भीष्‍म साहनी की कहानी : गंगो का जाया

SHARE:

भीष्‍म साहनी गंगो का जाया गंगो की जब नौकरी छूटी तो बरसात का पहला छींटा पड़ रहा था। पिछले तीन दिन से गहरे नीले बादलों के पुन्‍ज आकाश में करव...

image

भीष्‍म साहनी

गंगो का जाया

गंगो की जब नौकरी छूटी तो बरसात का पहला छींटा पड़ रहा था। पिछले तीन दिन से गहरे नीले बादलों के पुन्‍ज आकाश में करवटें ले रहे थे, जिनकी छाया में गरमी से अलसायी हुई पृथ्‍वी अपने पहले ठण्‍डे उच्‍छ्‌वास छोड़ रही थी, और शहर-भर के बच्‍चे-बूढ़े बरसात की पहली बारिश का नंगे बदन स्‍वागत करने के लिए उतावले हो रहे थे। यह दिन नौकरी से निकाले जाने का न था। मजदूरी की नौकरी थी बेशक, पर बनी रहती, तो इसकी स्‍थिरता में गंगो भी बरसात के छींटे का शीतल स्‍पर्श ले लेती। पर हर शगुन के अपने चिन्‍ह होते हैं। गंगो ने बादलों की पहली गर्जन में ही जैसे अपने भाग्‍य की आवाज़ सुन ली थी।

नौकरी छूटने में देर नहीं लगी। गंगो जिस इमारत पर काम करती थी, उसकी निचली मंजिल तैयार हो चुकी थी, अब दूसरी मंजिल पर काम चल रहा था। नीचे मैदान में से गारे की टोकरियाँ उठा-उठाकर छत पर ले जाना गंगो का काम था।

मगर आज सुबह जब गंगो टोकरी उठाने के लिए ज़मीन की ओर झुकी, तो उसके हाथ ज़मीन तक न पहुँच पाये। ज़मीन पर, पाँव के पास पड़ी हुई टोकरी को छूना एक गहरे कुएँ के पानी को छूने के समान होने लगा। इतने में किसी ने गंगो को पुकारा, “मेरी मान जाओ गंगो, अब टोकरी तुमसे न उठेगी। तुम छत पर इर्ंट पकड़ने के लिए आ जाओ।”

छत पर, लाल ओढ़नी पहने और चार इर्ंटें उठाये, दूलो मजदूरन खड़ी उसे बुला रही थी।

गंगो ने न माना और फिर एक बार टोकरी उठाने का साहस किया, मगर होंठ काटकर रह गयी। टोकरी तक उसका हाथ न पहुँच पाया।

गंगो के बच्‍चा होने वाला था, कुछ ही दिन बाकी रह गये थे। छत पर बैठकर इर्ंट पकड़नेवाला काम आसान था। एक मज़दूर, नीचे मैदान में खड़ा, एक-एक इर्ंट उठाकर छत की ओर फेंकता, और ऊपर बैठी हुई मज़दूरन उसे झपटकर पकड़ लेती। मगर गंगो का इस काम से ख़ून सूखता था। कहीं झपटने में हाथ चूक जाये, और उड़ती हुई इर्ंट पेट पर आ लगे तो क्‍या होगा?

ठेकेदार हर मज़दूर के भाग्‍य का देवता होता है। जो उसकी दया बनी रहे तो मज़दूर के सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं, पर जो देवता के तेवर बदल जायें तो अनहोनी भी होके रहती है। गंगो खड़ी सोच ही रही थी कि कहीं से, मकान की परिक्रमा लेता हुआ ठेकेदार सामने आ पहुँचा। छोटा-सा, पतला शरीर, काली टोपी, घनी-घनेरी मूँछों में से बीड़ी का धुआँ छोड़ता हुआ, गंगो को देखते ही चिल्‍ला उठा-

“खड़ी देख क्‍या रही है? उठाती क्‍यों नहींऋ जो पेट निकला हुआ था, तो आयी क्‍यों थी?”

