महादेवी जी का महाप्रस्थान 11 सितंबर, 1987 को हुआ और इसके पूर्व उसी वर्ष 1 मई, 1987 को मेरी उनसे अंतिम भेंट का सुयोग बना था। अपने अंतिम सम...
महादेवी जी का महाप्रस्थान 11 सितंबर, 1987 को हुआ और इसके पूर्व उसी वर्ष 1 मई, 1987 को मेरी उनसे अंतिम भेंट का सुयोग बना था। अपने अंतिम समय में वे किस प्रकार देश की तत्कालीन स्थिति, मूल्यविहीन राजनीति, गुटबंदी, भ्रष्टाचार और हिंसा से व्यथित थीं, इसका प्रमाण मेरे साथ हुई उनकी बातचीत में मिला, जिसके विवरण में जाना यहाँ संभव नहीं। विशेष रूप से उन दिनों पंजाब में घट रही घटनाएँ उन्हें किस तरह मथ रही थीं। ‘अब देखो न आशा बहन, पंजाब में क्या हो रहा है? और पूरे देश में? नई पीढ़ी किधर जा रही है? महिलाएँ किधर? मैं कहती हूँ माएँ, बहनें, पत्नियाँ रोकें, अपनी ममता का वास्ता दें, अपने प्यार का दबाव डालें, भाइयों से अपनी रक्षा का वचन लें तो यह उग्रवाद, आतंकवाद कहाँ रहेगा। स्त्रियाँ ही यह कर सकती हैं। शासन नहीं कर सकता। पुलिस नहीं कर सकती । राजनीति तो बिल्कुल नहीं। वह तो आग में घी डालने का ही काम करती रही है। फिर आज की मूल्यहीन राजनीति!'
इलाहाबाद मेरा जाना हुआ था हिंदी साहित्य सम्मेलन के लेखिका सम्मेलन की अध्यक्षता करने के सिलसिले में। महादेवी जी उन दिनों गंभीर रूप से बीमार थीं। सम्मेलन में उन्हें लाया नहीं जा सकता था इसलिए अगले दिन शाम का सत्र उनके निवास पर रखा गया था। मैं उनसे उस सत्र से पहले उनके घर जाकर भेंट करना चाहती थी। पर श्रीधर शास्त्री बोले, कोई लाभ नहीं। उनके सहायक आपको उनसे मिलने ही नहीं देंगे तो जाकर क्या करेंगी, मैंने फिर भी उनकी सलाह अनसुनी कर दी और रिक्शा पकड़ कर उनकी कोठी पर जा पहुँची। उनके सहायक रामजी पांडेय बाहर बरामदे में ही मिल गए। उनसे अनुरोध किया तो पसीज कर बोले, आप दिल्ली से आई हैं तो मिल लीजिए, पर आप उनसे
चार-पाँच मिनट से ज़्यादा बात नहीं करेंगी। डॉक्टर ने मना किया है, किसी से मिलने न दें, मिलाएंगे तो बोलेंगी और बाद में उन्हें तकलीफ होगी। मैंने वादा किया कि आप जितना समय देंगे, उतनी देर ही वहाँ बैठूँगी फिर मिल कर चली आऊँगी। उन्होंने मुझे चार-पाँच मिनट का समय देकर भीतर भेज दिया। पर भीतर जो हुआ, उस पर न उनका वश था, न मेरा। रीढ़ पर एक जाल से जकड़ी वे बैठी थीं। देख कर एकाएक खिल उठीं कि कोई मिलने तो आया। फिर इशारे से पास बुला कर पलंग पर अपने साथ बैठा लिया और मेरा हाथ दबा कर लगीं रोने, देखो न आशाबहन, भगवान का यह कैसा न्याय है, अज्ञेय चले गए जैनेन्द्र मौन बैठे हैं, और मैं यहाँ यूँ जकड़ी बैठी हूँ। अज्ञेय को जाना था या मुझे! फिर जैनेन्द्रजी का हाल चाल पूछने लगीं और उन्हें इलाज के लिए विदेश ले जाने की सलाह देने लगीं जिसके लिए वे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बात चलाने का जिम्मा लेने के लिए भी तैयार हुईं। अन्य भी बहुत सी बातें हुईं जैसेः उन्होंने साहित्यकारों की स्थिति पर दुख प्रकट करते हुए बताया कि मैथिलीशरण गुप्त जी की तो शताब्दी मनाई