‘ गुड़िया ' को देखते हिंदी साहित्य का भविष्य डॉ. विजय शिंदे परिवर्तन जीवंतता का प्रतीक है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में परिवर्तन ...
‘गुड़िया' को देखते हिंदी साहित्य का भविष्य
डॉ. विजय शिंदे
परिवर्तन जीवंतता का प्रतीक है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में परिवर्तन की अपेक्षा से सहित विचारों का लेखन लेखक करता है पर कथन करने की उसकी तकनीक निराली होती है, अद्भुत होती है। भूतकाल और वर्तमान को देखते हुए सत्य घटनाओं का रेखांकन साहित्य में किया जाता है और उसमें मनुष्य जीवन की पेचिदगियां, पीडा, संघर्ष, शोषण का वास्तव वर्णन होता है। उन्हीं बातों का वर्णन करते लेखक अपनी रचनाओं में भविष्य के ऐसे सूत्र जोड़ देता है जो अवाक करनेवाले होते हैं। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने ‘सौंदर्य बोध' कविता में लिखा,
‘‘बिना आकर्षण के दुकानें टूट जाती है
शायद कल उनकी समाधियां नहीं बनेंगी
जो मरने के पूर्व
फूल और कफन का प्रबंध नहीं करेंगे।
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ओछी नहीं है दुनिया
महज उसका ‘सौंदर्य बोध' बढ़ गया है।''
कवि के दृष्टिकोण से सौंदर्य बोध बढ़ना कोई आम बात नहीं यह संकेत है बाजारीकरण की तरफ। वर्तमान देखते दांवे से कह सकते है भविष्य में बाजारीकरण से प्रभावित मनुष्य की दयनीय स्थिति का साहित्य में प्रलय आएगा। बाजार के दबाव, समूह, उनके प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष मारक तत्व, आक्रमण, निर्मयता और इंसान की एक लंबी ‘रेस' दुनिया में रहेगी। इस रेस में मनुष्य की मानवीयता आहत होगी, वह पीड़ित होगा और उसकी कराह साहित्य के भीतर उतरेगी। बच्चे पढ़ रहे हैं। विदशों में जा रहे हैं। वह गांधी- आंबेडकर- नेहरु युग गुजर चुका जो विदेशों में पढ़े और अपने देश वापस आकर अपने जाति, धर्म और देश के लिए क्रांति की। अब भारतीय युवक पढ़-लिखकर नौकरियां विदेशों में ढूंढकर वहां जाकर बसता है, एक शादी नहीं ‘शादियां' भी वहीं रचा रहा है और उससे नवीन समस्याओं की निर्मिति हो रही है भविष्य में साहित्य के भीतर उतरेगी ममता कालिया का ‘दौड' उपन्यास उसी को वर्णित करता है। प्रभा खेतान का ‘अन्या से अन्यना' आत्मकथन सच्चाई और विद्रोह का चलता पुरजा। सारी परंपराओं को तोड़कर सफल व्यावसायिक, मनमुताबिक एक डॉक्टर पुरुष के साथ रहना जो विवाहित है। समाज क्या बोल रहा है, परिवार क्या कहेगा कोई चिंता नहीं और उस पुरुष के साथ शादी भी नहीं। कितना साहसीक बर्ताव भविष्य में ऐसे साहित्य की भरमार आएगी कोई आश्चर्य नहीं होगा।
