रंग के पर्व होली पर रचनाकार पर भी रंग का बुखार चढ़ गया है. यह पूरा सप्ताह होलियाना मूड की रचनाओं से रंगीन बना रहेगा. आप सभी अपनी रंगीन रचन...
रंग के पर्व होली पर रचनाकार पर भी रंग का बुखार चढ़ गया है. यह पूरा सप्ताह होलियाना मूड की रचनाओं से रंगीन बना रहेगा. आप सभी अपनी रंगीन रचनाओं के साथ इस रंग पर्व में शामिल होने के लिए सादर आमंत्रित हैं.
फ़ागुनी-गीत
फ़ागुनी-गीत, लोक साहित्य की एक महत्वपूर्ण गीत विधा है, जो लोक हृदय में स्पंदन करने वाले भावों, सुर, लय, एवं ताल के साथ अभिव्यक्त होता है. इसकी भाषा सरल, सहज और जन- जीवन के होंठॊं पर थिरकती रहती है. इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है. फ़ागुन के माह में गाए जाने के कारण हम इसे फ़ागुनी-गीत कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी.
वसंत पंचमी के पर्व को उल्लासपूर्वक मनाए जाने के साथ ही फ़ागुनी गीत गाए जाने की शुरुआत हो जाती है. फ़ागुन का अर्थ ही है मधुमास. मधुमास याने वह ऋतु जिसमें सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य हो. सौंदर्य ही सौंदर्य हो. वृक्ष पर नए-नए पत्तों की झालरें सज गई हों, कलिया चटक रही हों, शीतल सुगंधित हवा प्रवहमान हो रही हो, कोयल अपनी सुरीली तान छेड रही हो. लोकमन के आल्हाद से मुखरित वसंत की महक और फ़ागुनी बहक के स्वर ही जिसका लालित्य हो. ऎसी मदहोश कर देने वाली ऋतु में होरी, धमार ,फ़ाग,की महफ़िलें जमने लगती है. रात्रि की शुरुआत के साथ ढोलक की थाप और झांझ-मंजिरों की झनझनाहट के साथ फ़ाग-गायन का क्रम शुरु हो जाता है.
वसंत मे सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण में आ जाता है. फ़ल-फ़ूलों की नई सृष्टि के साथ ऋतु भी अमृतप्राणा हो जाती है, इसलिए होली के पर्व को “मन्वन्तरारम्भ” भी कहा गया है. मुक्त स्वच्छन्द परिहास का त्योहार है यह. नाचने, गाने हँसी, ठिठौली और मौज-मस्ती की त्रिवेणी भी इसे कहा जा सकता है. सुप्त मन की कन्दराओं में पडॆ ईष्या-द्वेष, राग-विराग जैसे निम्न विचारों को निकाल फ़ेकने का सुन्दर अवसर प्रदान करने वाला पर्व भी इसे हम कह सकते हैं.
रंग भरी होली जीवन की रंगीनी प्रकट करती है. होलिकोत्सव के मधुर मिलन पर मुँह को काला-पीला करने का जो उत्साह-उल्लास होता है, रंग की भरी बाल्टी एक-दूसरे पर फ़ेंकने की जो उमंग होती है, वे सब जीवन की सजीवता प्रकट करते है. वास्तव में होली का त्योहार व्यक्ति के तन को ही नहीं अपितु मन को भी प्रेम और उमंग से रंग देता है. फ़िर होली का उल्लेख हो तो बरसाना की होली को कैसे भूला जा सकता है जहाँ कृष्ण स्वयं राधा के संग होली खेलते हैं और उसी में सराबोर होकर अपने भक्तों को भी परमानंद प्रदान करते है.
फ़ाग में गाए जाने वाले गीतों में हल्के-फ़ुल्के व्यग्यों की बौछार होंठॊं पर मुस्कान ला देती है. यही इस पर्व की सार्थकता है. लोकसाहित्य में फ़ाग गीतों का इतना विपुल भंडार है, लेकिन तेजी से बदलते परिवेश ने काफ़ी कुछ लील लिया है. आज जरुरत है उन सब गीतों को सहेजने की और उन रसिक-गवैयों की, जो इनको स्वर दे सकें.