जा रही है और उनके बेटे की स्थिति यह है कि चिरगाँव जाने वाले शोधकर्ताओं को चाय तक पूछने की उसकी हैसियत नहीं कि दद्दा अपने बेटे से अधिक अपने भतीजे पर विश्वास कर अपनी रायल्टी उसके नाम कर गए थे और अब वह इस कदर ज़रूरत पर भी उसके असली हकदार को कुछ देता ही नहीं। दोनों बारी-बारी से आकर अपनी बात इस बुआ से कह जाते हैं पर मिल कर नहीं आते कि महादेवी जी उनमें सुलह करवा सकें। यही हाल हिंदी साहित्य सम्मेलन के अलग हुए दोनों धड़ों का है। जब मैंने उन्हें बताया कि कल सम्मेलन में यह बात उठने पर पंडित कमलापति त्रिपाठी को दोनों में सुलह का जिम्मा सौंपा गया। पर एक पक्ष माना, दूसरे ने सम्मेलन से गए प्रतिनिधि मंडल को साफ मना कर दिया। और अब आप पर उनकी निगाह लगी है कि आप अपने जीते जी इन्हें एक करने का काम कर जाएँ। इस पर वे पहले हँसीं कि हमारी संस्कृति में मामा-भानजे का बैर प्रसिद्ध है, कुछ होने का नहीं। फिर गंभीर होकर कहने लगीं, ‘किसी संस्था में विघटन की स्थिति आती है तो उसके पीछे पैसा, पद-प्रतिष्ठा और सम्पत्ति ही होती है प्रायः। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं। सुलह-समझौता नहीं, मुकदमेबाजी करेंगे और एक-दूसरे पर दोषारोपण कर साहित्य प्रेमियों में भी वर्ग खडे़ करेंगे', उनकी वाणी में दर्द की टीस उभर आई थी।
महादेवी के सहायक पीछे आकर बार बार मुझे समय का ध्यान दिला रहे थे, पर इधर आलम यह था कि महादेवीजी का मन भरा हुआ था। वे बातें करना चाहती थीं, इसलिए मेरा हाथ दबा कर बैठी थीं। बहुत दिनों से बीमारी व अकेलापन झेलते हुए वे इतनी तंग आ चुकी थीं कि स्वयं को किसी भी तरह बाँटना चाहती थीं। मुझे भी लग रहा था कि महादेवीजी अब ज़्यादा दिन हमारे बीच नहीं रहने वाली हैं। इन्हें, डॉक्टरी राय की अवेहलना करके भी, अपने मन की बात कह लेने देना चाहिए। हर दुख में ठहाका लगा कर हँसने वाली देवीजी इस समय कितनी मजबूर रही होंगी, जब उन्हें ज़रूरत भर भी बोलने नहीं दिया जा रहा था। पर मेरी भी सीमा थी। सहायकों को चार-पाँच मिनट बात का वादा करके भी, हमारी बातचीत को आधा घंटा होने जा रहा था और महादेवीजी दिल्ली में हर किसी के लिए कुछ न कुछ कहना-सुनना चाह रही थीं। बार-बार टोकने पर मुझे धीरे-धीरे अपना हाथ उनकी पकड़ से छुड़ा कर उठ जाना पड़ा। पर बाहर आने तक मुझे लग रहा था कि उनकी कातर दृष्टि मेरा पीछा कर रही है और मैं अपराध-बोध से घिरती जा रही हुँ।
मेरे दिल्ली लौटने के लगभग चार महीने बाद ही जैसी कि आशंका की महादेवी जी चली गईं। न जाने उस दिन वे क्या-क्या कहना किस-किस के लिए क्या-क्या संदेश देना चाह रही थीं। पर बार-बार की टोकाटोकी के बीच उन्होंने अपने होंठ कस कर दबा लिए थे। और मैं उन्हें कैसे छोड़ कर आई थी, यह पीड़ा क्या बयान की जा सकती है?
चौथाई सदी हो गई ....महाप्रयाण को.
जवाब देंहटाएंAapke is sansmarn ko padh kar man bhavbihore ho gayaa
हटाएंAapke is sansmarn ko padh kar man bhavbihore ho gayaa
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