गंगो धीरे-धीरे चलती हुई ठेकेदार के सामने आ खड़ी हुई। ठेकेदार का डर होते हुए भी गंगो के होंठों पर से वह हल्‍की-सी स्‍निग्‍ध मुस्‍कान ओझल न हो पायी, जो महीने-भर से उसके चेहरे पर खेल रही थी, जब से बच्‍चे ने गर्भ में ही अपने कौतुक शुरू कर दिये थे और गंगो की आँखें जैसे अन्‍तर्मुखी हो गयी थीं। ठेकेदार झगड़ता तो भी शान्‍त रहती, और जो उसका घरवाला बात-बात पर तिनक उठता, तो भी चुपचाप सुनती रहती।

“काम क्‍यों नहीं करूँगी? छत पर इर्ंटें पकड़ने का काम दे दो, वह कर लूँगी।” गंगो ने निश्‍चय करते हुए कहा।

“तेरे बाप का मकान बन रहा है, जो जी चाहा करेगी? चल, दूर हो यहाँ से। आधे दिन के पैसे ले और दफ़ा हो जा। हरामख़ोर आ जाते हैं...”

“तुम्‍हें क्‍या फ़रक पड़ेगा, दूलो मेरा काम कर लेगी, मैं उसकी जगह चली जाऊँगी, काम तो होता रहेगा।”

“पहले पेट खाली करके आओ, फिर काम मिलेगा।”

क्षण-भर में ठेकेदार का रजिस्‍टर खुल गया और गंगो के नाम पर लकीर फिर गयी।

ऐन उसी वक़्‍त बारिश का छींटा भी पड़ने लगा था। गंगो ने समझ लिया कि जो आसमान में बादल न होते तो काम पर से भी छुट्‌टी न मिलती। आकाश में बादल आये नहीं कि ठेकेदार को काम ख़त्‍म करने की चिन्‍ता हुई नहीं। इस हालत में गर्भवाली मज़दूरन को कौन काम पर रखेगा। गंगो चुपचाप, ओढ़नी के पल्‍ले से अपने गर्भ को ढँकती हुई बाहर निकल आयी।

उन दिनों दिल्‍ली फिर से जैसे बसने लगी थी। कोई दिशा या उपदिशा ऐसी न थी, जहाँ नयी आबादियों के झुरमुट न उठ रहे हों। नये मकानों की लम्‍बी कतारें, समुद्र की लहरों की तरह फैलती हुई, अपने प्रसार में दिल्‍ली के कितने ही खण्‍डहर और स्‍मृति-कंकाल रौंदती हुई, बढ़ रही थीं। देखते- ही-देखते एक नयी आबादी, गर्व से माथा ऊँचा किये, समय का उपहास करती हुई खड़ी हो जाती। लोग कहते, दिल्‍ली फिर से जवान हो रही है। नयी आबादियों की बाढ़ आ गयी थी। नया राष्‍ट्र, नये निर्माण-कार्य, लोगों को इस फैलती राजधानी पर गर्व होने लगा था।

जहाँ कहीं किसी नयी आबादी की योजना पनपने लगती, तो सैकड़ों मज़दूर खिंचे हुए, अपने फूस के छप्‍पर कन्‍धों पर उठाये, वहाँ जा पहुँचते, और उसी की बगल में अपनी झोंपड़ों की बस्‍ती खड़ी कर लेते। और जब वह नयी आबादी बनकर तैयार हो जाती, तो फिर मज़दूरों की टोलियाँ अपने फूस के छप्‍पर उठाये, किसी दूसरी आबादी की नींव रखने चल पड़तीं। मगर ज्‍योंही बरसात के बादल आकाश में मँडराने लगते, तो सब काम ठप्‍प हो जाता, और मज़दूर अपने झोंपड़ों में बैठे, आकाश को देखते हुए, चौमासे के दिन काटने लगते। कई मज़दूर अपने गाँवों को चले जाते, पर अधिकतर छोटे-मोटे काम की तलाश में सड़कों पर घूमते रहते। काम इतना न था जितने मज़दूर आ पहुँचते थे। दिल्‍ली के हर खण्‍डहर की अपनी गाथा है, कहानी है, पर मज़दूर की फूस की झोंपड़ी का खण्‍डहर क्‍या होगा, और कहानी क्‍या होगी? हँसती-खेलती नयी अबादियों में इन झोंपड़ों का या इन नये झोंपड़ों में खेले गये नाटकों का, स्‍मृति-चिन्‍ह भी नहीं मिलता।

उस रात गंगो और उसका पति घीसू, देर तक झोंपड़े के बाहर बैठे अपनी स्‍थिति का सोचते रहे।

