दिनकर के काव्य में कृषक समस्याओं का चित्रण डॉ. विशाला शर्मा ...
दिनकर के काव्य में कृषक समस्याओं का चित्रण
डॉ. विशाला शर्मा
अध्यक्ष,हिंदी विभाग
चेतना महाविद्यालय,औरंगाबाद( महा)
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म ३० सितम्बर १९०८ में सिमरिया घाट ग्राम जिला मुगैर (बिहार) के एक कृषक परिवार में हुआ । कृषक उस युग में राष्ट्रीय दैन्य का प्रतीक था । राष्ट्रीय चेतना कृषक के द्वार को खटखटाने लगी थी । साहित्य में भी कृषक की प्रतिष्ठा हो गयी थी । रुस की लाल क्रांति ने जो अव्यक्त प्रेरणा भारत के जागृत क्षणों को दी उसके कारण भी भारतीय समाज के वर्ग संघर्ष में कृषक की स्थिति महत्वपूर्ण हो गयी थी । भारत का प्रगतिशील साहित्य श्रमिक को लेकर नहीं कृषक को लेकर ही चल सकता था । दिनकर आरम्भिक जीवन से ही कृषक समस्याएँ तथा कृषक जीवन के आर्थिक एवं सामाजिक यथार्थ के कवि के रुप में पहचाने जाने लगे थे ।
कविवर दिनकर की कलम ने भारत माता की विशाल गोद में अर्धनग्न, भूख से व्याकुल कृषकों के कष्टों को अनुभव के तराजू पर तोला । उन्होंने अनुभव किया बिहार के उस दारिद्र्य पीड़ित भू-भाग के किसानों के बिलखते हुए भूखे बच्चों के क्रंदन को । उनकी वाणी भी उसी अनुभूति से प्रेरित होकर गा उठी । ’हे नहीं आराम कहीं मैंने जा घर घर देखी’ इतना ही नहीं कवि ने अपने अन्य सहधर्मियों को भी अपनी अनुभूति से प्रेरणा दी और कहा - ’’सभ्य समाज का हँसना और रोना दोनों ही अर्थपूर्ण होता है, उसने तुम्हें रिझा लिया है, जरा इन्हें भी देखों जिनका हँसना और रोना केवल हँसना और रोना ही होता है ।’’१
जिन कवियों ने कृषकों के क्रन्दन पर कान न देकर, सुन्दरियों के शृंगार एवं अनन्त के गीत गाये उनकी कविता के विषय में कवि की सम्मति है, ’’इनमें इत्र फुलेल की खुश्बू है, सौंधी मिट्टी की महक नहीं ।’’ (मिट्टी की ओर) इससे स्पष्ट है कि कवि के हृदय में कविता की प्रेरणा के रुप में किसानों की करुणा कराह उठी हैं और उसकी कविता में कृषक का श्रम और उसकी पावन धरती की सौंधी सुगन्ध महक उठी हैं ।
बिहार के कृषकों की दयनीय स्थिति उनके काव्य में समूचे वेग के साथ मुखरित हुई है । कवि ने देखा है कि चाहे ग्रीष्म की भीषण लपटे तन को झुलसा रही हो, धरती तवे की तरह जल रही हो, शरीर से पसीना ढल रहा हो, जेठ का मौसम हो या फिर पूस माघ की ठिठुरती ठंड पड रही हो, बर्फिली सर्द आहे शरीर को कँपा रही हो, किन्तु कृषकों को चैन नहीं है एक पल को भी विश्राम लेना मानों उनके भाग्य में नहीं है -
’’जेठ हो कि पूस हमारे कृषकों को आराम नही है,
छूटे बैल से संग कभी जीवन में ऐसा याम नहीं हैं ।’’२
इतने अनवरत परिश्रम के उपरान्त भी कृषकों का जीवन सुखी नहीं है, उन बदनसिबों को वस्त्र कहाँ, सूखी रोटी भी नहीं मिलती । कवि ने वैभव के सपनों से दूर रहकर खेतों का खामोश क्रन्दन और खलिहानों का हाहाकार सुना है, उसने इस दुखमय संसार का सजीव चित्रण कर ’बैलों के बन्धुओं’ से यह प्रश्न किया कि वह वर्षभर कैसे जीवित रहते है ?
