चंद्रेश कुमार छतलानी की कहानी - बड़ा स्कूल

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बड़ा स्कूल चतुर्वेदी जी का बेटा साढ़े तीन वर्ष का हो गया था, उसका अच्छे स्कूल में एडमिशन कराना था। चतुर्वेदी जी अपने बेटे को सुसंस्कारित, ब...

बड़ा स्कूल

चतुर्वेदी जी का बेटा साढ़े तीन वर्ष का हो गया था, उसका अच्छे स्कूल में एडमिशन कराना था। चतुर्वेदी जी अपने बेटे को सुसंस्कारित, बड़ों का सम्मान करने वाला, अनुशासित, विनम्र, शिक्षित, स्वस्थ (शरीर और मन से) और बुद्धिमान बनाना चाहते थे।

इसके लिए उन्होंने एक स्कूल देखा, जो हिन्दी माध्यम का था और उस विद्यालय में संस्कारों को तवज्जो देते थे। उन्हें वह स्कूल बहुत पसंद आया। खुशी-खुशी उन्होंने अपने धर्मपत्नी को बताया। धर्मपत्नी ने अपना पत्नी धर्म निभाते हुए एकदम से मना कर दिया और कहा कि, “मेरा बेटा अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढेगा, किसी ऐरे-गेरे हिन्दी स्कूल में नहीं”।

चतुर्वेदी जी हक्के-बक्के रह गए, हालाँकि वे जानते थे कि अगर पत्नी की बात नहीं मानी गयी तो गृहयुद्ध होने में अधिक समय नहीं लगेगा और अंत में पत्नी ही विजयी होगी। उनकी पत्नी का स्वभाव तीक्ष्ण था। तो उन्होंने सोच-समझ कर यही कहा कि, “चलो ठीक है, लेकिन अंग्रेजी स्कूल में संस्कार मिलेंगे?”

“क्यों नहीं मिलेंगे? इतना अच्छा स्कूल है, बड़े-बड़े लोगों के बच्चे वहां पढ़ते हैं। संस्कार क्यों नहीं होंगे। और आप यह संस्कार का रोना बंद करो, मुझे मेरे बेटे को अच्छा इंसान बनाना है। हिन्दी स्कूल में, गरीब लोगों के बच्चों के साथ पढ़ कर क्या बनेगा? क्या विचार होंगे? मैं जो कह रही हूँ, घर में वही होगा। समझे!”  पत्नी ने आख़िरी शब्द को जोर देकर बोला।

चतुर्वेदी जी के पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। लेकिन पत्नी के शब्द “संस्कार का रोना बंद करो, मुझे मेरे बेटे को अच्छा इंसान बनाना है..” याद करके उन्हें अपने बेचारेपन पर तरस आ रहा था, हंसने का कोई औचित्य नहीं था।

वो एक बड़े अंग्रेजी स्कूल में गए, वहां उनसे पूछा गया, “सर, डू यु नो इंग्लिश?” – “श्रीमान जी, क्या आप अंग्रेजी जानते हैं?”, चतुर्वेदी जी के इस प्रश्न के नकारात्मक उत्तर पर उन्हें स्कूल से भी नकारात्मक उत्तर मिल गया... “सोरी। आपके बच्चे का एडमिशन नहीं हो सकता है। आपको इंग्लिश आना आवश्यक है।”

उनकी पत्नी ने बाहर आते ही कहा कि, “देखा, आप संस्कारों की बात कर रहे थे, कितने नियमों के पक्के है। जो स्कूल का नियम है, उसके अनुसार ही एडमिशन होता है।” चतुर्वेदी जी ने प्रत्युतर दिया कि, “भाई, लेकिन अपने छोटू का तो एडमिशन नहीं हुआ। अब क्या करें”

उनकी पत्नी पहले से ही इस प्रश्न के लिए तैयार थी, उसने कहा कि, “मैंने, आरती जी, जो अपने पड़ोस वाले शर्मा जी की पत्नी हैं, उनसे बात कर ली है और मुझे पता है कि क्या करना पडेगा?”

चतुर्वेदी जी ने पूछा, “क्या?”