“जो छुट्‌टी मिल गयी थी तो घर क्‍यों चली आयी, कहीं दूसरी जगह काम देखती।”

“देखा है। इस हालत में कौन काम देगा? जहाँ जाओ, ठेकेदार पेट देखने लगते हैं।”

झोंपड़े के अन्‍दर उनका छः बरस का लड़का रीसा सोया पड़ा था। घीसू कई दिनों से चिन्‍तित था, तीन आदमी खानेवाले, और कमानेवाला अब केवल एक और ऊपर चौमासा और गंगो की हालत! उसका मन खीज उठा। अगर और पन्‍द्रह-बीस रोज मज़दूरी पर निकल जाते, तो क्‍या मुश्‍किल था? गर्भवाली औरतें बच्‍चा होनेवाले दिन तक काम पर जुटी रहती हैं। घीसू गठीले बदन का, नाटे कद का मज़दूर था, जो किसी बात पर तिनक उठता तो घण्‍टों उसका मन अपने काबू में न रहता। थोड़ी देर चिलम के कश लगाने के बाद धीरे-धीरे कहने लगा, “तुम गाँव चली जाओ।”

“गाँव में मेरा कौन है?”

“तू पहले से ही सब पाठ पढ़े हुए है, तू इस हालत में जायेगी, तो तुझे घर से निकाल देंगे?”

“मैं कहीं नहीं जाऊँगी। तुम्‍हारा भाई ज़मीन पर पाँव नहीं रखने देगा। दो दफे तो तुमसे लड़ने-मरने की नौबत आ चुकी है।”

“तो यहाँ क्‍या करेगी? मेरे काम का भी कोई ठिकाना नहीं। सुनते हैं सरकार जियादह मज़दूर लगाकर तीन दिन में बाकी सड़क तैयार कर देना चाहती है।”

“मरम्‍मती काम तो चलता रहेगा?” गंगो ने धीरे-से कहा।

“मरम्‍मती काम से तीन जीव खा सकते हैं? एक दिन काम है, चार दिन नहीं।”

काफ�ी रात गये तक यह उध्‍ोड़-बुन चलती रही।

सोमवार को गंगो काम पर से बरख़ास्‍त हुई, और सनीचर तक पहुँचते-पहुँचते झोंपड़ी की गिरस्‍ती डावाँडोल हो गयी। माँ, बाप और बेटा, तीन जीव खानेवाले, और कमानेवाला केवल एक। गंगो काम की तलाश में सुबह घर से निकल जाती, और दोपहर तक बस्‍ती के तीन-तीन चक्‍कर काट आती। किसी से काम का पूछती तो या तो वह हँसने लगता, या आसमान पर मँडराते बादल दिखा देता। सड़कों पर दर्जनों मज़दूर दोपहर तक घूमते हुए नज़र आने लगे। फिर एक दिन जब घीसू ने घर लौटकर सुना दिया कि सरकारी सड़क का काम समाप्‍त हो चुका है, तो घीसू और गंगो, मज़दूरों के स्‍तर से लुढ़ककर आवारा लोगों के स्‍तर पर आ पहुँचे। कभी चूल्‍हा जलता, कभी नहीं। भर-पेट खाना किसी को न मिल पाता। छोटा बालक रीसा, जो दिन-भर खेलते न थकता था, अब झोंपड़े के इर्दगिर्द ही मँडराता रहता। पति-पत्‍नी रोज़ रात को झोंपड़े के बाहर बैठते, झगड़ते, परामर्श करते और बात-बात पर खीज उठते।

फिर एक रात, हज़ार सोचने और भटकने के बाद घीसू के उद्विग्‍न मन ने घर का खर्चा कम करने की तरकीब सोची। अधभरे पेट की भूख को चिलम के धुएँ से शान्‍त करते हुए बोला, “रीसे को किसी काम पर लगा दें।”

“रीसा क्‍या करेगा, छोटा-सा तो है?”

