़त अगर नीलाम करेगा॥
उसका नहीं मिलेगा कोई शुभाकांक्षी।
नीयत जो दूसरों पे सदा ख़ाम करेगा॥
अपने ईमान-फ़र्ज़ को तुम भूल गये तो।
कब तक तुम्हारी चौकसी इमाम करेगा॥
कटने लगीं सैलून में ख़ातून की ज़ुल्फ़ें।
इस लाम की तारीफ़ क्या इस्लाम करेगा॥
लिखा है किताबों में, जिसका कोई नहीं।
उसका तो ख़ुदा सारा इन्तज़ाम करेगा॥
‘‘व्याकुल'' किये का फल तुझे चखना है लाजि़मी।
चाहे हज़ार हज व चारो धाम करेगा॥
पानी में आग
पानी में आग
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इस क़दर भी क्या कोई मजबूर है।
आज परछाई भी मुझसे दूर है॥
कर गयी मेरी जहन्नुम जि़न्दगी।
बेवफ़ा जन्नत की कैसी हूर है॥
लोग मेहमाँ से भी करते हैं दग़ा।
बज़्म का तेरे भला दस्तूर है॥
ख़ूब जी भरकर सितम कर लीजिए।
आपका कुछ भी हमें मंजूर है॥
कल तलक था भूख़ से बेसुध वही।
आज दौलत के नशे में चूर है॥
नाम तक लेता नहीं उसका कोई।
शहर में वह इस क़दर मशहूर है॥
अब किधर जायें, क़दम उठते नहीं।
हर तरफ़ दिखता कोई तैमूर है॥
सूख जायेगी तू किशमिश की तरह।
आज कैसी रस भरी अंगूर है॥
इक जगह या कुछ जगह हो तो कहूँ।
थूकता है चाँद पर वो आजकल।
मुख़ भी धोने का जिसे न सऊर है॥
कान, मुख़ व आँख तीनों हैं खुले।
राष्ट्रपितु ‘‘व्याकुल'' तेरा लंगूर है॥
यदा-कदा सूरज-चन्दा को राहु-केतु ग्रस लेते हैं।
गदहे भी चरते गुलाब, बन्दर अदरक रस लेते हैं॥
जग में धोकेबाज़ों के छल का शिकार नहिं कौन बना।
कभी चतुर जौहरियों को भी ठगहारे झँस लेते हैं॥
नागों का तो डसने का मौलिक स्वभाव ही है, लेकिन।
अब तो बेचारे नागों को इन्साँ ही डस लेते हैं॥
अनुज, ज्येष्ठ भ्राताओं के दाँयें आसीन नहीं होते।
बेटा-बाप साथ ह्वीस्की-सिगरेटों के कश लेते हैं॥
चन्दा जो अक्सर करते रहते हैं मन्दिर-मस्जिद का।
अपनी एक नहीं देते जो औरों से दस लेते हैं॥
माना कि उत्थान पतन है शाश्वत और चिरंतन पर।
मानव के दुगुर्ण ही उसका धन-वैभव-यश लेते हैं॥
देख हमारी हाल, रूआसे हो जाते दुश्मन मेरे।
कभी-कभी हम इसी धैर्य के बलबूते हँस लेते हैं॥
साथ प्रकृति के छेड़-छाड़ करता रहता ‘‘व्याकुल'' मानव।
अक्सर आफ़त मोल आजकल हम सब बरबस लेते हैं॥
लग रहा हर रोम ही नासूर है॥
पानी में आग
पानी में आग
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कुछ काँटो की भी खि़दमत की, फूलों की अभिलाषा में।
शायद वो ये समझ रहे हों, हम हैं उनके झाँसा में॥
पानी-आग आजकल दोनो, चलते गलबहियाँ डाले।
कितनी तब्दीली आयी है, चाहत की परिभाषा में॥
धातु-प्रेम ही बरबादी का सबब बनेगा पता न था।
तालमेल हो गया है क़ायम, जमकर सोने-काँसा में॥
अलंकार-व्याकरण युक्त भी झूठ, झूठ ही है रहता।
रहे सत्य तो सत्य भले हो टूटी-फूटी भाषा में॥
लोभी बड़े-बुज़ुर्ग आजकल कट्टी-मिल्ली यूँ करते।
नन्हा बच्चा जो कुछ अक्सर करता खेल-तमाशा में॥
हत्या कर डालूँ ज़मीर की पुरस्कार, धन की ख़ातिर।
बन्दा नहीं चिपकने वाला इस मामूली लासा में॥
जलने का संकल्प ले लिया तो बस जलना ही होगा।
अन्धेरे को मिटा प्रकाशित जग करने की आशा में॥
मज़ा और ही है कुछ अपना संघषोंर् में जीने का।
‘‘व्याकुल'' किरणें बन निकलेंगे हम घनघोर कुहासा में॥
क्या मज़ाल कि सरहद पर मनमानी हो।
जब तक जि़न्दा एक भी हिन्दुस्तानी हो॥
चला जाय चुपचाप द्रास,करगिल से वो।
ज़रा भी जिसमें इज़्ज़त हो कुछ पानी हो॥
बाल न बाँका होगा मेरे भारत का।
चाहे कोई कैसा भी सैलानी हो॥
हाथ तिरंगा बन्देमातरम् होटों पर।
रणचण्डी सा पौरूष, चुनर धानी हो॥
कहाँ तलक है सीमा मेरे भारत की।
देखे कोई गर तसवीर पुरानी हो॥
शूरवीर लौटें या उनका शव आये।
खुले हृदय से स्वागत् हो, अगवानी हो॥
हो पटेल सा दिल, दिमाग़ गाँधी जैसा।
भारत में उस शख़्स की अब सुल्तानी हो॥
कुछ सुहाग कुछ माँ के दूध की पूजा हो।
जब शहीद की अर्थी कभी उठानी हो॥
मातृभूमि पर शीश चढ़ाया है हमने।
दूध की क़ीमत जब भी पड़ी चुकानी हो॥
राजनीति का द्यूत भले ही हो निश दिन।
देश की इज़्ज़त से कैसी नादानी हो॥
पीठ पे नहीं, सीने पर हमला करना।
गर ‘‘व्याकुल'' की शक्ति कभी अज़मानी हो॥
पानी में आग
पानी में आग
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दुनियाँ भले कहती है मुझे यार आपका।
बन्दा तो बस ग़ुलाम है, सरकार आपका॥
मरने के लिए लाख़ बहाने हैं जहाँ में।
जीने का सहारा है महज़ प्यार आपका॥
देखा तो है मैंने कई दरबार आज तक।
पर सबसे अनूठा लगा दरबार आपका॥
शायर समझ के जान बख़्श दी गई मेरी।
सिज़दा जो कर रहा था बार-बार आपका॥
बस एक झलक ही सही, दीदार तो हुआ।
है शुक्रिया सनम, हज़ार बार आपका॥
कल तक मेरी ग़ज़ल पे रहा आपका असर।
दिल पर भी आज हो गया अधिकार आपका॥
कल-आज में ज़मीन-आसमाँ का फ़क़र् है।
कितना बदल चुका है अब व्यवहार आपका॥
‘‘व्याकुल'' तो फ़क़त, एक गुज़ारिश करे यही।
होता रहे यूँ ही सदा दीदार आपका॥
तितली गुलों को नोच रही चील की तरह।
चुभती है, कलेजे में, फँसी कील की तरह॥
पथरा गयी पठार सी, नफ़रत से ये नज़र।
जो प्यार से भरी थी कभी झील की तरह॥
तुझको तो मिली रौशनी, ये हस्र हमारा।
नामोनिशाँ नहीं रहा, क़ंदील की तरह॥
अन्दर से ये कमबख़्त तो खा़रों को मात दे।
उपर से महज़ है गुले-जमील की तरह॥
उसने किया सलूक जो, दुश्मन न कर सके।
मेरी नज़र में जो रहा ख़लील की तरह॥
कोई भी चश्मदीद नहीं कत्ल का मिला।
क़ातिल ने शक की बात की वकील की तरह॥
लगता है इसे बाचने बाला मुझे ईसा।
रक्खे जो इस किताब को इंजील की तरह॥
फैशनपरस्त शान से कपड़े उतार कर।
गलियों मेें घूमते हैं कोल-भील की तरह॥
पाषाण शिलायें भी नहीं जल में डूबतीं।
छूने का हुनर चाहिए नल-नील की तरह॥
गुज़रेगा क़लमकार जभी राहे-ग़ज़ल से।
‘‘व्याकुल'' खड़े मिलेंगे संगे-मील की तरह॥
पानी में आग
पानी में आग
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आइये आज ही ऐसी, क़सम लिया जाये।
देश के वास्ते भी,कुछ न कुछ किया जाये॥
ले सकें लोग सबक, जि़न्दगी से जीने की।
जिया भी जाये तो कुछ इस तरह जिया जाये॥
चैन की साँस तो कुछ ले सकें जहाँ वाले।
स्वार्थ तो कालकूट है, इसे पिया जाये॥
ज़फ़र् है ही नहीं मैकश में ज़रा सा बाक़ी।
झूठ साक़ी पे ही इल्ज़ाम क्यूँ दिया जाये॥
दिल तो शीशे से भी नाज़्ाुक है चीज़ इन्साँ का।
ज़रा सी चूक से, ये टूट ना हिया जाये॥
उधड़ रही है अहिंसा की सिलाई बापू।
आइये एक बार फिर इसे सिया जाये॥
मैकशों आज पियो ख़ूब, मगर ध्यान रहे।
लड़खड़ाते हुए महफि़ल से साकि़या जाये॥
सुनके ‘‘व्याकुल'' हों जिसे बज़्म में सुनने वाले।
वह ग़ज़ल जिसकी तहे-दिल में क़ाफि़या जाये॥
बरवक़्त अब शिकवा- गिला करना फ़़जू़ल है।
हर फ़ैसला हुज़्ाूर का हमको कबूल है॥
आशिक़ हूँ कोई आपका मुजरिम तो मैं नहीं।
अपनो से बेरूख़ी भला कैसा उसूल है॥
यूँ प्यार से न देख, कहीं प्यार हो न जाय।
नज़रोें की कुराफात हर बला की मूल है॥
दामन तुम्हारे सामने फैलाये खड़ा हूँ।
कर देना मुझे माफ़, मेरी पहली भूल है॥
बिल्कुल ही अनाड़ी हूँ मुहब्बत के खेल में।
अन्दाज़ तभी तो मेरा कुछ उल-जलूल है॥
जो जान छिड़कते कभी, ले लेते वही जाँ।
अदनी सी कोई बात, पकड़ती जो तूल है॥
इन्सान वो ज़रा भी फ़रिश्ते से कम नहीं।
जिसके हृदय में दूसरों के लिए शूल है॥
जिसकी तमाम उम्र मोहब्बत में कटी हो।
संसार की दौलत भी उसके लिए धूल है॥
जिसके लिए ‘‘व्याकुल'' है ये संसार समूचा।
वह प्यार ही ईश्वर है, प्यार ही रसूल है॥
पानी में आग
पानी में आग
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हर आशिक़ की ही कुछ ऐसी राम कहानी है।
तनहाई में तारे गिनते रात बितानी है॥
दीवानों के दिल की हालत कैसे वो जाने।
जिस प्रेमी को प्यार की केवल रस्म निभानी है॥
कहाँ प्यार के अंकुर फूटें, तपते मरूथल में।
दिल का सारा कोना-कोना रेगिस्तानी है॥
अन्तर्मन में जलती ज्वाला प्रेमी की पूँजी।
होटों से सिसकी फूटे आँखों मेें पानी है॥
एक लक्ष्य ही होता है बस हर दीवाने का।
रेत पे बैठे पे्रमी की तसवीर बनानी है॥
माशूक़ा आशिक़ दोनो को ख़ूब पता होता।
दुनियाँ वालों से जो भी कुछ बात छिपानी है॥
इसकी ख़़ूबी वो ही जाने जिसपर आ जाये।
कु़दरत की अद्भुत नेमत, क्या ख़ूब जवानी है॥
प्यार किया जिसने भी उसका है बस ये कहना।
‘‘व्याकुल'' दिल में अपने हाथों आग लगानी है॥
चना-चबेना खाकर ख़ुद को पाल रहे।
वे काजू-बादाम, सोमरस, ढ़ाल रहे॥
कौड़ी देते बदले, मेरे पसीने के।
नर्तकियों पर, मोती-रत्न उछाल रहे॥
चढ़े बुराई की चोटी पर ख़ुद जो वे।
औरों में ही कमियाँ, ढूँढ़ निकाल रहे॥
मेरे दामन पर कुछ, छींटे देख हँसे।
जिनके दोनो हाथ, रक्त से लाल रहे॥
बना घोंसला, रैनबसेरा है जिस पर।
मम् तरूवर की, हरी-भरी वह डाल रहे॥
सबसे ज़्यादा सुखी आज वो है जिसका।
सगा पड़ोसी, गर निर्धन-कंगाल रहे॥
लुटे, लाँघकर लक्ष्मण रेखा पलकों की।
जो आँसू आँखों में सालों-साल रहे॥
जन्नत जैसे काश्मीर को छोड़ भला।
कब कोई चाहे, मणिपुर- इम्फाल रहे॥
हे दुनियाँ के मालिक, ‘‘व्याकुल'' जन-जन की।
क्षुधा तृप्ति का साधन, रोटी-दाल रहे॥
पानी में आग
पानी में आग
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पर्वत से गिरकर उठना तो है मुमकिन।
पर नज़रों से गिरकर उठना नामुमकिन॥
जो करते हैं अक्सर बातें तिकड़म की।
दुनियाँ करती है, ऐसे लोगों से घिन।
राहु-केतु ही जब होंगे, महिमामण्डित।
रातों से भी ज़्यादे काले होंगे दिन॥
अगर आपकी कड़वी बातें सुन ले तो।
कर लेगी ख़ुदकुशी, विषैली भी नागिन॥
मत देखो तुम मुझको ऐसी नज़रों से।
रोम-रोम में चुभ जाता है जैसे पिन॥
दोनों में जब मछली-पानी का रिश्ता।
मेरा जीना भी क्या जीना, तेरे बिन॥
कल तक था मुठ्ठी में जिसकी चाँद वही।
काट रहा है रात, आजकल तारे गिन॥
मानवीय मूल्यों का उसमें सार छिपा।
बड़े-बुज़्ाुर्ग हमारे जो भी बात कहिन॥
हिन्दुस्तानी राखी-धागों में बँधकर।
आजीवन बनकर रहते हैं भाय-बहिन॥
क़ायल होगा ही जग उसकी ज्वाला का।
‘‘व्याकुल'' जिसमें होगी, उर्जावान अगिन॥
तिमिर घना है, हमें दीप जलाना होगा।
ज्योति की दाव पर है लाज, बचाना होगा॥
नींद इसकी कहीं हिस्सा तो नहीं साजि़श का।
ऊँघते घर के पहरूवे को जगाना होगा॥
नज़ीर लीजिए, जीवन से राम-ईसा के।
जि़न्दगी लौह का चना है, चबाना होगा॥
तब ग़रीबों की विवशता समझ में आयेगी।
जब तुम्हें अपनी भूख़-प्यास दबाना होगा॥
ज़मीर किस तरह मरता है जान जाओगे।
नीच के सामने जब शीश झुकाना होगा॥
कारगर युक्ति आक्रमण भी है सुरक्षा की।
शिविर में शत्रु के कोहराम मचाना होगा॥
आज हम कर रहे मामूली समझ अनदेखी।
जान लेगा यही, जब मरज़ पुराना होगा॥
क्या पता आज जो, देगा सुहाग की चीज़ें।
बिना दहेज के कल कफ़न मँगाना होगा॥
भले ही आज हैं उँगली पे हम ज़माने की।
देखना कल मेरी मुठ्ठी में ज़माना होगा॥
लिए हुए हैं धनुष-तीर सभी हाथों में।
एक ‘‘व्याकुल'' ही यहाँ सिफ़र् निशाना होगा॥
पानी में आग
पानी में आग
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सागर से जब बूँद बग़ावत करके विगुल बजा देगी।
महासिन्धु को भी दुनियाँ, प्रतिवादी का दरजा देगी॥
दुश्मन को छोटा कहने की, भूल कभी होगी जिनसे।
उनकी छोटी भूल वक़्त पर सबसे बड़ी सज़ा देगी॥
नामुमकिन होगा उठना, जो गिर जायेंगे नज़रों से।
अपनी ही करतूत स्वयं को, महफि़ल बीच लजा देगी॥
अभी से सच्चाई के पथ पर चलने का अभ्यास करो।
आगे चलकर आजीवन, यह आदत बहुत मज़ा देगी॥
अपने अन्दर गाँधी, नेहरू, शास्त्री को पैदा तो कर।
देश की जनता, हाथ तुम्हारे पकड़ा राष्ट्रध्वजा देगी॥
भगत सिंह, आज़ाद, राजगुरु, विस्मिल या अशफाक़ बनो।
साथ तुम्हारा भारतवासी की हर एक भुजा देगी॥
नष्ट नहीं होने देेता है, शब्दों को ब्रम्ह्माण्ड कभी।
जग में कल पैग़ाम हमारा घर-घर घूम फिज़ा देगी॥
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई ‘‘व्याकुल'' आज शपथ सब लो।
शंखनाद मन्दिर में, मस्जिद पाँचो वक़्त अज़ा देगी॥
बरवक़्त मेरे मुफ़लिसी के दिन हैं ताड़कर।
साथी भी दर किनार हुए पल्लू झाड़कर॥
क़मज़ोरियाँ जिसकी कभी मैंने छुपा लिया।
उसने ही मेरी रख दिया बखि़या उधाड़कर॥
टुकड़ा ही महज़ हाथ लगा, शान्त हो गये।
जो रात-दिन चिल्ला रहे थे, गला फाड़कर॥
जो फूल उगा झील में, जलकुम्भी हो गया।
अब फेंक दो फ़ौरन इसे, जड़ से उखाड़कर॥
पौरुष का बयाँ कर रहे हैं, अपनी ज़बाँ से।
मृगराज को गीदड़ कहे, मारा पछाड़कर॥
बेमेल हैं, जर्जर हैं ये पुर्जे सभी ढ़ीले।
कब तक चलेगी यह शकट, युक्ती-जुगाड़कर॥
जाओगे कहाँ, अनसुनी तुम करके हमारी।
कोहराम मचा देंगे हर तरफ़ चिग्घाड़कर॥
क़ाबिज हैं जो चमन पे बहारों की आड़ में।
कमबख़्त ये रख देंगे, गुलिस्ताँ उजाड़कर॥
चेहरे से मेरे नूर बरसता रहा कभी।
चाहत ने तेरी रख दिया, हुलिया बिगाड़कर॥
‘‘व्याकुल'' है शख़्स झट मिले तमगा शहीद का।
ख़ुद हाथ से अपनी क़बक में लाश गाड़कर॥
पानी में आग
पानी में आग
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पेड़ों से, शाखों का लड़ना।
शोलों से, राखों का लड़ना॥
आपस में ही अब ये हालत।
चेहरे से, आँखों का लड़ना॥
आसमान भी हैरत में है।
पक्षी से पाँखों का लड़ना॥
दहशत में है छत बेचारा।
दीवारों-ताखों का लड़ना॥
लगते थे जो पूरे सुम्हण।
ये देखो, घाँखों का लड़ना॥
यह भी कैसी युद्धनीति है।
एक साथ लाख़ों का लड़ना॥
पानी भी हैरानी में है।
कश्ती-सूराखों का लड़ना॥
कल देखेगी सारी दुनियाँ।
आग व पटाखों का लड़ना॥
‘‘व्याकुल'' करने को काफ़ी है।
ऊँगली नखनाखों का लड़ना॥
ये हस्र है मेरा, किसी के इन्तज़ार में।
पतझड़ से बुरा हाल हो गया बहार में॥
जि़न्दादिली की हम कभी, नज़ीर थे मगर।
बुत कह रहे हैं लोग अब खि़त्त्ाे-जवार में॥
इक फूल की सुगंध एक काँट की चुभन।
इतना ही फ़क़र् है महज़, नफ़रत में प्यार में॥
मजबूरियों का रो रहे, रोना दोऊ जने।
क्या फ़क़र् रहा आज शिकारी, शिकार में॥
इक सिर पे एक साये में एक दूसरे के हैं।
रिश्ता है कुछ अजीब सा छत व दीवार में॥
रोयें पे क्या मज़ाल कोई हाथ लगा दे।
जाता नहीं सत्त्ाू कभी इनका दरार में॥
दावा है मेरा, आपका सौन्दर्य देखकर।
जो सादगी में है, कहाँ सोलह श्रृंगार में॥
हर हाल में माशूक़ के आगे दिखाई दे।
आशिक़ खड़ा होता नहीं लम्बी क़तार में॥
चाहे रहें, रहें, न रहें, आप-हम मगर।
‘‘व्याकुल'' के नक़्शे-पा तो रहें कुएयार में॥
पानी में आग
पानी में आग
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जि़न्दगी का लुत्फ़, यूँ घुट-घुट के जीने में नहीं।
जो मज़ा साक़ी पिलाने में है, पीने में नहीं॥
क्या पता था, प्यार यूँ कंगाल कर देगा हमें।
लग रहा है दिल भी मेरा, मेरे सीने में नहीं॥
डूबने का डर जिसे फ़ौरन उतर जाये अभी।
कत्त्ाई बुज़दिल की इज़्ज़त इस सफ़ीने में नहीं॥
एक दिन तो लग ही जायेगा पता संसार को।
बू है तेरे ख़ून में, मेरे पसीने में नहीं॥
वो मुसलमाँ कत्तई, जन्नत की ख़्वाहिश छोड़ दे।
जो कभी सिज़दा किया, मक्का-मदीने में नहीं॥
आजकल कुछ यूँ चली है, आधुनिकता की हवा।
एक भी कपड़ा बदन का, है क़रीने में नहीं॥
चापलूसी, झूठ, छल, इर्ष्या, दग़ा, नितप्रति कपट।
ये अनूठी आदतें तो, दर कमीने में नहीं॥
चैत से ग्यारह महीने, छेड़खानी जुर्म है।
सिर्फ़ कुछ पाबंदियाँ, फागुन महीने में नहीं॥
पाँव सुख़र् अंगारों पर, हाथों में कुछ गुलदस्ते हैं।
ऐसी विकट परिस्थिति में, इक हम ही हैं जो हँसते हैं॥
भूमण्डल के ओर-छोर तक, उड़ते हैं बादल बनकर।
बूँद-बूँद हम संचित करते हैं, तब कहीं बरसते हैं॥
ख़रा उतरते सोने जैसे, जाँच-परख हो लाख़ मेरी।
हैरत उनको होती है, जो कसौटियों पे कसते हैंं।
बेहद हसीं मौत का मंज़र होगा, मेरा दावा है।
क़ातिल वही शख़्स होगा, हम दिल में जिसके बसते हैं॥
कुछ बहेलिए सुरसा जैसे ख़ुश हैं, मुख़ में फाँस लिए।
इक हम हैं जो, हनुमान सा जान-बूझकर घुसते हैं॥
उनका भी मुख़ को आ जाता देख कलेजा, यह मंज़र।
आँख मूँद कर मुझ पर जो भी लोग फब्तियाँ कसते हैं॥
नन्हें विद्यार्थी भी दीखें, ढ़ोते विद्या की अर्थी।
इनसे भी कुछ ज़्यादा वज़नी, इनकी पीठ पे बस्ते हैं॥
ज़हरीले नागों के काटे तो मर जाते हैं लेकिन।
मर-मर कर जीता है जब इन्सान किसी को डसते हैं॥
आत्मघातियों की लश्कर है खड़ी हमारे स्वागत् में।
सबके सब ‘‘व्याकुल'' होकर क्यूँ करने चले नमस्ते हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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तेज़ है शम्मा की लौ ज़ाहिर है अन्तिम दौर है।
गंध ग़ायब फूल से, मसला ये क़ाबिल ग़ौर है॥
हथकड़ी हाथों में मेरी, डाल ही दी आपने।
जानकर भी सत्यता, क़ातिल तो कोई और हैै॥
बस यहीं से है शुरू मंजि़ल की सरहद दोस्तों।
यह मेरे धीरज के अन्तिम, इम्तहाँ का ठौर है॥
जि़न्दगी, जि़न्दादिली कितनी अनूठी चीज़ है।
देख तरू की शाख को, टहनी पे जिसकी बौर है॥
यह झुकी गरदन हमारी कह रही है दास्ताँ।
ओट लेकर फूल की, काँटा बना सिरमौर है॥
जि़न्दगी भर कुल हमें, खाकर जो कुछ जीना पड़ा।
उससे कुछ ज्य़ादा बड़ा, कुत्त्ाे का उसके कौर है॥
ख़्वाहिशें तफ़सील से पूछा हमारी आपने।
प्यार करने का भला अच्छा तरीक़ा-तौर है॥
उड़ रहा आकाश में, छीना-झपटृा मारकर।
आजकल व्याकुल'' कबूतर बन गया चिल्हौर है॥
तेरी नज़र से, नज़र मिले।
बन्दा उड़े, जो पर मिले॥
दिल में जगह, जो आप दें।
रहने को मुझको, घर मिले॥
पलकों पे प्यासी, नज़र के।
अश्कों के कुछ, शहर मिले॥
वह नक़्शे-पा होगा मेरा।
जिसपर ज़फा का, सर मिले॥
क्या-क्या खिला, रहे हो गुल।
कुछ तो हमें भी, ख़बर मिले॥
अपमान की शंका जहाँ।
शायद वहीं आदर मिले॥
कुछ लोग तेरी बज़्म में।
औक़ात से बाहर मिले॥
व्याकुल'' हूँ मन, मन्थन से अब।
जो कुछ मेरे, अन्दर मिले॥
पानी में आग
पानी में आग
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सवालों की बस्ती में ठहरा हुआ हूँ।
