रेखा कस्तवार अकेली स्त्री (देहरी लाँघती स्त्रियाँ) अकेली स्त्री एक असम्भव स्थिति रही है। हमारे मनुवादी संस्कारों में स्त्री के लिए स...
रेखा कस्तवार
अकेली स्त्री
(देहरी लाँघती स्त्रियाँ)
अकेली स्त्री एक असम्भव स्थिति रही है। हमारे मनुवादी संस्कारों में स्त्री के लिए सदैव से ही यदि कहीं कोई गुंजाइश बनी है तो रक्षिता रहकर ही। स्त्री न तो घर में अकेली देखी जा सकती है, न बाहर। घर के बाहर अकेली स्त्री एक असम्मानजनक स्थिति है। “सम्माननीय स्त्री” पुरुष के संरक्षण में पुरुष से सुरक्षा चाहती स्त्री है, जिसके हाथ में न अपनी देह है, न अपना पैसा और न ही अपने रिश्ते। स्त्री केपास पाने के दो विकल्प हैं- सुरक्षा अथवा स्वतंत्रता, वह एक को खोकर ही दूसरा पा सकती है। सुरक्षा एक महत्त्वपूर्ण कवच है जिसे खोने की कीमत पर वह स्वतंत्रता पा सकती है। स्वतंत्रता का जो खाका उसके सामने रखा गया है वह उसे निर्वासन का दण्ड देता है। स्त्री को मिलने वाली सुरक्षा बहुत मंहगी है सुरक्षा के बदले में वह जो कुछ सहन करती है वह असहनशील था, असहनशील है।
अकेली स्त्री के लिए समाज में क्या व्यवस्था है, उसका क्या मूल्य है, प्रश्न शाश्वत है। अविवाहिता, तलाकशुदा, विधवा स्त्री प्रश्नचिह्न है। जो स्त्री विवाह- संस्था में है, वह पुरुष की जिम्मेदार है, उसे अपने बारे में सोचने की जरूरत नहीं। विवाह को कैरियर मानकर सारे प्रश्नों से बचा जा सकता है। अपनी समस्याओं को तथाकथित “अपने पुरुष” पर डालकर निर्द्वन्द्व हुआ जा सकता है। समाज युवा होती किशोरी के मन में पुरुष की छवि किसी उ(ारक से कम प्रक्षेपित नहीं करता। अपनी मेहनत से प्रस्थापित होने की अपेक्षा किसी तारण हार की सर्वाेच्च सत्ता द्वारा उ(ारित होना अधिक आसान होता है। स्त्री की शिक्षा का उद्देश्य विवाह के लिए बोनस अंक जुटाना होता है अथवा विवाह होने तक का वक्त काटना। पिता के परिवार में स्त्री की जगह पुत्री के रूप में विवाह की प्रतीक्षा तक सीमित होती है। पुत्री के प्रति ‘जिम्मेदारी' जल्दी से जल्दी निपटाकर, किसी भी तरह निपटाकर मुक्ति की कामना- गंगा नहाने की कामना हर माँ बाप की होती है। परिवार में बड़ी उम्र की नाकमाऊ अविवाहित बेटी बड़ा प्रश्न है। जिसे ठिकाने लगाने की जल्दी सभी को है। बेटी का विवाह न होने पर परिवार के साथ-साथ बेटी भी अपराध बोध से जकड़ी होती है क्योंकि उसे बेटे की तरह अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए नहीं, विवाह के लिए तैयार करते हुए बड़ा किया जाता है। लम्बे समय तक ‘कुँवारी बैठी बेटी' जिन लांछनाओं का शिकार होती है उससे कई नैतिक
सवाल जन्म लेते है। लाल घाघरे में बड़े-बड़े दाग छिप जाते है पर सफेद आँचल पर कोई छोटा सा निशान भी नहीं छिप पाता। ;प्रभा खेतान, हंस भूमण्डलीकरण अंक का सम्पादकीयद्ध सामाजिक व्यवस्था में परिवार का ढाँचा चूँकि पुरुष केन्द्री है इसलिए परिवार में अकेली स्त्री के लिए जगह नहीं। परिवार में अकेले बेटे के लिए गुंजाइश बनती है परन्तु पिता का घर बेटी का घर नहीं हो सकता,, उसे जाना ही होगा। घर तो बेटों का होता है। अविवाहिता बेटी परिवार में घुसपैठ है, अपेण्डक्स हैं। जहाँ परिस्थितिवश बेटी अविवाहित रह गई है और ‘कमाऊ' भी है वहाँ कमाऊ अविवाहित बेटी के वेतन का उपयोग तो है, वह लिफाफा तो बन सकती है परन्तु उसे वे अधिकार प्राप्त नहीं है जो ‘कमाऊ पूत' को मिला हैं और कई बार नाकमाऊ पूत को भी। उन परिवारों में जहाँ कमाऊ पूत घर छोड़ कर चले गये है माँ-बाप और निर्भर छोटे भाई बहिनों को छोड़ कर नहीं जाती कमाऊ बेटी, परिवार की मजबूरियों के कारण ज़रुरी हो गई है। उसकी व्यक्तिगत इच्छाओं की कीमत पर परिवार पलता है। परिवार के स्वार्थ उसे अच्छी लड़की के मिथ से इस क�दर जोड़ देते है कि वह अपने बारे में सोचना पाप समझने लगती है- ‘मेरे चले जाने से परिवार का क्या होगा? परिवार उसके बारे में सोच कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारता है। ‘सुषमा' बनी रहती है परिवार की। कमाऊ बेटी के विवाह का मतलब है उसका दूसरे परिवार का हिस्सा बनना और उसकी कमाई पर पति का कब्जा। यह पति का निर्णय होता है कि वह अपनी पत्नी की कमाई का किस प्रकार उपयोग करे। पत्नी की कमाई पति की कमाई होती है। पति की कमाई पत्नी की कमाई किस तरह हो सकती है इसलिए अविवाहिता कमाऊ बेटी के विवाह के बारे में ;निर्विकल्पता की स्थिति मेंद्ध माँ-बाप विचार करते ही नहीं। अकेली बेटी अपने लिये अलग व्यवस्था सामाजिक सीमा के कारण नहीं कर पाती। लगातार बाहर जा रहे बेटे अलग रहकर भी परिवार का अभिन्न अंग होते हैं और सारे परिवार को पालती बेटी अब भी पराई है। परिवार में अपने उपयोग को वह समझती है, ‘पे-पेकिट' बना दिये जाने की साजिश को पहचानते हुए भी दायित्व बोध और बाहर अकेले रहने की क्षीण सम्भावना उसे इस्तेमाल होने पर विवश करती है और वह ‘अच्छी लड़की काम करती हुई न बोलने वाली लड़की में तब्दील हो जाती है।