साहित्य वह किसी भी भाषा का हो एक रचना के भीतर से दूसरी रचना को जन्म देता है। भारतीय और हिंदी जगत् की अपेक्षा अंग्रेजी साहित्य में वर्णित विषय एवं ‘बोल्डनेस' अधिक है, भविष्य में हिंदी साहित्य के भीतर आएगा ही आएगा। किसी के रोके रुकेगा नहीं। पुरानी फिल्मी दुनिया एवं साहित्य में हाथों का गालों का होठों से स्पर्श कर चुमना आश्चर्य माना जाता था पर आज कहां-कहां चुमेंगे इसका भरौसा नहीं और उस चुमाचाटी में पवित्रता नामशेष। अर्थात् यह सब परत-दर-परत परिवर्तन हुआ, अचानक नहीं। साहित्य भी ऐसे ही, परत-दर-परत, ‘गुड़िया भीतर गुड़िया'।
मैत्रेयी पुष्पा ने आत्मकथन लिखा ‘कस्तूरी कुंडल बसै' मां के साथ जुड़कर अपना और नारी जाति का लेखा-जोखा। कस्तूरी मां। उस मां से जन्मी अकेली बेटी पुष्पा। अपने उपनाम को नकार कर साहित्यिक नाम धारण किया मैत्रेयी पुष्पा। विद्रोह रूढि- परंपराओं से, पुरुष प्रधान समाज का नकार, सांस्कृतिक बंधनों का नकार, जाति-पाति का नकार। कस्तूरी के पेट से जन्मी एक गुड़िया पुष्पा, पुष्पा के पेट से जन्मी तीन गुड़ियां- नम्रता, मोहिता, सुजाता। आज जहां गर्भ मेें पल रहे बच्चे के लिंग की जांच, पड़ताल कर उसके स्त्री लिंगी होते ही मारने वाले सामाजिक मानसिकता के विरोध में लड़ती इन तीन पीढ़ियों की गुड़ियों कों सादर नमन। जबरदस्त संघर्ष की गाथा, घुटन और विद्रोह। ऐसा नहीं की मैत्रेयी ने हाथों में बंदुके थामकर गोलियां दागी हो। नारी जगत, की पीड़ाओं का बखान करते पुरुष प्रधान संस्कृति को भविष्य के खतरों से आगाह करती है। संपूर्ण रचना में ईमानादार मांग,े कि हम भी जीवंत है, हम भी मनुष्य है। आजादी हमें भी चाहिए और ये हमारा हक है। आज अगर हमारा मौन आग्रह आपने सुना नहीं तो कल बंदुके भी उठ सकती है। जैसे अदिवासियों के अधिकारों को नकारा वे नक्सलाईट हो गए। खैर मेरा उद्देश्य यहां पर ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' को देखते भविष्य के कौन से संकेत मिलते हैं जो हिंदी साहित्य का निर्देशन कर रहे हैं। ‘‘यह है, मैत्रेयी पुष्पा की आत्मकथा का दूसरा भाग। ‘कस्तूरी कुंडल बसै' के बाद ‘गुड़िया भीतर गुड़िया।' अगर बाजार की भाषा में कहें तो मैत्रेयी का एक और धमाका।'' ;प्लैपद्ध जो पाठक को, भारतीय व्यक्ति को झंकझोर देता है, चकित करता है। और भविष्य में ऐसे धमाकें एक नहीं कई हो सकते हैं, सभी महिला लेखिकाओं से। मैत्रेयी ने इस रचना में नारी होने के नाते सारी सीमाओं को लांघकर खतरों को उठाया और समाज का कान पकड़कर बताया कि ‘यूं अन्याय न कर मोरे राजा, ऐसी चोट पहूंचेगी उठ न पावै' लेखिका ने इस किताब में बडी ईमानदारी के साथ आत्मकथन को खोला है, जो मन में था वहीं लिखा। घटनाएं तो सच है ही परंतु उन घटनाओं के दौरान मन के भीतर क्या हलचलें शुरु थी उसका भी ईमानदारी से लेखन, नई बात है। यहीं हलचलें भविष्य में सहित्य का, समाज का सच बनते देखी जा सकती है। ‘‘घर-परिवार के बीच मैत्रेयी ने वह सारा लेखन किया है जिसे साहित्य में बोल्ड, साहसिक और आपत्तिजनक, न