निरूतर बना मूक, बहरा हुआ हूँ॥
हूँ ‘‘व्याकुल'' मैं इक फूल का जख़्म ऐसा।
हवाओं के झोकों से गहरा हुआ हूँ॥
कसा है कसौटी पे दुनियाँ ने हमको।
तपन झेलकर मैं सुनहरा हुआ हूँ॥
लगी रट महज़ पी कहाँ, पी कहाँ की।
तेरी जुस्तजू में पपिहरा हुआ हूँ॥
मुहब्बत अदावत, अदावत मुहब्बत।
तेरी इस अदा पे, मैं सिहरा हुआ हूँ॥
रगों में लहू बनके उतरा कहीं तब।
दिलों पे, ध्वजा बनके फहरा हुआ हूँ॥
निचोड़ा है मुझको मेरे परिजनों ने।
यूँ ही नहीं, मैं इकहरा हुआ हूँ॥
अहिल्या तरी धूल के जिन कणों से।
उन्हें ढूँढ़ने में मैं दुहरा हुआ हूँ॥
नेक इन्सान जो कुछ काम ग़ैर के आये।
एक तैराक़, जो साहिल पे तैर के आये॥
आज उड़ने की ख़बर सुख्रखयों में है उनकी।
जो परिन्दे, यहाँ कल बिना पैर के आये॥
माफ़ करना, अगर हो दर्द नर्म पाँवों में।
दिल मेरा आपके, नीचे जो पैर के आये॥
ये ख़ुदा, मुझको मेज़बाँ तू बना दे ऐसा।
घर पे बैरी भी मेरे, बिना बैर के आये॥
आत्मबल का है ख़जाना, जो रगों में उसकी।
फ़क़ीर सामने जो धनकुबेर के आये॥
बस गये सब कहीं, इस दिल के किसी कोने में।
सिर्फ़ नज़रों में वास्ते जो सैर के आये॥
वतन के वास्ते होवे शहीद, वह योद्धा।
या तो मुँह शत्रु की तोपों का फेर के आये॥
भाँपिये आप इरादों को हमारे कुछ तो।
गुफा में चलके, जो हम आज शेर के आये॥
प्यास ‘‘व्याकुल'' ज़मीं के जीव-जन्तु की कम हो।
जिस्म पर्वत का जो झरना दरेर के आये।
पानी में आग
पानी में आग
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लाज मेरी, लंगोटी तेरी।
भूख़ हमारी, रोटी तेरी॥
खेल निराला है किस्मत का।
चाल हमारी, गोटी तेरी॥
सहने का अभ्यस्त हो गया।
मेरा बदन, चिकोटी तेरी॥
मुख़ तो इतना बड़ा तुम्हारा।
बातें कितनी छोटी तेरी॥
पीते-पीते लहू हमारा।
खाल हो गयी मोटी तेरी॥
नज़र तुम्हारी बतलाती है।
नीयत कितनी खोटी तेरी॥
मुझे ख़ूब औकात पता है।
कितनी लम्बी पोटी तेरी॥
बन्द कराकर ही दम लेंगे।
अब हम कफ़न-खसोटी तेरी॥
जी में तो आता है ज़ालिम।
कर दूँ बोटी-बोटी तेरी॥
निश्चित कल रौंदेंगे ‘‘व्याकुल''।
पाँव हमारे, चोटी तेरी॥
तिमिर में चाँद-तारे आ गये हैं।
जि़न्दगी के सहारे आ गये हैं॥
मेरी मिन्नत पे रौनके महफि़ल।
दिलो-जाँ से भी प्यारे आ गये हैं॥
आज शायद ख़ुशी से भर जाये।
हम भी दामन पसारे आ गये हैं॥
जो भी तब्दीलियाँ हुई मुझमें।
कुछ जो नख़रे तुम्हारे आ गये हैं॥
बला का नूर इनके चेहरे पे।
रंग क़ुदरत के सारे आ गये हैं॥
आपके प्यार में जो हम डूबे।
ख़ुद-ब-ख़ुद ही किनारे आ गये हैं।
क्या पढ़ें हम किताब चेहरे की।
रुख़ पे पर्दा वो डारे आ गये हैं॥
दिल हुआ जा रहा मेरा ‘‘व्याकुल''।
कुछ चहेते हमारे आ गये हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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हिंसा में बच्चा भी कहे महारत है।
क्या? यह गाँधी के सपनों का भारत है॥
राजा-परजा दोनों में से क्या जानें।
किसमें से नैतिकता आज नदारद है॥
न्यायालय को बड़ा कहें कि गंगा को।
भ्रष्ट चरण का कीचड़ पुन्य पखारत है॥
क्या इलाज उसका, जिसको यह वहम् हुुआ।
पैसे की ताक़त हर, भूल सुधारत है॥
मौत से ज़्यादा, दुःखदायी क्षण होते हैं।
जब अपनो से अपना कोई, हारत है॥
पीड़ा तो पूरे शरीर में होती है।
एक रोम भी कोई अगर कबारत है॥
क़ुदरत ने दे रक्खा है, सबकुछ सबको।
अपनी किस्मत ख़ुद इन्सान सँवारत है॥
शिक्षा-दीक्षा में जिसकी निष्ठा होगी।
जीवन में आदर्श वही कुछ धारत है॥
जो लालच के वशीभूत होता अक्सर।
जीती बाज़ी भी वो अपनी हारत है॥
किसमें बूता है जो उसको डुबा सके।
औरों को जो नाविक पार उतारत है॥
मत पूछो मन कितना ‘‘व्याकुल'' होता है।
जब-जब कोई अपना मतलब गारत है॥
सोचकर सीने लगाओ, जिसके अन्दर दिल न हो।
मत करो विश्वास, जो विश्वास के क़ाबिल न हो॥
जि़न्दगी का लक्ष्य बस, चलना नहीं कुछ और है।
मत करो ऐसा सफ़र, जिसकी कोई मंजि़ल न हो॥
विश्व का इतिहास ही, इस बात का है साक्षी।
शूरमा भी वक़्त का मारा, बना बुज़दिल न हो॥
आदमी क्या?, जि़न्दगी में हर फ़रिश्ते के कभी।
आज तक ऐसा नहीं कि, एक भी मुश्किल न हो॥
लाश की मानिन्द सबके-सब यहाँ ख़ामोश हैं।
शक की गुन्जाइश कहाँ, इस बज़्म में क़ातिल न हो॥
आ रही कुछ-कुछ पसीने की हवा में अब महक।
हो नहीं सकता कि अब कुछ दूर पर साहिल न हो॥
घर के चूल्हे और चौके की ख़बर दुश्मन को है।
दुश्मनों में शक नहीं, घर का कोई शामिल न हो॥
किस तरह ख़ुद को बचाये कुछ बुरी नज़रों से वो।
गाल पर जिसके गुलाबी, एक काला तिल न हो॥
क्या हुआ मत पूछिये कब और कैसे चल गयी।
आपकी तीरे-नज़र ‘‘व्याकुल'' जिगर विस्मिल न हो।
पानी में आग
पानी में आग
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साँपों के दरमियान भी चन्दन बने रहो।
मिट्टी के बीच में दबे कुन्दन बने रहो॥
सीता का पता, बनके पवन-पुत्र लगाओ।
कुरूक्षेत्र बीच देवकी नन्दन बने रहो॥
आयेंगे लोग तोड़ने से बाज तो नहीं।
फिर भी अटूट प्यार का बन्धन बने रहो॥
हर शाम, भले ही तुम्हें नित अल्विदा कहे।
युग-युग के लिए प्रात का वन्दन बने रहो॥
धनवान का पर्याय है यदि आज लुटेरा।
होगा उचित यही कि तुम निर्धन बने रहो॥
जन-सेवियों के वास्ते हो कामधेनु तुम।
आजीविका का प्रश्न है साधन बने रहो॥
दीदार तो ज़रूर एक साल में होगा।
धरती की तमन्ना है कि सावन बने रहो॥
पद चिन्ह दिखायेंगे तेरे, जग को रास्ता।
‘‘व्याकुल'' हृदय की चाह है सज्जन बने रहो॥
हमें देखकर मुस्कुराये न होते।
तो कुछ लोग ऊँगली उठाये न होते॥
तुम्हारी नज़र में नशा गर न होता।
तो हम इस क़दर लड़खड़ाये न होते॥
हवायें जो ख़ुशबू की चुगली न करतीं।
भ्रमर आज गुलशन में आये न होते॥
नहीं प्यार होता तो दाँतों के नीचे।
दुपट्टे का कोना दबाये न होते॥
अगर इनसे नाज़्ाुक, जो होता न रिश्ता।
झलक तक मेरी आज पाये न होते॥
ज़माने की दौलत मेरे पास होती।
जो इज़्ज़त महज़ हम बचाये न होते॥
हसीनों का दिल इन्द्रधनुषी न होता।
तो मेंहदी महावर रचाये न होते॥
ख़ुदा घोर अन्याय महशर में होगा।
कटा देते सिर पर झुकाये न होते॥
तरन्नुम में ‘‘व्याकुल'' न ग़ज़लें सुनाता।
अगर चूडि़याँ वो बजाये न होते॥
पानी में आग
पानी में आग
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नदी तक में पानी के लाले पड़े हैं।
मुख़ों पर मछलियों के ताले पड़े हैं॥
न मारे न छोड़े, बड़ी दुर्दशा है।
हम ऐसे कसाई के पाले पड़े हैं॥
वो जिस दर पे झुकते थे लाख़ों ही सिर नित।
वहीं पर मकडि़यों के जाले पड़े है॥
बगूला भगत के करिश्मों के चलते।
ये हंसों के मुख़ स्याह काले पड़े हैं॥
पड़े आबरू के ही पीछे पड़ोसी।
फटे में मेरी टाँग डाले पडे़ हैं॥
शगूफ़ा नये छोडि़ए नित ख़ुशी से।
कमी क्या? अनगिनत मसाले पड़े हैं॥
तेरा कारवाँ उफ! अल्ला न पूछो।
सभी एक से एक, आले पड़े हैं॥
अंधेरे का साम्राज्य व्याकुल'' के घर में।
मुठ्ठी में तम् के उजाले पड़े हैं॥
पीछे-पीछे चलने वाले, चढ़ बैठे हैं छाती पर।
रखवाले ही हाथ साफ़, कर दिये हमारी थाती पर॥
हालत अब इतनी ख़राब कि बतलाना है नामुमकिन।
अन्धेरा जबरन क़ाबिज़ है, घर की दीपक-बाती पर॥
मुद्दत से ही एक बूँद के, इन्तज़ार में हैं प्यासे।
बस कहने को बैठे भर हैं, हम कूवें की दाँती पर॥
कर्ज़दार थे जिनके पूर्वज, सदियों पहले अगर कभी।
गाँज गिरी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी, उनके पोते-नाती पर॥
आँसू मेरे कर न सके तर तनिक दुपट्टा ज़ालिम का।
पानी का कुछ असर नहीं होता जैसे बरसाती पर॥
उनकी महफि़ल में, शराब के साथ क़बाब ज़रूरी है।
जिनकी नज़र लगी है, मेेरे चावल, दाल-चपाती पर॥
फ़ौरन बाद निकाह, अजी नौबत तलाक़ तक की आयी।
नाहक़ ही नाराज़ है दूल्हा, सहबाला-बाराती पर॥
हँसने लगा हाथ में लेकर, आँसू जिसे बहाना था।
‘‘व्याकुल'' दिल का दर्द लिखा था, रो-रो कर जिस पाती पर॥
पानी में आग
पानी में आग
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मानता हूँ, कि कुछ ख़्वाब झूठे रहे।
दिन मुहब्बत के, फिर भी अनूठे रहे॥
भूल पाना कठिन है, वो मंज़र हसीं।
हम मनाते रहें, आप रूठे रहे॥
आपके सामने कुछ थीं, मजबूरियाँ।
क़ैद से आज तक, हम जो छूटे रहे॥
पूछते हैं मिरे, दर्दे-दिल का सबब।
कारवाँ धड़कनों का, जो लूटे रहे॥
बन गये ख़ुद मरी मक्खियाँ दूध की।
हर जगह, ख़ूब खोवा जो कूटे रहे॥
था धनुर्ज्ञान ख़तरे में, गुरू दोण का।
एकलव्यों के जब तक, अंगूठे रहे॥
आप आये ये गुलशन महकने लगा।
था ये उजड़ा चमन, वृक्ष ठूठे रहे॥
हे! मेरे राम, कृत-कृत्य शबरी हुई।
मानते हैं कि सब बेर जूठे रहे॥
कुछ ज़्यादा ही ‘‘व्याकुल'' न होना पड़े।
इस क़दर हम जो आपस में फूटे रहें॥
ये मत देखो बीच हमारे दूरी कितनी है।
कुछ तो सोचो जानेमन! मजबूरी कितनी है॥
ख़ून-पसीना एक किया, दिन-रात नहीं देखा।
फिर भी मेरे हाथ लगी, मज़दूरी कितनी है॥
साज़-बाज, श्रृंगार देखकर मज़मूँ भाँप गये।
मुलाक़ात महफि़ल में आज ज़रूरी कितनी है॥
ख़तरनाक तो हैं, पर इनसे मुकाबला ही क्या।
पैनी आँखों के आगे, यह छूरी कितनी है॥
बावज़्ाूद सबकुछ के यह महसूस हुआ जानम।
तेरे बिनु यह महफि़ल आज अधूरी कितनी है॥
चमचागिरी, चाटुकारिता का प्रचलन ऐसा।
मुश्किल है अब कहना, हाय-हज़्ाूरी कितनी है॥
क्या? जो भी आते फ़रियादी पूछा है तू ने।
तेरे दर पे किसकी इच्छा पूरी कितनी है॥
‘‘व्याकुल'' नज़रें तेरा जलवा, हर शय में देखें।
नाम तुम्हारे, शाम आज की, नूरी कितनी है॥
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ख़ुशियों का अम्बार जगत में, मेरे हिस्से ग़म क्यूँ है।
जिसके दम से महफि़ल रौशन, उसके घर में तम क्यूँ है॥
पूछा मेरी बरबादी का जश्न, मनाने वालों ने।
इतने सारे लोगों में, तेरा ही दामन नम क्यूँ है॥
गरदन कटा दिया लेकिन, सिर जीते जी झुकने न दिया।
क्या अब भी शक है, मेरे शव पर क़ौमी परचम क्यूँ है॥
आदिकाल से कहते आये, लोग प्यार को परमेश्वर।
मेरे बारे में, दुनियाँ वालों को आज वहम् क्यूँ है॥
कहीं ज़रूर छिपे हैं रूह में, ईसा, बुद्ध व गांधीजी।
मेरे दिल में दीन-दुःखी लोगों के लिए रहम क्यूँ है॥
लगता है कुछ संस्कार के जीव रक्त में हैं मेरे।
ग़ैरों के ग़लती करने पर, आती मुझे शरम क्यूँ है॥
ऋतु बसन्त, चहुँओर दर्दुरा, टर्रम-टर्र सुनाई दे।
अमराई में कोयल गुमसुम, यह बिगड़ा मौसम क्यूँ है॥
हार गये जब अस्त्र-शस्त्र वाले, मुझ एक निहत्थे से।
‘‘व्याकुल'' होकर लगे पूछने, तेरे पास क़लम क्यूँ है॥
काँटों पे बहरहाल अब चलना ही पड़ेगा।
बनकर मशाल तिमिर में जलना ही पड़ेगा॥
तूफ़ान से कहो, कि ये कश्ती न रूकेगी।
टकरा गया तो उसको ठहरना ही पड़ेगा॥
पीछे मेरे विशाल कारवाँ हो भले कल।
बरवक़्त घर से तन्हाँ निकलना ही पड़ेगा॥
दर्पन से सबक क्यूँ नहीं इन्सान सीखता।
जब अन्त में दोनों को बिखरना ही पड़ेगा॥
जो मानता है कर्म को प्रधान विश्व में।
उस शख़्स की किस्मत को सँवारना ही पड़ेगा॥
सागर से एवरेस्ट का ताअल्लुक बना।
तो बफ़र् की चोटी को पिघलना ही पड़ेगा॥
आँखों की भूख़-प्यास तो हद से गुज़र गयी।
झरने सा अनवरत इन्हें झरना ही पड़ेगा॥
जिसके अगल-बगल बसे ‘‘व्याकुल'' सा पड़ोसी।
तो नूर सा उसको भी निखरना ही पड़ेगा॥
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पानी में आग
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जबसे तुमसे प्यार हुआ सरकार मेरे।
बेक़ाबू हो गये है, दिल के तार मेरे॥
डूबा रहता, यादों में हर पल तेरी।
हँसते हैं हालत पे मेरी, यार मेरे॥
रोम-रोम पर पैनी नज़र ज़माने की।
पाँवों के नीचे जलता, अंगार मेरे॥
दुःख-सुख के साथी, मेरे दिल की धड़कन।
तुम मेरे आभूषण, तुम श्रृंगार मेरे॥
तेरे पीछे मैं हूँ, ये मेरी मज़ीर्।
आगे-पीछे अब भी हैं दो-चार मेरे॥
कल तक मैं था बोझ, देश की छाती पर।
कन्धे पर है आज, देश का भार मेेरे॥
हँसती है तनहाई, मेरी हालत पर।
चारो ओर है, मेले की दीवार मेरे॥
ख़ाली हाथ सिकन्दर, आज चला देखो।
मुठ्ठी में था बन्द, कभी संसार मेरे॥
हम-तुम दोनों इक, दूजे के लिए बने।
जाने कब होंगे सपने साकार मेरे॥
मत ‘‘व्याकुल'' हो मीत, उठे तूफ़ानों से।
आने तो दो, हाथों में पतवार मेरे॥
हो गयी,जाने कहाँ, पर गुम अकल हम क्या करें।
कुछ समझ आता नहीं है, आजकल हम क्या करें॥
आप धोखेबाज़ कहकर, कोसते हो क्यूँ हमें।
हर कोई मिलता है अब, चेहरा बदल हम क्या करें॥
कुछ पड़ोसी लोग, शुभ चिन्तक हैं मेरे इस क़दर।
दे रहे जबरन मेरे, घर में दख़ल हम क्या करें॥
शर्म से गिरगिट भी कोई, रंग बदलना छोड़ दे।
अंगदों के पाँव भी, जाते फिसल हम क्या करें॥
आदमी आज़ाद है, आदर्श जिसको मान ले।
लोग कुछ करने लगे, मेरी नक़ल हम क्या करें॥
मैं पसीने से लहू से, सींचता ही रह गया।
खेत ही जब खा गये, सारी फ़सल हम क्या करें॥
देखने की चीज़ सुन्दरता है, छूने की नहीं।
लोग कलियों को भी देते हैं, मसल हम क्या करें॥
जा रही है जान मेरी, आपके आग़ोश में।
आप करते ही नहीं कोई पहल हम क्या करें॥
कुछ तेरी िख़दमत में, बाक़ी उम्र ख़्वाबों में कटी।
जि़न्दगी के बस यही, दो-चार पल हम क्या करें॥
ख़ुद को भी पहचानना आसाँ नहीं इस दौर में।
आइने में भी बदल जाती शकल हम क्या करें॥
आप-बीती भी सुना, पाया नहीं ‘‘व्याकुल'' कोई।
पड़ गयी आराम में, उनके ख़लल हम क्या करें॥
पानी में आग
पानी में आग
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कब तक यूँ ही रहना होगा।
चुप रह कर सब सहना होगा॥
इन ज़ालिम लहरों के वश में।
मुर्दे जैसे बहना होगा॥
मेरा गाढ़ा ख़ून-पसीना।
उनके तन का गहना होगा॥
अगर झूठ से नफ़रत है तो।
सच को सच अब कहना होगा॥
हम जब तूफ़ाँ बन जायेंगे।
दीवारों को ढ़हना होगा॥
लक्ष्य अगर पूर्णाहुति है तो।
हवनकुण्ड सा दहना होगा॥
पत्थर से टक्कर ली होगी।
मालायें तब पहना होगा॥
‘‘व्याकुल'' आलस छोड़ो वरना।
सारा व्यर्थ उलहना होगा॥
कामना दिल में सरफ़रोशी की।
बात लब पर है गरमजोशी की॥
इस कपट-पूर्ण कृत्य के पीछे।
सिफ़र् ख़्वाहिश है ताजपोशी की॥
दर्द में क्या असर करेगी ये।
दे रहे हो दवा बेहोशी की॥
आज निर्दोष चढ़ रहे फाँसी।
आरती हो रही है दोषी की॥
प्रश्न रिश्तों पे लग गये कितने।
बात आती है जब पड़ोसी की॥
बाद खाने के छेद दे थाली।
हद है एहसान-फ़रामोशी की॥
वक़्त से सत्य, साक्ष्य क्या होगा।
सर्वदा जय हुई सन्तोषी की॥
चित्त्ा ‘‘व्याकुल'' है, कुछ सकूँ आये।
परिक्रमा कर ले, पंचकोसी की॥
पानी में आग
पानी में आग
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क्या बतलायें, कुछ मत पूछो, हाल आजकल गाँव का।
बना न्याय का वधस्थल, चौपाल आजकल गाँव का॥
कुम्भारी, मछली पालन का साधन था जो सदियों से।
मुखिया जी की भेंट चढ़ रहा ताल आजकल गाँव का॥
तरस रहा है बिजली, पानी, दवा, खड़न्जा को निश दिन।
सर्वे होता रहता है, हर साल आजकल गाँव का॥
शासन के आदर्श ग्राम की, सूची में है नाम मगर।
पड़ा हुआ है लावारिश, कंकाल आजकल गाँव का॥
काट रहे हैं, पाँच सितारा होटल में मस्ती के संग।
किसका हक़ था, कौन उड़ाये माल आजकल गाँव का॥
बहू दहेज में लेकर आयी, डिनर सेट जो मैके से।
चम्मच-प्लेट से मात खा गया, थाल आजकल गाँव का॥
पक्का कूवाँ, बूढ़ा बरगद, बाग़-बग़ीचे नष्ट हुए।
एक-एक कर लुप्त हो गया ढ़ाल आजकल गाँव का॥
अन्न, दूध, फल, शहर भेजकर ख़ुद खाये रुखा-सूखा।
उसकी परिणति देखो सूखा गाल आजकल गाँव का॥
चहुँदिशि तूती बोल रही है आज उसी की गली-गली।
था जो ‘‘व्याकुल'' लंठ-चंठ, चाण्डाल आजकल गाँव का॥
वक़्त का तेवर बदलना सीखिये।
फूल क्या काँटों पे चलना सीखिये॥
वीर भोग्या है ये वसुधा दीपकों।
आँधियों के घर में जलना सीखिये॥
वाष्प की ताक़त से वाकि़फ़ है जहाँ।
नीर हो शीतल, उबलना सीखिये॥
कोठरी काजल की दुनियाँ है मगर।
बच के कालिख से, निकलना सीखिये॥
मंजि़लें चूमेंगी ख़ुद बढ़के क़दम।
ठोकरें खाकर, सम्भलना सीखिए॥
दिल किसी का आप शायद जीत लें।
धूप में, छत पर टहलना सीखिये॥
लोकप्रिय, शातिर शिकारी की तरह।
ज़ख़्म पर मरहम भी, मलना सीखिये॥
ख़ूब पीटेंगे ये श्रोता तालियाँ।
ज़हर ‘‘व्याकुल'' सच उगलना सीखिये॥
पानी में आग
पानी में आग
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जिस जगह देखो, मचा कोहराम है चारों तरफ़।
बन्द का आह्वान, चक्काजाम है चारों तरफ़॥
कोई धिक्कारे, अजी करता फिरे थू-थू कोई।
कुछ अनूठे कार्यक्रम का नाम है चारों तरफ़॥
मात खा जायें गुफायें, देख मानव के मकाँ।
घर की दीवारों पे, लटका चाम है चारों तरफ़॥
शान से अब लीजिए या दीजिए कुछ ग़म नहीं।
बात सुविधाशुल्क की, अब आम है चारों तरफ़॥
क्या वजह है देश में, बेरोज़गारी बढ़ रही।
जबकि लाख़ों-लाख़, बिखरे काम हैं चारों तरफ़॥
आदमी टकरा रहे, आपस में पत्थर की तरह।
जिस जगह बारूद के, गोदाम हैं चारों तरफ़॥
ख़ुद से लेकर, देश-दुनियाँ तक नज़र दौड़ाइये।
सबक लेने के लिए, अंजाम हैं चारों तरफ़॥
स्वार्थवश गठजोड़ करने के लिए ‘‘व्याकुल'' हैं सब।
आज गठबन्धन हुआ, कल दाम है चारों तरफ़॥
बात ये, जो लोग कहते, भाग्य पर कुछ वश नहीं।
उनमें शायद, कर्म करने का ज़रा साहस नहीं॥
एक अदनी बात पर भी, कोसने लगते हैं जो।
जि़न्दगी से भी गिला, कहते हैं कोई रस नहीं॥
रूढि़यों से इस क़दर चिपके हुए हैं आज भी।
लाख़ कुछ भी कीजिए, होते ही टस से मस नहीं॥
आचरण गर हो विभीषण की तरह, माथे तिलक।
एक सिर पर्याप्त है, रावण के जैसे दस नहीं॥
अपने हाथों मत, गला इन्सानियत का घोंटिये।
आदमी हैं आप, कोई प्रेत या राक्षस नहीं॥
लोभ, माया, पाप, ईर्ष्या संकटों का जाल है।
बच बचाकर चल सखे! इसमें भुलाकर फँस नहीं॥
तेरी चाहत में हमारी हो, चली है ये दशा।
कम से कम तू तो मेरी हालत पे प्यारे हँस नहीं॥
लेखनी, नारी, सवारी, गर लगी पर हाथ तो।
कथन यह कटुसत्य, रह सकती वो जस की तस नहीं॥