विवाहिता घरेलू स्त्री अपने देह और श्रम के बदले में पुरुष से रोटी, कपड़ा और छत का भरोसा पाती है, परजीविता के बल पर कई बार वह उन सुख सुविधाओं को भी जुटा लेती है जो स्वावलम्बी स्त्री नहीं जुटा पाती। वह अपने पति के नाम से पहचानी जाती है, और कुछ सालों बाद अपने बेटों के नाम से। विवाह उससे उसका नाम छीन लेता है, उसका ‘आत्म' छीन लेता है और वह ‘माई, बाँझ माँजी, बऊ, कक्को, रानी साहिबा, अम्मू, सुन्नर पाण्डे की पतोह बनी, तमाम उम्र गुज़ार देती है। परिवार से मिलने वाली सुरक्षा उसे व्यक्तिगत जीवन जीने का दुःसाहस नहीं देता। व्यक्तिगत जीवन का दुःसाहस न कर पाने और परिवार से मिली सुरक्षा की मोहताजी का महत्वपूर्ण कारक उसका नाकमाऊ होना समझा जाता है। स्त्री के घरेलू काम का चूँकि उपयोग मूल्य होते हुए भी कोई विनिमय मूल्य नहीं होता उसे पारिश्रमिक प्राप्त नहीं होता। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है ‘घरेलू श्रम-बच्चों के पालन पोषण और घर गृहस्थी में लगने वाला श्रम- सामाजिक रूप से आवश्यक उत्पादन का भारी हिस्सा होता है ... परन्तु यह वास्तविक काम इस लिए नहीं समझा जाता क्योंकि यह व्यवसाय और बाज़ार क्षेत्र से बाहर रहता है। स्त्री ‘मुद्रा अर्थशास्त्र' की परिधि के बाहर काम करती है और उसके कामों को मुद्रा से नहीं आँका जाता, अतः वह मूल्य हीन होता है। स्त्रियों का काम सिर्फ हाशिए पर होता है। पुरुष का मुद्रा से सीधा सम्बंध होता है इस लिए शक्ति के �ोत उसी के पास केन्द्रित हो जाते है। पुरुष स्त्री के क्षेत्र समझने जाने वाले काम यदि करता भी है, तो वही जहाँ उसका मूल्य उसे मिलता है। होटल, टेलर शॉप, डे केयर होम आदि। मुद्रा से सीधा सम्बंध आँक कर वह बाहर, ‘घर के काम' कर सकता है। वह यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि एक पुरुष को दिया जाने वाला वेतन दो व्यक्तियों का श्रम खरीदता है। आर्थिक सुरक्षा देता पुरुष स्त्री कोे हस्तगत कर लेता है। अपने पास स्त्री के सारे अधिकार सुरक्षित समझता है। वह समझता है कि मातृत्व और मानव शिशु के देखभाल की लम्बी अवधि स्त्री को घर तक सीमित करती है। मूल्यहीन उबाऊ, थकाऊ घरेलू श्रम में स्त्री अपनी ज़िन्दगी खत्म कर देती है। औरत का रात दिन खटना बेग़ारखाने में जाता है और वह भूली रहती है अपने को मोह ममता में। ‘पुरुष कमाई से परिवार के लिए सुविधा जुटाता है साथ ही अपनी ताकत भी कमाता बनाता है। इसी प्रभुताई के आगे गिरवी पड़ी रहती है बच्चों की माँ। यह आर्थिक परावलम्बन स्त्री को याचक की मुद्रा देता है और पुरुष को दाता की। स्त्री अपने प्रत्येक निर्णय के लिए पुरुष का मुँह जोहती है। रोटी के लिए परनिर्भरता स्त्री को हर तरह के अपमान सहने को बाध्य करती है जिसमें मानवीय प्रतिष्ठा का अभाव होता है। मानवीय प्रतिष्ठा से वंचित इस स्त्री का महिमा मण्डन ‘दलित द्राक्षा की तरह अपने आपको निचोड़कर दूसरों को तृप्त करने वाले नारी तत्व' में खोजा जाता है। आर्थिक परावलम्बन स्त्री में आत्मविश्वास पनपने नहीं देता और मानसिक विकास के अवसर अवरूद्ध हो जाते हैं। स्त्री के हिस्से में आती है नितान्त परवशता और पुरुष के हक में स्वच्छन्द आत्म निर्भरता। परम्परा संस्कारों की जकड़न अकसर शिक्षित और स्वावलम्बी स्त्री को पिता पति पुत्र पर निर्भर रहने को विवश करती है और कई बार विधवा या तलाक शुदा होने पर भी स्त्री स्वतंत्र जीवन जीने की अपेक्षा पुनः विवाह संस्था में जाने को उतावली होती है। विवाह संस्था में पुनः प्रवेश उसे हर बार बेहतर विकल्प नहीं सौंपता, वह ‘कुसुम' और ‘यामिनी' बन अपने पूर्व पति के बच्चों और वर्तमान पति के बीच तनाव की त्रासदी स्वीकार करती है। अकेले रहते हुए संघर्ष नहीं करती। संस्कारबद्ध यह स्त्री अपने पैसे के उपयोग का अधिकार अपने पास सुरक्षित नहीं रख पाती। उसका न अपना घर होता है, न अपनी सम्पत्ति होती है, न बैंक बैलेन्स। पिता की सम्पत्ति में उसका उत्तराधिकार सीमित होता है और पति की सम्पत्ति उससे विधवा होने तक इन्तज़ार कराती है। अर्थ की दृष्टि से प्राप्त सीमित अधिकार और पारिवारिक दबावों के कारण अधिकारों का अनुपयोग स्त्री को कमज़ोर बनाता है और अकेली स्त्री असम्भव स्थिति बन जाती है।
