1. एक बूंद एक बूंद में सागर के तूफान छिपे हैं , एक बीज में धारा के असंख्य उद्यान छिपे हैं । एक कण में अथाह शक्ति है व्याप्त , एक स्वर में...
1. एक बूंद
एक बूंद में सागर के तूफान छिपे हैं ,
एक बीज में धारा के असंख्य उद्यान छिपे हैं ।
एक कण में अथाह शक्ति है व्याप्त ,
एक स्वर में गुथे अनंत गाँ छुपे हैं ।
एक चिंगारी आग लगा सके चहूँ दिशा ,
पाठ दीप जलाने को उसमे अरमान छुपे हैं ।
युगों से बंद पड़े अँधेरों के ताले ,
उन्हें खोलने एक किरण में प्रावधान छुपे हैं ।
एक पत्ते की हथेली भाग्य रेखा में ,
समस्त हरियाली के विधान छिपे हैं ।
बिजलियों ने शरण ली घटा में ,
कण कण में उनके निशान छिपे हैं ।
अनंत राह की धूल में कालचक्र ,
अपनी मंजिल के लिए गतिमान छिपे हैं ।
एक कली से सुगंध धार बह रही निरंतर ,
कितने निर्झर जिसमे प्रवाहमान छिपे हैं ।
एक कलम के ह्रदय झांक कर देखो,
मूक जीवहा पर जिसके मधुर गाँ छिपे हैं ।
एक हाथ , जहां नहीं चमकता कंगन कोई ,
उन उँगलियों में कितने नवनिर्माण छिपे हैं ।
एक धागे पिरोये अनगिनत सुंदर पुष्प,
पंखुड़ियों में अभिलाषा के सामान छिपे है ।
जिस एक को पाकर सब एक हो जाएँ ,
उस एक की दया में अनंत कल्याण छिपे हैं ।
2. मानव हो तो
मानव हो तो मन से मनन कीजिये,
चित्त की चिंता को छोड़ें , चिंतन कीजिए।
श्वासों में खूशबू गुलाब खिल जाएगी ,
जीवन की डगर पर सत्कर्म कीजिए।
सम्मान से पलक उठें , नयन कीजिए ,
सफलता की मंज़िलें मिलें , प्रयत्न कीजिए ।
रूप संवारना है तो दर्पण लीजिये,
आत्मा को निखारना है , समर्पण कीजिए।
विश्व को पहचानना है , विचरण कीजिए,
ईश्वर को पाना है तो स्मरण कीजिए।
तप साधना से नव सृजन कीजिए,
यज्ञ वेदी पर बैठकर कर हवन कीजिए ।
3. जग आग का दरिया
जग आग का दरिया है कागज की तेरी कश्ती,
इंसान जरा पहचान, यहाँ क्या है तेरी हस्ती।
लपटें लहरों की तरह किस तरह उछलती हैं ,
हाथों से रह रह कर पतवार फिसलती है ।
इस पार से उस पार का लंबा सफर है ,
आसमान में रह रह बिजली चमकती है ।
धुआँ इतराता हुआ , किस ठौर से उठ रहा ,
धुएँ की तरह यहाँ ठहरती कैसी मस्ती है ।
दिशाएँ गुम हो गईं गुमराही के अंधेरे में ,
आखेँ हैं भरी जो मंजिल को ताकती हैं ।
मोम को चट्टान बना दे जो इरादे ,
ध्रुव से सिखनी हमें एसी भक्ति है ।
प्रहलाद ने सहारा लिया जिस विश्वास का ,
उससे जीवन नैया भाव पार उतरती है ।
4. प्रेम की गंगा
आओ इस धरा पर, प्रेम की गंगा बहाएँ ,
कर्म के उपवन में, धर्म के फूल खिलाएँ ।
आँधियाँ उड़ रही , घृणा द्वेष, स्वार्थ की ,
अंधकार में लौ जले, कैसे परमार्थ की।
चहूँ दिशा घिर रही, जहां काली घटाएँ ,
आओ इस धरा पर, प्रेम की गंगा बहाएँ ।
ज्योति पुंज प्रवाह देखो अवरूद्ध कहाँ है,
सौम्य पूनम मुखमंडल , गौतम बुद्ध कहाँ है ?
महावीर के प्रेम संदेश, मन से मैल हटाएँ ,
आओ इस धरा पर, प्रेम की गंगा बहाएँ ।
फहराई धर्म पताका वो , शंकराचार्य कहाँ हैं ?
नानक,कबीर,गोरखनाथ से आचार्य कहाँ हैं ?