जीत हो या हार हम ‘‘व्याकुल'' नहीं होते कभी।
जि़न्दगी का खेल कोई जादुई सर्कस नहीं॥
पानी में आग
पानी में आग
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रेत के नीचे बहती धारा।
शव दे इन्क़लाब का नारा॥
ख़ाब नहीं तो फिर ये क्या है।
शून्य ताप पर चढ़ता पारा॥
चूल्हे का अंजाम सोचिए।
काठ की हडि़या चढ़ी दुबारा॥
पावन अमृत सा गंगाजल।
सागर में गिरते ही खारा॥
अँन्धे-लगड़े सफ़र तय किये।
किसने किसको दिया सहारा॥
भले शरारत आँखों ने की।
दिल को झटका लगा करारा॥
वश में नाव हुई लहरों के।
ना जाने कब मिले किनारा॥
अजनवियों की इस महफि़ल में।
किसने लेकर नाम पुकारा॥
दोनों ही जब ‘‘व्याकुल'' हैं तो।
क्या तुम जीते, क्या मैं हारा॥
क्या घबराना, जीवन पथ में कुछ अँधियारा छाने से।
जब प्रकाश मिल सकता है, इक नन्हा दीप जलाने से॥
हीरे-मोती, सोना-चाँदी, कोई खा सकता है क्या।
भूख़ तो बस मानव की मिटती, कुछ अनाज के दाने से॥
चींटी से हाथी तक को, आहार मिले कुछ करने पर।
सब कुछ दाता ही देता है, लेकिन किसी बहाने से॥
जीवन सार्थक मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में।
मोक्ष-प्राप्ति कब संभव है, हज, संगम बीच नहाने से॥
शीशे के घर में रहने वाले भी करते नादानी।
बाज नहीं आते, औरों पे पत्थर-ईंट चलाने से॥
फि़तरत जिसकी जैसी होगी, परिवर्तन है नामुमकिन।
कुत्त्ाे की दुम ज्यों की त्यों, जीवन भर भी सहलाने से॥
प्यार-मुहब्बत के धागे से, दिव्य बुनाई कौन करे।
यहाँ किसे फ़ुर्सत है अब नफ़रत के ताने-बाने से॥
कभी-कभी घातक होती है अदनी सी लापरवाही।
बनता है नासूर कभी, छोटा भी ज़ख़्म छिपाने से॥
हो जायेगा कोई भी, ‘‘व्याकुल'' ऐसी है पाबन्दी।
खुलकर रोना अच्छा है, इस छुप-छुप कर मुस्कराने से॥
पानी में आग
पानी में आग
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प्यार में ठोकर खाकर दिल के, अरमाँ चकनाचूर हुए।
हँसने के भी मौक़े पर हम रोने को मजबूर हुए॥
दूर-दूर जो रहते थे, उनसे क्या शिकवा-गिला करें।
आँखों में ही रहने वाले, जब नज़रों से दूर हुए॥
पतझड़ तो है ही पतझड़, बेवफ़ा बहारें भी निकली।
यूँ ही नहीं मेरी बगि़या के, फूल आज बेनूर हुए॥
महापुरूष की श्रेणी में, गणना की जाती है जिनकी।
एक नेक इन्साँ थे वे, जो भी जग में मशहूर हुए॥
कविता के व्यवसायी होंगे, माना लाख़ों में लेकिन।
कवि का दज़ार् पाने वाले, कितने तुलसी, सूर हुए॥
दुस्साहस हम कहें इसे या उनकी कोरी नादानी।
वहम् के चलते राई जैसे, क़द वाले भी तूर हुए॥
सबका अन्त हुआ दुखदायी काल साक्षी है इसका।
आज तलक इस वसुन्धरा पर, अब तक जितने क्रूर हुए॥
प्यार की दुनियाँ में शायद इनकार शब्द होता ही नहीं।
सब के सब फ़रमान आपके, बिना हिचक मंजूर हुए॥
क्या बतलायें, कहाँ दर्द है, एक जगह जब हो तब तो।
जिस ‘‘व्याकुल'' प्राणी के तन के रोम-रोम नासूर हुए॥
हम सब जिसकी शाखायें हैं, उस तरू को ही भूल गये।
धरती-गगन कहीं के भी ना हुए, बीच में झूल गये॥
कभी किसी भी क्षण मिट सकता है अस्तित्व, पता फिर भी।
काम, क्रोध, मद, लोभ व्यसन से गुब्बारे अस फूल गये॥
माना कि जीवन का मतलब आना जाना लोग कहें।
फिर भी नहीं कभी इस जग से, इन्सानियत वसूल गये॥
सत्संगति से अद्भुत क्षमता का आना है स्वाभाविक।
पाहन किये पुनर्प्राणित, प्रभु पग संग जो कण-धूल गये॥
लाख़ों-लाख़ भले ही आविष्कार किया विज्ञान मगर।
जीवन खोना पड़ा उन्हें, जो लोग प्रकृति प्रतिकूल गये॥
कठिन डगर है सच्चाई की, चलने का अभ्यास करो।
जिन राहों पर मंजि़ल तक, चलकर ख़ुद राम-रसूल गये॥
महल-अटारी, धन-वैभव, आभूषण संग नहीं जाते।
मिट्टी की काया संग बस, कुछ श्मशान तक फूल गये॥
भूलों ने ही मंजि़ल तक पहुँचाया है उन लोगों को।
‘‘व्याकुल'' पथिक सहजता से जो अपनी भूल कबूल गये॥
पानी में आग
पानी में आग
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आज जब मेरी नज़र के सामने दर्पन हुआ।
तब समझ आया कि क्या से क्या मेरा बचपन हुआ॥
कल बहारें झूमकर, लेती रहीं अंगड़ाइयाँ।
रुप-यौवन आजकल उजड़ा हुआ गुलशन हुआ ॥
खेल में बचपन, जवानी नींद के आग़ोश में।
सोचकर अफ़सोस यह जीवन कोई जीवन हुआ॥
प्यास का रोना भी रोये, कौन सुनता है भला ।
क्या करे धरती अगर, बैरी मुवा सावन हुआ॥
चाँद मामा भी, चचेरे भाइयों के हो गये ।
बीच में दीवार आयी और दो आँगन हुआ ॥
धूप बनकर जेठ की सिर पर पड़ा दुख सर्वदा।
एक लम्हा सुख का जैसे पूष या अगहन हुआ ॥
मन के जीते, जीत होती मन के हारे हार तो ।
जय-पराजय की वजह तो आदमी का मन हुआ ॥
विषधरों के, विष की गर्मी की परीक्षा हो सके ।
हद से कुछ ज़्यादा ही शीतल, इसलिए चन्दन हुआ ॥
जादुई ख़ुशबू बिखेरी, आप ने आकर यहाँ ।
घर हमारा जाफ़रानी का लगे उपवन हुआ ॥
इस अदा से मारते हैं लोग पत्थर आजकल ।
लग रहा पूरे बदन का प्यार से चुम्बन हुआ ॥
क्या हुई ताक़त कभी जो थी भुजाओं में मेरी ।
कब, कहाँ किस मोड़ पर ‘‘व्याकुल'' जुदा यौवन हुआ ॥
कब तलक, इस असह्य बोझ को ढ़ोना होगा।
सामने हँसना और आड़ में रोना होगा॥
हाथ ख़ाली मगर, नज़र में छुपाये ख़न्जर।
रुप क़ातिल का देखने में सलोना होगा॥
बेरहम कत्ल करेगा वो आज फिर सच का।
मूँदकर आँख मुझे बेज़बाँ होना होगा॥
गिला करे जो रौशनी का कोई अन्धे से।
सूर के सामने निज आँख भी खोना होगा॥
तोड़ने में ही महारत है जो उसे हासिल।
हमें टूटती लडि़यों को पिरोना होगा॥
हुए पुराने बहुत अब ये अधूरे सपने।
कुछ नये ख़ाब हमें फिर से सजोना होगा॥
करो बबूल से हर्गिज न आम की चाहत।
ख़ुशी से काट सकें हम वही, बोना होगा।
डूब जायेंगे मगर, डूबने नहीं देेंगे।
नाव से पहले तुझे, मुझको डुबोना होगा॥
मत उछालो किसी निर्दोष पे कीचड़ ‘‘व्याकुल''।
तुम्हें भी कीच सने, हाथ तो धोना होगा॥
पानी में आग
पानी में आग
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वक़्त माकूल है, अब सफ़र का आगा़ज करो।
कौन देखा है कल, जो कर सको सो आज करो॥
व्यूह पिजरों के आज तोड़ के हम दम लेंगे।
क़ैद अच्छी नहीं, फ़ौरन सभी परवाज़ करो॥
यदि कभी हाथ मिलाने का जो मिले मौक़ा।
शत्रुा के बाज़्ाुओं के ज़ोर का अंदाज़ करो॥
बदल दो आज रवायत, नक्क़ारख़ाने की।
बुलंद ख़ुद की ही, कुछ इस तरह आवाज़ करो॥
एक वादा न निभा, ख़ूब बघारो शेखी।
क्या कहेगा ये ज़माना, तुम्हें कुछ लाज करो॥
कब तलक बनके रहेगा तू उठल्लू चूल्हा।
वक़्त का आज तक़ाज़ा है कि कुछ काज करो॥
बाद में दूसरे लोगों को नसीहत देना।
जनाब पहले तो अपना सही मिज़ाज करो॥
भले ही साफ़ न हो आपकी अपनी नीयत।
पर गुज़ारिश है कि गन्दा न तुम समाज करो॥
गिरे नज़र से मेरी हो गया अगर मुद्दत।
क्या तुम्हें हक़ है कि ‘‘व्याकुल'' के दिल पे राज करो॥
जब तक ऊँट न पर्वत देखा, तब तक बल-बल करता है।
झूठा नाज सदा निज बल पर, अक्सर निर्बल करता है॥
लगता है कि समय चल रहा, उसके एक इशारे पर।
सदुपयोग अपने जीवन का, जो भी पल-पल करता है॥
छोटी सी भी कमज़ोरी हो, अपने अन्दर ठीक नहीं।
पथ के खल गढ्ढे का पानी, पथ को दलदल करता है॥
शान्तिदूत का ओढ़ लबादा, कब तक कोई चुप बैठे।
दिल में जिसके कुराफात हो, निश्चित हलचल करता है॥
जैसी करनी वैसी भरनी, चरितार्थ निश्चित होती।
कल उसके भी संग छल होगा, जो निश दिन छल करता है॥
अपनाते हैं दुनियाँ वाले, उसके ही आदर्शों को।
अपने बूते पर जो अपनी, हर मुश्किल हल करता है॥
ऊँट के मुख़ में जीरा डाले, नारा भूख़ मिटाने का।
क्या सन्तृप्त किसी प्यासे को, शबनम का जल करता है॥
विधि-विधान या वेद-शास्त्र क्या, नीति-धर्म सब पुष्टि करें।
मानव का कर्तव्य, किये अनुसार भाग्यफल करता है॥
पानी में आग
पानी में आग
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हुस्न वालों के बदन तो चाँदनी में जल रहे।
लोग कुछ शोलों पे नंगे पाँव कैसे चल रहे ॥
वाह रे फ़ैशन जिसे देखो नशे में चूर है।
नारियों की देह पर कैसे कहाँ आँचल रहे॥
हर बहू-बेटी हमारे देश की जब तक जिए।
माथ पे बिन्दी सजी हो, आँख में काजल रहे॥
लोग तो पत्थर चलाते हैं दरख्तों पे मगर।
सब गिले-शिकवे भुलाकर, बृक्ष हैं कि फल रहे॥
खा रही छोटी मछलियोें को बड़ी मछली यहाँ।
होड़ में दौलत की दुनियाँ में कहाँ निर्बल रहे॥
निर्विवादित पीढि़यों दर पीढि़यों से पूज्य है।
जग में इन्सानों से अच्छे तो कहीं पीपल रहे॥
देखते ही रह गये सब जाल फैलाए हुए।
उड़ गई बुलबुल, शिकारी हाथ ख़ाली मल रहे॥
आ गये हैं वक़्त से हम कुछ यहाँ पर सोचकर।
एक ‘‘व्याकुल'' के लिए क्यूँ हर कोई चंचल रहे॥
चल के तो देखो ज़रा, मंजि़ल तेरे पाँवों में है।
दम नहीं कुछ भी तुम्हारे पथ की बाधाओं में है॥
घूमते दर्पन की तस्वीरें, टिकाऊ तो नहीं।
सभ्यता की जड़ सलामत आज भी गाँवों में है॥
बैठता है शिशु कोई जब गोद में माँ-बाप के।
तब पता चलता है जग का सुख इन्हीं छाँवों में है॥
अश्क तो दर्दे-जिगर के सिफ़र् एहसासात हैं।
ताड़ लो मुसकान से कितनी जलन घावों में है॥
देखकर हैरान हैं, ख़ामोश लहरें सिन्धु की।
जान लेवा तलातुम तो आजकल नावों में है॥
शोध करिये शर्म के पर्यायवाची पर नया।
दबी अब भी लोक-लज्जा युवती-युवाओं में है ॥
यह तना तन्हा मगर फिर भी सभी से है जुड़ा।
दूरियाँ तो बहुमुखी मदमस्त शाखाओं में है॥
जो अभी कल तक टहल सेवा में था ‘‘व्याकुल'' मेरी।
आज उस पिद्दी की गणना मेरे आकाओं में है॥
पानी में आग
पानी में आग
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हमारा जि़क्र भी करने से वे गुरेज़ किये।
इस तरह ख़ूब भुलाने की मुहिम तेज़ किये॥
जो सितम ढ़ा रहे बनकर के मसीहा मेरे।
ज़्ाुल्म इतना कभी हिटलर न ही चंगेज़ किये॥
भारतीयों ने संस्कृति से जो सलूक किया।
हरकतें ऐसी कभी भी नहीं अंग्रेज़ किये॥
अन्ततः वो भी मेरा इम्तहान ले ही लिये।
बेवजह तंग हमें झूठी ख़बर भेज किये॥
देखकर मैक़दे की हाल साकि़या रोये।
अश्क से अपने पियाली को है लबरेज़ किये॥
लगा जो प्रेम का यह रोग तेरी सोहबत में।
मज़र् बढ़ता ही गया जब दवा-परहेज़ किये॥
गुलों को देखके मिलती ख़ुशी उन्हें कितनी।
रक्त बूँदों से चमन सींच जो ज़रखे़ज़ किये॥
क्यूँ न एहसान के नीचे दबे रहें ‘‘व्याकुल''।
प्यार से लोग दिलों में हमें परवेज़ किये॥
जब सोलवाँ बसन्त मेरे क़द में आ गया।
तब सारा शहर ज़लज़ले की ज़द में आ गया॥
लगता है कि लुट जायेगा, दिल का हसीं नगर।
लश्कर लिए वो हुस्न की सरहद में आ गया॥
जब-जब कहीं पे जि़न्दगी में ठोकरें लगीं।
उस बेवफ़ा का नाम हर दरद में आ गया॥
छलनी हुआ जिगर भी, सिफ़र् जिस्म ही नहीं।
जब भी तेरी तीर-ए-नज़र की हद में आ गया॥
बेवजह ही अपनों को जो दुत्कारता रहा।
अपनी गरज़ पड़ी तो ख़ुशामद में आ गया॥
दावे के साथ बात का अन्दाज़ भूलकर।
मिलते ही नज़र शख़्स वो शायद में आ गया॥
इक्कीसवीं सदी में जेल ही सुधार-गृह।
वह जेल से होता हुआ संसद में आ गया॥
तेवर यहाँ क़ुदरत के भी अच्छे नहीं रहे।
आना जिसे रबी में था जायद में आ गया॥
पानी में आग
पानी में आग
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हर तरफ़ गहरा अँधेरा, चीख है, कोहराम है।
कुछ नहीं आता समझ में, सुबह है या शाम है॥
धूप तेज़ाबी विषैली हो चली है चाँदनी।
देखकर वातावरण दहशत ज़दा अवाम है॥
हर किसी के वास्ते था नाम जिसका आसरा।
आजकल छलियों के चलते हो रहा बदनाम है॥
अब तो साक़ी को भी शक होता है हाला देखकर।
जो पिलानी है उसे वह ज़हर है कि जाम है॥
बीस खोकर दस मिला हम क्या कहें इसको भला।
आप ही बोलो ये जुर्माना है या इनाम है॥
देखकर के मुस्कुराना, मुस्करा कर देखना।
यह हमारे प्यार का आगाज़ या अंजाम है॥
आज भी है, कल भी था, है आजकल भी शीर्ष पर।
बाहुबल के साथ ही जिसकी गिरह में दाम है॥
भूलकर भी भूलने की भूल मत करना कभी।
कुल मिलाकर याद रख, बन्दे का ‘‘व्याकुल'' नाम है॥
परमेश्वर से ज़्यादा ख़ुद का मान समझते हैं।
औरों को अपमानित करना शान समझते हैं॥
ख़ुद के आगे नहीं लगाते, चाहे हो कोई।
दो अक्षर क्या जान गये, विद्वान समझते हैं॥
कौड़ी की औक़ात नहीं पर बंनते तुर्रमखाँ।
तड़क-भड़क दिखलाने में सम्मान समझते हैं॥
जिसके बदले उनको मिलती सारी सुख-सुविधा।
कर्तव्यों के पालन को एहसान समझते हैं॥
सब कुछ जैसे उल्टा-पुल्टा उन्हें दिखाई दे।
सेवक हैं लेेकिन ख़ुद को सुल्तान समझते हैं॥
तिकड़मबाज़ी कुछ कर-धरके कामयाब जो हैं।
अपने को औरों से बहुत महान समझते हैं॥
शायद जान नहीं पाते हैं केवल भ्रम उनका।
सबसे ऊँचा जो अपना स्थान समझते हैं॥
भले नहीं कुछ पड़ता पल्ले पर ये क्या कम है।
‘‘व्याकुल'' प्यार-मुहब्बत भरी ज़बान समझते हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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लकीरें सिफ़र् हाथों की उसे दिखला रहा था मैं।
वो समझा हाथ उसके सामने फैला रहा था मैं॥
हमारा जुर्म इतना है कि कर दी रौशनी थोड़ी।
चिराग़ों को चिराग़ों से जलाता जा रहा था मैं॥
उसी ने आज मेरे हाथ की बैसाखियाँ छीनी।
खड़ा होना जिसे पैरों पे कल सिखला रहा था मैं॥
वो ख़्वाबों में भी आये अब नहीं मंजूर है मुझको।
नहीं यूँ ही किसी पर नींद में झल्ला रहा था मैं॥
बहुत ही देर कर दी भूल का एहसास करने में।
समझकर मोम, पत्थर का हृदय पिघला रहा था मैं॥
तसल्ली के लिए कब तक ये नुस्ख़ा कारगर होता।
तेरी तस्वीर से दिल आज तक बहला रहा था मैं॥
मेरी बचपन की आदत बात करने की है रूक-रूक कर।
समझ बैठा कि उसके सामने हकला रहा था मैं॥
गुमाँ मत कर सलामी क्यूँ तेरी ‘‘व्याकुल'' बजायेगा।
झुकी गरदन ज़रा माथा महज़ सहला रहा था मैं॥
सनम आँख में काजल हो जाये।
सारी दुनियाँ पागल हो जाये॥
लहराने तो दो काली ज़ुल्फं़े।
चाँद के रूख़ पे बादल हो जाये॥
नज़र सामने तू ज्योंही आये।
धड़कन बजती साँकल हो जाये॥
नभ में येे अनुपम उड़ता बादल।
तेरे तन का आँचल हो जाये॥
प्यारी तेरी रूप छटा लखकर।
चन्दा का मुख़ श्यामल हो जाये॥
तूने तो कुछ यूँ तेवर बदला।
सोना जैसे पीतल हो जाये॥
यही कामना जब देखूँ तुमको।
बाक़ी सबकुछ ओझल हो जाये॥
मन तेरे बिन पल-पल यूँ ‘‘व्याकुल''।
जल बिनु मछली बिह्वल हो जाये॥
पानी में आग
पानी में आग
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रेत के सब महल ढ़ह गये।
ख़्वाब बस, ख़्वाब ही रह गये॥
जड़ उसी की लगे खोदने।
जिसकी छाया तले वह गये॥
सब हैैं सुन करके हैरतज़दा।
सोचिये आप क्या कह गये॥
हम शराफ़त के क़ायल जो हैं।
आपकी ज़्यादती सह गये॥
नाख़ु़दा पे जिन्हें नाज़ था।
कुछ तो डूबे व कुछ बह गये॥
रत्न की हम तमन्ना लिये।
सिन्धु की आखि़री तह गये॥
व्यर्थ ग़ैरों से कैसा गिला।
आज अपनोें से हम डह गये॥
छोड़ ‘‘व्याकुल'' हमें राह में ।
हमसफ़र अलविदा कह गये॥
कहीं काई, कहीं दल-दल, कहीं काँटे डगर में हैं।
मगर यह कारवाँ लेकर अहर्निश हम सफ़र में हैं॥
जहाँ हर आदमी के हाथ में है ईंट व पत्थर।
वही सोचें ज़रा हम किस तरह शीशे के घर में हैं॥
ठहर जायेगी पथ में मौत मरज़ी जानकर मेरी।
भले हम कर रहे जद्दोजहद गहरी भँवर में हैं॥
दीवाली, ईद, होली और क्रिसमस यह बताते हैं।
अभी इन्सान कुछ अच्छे हमारे भी शहर में हैं॥
फिरौती, लूट, हत्या और घोटाले, जमाख़ोरी।
यही कुछ सुर्खियाँ अख़बार की ताज़ा ख़बर में हैं॥
किये ही जा रहे मरहम व पट्टी लोग पाँवों की।
मिले आराम भी कैसे, लगी चोटें तो सर में है॥
ज़मीं छूटी तेरी चाहत में छूटा आसमाँ मेरा।
त्रिशंकू की तरह हम आज भी लटके अधर में हैं॥
मेरे अशआर चर्चा में रहेंगे नित क़यामत तक।
ग़ज़ल के क़दरदाँ फैले हुए संसार भर में हैं॥
वजह बस जानने के वास्ते ‘‘व्याकुल'' हैं सब के सब।
भुला कर गाँव, जन्नत सा बसे हम क्यूँ नगर में हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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सितम आशिक़ों पर किया जा रहा है।
मुहब्बत में, बदला लिया जा रहा है॥
निहायत ही कमज़ोर मेरा कसाई।
न मरते बने, ना जिया जा रहा है॥
फटी टाट मानिन्द दिल फाड़ करके।
मख़मल का पेवना सिया जा रहा है॥
दुआ माँगता फिर रहा, जि़न्दगी की।
ज़हर भी उसी को दिया जा रहा है॥
ज़माने का विष जो, कभी पी गया शिव।
न आँसू भी उससे पिया जा रहा है॥
तसल्ली के दो बोल मीठे सुनाकर।
वो लेकर के मेरा, हिया जा रहा है॥
बिना मैकशों को, पियाली थमाये।
लिए मैकदा, साकि़या जा रहा है॥
चलेगा ही क्यूँ उस डगर पे ज़माना।
जिधर से वो बहुरूपिया जा रहा है॥
जितने फूल सजे हैं तेरी, गेसू के इन गजरों में।
उतने सपने तैर रहे हैं मेरी प्यासी नज़रों में॥
पल दो पल का मिलन हमारा बना हुआ है अफ़साना।
जि़क्र प्यार का तेरे-मेरे ख़ासा उड़ती ख़बरों में॥
सुध-बुध खो बैठा है बन्दा कहते हैं दुनियाँ वाले।
जबसे मेरा दिल उलझा है जानम तेरे नख़रों में॥
आज़ादी स्वीकार नहीं जो हमकों तुमसे ज़ुदा करे।
बेहतर क़ैदी बनकर रहना इन नयनों के पिंजरों में॥
रजनीगंधा तेरा खिलना मत पूछो क्या ग़ज़ब हुआ।
अक्सर तेरी ही चर्चा चलती रहती है भ्रमरों में॥
क्या कहने गागर में सागर, मेहरबानियाँ क़़ुदरत की।
दुनियाँ भर के मधुशालाओं की मदिरा इन अधरों में॥
काम मिला हमको कुछ ऐसा, कितनी प्रतिभा दिखलायें।
अन्धों को दरपन दिखलाना, या चिल्लाना बहरों में॥
परदे की इस पारदर्शिता के पीछे तेरा मुखड़ा।
चौदहवीं का चन्दा जैसे जगमग-झिलमिल कुहरों में॥
कुछ बढ़कर ही दीख रही है रौनक़ तेरी महफि़ल में।
देखा था जो मैंने मंज़र, महँगे अच्छे शहरों में॥
घात लगाये जबडे़ खोले, चक्रव्यूह सी झील लगे।
अभिमन्यु सा ‘‘व्याकुल'' जूझे, लिए सफ़ीना मगरों में।
पानी में आग
पानी में आग
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संगीनों से होट सिल रहे, ज़बाँ किसी ने गर खोली।
छात्राों, व्यापारियों, किसानों का सीना चीरे गोली॥
चोर-उच्क्के, गुण्डे-डाकू पर हो फूलों की वर्षा।
अक्षरधाम, गोधरा, मुण्डेरवा, रक्त रंजित होली॥