“बस आप देखते रहो, आप जैसे दुनिया को देखते हैं, वैसी सीधी नहीं है – गोल है”, पत्नी ने उत्तर दिया।

उनकी पत्नी प्रिंसिपल के पी.ए. के पास गयी, और उंसे बात करके 5 मिनट में वापिस चतुर्वेदी जी के पास आयी और कहा कि, “दस हजार रुपये दो, जो आप फीस के लाये थे।”

“तो क्या एडमिशन हो गया?” चतुर्वेदी जी ने आश्चर्यचकित होकर पूछा। साथ ही उन्होंने रुपये निकालने के लिए जेब में हाथ भी डाल दिया।

“हो जाएगा, फीस तो कल भी जमा हो जायेगी, ये तो प्रिंसिपल साहब के लिए उपहारस्वरूप है।”-उनकी पत्नी ने कहा।

चतुर्वेदी जी को जैसे 440 वाट का झटका लगा, वो सारी बात एक क्षण में ही समझ गए। उनके मन से आवाज़ आयी “संस्कारित, नियम प्रधान, बड़े अंग्रेजी स्कूल में बच्चे का प्रवेश करवाना है, तो उसके प्रधान को दस हजार रुपये रिश्वत के देने होंगे..”

उन्होंने जेब से हाथ बाहर निकाला, लेकिन खाली। और उसी हाथ से, अपने जीवन में पहली बार, कई एडमिशन कराने आये अभिभावकों के सामने, अपनी पत्नी को कस के तमाचा जड़ दिया।

फिर चिल्ला कर कहा, “माफ़ करना, लेकिन मैं अपने बच्चे को इस तरह के स्कूल में नहीं पढ़ा सकता, जिसका प्रिंसिपल एडमिशन के समय रिश्वत लेता हो... मुझे मेरे बच्चे को मानव बनाना है, किसी राक्षस के हाथ में देकर उसे दानव नहीं बनाना।”

“जीवन भर तुम ने जो सही-गलत कहा, केवल घर में शांति रहे, इसलिए मैंने चुप-चाप मान लिया, लेकिन मैं अपने पिता-धर्म को केवल शांति की कीमत पर बेच नहीं सकता। कभी भी नहीं।”

कई अभिभावक उनके आस-पास खड़े थे, उनमें से कईयों के हाथ खुद की जेब के अन्दर चले गये – अपने वाहनों की चाबी निकालने के लिए।

 

- चंद्रेश कुमार छतलानी

३ प् ४६, प्रभात नगर 

सेक्टर-५, हिरन मगरी 

उदयपुर - राजस्थान 

 

chandresh.chhatlani@gmail.com

http://chandreshkumar.wetpaint.com

COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. चंद्रेश जी आजकल अंग्रेजी स्कूलों का फैशन बन गया है। ठीक है रिश्वत मांगने पर चतुर्वेदी जी ने बेटे का प्रवेश अंग्रेजी स्कूल में लेना नकारा। परंतु प्रश्न यह उठता है बिना रिश्वत लिए अगर प्रवेश होता तो क्या चतुर्वेदी नकार पर कायम रहते? माता-पिता अच्छी पढाई के साथ संस्कार बच्चों को मिले इसकी चिंता करते हैं। कहानी में उचित विषय को उठाया पर भाई बीवी को थप्पड मार घरेलु हिंसा मत करवाओ।

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  2. विजय जी, अंग्रेजी स्कूल ठीक हैं, लेकिन जब भी कुछ नयापन आता है तो थोड़ा मानसिकता में परिवर्तन करना ही होता है| रही बात संकारों की तो मैं आपको थोड़ा पीछे के काल में लेकर चलता हूँ| हमारे देश में अंग्रेजीयत के अलावा अगर कुछ और है तो हमारा पुरातन काल, जिसमें भारतवर्ष के विद्वानों ने शून्य, दशमलव का आविष्कार किया, या फिर सबसे पहले शल्य चिकित्सा की और कुछ और रिसर्च भी हुई, हालाँकि हमने केवल उन्ही रिसर्च को स्वीकार किया जिनकी पुनरावृत्ती अंग्रेजो ने की| तो हमने कह दिया कि हमने ये पहले ही कर रखा है, जबकि कई अधिक शोध जो छुपा हुआ है, जब और देश कर लेंगे तो हम फिर वही कहेंगे, तो पहले ही क्यों नहीं |