जाने क्या-क्या कहा जाता है और हिंदी की बदनाम मगर अनुपेक्षणीय लेखिका के रूप में स्थापित है।'' (प्लैप) पुष्पा जी परिस्थिति और मां से सीख चुकी की बदनामियों को नजरअंदाज करें। चाहे वह परिवार द्वारा लगाए गए लांछन हो या समाज द्वारा। अब वह दौर आ चुका है शहरों एवं महानगरों में बदनामी कोई विशेष बात नहीं। अब स्थितियां ऐसे है मानो ‘सौ चुहे खाकर बिल्ली चली हज'। पुरुषों ने तो अपनी हदें कब की लांघी है उसके देखा देखी नारियां भी लांघ रही है और कह रही है-‘आपने क्यों दूसरी शादी की? रखैल रखी? दूसरी औरतों के पीछे भाग रहे हो? हम भी दूसरी शादी करेंगे, पुरुष रखेंगे, दूसरे पुरुषों के साथ समय गुजारेंगे-मानसिक, शारीरिक, उन्हें उगलियों पर नचाएंगे। ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' में एक लड़की का जिक्र है जो अपने टयुशन मास्टर के साथ अफेअर कर चुकी है कई स्तरों का और मकान मालकिन प्रतिक्रिया दे रही है ‘यह भाग न जाए, यही चिंता है। इश्क विश्क तो चलता चलाता रहता है। ;पृ.41द्ध संकेत है भविष्य का लडकियों द्वारा शारीरिक आजादी प्राप्ति का और इसको पास-पडोसिनों स्वीकार करेंगी मौज-मस्ती करें पर शादी ना करें। लड़की और पौढ नारी की आत्मस्वीकृति केवल संकेत मात्र भविष्य में साहित्यिक दुनिया में उफान आएगा। भारतीय मूल्यों का हनन है पर रोके कैसे, मुश्किल है!
मैत्रेयी के मन में विवाह संस्था के प्रति विरक्ति निर्माण हो चुकी है। बंधन, पाबंदी, मॅुंह पर पट्टी, ऐसा न करो, यहां बैठो मत, बाहर निकलो मत, रसोयी घर ही तुम्हारी दुनिया, दहलिज, बच्चे और अंत में पति-पुरुष। क्या यही महिलाओं की दुनिया? प्रश्नचिह्न मैत्रेयी खड़ी कर रही है, ना! ये तो नहीं हमारी दुनिया। हमारी दुनिया अपने हाथों से गढे़गी एक नारी का आक्रोश पीढ़ी-दर-पीढ़ी उतर रहा है। मैत्रेयी कहती है, ‘‘मैं धर्म के खिलाफ थी, न नैतिकता विरूध्द। मैं तो सदियों से चली आ रही तथाकथित सामाजिक व्यवस्था से खुद को मुक्त कर रही थी।'' (पृ. 7) लेखिका का यह मौन संघर्ष है मुक्ति का, पुरुष धर्म के विरूध्द का जो संपूर्ण नारी जाति का बनता है। पर भविष्य संकेत दे रहा है साहित्य में कल ऐसी रचनाओं की भरमार होगी जहां पीड़ित होकर नारियां पुरुषों को मौनता तोड़कर फौश गालियां देंगी जिसे सुनने की मानसिकता आज से बनानी पडेगी। नारी बंधनों से मुक्त होने के लिए तड़प रही है, उन्हें बंधन रास नहीं आते और यहां पर उनका विवाह संस्था पर से विश्वास उठ जाता है। मैत्रेयी एकांत में कई बार सोचती है शादी करके गलती की? प्रभा खेतान का बिना विवाह पुरुष के साथ रहना, मन चाहा सुख प्राप्त करना भी तो यही दिखाता है (अन्या से अन्यना), समाज चाहे तो कुछ भी कहे ‘मैं तो अपने मन की रानी रे' का स्वर। अब यह स्वर भविष्य में ताकदवर बनेगा साहित्य में उतरेगा। मैत्रेयी भी