छुपकर छोड़े तीर, सामने मरहम-पट्टी को दौड़े।
कितनी मीठी बांते करता, जिसने कड़वाहट घोली॥
राहज़नों को रास आ गया पेशा आज कहारी का।
कुछ कहार ही आपस में मिलजुल कर लूट रहे डोली॥
इन्हें महारत हासिल दीखे, बातें महज़ बनाने में।
सच तो यह है कि जनाब की सारी करतूते पोली॥
वादा था कि भर देंगे हम, एक बार मौका तो दो।
इनको अवसर देकर तरसे, हम लेकर ख़ाली झोली॥
आँखे रहते अन्धों से भी दृष्टिहीनता में आगे।
ऐसे कुछ संस्कृति दीवाने, चले बनाने रंगोली॥
अक्सर ही हक़ की परिभाषा बतलाई जाती हमको।
जिसकी लाठी भैंस उसी की, दामन वाले की चोली॥
भोलेपन का लाभ उठाने से क्यूँ चूके भला कोई।
तभी तो उनके पौ बारह जब ‘‘व्याकुल'' जनता है भोली।
चुम्बनों, आलिंगनों के जि़क्र से परहेज़ है।
किन्तु ये प्याला ग़ज़ल के हुस्न से लबरेज़ है॥
आपको अच्छा लगे जो शौक से चुन लीजिए।
नागफनियों की चुभन, फूलों की नाज़्ाुक सेज है॥
इम्तहाँ के बाद तो ख़ुद फ़ैसला हो जायेगा।
बेवजह तकरार कैसी, कौन कितना तेज़ है॥
इस तरह देखा नहीं था, थूक करके चाटना।
आपका ये कारनामा हैरत-ए-अंगेज़ है॥
गुल तो गुल ख़ारों से भी होती है बारिश नूर की।
इस चमन की सरज़मी, कुछ इस क़दर ज़रख़्ोज़ है॥
क्या कहें ख़ुशकिस्मती है, या मेरी बदकिस्मती।
चाहते हैं हम उसे, जिसको, अपुन से गुरेज़ है॥
शहर का हर शख़्स है, मशगूल चर्चा में मेरी।
दिल किसी का टूटना क्या कम सनसनीख़ेज है॥
देखने वाला इन्हें हो जाय ‘‘व्याकुल'' देखकर।
नख से शिख तक देखिए, क्या यत्न साज़-सहेज है॥
पानी में आग
पानी में आग
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सोये हैं, टहलने गये, स्नानघर में हैं।
मीटिंग में व्यस्त या अभी निकले सफ़र में हैं॥
फ़रियाद भी मुमकिन नहीं पहुँचे जनाब तक।
घेरे में जो लिए हुए चमचे शहर में हैं॥
शायद उबार लेते हमें डूबने से तुम।
गज की तरह हम ग्राह से पीडि़त भँवर में हैं॥
ओझल दिखाके झलक एक पलक झपकते।
नख़रे जो कुछ अजीब ईद के क़मर में हैं॥
रौशन करेगी एक दिन गुलज़ार ये कली।
इतने जो तजरूबे इसी छोटी उमर में हैं॥
अंजाम ज़रा सोचिये, टुकड़े अगर हुए।
अरमान जो मुद्दत से हमारे जिगर में हैं॥
वे ख़ूबियाँ हुनर सभी मौज़्ाूद आप में।
बाज़ीगरी अच्छे किसी जो बाज़ीगर में हैं॥
इनके गले में हार स्वयम्वर का क्या पड़ा।
उस दिन से ख़्वाब की तरह प्यासी नज़र में हैं ॥
जो जश्न मनायेगा वो भटकेगा राह में।
मंजि़ल उन्हें मिलेगी जो ‘‘व्याकुल'' डगर में हैं॥
रात-रातभर ख़्वाब में जिसकी बाहों में मैं होती हूँ।
दिनभर सीने से उसकी तस्वीर लगाये रोती हूँ॥
नहीं ज़ौहरी मिला अभी तक जो मुझको पहचान सके।
मुद्दत से शीशे के टुकड़ों में खोई सी, मोती हूँ।
मेरा दामन काँटो से ही भरने में मशगूल है वो।
चुन-चुन कर जिसकी राहों में, फूल सदा मैं बोती हूँ॥
चित्रकूट में देवी सीता ने दिन कैसे काटा था।
होती है अनुभूति अगर नंगी धरती पे सोती हूँ॥
उड़कर क्षितिज पार तक जाने की दिल में है अभिलाषा।
पर सोने के पिंजरे में बन्दी बन बैठी तोती हूँ॥
अँधियारे में भटक रही हूँ,हाथ छुड़ाकर फूट लिया।
जो अक्सर कहता था मै उसके आँखों की ज्योती हूँ॥
हर पल तेरे इन्तिज़ार में रहती हूँ खोयी-खोयी।
अब तक नहीं समझ में आया, क्या पाती, क्या खोती हूँ॥
शायद कोई ‘‘व्याकुल'' होकर प्राण पखेरू लौटा दे।
यही तमन्ना लिए लाश अपनी काँधे पे ढ़ोती हूँ॥
पानी में आग
पानी में आग
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गुलशन में आने वाले ख़तरों से जो आगाह नहीं।
उस माली से पिण्ड छुड़ाओ, जिसको कुछ परवाह नहीं॥
मंजि़ल के विपरीत कारवाँ को लाकर गुमराह किया।
उस मुक़ाम पर आज खड़े हम, जिसके आगे राह नहीं॥
पीटा गया ढि़ंढ़ोरा ऐसा गुणी नहीं कोई दूजा।
निकला निपट निशाचर उल्लू, शुक-ज्ञानी का थाह नहीं॥
भनक ज़रा सी भी लग जाती, निकलोगे तुम भस्मासुर।
भले शरण में आकर गिरते, देता कभी पनाह नहीं॥
नज़र बचाकर ले जायेगा, युवा मौलवी बीवी को।
इस मजनूँ के बच्चे से पढ़वाता कभी निकाह नहीं॥
चलता करो भले ले देकर, मगर बुद्धि मत दो उसको।
जो लकीर का है फ़क़ीर शठ् माने नेक सलाह नहीं॥
योद्धा वाणों की सैया पर सोये भीष्म पितामह सा।
तन से प्राण भले ही निकले, मुख़ से मगर कराह नहीं॥
हल्दी घाटी के राणा सा दिखला देते हम बनकर ।
किन्तु परम् दुर्भाग्य हमारा, कोई भामाशाह नहीं ॥
‘‘व्याकुल'' दिल जिससे लग जाये, अपना ही लेते उसको।
प्यार में घुटकर औरों जैसे हम तो भरते आह! नहीं॥
मज़हबों की भीड़ में इन्सान अब खोने लगा है।
आज अपनी हाल पर ख़ुद आदमी रोने लगा है॥
स्वार्थ के श्मशान तक जाने की अन्धी दौड़ में।
आदमी काँधे पे अपनी लाश ख़ुद ढ़ोने लगा है॥
क्या गवाही क्या अदालत और कैसा फ़ैसला।
क़ातिल-ए-दामन को ख़ुद मक़्तूल ही धोने लगा है॥
ख़ौफ व दहशत का इक माहौल लाने के लिए।
ढ़ेर पर बारूद के अब आदमी सोने लगा है॥
चाँदमारी की गई है इस क़दर विश्वास पर।
भाइयों को भाई की नीयत पे शक होने लगा है॥
घोंसला जिसने बनाया जोड़कर तिनके कभी।
आज वह बूढ़ा पखेरू दुबककर कोने लगा है॥
जानकर भी रोज़ इसपथ से गुज़रना है हमें।
राह में ख़ुद नागफनियों की फ़सल बोने लगा है॥
किरकिरा सारा मज़ा ही कर दिया ‘‘व्याकुल'' कोई।
आज की महफि़ल में क्या होना था, क्या होने लगा है॥
पानी में आग
पानी में आग
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चौपट राजा, मंत्री पाजी।
टके सेर सब मिसरी-भाजी ॥
शिखण्डियों के जाल में फँस कर।
लगा दिये हम जान की बाज़ी॥
मेरे साथ निकाह पढ़ाकर।
ले भागा बीवी को क़ाज़ी॥
सारे नख़रे-नाज़ उठाया।
फिर भी नहीं हुई वो राज़ी॥
चकबन्दी का मतलब ही है।
कई नाम से एक आराज़ी॥
सड़ा माल नीचे फफूँद है।
ताज़ा क़ीमत लिख रक्खाजी॥
जब से हाथ बटेर लगी है।
अन्धे करते तिरंदाज़ी॥
सुरा-सुन्दरी का आशिक़ भी।
अपने को कह रहा नमाज़ी॥
गंगाजी को हम धोयेंगे।
बहुत धो चुकी हैं गंगाजी ॥
बंधे ताज जिसके सिर उपर।
भाड़ जाय हर एक बलाजी॥
क्या ही ख़ूब ज़माना आया।
लहँगा,महँगा सस्ते ग़ाज़ी॥
अर्धागिंनी नहीं क्वारे हैं।
आधी यूँ ही टली बला जी ॥
जहाँ पे राजा भोज न ठहरे।
गँगू खूसट जमा रहा जी ॥
बीवी ख़ुश हो भले ही ‘‘व्याकुल''।
मरें बाप, मर जायें माँ जी॥
चतुर नाख़ुदा वह, लहर से जो खेले।
सयाना है शायर, बहर से जो खेले।
क़दम मंजि़लें चूम लेंगी धधाकर।
मुसाफि़र अनवरत डगर से जो खेले॥
लहू तो लहू है भले हो किसी का।
वो क़ातिल है, ख़ून-ए-जिगर से जो खेले॥
उसे लोग नादान बच्चा कहेंगे।
खुली छत पे लेटे क़मर से जो खेले॥
साँपों से करता जुगत रोटियों की।
सपेरे का कुनबा ज़हर से जो खेले ॥
वो नाविक का बच्चा कोलम्बस बनेगा।
कश्ती चलाकर भँवर से जो खेले॥
उसे लोग कलियुग का नारद कहेंगे।
ज़माने की ताज़ा ख़बर से जो खेले॥
ख़ुदा जाने ‘‘व्याकुल'' का क्या हस्र होगा।
पानी में रहकर मगर से जो खेले॥
पानी में आग
पानी में आग
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कितनी है दरमियान मुहब्बत न पूछिये।
दोनो हैं मस्त आजकल हालत न पूछिये॥
उसके हरेक रूप पे लाख़ों हैं दिल फि़दा।
बहुरूपिये, कमबख़्त की शोहरत न पूछिये॥
देने के बाद दर्द, लेके आ गया दवा।
उस शख़्स में कितनी है शराफ़त न पूछिये॥
दुश्मन ने घुस के ईंट से हर ईंट बजा दी।
क्या ख़ूब किये घर की हिफ़ाज़त न पूछिये॥
इनको बनाके हो गया दिवालिया ख़ुदा।
इस हुस्न के तामीर की लागत न पूछिये॥
माना कि मेरी जान नहीं ले सका मगर।
क़ातिल के बाजु़ओं की वो ताक़त न पूछिये॥
ये और बात है कि अभी एक है आँगन।
घर में छिड़ी है कबसे बग़ावत न पूछिये॥
लेते हैं चरण - रज शहर के तीसमार खाँ।
हासिल है उसे कितनी महारत न पूछिये॥
रखा है तख़ल्लुस जो मेरा सोच के ‘‘व्याकुल''।
किसकी है ये हसीन शरारत न पूछिये॥
टूटे शीशे की तरह चाहे बिखर जाऊँगा।
आिख़री साँस तलक देश गीत गाऊँगा॥
इक नयी राह बनाने की ठान ली मैंने।
हो भले कुछ मगर, मंजि़ल ज़रूर पाऊँगा॥
लहंगा-चुनरी पे क़लम ख़ूब चल चुकी यारों।
मैं शहीदों के कफ़न पर क़लम चलाऊँगा॥
चाँद सा मुख़ हसीन जु़ल्फ़ बन चुकी उलझन।
चोटी-एवरेस्ट की चर्चा में डूब जाऊँगा॥
असफ़ाक़उल्लाह, राजगुरू, भगत सिंह-वतन।
जि़न्दा आबाद रहे गर्व से दुहराऊँगा॥
भूमि पावन है ये गंगो - यमन हिमालय की।
हरेक कण को ही जन्नतनुमाँ बनाऊँगा॥
अन्त तक रौशनी मिलती रहेगी लश्कर को।
लहू शरीर में जबतक, शमा जलाऊँगा॥
तू मेरी झोपड़ी को हाथ लगा कर देखे।
मैं किले की तेरे बुनियाद तक हिलाऊँगा॥
आज ‘‘व्याकुल'' को करो माफ़ ये क़लमकारों।
देश-गीतों की झलक कुछ तुम्हें दिखाऊँगा॥
पानी में आग
पानी में आग
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मुहब्बत की शम्मा जलाकर तो देखो।
दिलों का अंधेरा मिटाकर तो देखो॥
कभी कोई शिकवा-शिकायत न होगी।
गले गम़ज़दों को लगा कर तो देखो॥
तुम्हारी भी रातें महकने लगेंगी।
गुल-ए-रातरानी खिलाकर तो देखो॥
नज़र आयेगी इनमें सूरत तुम्हारी।
कभी मुझसे नज़रें मिलाकर तो देखो॥
गुज़रती है क्या बेबसों के दिलों पर।
सरेआम अस्मत लुटाकर तो देखो॥
निकल आयेगा चाँद दिन दोपहर में।
महज़ रूख़ से चिलमन उठाकर तो देखो॥
गाने लगेगा ये गुमसुम समंदर।
लहर की तरह खिलखिलाकर तो देखो॥
सभी बेवफ़ा हैं ये कहने से पहले।
हमें भी कभी आज़मा कर तो देखो॥
जो इन्साफ़ की क़ैफि़यत जानना हो।
तो ‘‘व्याकुल'' का हक़ भी दिला कर तो देखो॥
साफ़ ज़ाहिर है इतराने लगे हैं।
क्योंकि मिलने से कतराने लगे हैं॥
देखकर आँख में भरे आँसू।
मेरे हमदर्द मुसकाने लगे हैं॥
होश उड़ता नहीं तो क्या होता।
हाथ मुर्दे जो, लहराने लगे हैं॥
मेरी अस्मत से खेलने वाले।
दोष मेरा ही ठहराने लगे हैं॥
वक़्त ने इस तरह रचा साजि़श।
अपने साये भी गहराने लगे हैं॥
खु़द की नज़रो मेें बढ़ रहे हैं वो ।
पर हक़ीक़त में छितराने लगे हैं॥
मुझको रोने की भी कहाँ फु़रसत।
आपको देखकर गाने लगे हैं॥
शौकिया ही सही मैख़ाने में।
रोज़ कमज़र्फ़ भी आने लगे हैं॥
गिन के तारों को कभी तो देखो ।
कितने ‘‘व्याकुल'' पे सब ताने लगे हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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यार! जितनी ग़ज़ल, मस्त-प्यारी लगे ।
कुछ ज़रा कम न सूरत तुम्हारी लगे ॥
बिनु तुम्हारे अधूरी लगे जि़न्दगी ।
माँग सिन्दूर बिनु ज्यों कुँआरी लगे ॥
हम, तुम्हारी जुदाई से कुछ यूँ हुए ।
द्यूत हारा हुआ एक जुवारी लगे ॥
तेरे चेहरे पे रौनक़ जो है आजकल ।
चाँद भी चौदवीं का भिखारी लगे ॥
मेरे दिल में बसी जबसे सूरत तेरी ।
घोंसले में ही बैठा शिकारी लगे ॥
दीख जाये कोई गर, तुम्हें देखते ।
वह नज़र दिल में चुभती कटारी लगे ॥
मेरे दर पे पड़े क्या क़दम आपके।
झोपड़ी मेरी कोठा-अटारी लगे॥
जान लाख़ों दिये हुस्न पर आपके ।
आज बरवक़्त ‘‘व्याकुल'' की बारी लगे ॥
काली रात अँधेरी, पथ अंजाना है ।
मगर मुसाफि़र तुमको चलते जाना है ॥
तूफ़ानों से जूझ रही कश्ती मेरी ।
आँखों में साहिल के ख़्वाब सजाना है ॥
करते हैं वो वार, लबादा बदल-बदल ।
चोटों का अंदाज़ मगर पहचाना है ॥
निरा निठल्लू बने उठल्लू का चूल्हा ।
उसका जीने से अच्छा, मर जाना है ॥
शर्त लगाना उनसे कोई तो सीखे ।
तोड़ के तारे आसमान से लाना है ॥
किस्मत तो देखो लाचार परिन्दे की।
कहाँ घोंसला, कहाँ पे आबो-दाना है॥
साथी कोई मनमाफि़क़ जो मिल जाये।
पतझड़ का मौसम भी लगे सुहाना है॥
‘‘व्याकुल'' कोई राह बता दे आज हमें।
दिलवर तक कुछ हाले-दिल पहुँचाना है॥
पानी में आग
पानी में आग
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कैसे ये शराबी हैं जो जाम से डरते हैं।
दीवाने मुहब्बत के अंजाम से डरते हैं॥
सिर वे भी झुकाते हैं सिज़दे में आसिताँ पर।
इस शहर के बासिन्दे जिस नाम से डरते हैं॥
रोटी भी नहीं मिलती मरते हैं सदा भूखो़ं।
आराम तलब इन्साँ जो काम से डरते हैं॥
वे देख नहीं पाते सूरज कभी सुबह का।
पथ से पथिक अजनवी, जो शाम से डरते हैं॥
मुमकिन है एक दिन वो लगने लगें फ़रिश्ते।
इंसान जो, अल्ला से या राम से डरते हैं॥
वारहा मुहब्बत का, इक नाम दग़ा भी है।
ये इल्म जिन्हें, प्यारे-पैग़ाम से डरते हैं॥
रोये ही जा रहे हैं, बस क़ीमतों का रोना।
फिर भी ये कह रहे हैं, कब दाम से डरते हैं॥
हरिद्वार या मक्का में, मरते-झुलसते इन्साँ।
कब रोज़ा, हज, जप-तप, सुरधाम से डरते हैं॥
‘‘व्याकुल'' को मेरे यारों बुज़दिल न मान लेना।
फानी भी इस जहाँ में अवाम से डरते हैं॥
चिल्लाना तो बड़ा सरल है, चुप रहना आसान नहीं।
मरने के तो लाख़ झमेले, जीने का सामान नहीं॥
एक विवस्त्र विवशता के वश, दूजी फै़शन में नंगी।
क्या कहना इन महिलाओं का, दोनो पर परिधान नहीं॥
प्रगति पंथ पर चलते रहने को ही कहते हैं जीवन।
मरने से भी बदतर जीना जो प्रतिपल गतिमान नहीं॥
काट रहा जो गला दूसरों का निज स्वारथ के चलते।
वह कलंक है मानवता पर जिसको इतना ध्यान नहीं॥
उफ़! क़यामत का मंज़र भी होगा कुछ इतना प्यारा।
इनकी ख़ामोशी जैसा देखा मैंने तूफ़ान नहीं॥
क्या कुछ करें आज हम ऐसा जिससे हो संसार सुखी।
इससे बढ़कर और दूसरा कोई अनुसंधान नहीं॥
लाश से ज़्यादा निष्प्रयोज्य है तन उस जि़न्दा मानव का।
मचल न जाये जिस दिल में, कुछ करने को अरमान नहीं॥
मातृभूमि, मानवता हित जो मर जाते ‘‘व्याकुल'' योद्धा।
युगों-युगों तक दुनियाँ से मिटती उनकी पहचान नहीं॥
पानी में आग
पानी में आग
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नित्य यादों के नये कुछ तीर दिल में लग रहे हैं।
नीद रूठी दिलरूबा सी, प्यार में हम जग रहे हैं॥
ज्ञात है कि हुस्न वालों में, वफ़ा होती नहीं।
पर वफ़ा की चाह में ख़ुद को ही व्याकुल ठग रहे हैं॥
हर गली हर मोड़ पे सीना फुलाये है खड़ा।
जिस मवाली के सितम से उब कर हम भग रहे हैं॥
बाग़वाँ कर देंगे हम अरमान सब पूरे तेरे।
अब हमारी शाख में कुछ फूल ऐसे लग रहे हैं॥
जिनको अपने जौहरी होने का इतना नाज़ है।
उनकी उँगली की अँगूठी में जड़े हम नग रहे हैं॥
देख तेवर जंगली जीवों के होते एकजुट।
पाँव सर पर रख शिकारी बेतहाशा भग रहे हैं॥
भोर हो जायेगी तब, यदि एक भी सूरज बना।
तिमिर से लड़ते हुए जुगनू अभी जो लग रहे हैं॥
जोेड़ देंगे एक दिन आकाश से पाताल को।
भूख़ के भू-गर्भ में कुछ भ्रूण ऐसे पल रहे हैं॥
आज ‘‘व्याकुल'' क़ब्र पर बिखरे हैं फूलों की तरह।
जि़न्दगी भर से हमेशा जो अलग-थलग रहे हैं॥
ज़हर भी जो ढूँढ़ोगे खाँटी न पइहो।
शीशे का घर दूर, टाटी न पइहो॥
बनाये कभी ताज पुरखे-पुरनियाँ।
अजी लाश ढ़कने को माँटी न पइहो॥
अबौ गाँधीजी के अहिंसा घरे माँ।
कतौं ढूँढि़ मरि जइहौ काँटी न पइहो॥
कबौं मुल्क सोने व चाँदी का गढ़ था।
मगर घास-भूसा व छाँटी न पइहो॥
जो पोलाव कीमा-कबाबौ भी कम था।
वहीं पर तू अब चोखा-बाटी न पइहो॥
कभी वन की दौलत पे, था नाज़ तुमको।
बकरी को दो पत्त्ाी आँटी न पइहो॥
सुना है कि जन्नत में क्या कुछ नहीं है।
कश्मीर जैसी तू घाटी न पइहो॥
कभी एक दो पाँच के रूपयों की।
बिना एक भी नोट साटी न पइहो॥
कभी तीन सौ साठ तक बीवियाँ थीं।
अजी आज खोटी व नाटी न पइहो॥
भले फूल की सेज के ख़्वाब देखो।
मगर बसखटा पार-पाटी न पइहो॥
तू ‘‘व्याकुल'' है चखने को लंगड़ा-दशहरी।
बग़ीचे में गुठली भी चाटी न पइहो॥
पानी में आग
पानी में आग
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श्वानो की हिफ़ाज़त में है गोदाम चर्म का।
शोहदों ने कर लिया है कारोबार शर्म का॥
हर दृश्य में नंगी कोई होती है द्रौपदी।
नाटक यहाँ इस तरह से जारी है धर्म का॥
छल इन्द्र करे और अहिल्या शिला बने।
मिलते हुए देखा है फल ऐसा भी कर्म का॥
तन्हाँ घिरा है व्यूह में अभिमन्यु सा इमाँ।
चहुँदिशि बिगुल बजा रहे हैं सब अधर्म का॥
ख़ुद को नहीं संसार बदलने को चले हैं।
हर रोज़ लगाते हैं नये बोर्ड फर्म का॥
रोबोट या कम्प्यूटर कुछ भी लगा लो तुम।
अन्दाज़ लगाओगे क्या इस दिल के मर्म का॥
संसद से सड़क तक ये चीखते हैं रात-दिन।
हर आँकड़े रखते हैं विरोधी कुकर्म का॥
इनके सिवा चाँदी भला काटेगा और कौन।
फल छक के चख रहे हैं ये चमचे सुकर्म का॥
‘‘व्याकुल'' किये रहता है सदा हर मरीज़ को।
ये कूटनीति है ही छुआछूत वर्म का॥
अब तो फूलों में न कलियों में नज़र आती हो।
क्यूँ नहीं गाँव की गलियों में नज़र आती हो॥
नित तुम्हें ढूढँ़ती फिरती है, चमन में ख़ुशबू।
रूपसी तुम न तितलियों में नज़र आती हो॥
व्योम में ढूँढ़ रहीं नित्य घटायें काली।
क्यूँ नहीं अब तू बिजलियों में नज़र आती हो॥
छन्द, नवरस के साथ काव्य को भी हैरत है।
क्यूँ नहीं गीत-कजलियों में नज़र आती हो॥
था कभी जिन हथेलियों में फूल सा चेहरा।
अब न बाहों न उंगलियों में नज़र आती हो॥
रंग पश्चिम की धुनों का चढ़ा तेरे ऊपर।
अब नहीं ढ़ोल-ढ़पलियों में नज़र आती हो॥
कोई जगह नहीं बाक़ी, जहाँ नहीं ढूँढ़ा।
पर न सखियों-सहेलियेां में नज़र आती हो॥
चाहने वाले तो दीवार बिना है ‘‘व्याकुल''।
हे छबीली न तू छलियों में नज़र आती हो॥
पानी में आग
पानी में आग
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जीतिए दिल हर किसी का प्यार, श्रद्धा-भक्ति से।
प्राप्त कीजे ऋद्धियाँ व सिद्धियाँ अनुरक्ति से॥
त्याग, तप, बलिदान से, मिलती है अद्भुत ऊर्जा।
बल कोई दूजा न बढ़कर, आत्मबल की शक्ति से॥
व्यक्त करने से कभी, मत चूकना, हर हाल में।
मन अगर संतृप्त हो, उद्गार की अभिव्यक्ति से॥
लेखनी की साधना, होगी उसी से सार्थक।
कुछ सबक लेगा ज़माना, जिस कवित की पंक्ति से॥
क्यूँ करे जप-तप कोई अब ध्रुव-भगीरथ की तरह।
ईश भी मिल जायेंगे, ई-मेल पर विज्ञप्ति से॥
शीर्ष गुणवानों की श्रेणी में गिना जाता वही।
गुण ग्रहण करता है जो भी कुछ न कुछ हर व्यक्ति से॥
जगत् को करती रहेगी, पुनर्जीवित सर्वदा।
काव्य में जीवन्तता, अक्षुण्ण है जो लोकोक्ति से॥
