सुरेन्द्र अग्निहोत्री सब्र खोने का वक्त आ गया है कुल जमा तस्वीर धुंधली है कहने का लब्बोलुबाब यही है देश फेल हो रहा है? देश के अन्दर...
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
सब्र खोने का वक्त आ गया है
कुल जमा तस्वीर धुंधली है
कहने का लब्बोलुबाब यही है
देश फेल हो रहा है?
देश के अन्दर से
नये देश फूट रहे हैं
जो देश के लिए नहीं
अपनी राजनीति चमकाते हैं
सत्ता की खातिर
झूठ को सच मनवाते हैं
और लगता है
हमने मान लिया है
देश नहीं क्षेत्रीयता की बारी है
सपनोको तोडने की तैयारी है
थेाड़े बेसब्र रहे और हम
तब तक जोड़ घटाव करे
दोराहे पर रहे देश!
हम हाथ पर हाथ धरे
जो वो चाहे करे
हमें सिर्फ चुप करे।
-सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर.
बिधान सभा मार्ग;लखनऊ
मो0ः 9415508695
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मुरसलीन साकी
मुझे गिला नहीं तेरी जफाओं का।
मैं आशिक हूँ तेरी निगाहों का॥
मुझे शोहरत यूँ ही नहीं मिल गई।
ये असर है तेरी दुआओं का॥
खबर हम को नहीं है गुलशन की।
कुसूर इसमें है क्या बहारों का॥
हसद से जल गये हैं दिल खुद ही।
असर दिखता नहीं शरारों का॥
फकत रहमत से अपनी कर अता।
सलीका हम को नहीं दुआओं का॥
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आमद थी उनकी इसलिये गुलशन संवारा था।
क्या मिल गया है तुम को मेरा ख्वाब तोड़ कर॥
हमने तो इन्तजार में सदियां गुजार दीं।
वो जा रहे हैं देखिये इक शब गुजार कर॥
मैं अब भी उसी राह पे मिल जाऊंगा तुम्हें।
जहां तुम चले गये थे मेरा साथ छोड़ कर॥
शायद कभी खयाल मेरा आये इसलिये।
जलते चराग आ गया राहों में छोड़ कर॥
उसने मेरे खतों का दिया इस तरह जवाब।
कांटे ही खत में रख दिये फूलों को छोड़ कर॥
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ये खौफ जदा शहर ये गमनाक हवायें।
हर सू है कत्लेआम अदावत की सदायें॥
अब नफरतों ने अपने तरीके बदल लिये।
अस्मत जनी है तो कहीं खून की धारें॥
वीरान हुआ शहर लगी आग हसद की।
ऐसी फजा में आयेंगी क्या खाक बहारें॥
हाकिम तो सो रहें हैं हसी महलों में अपने।
हम खौफ जदा है कि कहां रात गुजारें॥
कितने हसीन होते हैं से जख्म दिलों के।
मिल जायें कहीं राह में उनको भी दिखायें॥
मुरसलीन साकी
लखीमपुर-खीरी उ0प्र0
मो0 9044663196
पिन- 262701
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नीरा सिन्हा
आत्महंता होते युवा
अति संवेदनशील आज के युवा
खूद को गुनहगार समझने लगे
पिता के अकांक्षा को नही कर सके पूरा
तो खूद को सजा देने लगे
क्लर्क पिता ने पुत्र के कंधे पर
अपनी दमित अकांक्षा को दिया लाद
पुत्र बनना चाहता था चित्रकार
अफसर बनने का पिता ने बनाया दबाव
पिता की अकांक्षा को कर नही सका पूरा
मुजरिम खूद को समझ लिया
अवसाद में घिर कर भरी जवानी में
पंखे से झूल कर आत्महत्या कर लिया
फैशनेबल भाषा
भाषा बन गयी है फैशन
युवा कॉलेज की लड़की को
कहता है आइटम
परीक्षा में प्रश्नों के उतर
एसएमएस की भाषा में देता है
पवन पुत्र हनुमान को
सोर्टकट में हाय हनु कहता है
विद्या की देवी की पूजा में
मुन्नी बदनाम हुई गाने पर
पीकर थीरकता है
माँ औ बहनों को सजी-धजी देखकर
सेक्सी लग रही हो
कहता है !