“छोटा है? चंगे-भले आदमी का राशन खाता है। इस जैसे सब लड़के काम करते हैं।”

गंगो चुप रही। कमाऊ बेटा किसे अच्‍छा नहीं लगता? मगर रीसा अभी सड़क पर चलता भी था, तो बाप का हाथ पकड़कर। वह क्‍या काम करेगा? पर घीसू कहता गया, “इस जैसे लौंडे बूट-पॉलिश करते हैं, साइकिलों की दूकानों पर काम करते हैं, अख़बार बेचते हैं, क्‍या नहीं करते? कल इसे मैं गणेशी के सुपुर्द कर दूँगा, इसे बूट-पॉलिश करना सिखा देगा।”

गणेशी घीसू के गाँव का आदमी था। इस बस्‍ती से एक फर्लांग दूर, पुल के पास छोटी-सी कोठरी में रहता था। एक छोटा-सा सन्‍दूकचा कन्‍धे पर से लटकाये गलियों के चक्‍कर काटता और बूटों के तलवे लगाया करता था।

दूसरे दिन घीसू काम की खोज में झोंपड़े में से निकलते हुए गंगो से कह गया-

“मैं गणेशी को रास्‍ते में कहता जाऊँगा। तू सूरज चढ़ने तक रीसे को उसके पास भेज देना।”

रीसा काम पर निकला। छोटा-सा पतला शरीर, चकित, उत्‍सुक आँखें। बदन पर एक ही कुर्ता लटकाये हुए। गणेशी के घर तक पहुँचना कौन-सी आसान बात थी। रास्‍ते में प्रकृति रीसे के मन को लुभाने के लिए जगह-जगह अपना मायाजाल फैलाये बैठी थी। किसी जगह दो लौंडे झगड़ रहे थे, उनका निपटारा करना ज़रूरी था, रीसा घण्‍टा-भर उन्‍हीं के साथ घूमता रहाऋ कहीं एक भैंस कीचड़ में फँसी पड़ी थीऋ कहीं पर एक मदारी अपने खेल दिखा रहा था, रीसा दिन-भर घूम-फिरकर, दोपहर के वक़्‍त, हाथ में एक छड़ी घुमाता हुआ घर लौट आया।

कह देना आसान था कि रीसा काम करे, मगर रीसे को काम में लगाना नये बैल को हल में जोतने के बराबर था। पर उधर झोंपड़े में बची-बचायी रसद क्षीण होती जा रही थी। दूसरे दिन घीसू उसे स्‍वयं गणेशी के सुपुर्द कर आया, और पाँच-सात आने पैसे भी पॉलिश की डिब्‍बिया और ब्रुश के लिए दे आया।

उस दिन तो रीसा जैसे हवा में उड़ता रहा। दिल्‍ली की नयी-नयी गलियाँ घूमने को मिलीं, नये-नये लोग देखने को मिले। चप्‍पे-चप्‍पे पर आकर्षण था। रीसे की समझ में न आया कि बाप गुस्‍सा क्‍यों हो रहा था, जब उसे यहाँ घूमने के लिए भेजना चाहता था। दूकानें रंगबिरंगी चीज़ों से लदी हुइर्ं और भीड़ इतनी कि रीसे का लुब्‍ध मन भी चकरा गया।

रीसे की माँ सड़क पर आँखें गाड़े उसकी राह देख रही थी, जब रीसा अपने बोझल पाँव खींचता हुआ घर पहुँचा। अपने छः सालों के नन्‍हें-से जीवन में वह इतना कभी नहीं चल पाया था, जितना कि वह आज एक दिन में। मगर माँ को मिलते ही वह उसे दिन-भर की देखी-दिखायी सुनाने लगा। और जब बाप काम पर से लौटा तो रीसा अपना बु्रश और पॉलिश की डिब्‍बिया उठाकर भागता हुआ उसके पास जा पहुँचा, “बप्‍पू, तेरा जूता पॉलिश कर दूँ?”

सुनकर, घीसू के हर वक़्‍त तने हुए चेहरे पर भी हल्‍की-सी मुस्‍कान दौड़ गयी-

“मेरा नहीं, किसी बाबू का करना जो पैसे भी देगा।”

और गंगो और उसका पति, अपने कमाऊ बेटे की दिनचर्या सुनते हुए, कुछ देर के लिए अपनी चिन्‍ताएँ भूल गये।

दूसरा दिन आया। घीसू और रीसा अपने-अपने काम पर निकले। दो रोटियाँ, एक चिथड़े में लिपटी हुइर्ं, घीसू की बगल के नीचे, और एक रोटी रीसे की बगल के नीचे। दोनों सड़क पर इकट्ठे उतरे और फिर अपनी-अपनी दिशा में जाने के लिए अलग हो गये।