    चलिए थोड़ा लीक पर आता हूँ, कहने का अभिप्राय यह है कि, हमारा देश पहले सोने की चिड़िया था, हालाँकि अंग्रेजी स्कूल नहीं थे, अंग्रेजियत भी नहीं थी... तो अब क्या अंग्रेजी शिक्षा अपना कर फिर से सोने के चिड़िया बन गया?

    भाई विजय जी, हम आगे नहीं पीछे जा रहे हैं, क्योंकि जितना हमारे पूर्वज छोड़ गए उनकी पुनःशोध अंग्रेजी तरीके से करने की वैसे तो कोई आवश्यकता नहीं है|

    और दूसरा मैं बताऊ कि, ब्रिटेन या अमेरिका में बच्चों को पढ़ने के तरीके पिछले १५-२० वर्षों से बदल चुके हैं, जिन्हें हम आज तक समेटे हुए हैं| उन लोगो की आज की शिक्षा पद्धति को अगर हम समझें तो उसमे आपको कहीं ना कहीं हमारी पुरातन शिक्षा पद्धति मिल जायेगी, केवल तरीके थोड़े अलग है| इसलिए फैशन के होड़ की जगह अगर हम हमारी संस्कृति, हमारा पर्यावरण, जलवायु और जीवन चर्या के अनुसार शिक्षा ग्रहण करेंगे तो ही शिक्षा सफल है|

    क्षमा करे, शायद थप्पड़ लगाना कई लोगों को पसंद नहीं आये, लेकिन यह थप्पड घरेलू हिंसा का विषय नहीं होनी चाहिए, अगर आप चतुर्वेदी जी के पात्र को देखें तो वो कहीं ना कहीं अपनी पत्नी से दबा हुआ है और यह जानता है कि उसके कहने से कुछ काम नहीं चलेगा, दूसरी तरफ अपने पुत्र की शिक्षा के लिए बहुत चिंतित है| तो डर कि उनकी बात केवल कहने से नहीं मानी जायेगी, कुंठा और चिन्ता इन तीनों ने मिल कर थप्पड मरने को मजबूर किया| इसका अर्थ यह नहीं कि किसी स्त्री से हिंसा हुई है| अपनी बात को रखने का उन्हें यही तरीका ठीक लगा, अन्यथा शायद उनकी पत्नी नहीं मानती| और इसका उलटा भी है, इस थप्पड से पहले केवल उनकी पत्नी की मर्जी चलती थी (अब कुछ पुरुषवादी लोग इसे भी घरेलू हिंसा से जोड़ सकते हैं)| साथ ही कहानी का अंत कुछ इस तरह से हो कि, अन्य अभिभावकों को भी कुछ सबक मिला और वे चले गए, तो इसलिए इस संवाद/कृत्य की आवश्यकता थी|

    आशा है मेरा प्रत्युत्तर ठीक रहा होगा| आपका बहुत आभार भाई विजय जी, कि आपने कहानी को गौर से पढ़ा| अगर कहीं और भी आपको मेरे विचारों में गलती लग रही हो तो कृपा कर बताये|

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  3. चद्रेश जी आपने बिल्कुल उचित लिखा है। सौ प्रतिशत हमारी संस्कृति और पढाई के तरिके उचित और ताकतवर है। थप्पड की बात तो मजाकिया तौर पर की थी, कहानी में प्रसंग के तौर पर उसका होना जरूरी भी था। यहां मां-पिता की बेटे के भविष्य को लेकर जो टकराहट है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बधाई। संवाद बनाए रखे।

    जवाब देंहटाएं
  4. भाई विजय शिंदे जी, आपका ह्रदय से आभार|

    चंद्रेश

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रचनाकार: चंद्रेश कुमार छतलानी की कहानी - बड़ा स्कूल
चंद्रेश कुमार छतलानी की कहानी - बड़ा स्कूल
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