’’बैलों के ये बन्धु वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते है,
जुबाँ बन्द रहती न आँख गम खा शायद आँसू पीते है ।’’३
दिनकर जीवन पर्यंत जनता के अभाव अभियोगों के युग की समस्त विषमता और पीडा के अन्याय और शोषण के प्रबल प्रतिरोधक कवि रहे हैं । उनके काव्य जीवन के विभिन्न चरण हैं । वे उच्च स्थानों पर आसीन हुए । वैभव विलास की राजसी रंगीली दिल्ली में सुदीर्घ काल तक रहते हुए भी दिनकर कभी धूल आँसुओं से भरे भारत को भुला नहीं पाये ।
’भारत का यह रेश्मी नगर’ में सन्ताप भरे स्वर में दिनकर कहते हैं -
’’भारत धूलों से भरा आसुओं से गीला,
भारत अब भी व्याकुल विपत्ति के घेरे में,
दिल्ली में तो हैं ख्ूाब ज्योति की चहल-पहल,
पर भटक रहा है सारा देश अंधेरे में ,
रेश्मी कलम से भाग्य लेख लिखनेवालों तुम भी अभाव से कभी ग्रस्त हो रोये हो,
बीमार किसी बच्चे की दवा जुटाने में तुम भी क्या घर भर पेट बाँध कर सोये हो ।’’४
कवि ने देखा है कि इधर खून पसीना एक करके कृषक अनाज उत्पन्न करते है, किन्तु उनके पसीने का मूल्य खलिहानों से घर तक भी नहीं पहुँचता । बीच में ही पुँजीपतियों के दानवी पंजे उनके गाडे पीसने की कमाई को दबोच लेते है । यहीं तक नहीं ऋणशोधन के लिये किसानों को अपने बच्चों का पेट काटकर दूध घी बेचना पडता है, ’कविता की पुकार’ में वे लिखते है -
’’ऋण शोधन के लिय, दूध घी बेंच धन जोड़ेगे,
बूँद-बूँद बेचेगे, अपने लिये नहीं कुछ छोडेगे ।’’५
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सभी को यह आशा थी कि स्वच्छ शासन द्वारा भारत में एक ऐसे नए समाज की रचना होंगी, जिसमें सभी व्यक्तियों को सभी प्रकार की समान सुविधाएँ प्राप्त होंगी, शिक्षा की उन्नति होगी, खेतों में खुब उपज होगी, छोटे-बडे एवं उफ्रँच-नीच का भाव समाप्त हो जाएगा और समाज के सभी व्यक्ति समान रुप से मिल-बाँटकर खाएगे । परन्तु ऐसा नहीं हुआ ओर समाज में इसके लिए बराबर व्यग्रता और बैचेनी बनी रहीं । कवि ने यह स्पष्ट घोषणा की है कि समानता के आधार पर ही प्रत्येक सुख-सुविधाओं का विभाजन होना चाहिए, जिससे राष्ट्र के सभी घटकों को समान रुप से सभी पदार्थ प्राप्त हो और सभी रुप से जीवन में प्रगति के पथ पर बढते रहें । असमानता का हृदय विदारक चित्रण कवि ने प्रस्तुत किया है -
’’कहीं दूध के बिना तरसती मानव की संतान
कहीं क्षीर के मटके खाली करते जाते स्वान
कहीं वसन रेशम के सस्ते महँगी कहीं लंगोटी
कोई घी से नहा रहा मिलती न किसी को रोटी ।’’६
इसी असमानता के फलस्वरुप कवि अपनी कल्पना के हृदय तक थामने की बात कहता है -
’’विद्युत की इस चकाचौंध में, देख दीप की लौ रोती है,
अरी हृदय को थाम महल के लिय झोपडी बलि होती है ।’’७
कवि के अनुसार, शांति उसी समाज में सम्भव है जो न्याय और समता पर आधारित हों । जहाँ न्याय और समता नहीं है वहाँ शांति का महल सुदृढ नहीं रह सकता ।
कवि दिनकर ने ’भूदान’ कविता में ’भूमिहीन कृषकों की कितनी बडी-बडी सेना’८ कहकर एक ओर तो ये संकेत किया है कि उस समय भारत में अत्याधिक संख्या में भूमिहीन किसान रहते थे और बाँध तोड जिस रोज फौज खुलकर हल्ला बोलेगी, तुम दोगे क्या चीज वही जो चाहेगी सो लेगी ।’’९ कवि ने संकेत किया है कि जिस दिन किसान संगठित होकर भूमि प्राप्त करने के लिए आन्दोलन करेंगे उस दिन वे अपनी शक्ति के बल पर भूमि ले लेंगे ।
स्वातंत्र्य-पूर्व काल किसानों के लिए एक प्रकार से संघर्षकाल था । किसान सामन्त और महाजनी सभ्यताओं से शोषित हो रहा था, इसलिए वह इनमें संघर्ष कर रहा था । ब्रिटिश-शासन के अत्याचार, दमन, दुर्व्यवस्था, भेदभावमूलक नीति के कारण कृषक तबाह हो रहा था । यही कारण है कि सन् १८९४ ई. में तत्कालिन वाइसराय लॉर्ड लॉरेन्स ने कहा था - ’भारत बडा गरीब देश है । देश की बहु-संख्यक जनता कठिनाई से ही अपना पेट भर पाती है ।’१० आज भी भारतीय कृषक का जीवन बहुत ही दरिद्र, ऋणग्रस्त तथा असहाय्य कष्टों से भरा है । यहीं कारण है कि, जब उसे अपनी पैदावार का कम मूल्य प्राप्त होता है और कर का बोझ बढता जाता है, तो आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है । आज साहित्य को फिर जरुरत है दिनकर जैसे साहित्यकारों की जो कृषकों के कष्टों को अनुभव के तराजु पर तौलकर उनके क्रंदन को वाणी प्रदान कर सकें ।
संदर्भ :
मिट्टी की ओर, रामधारी सिंह दिनकर, पृ. २०५
चक्रवाल की भूमिका, पृ. ३३
हुंकार (हाहाकार), रामधारी सिंह दिनकर, पृ. २२
भारत का यह रेश्मी नगर, रामधारी सिंह दिनकर, मन्मथलाल गुप्त, पृ. १४
रेणुका (कविता की पुकार), रामधारी सिंह दिनकर, पृ. १६
नीलकुसुम (हिमालय का संदेश) रामधारी सिंह दिनकर,
रेणुका (कस्मे देवाय)
नील कुसुम, दिनकर, पृ. ८५
वहीं, पृ. ८५
डॉ. विनयमोहन शर्मा, हिन्दी साहित्य का बृहद् इतिहास, पृ. १७
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