पर आज रीसा जब सड़क की तलाई पार करके पुल के पास पहुँचा तो गणेशी वहाँ पर नहीं था।

थोड़ी देर तक मुँह में उँगली दबाये वह पुल पर आते-जाते लोगों को देखता रहा, फिर गणेशी की तलाश में आगे निकल गया। शहर की गलियाँ, एक के बाद दूसरी, अपना जटिल इन्‍द्रजाल फैलाये, जैसे रीसे की इन्‍तज़ार में ही बैठी थीं। एक के बाद दूसरी गली में वह बढ़ने लगा, मगर किसी में भी उसे कल का परिचित रूप नज़र नहीं आया, न ही कहीं गणेशी की आवाज़ सुनायी दी। थोड़ी देर घूमने के बाद रीसा एक गली के मोड़ पर बैठ गया, अपनी पॉलिश की डिब्‍बियाँ और ब्रुश सामने रख लिये और अपने पहले ग्राहक का इन्‍तज़ार करने लगा। गणेशी की तरह उसने मुँह टेढ़ा करके ‘पॉलिश श श श...!' का शब्‍द पूरी चिल्‍लाहट के साथ पुकारा। पहले तो अपनी आवाज़ ही सुनकर स्‍तब्‍ध हो रहा, फिर निःसंकोच बार-बार पुकारने लगा। पाँच-सात मर्तबा ज़ोर-ज़ोर से चिल्‍लाने पर एक बाबू, जो सामने एक दूकान की भीड़ में सौदा खरीदने के इन्‍तज़ार में खड़ा था, रीसे के पास चला आया।

“पॉलिश करने का क्‍या लोगे?”

“जो खुसी हो दे देना।” रीसे ने गणेशी के वाक्‍य को दोहरा दिया। बाबू ने बूट उतार दिये, और दूकान की भीड़ में फिर जाकर खड़ा हो गया।

रीसे ने अपनी डिब्‍बिया खोली। गणेशी के वाक्‍य तो वह दोहरा सकता था, मगर उसकी तरह हाथ कैसे चलाता? बूट पर पॉलिश क्‍या लगी, जितनी उसकी टाँगों, हाथों और मुँह को लगा। एक जूते पर पॉलिश लगाने में रीसे की आधी डिब्‍बिया खर्च हो गयी। अभी बूट के तलवे पर पॉलिश लगाने की सोच ही रहा था कि बाबू सामने आन खड़ा हुआ। रीसे के हाथ अनजाने में ठिठक गये। बाबू ने बूटों की हालत देखी, आव देखा न ताव, ज़ोर से रीसे के मुँह पर थप्‍पड़ दे मारा, जिससे रीसे का मुँह घूम गया। उसकी समझ में न आया कि बात क्‍या हुई है। गणेशी को तो किसी बाबू ने थप्‍पड़ नहीं मारा था।

“हरामजादे, काले बूटों पर लाल पॉलिश!” और गुस्‍से में गालियाँ देने लगा।

पास खड़े लोगों ने यह अभिनय देखा, कुछ हँसे, कुछ-एक ने बाबू को समझाया, दो-एक ने रीसे को गालियाँ दीं, और उसके बाद बाबू गालियाँ देता हुआ, बूट पहनकर चला गया। रीसा, हैरान और परेशान कभी एक के मुँह की तरफ, कभी दूसरे के मुँह की तरफ देखता रहा, और फिर वहाँ से उठकर, धीरे-धीरे गली के दूसरे कोने पर जाकर खड़ा हो गया। हर राह जाते बाबू से उसे डर लगने लगा। गणेशी की तरह ‘पॉलिश श श!' चिल्‍लाने की उसकी हिम्‍मत न हुई। रीसे को माँ की याद आयी, और उल्‍टे पाँव वापिस हो लिया। मगर गलियों का कोई छोर किनारा न था, एक गली के अन्‍त तक पहुँचता तो चार गलियाँ और सामने आ जातीं। अनगिनत गलियों में घूमने के बाद वह घबराकर रोने लगा, मगर वहाँ कौन उसके आँसू पोंछनेवाला था। एक गली के बाद दूसरी गली लाँघता हुआ, कभी गणेशी की तलाश में, कभी माँ की तलाश में वह दोपहर तक घूमता रहा। बार-बार रोता और बार-बार स्‍तब्‍ध और भयभीत चुप हो जाता। फिर शाम हुई और थोड़ी देर बाद गलियों में अँधेरा छाने लगा। एक गली के नाके पर खड़ा सिसकियाँ ले रहा था, कि उस- जैसे ही लड़कों का टोला यहाँ-वहाँ से इकट्ठा होकर उसके पास आ पहुँचा। एक छोटे- से लड़के ने अपनी फटी हुई टोपी सिर पर खिसकाते हुए कहा, “अबे साले रोता क्‍यों है?”