स्त्री को बता दिया गया है कि परिवार और बच्चे उसका कार्य क्षेत्र हैं। वह बच्चे सँभाले, चौका सँभाले, पति की जरूरतों का साधन बन बिछती रहे। उसे और क्या चाहिए? प्रायः पति और प्रेमी से उसे स्वतंत्र कॅरियर के त्याग की माँग मिलती है। फिर भी यदि वह आत्मनिर्भर बनना ही चाहती है तो वरीयता क्रम में उसे दूसरा स्थान प्राप्त होगा। परिवार का स्थानापन्न वह नहीं बन सकती। उसके जीवन में विवाह, प्रेम और कॅरियर में समझौता पुरुष की तरह सहज नहीं होता। पैसा कमाने परिवार से बाहर निकलती स्त्री दोहरे कार्यभार से दबी कुचली होती है जबकि पुरुष घरेलू श्रम से मुक्त, पारिवारिक भावनात्मक, मानसिक सुरक्षा व शांति से लबरेज। पुरुष को अपने बाहरी परिवेश से भी उस तरह नहीं जूझना पड़ता जिस प्रकार स्वावलम्बन की ओर जाती स्त्री को। काम पर बाहर जाती स्त्री के प्रति यह विचार आम होता है कि वह मानसिक तौर पर छेड़छाड़ के लिए तैयार होकर ही बाहर निकलती है। ‘ऐसी सती सावित्री थी तो घर में ही क्यों न बैठ गई।' बाहर विरोधी परिवेश और घर में अपराधबोध कि परिवार और बच्चों को छोड़कर काम पर जाती स्त्री अपने दायित्वों से मुँह मोड़ती है। ‘स्त्री से गृहस्थी के अमन-चैन का मूल्य चुकाने की अपेक्षा की जाती है। समान स्थितियों में पुरुष का रिश्ता गृहस्थी से आराम और सुविधा का होता है। घरेलू श्रम में पुरुष की कोई भागीदारी नहीं होती यदि वे काम करते है तो वे इसे महज आपत्तिजनक ही नहीं, मनोबल तोड़ने वाला पुंसत्वविहीन स्वास्थ के लिए अहितकर माना जाता है ;1969 बेनकुवर सन के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित रिपोर्ट-ब्रिटिश पुरुषों के स्वास्थ चौपट होने का कारण अधिक घर गृहस्थी का काम।द्ध पारम्परिक विवाहिता और स्वावलम्बी बने रहने में स्त्री पर जिम्मेदारियों की वृद्धि होती है, बदले में उसे मिलता है तनाव और थकान। दो व्यक्तियों का काम करके एकल वेतन पाती है स्त्री। परिवार और कार्यक्षेत्र के बीच नट की तरह झूलती है स्त्री। पुरुष प्रधान परिवेश में परवरिश के कारण अपने ‘अधिकारों का त्याग' और स्वावलम्बी होने के कारण अपने ‘अधिकारों की चाह' के बीच बँटी हुई स्त्री निरन्तर तनाव झेलती है और टुकड़ा-टुकड़ा जीती है। जीवन में जो वर्ष कॅरियर निर्माण की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते है वे ही वर्ष स्त्री के जीवन में प्रजनन के हिसाब से महत्त्वपूर्ण हैं। जब पुरुष कर्मठता और सक्रियता को पूरी तरह पंगु करने के लिए एक ही बच्चा काफी है ... या तो वह बाँझपन की पीड़ा और कुण्ठा झेले या अनचाहे मातृत्व के तले अपना कॅरियर बर्बाद करे। स्वतंत्र स्त्री व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं और पेशेगत रुचियों के बीच एक द्वन्द्व झेलती है, विकल्पों के बीच संतुलन कठिन हो जाता है। उसे किसी एक के चुनाव की कीमत चुकानी ही पड़ती है। परिवार को वरीयता देने के प्रयत्न में वह कॅरियर में पिछड़ जाती है। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं, पति महत्त्वाकांक्षा की रेस का घोड़ा, तब स्त्री परिवार के लिए फालतू हो जाती है। यदि विवाह संस्था में रहते हुए वह अपना कॅरियर बनाना चाहती है तो उसे उम्र के 40-45 वें वर्ष तक रुकना होगा, क्योंकि तभी उसके पास अपना कुछ वक्त होगा। आर्ट और कल्चर में देर से आई स्त्रियों के उदाहरण देखे जा सकते हैं अन्यथा परिवार में रहते हुए ‘उसके टैलेंट, उसकी खूबियाँ, उसकी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए कोई जगह नहीं।'