व्यर्थ है परिकल्पना भी, बिनु गुरु के ज्ञान की।
फूटता है ज्ञान का अंकुर तो बस गुरूभक्ति से॥
भूल हो शायद ही कोई दूसरी इससे बड़ी।
मोल लेना चाहते सुख-शान्ति सब सम्पत्ति से॥
वक़्त रहते साथ चलने को उसे प्रेरित करो।
कर न दे ‘‘व्याकुल'' कही मनमीत ही आसक्ति से॥
ऐसा वातावरण बनाओ, सच कहना लाचारी हो।
लाख़ सबल हो अत्याचारी, न्याय का पलड़ा भारी हो॥
पिता भले बेटे के चलते खाये दर-दर की ठोकर।
कौन बाप होगा जो चाहे, उसका पुत्र भिखारी हो॥
हँसी-ख़ुशी से जंगल में भी, जीव-जन्तु है रह लेते।
मत इसको परिवार कहो, जिस घर में मारा-मारी हो॥
जैसे महापुरूष भारत में, हुए कहीं अन्यत्र नहीं।
जिस नर के घर में सीता, सावित्री जैसी नारी हो॥
एक बार फिर जग में आता, बापू के जैसा कोई।
अपनी जान से बढ़कर ज़्यादा, जिसको दुनियाँ प्यारी हो॥
सार्थकता अंतिम साँसों तक, इस जीवन की बनी रहे।
प्रथम चरण में ही जीवन के, कुछ ऐसी तैयारी हो॥
खुले हक़ीक़त दुनियाँ देखे, रूप ढ़ोंगियों का असली।
आडम्बर का फाटक टूटे, इतनी चोट करारी हो॥
सारी रात नशे के वश में होकर काटी आँखों में।
सुबह-सुबह बेकार सोचना कैसे दूर खुमारी हो॥
सत्तालोलुप, देश द्रोहियों की ज़बान पर ग़ौर करो।
मानवता पर ठेस लगे, फ़रमान न ऐसा जारी हो॥
तुलसी-ज़फ़र, निराला, मीराबाई सा ‘‘व्याकुल''दीखे।
उसको कौन कहेगा कवि, जो कविता का व्यापारी हो॥
पानी में आग
पानी में आग
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दोस्तों सुनिये ख़बर, बिल्कुल है, ताज़ा आज की।
अब परिन्दों के निवाले पर नज़र है बाज़ की॥
रख के गर्दन पे छुरी, करते हैं जीने की दुआ।
दाद तो देनी पड़ेगी, इस हसीं अन्दाज़ की॥
सोचलो, अंजाम क्या होगा तुम्हारे ज़ुल्म का।
बानगी है ये हमारे, जंग के आग़ाज की॥
आज कल वे ही कुतरने, में लगे हैं पर मेरे।
दे रहे थे नित नसीहत, जो हमें परवाज़ की॥
हो रहे हैं अब पुरस्कृत, कर प्रदर्शित छवि वही।
आदमी के वास्ते, जो बात थी कल लाज की॥
कल कुचल डाले कहीं, जनता न उसको पाँव से।
कुछ तो इज़्ज़त कीजिए, माथे के अपने ताज की॥
अब तलक मैंने किसी भी और में देखा नहीं।
जो असर होता दुवाओं में किसी मोहताज की॥
देखने वाले सभी कहते, महज़ मैं ही नहीं।
पार कर दी आपने हद आज नखरे-नाज की॥
हर कोई ‘‘व्याकुल'' नज़र आये मेहरबानी तेरी।
कार्यशैली कुछ अनूठी है, तुम्हारे राज की॥
किसी शख़्स के साथ कभी मनमानी मत करना।
भूखे़ सो जाना लेकिन बेइमानी मत करना॥
जीवन में सेवा का मौक़ा जब भी हाथ लगे।
फ़ौरन हाथ बटाना, आनाकानी मत करना॥
सात पीढि़याँ फल भोगेंगी, करनी का तेरी।
देश की अनदेखी करके, परधानी मत करना॥
स्वाभाविक ही मानव मेें कुछ होती कमज़ोरी।
कभी किसी को शर्म से पानी-पानी मत करना॥
आज मोहरा बनकर जाँ से खेल रहे हैं जो।
भूल से तुम उनके जैसी क़ुर्बानी मत करना॥
मुमकिन है कुछ भी कर लेना इसके बलबूते।
पलभर भी अपनी बर्बाद जवानी मत करना॥
अगर ज़रा भी तुम्हें आबरू है अपनी प्यारी।
कभी किसी की इज़्ज़त से छेड़खानी मत करना॥
कामयाबियाँ हासिल होगी, लेकिन याद रहे।
बड़े-बुज़ुर्ग कहे तो, नाफ़रमानी मत करना॥
घाव बात का कभी न भरता, लाख़ यत्न कीजे।
‘‘व्याकुल'' मन के वश में ग़लतबयानी मत करना॥
पानी में आग
पानी में आग
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ईश्वर कितना अद्भुत है संसार तेरा।
हर शै है नूरानी, पाकर प्यार तेरा॥
रहमोकरम तुम्हारा सबपे क्या कहने।
जग का हर प्राणी है शुक्रगुज़ार तेरा॥
जब भी दुनियाँ पड़ी किसी भी संकट में।
तब-तब धरती पर होता अवतार तेरा॥
अद्भुत रौनक़, ज़र्रे-ज़र्रे पर छायी।
लगा हुआ है माया का बाज़ार तेरा॥
भला और क्या चाहे मानव मिला जिसे।
सुखमय जीवन सा अमूल्य उपहार तेरा॥
एक समान सभी हैं तेरी नज़रों में।
सृष्टि समूची लगती है, परिवार तेरा॥
हर बन्दा मुहताज है तेरी रहमत का।
पूजन, वन्दन, नमन् है शत्-शत् बार तेरा॥
तू चाहे तो पल भर में ‘‘व्याकुल'' कर दे।
कभी भी नहीं जाता ख़ाली वार तेरा॥
ख़ूब चला जब राह नहीं थी।
बहुत मिला जब चाह नही थी॥
होता है आभास मुझे अब। देखा ख़ूब, निगाह नहीं थी॥
बेशक लगती थी आकर्षक।
जब तक पढ़े निकाह नहीं थी॥
शायद अब तक बची हो कोई।
दी जो गई सलाह नहीं थी॥
अपनी फि़क्र भला क्या करता।
दुनियाँ की परवाह नहीं थी॥
सब कुछ तो था जन सेवा में।
पर मोटी तनख़्वाह नहीं थी॥
तेरे-मेरे बीच हमेशा।
स्पर्धा थी, डाह नहीं थी॥
होकर ‘‘व्याकुल'' करता भी क्या।
घर था किन्तु पनाह नहीं थी॥
पानी में आग
पानी में आग
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दुश्मन भाई की शह पाये।
ख़ाक सलामत घर रह पाये॥
कहाँ बची इतनी गुन्जाइश।
सच को कोई सच कह पाये॥
क्यूँ चाहेंगे, पाये दूजा।
जो शोहरत-दौलत वह पाये॥
उनका भी बस एक लक्ष्य है।
लूट मची है, जो लह पाये॥
तब वह मेरी पीड़ा जाने।
ख़ुद जब दर्द नहीं सह पाये॥
खुल ही गया राज़ रोने का।
आँसू भले नहीं बह पाये॥
जो कुछ भी है पास हमारे।
पूछो मत कैसे यह पाये॥
डुबकी बहुत लगाये ‘‘व्याकुल''
तब उसके दिल की तह पाये॥
बेहद नाज़ुक स्थिति में हैं।
अति प्रतिकूल परिस्थिति में हैं॥
काव्य-कर्म हित जीवन अर्पित।
करके चर्चित संस्कृति में हैं॥
भुला दिया है अपने तक को।
क्या यूँ ही जनस्मृति में हैं॥
अब घर की अभिलाषा कैसी।
हम तो हर अपनी कृति में हैं॥
सदा चलेंगे समय के आगे।
हम बसते मन की गति में हैं॥
कुछ भी क्या?, कर पाते अच्छा।
रहते जो सत्संगति में हैं॥
साथी मेरा सिफ़र् आत्मबल।
हम जो इस मनःस्थिति में हैं॥
दृष्टि टिकाये हुए लक्ष्य पर।
‘‘व्याकुल'' उलझे दुर्गति में हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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गरदन मेरी रेत रहे हैं, केश की रक्षा करने वाले।
वातावरण बिगाड़ रहे, परिवेश की रक्षा करने वाले॥
देश-प्रेमियों से, गोरों की कूटनीति भी मात हुई।
फोड़-फाँस कर राज कर रहे, देश की रक्षा करने वाले॥
संगम में तो दूर, फेंक दी गन्दे कूड़े-कचरे में।
मेरे तन की अस्थि-राख, अवशेष की रक्षा करने वाले॥
संरक्षित दस्तावेज़्ाों को बेच रहे औने-पौने।
अति रहस्मय गोपनीय सन्देश की रक्षा करने वाले॥
अवधपुरी की क्षवि से खेले, क्या उनको हक़ है इसका।
ख़ुद निरीह लेकिन बनते अवधेश की रक्षा करने वाले॥
कट्टर कथनी, ढुलमुल करनी, ढ़ोंगी, कपटी क्रूर कुटिल।
घूमें हिप्पी बने, भारतीय-वेश की रक्षा करने वाले॥
इन्दिरा गाँधी की नज़ीर देखा है दुनियाँ वालों ने।
विश्वसनीय कहाँ तक नृपति-नरेश की रक्षा करने वाले॥
सूरज-चन्दा तक को ग्रसते, राहु-केतु कुछ लोग यही।
अन्धकार के पिट्ठू हैं, उन्मेष की रक्षा करने वाले॥
हुए शिकार वहम् के जो भी इस जग में ‘‘व्याकुल'' मानव।
कहते ख़ुद को वही लोग, अखिलेश की रक्षा करने वाले॥
कुछ तो सोचो क्या पाते क्या खोते हैं।
जो अन्धे-बहरों के आगे रोते हैं॥
वाकि़फ़ हैं दुनियाँ वाले इस जुमले से।
चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं॥
भले नहीं पूरा होता है एक कभी।
रोज़ न जाने कितने ख़्वाब सजोते हैं॥
उन्हें मिला क्या लोकतंत्र-आज़ादी से।
भूख़े पेट थके-हारे जो सोते हैं॥
अपनो से सीधे मुँह बात नहीं करते।
ग़ैरोेें के पैरों के तलवे धोते हैं॥
जग ज़ाहिर है गुंजाइश भी क्या इसमें।
वही काटते हैं हम जो कुछ बोते हैं॥
क्यूूँ माँ-बाप उसी को भारी बोझ लगें।
जिस बच्चे को गोद में वर्षों ढ़ोते हैं॥
वे ही अक्सर रत्न लिए ऊपर आते।
‘‘व्याकुल'' जो भी लोग लगाते गोते हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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फि़क्र क्या ख़ाक उन्हें मुफ़लिसों, फ़कीरों की।
जिन्हें तलाश है, खदान मिले हीरों की॥
समाजवाद, लोकतन्त्र का महज़ नारा।
नित बढ़ी जा रही संख्या, नये अमीरों की॥
ज़ख़्म के दर्द से एहसास हो रहा शायद।
प्यास कुछ तो बुझी होगी, तुम्हारे तीरों की॥
आप उस शख़्स को बेशक ही निकम्मा जानो।
जो शिकायत करे इन हाथ के लकीरों की॥
आज सड़कों के किनारों की बढ़ रही क़ीमत।
ये करिश्मा है इनायत का राहगीरों की॥
भूख़, आँसू, अभाव का लगे कोई संगम।
सूरते-हाल हैं ऐसी भी कुछ कुटीरों की॥
गर्व के साथ यही बात मौत भी कहती।
जि़न्दगी, जि़न्दगी होती है शूरवीरों की॥
संयमी लाख़ कोई हो तो देख ले आकर।
चित्त्ा ‘‘व्याकुल'' न हो, इस भीड़ में अधीरों की॥
जिस भले आदमी के पास, शराफ़त होगी।
उसी के सामने इस दौर में, आफ़त होगी॥
वफ़ा की क़द्र वही शख़्स जानता होगा।
किसी के वास्ते जिस दिल में मुहब्बत होगी॥
प्यार पहला अमर होता है अगर सचमुच तो।
मेरी नज़र में महज़ आपकी सूरत होगी॥
घोल कर रंग बनालो अनेक पानी से।
बुद्धि वैसी बने जिस तरह की सोहबत होगी॥
आज चारो तरफ मंज़र है, ख़ौफ़ दहशत का।
कल कैसी न जाने मुल्क की हालत होगी॥
सुकून आपका चिलमन उठे तो आ जाये।
मगर हुज़्ाूर को थोड़ी बहुत ज़हमत होगी॥
श्वान की दुम कभी हो ही नहीं सकती सीधी।
दम नहीं छोड़ती जो भी पड़ी आदत होगी॥
कनक बने हरेक शै जो हाथ लग जाये।
या ख़ुदा कब तेरी ‘‘व्याकुल'' पे भी रहमत होगी॥
पानी में आग
पानी में आग
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जो लोग दिल से चाहते हैं ख़्ौरियत मेरी।
शायद उन्हें पसन्द है, इन्सानियत मेरी॥
तुलसी, कबीर, वेदव्यास, कृष्ण, पाणिनी।
कवि कुल में अनूठी सी लगे वल्दियत मेरी॥
बेहद रहा क़रीब ज़माने से आज तक।
जो जल रहा है देखकर मक़्बूलियत मेरी॥
सीखा है बुज़्ाुर्गो से जो सऊर व हुनर।
गुल एक दिन खिलायेगी, क़ाबिलियत मेरी॥
जो हाथ पसारे अनेक बार सामने।
अब पूछने लगे हैं वही हैसियत मेरी॥
इज़्ज़त क़दर तो दूर, वे पहचानते नहीं।
दिन रात जो करते रहे आवाभगत मेरी॥
अशआर चन्द और एक प्यार भरा दिल।
इसके सिवा नहीं है कोई मिल्कियत मेरी॥
वे जान ही लेंगे ज़रूर आज नहीं कल।
जो लोग नहीं जानते हैं ख़ासियत मेरी॥
इस दौरे-तबाही में भी ये बात कम नहीं।
चर्चा का केन्द्र बिन्दु है, रूहानियत मेरी॥
सुख-शान्ति भरी जि़न्दगी हो कौन न चाहे।
करती रही ‘‘व्याकुल'' सदा मसरूफि़यत मेरी॥
विकृत हुई स्वदेशी प्यास।
देश-प्रेम का सत्यानाश॥
घृणित मानसिकता का द्योतक।
कफ़न विदेशी, देशी लाश॥
पाश्चात्य फ़ैशन के प्यासे।
खादी का करते उपहास॥
ख़ुद से ज़्यादा यक़ीं गै़र पर।
दिल में भरा अन्धविश्वास॥
ग़ैर के पिंजरे में सुख ढूँढे़।
दुःखदायी अपना आकाश॥
आयतित कचरे के आगे।
घर की वस्तु न आये रास॥
अभी वक़्त है, होश में आओ।
वरना होगा सत्यानाश॥
दैहिक आज़ादी तो है पर।
अभी मानसिकता से दास॥
भले ग़ुलामी में जकड़े हैं।
होता नहीं हमें आभास॥
देश समाज की बातें सोचें।
मिलता कहाँ, हमें अवकाश॥
अपनी धुन में जो ‘‘व्याकुल'' हैं।
पर पीड़ा का क्या ? अहसास ॥
पानी में आग
पानी में आग
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पगले कवि मत सोच कभी सम्मान मिलेगा दिल्ली में।
मृत्यु बाद बस कफ़न हेतु अनुदान मिलेगा दिल्ली में॥
चारण बनकर बिरदावलियाँ जो गायेंगे सत्ता की।
मनचाहा, अन्तर्गत-प्र्राविधान मिलेगा दिल्ली में॥
बादशाह के साथ बहादुरशाह ज़फ़र शायर जो थे।
क़ब्र का उनकी दो गज़ नहीं निशान मिलेगा दिल्ली में॥
जाति,धर्म,मज़हब का ताना-बाना बुनने वालों को।
निश्चित ही सबसे ऊँचा स्थान मिलेगा दिल्ली में॥
मालगुज़ारी कृषक गाँव में देता जितनी खेती का।
उससे ज़्यादा कुछ बंगलों का लान मिलेगा दिल्ली में॥
मज़दूरे की हप्ते भर की होती जितनी मज़दूरी।
उतने पैसों में जनाब का पान मिलेगा दिल्ली में॥
बलबूते पर हम सब के जो एक बार भी पहुँच गया।
दौलत, गाड़ी-बंगला आलीशान मिलेगा दिल्ली में॥
कौन सुनेगा अब हम सबकी कहाँ गुहार लगायें हम।
जब संसद का ही तन, लहूलुहान मिलेगा दिल्ली में॥
फिरता था जो शीश झुकाये कल तक,घर-घर चौखट पर।
अब उसके दरवाजे़ पर दरबान मिलेगा दिल्ली में॥
ताक पे नैतिकता बस रखदो फिर देखो धन की वर्षा।
सूद,मूलधन सहित, नकद भुगतान मिलेगा दिल्ली में॥
मंदिर में भी गिरेंगी लाशें, अक्षत-फूलों के बदले।
प्रजातन्त्रा में जलता संविधान मिलेगा दिल्ली में॥
पंचायतीराज की जबसे बागडोर आ हाथ लगी।
तबसे अक्सर अपना ग्राम-प्रधान मिलेगा दिल्ली में॥
‘‘व्याकुल'' प्राणी व्यर्थ भटकना छोड़ करो प्रस्थान अभी।
निश्चित ही तुझको तेरा भगवान मिलेगा दिल्ली में॥
घरबार की हों भीड़ में, चाहे अकेले हैं।
लगभग सभी के संग, दुनियावी झमेले हैं॥
ज़माना एक दिन उनके ही नक़्शे-पा को ढूँढे़गा।
सफ़र में जि़न्दगी के जो मुसीबत हँस के झेले हैं॥
हमें उम्मीद थी जिन दोस्तों से पुष्पवर्षा की।
उठाये हाथ वे ही ईंट-पत्थर और ढ़ेले हैं॥
गवाही दे रही यह आपके चेहरे की रंगत ही।
जवानी में जो अब तक आप छुपकर खेल खेले हैं॥
लगाकर दाग़ कुल में पूछते हो क्या किया मैंने।
नरक में आप अपने साथ पुरूखों को ढ़केले हैं॥
तुम्हें उस्ताद का सम्मान आखि़र किस बिना पर दें।
यक़ीं जानो हमारे आपसे क़ाबिल तो चेले हैं॥
सभी का हौसला है पस्त बूढ़ों से कहीं ज़्यादा।
महज़ कहने को इस लश्कर में सब के सब नवेले हैं॥
बहुत अदनी सी लेकर बात को तुम हो उठे ‘‘व्याकुल''।
हमारे हर क़दम पर ही विकट कष्टों के रेले हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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आग प्यार की जिसके दिल में, जलती है वह जि़न्दा है।
जिस तरूवर की टहनी-टहनी फलती है वह जि़न्दा है॥
मुर्दे सा अस्तित्वहीन होकर रहता मिथ्याभाषी।
जिसके मुख़ से सच्ची बात निकलती है वह जि़न्दा है॥
मुर्दा हैं वे अंगारे जो लिपटे रहते राखों में।
जिस पर्वत के तन से बफ़र् पिघलती है वह जि़न्दा है॥
जिसका कोई नाम न लेवा क्या जीना-मरना उसका।
चर्चा जिसकी हर ज़बान पर चलती है वह जि़न्दा है॥
धरती पर है बोझ किसी के काम कभी जो ना आये।
जिसकी कमी, नहीं रहने पर खलती है वह जि़न्दा है॥
महापुरूष बस देह त्यागने भर से मरा नहीं करते।
जिसके आदशोंर् पर दुनियाँ चलती हैं वह जि़न्दा है॥
क़ब्रिस्ताँ में दफ़न कोई भी आशिक़ हो या माशूक़ा।
दीवानों की टोली गिर्द, टहलती है वह जि़न्दा है॥
कमरे में जिस महापुरूष की टगीं हुई हैं तसवीरें।
लहर ख़ुशी की दिल में, देख उछलती है वह जि़न्दा है॥
‘‘व्याकुल'' भूख़ा, भोजन सा, प्यासा, पानी सा ग्रहण करे।
तबियत पढ़कर कवि-कृति अगर बहलती है वह जि़न्दा है॥
जिस दिन से मेरे घर की, दीवारों के भी कान हो गये ।
बच्चे, बूढ़े, नौज़वान सब, अपने-अपने मान हो गये ॥
उँगली थामे, गोद में बैठे, साथ-साथ जागे-सोये ।
दिल के टुकड़े, अजनबियों से भी बढ़कर अनजान हो गये ॥
जिनसे थी उम्मीद करेंगे, कुल का रौशन नाम कभी ।
ख़ानदान के माथे पर, वे ही विरुप निशान हो गये ॥
जिनकी उन्नति की ख़ातिर, अनदेखी की मैंने खु़द की ।
उनकी नज़रों में हम, घर की प्रगति बीच व्यवधान हो गये ॥
मेरे सिर इल्ज़ाम लगा, उसपे हमले की साजि़श का ।
भले सुरक्षा उसकी, करने में हम लहू-लुहान हो गये ॥
आश्रित थे जब तक वे मुझपे, थे नादान तभी तक ही।
हमें अनाश्रित चले बनाने, कितने चतुर सुजान हो गये ॥
देखा नहीं सुना परिवर्तन, यूँ होते इन्सानों में ।
फूल से भी नाज़ुक तन वालों, के भी दिल चट्टान हो गये ॥
बाढ़ का पानी घुसा घरों में, उचित कहाँ तक यह कहना ।
जब की नदियों के अन्दर तक, आलीशान मकान हो गये ॥
कल जो कूदे देखा-देखी,‘‘व्याकुल'' होकर कुआँ में ।
कुछ महीन हो गये, और जो बाक़ी बचे महान हो गये ॥
पानी में आग
पानी में आग
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आह़्लादित,प्रमुदित,प्रसन्नचित,लक-दक धवल लिबास रहा ।
जितने दिन तक नयी-नवेली, कविताओं के पास रहा ॥
वातावरण बदल जाता है सिफ़र् हमारी आहट से ।
जिस महफि़ल में जब तक बैठा, मैं तब तक मधुमास रहा ॥
हर अभाव के बावज़़़़़ूद भी जब कुछ लिखने को बैठा ।
धरती काग़ज़ में, व क़लम की स्याही में आकाश रहा ॥
कुछ लोगों की नज़रों में तो फिर भी रहा निठल्ला ही ।
काम के चलते जान न पाया, कब मेरा अवकाश रहा ॥
कोई शि़कवा-गिला नहीं, मुझको अपने श़ागिर्दों से ।
जीवन भर कोई भी बनकर, कहाँ किसी का दास रहा ॥
मानव हैं तो मानवता का धर्म निभायें आजीवन ।
पग-पग पर नित हर पल मुझको,इसका जो एहसास रहा ॥
सद्संगति के फलस्वरुप, हो गया सुगंधित कुछ वह भी ।
अगल-बगल यदि मेरे कोई, सेमर और पलाश रहा॥
सारी खोट निकाली मुझमें से ज़मीर ने ही मेरे।
मानो निपुण जौहरी कोई हीरा काट-तराश रहा॥
रत्ती भर भी हुआ न विचलित, कभी अभावों के चलते।
लक्ष्य कदापि नहीें जीवन का मेरे भोग-विलास रहा॥
भले कड़ी स्पर्धायें, पग-पग पर आयीं जीवन में।
रहा सर्वदा क़ामयाब, ख़ुद पर इतना विश्वास रहा॥
इन स्थितियों में तो था ही, ‘‘व्याकुल'' होना स्वाभाविक ।
जैसे मेरे अन्दर कोई निश दिन मुझे तलाश रहा॥
हिन्दुस्ताँ के साथ किया था, बदसुलूक जो गोरों ने ।
उससे भी घटिया व्यवहार, किया कुछ घर के चोरों ने ॥
हुस्न के जलवे से तुम अपने, नहीं अभी तक हो वाकि़फ़ ।
चाल तुम्हारी देख, नाचना छोड़ दिया है मोरों ने ॥
माँस कभी कुत्ते तक खाते, स्वप्रजाति का नहीं मगर ।
ख़ाक न बख्शा इन्साँ को, इन्सानी - आदमख़ोरों ने ॥
इतने हम सब हुए आधुनिक, तोड़ सभी मर्यादायें ।
शुरु कर दिया आज उपेक्षा, बड़ों की आज किशोरों ने ॥
नाविक ने तो छोड़ दिया था, भाग्य भरोसे कभी इसे ।
कश्ती को गति दिया नदी की, लहरों और हिलोरों ने ॥
ज़ाफ़रान की भीनी मादकता, साँसों से लिपट गयी ।
तेरे तन की गन्ध मुझे दी, पागल पवन-झकोरों ने ॥
गो-सेवा, पयपान छोड़कर, मदिरा-माँस लगे खाने ।
भुला दिया कुल की मर्यादा, कुछ ग्वालों-ढ़ड़होरों ने ॥
खलल नींद में डाल न पाये, कभी बाहरी कोलाहल ।
‘‘व्याकुल'' हमको बना दिया, हर रोम से उठते शोरों ने ॥
पानी में आग
पानी में आग
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दो तटों के बीच कारोबार करते रह गये ।