दूसरे ने उसका बाजू पकड़ा और रीसे को खींचते हुए एक बराण्‍डे के नीचे ले गया। तीसरे ने उसे धक्‍का दिया! चौथे ने उसके कन्‍धे पर हाथ रखते हुए, उसे बराण्‍डे के एक कोने में बैठा दिया। फिर उस छोटे-से लड़के ने अपने कुर्ते की जेब में से थोड़ी-सी मूँगफली निकालकर रीसे की झोली में डाल दी।

“ले साले, कभी कोई रोता भी है? हमारे साथ घूमा कर, हम भी बूट-पॉलिश करते हैं।”

आधी रात गये, नन्‍हा रीसा, जीवन की एक पूरी मंजिल एक दिन में लाँघकर, सिर के नीचे ब्रुश और पॉलिश की डिब्‍बिया और एक छोटा-सा चीथड़ा रखे, उसी बराण्‍डे की छत के नीचे अपनी यात्रा के नये साथियों के साथ, भाग्‍य की गोद में सोया पड़ा था।

उधर, झोंपड़े के अन्‍दर लेटे-लेटे, कई घण्‍टे की विफल खोज के बाद, घीसू गंगो को आश्‍वासन दे रहा थाः “मुझे कौन काम सिखाने आया था? सभी गलियों में ही सीखते हैं। मरेगा नहीं, घीसू का बेटा है, कभी-न-कभी तुझे मिलने आ जायेगा।”

घीसू का उद्विग्‍न मन जहाँ बेटे के यूँ चले जाने पर व्‍याकुल था, वहाँ इस दारुण सत्‍य को भी न भूल सकता था कि अब झोंपड़े में दो आदमी होंगे, और बरसात काटने तक, और गंगो की गोद में नया जीव आ जाने तक, झोंपड़ा शायद सलामत खड़ा रह सकेगा।

गंगो झोंपड़े की बालिश्‍त-भर ऊँची छत को ताकती हुई चुपचाप लेटी रही। उसी वक्‍त गंगो के पेट में उसके दूसरे बच्‍चे ने करवट ली। जैसे संसार का नवागन्‍तुक संसार का द्वार खटखटाने लगा हो। और गंगो ने सोचा- यह क्‍यों जन्‍म लेने के लिए इतना बेचैन हो रहा है? गंगो का हाथ कभी पेट के चपल बच्‍चे को सहलाता, कभी आँखों से आंसू पोंछने लगता।

आकाश पर बरसात के बादलों से खेलती हुई चाँद की किरनों के नीचे नये मकानों की बस्‍ती झिलमिला रही थी। दिल्‍ली फिर बस रही थी, और उसका प्रसार दिल्‍ली के बढ़ते गौरव को चार चाँद लगा रहा था।

--

(शब्द संगत / रचना समय से साभार)

COMMENTS

BLOGGER: 1
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: भीष्‍म साहनी की कहानी : गंगो का जाया
भीष्‍म साहनी की कहानी : गंगो का जाया
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvO7EEzCddggFehZ5IfoeplyGFjfMq2qbEPENFrJZI5v0C3w1rfLwNDqtRm27BSG6xR5mJwLVKQhGsQQFko9D1ZRJKdkB9k-5rTplJg31TzPuj9jlc7dfMCLiiyaFLBXKRDr1a/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvO7EEzCddggFehZ5IfoeplyGFjfMq2qbEPENFrJZI5v0C3w1rfLwNDqtRm27BSG6xR5mJwLVKQhGsQQFko9D1ZRJKdkB9k-5rTplJg31TzPuj9jlc7dfMCLiiyaFLBXKRDr1a/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2013/03/blog-post_4041.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2013/03/blog-post_4041.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content