पति के साथ बहस करते हुए पुरुष सत्ता को नकार रही है, ‘‘यदि कोई पति अपनी पत्नी की कोमल भावनाओं को कुचलकर खत्म करता है तो पत्नी को पतिव्रत के नियमों का उल्लंघन हर हालत में करना होगा।'' (पृ.15) विद्रोह लेखिका का फिलहाल वर्तमान स्थिति में, पवित्र भाषा में, पर कल भविष्य में, भाषा जरुर बदलेगी ‘अबे कमिने....... मैं तेरे पांव की जुती थोड़ी ही हूंं। बकते जा रहे हो। मेरे मन पर जो आघात तुम कर रहे हो उससे भी खतरनाक चोटें दे दुंगी।' विद्रोह और विद्रोह से पनपता ‘बदला' और बदले की भावना साहित्य के केंद्र में भविष्य का संकेत है। रोके स्त्री अत्याचारों को, स्त्री भ्रुण हत्याओं को। पुरुष सत्ता का नकार जहर बन न जाए, आज सोचना जरुरी है। हो सकता कल ‘पुरुष और स्त्री,' दो दलों में सारा सामाजिक ढांचा बंट जाए और इनकी लड़ाइयां साहित्य में वर्णित हो। विदेशों में ‘सेक्स' आजादी है धीरे-धीरे भारतीय समाज में उतर रही है। सेक्स के लिए पुरुष तो आजादी ले चुका है पर नारियां भी मंशा रख रही है। पति के साथ रहनेवाली पुष्पा जी मन पर थोड़े ही रोक लगा सकती चाहे शरीर को बंधनों में बांधे। ‘‘लगता यह भी, कोई हमारी जिंदगी में क्यों नहीं आता? पतिव्रत ढोते-ढोते कंधे झुके जा रहे हैं। अच्छी पत्नी होकर उकता रहे हैैं।...... जब ना तब मन का मौसम बदलने लगता है। मेरे कदम मेरी नजरों के साथ चलने लगते हैं। व्यवस्था गड़बड़ाने लगती है। समर्पन डगमगा जाता है।'' (पृ. 70-71) मैत्रेयी की फिलहाल उम्र 56 बरस है, मैं उन्हें उमर ढल चुकी कहूं तो गालियां मिलेगी। पर विज्ञान और प्रकृति को आधार माने तो यहां पर महिलाएं शरीर सुख से निवृत्त हा चुकी होती है। समर्पित जीवन जीया। उनको केवल लगता था, मन में उमडन-घुमडन चल रही थी। भविष्य की प्रौढ महिलाएं इसी मानसिक हलचल को सच बनाने की संभावना है और इससे पीड़ित पुरुष एवं नारियों का चित्रण नव-नवीन घटनाओं के साथ साहित्य में उतरेगा।
संवेदनशील और चिंता निर्माण करनेवाला विषय है बेटा बेटी भेदा-भेद। स्त्री भ्रुण हत्या, पुरुष-स्त्री प्रमाण का असंतुलन सामाजिक ढांचे को तहस-नहस करेगा। अब पैसों को लेकर लड़ाइयां होती कल लड़कियों को लेकर होगी। मजाक-मजाक में कहते हैं रामायन-महाभारत सीता-द्रौपद्री के लिए हुआ। युध्द का कारण स्त्री। पर भविष्य में पुरुषों की लड़ाइयां स्त्री के लिए किस कदर होगी कल्पना भी नहीं कर सकते। स्त्रियों का प्रमाण इस तरह घटता गया तो भविष्य खतरों से भरेगा और वे साहित्य में उतरते रहेंगे। ‘‘एक बेटा जरुर हो का रिवाज परिवार नियोजन की रीढ दबाए रहता है। सभ्य समाज में फैमिली प्लानिंग का रूप है- दो बेटे एक बेटी। एक बेटा एक बेटी। दो बेटे हों फर्क नहीं पड़ता मगर जैसे ही लड़कियों की संख्या दो हो जाती है, लड़के की पुकार तेज होती है।'' (पृ.95) यह दृष्टिकोण देश को कौनसी कगार पर लेकर जाएगा बताया नहीं जा सकता और वह कगार, साहित्य स्रोत जरुर बनेगी।