घर एक संग्राहालय
भौतिक वस्तुओं का बनता
जा रहा है घर एक संग्राहालय
जिंदगी की संगीत का
जिसमें नही है कोई ताल औ लय
खो गयी है जिंदगी
चीजों के ढेर में
बिन सोचे-समझे चीजों
को खरीदने के फेर में
नीरा सिन्हा
मो. 9931584588
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सुधीर कुमार सोनी
''निश्चिंतता से जीने के कुछ पल''
निश्चिंतता
ठहर नहीं पाती है मेरे पास
अकारण ही
मैं ढूंढता हूँ
निश्चिंतता से जीने के कुछ पल
बावजूद इसके
की समय के सम्पूर्ण अंग में
विस्फोटक लेप चढ़ा हुआ है
देखता हूँ
कितनी निश्चिन्त होकर
घास के शीश पर बैठी है
ओस की बूंद
बिना किसी भय के
बुन रही है मकड़ी अपना जाल
कि पृथ्वी के इस भाग में
कम्पन नहीं होगा अभी
आबादी से दूर सही
चिड़ियों ने ढूंढ लिया है
अपने घोंसले के लिए ठिकाना
बहुमंजिले भवन को
जीभ दिखाती
बकरी ढूंढ रही है चारा
चल रही है कतार में चीटियाँ
बेखबर
की समय उतावला है
पहुँचने के लिए
इक्कसवीं सदी के द्वार पर
वह नौजवान
जो प्रतियोगिताओं को
लगातार लाँघने की कोशिश में है
निश्चिंतता की कसौटी पर
खरा उतर पायेगा
क्या पता
घास के शीश पर बैठी
ओस की बूंद
उस पर ठहाका लगाये
''सुबह ''
सूरज की किरणों की
पलके खुलने के पहले
पंछियों की पलकें खुल जाती हैं
ग्वाले का हाथ
अपने पशुओं के थन के पास
पहुँच जाता है
सुबह होने का आभास होते ही
दुनिया की खबरों को
घर-घर तक पहुँचाने का सिलसिला
शुरू होता है
सुबह होने के पहले
चौराहों के ठेलों और गुमटियों में
केतली में घुलने लगती है
चाय की कडुवाहट
सुबह होने के पहले
सुबह
धीरे-धीरे
तैरता जाता है शोरगुल हवा में
घुलता जाता है जहर
क्षमा
तुमसे सुबह
इससे पहले कि
तुमसे छीन जाए
तुम्हारी
शीतलता
मधुरता
और सहजता
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उमेश मौर्य
॥ सीखो॥
न केवल अपनें स्वजनो पे,
गैरों पे भी रोना सीखो।
महलों के बाहर की दुनियॉ,
खुली हवा में सोना सीखो।
कॉटे बोये, कॉटे काटे,
फूल प्रेम के बोना सीखो।
एक अलग दुनियाँ मस्ती की,
चीत्कारों मे जीना सीखो।
जीवन तो निकलेगा यू भी,
अॉसू पोंछ के जीना सीखो।
दुख से भरी अमीरी कैसी,
मस्त फकीरी सोना सीखो।
लघु, अतिलघु प्रश्नों में उलझे,
खुले विचार में उड़ना सीखो।
पग-पग लिए मशीनी कुबड़ी,
पैदल भी तो चलना सीखो।
ऊॅच नीच और जाति पाति से,
अब हे आर्य निकलना सीखो।
पश्चिम में अब देख न भारत,
अपना भाग्य बदलना सीखो।
जख्मी जापानी घोड़ों से,
अपनें दम पे जीना सीखो।
उमेश मौर्य
सुलतानपुर, उत्तर प्रदेश, भारत
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विजय वर्मा
ग़ज़ल
बा-रहम थें जो,वो अब बे-रहम है .
इसे मानने में भला कैसी शरम है .
मौसमे-जहाँ का भरोसा नहीं रहा
सुबह खुशनुमा थी ,शाम गरम है
आमरण -उपवास फिर होगा पुरअसर
मुगालतें न पाल,यह मात्र भरम है .
अहले-कू-ए-सियासत के एक सा मिजाज़
कोई थोड़े शख्त,कोई थोड़े नरम है .
अब ये कौन सा दौर आया है मुल्क में
आबाद है मयखानें ,वीरां दैरो-हरम है .
चाँद खुद बाहरी समर्थन पे टिका है
रौशनी तभी है जब जुगनुओं की रहम है .
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v k verma,sr.chemist,D.V.C.,BTPS
BOKARO THERMAL,BOKARO
vijayvermavijay560@gmail.com
Achhi rachanayen! Sabhi sayron ko badhai.
जवाब देंहटाएंManoj 'Aajiz'
very nice
जवाब देंहटाएंthanks Manoj kumar pathak ji @ amit kumar ji.
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