प्रवासी भारतवंशी उषा राजे सक्सेना के रचना संसार का विस्तार ज़मीं से उठता हुआ फ़लक को छूने की संभावनाओं का एक ऐसा आंचल है जिसमें सच्चाई का स...
प्रवासी भारतवंशी उषा राजे सक्सेना के रचना संसार का विस्तार ज़मीं से उठता हुआ फ़लक को छूने की संभावनाओं का एक ऐसा आंचल है जिसमें सच्चाई का सम्मोहन, संवेदना का सम्मोहन, तर्क़ तथा चिंता का सम्मोहन साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है।
‘क्या फिर वही होगा’ उनका नवनीतम काव्य-संग्रह शिद्दत से तल्ख़ स्वर में उठाया गया एक प्रश्न चिन्ह है जिसके दस्तावेज़ी बयान में उषा राजे जी ने यक़ीनन अपने जीवन पथ पर चलते-चलते कई ऐसे संदर्भों को उकेरा है, जिनके साथ रूबरू होकर आभास होता है कि शब्दों की बयानी में गहरे उतरकर उनकी सोच के साथ हम भी हमसफ़र होकर वही यात्रा कर रहे हैं। वैसे भी कवि समाज का पथप्रदर्शक होता है इसमें दो राय नहीं।
तेलुगू कवि ओब्बिन ने भाषा के सही स्वरूप को हमारे सामने प्रस्तुत करते हुए कहा है—‘भाषा है मिट्टी, भाषा है पानी, प्राण है भाषा, वास्तव में यही भाषा की शाश्वत परिभाषा है।‘ ऐसा ही एक स्पंदन उषा जी की रचनधर्मिता में भी उभर आया है, फिर चाहे वह कविता हो या गीत-नवगीत, ग़ज़लें हो या संवेदना के स्वर!! भाषा के तेवर निशब्द शब्दों में जान फूँकने में पहल करते हुए ‘क्या फिर वही होगा’ नामक रचना के विस्तार में कह उठते हैं–...... क्या हम फिर बंटेंगे और बिकेंगे /उन्हीं के बाज़ारों में/ अपनी खुद्गर्ज़ी /और मूर्खताओं के प्रमाण बन / बानगी का एक और अंश आगे कहता है : लगता है/सांस लेते /हर आदमी के सिर पर/ कुछ मुर्दे लटक रहे हैं/ उनके कंधों पर कई-कई/चट्टानों का दबाव है/
कवियों के सिरमोर महाकवि हरिशंकर आदेश जी की ये पंक्तियां उनके जीवन की सार्थकता और सत्य को कविता के संदर्भ में ज़ाहिर करती हैं। (उषा जी ने उनके जीवन की उपलब्धियों पर विस्तार में शोध किया है) वे कहते हैं:
कविता ही मेरा जीवन है/ मेरा जीवन ही कविता/ मैं परिभाषित कविता / कुछ ऐसा ही एहसास उषा जी की इस कविता ‘खुशबू’ में भी महकता हुआ दिखाई देता है: ख़ुशबू/ सिर्फ़ ख़ुशबू नहीं होती/ एहसास होती है/ ख़ुशबू / स्मृतियाँ होती है/ ख़ुशबू-बीते हुए कल की सरज़मीं होती है /
यक़ीनन खुशबू एहसास होतीं हैं, स्मृतियाँ होतीं हैं, और उन्हीं बीते पलों की यादों को उषा जी ने काव्य में ऐसे बुना है, कि उनमें ताज़गी, विविधता, कथ्य और शिल्प का समंजस्य बखूबी उभर आया है। शायद सत्य को सजावट या श्रिंगार की ज़रूरत नहीं होती। उनकी कविताएं अतीत और भविष्य की भविष्यवाणियाँ हैं, एक तरह से शब्दों में ईमानदार अभिव्यक्ति दिल पर दस्तक देते हुए विश्वास, और साहस के बीज बोकर नई आस्था जागती है। धारदारी अभिव्यक्ति किए हुए मनोभावों में एक प्रताड़ित नारी को उद्बोधित करती है। उन्वानों में भाव व भाषा का चुम्बकीय सामंजस्य है- ‘लड़कियां’ नामक कविता में शब्द और अर्थ का समर्थन करते हुए उषा जी की बानगी देखें: शब्दों का अर्थ /जानना चाहती है / लड़कियां तालिबान में /सर उठाते ही /कलम की जा रही है/ लड़कियां/