कार्य के वे क्षेत्र जो अधिक समय की माँग करते हैं पारिवारिक स्त्री के लिए आज भी वर्जित हैं। अपनी कार्य दक्षता को विकसित करने के लिए उसके पास व़क्त नहीं है। कार्य व्यवसाय उसके व्यक्तित्व का निर्णायक तत्व नहीं बन पाता है, इसलिए कम समय की माँग वाले कार्यक्षेत्रों में ही स्त्रियाँ अधिक जाती हैं। उनमें भी शीर्ष स्थानों पर नज़र घुमाई जाये तो या तो वहाँ से स्त्रियाँ नदारद हैं या फिर हैं भी तो है अकेली स्त्री... अविवाहिता, विधवा, तलाकशुदा... महादेवी वर्मा, महाश्वेता देवी, लता मंगेशकर, इंदिरा गांधी, मेधा पाटकर, फातिमा बीवी, सीता वैद्यलिंगम, रानी जेठमलानी। महाश्वेता देवी, लता मंगेशकर, मेधा पाटकर, सीता वैद्यलिंगम, फातिमा बीवी, क्रॉनिक बेचलर, महादेवी, रानी जेठमलानी विवाह संस्था से बाहर आई एवं इंदिरा, सोनिया, मेनका गांधी विधवा होकर ही अपनी जगह बना पाई हैं। शीर्ष पर पहुँचने के लिए अकेली स्त्री होना अनिवार्य नियति है। इस स्त्री ने बौि(क विशेषज्ञता और अधिक मुनाफे� वाले व्यवसायों में, जो षड्यंत्र पूर्वक उसके लिए वर्जित क्षेत्र थे, न केवल अपनी उपस्थिति दर्ज की बल्कि सार्थक मुकाम भी बनाए है। यह और बात है अपनी कर्मठ बौि(कता से वह पुरुष के मन में अनाकर्षण और भय पैदा करती है और अपनी अधिक सफलता से पति के मन में हीनताबोध। इसके विपरीत यदि वह अपने पुरुष का ईगो बचाए रखना चाहती है तो वह अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को सीमित या दमित करे, जीविकोपार्जन को ही उपलब्धि मानकर संतुष्ट हो जाए।यदि वह सम्माननीय कॅरियर से महान उपलब्धि पाना चाहती है तो उसे नए विकल्प तलाशने ही होंगें। स्त्री को अब समझ में आ गया है कि पारिवारिक दायित्व और कॅरियर में महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति एक साथ सम्भव नहीं है। वह सामाजिक उत्तरदायित्व के चलते परिवार से बाहर आई है, ससुराल की प्रताड़ना भी उसके बाहर आने का कारण बनी है और इन सबसे भिन्न अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए परिवार के बाहर चुनौती स्वीकार की है। वह या तो विवाह संस्था में आना ही नहीं चाहती और अगर आ गई है तो कॅरियर को खतरे में डालकर परिवार में रुकना नहीं चाहती। ‘अपना पैसा' और ‘अपनी छत' की ताकत ने उसे हिम्मत दी है, वह स्वयं परिवार के बाहर जाने के बजाय पुरुष की ज्यादतियों पर पुरवा की तरह पति को ‘गेट आउट' कहने की क्षमता विकसित कर सकी है। विवाह संस्था से बाहर जाती स्त्री हाथ से जाती स्त्री है। ‘ऐसा कोई विचार नहीं बन रहा है जो औरतों को आजादी भी दे और परिवार को भी टूटने से बचाये, दरअसल वह बन भी नहीं सकता क्योंकि चौका और घर औरत का सबसे बड़ा वध स्थल रहा है। फिर भी परिवार बचाने के नाम पर चौका और घर के वध स्थलेां तक स्त्री बार-बार लौटाई जाती है। बावजूद इसके स्त्री ने अर्थ जगत में अपने पैर जमाए है अपनी संज्ञा बदली है अर्थ बदले है, लिंग आधारित अन्याय का षड्यंत्र उसे समझ में आता है। मातृत्व का गरिमामण्डन और अर्थ की शक्ति का असंतुलन उसे चेताता है। वह माँ बनना स्थगित कर कॅरियर चुनती है। अपनी पहचान के लिए सम्पत्ति के महत्त्व को पहचानती है, इसीलिए तो ‘छिन्नमस्ता' की ‘प्रिया' उच्च व्यवसायी कुल की ‘कुलवधू' का ख़िताब वापस करने की हिम्मत जुटाती है, अपना व्यवसाय देश-विदेश में प्रतिष्ठित कर अकेली स्त्री की कामनाओं के क्षितिज का संकेत देती है। उसे पुरुष की तरह पैसा चाहिए, नाम चाहिए, अपना वक्त चाहिए। सच कहें तो उसे अपना आत्म चाहिए। उसे मालूम है कि ‘सहती हुई स्त्री से बेहतर है वह स्त्री जो अपने पैरों पर खड़ी है और असहनशील है। वह छोटे से कस्बे में रहकर भी विश्व सुंदरी बनने के सपने पालती है जो उसे ग्लैमर की दुनिया तक ले जाते है। इन्ही सपनों के साथ 54, सुलतानगंज की ‘सिलबिल' सीढ़ी दर सीढ़ी कदम जमाते हुए चित्र नगरी की वर्षा वशिष्ठ बन जाती है। अभिनय का चाँद पाने के लिए उसने संघर्ष के रास्ते पर अकेले कदम बढ़ाए है। परिवार में रहकर न उसे पहचान मिल रही थी न पैसा। ग्लैमर की दुनिया की दृश्यमानता ने जहाँ स्त्री की शक्ल को नाम दिया है वहीं अर्थ और आत्मविश्वास भी सौंपा है। इस जगत में पूँजी में बराबर की हिस्सेदारी स्त्री ने अपनी उपस्थिति से ‘एक ज़मीन अपनी' यहाँ भी तलाशी है। यदि ‘नीता' बनकर वह पर्दे के आगे अपने लिए पैसा और प्रतिष्ठा जुटाती है तो पर्दे के पीछे की स्पेस का पता ‘अंकिता' बन कर देती है। अपनी रचनात्मक क्षमता से पहचान अर्जित करती है। यह सच है कि अर्थ जगत में बौि(क क्षमता से अपने लिए जगह बनाने के उसके प्रयत्नों का सत्ता पुरुषों ने जोर-शोर से पटकनी दी है आदिम हथियार देह के इस्तेमाल से।