पाकिस्तान में जितने मुसलमान है उतने ही भारत के भीतर अर्थात् भारत में एक और मुस्लिम राष्ट्र जी रहा है, बंधुत्व के साथ पर पुष्पा जी ने भारत-पाकिस्तान युद्ध को लेकर थोड़ा-सा वर्णन किया है जहां पर भारत के भीतर रह रहे मुसलमानों को पाकिस्तानी जासूस की नजरों से देखा गया था। और मुसलमान अपने घरों के भीतर सहमे-सिमटे जा रहे थे असुरक्षित महसूस कर रहे थे। पाकिस्तान टूटने की खबरें भी आ रही थी। कुछ पाकिस्तानी अपने रिश्तेदारों के साथ भारत में भी थे जो मैत्रेयी के पड़ोसी घर में थे। खैर बात यह है कि मैत्रेयी का उनसे दोस्ताना रिश्ता हार्दिक था। (पृ. 77) प्रश्न यह उठता है कि कल, भविष्य में भारत-पाकिस्तान एक अच्छे दोस्त हो सकते हैं? भारत-पाकिस्तान के भीतर रोटी-बेटी का व्यवहार हो जाएगा? व्यापक रूप में शादियां होगी? अगर ऐसा हो तो आज भारत में कभी-कभार होनेवाले सांप्रदायिक दंगे पूर्ण मिट जाएंगे और भारत का सतरंगी पंखोंवाला सपना साकार होगा। पर यह केवल भविष्य की कल्पना है जो मैत्रेयी पुष्पा के ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' के माध्यम से मन में आ जाती है। अगर दोनों संप्रदायों के रिश्ते मृदु और हार्दिक होते गए तो साहित्य में वहीं प्रतिबिंब आएगा और खिंचते गए, दरारे बढ़ती गई तो भयानक, दर्दनाक दिनों का वर्णन आएगा। बस मैत्रेयी पुष्पा के ‘गुड़िया भीतर गुड़िया' के माध्यम से भविष्यकालीन साहित्य के परिदृश्य को आंकते हुए साहित्य और देश के भविष्य का शुभ चाहते हैं।
आधार ग्रंथ
गुड़िया भीतर गुड़िया (आत्मकथन) -मैत्रेयी पुष्पा, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. पहला संस्करण -2008, पृ.352, मूल्य - 395
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डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद
vijay ji ek gahan aur sargarbhit sameeksha padhvane ke liye bahut bahut badhai aur abhar...
जवाब देंहटाएंकविता जी प्रणाम।
जवाब देंहटाएंआप समकालिन कहानियों में योगदान दे रही है और साथ ही आधुनिक तकनिक के नाते ई-साक्षरता भी पाई है। आशा है हिंदी भाषा हेतु आपका अच्छा योगदान रहेगा। साहित्यिक चर्चा के माधम से हमारा वैचारिक आदान-प्रदान होगा। टिप्पणी के आभार।
बेहद सारगर्भित पुस्तक समीक्षा,आभार.
जवाब देंहटाएंबेहद ही सारगर्भित पुस्तक समीक्षा,आभार.
जवाब देंहटाएंराजेंद्र जी आपको पुस्तक समीक्षा पसंद आयी और उसे सूचित किया धन्यवाद।
हटाएंबहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत सधी हुयी समीक्षा .....
जवाब देंहटाएंडॉ.मोनिका जी समीक्षा पढने के लिए आभार। आगे हमारी इसी तरह सहित्यिक चर्चाएं जारी रहेगी।
हटाएंबहुत सुंदर सारगर्भित पुस्तक समीक्षा.....आभार!