यह एहसास मन में कील की तरह धंसा हुआ है, शायद इसीलिए अपने अस्तित्व की तलाश में, अपने अंदर की घुटन से रिहा होने की तमन्ना में नारी छटपटाती रह जाती है। उसकी इच्छा, उसकी आज़ादी पुरुष प्रधान समाज की चौखट पर बलि चढ़ जाती है। समाज में रिश्तों के माइने बदल चुके हैं, नैतिकता अनैतिकता के पैमाने लुप्त हो गए हैं। स्वार्थों और निहितार्थों का ऐसा रूप ग्रहण कर लिया है कि अपने पराए का भेद करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा हो गया है। पद चिन्ह नामक कविता में नारी मन अपनी व्यथा व मजबूरी को सामने रखते हुए अपनी पक्षधर आप हुआ जाता है: चलना चाहती हूँ/ उन राहों पर/ जिन पर कभी, तुम चले थे/ राहें/ पैरों से लिपट जाती हैं/ मैं रुक कर /तुम्हारे पद चिन्ह / तलाशती हूँ/ पाती हूँ/ मैं ही तो वह पदचिन्ह हूँ/ जिस पर तुम चले थे/
अंदर की घुटन से रिहा होकर नारी बाहर की हवा भीतर लेना चाहती है, पर उसकी कोशिश की कड़ी कहीं न कहीं ढीली पड़ जाती है। पुरुष प्रधान समाज में अपनी पहचान पाने, और बनाए रखने का संघर्ष कहीं न कहीं घर की चारदीवारी में दम तोड़ देता है...!! आशा-निराशा की बैसाखियों पर वह ज़िंदगी को ढोते हुए अपनी असहाय स्थिति में आगे बढ़ने का प्रयास ज़ारी रखती है यह जानते हुए कि उसका वजूद एक पदचिन्ह है जिसे मर्द सदियों से रौंदता आया है. आखिर फिर उसी एक सवाल पर आकर सोच रुक जाती है- ‘क्या फिर वही होगा’ संकीर्ण समाज की परिधियों मैं जहां पुरुष सत्ता प्रधान होती है, कुछ ऐसे सरोकारों को मद्दे-नज़र रखते हुए उषा जी की क़लम भी चीख उठती है ‘दरकती गई मैं’ नाम की कविता में लहू कतरा कतरा रिसता हुआ किस तरह बंजर धरा को सींच रहा है : वट वृक्ष सी/ तुम्हारी जड़ें/ फैलती गईं / और/ मैं/ मिट्टी-सी/ दरकती गई/ अभिव्यक्ति में सामाजिक चेतना के प्रखर स्वर हैं । ये कवितायें समाज के बहुविध संदर्भों को जिस सहजता से उजगार करती है, उससे कविता के समाजशास्त्र की पूर्व पीठिका तैयार हो जाती है: आकाश का बड़ा हो जाना/ पृथ्वी के छोटा हो जाने की/ शर्त नहीं है !
ग़ज़ल के विस्तार में उनकी क़लम के तेवर अपने बयां में सर्गोशियाँ करते हुए सच को सामने ला रही हैं.... :
साज़िश, साज़िश, साज़िश केवल साज़िश उनकी हर आदत तक आई है सधे हुए शब्दों में काव्य के माध्यम से विचारों की क्रांति उजगार हुई है, जहां सामाजिक, सांस्कृतिक, व राजनीतिक विकृतियों पर करारी चोट करते हुए उषा जी के कथन के तेवरों की बेमिसाली कहती है: नुकीले पैरों पर चल कर/ वह/ पैरों के नीचे/ लाल दरिया बहाती है/ तक़दीर के गुदने नहीं/ बु-ए-खूँ की मेहंदी /हथेली पर /सुर्ख होकर उभरती है/ यहाँ समय और समाज के अवर्णनीय मंज़रों का प्रामाणिक चित्रण हुआ है, जिनमें निरंतरता और गुणवंता का अद्भुत संतुलन है।
देश से दूर भारतीय प्रवासियों के दिल में एक दर्द की कसक छेदती रहती है, पर वे सीने में एक सच वो सँजोए हुए हैं, कि ‘हम देश से दूर हैं, देश हमसे दूर नहीं’। भारतीयता संस्कृति के रूप में उनकी धरोहर उनके साथ रहती है। उनके सीने में यही सौंधी मिट्टी का अहसास धड़कता है, भारत का दिल धड़कता है।
‘भारत और भारतीय संस्कृति’ नामक कविता में शब्द एहसास बनकर अपनी निष्ठा, अपनी आस्था में जैसे गुनगुना उठते हैं –‘हम बुलबुलें हैं इसकी, ये गुलसिताँ हमारा” !! इसी कविता का अंश: अपना ये रिश्ता / भारत और भारतीय संस्कृति से/ पंचशील के सिधान्त से/ ‘वसुधैर्व कुटुंम्बकम’ के मानक से/ और आगे भावनाओं की बाढ़ नें बयां हमारी भावनाओं की तर्जुमानी बयां हैं--- निष्ठा की बुलंदी / टूटी हुई शाख हैं हम/ पर, हौसला कम बुलंद नहीं अपना/ जमाएंगी, अपनी जड़ें/ये हमारी कलमें/ नई मिट्टी और नयी ज़मीन में/ जहां तक फैलेंगी जड़ें हमारी / वो सारा जहां, होगा हमारा !!