स्त्री को देह मानकर उसके शोषण का इतिहास नया नहीं है। गौरतलब यह है कि स्त्री को देह मान कर भी उसकी देह स्त्री को सौंपी नहीं गई है। सुरक्षा और संरक्षण के नाम पर स्त्री देह पिता और पति के पास गिरवी रही है। विवाह पूर्व कौमार्य का मिथक पिता को और विवाह के बाद यौन शुचिता का आतंक पति को स्त्री देह का स्वामित्व सौंपता है। विवाह संस्था में रोककर रखने के लिए शुचिता का आतंक अकेली स्त्री को असम्भव स्थिति बना देता है। इस आतंक से बाहर आकर स्त्री ने जब जब कुछ और चाहा है उसकी कीमत देखकर वह अपने क�दम लौटाती रही है। देह राग में डूबी ‘कृष्णा सोबती' की ‘मित्रो मरजानी' की ‘मित्रो' अपने देह की आकांक्षा पूरी करना चाहती है तो परिवार में खलबली मच जाती है। मित्रो रुकती नहीं यदि उम्र के उत्तरार्ध में खड़ी उसकी माँ का वर्तमान भयावह भविष्य की शक्ल में खड़ा न हो गया होता। ‘अब इस ठठरी ठण्डी भट्टी का कोई वली-वारिस नहीं, कोई मरे मनुक्ख का नाम भी नहीं।' देह कामना की कीमत में उसे ‘मसान सा सूना भाँय-भाँय करता घर भूतों के डेरे सा दिखता है।' यौवन की उम्र लम्बी नहीं, जब देह का आकर्षण नहीं रहेगा तब? देह के बूते पर टिका आत्मविश्वास देह के तिलस्म के टूटते ही तिरोहित हो जाएगा। पति की कीमत पर अपने उद्दाम आवेग को शांत करने का प्रस्ताव मित्रो स्थगित कर देती है। सत्येन कुमार के ‘नदी को याद नहीं' की पायल रानी मुक्त दैहिक सम्बंधों तक जाती तो है पर पारिवारिक सुरक्षा के कवच नहीं तोड़ पाती। ‘घर की औरत को तो बहुत कुछ मिल जाता है फिर भी... औलाद, पहिले दिन से आखरी दिन तक का जोड़ा... और यह आसरा कि हारी बीमारी की हालत में उसे किसी बूढ़े वफ�ादार कुत्ते की तरह गोली नहीं मार दी जायेगी और क्या चाहिए तुझे। क्या एक बार विवाह संस्था में आने के बाद तलाक या विधवा हुए बिना उसे किसी पुरुष से सम्बंध के अधिकार नहीं? क्या पति और बच्चों के पार कोई ज़िन्दगी नहीं? क्या विवाह कर स्त्री अपना सम्पूर्ण भविष्य सौंप दे अपने पति को? विवाह संस्था के बाहर ज़िन्दगी जीने की इच्छा, देह भोग की इच्छा एक बार के सुख के बदले, उम्र भर की सजा देता रहा है। विकल्प के तौर पर स्त्री को मिलता है कोठा या आत्महत्या का प्रयास। देह का सुख सिर्फ आतंक देता है स्त्री को। आतंकित स्त्री के देह के दमन के इतिहास को बदलने में मदद की जॉन-रॉक ने। “जॉन-रॉक” की निर्मित का उद्देश्य भले ही अनियंत्रित होती जनसंख्या का विकल्प था, परन्तु उसने आश्चर्यजनक रूप से स्त्री की आज़ादी में मदद की। यह आज़ादी गर्भ से आज़ादी थी यह आज़ादी दी ‘पिल' ने, जिसने सत्ता के सभी संस्थानों पर अपनी विजय हासिल की। ‘जॉन-रॉक बीट्स द पोप', स्त्री को पता चला कि उसके भी चुनाव स्वतंत्रताएँ हो सकती हैं। उसने पुरुष की दैहिक जरूरतों के बीच अपनी भूमिका को टटोला। परिवार और बच्चों के अलावा भी उसकी कामनाएँ है, उसे महसूस हुआ। सेक्स को गंदी चीज होने से मुक्ति मिली। गर्भ से मुक्ति की सम्भावनाएँ खुली और अपराध बोध से मुक्ति भी। स्त्री को ‘पतिता' भाव से बाहर निकलने में मदद मिली। घर से बाहर निकलना सम्भव हुआ। अकेली स्त्री सम्भव हुई। अब ‘चार कन्या' का ख़्वाब-अकेले दुनिया घूमने का ख़्वाब इतना डरावना नहीं रह गया। शुभ्रा अपरिचय की दुनिया से बेनामी के साथ अपने लिये ‘फर्स्ट हैण्ड' अनुभव समेटने में समर्थ हो सकी है। घर से बाहर निकली इस स्त्री के पास सेक्स के अपराध बोध से मुक्ति, अपमान बोध से मुक्ति है। प्रेमी के लिए पति को छोड़कर आती मुक्त स्त्री से आगे अकेली स्त्री ने सेक्स को सहज और अनायास हो जाने वाले अनुभव के रूप में भी भोगा है। गर्भवती होने पर ज़िम्मेदार पुरुष के विवाह के विकल्प को अस्वीकार करने का निर्णय लिया है। वह दैहिक सम्बंध को विवाह की अनिवार्य नियति तक नहीं ले जाना चाहती। स्त्री में यह विवेक भी जागा है कि वह अपना देह के स्वामित्व बोध के साथ ही पुरुष को भी देह के रूप में देख सके। यह और बात है कि ‘मालविका' की तरह जब उसने अपनी कामनाओं की पूर्ति पुरुष देह से करनी चाही तो पुरुष आदर्शाे का मुखौटा लगाकर भाग खड़ा हुआ है। पुरुष के मन में विषय बनने की बौखलाहट और हलचल ने स्त्री के बारे में फिर से सोचने पर विवश किया है। दरअसल पुरुष का डर स्त्री के देह के प्रति सचेत होने की अपेक्षा उसके विचारवान होने से अधिक है, यह खतरे के संकेत देता है। स्त्री अपनी देह के बारे में माँग