जैसा कि आप जानते ही हैं कि इस पर्व में हँसी-मजाक-ठिठौली और मौज-मस्ती का आलम सभी के सिर चढकर बोलता है. इसी के अनुरुप गीतों को पिरोया जाता है. फ़ाग-गीतों की कुछ बानगी देखिए.
मैं होली कैसे खेलूंगी या सांवरिया के संग
कोरे-कोरे कलस मंगाए, वामें घोरो रंग
भर पिचकारी ऎसी मारी,सारी हो गई तंग //मैं
नैनन सुरमा.दांतन मिस्सी, रंग होत बदरंग
मसक गुलाल मले मुख ऊपर,बुरो कृष्ण को संग //मैं
तबला बाजे,सारंगी बाजे और बाजे मिरदंग
कान्हाजी की बंसी बाजे राधाजी के संग//मैं
चुनरी भिगोये,लहंगा भिगोये,भिगोए किनारी रंग
सूरदास को कहाँ भिगोये काली कांवरी अंग//मैं
(२)
मोपे रंग ना डारो सांवरिया,मैं तो पहले ही अतर में डूबी लला
कौन गाँव की तुम हो गोरी,कौन के रंग में डूबी भला
नदिया पार की रहने वाली,कृष्ण के रंग में डूबी भला
काहे को गोरी होरी में निकली, काहे को रंग से भागो भला
सैंया हमारे घर में नैइया ,उन्हई को ढूंढन निकली भला
फ़ागुन महिना रंग रंगीलो,तन- मन सब रंग डारो भला
भीगी चुनरिया सैंइयां जो देखे,आवन न देहें देहरी लला
जो तुम्हरे सैंया रुठ जाये,रंगों से तर कर दइयो भला.
(३)
आज बिरज मे होरी रे रसिया
होरि रे रसिया बर जोरि रे रसिया
(४)ब्रज में हरि होरि मचाई
होरि मचाई कैसे फ़ाग मचाई
बिंदी भाल नयन बिच कजरा,नख बेसर पहनाई
छीन लई मुरली पितांबर ,सिर पे चुनरी ओढाई
लालजी को ललनी बनाई.-(ब्रज में............)
हँसी-ठिठौली पर कुछ पारंपरिक रचनाएँ
(१)मोती खोय गया नथ बेसर का, हरियाला मोती बेसर का
अरी ऎ री ननदिया नाक का बेसर खोय गया
मोहे सुबहा हुआ छोटे देवर का,हरियाला मोती बेसर का
(२)अनबोलो रहो न जाए,ननद बाई, भैया तुम्हारे अनबोलना
अरे हाँ....... भौजी मेरी रसोई बनाए,नमक मत डारियो..
अरे आपहि बोले झकमार
अरे हाँ ननद बाई,अलोने-अलोने ही वे खाए .....
अरे मुख्न से न बोले बेईमान
(३) कहाँ बिताई सारी रात रे...सांची बोलो बालम
मेरे आँगन में तुलसी को बिरवा, खा लेवो ना तुलसी दुहाई रे
काहे को खाऊँ तुलसी दुहाई, मर जाए सौतन हरजाई रे...
सांची बोलो बालम..........
(४) चुनरी बिन फ़ाग न होय, राजा ले दे लहर की चुनरी...(आदि-आदि)
हँसी की यह खनक की गूंज पूरे देश में सुनी जा सकती है. इस छटा को देखकर यही कहा जा सकता है कि होली तो एक है,लेकिन उसके रंग अनेक हैं. ये सारे रंग चमकते रहें-दमकते रहें-और हम इसी तरह मौज-मस्ती मनाते रहें. लेकिन हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि कोई कारण ऎसा उत्पन्न न हो जाये जिससे यह बदरंग हो जाए. याद रखें--इस सांस्कृतिक त्योहार की गरिमा जीवन की गरिमा में है. होली के इस अवसर पर इस्स तरह गुनगुना उठें
लाल-लाल टॆसू फ़ूल रहे फ़ागुन संग
होली के रंग-रंगे, छ्टा-छिटकाए हैं.
वहाँ मधुकाज आए बैठे मधुकर पुंज
मलय पवन उपवन वन छाए हैं .
हँसी-ठिटौली करैं बूढे औ बारे सब
देख-देखि इन्हैं कवित्त बनि आयो है.
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (23-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ!
कुछ लोक-गीत हमारे लिए एकदम नये हैं - लोक-संस्कृति में रचे-पगे ,विभोर करते !
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