मीरा फरीद के गीत पल पल अमृत बरसाएँ ,
आओ इस धरा पर, प्रेम की गंगा बहाएँ ।
मानवता आज पुकारे रामकृष्ण विवेकानन्द को,
दया का अमृत बरसाने वाले ऋषि दयानन्द को ।
मानव सेवा में रमण, ईश के दर्शन पाएँ,
आओ इस धरा पर, प्रेम की गंगा बहाएँ ।
सत्ता के गलियारों में, हथियार उड़ाए आँधी,
प्रेम अहिंसा की लौ बुझे नहीं जिसे जलाए गांधी।
मानव पाठ से शूल हटाएँ अधर्म की धूल हटाएँ,
आओ इस धरा पर, प्रेम की गंगा बहाएँ ।
5. राहों में दीप आशा का जगा दो
राह में घनघोर अंधेरा ,
दीप आशा का जगा दो ।
किस ओर मंजिल है हमारी,
कोई उसकी दिशा बता दो ।
निर्जन पथ काँटों से पूर्ण हैं,
इक सुगंध भरा फूल खिला दो ।
मिट जाए युग का अँधियारा,
कोई ऐसा दीप जला दो ।
अचेत हैं आशाएँ सभी ,
और खुशियाँ घायल हैं।
अपनी राह जो बढ़ सकें,
इतनी उनमें शक्ति जगा दो ।
बादल के सीने में बिजली,
कोई उसकी तड़प मिटा दो।
अभिलाषा का पंछी पिंजरे में,
उसको मुक्त करा दो।
6. एक परीक्षण
एक परीक्षण पहले कर ले, उस बीज पर,
बोना चाहता है, तू जिसे क्षितिज पर ।
फल हल की तेज कर ले सोचकर,
तय करना है तुझे, किस चीज पर ।
बांध ले घोड़े वक्त के जो थकते नहीं,
हिनहिनाएं वो तेरी दहलीज पर ।
खोदनी है नहर तुझको ऊंचे गगन में,
टूट न जाएं किनारे तेरी खीज पर ।
फसलें आके काटें, भावी पीढियाँ ,
हीरे लुटाएगा गगन, तब रीझ कर ।
एक परीक्षण पहले कर ले, उस बीज पर,
बोना चाहता है , तू जिसे क्षितिज पर ।
7. कुल्हाड़ी और वृक्ष
बड़े नाज बड़ी शान से,
कुल्हाड़ी पेड़ से बोली, बड़े गुमान से,
“ छोटी हूँ पर तुझे काट सकती हूँ,
छोटे छोटे टुकड़ों में बाँट सकती हूँ । “
विषाद की रेखाएँ घिरी वृक्ष के मुख पे,
कसमसा कर कहा, उसने बड़े दुख से ।
वृक्ष बोला, “ आज तेरी शक्ति में जो तेरे संग है
वो मेरा ही तो काटा हुआ अंग है ।“
किसको सुनाएँ इस मन दुखड़ा,
तुम्हारी ताकत बन गया हमारा टुकड़ा,
अपना ही जब कोई गैरों से जुड़ता है ,
सच मानिए मुसीबत का पहाड़ टूटता है ।
8. फूल और धूल
फूल धूल में मिले, शाख से टूटकर ,
रिश्ते सभी मुरझा गए , अपनों से रूठकर ।
सियासत के कारोबार चमके केवल झूठ पर ,
सत्य बार बार रोया , हाय फूट फूट कर ।
तूफान कहाँ धनवान हुए , चमन लूटकर,
अंधियों की कहाँ प्यास बुझी एक घूंट पर ।
चन्दन में सुगंध भरी , देखो कूट कूट कर ,
परम शांति प्राप्त होती है स्वार्थ से छूटकर ।
हवाएँ नहीं बंधा करतीं डोर से छूटकर,
व्यक्तित्व गगन छू सके श्रद्धा से झुककर ।
9. दीपक
जब भी घना अंधेरा या रात होती है ,
घर में दीपक जलाना अच्छी बात होती है ।
जब पड़ोसी के घर डूबे हों अंधकार में ,
महापुरूष दीपक जलाते हैं उनके द्वार में ।
जब युग भटक रहा हो , यहाँ अज्ञान अंधकार में ,
युग पुरूष स्वयं दीपक बन जलते हैं तूफान में ।
महापुरुष अपने बलिदानों में महान काम करते हैं ,
उनकी स्मृतियों को सब श्रद्धा से प्रणाम करते हैं ।
10. शिक्षा का भगवाकरण
ज्ञान और त्याग का ,
निस्वार्थ कर्म वैराग्य का,
सत्कर्म धर्मानुराग का,
प्रचंड यज्ञ की आग का
प्रतीक है भगवा ।
प्रात:के शृंगार का ,
सांध्य से साक्षात्कार का,
शौर्य के आधार का ,
शांति के विस्तार का
प्रतीक है भगवा ।
कर्म संग सौभाग्य का ,
गीत संग वाद्य का ,
सात्विकता संग खाद्य का ,
अनादि संग आद्य का
प्रतीक है भगवा ।
मानवता के उत्थान का ,
विश्व के कल्याण का ,
विध्वंस में निर्माण का ,
संस्कृतियों के मान का ,
प्रतीक है भगवा ।
विद्या और वेद का ,
भेद में अभेद का ,
विज्ञान में विच्छेद का ,
द्वैत में अद्वैत का
प्रतीक है भगवा ।
प्रेम में संबंध का ,
कलियों में सुगंध का ,
फूलों में मकरंद का ,
सद्ज्ञान में आनंद का ,
प्रतीक है भगवा ।
भगवा भाव रंग समर्पण कीजिए ,
भगवा से भगवान मिले स्मरण कीजिए ,
वसुधैव कुटुंबकम् सब एक हो जाएँ,
ऐसी शिक्षा का भगवाकरण कीजिए ।
लेखक-
विजय गुप्त
कवि,नाटककार,चित्रकार,शिक्षाविद्
एफ-1/135, मदनगीर अंबेडकर नगर –iv
नई दिल्ली-62
9313161393
मानवीय संवेदनाओं को व्यक्त करती कवितायेँ
जवाब देंहटाएंजीवन से संवाद करती कविता,और सोचने
को विवश करती है-----सार्थक और सुंदर रचना
विजय गुप्त जी को बधाई
सुंदर प्रस्तुति
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों ख़ुशी होगी