करे या इंकार, दोनों ही स्थितियों में स्त्री हाथ से फिसलती हुई दिखलाई देती है। स्त्री को क्रूज़र सोनाटा के इस सत्य का आभास हो गया है कि पत्नी की स्थिति शुल्क लेकर देह देने वाली स्त्री से भिन्न नहीं है। वह संभोग को ऐसी घृणित क्रिया नहीं बनाना चाहती जिसमें सेक्स सेवा के बदले उसे कुछ सुविधाएँ मिले। इसलिए वह अपने उपयोग किए जाने से बाहर आना चाहती है। वह प्रेम के नाम पर देह देने को ‘स्मिता' की तरह बेवकूफ�ी समझने लगी है। ‘सीमा' की तरह देह के आधार पर होने वाले अपने उपयोग और छले जाने को समझती हैं । देह से बाहर आकर अपने लिए जगह बनाना चाहती है ;नर नारी-कृष्ण बलदेव वैदद्ध पति से बलात्कार और प्रेमी द्वारा रोज की रोटी की तरह उबाऊ रुटीन इस्तेमाल उसे विवाह और प्रेम दोनों के अस्वीकार का विवेक देता है। पति के नपुंसक होने पर बाँझ होने का बोझ ढोने के बजाय वह ‘रसीला' बन कर अपने लिए अलग छत तलाशती है। उसने कोख के नाम पर, यदि धोखा खा भी लिया है तो अब वह दोबारा छली जाने को तैयार नहीं। वह विवाह का विकल्प अस्वीकार करती है और ‘जागोरी' के माध्यम से समाज सेवा का विकल्प चुनती है। स्त्री ने इन्कार करना भी सीखा हैं। वह इन्कार स्त्री का अधिकार है, स्वतंत्रता है, स्त्री ने जाना है। पुरुष स्त्री के इन्कार से चिंतित है। स्त्री के धड़ पर उगा हुआ सिर बहुत सारे सवाल उठाता है। स्त्री ने बच्चों के बारे में निर्णय करना भी सीखा है। गर्भ निरोधकों के प्रयोग एवं गर्भपात के अधिकार से उसने मातृत्व पर अपने अधिकार को सुरक्षित रखा है। घर से बाहर निकलते हुए बच्चे को छोड़कर जाने के अपराधबोध से मुक्ति पाई है। इस मामले में वह पति की ज़िम्मेदारी भी सुनिश्चित करने लगी है। इस सबसे अलग हटकर स्त्री ने ‘अपने बच्चे के बारे में भी सोचा है। बच्चे के साथ अकेली रहती स्त्री पिता के घर नहीं लौटती। विवाह संस्था के बाहर ‘नीना गुप्ता' और ‘सारिका' ने ‘अपने बच्चों' को जन्म दिया है। सुष्मिता सेन ने अविवाहित रहते हुए बच्चे गोद लिए है तो कृत्रिम गर्भाधान का माध्यम भी चुना है। उसने जान लिया हैं कि स्त्री का अपना बच्चा परिवार व्यवस्था और विवाह संस्था के बाहर ही सम्भव है, भीतर नहीं। परिवार पति का इसलिए बच्चा भी पति का होगा। स्त्री परिवार के व्यामोह से बाहर आई है। स्त्री के इस संघर्ष को सुप्रीम कोर्ट ने समझा है। अविवाहित कामकाजी स्त्री को जहाँ प्रसव अवकाश की अनुमति दी गई है, वहीं अकेली स्त्री के बच्चों को माँ के नाम से पहचाने जाने की स्वीकृति भी।
अकेली स्त्री द्वारा तलाशे गये विकल्प स्त्री के पक्ष में ही गए हों ऐसा नहीं हो पाया है। जिस गति से स्त्री बदली है उस गति से न तो पुरुष बदला है और न व्यवस्था। स्त्री ने तो आगे आने की, बाहर आने की हिम्मत दिखाई है परन्तु न बदली हुई व्यवस्था और पुरुष सत्ता से उसका संघर्ष अभी लम्बा है। स्त्री के देह के स्वामित्व और देह की छवि से पैसा कमाने की आकांक्षा को बाजार ने अपने हित में भुनाया है। स्त्री की इस स्वतंत्रता को सेक्स उद्योग ने हाथों हाथ लपक लिया है और स्त्री फिर खेल बन गई है। पुरुष ने अपने पौरुषेय बदलों के लिए उसकी देह का ‘विष कन्या' की तरह इस्तेमाल किया है और ‘हमजाद' जैसी रचनाओं का जन्म हुआ है जहाँ पुरुष स्त्री देह का भरपूर उपयोग अपने हित साधने के लिए करता है। स्त्री देह का शोषण बना रहता है। विवाह संस्था से बाहर के देह सम्बंध पुरुष को अब भी ‘बहती गंगा में हाथ धोने' का आमंत्रण देते है और स्त्री मुक्ति का अर्थ यौन दासता में पर्यवसित होने लगता है। स्त्री के गर्भ पर अपने अधिकार को पतियों ने ‘मानसिक क्रूरता' से नवाजा है। जहाँ स्त्री ने विवाह संस्थाओं की क्रूरताओं दहेज हत्याओं के बदले अकेले रहने का निर्णय लिया है, सहजीवन में विकल्प तलाशा है वहाँ भी पुरुष वर्चस्व हावी रहा है। अकेला रहना ‘स्वाँग' ही साबित हुआ है। पति की तरह स्वामित्व चाहता साथी अपनी सहयोगी को, पत्नी की तरह जलाने की हिम्मत रखता है। पुरुष मानसिकता और परम्परागत ढाँचे के न बदलने के कारण स्त्री के निर्णय का कार्यान्वयन मुश्किल हुआ है। कई बार अकेली संघर्ष करती स्त्री अपने पारम्परिक संस्कारों के कारण अवचेतन में पुरुष की छाया से मुक्त नहीं हो पायी है। मंदा, अनारो, सुन्नर पाण्डे की पतोह वे स्त्रियाँ हैं जिन्होंने इस व्यवस्था के बीच अपने लिये अकेले जगह बनाई