हम वो माँझी हैं जो सबको पार करते रह गये ॥
हम तो पलकों पे सदा उनको भी बैठाते रहे ।
जो हमारे साथ अत्याचार करते रह गये ॥
नित प्रतीक्षा में किसी की, हो गयी रुह तक फ़ना ।
उम्रभर हज़रत हैं कि, श्रृंगार करते रह गये ॥
घर की ख़स्ताहाल के, मेहमान जि़म्मेदार हैं ।
मेंज़बाँ तो बस, अतिथि-सत्कार करते रह गये ॥
एक भी हरकत न ख़ारों ने किया बेजा कभी ।
गुल ही कुछ गुलशन का, बन्टाधार करते रह गये ॥
क्यूँ नहीं मंजि़ल मिली, यह पूछते भी हो तुम्हीं ।
पथ में हम तेरा ही इन्तिज़ार करते रह गये ॥
भूख़, बीमारी से घर में मर गया बच्चा मगर ।
क़र्ज़ लेकर बाप-माँ, बाज़ार करते रह गये ॥
वे सदा करते रहे, खिलवाड़ मेरी अर्ज़ से।
और हम उनकी ग़रज़ स्वीकार करते रह गये ॥
रुठना, होगी तुम्हारे वास्ते प्यारी अदा ।
हो गये बरबाद, जो मनुहार करते रह गये ॥
लाख़ बाधायें, करोड़ों क्यूँ न हों दुश्वारियाँ ।
प्यार जिससे भी किया, तो प्यार करते रह गये ॥
एक पल में ही कोई, जोरु बनाकर ले गया ।
और ‘‘व्याकुल'' नित्य आँखें चार करते रह गये ॥
ज़मीं-आसमाँ सब कुछ, पहले जैसे चाँद-सितारे हैं ।
रावन-राम, पाण्ड़व-कौरव, अब भी बीच हमारे हैं ॥
आदि काल से वर्तमान तक, उदाहरण मिलते लाख़ों ।
जीवन बस उनका ही जीवन, जो हिम्मत ना हारे हैं ॥
भाग्य भरोसे रहने वाले, अक्सर ही दीखे डूबे ।
हाथ-पाँव जो लोग मारते, पाते वही किनारे हैं ॥
उसके अक्सर बने सहायक, दीखे स्वयं ईश्वर तक ।
दुर्दिन में दीनों-दुखियों के, जो भी बने सहारे हैं ॥
गै़रों के बहकावे में, खोया विवेक तू ने अपना ।
नाहक़ शक अपनों पे ही, क्या ख़ूब ख़याल तुम्हारे हैं ॥
हम सब वंशज हैं, कुछ ऐसे महाबली योद्धाओं के ।
जिसने कभी शहंशाहों के सिर से ताज उतारे हैं ॥
जिसमें भी मानवता देखी, उसे बिठाया पलकों पे ।
ग़लत आचरण करने वाले को जमकर फटकारे हैं ॥
वही एक दिन बुद्धिमान, गुणवान, नेक मानव बनते ।
धीरे-धीरे, एक-एक करके जो भूल सुधारे हैं ॥
राख समझकर कभी न करना, छेड़-छाड़ की नादानी ।
अभी हमारे अन्दर संरक्षित, जीवित अंगारे हैं ॥
ना तो कुछ करने की क़ूवत, नहीं योजना ही कोई ।
कुछ ख़्ोमों के आकर्षण तो बस लुभावने नारे हैं ॥
अब लंकागढ़ दूर कहाँ है पहुँच से मेरी सेना की ।
सेतु बाँधने का व्रत लेकर आये सिंधु किनारे हैं ॥
बेहद ‘‘व्याकुल'' रहे कभी हम, जिनका दर्शन पाने को ।
ढूंढ-ढूंढकर वही आज ख़ुद मिलते साँझ-सकारे हैं ॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
पत्थर को दही-दूध से नहला रहे हैं लोग,
भूखे़ ही पेट शिशु कहीं सुला रहे हैं लोग।
जो दुश्मनी करने के भी क़ाबिल नहीं लगा,
मेहमान बनाकर उसे बुला रहे हैं लोग॥
(क)
पाँव भी नंगे, बिछे थे शूल मेरी राह में,
अनवरत चलता रहा, फिर भी वतन की चाह में।
रात काली, आधियाँ, पग-पग पे पर्वत खाइयाँ,
एक पल ठहरा न, कष्टों की कभी परवाह मेें॥
(ख)
जीवन के संकट को भाँप रही धरती,
आये दिन रह-रह के, काँप रही धरती।
संदूषित क़ुदरत को देख हुई ‘‘व्याकुल'',
पाप-पुण्य भार, तौल-माप रही धरती॥
(ख)
क्या पता था इस क़दर हैवानियत का राज होगा,
ख़्वाब में सोचा नहीं था वो तमाशा आज होगा।
लग रहा, हो जायेगा तब्दील जंगल में जहाँ,
लोमड़ी का शेरनी जैसा, अगर अंदाज़ होगा॥
(ग)
भौहें कमान, पैनी नज़र तीर बन गयी,
मुसकान लबों की अजी समशीर बन गयी।
अपने ही लिखे शेर को जब ग़ौर से देखा,
हैरत हुई कि आप की तस्वीर बन गयी॥
(ग)
एक बेहद हसीन रात, लेके हाजि़र है,
चाँद-तारों भरी बारात, लेके हाजि़र हैं।
कुबूल कीजिए, हज़रात आज तोहफ़े में,
नज़्म व शेर की सौग़ात ले के हाजि़र हैं॥
(घ)
पंछियों सा चहकते रहो,
बनके हीरा चमकते रहो।
सार्थक जि़न्दगी के लिए,
फूल जैसे महकते रहो॥
(ड․)
दुधमुँहें, नौजवाँ, बृद्धजन,
छत-बिछत हो गये सबके तन।
हादसा देख गुजरात का,
दिल है सदमें में ‘‘व्याकुल'' है मन॥
(घ)
क्या कहें हम ज़बाँ सिल गई,
भूमि गुजरात की हिल गई।
मौत यूँ कर गयी ताण्डव,
हर ख़ुशी ख़ाक में मिल गई॥
(ड)
चितवन से कुछ ऐसे मीठे वार किया,
जीना भी मेरा ज़ालिम दुश्वार किया।
कमोबेश ऐसी हालत हर प्रेमी की,
जिसने भी, जीवन में अपने प्यार किया॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
कुछ लोग काग़ज़ी अलाव ताप रहे हैं,
सर्दी से परीशाँ ग़रीब काँप रहे हैं।
कुछ सूट-बूट धारियों का आग जलाते,
रंगीन चित्र मीडिया भी छाप रहे हैं॥
(क)
दीप की इच्छा सदा जलते रहें,
वृक्ष की ख़्वाहिश सदा फलते रहें।
नाम चलने का अगर है जि़न्दगी,
है तमन्ना बस यही चलते रहें॥
(ख)
अद्भुत ग़ज़ब बात-व्यवहार,
शर्मिन्दा होवे व्यभिचार।
देख आचरण नित तव नूतन,
किया ख़ुदकुशी शिष्टाचार॥
(ख)
टूटा जब प्राकृतिक प्रदूषण का मानक,
मौसम का तेवर तब बिगड़ा अचानक।
इतिहास साक्षी है भूल हुई जब-जब,
तर-ताबर हादसे हुए कई भयानक॥
(ग)
जि़न्दगी का लुत्फ यूँ, घुट -घुट के जीने में नहीं,
जो मज़ा साक़ी पिलाने में है, पीने में नहीं।
क्या पता था प्यार यूँ कंगाल कर देगा मुझे,
लग रहा है आज दिल भी मेरे सीने में नहीं॥
(ग)
वायु की भाँति चलते रहो,
पुष्प की भाँति खिलते रहो।
सार्थक जग में जीना लगे,
दीप की भाँति जलते रहो॥
(घ)
पहले छुप कर घर में आग लगाते हैं,
राख पे फिर घडि़याली अश्क बहाते हैं।
बना डालते अदनी बात बतंगड़ ये,
सुलझाना तो दूर सिर्फ़ उलझाते हैं॥
(घ)
विद्यार्थी के गुण हों, आप शिष्ट लगोगे,
यदि ज्ञान का अर्जन है तो विशिष्ट लगोगे।
तुलसी, कबीर, बाल्मीकि, व्यास की तरह,
प्रति मातु शारदे के सत्यनिष्ठ लगोगे॥
(ड․)
माया के चक्कर में नीति-धर्म छोड़ा,
बगुले ने चमगादड़ से रिश्ता जोड़ा।
रीति-प्रीति ख़ाक निभे साँप से छछुन्दर की,
आप समझिए ज़्यादा, लिखना बस थोड़ा॥
(ड․)
कैसे होगा भला हमारा,
फँसा व्यूह में गला हमारा।
परवाने सा दीपक लौ से,
प्यार किया दिल जला हमारा॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
आँखों से काजल का झगड़ा,
पाँवों से पायल का झगड़ा।
सोचो आखि़र क्यूँ होता हैं,
माथे से आँचल का झगड़ा॥
(क)
अब तलक ये वहम था तन्हाँ भरी महफि़ल में हैं,
राज़ अब तो खुल गया हम आप सबके दिल में हैं।
आप की ज़र्रानवाज़ी क्या से क्या हम हो गये,
शुक्रिया एहसान का कैसे करें, मुश्किल में हैं॥
(ख)
डगमगाती, डूबती कश्ती पे जो ख़ुद भार है,
आज ऐसे नाख़ुदा के हाथ में पतवार है।
डूबने का ग़म न साहिल पे पहुँचने की ख़ुशी,
फ़क़र् क्या पड़ता है बेड़ा ग़र्क़ है कि पार है॥
(ख)
कीजिए ग़ौर जालसाज़ी है,
कल थी नाराज आज राज़ी है।
फ़र्क़ क्या जब हुए फि़दा दोनो,
जैसा दुल्हा है वैसा काज़ी है॥
(ग)
पथ में ठोकर से बेशक डरो,
किन्तु डर कर सफ़र मत करो।
डर के ंजीने से क्या फ़ायदा,
शान से मौत के दिन मरो॥
(ग)
जि़न्दगी पल-पल किसी की, बेक़रारी में कटी,
बेवफ़ाई के भी बदले, वफ़ादारी में कटी।
रास्ता ही घर, पथिक राहों के ही परिवार जन,
दिन तो दिन है, रात भी चलती सवारी में कटी॥
(घ)
चर्चा में जो रहना है तो बवाल कीजिए,
महफि़ल में उटपटांग कुछ सवाल कीजिए।
ग़ैरों की ख़ूब रात-दिन, बिख़या उघेडि़ए,
चाहे भले ही आप गोलमाल कीजिए॥
(ड․)
लक्ष्य भेदन करो पार्थ सा,
योग युवराज सिद्धार्थ सा।
साधु ‘‘व्याकुल'' हैं सरिता, सुमन,
सुख न अन्यत्रा परमार्थ सा॥
(घ)
एक चेहरा कई रंग हैं,
देख किरदार हम दंग हैं।
वक़्त पर अजनबी से लगे,
बनके साया मिरे संग हैं॥
(ड․)
बिगड़े हुए माहौल में, क्या गीत क्या ग़ज़ल,
अब रात भर की छोडि़ए, भारी है एक पल।
यह शोर-शराबे का चलन आम हो गया,
ये मरज़ तो ज़ोरों से बढ़ रहा है, आजकल॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
जाति,धर्म व सम्प्रदायवादी होंगे जहँ महिमामण्डित,
कर्म से नहीं जन्म, जातिगत, शुद्र-वैश्य, क्षत्रिाय व पंडित।
सामाजिक समरसता, रिश्ते, नाते भाई चारा सब,
विकृत मनोवृत्त्ाि के चलते, अवश्यमेव ही होंगे खण्डित॥
(क)
जिसके लिए जगता रहा है कोई रातभर,
वह बेवफ़ा बेख़ौफ ख़ूब सोई रातभर।
कलियों, गुलों के जिस्म हैं, शबनम से तर-ब-तर,
गुलशन में आज चाँदनी है रोई रातभर॥
(ख)
दिलों की गहरी खाइंर् पाटे,
जन-जन बीच मुहब्बत बाँटे।
काव्य जगत का काव्यामृत है,
‘‘चूभते फूल महकते काँटे''॥
(ख)
आप थोड़ी सी महज़ ज़हमत गवारा कीजिए,
दिल मेरा मत तोडि़ए कहना हमारा कीजिए।
हर तमन्ना आपकी पूरी करेेंगे हम मगर,
कम से कम जाने जिगर कुछ तो इशारा कीजिए॥
(ग)
पता नहीं था हमें, जब तेरे क़रीब रहे,
आज महसूस हो रहा हैं ख़ुशनसीब रहे।
भूलना चाह के भी, मैं भुला नहीं सकता,
नाज़-नख़रे तेरे, कुछ इस तरह अजीब रहे॥
(ग)
पत्थर के कुछ टुकड़ों वाले, रत्नों के व्यापारी हो गये,
नेत्राहीन, लूले-लँगड़े भी, तीरन्दाज़ शिकारी हो गये।
शब्दों से व्यभिचार करें, खिलवाड़ अर्थ की अस्मत से,
पकड़े क़लम हाथ में ''व्याकुल'' तुलसी, सूर, बिहारी हो गये॥
(घ)
बिगड़ा हुआ मिज़ाज घटाओं का देखिए,
कितना है बुरा हाल अब गाँवों का देखिए।
धरती के कलेजे की दरारों का नज़ारा,
मरहम को तरसते मेरे घावों को देखिए॥
(ड․)
कुछ ताजा़, कुछ बासी लोग,
कुछ कटु, कुछ मृदुभाषी लोग।
लगता है कि आज करेंगे,
खि़दमत कुछ परिहासी लोग॥
(घ)
ना ये सिर काटते हैं न धड़ काटते,
प्यार चंगुल फँसाकर, जकड़ काटते।
छटपटाये कोई लाख़ कुछ ग़म नहीं,
है महारत इन्हें सिफ़र् जड़ काटते॥
(ड․)
हम समन्दर उलीच सकते हैं,
जड़ से पर्वत को खींच सकते हैं।
चाँद क़दमों तले हमारे है,
रवि को मुठ्ठी में भींच सकते हैं॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
कूड़ा-कचरा मुफ़्त उठालो,
कविता की दुकान सजालो।
कुछ भी कहकर अल्लम-गल्लम,
डालर व दीनार बनालो॥
(क)
कल का नाकारा-निखट्टू, आज लायक बन गया,
क्योंकि जन सेवा का धन्धा, लाभदायक बन गया।
विधि की जो, विधिवत उड़ाया नित्य, वर्षो धज्जियाँ,
देखते ही देखते ''व्याकुल'' विधायक बन गया॥
(ख)
किस पर किसका कितना हक़ है,
यह मसला सम्बन्धों तक है।
उसे भरोसा कौन दिलाये,
जिसको ख़ुद अपने पे शक है॥
(ख)
शुद्ध मस्तिष्क मन कीजिए,
नित बड़ों को नमन कीजिए।
श्रेष्ठ इन्सान बन जाओगे,
सत्य-पथ अनुगमन कीजिए॥
(ग)
बुज़दिलों की तरह व्यवहार कभी मत करना,
पीठ पीछे से कोई वार कभी मत करना।
मानता हूँ कि भूल आदमी से होती है,
एक ही भूल बार-बार कभी मत करना॥
(ग)
झूठ-मूठ में पोत के आटा हाथ में हम भण्डारी हो गये,
हाथ बटेर लगी है जबसे तीरंदाज़ शिकारी हो गये।
चमत्कार कुछ मुफ़्त में हमसे सीखो ऐ दुनियाँ वालों,
मुठ्ठी भर कंकर की क़ ूवत, हीरों के व्यापारी हो गये॥
(घ)
आदमी क्रूर हुआ, बोल-बचन रूखा है,
कोई नंगे बदन, बदहाल कोई भूख़ा है।
आज सोने की ये चिडि़या है ग्रस्त लकवा से,
कहीं अकाल कहीं भूख़मरी है, सूख़ा है॥
(घ)
मुफ़लिसी हौसले को तोड़ के रख देती है,
रास्ता जि़न्दगी का मोड़ के रख देती है।
चपेट में जो कभी, भूल से इसकी आया,
धर्म इमान को भी गोड़ के रख देती है॥
(ड․)
रिश्वतें क्या? इस समूचे मुल्क को खा जाइये,
दल बदल कर आप सत्त्ाा पक्ष में आ जाइये।
देश की चिन्ता में ‘‘व्याकुल'' हैं अगर जो आप तो,
बैठिये प्रतिपक्ष में औ चीखिए-चिल्लाइये॥
पानी में आग
पानी में आग
(ड․)
पाषाण का हृदय भी पिघलता हुआ दीखे,
पानी भी रूई की तरह जलता हुआ दीखे।
अनहोनियों के दौर में कुछ भी नहीं मुश्किल,
मुमकिन है चाँद ज़मीं पे चलता हुआ दीखे॥
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(क)
मुख़ यूँ ही नहीं आज सपोले का खुला है,
ईर्ष्या का ज़हर दुष्ट के नस-नस में घुला है।
अन्तर की जलन से ही ये, जल जायेगा कभी,
मिट जायेगा जो हमको मिटाने पे तुला है॥
(क)
यह स्थिति कितनी घातक है,
‘‘व्याकुल'' चाँद, शान्त चातक है।
देश अँगूठा छाप चलाते,
घास छीलता स्नातक है॥
(ख)
िज़्ान्दगी में शुमार करते हैं,
हम जिसे दिल से प्यार करते हैं।
कुछ शिकरी नज़र के तीरों से,
लम्हाँ-लम्हाँ शिकार करते हैं॥
(ख)
चाटुकारों की कवित-पद देखिये,
चापलूसी की अजी हद देखिये।
ग़ौर करिये, ताड़ है कि तिल कोई,
बात पर मत जाइये, क़द देखिये॥
(ग)
काँटे अगर न पीछे पड़ते, शायद फूल की बात न आती,
सूरज ख़ुद यदि नहीं डूबता, धवल चाँदनी रात न आती।
अपनों ने ग़ैरों से ज़्यादा मुझे न तड़पाया होता,
मेरे ग़म के हर मौके पर, ख़ुशियों की बारात न आती॥
(ग)
हुज़्ाूर ग़ौर कीजिएगा, ख़बर ताज़ा है,
इक छछूंदर को चुना, विषधरों ने राजा है।
कल उगल दे, निगल जाय, हस्र हो कुछ भी,
वक़्त बतलायेगा, किसने किसे नवाज़ा है॥
(घ)
पल में महि, कुछ ही पलों में महीप सी है,
दिव्य मोती को समेटे, सीप सी है।
जि़न्दगी का नाम, इक संघर्ष भी है,
आँधियों के बीच, जलते दीप सी हैै॥
(घ)
बाहुबली, क़द्दावर तक भी, इस दर पर बौने लगते हैं,
तीसमारखाँ बनने वाले, भी औने-पौने लगते हैं।
इस मुक़ाम पर अच्छे-अच्छों की बँध जाती है, घिग्घी,
सिंह-गर्जना करने वाले, मिमियाते छौने लगते हैं॥
(ड․)
अपनी करनी पर ये अहमक ज़रा भी नहीं खेद करेेंगे,
जिस थाली में व्यंजन लेंगे, खाकर उसमें छेद करेेंगे।
कुल-कुटम्ब की मर्यादा से इनको क्या? लेना-देना,
पति-पत्नी, भाई-भाई व पिता-पुत्रा में भेद करेंगे॥
(ड․)
वाकि़या सहनीय हो तो, झेल जाना चाहिए,
बात मर्यादा की हो, तो जेल जाना चाहिए।
लाख़ हम सब हैं अहिंसा के पुजारी, पर सखे,
देश हित में, जान से भी खेल जाना चाहिए॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
बिच्छू का मन्तर ना जाने, घुसना-चाहे सांप के बिल में,
खानाबद्दोसी का जीवन-बसना चाहे सबके दिल में।
चाटुकारिता, चकमाबाज़ी, धोखाधड़ी, फ़रेब करे,
वह सबका उद्धार करेगा, फँसा है जो ख़ुद ही मुश्किल में॥
(क)
कुछ लुटेरों को वतन यह, लूटने से रोकिये,
दर-ब-दर ना आप हों, घर फूटने से रोकिये।
नीति ही इनकी है आपस में लड़ाने की हमें,
कूटनीतिज्ञों को खोवा कूटने से रोकिये॥
(ग)
दिल में अब अरमान नहीं है,
होटों पर मुसकान नहीं है।
कब तक यह माहौल रहेगा,
कुछ कहना आसान नहीं है॥
(ग)
चोट तो कर ही दिये, अब दर्द सहने दीजिए,
इन परिस्थितियों में अब, तो मत उलहने दीजिए।
क्या मिलेगा, दर-ब-दर करके मुझे, मेरे सनम,
यार हैं दिलदार हैं, दिल में ही रहने दीजिए॥
(घ)
जिधर-जिधर भी मेरी दूर तक नज़र जाये,
सनम के हुस्न हसीं नूर तक नज़र जाये।
आँख ‘‘व्याकुल'' खुले जब भी यही दुआ माँगू,
ख़ुदा करे महज़ हुज़्ाूर तक नज़र जाये॥
(ख)
अगर दौड़ में, केंचुए की विजय हो,
प्रखर धावकों की, न क्यूँ शक्ति क्षय हो।
जहाँ मण्डली, अन्ध निर्णायकों की,
किसी की वहाँ, योग्यता कैसे तय हो॥
(ख)
हमारी तबाही का, कारण बताओ,
समस्या का समुचित निवारण बताओ।
मेरे शब्द, गर लग रहे कटु तुम्हें तो,
मुझे अक्षरों का, उच्चारण बताओ॥
(ड․)
सफ़र लम्बा है अभी लश्कर को चलने दीजिए,
लाजि़मी है रौशनी, दीपक को जलने दीजिए।
भोर की किरणें करेंगी, आगवानी बाअदब,
रात के आग़ोश से सूरज निकलने दीजिए॥
(ड․)
कुछ इस क़दर फँसे हैं, घरेलू बवाल में,
उलझा हो जैसे शेर शिकारी के जाल में।
तूफ़ान में शम्मा कोई जलती है किस तरह,
करते हैं लोग पेश हमें, अब मिसाल में॥
(घ)
घर के अन्दर जान का ख़तरा,
चौके में मेहमान का ख़तरा।
ख़तरे का ही नाम है जीवन,
अपनों से सम्मान का ख़तरा॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
फूलों व काँटों का रिश्ता कितना ग़ज़ब निराला है,
संग सहोदर मृदु अमृत के, ‘‘कालकूट'' विष-ज्वाला है।
कोई दिक्कत, गिला न शिकवा, दरमियान इन दोनों के,
कभी काँट को फूल, फूल को कभी काँट ने पाला है॥
(क)
भरी दरिया में उतरे आज, कल साहिल पे होंगे,
हमारी कारवाँ के नक़्शे-पा हर दिल पे होंगे।
निशा में चाँद-तारे, दिन में सूरज साथ दे ना दे,
हमसफ़र आप जैसा है तो हम मंजि़ल पे होंगे॥
(ख)
दिन बुरे हैं लाख़ लेकिन काम कुछ अच्छा करो,
दीन-दुखियों का भला-उपकार नित स्वेक्षा करो।
आचरण उत्कृष्ट करके जीत लो दिल प्यार से,
प्राण-चिन्ता त्याग कर, निज बात की रक्षा करो॥
(ख)
जल रहा तन मछलियों का आज शीतल नीर में,
रूप क़ातिल का उभरता यार की तस्वीर में।
मानसिकता इस क़दर, संक्रमित-विकृत हुई,
ढूँढ़ते हैं लोग ख़ुशियाँ, दूसरों की पीर में॥
(ग)
सिलसिला नित पतन का जारी है,
शेर, बकरे की अब सवारी है।
आज हालात कुछ हुए ऐसे,
योग्यता पर जुगाड़ भारी है॥
(ग)
काश! कि मैं मजबूर न होता,
अपनो से यूँ दूर न होता।
पारदर्शिता अगर न होती,
शीशा चकनाचूर न होता॥
(घ)
मक्खी थी सिरफिरी उसे तितली बना दिया,
जड़ को ज़मीन से उठा, कली बना दिया।
घुट-घुट के मर रही थी जो चिंगारी राख में,
‘‘व्याकुल'' उसे ब्रम्हाण्ड की बिजली बना दिया॥
(घ)
रहबरी के लिए जिस हाथ में मशाल दिया,
कारवाँ को ही ग़लत रास्ते पे डाल दिया।
नाख़ुदा ख़ुद मेरी कश्ती को डुबोया लेकिन,
हमेें साहिल मिला, दरिया ने ही उछाल दिया॥
(ड)
देखा नहीं नज़ारा कभी आज की तरह,
जूती है शिरोधार्य कनक-ताज की तरह।
तब्दील हो चुका है कत्लगाह में चमन,
बुलबुल शिकार कर रही है बाज़ की तरह॥
पानी में आग
पानी में आग
(ड)
कुछ तो करिये आज के लायक,
कल भविष्य में नाज़ के लायक।
अद्भुत कीर्तिमान हो क़ायम,
अपने देश समाज के लायक॥
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(क)
बौनों में भी क़द का झगड़ा,
लोकतन्त्र में पद का झगड़ा।
भाई से ही भाई करता,
आँगन में सरहद का झगड़ा॥
(क)
कैसे किसी पे अब जमेगा रंग आपका,
अपनों ने ही जब छोड़ दिया संग आपका।
सिर में है चोट पाँव पर मरहम लगा रहे,
कितना अजीब है जनाब ढं़ग आपका॥
(ख)
अच्छा है माहौल आजकल लूटपाट कर खाने का,
देश-विदेश भ्रमण करने, गाड़ी बंगला बनवाने का।
विद्युत गति से बदल रहा है सारा वातावरण यहाँ,
‘‘व्याकुल'' जनता देख रही है तेवर नये ज़माने का॥
(ख)
तंगी के दौर में रसद-चौका बचाइये,
बरवक़्त अभी तक तो है मौक़ा बचाइये।
ढ़ोंगी ने जल समाधि की स्थिति में ला दिया,