जवाब देंहटाएंकविता जी 'गुडिया को देखते हिंदी साहित्य का भविष्य' आलेख आपको पसंद आया, आभार। मैं मेरे दोस्त एवं प्रेमियों को बता दूं कि हमारे कॉलेज में पिछले साल एक संगोष्ठी का आयोजन किया था- 'इक्कीसवीं सदी का हिंदी साहित्यः स्थिति एवं संभावनाएं'उस दौरान मैत्रेयी जी के आत्मकथात्मक उपन्यास को लक्ष्य बना कर पस्तुत समीक्षा लिखी थी जो किताब का तो मूल्यांकन करेगी ही साथ में हिंदी साहित्य के भविष्य की ओर भी संकेत करेगी।
हटाएंअत्यंत प्रभावी और आकर्षक समीक्षा है ये . शिंदे जी आपकी कलम हर पक्ष से न्याय कर रही है ..बहुत-बहुत बधाई..
जवाब देंहटाएंअमरिता जी समीक्षा पसंद आई धन्यवाद। शायद एक साहित्यिक कृति का सही मूल्यांकन करने में मैं सफल हो गया हूं। आपकी टिप्पणी से तो ऐसे लग रहा है।
हटाएंअत्यंत प्रभावी और आकर्षक समीक्षा है ये . शिंदे जी आपकी कलम हर पक्ष से न्याय कर रही है ..बहुत-बहुत बधाई..
जवाब देंहटाएंविजय जी । यह किताब तो मैनें नहीं पडीं लेकिन आपकी इस पुस्तक समीक्षा को पड कर पुस्तक पढनें की इच्छा जरूर मन में हिलोरें लेने लगी हैं ।
जवाब देंहटाएंमुझे खुशी हुई सावन कुमार जी कि आप लेखिका के मूल किताब की ओर आकर्षित हो गए। अब मुझे थोडा विश्वास हो रहा है कि मैं लेखन को न्याय दे रहा हूं। आप 'गुडिया भीतर गुडिया' को जरूर पढे, वर्तमान शिक्षित नारी की भाव-भावनाएं उसमें ओतप्रोत है। मिलेंगे।
हटाएंबहुत ही अच्छी और सटीक समीक्षा....
जवाब देंहटाएंउपासना जी समीक्षा पढी, धन्यवाद। हो सकता है आपकी कविताओं को पढ कर भविष्य में झांकने की क्षमता प्राप्त की हो।
हटाएं‘‘एक बेटा जरुर हो का रिवाज परिवार नियोजन की रीढ दबाए रहता है। सभ्य समाज में फैमिली प्लानिंग का रूप है- दो बेटे एक बेटी। एक बेटा एक बेटी। दो बेटे हों फर्क नहीं पड़ता ......samiksha acchi hai par ab phark padne laga hai ....maine beti ki aas men maaon ko udas hote dekha hai .....
जवाब देंहटाएंबिल्कुल नहीं मां को बेटे की आस लगाने की जरूरत नहीं है। भारत की आबादी दिनों दिन इतनी बढ रही है कि पूछो मत। अब हो सकता है भविष्य में सरकार ही निर्णय लेगी; बेटी हो या बेटा एक ही बच्चा। आप इस पर और अधिक पढना चाहती है तो मेरे रचनाकार में ही प्रकाशित दो लघु लेख पढ सकती है 'एक लडकी एक लडका' और 'हद हो गई।' इसके लिंक मेरे ब्लॉग पर मार्च महिने में है। आभार।
हटाएंसमीक्षा अच्छी लगी ...समीक्षा लिखना थोड़ा मुश्किल काम है ...
जवाब देंहटाएंशारदा जी आपको समीक्षा अच्छी लगी आभार। पर आगे लिखा है समीक्षा लिखना थोडा मुश्किल पर मैं आपको बता दूं यह भी एक नवीन सृजन ही होता है। आप गजले और कविताएं लिखती हैं मतलब सृजन करती हैं। अनुभव जगत् विस्तृत है। साहित्य के विविध पहलुओं से अगर किसी का जुडाव बन गया तो विभिन्न संदर्भ अपने आप जुड जाते हैं और समीक्षा का ढांचा तैयार होता है। समीक्षा के लिए दिल-दीमाग पर काबु रखे तो और आसान। मतलब थोडे मुश्किल को आसान बना सकते हैं।
हटाएंसर जी साधुवाद। बहुत सटीक आलोचना अध्ययन हेतु मिली है ।
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