है, परन्तु सभी पुरुष की प्रतीक्षा में जीती स्त्रियाँ हैं। जैसे उन्हें अपनी संघर्ष क्षमता, अपनी हिम्मत पर भरोसा ही न हो। स्त्री को इस छाया से बाहर आना है, जहाँ स्त्री इस छाया से उबरी है वहाँ भी व्यवस्था में बदलाव न होने के कारण उसे मुश्किलें उठानी पड़ी है। स्त्री आज भी पिता, पुत्र, पति के नाम से जानी जाती है। अपने नाम से जानी जाती स्त्री जब अपने स्तर पर अपने सम्पर्क स्थापित करना चाहती है, कॉन्टैक्ट्स बनाना चाहती है तो उसके मकसद पर शक किया जाता है या फिर उपयोग किया जाता है। समाज की हाय-तौबा अभी थमी नहीं है। वह उसे या तो देह तक सीमित करना चाहता है या जबरन विवाह संस्था में लौटाना चाहता है। ‘वर्षा-वशिष्ठ' को उसने वंश परम्परा का ठेका दिया है। ‘अनारो' के जीवन को बड़े भाई का सर्टिफिकेट यह जानते हुए भी कि विवाह ‘शुभ्रा' के व्यक्तित्व, अस्मिता का अन्त कर देगा, उसे देह के खतरे दिखा दिखा कर विवाह करने पर विवश किया है। मित्रो को बुढ़ापे का डर दिखाया है। बाँझ माँजी को नपुंसक पति के पास रहने को विवश किया है। आनंद को देह समझे जाने के भय से आक्रान्त हो कर देने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा है। अनु को अन्ततः विवाह का विकल्प सौंपा है। बावजूद सारी सीमाओं और नकार के स्त्री के पक्ष में जो संदेश जाता है वह है कि स्त्री अब अपने प्रति होने वाले अन्याय को समझती है। उससे बाहर आने को न सिर्फ छटपटाती है, सारे दमन चक्र के बावजूद बाहर आयी भी है। स्त्री ने समझा है कि जो शोषण उसे बाहर झेलना है वह घर में भी है। घर में शोषण झेलते हुए उसे कोई ज़मीन नहीं मिलती तब घर में मरने से बेहतर तो बाहर मुकाबला करना है। उसे उम्मीद है कि वह एक दिन इस बाजार की संरचना से मुक्त हो जायेगी। देह के शोषण के खिलाफ� उसने समलिंगी विमर्श तलाशे हैं, एड्स के खतरे को धता बताया है। पुरुष को अपनी दुनिया से बाहर रखने के विकल्प भी अपने पास सुरक्षित रखे हैं। सेक्स के लिये मुक्ति के बाद अब वह सेक्स से मुक्ति की बात भी करने लगी है। ‘असीमा' जैसे चरित्र इसी दृष्टि की परिणति है। संक्रमण की स्थिति ही सही, समझौते जिन्दगी को नष्ट कर देते है, इसलिए वह इन्कार कर सकी है। सक्षम होने पर पति को घर से बाहर निकालने की हिम्मत जुटा पाई है। बावजूद सारी छेड़छाड़, यौन उत्पीड़न, और यौन शोषण का बाज़ार में अपने उपयोग के, पैर जमाने लायक ज़मीन उसने जुटा ही ली है। बाहर निकले हुए उसके क�दम वापिस परिवार में लौटने के लिए नहीं है। परिवार यदि गुंजाइश देता है तो ठीक है, पति बदलता है तो कुछ सम्भावना है अन्यथा अब वह अपने बारे में सोचना चाहती है। ‘स्टेला' की तरह उसने परिवार की ‘एक छत' और ‘एक पैसा' की परिभाषा को बदला है। पति के पीछे-पीछे वह बार-बार अपनी जड़ें उखाड़ने को तैयार नहीं। अकेले रहने का निर्णय यदि मजबूरी में भी उसके हिस्से में आया है तो वह हारना नहीं चाहती, डटकर मुकाबला करती है। वह बलात्कार करने वाले को खुद सजा देती है किसी उद्धारक की प्रतीक्षा नहीं करती। मौके पर यदि उसने अपने लिए देह से रास्ते बनाए है तो यह भी जाना है कि बिछौने के ‘सुख' और उसकी ‘ताकत' के अलावा भी शक्ति के स्रोत हैं, जहाँ से अपने लिये जगह बनाई जा सकती है। ये क्षेत्र निश्चय ही अधिक जटिल और अधिक संघर्ष वाले है। हक की लड़ाई यूँ मुफ़्त में तो नहीं जीती जा सकती। ‘अपना हक� अपने पसीने से ही मिलता है, पसीना चाहे श्रम का हो या संघर्ष का, प्रतिवाद का हो या आक्रोश का, जो अपने से लड़ सकता है वही व्यवस्था से लड़ सकता है। व्यवस्था से इस लड़ाई ने पारम्परिक ढाँचे में लगातार टूट-फूट की है। आर्थिक स्वावलम्बन और गर्भ निरोधकों ने अपनी भूमिका अदा की है। स्त्री को परिवार में बाँध कर रखना अब मुश्किल हो गया है। मर्दो के विधान से बाहर जाती इन स्त्रियों पर आरोप लगना लाज़मी है कि महानगरों की चुनिन्दा स्त्रियों को मिली यह आजादी हमारी आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व नही करती। अधिकांश स्त्रियों को इस आजादी का पता ही नहीं, देश की अधिकांश स्त्रियाँ घरेलू गुलाम है तो सत्ता पुरुषों को इन थोड़ी सी स्त्रियों की आजादी से भला क्या नुकसान हो सकता है। महत्त्वपूर्ण यह है कि नगण्य ही सही, स्त्रियों ने अपने लिये साँस लेने की जगह तो बनाई है, ये थोड़ी सी स्त्रियाँ पितृसत्ता से बाहर जाती स्त्रियाँ, कोसती हुई स्त्रियाँ, इन्कार करती स्त्रियाँ, निश्चित ही नींव का पत्थर साबित होंगी। व्यक्तिगत विद्रोह की अभिव्यक्ति सामाजिक विद्रोह का पर्याय भले ही न बने, सम्भावना अवश्य बनाती हैं। ‘विद्रोह की उनकी आवाज़ एक ईमानदार और सशक्त अभिव्यक्ति की द्योतक है।' ये अपवाद हो सकती है परन्तु क्रमागत व्यवस्था के विरु( किसी नवीन परिवर्तन को ले आने का श्रेय ऐसे अपवादों को ही मिलता है क्योंकि ऐसे व्यक्तियों के बिना हम किसी असम्भव को सम्भव नहीं समझ पाते।