हाथों से मगरमच्छ के नौका बचाइये॥
ग)
फूल ख़ुशबू चाँदनी या चाँद, तुमको क्या कहूँ,
रूप तेरा देखने के बाद तुमको क्या कहूँ।
हुस्न की उपमा बमुश्किल ढूँढ़ रखा था मगर,
बेवफ़ा निकली तू मेरी याद तुमको क्या कहूँ॥
(ग)
आइने से भागता है मुख़ पे जिसके दाग़ हो,
ख़ैरियत चूहे की कब तक, बिल में पैठा नाग हो।
एक दिन ज्वालामुखी का फूटना है लाजि़मी,
शान्त कब तक रह सकेगा, उर में जिसके आग हो॥
(घ)
हमारी जि़न्दगी हो, जान हो तुम,
नूरेचश्म हो, मुसकान हो तुम।
तुम्हारे वास्ते बन्दा है ‘‘व्याकुल'',
मगर इस बात से अनजान हो तुम॥
(घ)
तरू, पत्त्ाी-डाली को तरसे,
मधुशाला प्याली को तरसे।
अचरज की भी हद है ‘‘व्याकुल''
कविता-कवि, ताली को तरसे॥
(ड․)
माना कि साठ-गाँठ है लहरों की भँवर से,
मुमकिन कहाँ कि रोक सकें हमको सफ़र से।
हम डूब भी गये तो रत्न ढूढ़ ही लेंगे,
लंगर नहीं हम डालते तूफ़ान के डर से॥
पानी में आग
पानी में आग
(ड․)
जड़वत दिमाग़, जिगर को कंकड़ बना दिया,
मानस के राजहंस को औघड़ बना दिया।
बारूद से दीवाली, खेल फाग लहू से,
माली ने ही सारा चमन कीचड़ बना दिया॥
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(क)
काश! हमारी किसी ग़ज़ल का तुम जैसा मुखड़ा होता,
दुनियाँ की नज़रों में मैं भी शायर बहुत बड़ा होता।
गर शिकार मैं बना न होता ख़्ोमेबाज़ी ईर्ष्या का,
इर्द-गिर्द मीर-ग़ालिब के ‘‘व्याकुल'' आज खड़ा होता॥
(क)
शुभघड़ी आ गयी अच्छा भला महूरत है,
सैकड़ों आइने पर एक सिर्फ़ सूरत है।
लोग ‘‘व्याकुल'' हैं चले आइये कुछ बात बने,
हुज़्ाूर आप की ही बस हमें ज़रूरत है॥
(ख)
दाने से बुझे और न ही आब से बुझे,
ना हुस्न से बुझे न ही शराब से बुझे।
ज्ञानामृत का कोष हो जिस पात्र में संचित,
‘‘व्याकुल'' की भूख़-प्यास उस किताब से बुझे॥
(ग)
माहौल तो पहले यहाँ बन जाए प्यार का,
फिर जि़क्र हम शुरू करें ग़ज़ल में यार का।
जिसको है ज़रा सी भी मुहब्बत गुलाब से,
सीखे वो शख़्स एहतराम करना ख़ार का॥
(ख)
शर्म-हया सब पी डालो,
लगी आग में घी डालो।
अगर मसीहा बनना हो तो,
ज़ुबाँ सभी की सी डालो॥
(ग)
जिसका दावा कि सूरज हैं हम,
वो तो निकला दिये से भी कम।
पाँव अंगद सा जिसका लगा,
वह फिसलता क़दम दर क़दम॥
(घ)
धैर्य का दामन न छूटे, कोटि ग़म-उल्लास में,
चन्द्रमा किंचित न विचलित, तीस गति, प्रति मास में।
वक़्त हर्गिज़ एक सा रहता किसी का भी नहीं,
सूर्य की भी तीन गति होती है नित आकाश में॥
(घ)
निशा हो रही है जवाँ धीरे-धीरे,
जलाते चलें हम शमा धीरे-धीरे।
किरन भोर की कल करे आगवानी,
चले रातभर कारवाँ धीरे-धीरे॥
(ड․)
लोग कितने अजीब होते हैं,
दूर, पलमें क़रीब होते हैं।
भूल करने के बाद कहते हैं,
अपने-अपने नसीब होते हैं॥
(ड․)
गंगा उसके चरन पखार
वतन से करता है जो प्यार।
कट जाये पर झुके न किंचित
पुष्प बने उस तन का हार॥
पानी में आग
पानी में आग
22
23
(क)
एक से एक बढ़के धुरन्धर मिले,
हर क़दम पर हमें कुछ सिकन्दर मिले।
कोई संतृप्त फिर भी न आया नज़र,
कूल पर सिर पटकते समन्दर मिले॥
(क)
आप आइन्दा कहीं मिलना कभी नज़दीक से,
सिर लगायत पाँव तक सब देख लेना ठीक से ।
हम तो अपने वक़्त के नाविक, कोलम्बस हैं सखे,
खु़द बनाकर रास्ता चलते हैं हटकर लीक से ॥
(ख)
दुष्ट की बन्दगी तक नहीं चाहिये,
शत्रु की सादगी तक नहीं चाहिये।
रत्न, धन-धान्य, हीरे व मोती तो क्या?,
भीख में जि़न्दगी तक नहीं चाहिये ॥
(ख)
मैंने किया निकाह कुछ सकून के लिये,
उल्टी मेरी गिनती शुरू है ख़ून के लिये।
लाये दहेज की रक़म माँ-बाप कहाँ से,
गाड़ी व फ्रीज़, टी․वी․ हनीमून के लिये॥
(ग)
वक़्त अति क़ीमती है न ज़ाया करें,
बैठकर फ़ालतू मत बिताया करें।
गर तमन्ना है कुछ कर गुज़रने की तो,
पंथ में पग अनवरत बढ़ाया करें ॥
(ग)
सामने वाले की बातें ग़ौर से सुन लीजिए,
कुछ भी कहना हो तो मन मे सौ दफ़ा गुन लीजिए।
रास्ते दो ही महज़ बरवक़्त दिखते सामने,
हाँ या ना मे से किसी भी एक को चुन लीजिए॥
(घ)
आग़ोश में तूफ़ाँ के दीपक की जगमगाहट,
जलता हुआ घरौंदा पंछी की चहचआहट ।
विपरीत परििस्थ्तियों के बीच भी सहजता,
आँसू से भरी आँखें, होटों पे मुस्कुराहट ॥
(घ)
कोई तेरा अपना जानम, एक रात बस माँग रहा है,
दिल में बरसने वाले ज़ालिम कहाँ छोड़कर भाग रहा है।
सुमन सेज पर भी तनहाई तुम्हें डसेगी नागिन सी,
नींद तुम्हें कैसे आयेगी, जब तक ‘‘व्याकुल'' जाग रहा है॥
(ड․)
फूलों की पंखुडि़यों पे ज्यों शबनम चलती है,
अंतःपुर में शीश महल के शम्मा जलती है ।
दिल में मेरे तेरी सूरत कुछ ऐसे उतरी,
लगे सुराही से प्याली में मदिरा ढ़लती है ॥
(ड․)
आप मज़बूर लोगों से मत खेलिए,
भोगिए किन्तु भोगों से मत खेलिए।
एक दिन संक्रमित हो के मर जाओगे,
वैद्य जी दिल के रोगों से मत खेलिए॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
युग का निर्माता होता है,
जग-त्रिाकाल-ज्ञाता होता है।
अनासक्त धन, यश, वैभव से,
कवि सच्चा दाता होता है॥
(क)
आपकी हर अदा, लगे क़ातिल,
क्या करें, क्या न करें नाज़्ाुक दिल।
साँस का कारवाँ न क़ाबू में,
कब कहाँ पर इन्हें मिले मंजि़ल॥
(ख)
काव्य का रूप-रंग इस तरह निखर जाये,
ज्योति फैले किताब से प्रत्येक घर जाये।
नित्य चलते रहो शब्दों की खोज में ‘‘व्याकुल'',
पथ में पाहन भी हो तो पाँव छू के तर जाये॥
(ख)
तूफ़ान तो कश्ती के इशारे पे चला है,
घर-बार मेरा घर के चिराग़ों से जला है।
उस शख़्स पे कीचड़ भी उछाले तो कोई क्यूँ?,
कालिख जो अपने हाथ से ही मुख़ पे मला है॥
(ग)
आप क्या जाने हमारी वेदना,
मर चुकी है आपकी समवेदना।
सीख ले कोई शिकारी आप से,
बेरूख़ी के तीर से दिल बेधना॥
(ग)
कोई लल्लू न कोई है लाला,
कोई अदना न कोई है आला।
कल जो ‘‘व्याकुल'' थे एक प्याली को,
आज घर में है उनके मधुशाला॥
(घ)
दर पे खड़ा हुजूर के दीदार चाहिए,
नज़रे तलाश में लगी हैं यार चाहिए।
ये जिस्म, जवानी, ये जान नाम आपके,
‘‘व्याकुल'' को और कुछ नहीं बस प्यार चाहिए॥
(घ)
साथ खद्दर के आज खाक़ी है,
कौन सा अब सवाल बाक़ी है।
जाम के वास्ते सभी ‘‘व्याकुल'',
कौन मैकश है, कौन साक़ी है॥
(ड़)
शाख व टहनियों की शामत है,
पत्त्ाियों पर क़हर क़यामत है।
खूँ़-पसीने से आइये सीचें।
जड़ ज़मीं में अभी सलामत है॥
(ड․)
फिर निशाना दिल बना आघात का,
खेल नित होने लगा, शह-मात का।
शाम को होते हुए धुँधला दिखा,
चल गया सूरज पे जादू रात का॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
काम कुछ यूँ अजीब करता है,
पर बिना भी उड़ान भरता हैै।
सिंह को भी पछाड़ दे पल में,
मन है, चूहे से पल में डरता है॥
(क)
कोई पेट भरने को रोटी तलाशे,
बदन ढ़ाँपने को लंगोटी तलाशे।
मलाई भी भाये न श्वानों को जिसके,
मेरे पेट की आँत-पोटी तलाशे॥
(ख)
यूँ तो कहने को बस, फूल देकर गया,
उम्र भर के लिए, शूल देकर गया।
बज़्म में इस अदा और तहज़ीब से,
इक मुलाक़ात को, तूल देकर गया॥
(ख)
मख़मल का बिस्तर ख़रीद लो, नींद कहाँ से लाओगे,
काग़ज़ के फूलों में असली गंध कहाँ से पाओगे।
‘‘व्याकुल'' होकर भाग रहा है दौलत के पीछे मूरख,
भूख़-प्यास में सोना-चाँदी, हीरे-मोती खाओगे॥
(ग)
ये मत देखो, बीच हमारे दूरी कितनी है,
कुछ तो सोचो जानेमन, मजबूरी कितनी है।
ख़ून-पसीना एक किया, दिन-रात नहीं देखा,
फिर भी मेरे हाथ लगी मज़दूरी कितनी है॥
(ग)
फिलहाल यही सच है, कि हम ढ़लान पर हैं,
फिर भी है कुछ तसल्ली, सबकी ज़बान पर हैं।
इन आखि़री क्षणों में भी लक्ष्य पे नज़र है,
‘‘व्याकुल'' वो तीर हैं, जो खिचती कमान पर हैं॥
(घ)
बातें बड़ी-बड़ी जो अभी हाँक रहे हैं,
भौहें चढ़ी-चढ़ी सिकोड़ नाक रहे हैं।
दामन में सदा ग़ैर के जो ढूँढ़ते हैं दाग़,
वो अपने गिरेबाँ में, कहाँ झाँक रहे हैं॥
(घ)
जीत कर, और हार कर देखा,
सिर चढ़ाकर, उतारकर देखा।
अन्ततः हाथ कुछ नहीं लगता,
प्यार की रीति, प्यार कर देखा॥
(ड․)
मेरी क़दर बढ़ाने क़दरदान आ गये,
जैसे बिदुर के घर, श्री भगवान आ गये।
आलीजनाब आपके आने का शुक्रिया,
बनकर के फ़रिश्ता यहाँ श्रीमान् आ गये॥
(ड․)
स्वर्ण से भी चमक नदारत है,
खग-बिहग की चहक नदारत है।
आज क्या हो गया ज़माने को,
फूल तक से महक नदारत है॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
भक्त ध्रुव सा तपस्वी बनो,
सूर्य जैसे तेजस्वी बनो।
कर्म का पाठ गीता बने,
कृष्ण जैसे यशस्वी बनो॥
(ख)
चाँदी को कोयले में, छिपाया न कीजिए,
‘‘पानी में आग'' छुप के लगाया न कीजिए।
दर्पन भी कहीं शर्म से हो जाय न अन्धा,
इस उम्र में यूँ ख़ुद को सजाया न कीजिए॥
(ग)
घुट रहा दम फूल की दुर्गन्ध से,
आग-पानी में बने सम्बन्ध से।
अस्मिता ख़तरे में है दिन-रात की,
चाँद-सूरज के नये अनुबन्ध से॥
(घ)
कुछेक मामले में बदनसीब बेहतर है,
नीच-ग़द्दार से, भूख़ा-ग़रीब बेहतर है।
बतौर उदाहरण राम, मुहम्मद, ईसा,
फूल की सेज से, सूली-सलीब बेहतर है॥
(ड․)
बात से बस मेरे सगे हैं वो,
काटने में जड़ें लगे हैं वो।
लुट गया मैं उन्हीं के पहरे में,
क्या जगाये कोई, जगे हैं वो॥
(क)
आपकी कीर्ति ख़ुशबू की मानिन्द हो,
साकिया बज़्म में तृप्त हर रिन्द हो।
मुल्क का भाईचारा सलामत रहे,
हाथ में हो अलम, लब पे जयहिन्द हो॥
(ख)
गर पीछे ही चलने की मजबूरी होगी,
फिर भी बीच हमारे निश्चित दूरी होगी।
इज़्ज़त की सरहद तक सब मंजूर हमें,
मगर न मुझसे उनकी हाय-हुज़्ाूरी होगीं॥
(ग)
मेरे अशआर ख़ूब ग़ौर से सुना होगा,
हज़ार बार एक लफ़्ज को गुना होगा।
कुछ तो औरों से अलहदा ज़रूर है तुममें,
किसी ने आपको यूँ ही नहीं चुना होगा॥
(घ)
काँटों पर भी नंगे पैरों चलना आता है,
इस शम्मा को तूफ़ाँ में भी जलना आता है।
पथ में सरिता, सागर, पर्वत, खाईं कुछ भी हो,
क्या चिन्ता गिरने की, जिसे सम्भलना आता है॥
(ड․)
रूख़ बदल जायेगा तूफ़ानों का,
दिल दहल जायेगा चट्टानों का।
ज़र्फ़ मत आजमाइये ‘‘व्याकुल'',
भेद खुल जायेगा मैख़ानों का॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
अरे कमबख़्त, तू दौलत से ख़ुशहाली ख़रीदेगा,
गुलों के साथ में गुलशन सहित, माली ख़रीदेगा।
लहू से निर्धनों के बोतलें, भण्डार भरले तू,
किसी सूरज से उसके भोर की, लाली ख़रीदेगा॥
(ख)
जि़न्दगी भर तू मेरी, आँखों में ज्योती बन रहो,
दिल की सीपी में सदा, अनमोल मोती बन रहो।
रग में यूँ ही प्रेम की, गंगा क़यामत तक बहे,
नित्य-प्रति अविरल अमिय की मृदुल सोती बन रहो॥
(ग)
कच्ची मिटृी की दीवार,
लगातार तेज़ बौछार।
इसी विसंगति को हैं कहते,
परवाने-शम्मा का प्यार॥
(घ)
सोच निकृष्टतम् है, खोटी है,
अक्ल नादान तेरी मोटी है।
मत उदर-पूर्ति कर क़लम से तू,
काव्य न दाल है न रोटी है॥
(ड․)
करनी नहीं आती हमें कुछ ऐसी इबादत,
मेरा ज़मीर कत्त्ाई देगा न इजाज़त।
हमको पसन्द ही नहीं है चाटुकारिता,
गरदन झुका के जीने की अपनी नहीं आदत॥
(क)
रेगिस्तानी आग, कपास उगाना है,
ज्वालामुखी के मुख़ से आना-जाना है।
ख़ैर मनाये कब तक ‘‘व्याकुल'' बाप कोई,
साँप के बिल पर बेटे का सिरहाना है॥
(ख)
मन्दिर व मस्जिद में, कुछ मश्गूल दरिन्दे हैं,
दोनों पे ही बैठें, हमसे भले परिन्दे हैं।
अपने ही हम लाश पे हैं या लाश है काँधे पर,
कुछ तो पता चले हम, मुर्दे हैं कि जि़न्दे हैं॥
(ग)
हौसला हो पथिक में तो राह की दीवार क्या?
आत्मबल का कवच हो तो तन-बदन पर वार क्या।
योद्धा जो लेखनी से है सुसज्जित जागृत,
बाल बाँका करे उसका, तोप या तलवार क्या?॥
(घ)
भले ही जिस्म ज़ालिम रौंद डालेंगे, कुचल देंगे,
नमक-मिर्ची का तीखा चूर्ण कुछ ज़ख्मों पे मल देंगे।
दरिन्दों की ज़रा सी भी नहीं परवाह करते-हम,
लबोलहज़ा मेरा कमबख़्त वो कैसे बदल देंगे॥
(ड․)
मात करे अर्जुन को जिसका एकलब्य सा दृष्टिकोण है,
गुरू-मूर्ति संग एकलब्य तो, कहीं शिष्य संग स्वयं द्रोण है।
हार गया ख़रगोश आलसी, जागरूक इक कछुए से,
स्पर्धा जीतेगा जिसकी, लगी किसी से कठिन होड़ है॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
रंग महफि़ल में जमा, जि़ल्लेसुबहानी आ गये,
देखते ही हुस्न नाजु़क फूल तक शरमा गये।
कर दिया मालिक ने पूरी, हर मुरादों को मेरी,
आपका दर्शन हुआ, हम अपनी मंजि़ल पा गये॥
(ख)
मेरी ख़ुशी ज़रा भी उसे रास न आयी।
मुसकान के बदले में चोट दिल पे खायी॥
सदमा लगा कितना हमें, गहरा न पूछिए,
हँसने के भी मौक़े पे अब, आती है रूलाई॥
(ग)
ख़ुद ही निःश्छलता का दावा कर रहे,
कुछ छली-कपटी दिखावा कर रहे।
सिफ़र् अपने फ़ज़र् वादे, छोड़कर,
हर करम इसके अलावा कर रहे॥
(घ)
पिंजरे के तोते से पूछो क्या होती है आज़ादी,
दामपत्य सुख पूछो, जिसने किया नपुसंक से शादी।
साक्षी है इतिहास हमारा, सबक़ कोई ले या ना ले,
एक मन्थरा से संभव है, रघुकुल तक की बरबादी॥
(ड․)
छोड़कर तन्हाँ हमें, कुछ यूँ जनाब निकल गये,
तोड़कर आँखों से रिश्ता, अश्क जैसे ढल गये।
यूँ अजूबे हादिसों का चल पड़ा है सिलसिला,
क्या ग़ज़ब शबनम से कुछ ज्वालामुखी तक जल गये॥
(क)
समय के साथ न बदले उसे पत्थर जानो,
जमे न बीज, जिस ज़मीन में उसर जानो।
लाख़ आसीन हो इन्सान किसी ओहदे पे,
आचरण जैसा करे वैसा ही स्तर जानो॥
(ख)
छुद्र सिधारियाँ ही अक्सर, जल सतह पे आती हैं,
घूम-घूम कर इधर-उधर, नाहक मुँह बाती हैं।
इनके कुराफात से गिरती गाँज दूसरों पर,
मीन-प्रजाति भले ही ये बेहद कुलघाती हैं॥
(ग)
दिल दहलकर दलदली मिट्टी सा गीला हो गया,
सुर्ख़ चेहरा सूखती पत्त्ाी सा पीला हो गया।
बन्धु! लश्कर का हमारी दोष रत्त्ाी भर नहीं,
रहनुमा ही केंचुए जैसा लचीला हो गया॥
(घ)
कभी सागर से भी ज़्यादा कोई क़तरा दिखाई दे,
हक़ीक़त से परे कुछ नाज़ व नख़रा दिखाई दे।
किसी लश्कर में शामिल एक भी ऐसा सिपाही हो,
तो नामुमकिन नहीं कि हर क़दम ख़तरा दिखाई दे॥
(ड․)
ये नज़र उफ! तीर क्या कहने,
हद है मीठी ये पीर क्या कहने।
क्यूँ न महफि़ल महक से भर जाये,
फूल जैसा शरीर क्या कहने॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
लेखनी नित्य गतिमान हो,
किन्तु मिथ्या न गुणगान हो।
कृति-सृजन बन पड़े आइना,
वक़्त की जिसमें पहचान हो॥
(ख)
परदे में ये जलवा है, परदा हटने पे क्या होगा,
चाँद घिरा है घटा बीच, बादल छटने पर क्या होगा।
‘‘व्याकुल'' ग्राहक आगे-पीछे, मोल भाव का ये मंज़र,
नहीं-नहीं पर ये हालत, सौदा पटने पर क्या होगा॥
(ग)
भले किसी पे नहीं चल रहा है ज़ोर कोई,
मगर मचा तो रहा है कहीं पे शोर कोई।
मेरा सलूक उसे नागवार क्यूँ न लगे,
पहरूवे को भला चाहेगा कभी चोर कोई॥
(घ)
नज़र को चैन न आये, तुम्हें बिना देखे,
अवाक! सुख़र् हथेली तेरी, हिना देखे।
अदा से सामने शीशे के सँवरने बैठे,
आइना तुम नहीं, तुमको ही आइना देखे॥
(ड․)
कभी डबडबाई नज़र लेके निकला,
कभी घर से ज़ख़्मी जिगर लेके निकला।
क्षणिक जानकर बेवफ़ा जि़न्दगी को,
सदा साथ पूरी उमर लेके निकला॥
(क)
यह बला का नूर होठों पर तो, मुसकानेे से है,
प्यार का सैलाब इन आँखों में शरमाने से है।
ये हसीं मंज़र, सुहाना, ख़ुशनुमाँ माहौल सब,
बज़्म की हर शै पे रौनक़, आपके आने से है॥
(ख)
लोग कुछ इस तरह से जीते हैं,
चोट खाते हैं, दर्द पीते हैं।
इक विसंगति नहीं तो क्या है ये,
तृप्त होते हुए भी रीते हैं॥
(ग)
उड़ते पत्थर, पंगु परिन्दे क्या होगा,
क़दम-क़दम पर खड़े दरिन्दे क्या होगा।
कथन विसंगति पूर्ण किन्तु कटु सत्य सखे,
मालिक ख़ुद, बने गये, करिन्दे क्या होगा॥
(घ)
लघु जीवन हो, पर उपयोगी,
तब इसकी सार्थकता होगी।
पछताता है व्यर्थ गँवाकर,
योगी होवे चाहे भोगी॥
(ड़)
यह रात समर्पित है माहताब के लिए,
हर आँख समर्पित है हसीं ख़्वाब के लिए।
चाहे इसे सहेजिए या तोड़ दीजिए,
दिल मैंने समर्पित किया जनाब के लिए॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
आइये कुछ दूर तक संग दीजिए,
जि़ंदगी जीने का कुछ ढ़ंग दीजिए।
कोरा काग़ज़ है अभी तन-मन मेरा,
प्यार के रंग में इसे रंग दीजिए॥
(ख)
दुवा दे रहे हैं, दवा दे रहे हैं,
ये, मेरी मरज़ को हवा दे रहे हैं।
शिकायत किसी से, करूँ भी तो कैसे,
दग़ा तो हमें, हमनवा दे रहे हैं॥
(ग)
अब तो चाँदी है चाटुकारों की,
गुल से ज़्यादा वकत है ख़ारों की।
लोग ‘‘व्याकुल'' हैं वास्ते उनके,
सब करामात है इशारों की॥
(घ)
माना कि सच कहने का भी, हमें कोई अधिकार नहीं है,
विलावज़ह का शोर-शराबा, अब कदापि स्वीकार नहीं है।
बूचड़-खानों की भी अपनी होती हैं कुछ तहज़ीबें,
फ़नकारों की महफि़ल है, कोई मछली बाज़ार नहीं है॥
(ड․)
माँ बदौलत, हाथ में पतवार आने दीजिए,
डूबने वाली है ये कश्ती, बचाने दीजिए।
आज इस तूफ़ाँ भरी, काली अँधेरी रात में,
इक दिया, हमको लहू से तो जलाने दीजिए॥
(क)
मंदिर-मस्जिद, अगल-बगल, पर दूरी बढ़ा दिये,
हिन्दू-मुस्लिम दोनो की मजबूरी बढ़ा दिये।
कुछ कुर्सी की परिक्रमा, सिज़दा करने वाले,
दिलों बीच खाई, हाथों की छूरी बढ़ा दिये॥
(ख)
फूल चमन में मुसकाते हैं, होठों पर अंगार लिए,
उपवन में भौंरे मँडराते, आँखों में हथियार लिए।
घिरे गुलिस्ताँ के उपर, कुछ यूँ बरबादी के बादल,
अब बसन्त भी आता है, उजड़ा-उजड़ा श्रृंगार लिए॥
(ग)
घटा जब घिरेगी तो बरसात होगी,
हुए रू-ब-रू हम, तो कुछ बात होगी।
पिरामिड के इक खेल सी जि़न्दगी है,
यक़ीनन कभी फिर मुलाक़ात होगी॥
(घ)
आग कुछ चकवे चुनें, औ हंस को मोती मिले,
ज्ञान की गंगा बहे औ, अमिय की सोती मिले।
शारदे! माँ अक्षरों की दीपमाला से मेरे,
तम् जगत का नष्ट हो, इस ग्रंथ से ज्योती मिले॥
(ड․)
अश्क बनकर दिल के अरमाँ गर मेरे बह जायेंगे,
दर्दे दिल की अनकही, हर दासताँ कह जायेंगे।
हम रहें या ना रहें, दुनियाँ रहेगी जब तलक,
बनके नक़्शे-पा हमारे शेर तो रह जायेंगे॥
पानी में आग
पानी में आग
(क)
गति समय की अनवरत, धारण करो,
प्रेम सिंचित शब्द, उच्चारण करो।
श्रम-पसीने से धरा को सींचकर,
मोतियों सा, धूल का कण-कण करो॥
(ख)
एक वर्ष का हो प्रवास तो फूल उगाओ,
टिकना हो दस-बीस साल तो वृक्ष लगाओ।