संवेदना के स्वर खंड में गुजरात में आए प्रलयंकारी भूकंप में त्रासित, क्षत-विक्षित लोगों की, भूमिगत हुए नगरों में उषाजी व्यक्तिगत रूप से मानसिक एवं भावनात्मक आघातों से पीड़ित महिलाओं, किशोरियों एवं बच्चों की सेवा एवं काउंसिलिंग करते हुए, उनके गहन व्यक्तिगत विशेष आवश्यकताओं की आपूर्ति करते समय जो चित्र मस्तिष्क को वर्षों संतप्त करती रहीं, वही व्यथित लेखनी से उकेरे हृदय विदारक स्मृति-चित्र उषा जी के किरदार और उनकी शख्सियत के एक और पहलू से वाक़िफ़ कराते हैं। कुछ झलकियाँ उन याद के झरोखों से-बिजली चमकी/बादल बरसे/काँप गया फिर/ याद का साया/ प्रकृति का रोष नामक कविता में मन की प्रसव पीढ़ा का आलाप: लड़खड़ाने लगीं चट्टानें/ भरभराने लगीं अट्टालिकाएँ/ चीख़ने लगी धरती/ बिखर गयी बस्ती / खुद मर गई मैं मौत में: मौत के आगोश में ज़िंदगी का तांडव जीवन की कड़वी सच्चाई बयान कर रहा है: सुबह से शाम होने को आई / लाचार मुर्दे/ सफ़ेद चादरों में लिपटे/ बेचैनी से/ अंतिम संस्कार का/ इंतज़ार कर रहे हैं......./ इस पारदर्शी सचाई के, संवेदना के तर्क़, चिंतन के इस सम्मोहन में हर नारी का स्वर शामिल है-‘क्या फिर वही होगा’-श्री कुँवर बेचैन जी के लफ़्ज़ों में ‘यह एक प्रश्न है जो सोचने पर मजबूर करता है। उन अनकहे प्रश्नों को अब भी तलब है उत्तर की, प्रतीक्षा है समाधानों की जो समस्याओं के चक्रव्यूह में अब भी क़ैदी बनकर सर फोड़ रहे हैं। जब उठाती हैं / कोई सवाल /अपने ‘स्व’ का लड़कियां..../तो कलम कर दी जाती हैं लड़कियां किसी की कमज़ोरी को अपनी पहचान बना लेना सही हो ये ज़रूरी नहीं, उस कमज़ोरी में उसकी ताक़त की चिंगारी छुपी होती है जो थोड़ी सी हवा पाने पर विस्फोटित हो सकती है। ये भाव भीने शोले सन्नटा नाम की कविता में शोर मचा रहे हैं: अंगीठी में जलते हुए/ लाल अंगारों से पूछती हूँ/ कहीं मैं भी तो/ जला हुआ कोयला नहीं/जिसकी रख में/ एक नन्हीं-सी सुर्ख चिंगारी/ तिड़कने का खामोशी से / इंतज़ार कर रही है....!! इन सभी सवालों के जवाब में कुछ मौन एहसास श्री मुकुन्द बिहारी सरोज जी की इन दो पंक्तियों में कुछ राह रौशन कर रहे हैं: है मुझको मालूम हवाएँ ठीक नहीं हैं और दर्द की सभी दवाएं ठीक नहीं हैं इस साहित्य साधना के सफ़र में उषा जी पध्य एवं गध्य में अनेक शोधपूरक लेखों आलेखों से प्रवास में हिन्दी साहित्य को समृद्ध करती आ रही हैं। यक़ीनन इतिहास के पन्नों की समय शिला पर उनकी क़लम की लकीरें अपने अमिट निशान छोड़ेंगी!! आमीन
देवी नागरानी
(न्यू जर्सी) ९-डी॰ कॉर्नर व्यू सोसाइटी, १५/ ३३ रोड, बांद्रा , मुंबई ४०००५० . फ़ोन: 9 987938358
कृति: क्या फिर वही होगा, लेखिका: उषा राजे सक्सेना, पृष्ठ : 140, मूल्य : 200 रुपए, वर्ष : 2012, प्रकाशक:मेधा बुक्स, दिल्ली-32,
इस समीक्षा का स्वरूप रिव्यू जैसा है. अच्छा है. पर समीक्षा लिखते समय भाषा की अशुद्धियों पर भी ध्यान जाना चाहिए.
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