आज के जनतांत्रिक सेटअप में जब व्यक्ति के अधिकार और स्वतंत्रताएँ बढ़ीं हैं, गहरी हुई हैं, स्त्री ने अपनी पिता और पति से भिन्न अपनी पहचान बनाने की कोशिश की है। पिछले बरसों में जब लगातार पहचान का संकट बढ़ा है, आज जब राष्ट्र, वर्ग, सम्प्रदाय, जाति के लिए ‘आइडेन्टिटी' के सवाल गहराए है, तब व्यक्ति की अस्मिता की पहचान के सवाल भी महत्त्वपूर्ण और मजबूत हो गये है। स्त्री प्रश्न इस धरातल पर विश्लेषण की माँग करते है। ‘अंधेरे कमरे में किवाड़ों की किसी सेंध से दाखिल होती हुई उजाले की क्षीण शहतीर इंगित दे रही होती है कि कपाट खोलने की जरूरत है... बाहर उजाला है प्रतीक्षा में।”
संदर्भ
1. सिमाँन द बुआ, सेकेण्ड सेक्स का हिन्दी रूपांतर स्त्री उपेक्षिता, पृ.-326
2. शादी से पेश्तर, शालिनी व्होरा
3. कोपल कथा, अरुण प्रकाश, बिहार में प्रचलित पकड़ौआ शादी पर आधारित उपन्यास
4. लिफ�ाफा, चित्रा मुदगल
5. अच्छी लड़की, अरुण प्रकाश
6. पचपन खम्बे लाल दीवारें, उषा प्रियंवदा की नायिका सुषमा
7. अच्छी लड़की, अरुण प्रकाश
8. स्त्री मुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र, मार्गरेट बेंसटेन, ‘दायित्व बोध' जुलाई-सितम्बर 2000, पृ.-41
9. वही,
10. स्त्रियाँ, सबसे लम्बी क्राँति, जूलियट मिशेल, न्यू लेफ्ट रिव्यू दिसम्बर 1966, दायित्बबोध जुलाई-सितम्बर 2000 पृ.-44 पर उ(ृत
11. ऐ लड़की, कृष्णा सोबती, पृ.-63
12. वही, पृ.-64
13. वाणभट्ट की आत्मकथा, आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ.-155
14. आपका बंटी, मन्नू भण्डारी एवं यामिनी कथा, सूर्य बाला
15. सिमाँन द बुआ, वही, पृ.-32
16. स्त्री मुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र, मार्गरेट बेंसटन, दायित्वबोध जुलाई-सितम्बर 2000 से उ(ृत
17. परछाई अन्नपूर्णा, क्षमा शर्मा
18. सिमॉन द बुआ, पूर्वानुसार पृ.-325
19. वही, पृ.-326
20. नदी को याद नहीं, सत्येन कुमार पृ.-78
21. वही, पृ.-255
22. स्त्री देह के विमर्श, सुधीश पचौरी, पृ.-84
23. छिन्न मस्ता, प्रभा खेतान
24. स्त्री देह विमर्श सुधीश पचौरी पृ.-26
25. मुझे चाँद चाहिए, सुरेन्द्र वर्मा
26. एक ज़मीन अपनी, चित्रा मुद्गल
27. मित्रो मरजानी, कृष्णा सोबती पृ.-93
28. वही पृ.-94
29. नदी को याद नहीं, सत्येन कुमार पृ.-279
30. चार कन्या, तस्लीमा नसरीन
31. शुभ्रा, भगवान सिंह
32. आस पास से गुज़रते हुए, जयंती
33. तुम्हारा सुख, राजकिशोर
34. क्रूजर सोनाटा, लेव ताल्सतॉय
35. सिमॉन द बुआ पूर्वानुसार पृ.-342
36. आवाँ, चित्रा मुद्गल
37. नर नारी, कृष्ण बलदेव वैद
38. आवाँ चित्रा मुदगल
39. छिन्न मस्ता, प्रभा खेतान एवं रेत की मछली, कांता भारती
40. हमजाद, मनोहर श्याम जोशी
41. देखें- अरविंद जैन का आलेख, कोख, कानून और क्रूरता, न्याय क्षेत्रेः अन्याय क्षेत्रे
42. स्वाँग, उर्मिला शिरीष
43. इदन्नमम्, मैत्रेयी पुष्पा
44. अनारो, मंजुल भगत
45. सुन्नर पाण्डे की पतोह, अमरकान्त
46. मुझे चाँद चाहिए, सुरेन्द्र वर्मा
47. अनारो, मंजुल भगत
48. शुभ्रा, भगवान सिंह
49. मित्रो मरजानी, कृष्ण सोबती
50. नर-नारी, कृष्ण बलदेव वैद
51. तुम्हारा सुख, राजकिशोर
52. आसपास से गुज़रते हुए, जयन्ती
53. स्त्री देह के विमर्श, सुधीश पचौरी, पृ.-136
54. कठगुलाब, मृदुला गर्ग
55. दौड़, ममता कालिया
56. सुन्नर पाण्डे की पतोह, अमरकांत
57. आवाँ, चित्रा मुद्गल, पृ.-541
58. औरत, अस्तित्व और, अस्मिता अरविन्द जैन पृ.-156
59. औरत, अस्तित्व और, अस्मिता अरविन्द जैन पृ.-156
60. सिमॉन द बुआ, पूर्वानुसार, पृ.-328
61 श्रृंखला की कड़ियाँ, महादेवी वर्मा पृ.-51
62. आवाँ, चित्रा मुद्गल, पृ.-542
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(शब्द संगत / रचना समय से साभार)
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