दुरन्देशी चिर कालिक परिलक्षित हो तो,
मुहिम छेड़कर जन-विकास का, अलख जगाओ।
(ग)
रूत की मुसकान कभी व्यर्थ नहीं जायेगी,
एक संकेत समझिये, बहार आ जायेगी।
देखिए चाँद-सितारों को ख़बर है, शायद,
सुबह से शाम तक ये रात आज गायेगी॥
(घ)
हर टहनी फल देती है क्या?,
हर बदली जल देती है क्या?।
सार्थक और निरर्थक जानो,
हर युक्ती हल देती है क्या?॥
(ड․)
ज़ख़्म ख़ुद्दार बन गये मेरे,
अश्क अंगार बन गये मेरे।
प्रीति ने इस क़दर किया ‘‘व्याकुल'',
फूल भी ख़ार बन गये मेरे॥
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(क)
हंस हिंसक हो चला, तो बाज़ की क्या बात है,
हाथ नृप फैला रहे, मुहताज की क्या बात है।
नागफनियों सी अदा, छुई-मुई में आ गई,
ताक पे रखदे जो इज़्ज़त, लाज की क्या बात है॥
(ख)
आग-पानी के साथ क्या? कहने,
मूढ़, ज्ञानी के साथ क्या? कहने।
इस विसंगति को क्या कहें ‘‘व्याकुल'',
कृपण-दानी के साथ क्या? कहने॥
(ग)
धनुष पे रण में तीर चाहिए,
पथ में दृढ़ रहगीर चाहिए।
शेरो-सुख़न की महफि़ल हो तो,
ग़ज़ल के लिए मीर चाहिए॥
(घ)
बात ख़ालिस लब नहीं, ये कह रहा है दिल मेरा,
दोस्तों से लाख़ बेहतर है, कहीं क़ातिल मेरा।
टूटकर उपर मेरे, गिरकर करेगा दफ़न यूँ,
घात कश्ती से करेगा, क्या पता साहिल मेरा॥
(ड․)
फिर भी अलख जगाना होगा,
रण दुंदुभी बजाना होगा।
विजय श्री की चाहत है तो,
नाको चने चबाना होगा॥
पानी में आग
पानी में आग
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(क)
जग ज़ाहिर है कर्मक्षेत्रा में निष्क्रिय जब सज्जन होगा,
दुष्कर्मों के पथ पर सक्रिय निश्चित ही दुर्जन होगा।
गुरू, पुजारी, मुल्ला ही जब लोभ, क्रोध भय-भूखे हों,
मन्दिर, मस्जिद, विद्यालय में कैसे ज्ञानार्जन होगा॥
(ख)
धर्मान्धों से धर्म कलंकित,
बेशर्मों से शर्म कलंकित।
घोर विसंगतिपूर्ण कृत्य है,
कुकर्मियों से कर्म कलंकित॥
(ग)
शेख, पण्डित जब मिलें, तरूवर-लता की बात हो,
अब न आपस में गिले-शिकवे ख़ता की बात हो।
है तक़ाज़ा बस यही, बरवक़्त इस परिवेश में,
आइये हज़रात क़ौमी-एकता की बात हो॥
(घ)
आँखों से आँसुओं को व्यर्थ मत बहाइये,
अनमोल हैं ये मोती, इन्हें मत लुटाइये।
ऐसा न हो रोने के भी लाले पड़े कभी,
दुर्दिन की है दौलत, इसे भरसक बचाइये॥
(ड․)
एक साथ मिल पाँच तत्व जैसे मौज़ूद रहें तन में,
विविध रंग के फूल खिले, सदियों से हिल-मिल उपवन में।
हिन्दू-मुस्लिम, सिक्ख, इसाई मिल एकता करें क़ायम,
सात रंग इक इन्द्रधनुष, मिल निर्मित करते सावन में॥
(क)
चाहता तो था बहुत कविता में कुछ श्रृंगार लिख दूँ,
पर जफ़ाकारी का आलम हो तो कैसे प्यार लिख दूँ।
कवि का रिश्ता कल्पना के लोक से तो है मगर,
क्यूँ कलंकित लेखनी कर, दर्द को उपचार लिख दूँ॥
(ख)
आग-पानी में ठनी है,
कृपण-दानी में ठनी है।
हस्र क्या होगा न पूछो,
मूर्ख-ज्ञानी में ठनी है॥
(ग)
साज़ छेड़े निशा, चाँद गाने लगे,
दीप की लौ मधुर मुस्कुराने लगे।
कोई हैरत नहीं, सुनके मेरी ग़ज़ल,
हर किसी को कोई याद आने लगे॥
(घ)
फूल मानिन्द मुस्कुरा लेंगे,
चाँदनी बनके गुनगुना लेंगे।
देखना रू-ब-रू कभी होकर,
आपको आपसे चुरा लेंगे॥
(ड․)
भवसागर पार उतार दिया,
कवि-कुल-कुटुम्ब को तार दिया।
ये कथन, जिन्हें मैंने अपनी,
कविताओं का उपहार दिया॥
पानी में आग
पानी में आग
42
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(क)
गुमसुम बैठे हैं कुछ पंक्षी सहमें तरू की डाली पर,
शायद सोच रहे होेंगे सब, बगि़या की बदहाली पर।
बासन्ती सपने दिखलाकर लूट रहा गुलज़ार हसीं,
चीख रही हर शय उपवन की, लानत है इस माली पर॥
(ख)
(ग)
जि़न्दगी एक, इसका कई रूप है,
आज छाया मधुर, कल कड़ी धूप है।
इन्द्रधनुषी ये लगने लगे जो कभी,
तो यक़ीनन ज़माने के अनुरूप है॥
(घ)
(ड․)
नीचे चावल, ऊपर भूसी,
तन अमरीकी, अभरन रुसी।
सौदेबाज़ी इन्क़लाब की,
लेत दिलेरी, देत कटूसी ॥
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फूल देखने में लगते थे, फि़तरत से अंगार हो गये,
तेवर कुछ यूँ बदले सेवक, ये ज़ालिम सरकार हो गये।
नित्य हमारी क्षुधातृप्ति का देते आये आश्वासन,
छल से हम सब इन छलियों के मुख़ का ही आहार हो गये॥
(क)
रात से ज़्यादा सियाही दिन में फैली दीखती है,
भिक्षुओं के हाथ में हीरे की थैली दीखती है।
तन-बदन उपर से चमकीला भले ही है मगर,
आत्मा अन्दर सड़ी, मैली-कुचैली दीखती है॥
(ख)
कुल्हाणी के घाव दिखाई देते डाली-डाली पर,
स्याही पुती हुई सी लगती, खिले फूल की लाली पर।
ख़ौफ़नाक मंज़र कुछ ऐसा कहते भी जो नहीं बने,
शक की सुई घूमकर आने लगी चमन की माली पर॥
(ग)
कब तलक दीवार रोकेगी पवन को,
रोक लेगा कौन? खिलने से सुमन को।
हों किसी के लाख़ लम्बे हाथ पर,
कौन बाहों में समेटे इस गगन को॥
(घ)
रंग गेरू में वेश रंग डाला,
रक्त में कोई देश रंग डाला।
रंग न दूजो न चढ़े सिर मेरे,
रंग मेंहदी में, केश रंग डाला॥
(ड․)
जुर्म अति संगीन है एहसास दे,
बामसक्कत उम्र कारावास दे।
कम लगे फाँसी, सज़ा-ए-मौत भी,
प्यार करने की सज़ा कुछ ख़ास दे॥
रोता है ना मुसकाता है,
खिलता है ना मुरझाता है।
इन्हीं विशिष्ट गुणों के कारण,
बुत-पत्थर पूजा जाता है॥
पानी में आग
पानी में आग
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45
(क)
जो दिल कह रहा है वो कर जायेंगे हम,
जि़न्दा रहेंगे या मर जायेंगे हम।
समय ही बतायेगा हम क्या बतायें,
न सोचो ज़माने से डर जायेंगे हम॥
(ख)
फूल को बस चमन चाहिए,
आदमी को अमन चाहिए।
एकता की लहर के लिए,
दिल में गंगो-यमन चाहिए॥
(ग)
वक़्त ने खिलवाड़ कुछ ऐसा किया तक़दीर से,
जुड़ गया रिश्ता हमारी जि़न्दगी का पीर से।
अब तो हाले-दिल सुनाते भी नहीं बनता सखे,
इस तरह तड़पूँ बिछड़कर, मीन जैसे नीर से॥
(घ)
घोर तिमिर के उर में जलकर नित तम् से लड़ते रहते हैं,
हम वह दीपक जिसकी लौ से, दीप नये जलते रहते हैं।
योगदान निःस्वार्थ हमारा, क्या इतना ही कुछ कम है,
पंथ प्रदर्शित हम कर देते, लोग-बाग चलते रहते हैं॥
(ड․)
हर कोई जो फज़र् अपना वक़्त पर कर दे अदा,
जि़न्दगी ख़ुशहाल हो जाये जिये बाक़ायदा।
जानकर सबकुछ मगर, पल-पल करे नादानियाँ,
आजकल हर श्ख़्स चाहे सिर्फ़ अपना फ़ायदा॥
(क)
काव्य गंगायें लिए सारे भगीरथ आ गये,
हर दिशाओं से लिये दिग्पाल निजरथ आ गये।
कवित संगम कुम्भ, ज्ञानामृत की धारायें लिये,
द्वार पर ही आपके, साहित्य-तीरथ आ गये॥
(ख)
आँखें तर्कश ज़ुल्फ़ें जाल,
रोम-रोम में जले मशाल ।
छुपे कहाँ ‘‘व्याकुल'' मन पंछी,
मुट्ठी में आकाश-पताल ॥
(ग)
भले जि़न्दगी भर हमें आजमाओ,
अभी कुछ घड़ी के लिये मान जाओ।
हमारी दुआ तू भी पहुँचे यहाँ तक,
क़ूवत अगर है तो महफि़ल में आओ॥
(घ)
क्या कमी गर बणिक मित्र हो,
क्या घुटन बोलता चित्र हो।
क्यों न, साहित्य पावन लगे,
यदि क़लमकार सचरित्र हो॥
(ड․)
बोल कड़वे न बोलो कभी,
प्यार में विष न घोलो कभी।
चीज़ वाणी ये अनमोल है,
व्यर्थ में मुख़ न खोलो कभी॥
पानी में आग
पानी में आग
मत-अभिमत
कर गये थे जो वादे न पूरा किये।
सामने आ गये मुख़ बनाये हुए॥
ये तीर चलाये हैं जो छिपकर के आड़ से।
वो पूछते हैं कैसी वारदात हो गयी॥
‘चुभते फूल महकते काँट' को चरितार्थ करते हुए उन्होंने कुछ इस प्रकार अपनी भावना को व्यक्त किया है।
जनता-पुलिस सभी की खाये है नज़र धोखा।
छूरी तो बगल में है, पर हाथ में माला है॥
पूरी की पूरी हँडि़या की दाल ही काली है।
फिर भी कहे, अनाड़ी कुछ दाल में काला है॥
उन्होंने कर्तव्य बोध को समाज के लिए एक अत्यन्त आवश्यक आवश्यकता बताया है साथ ही अपने कर्तव्य के प्रतिफल को अधिकार के तौर पर पाने के लिए उपदेशक के रूप में इन पंक्तियों में दिखायी पड़ते हैं।
हक़ देना जिन्हें नागवार लग रहा होगा।
उनकी नज़र में हम तो माँग भीख रहे हैं॥
हम फूल हैं पर शौक से क़ुदरत से पूछ लो।
उतने नहीं नाज़्ाुक हैं जितने दीख रहे हैं॥
इस रचना में भाईचारगी, समस्या व समाधान, इन्सानियत सार्थक प्रयास का प्रतिफल लक्ष्य की प्राप्ति अभिमान अफवाह, दुआओ का असर प्रेम-सद्भाव, नीति-उपदेश आदि सभी पहलुओं पर कविवर की लेखनी एक सरल, सहज व आम बोलचाल की भाषा में अविरल चली है।
क़दम-क़दम पर गागर में सागर भरने की उक्ति चरितार्थ होती है। इनकी साहित्य रचना में विधा की विविधता का वर्णन निम्न पंक्ति में है।
मीर ग़ालिब की क़सम हम नहीं सोचा करते।
शायरी के तवे पे रोटियाँ पकाने की॥
हाथ की सारी लकीरों को बदलना होगा।
गर तमन्ना है हथेली पे तिल उगाने की॥
समाज की व्यवस्था व उससे जुड़े लोगों पर कवि व ग़ज़लकार ने इस प्रकार अपनी लेखनी चलायी है।
कोई निश दिन समस्या ही पैदा करे।
कोई जागे समस्या के हल के लिए॥
सुकवि श्री राम अधार ‘‘व्याकुल'' जी का प्रथम काव्य संग्रह ‘‘चुभते फूल महकते काँटे''।
‘‘चुभते फूल महकते काँटे'' आधुनिक समाज के परिदृश्य का दर्पण है। इसके माध्यम से कवि, ग़ज़लकार श्री ‘‘व्याकुल'' जी ने समाज के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक मूल्यों के गिरावट पर अपनी लेखनी चलायी है। यह रचना उनके अन्तर्मन की व्यथा-कथा को रेखांकित करती है। जो इन पंक्तियों में उद्धृत है।
मै रोया हूँ तनहाई में रात भर फिर।
यही तेरी महफि़ल में कहना है गाकर॥
अगर मेरे अरमाँ का यूँ ख़ून होगा।
न आऊँगा फिर देख लेना बुलाकर॥
देशभक्ति की भावना को सर्वोपरि स्थान देते हुए उन्होंने अपनी व्यग्रता को अपनी रचना के माध्यम से समाज को सजग रहने की प्रेरणा दी है। समाज व देश का विकास देश भक्ति व राष्ट्रभक्ति की भावना से होता है तो इन पंक्तियों में उल्लिखित है।
देश की धूल को माथे से लगाना होगा।
सर कटे या रहे पर, देश को बचाना होगा॥
सिक्ख, हिन्दू व मुसलमान फ़ज़र् है सबका।
मिल के नफ़रत के अलावों को बुझाना होगा॥
दूरियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद मिटेंगी एक दिन तै है।
सिफ़र् मंजि़ल की तरफ़ पाँव बढ़ाना होगा॥
कविवर ‘‘व्याकुल'' जी ने समाज के छुए-अनछुए सभी पहलुओं पर अपनी लेखनी चलायी है जो उनकी गहन सोच समाज व देश के प्रति कर्तव्य व अधिकार का बोध कराता है एक निर्भीक प्रहरी की तरह खड़े दिखते हैं तथा समाज के बदलते परिवेश में आये विकार, दोष को एक उत्कृष्ट वक्ता की तरह बिना किसी संकोच के अपने विचार, गीत व ग़ज़ल के माध्यम से व्यक्त किया है जो समाज के लिए प्रेरणा श्रोत है।
मुद्दत से जो दिन-रात गुनाहों में लिप्त है।
उसको भी शौक है कि मेरी भूल को देखे॥
वर्तमान समाज में पल रहे छलावे, छल-छद्दम पर भी उन्होंने इन पंक्तियों में अपनी भावना को व्यक्त किये हैं।
पानी में आग
पानी में आग
देख जन्नत की हूरें सँवरना तेरा।
आज ‘‘व्याकुल'' हैं तेरी नकल के लिए॥
समाज की व्यथा के प्रति व्याकुल, श्री ‘‘व्याकुल जी'' की लेखनी ग़रीबों की ग़रीबी व उनके बरबादी के कारणों पर न चले तो यह सम्भव ही नही है। इसका चित्रण उन्होंने निम्नवत किया हैः-
वो रोटी न खाकर सुरा पी के सोया।
भिखारी के हाथों में जब दाम आया॥
आज के बदलते परिवेश से कवि किस क़दर दुःखी है इसका उल्लेख किया जाना समीचीन है।
इस क़दर वातावरण दूषित व गन्दा हो चला।
आदमी का आचरण फाँसी का फन्दा हो चला॥
माँ सरस्वती की कृपा पात्र व लेखनी के धनी श्री ‘‘व्याकुल जी'' ने अपने मन के भाव को इन पंक्तियों में पंक्तिबद्ध किया है।
हम क़लमकार अगर हाथ में क़लम लेगे।
क़सम ख़ुदा की है परदा उठाके दम लेगे॥
असल नक़ल की बख़ूबी परख हमें भी है।
छाँटकर आज हम पत्थर नहीं नीलम लेगे॥
उन्होने आशावादी बनने की चाहत कभी नही छोड़ी है। तथा आशावादी बनने की राह दिखायी है। जो अग्रलिखित हैः-
उम्रभर ही हमें क्यूँ न चलना पड़े।
पर जहाँ भी रूके हमको मंजि़ल मिले॥
एकला ही कटे क्यूँ न सारा सफ़र।
हमसफ़र कोई पथ में न बुज़दिल मिले॥
इस रचना के माध्यम से समाज के हर पहलू को छूने का सार्थक व सफल प्रयास श्री व्याकुल जी ने किया है तथा समाज को सम्भलकर चलने की सख्त हिदायत भी दी है।
जब आवाज़ बुलन्द करेगे गूँगी बस्ती वाले लोग।
क़दमो में सिर रख देगे तब ऊँची हस्ती वाले लोग॥
परहित जीवन ही जीवन है इसमें कोई शक है क्या?।
इतना तो सीखे ही है हम दस्त व दस्ती वाले लोग॥
उन्होने ने आचरण व मर्यादा में रहने की सीख़ देते हुए भी कहना चाहा है
लोग क्यूँ ग़ैर की इज़्ज़त को घूरते-फिरते।
हर किसी शख्स के घर में भी तो लुगाई है॥
दिव्य चादर मिली है करो हिफ़ाजत इसकी।
ऐसे मैरे की नहीं रब की ये बुनाई है॥
समाज को राह दिखाने वाले के प्रति उन्होने कुठाराघात करते हुए ये पंक्तियाँ कहने से नही चुके है।
क्यूँ न अपराध से रिश्ता जुड़ युवाओं का।
लोग पलकों पर बिठाते हैं गुनहगारों को॥
अब तो यह इन्तज़ार ठीक नहीं लगता है।
आओ कुछ तेज़ करे जंग लगी धारो को॥
इस रचना में समाज को सही दिशा देने व बदलने के लिए क्या कुछ नहीं है। यदि हम यों आचरण करें।
सामने खुल के आये जो एतराज हो।
फ़ैसला जो भी हो वो अभी आज हो॥
अपनी रचना को नाम के अनुरूप बताना वाजिब समझते हुए कविवर श्री ‘‘व्याकुल'' जी ने ये पंक्तियाँ लिख डाला है।
जब फूल ही चुभ जाये तो काँटों की बात क्या।
जलना पड़े शमा को तो दिन हो या रात क्या॥
अन्त में यह कहना समीचीन होगा कि श्री ‘‘व्याकुल'' जी ने अपनी इस विलक्षण किन्तु सरल-मधुर विविध विधा की इस रचना के माध्यम से जनमानस के साथ-साथ प्रबुद्ध व विचारकों के लिए एक उपदेश मंजूषा परोसा है। मैं उनकी इस संग्रह के साथ-साथ शीघ्र प्रकाशित होने वाले अनेक संग्रहों की सफलता की शुभकामना देता हूँ। सधन्यवाद । आपका-
-बी․राम उपिज़्ालाधिकारी, बलिया
सेवा में -
आचार्य राम अधार ‘‘व्याकुल''
ग्राम व पत्रालय- कसारा
जनपद- मऊ (उ0 प्र0)
पानी में आग
पानी में आग
महाविद्यालय में मुझसे दो कक्षा आगे होने के बावजूद, विद्यार्थी जीवन से ही अच्छे मित्र। अत्यन्त मृदुभाषी, सरल स्वभाव तथा कुशाग्र बुद्धि के धनी भाई राम अधार ‘‘व्याकुल'' की व्यवहार कुशलता अविस्मरणीय है। इनके कवि स्वरुप के साथ ही डी0ए0वी0
साहित्य जगत में जो मऊ जनपद की महत्वपूर्ण भागीदारी दृष्टिगोचर हो रही है,उसका श्रेय आज काफ़ी हद तक कविवर श्री‘‘व्याकुल''जी की लेखनी को जाता है। समुचित माहौल तथा संसाधनों के अभाव के बावजूद, लेखन के प्रति इनके समर्पण
स्नातकोत्तर महाविद्यालय आज़मगढ़ छात्रसंघ के मंत्री पद से इनका दक्षतापूर्ण छात्र नेतृत्व भी मैंने निकट से देखा है। इनके आचरण की उत्कृष्टता एवम् काव्य की लोकप्रियता ही इन्हे विशिष्टता तथा समाज को दिशा प्रदान करने के लिए पर्याप्त होगी। -दारा सिंह चौहान,(सांसद)
राज्य-सभा, भारत
ने वह गुल खिलाया है, जिसकी भीनी-भीनी सुगंध किसी न किसी दिन धरती के ओर-छोर तक अवश्य ही पहुँच कर रहेगी।
-डा0 श्रीनाथ खत्री
हृदय रोग विशेषज्ञ
एवं अध्यक्ष हिन्दी साहित्य परिषद्,मऊ
शरीर में जो स्थान दिल का है, साहित्य में वही स्थान है ग़ज़ल का। दिल से पैदा होती है एक मोरस्सा ग़ज़ल और ग़ज़ल में नाजु़क दिल का
जि़क्र। मगर श्री ‘‘व्याकुल''जी ने दिल और ग़ज़ल दोनो को जि़न्दगी के सूत्र में पिरोने का बेहतरीन काम किया है ।
-छाया चौधरी ,
समाज सेविका
गोमती नगर,लखनऊ
कविवर श्री‘‘व्याकुल''जी की ग़ज़लों में गाँव की मिट्टी की सोंधी गंध, कस्बाई संस्कृति की कमनीयता, नगरीय जीवन शैली की नवीनता के साथ ही हिन्दुस्तानी काव्य-साहित्य की शालीनता की मौज़ूदगी इस बात का प्रमाण है कि ग़ज़लकार की दृष्टि समान रूप से समूचे राष्ट्र के कण-कण पर है।
-डा0 एन0 के0 सिंह,
नेत्र सर्जन
पानी में आग
पानी में आग
आचार्य राम अधार''व्याकुल''जी की रचनाओं की लोकप्रियता देख-सुनकर आश्चर्य होता है। जि़लाधिकारी से लगायत अनुचर तक, मुंसिफ़ से मुजरिम तक, मंत्री से फ़कीर तक, गुरु से शिष्य तक, व्यापारी से कृषक तक, साहित्यकार से पाठक तक, चाहे राष्ट्रीय पर्वों, विधिक सेवा प्राधिकरण, व्यापार मंडल, रोटरी इंटरनेशनल, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, बार एसोसिएशन, शिक्षक संघ, प्रधानाचार्य परिषद्, पत्रकार संघ, मज़दूर-किसान संघ, बुनकर संघ तथा समस्त जाति, धर्म, सम्प्रदाय इत्यादि के मंचों पर जिस कौतूहल के साथ इनकी रचनाएं पढ़ी व सुनी जाती हैं, वह स्वयं इनकी लोकप्रियता एवं काव्य कौशल का उदाहरण है।
-जमनादास अग्रवाल,
संस्थापक सदस्य, हिन्दी साहित्य परिषद्-मऊ
किसी भी उत्सव को साहित्यिक स्वरूप तथा काव्य के रंग में सराबोर कर देने की अद्भुत क्षमता मौजू़द है आचार्य राम अधार ''व्याकुल'' जी में। समाज के सभी वर्ग के लोगों में अत्यन्त
लोकप्रिय, विभिन्न प्रकार की कविताओं के प्रणेता की लेखनी से जो ऊर्जा हिन्दी जगत में संचरित हो रही है वह हमारी राष्ट्रभाषा को सशक्त तथा समृद्ध बनाने में संजीवनी का कार्य करेगी। -विद्यानन्द
आई0 टी0 एस0,
जि़ला प्रबंधक दूरसंचार।
ग़ज़ल की जिस साझा ज़बान का बीजारोपण हिन्दी काव्य की भावभूमि में ‘‘दुष्यन्त कुमार'' ने किया उसके अंकुर को ख़ून-पसीने से सींच कर विशाल वृक्ष का आकार प्रदान करने का श्रेय
काव्य-शास्त्र तथा समीक्षा सिद्धान्त के ज्ञान का दावा तो नहीं करता, किन्तु जो कविताएं सहज, बोधगम्य एवं सुनने में अच्छी लगती हैं, मेरी कसौटी पर वे ही श्रेष्ट कविताएं होती हैं। श्री ''व्याकुल''जी की
निःसंदेह श्री''व्याकुल''जी को ही जाता है। इनकी ग़ज़लों को पढ़ने, सुनने और गुनगुनाने का आनन्द ही कुछ और है। -समीर सौरभ,
पी0 पी0 एस0,
सी0 ओ0,सरोजिनी नगर, लखनऊ ।
कविताएं सहज, बोधगम्य और इनके मुख़ से सुनने में मुझे बेहद अच्छी लगती हैं। आपकी कविताएं निश्चित ही श्रेष्ट कविताएं हैं।
-काशी नाथ कपूर , मंत्री हिन्दी साहित्य परिषद्-मऊ
पानी में आग
पानी में आग
बेहद खूबसूरत रचना .
जवाब देंहटाएंअति सुनदर.
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