व्यंग्य. होली पर. होली से लम्बे हैं, बंधु ये होली के चंदे ... -प्रभाशंकर उपाध्याय चंदा वसूलने वाली टोलियों...
व्यंग्य. होली पर.
होली से लम्बे हैं, बंधु ये होली के चंदे ...
-प्रभाशंकर उपाध्याय
चंदा वसूलने वाली टोलियों का हमला बता देता है कि होली बस, यहीं कहीं नजदीक ही है। अब, इस प्रदूषण युग में फागुनी बयार नहीं चलती। होली की धमाल टी.वी. पर यदा-कदा दर्शन दे देती है। किन्तु चंदाबाजों की टोलियां बेनागा, प्रतिवर्ष घरों और मार्गों पर अपना अटैक जारी रखती हैं। न घर बचे, न राहगीर। घर पर तो यह हाल है कि एक टोली को निपटाया तो दो और प्रकट हो गयीं। टोलियों से राहत मिली तो ढोली आ गया। उसके कर्णभेदी ढोल के ध्वनि प्रदूषण से निजात पानी है तो उसे भी फटाफट फारिग करो। अभी चैन की सांस ले भी न पाये थे कि फागुनी गीत गाती, कंजर-टोली आ गयी। चलिये इनसे यह तो पता लगा कि फागुन के गीत इस तरह के हुआ करते थे।
यकायक मेरे कान खड़के क्योंकि कहीं बज रहा था, ’’चंदा की चांदनी में झूमे झूमे दिल मेरा..... ’’ और इधर मेरे हृदय की धड़कनें तेज हो गयी। होली पर चंदा वसूलने वालों की टोली में वह गीत बज रहा है। पिछले वर्ष की भांति हुल्लड़ मचाते, नाचते- गाते नौजवानों का हुजूम आ रहा होगा? जिस चंदा की चांदनी में उनका दिल झूम रहा है और कुछ देर बाद जब वह मुझ पर पड़ेगी तो उसकी कल्पना से मुझे कंपकंपी छूट रही है। होली पर रंगबाजी से मुंह चुराना आसान है और उसके अनेक तरीके हैं। घर के स्टोर रूम में छिप रहें तथा घर में नहीं हैं का सदाबहार जुमला उछलवा दें। बीमार होने का ढोंग रच लें। रंग और अबीर से एलर्जी की दुहाई दे डालें। अधिक भय हो तो शहर से दफा हो लें। किन्तु चंदा मांगने वालों से बचना नामुमकिन है।
लोगों का कहना है कि होली का उछाह घटा है और मैं कहता हूं ’’अरे म्यां! होली का उत्साह महसूस करना है तो चंदा-टोली में शामिल होकर देखिये। ’’ पुरानी पीढी के लोग इसका दोष नई पीढी पर डालते हैं। एक बुजुर्गवर ने जब ऐसा ही दोषारोपण किया तो मैं बोला, ’’ हे परम श्रद्धेय! जब आप युवा थे तथा तार- कांटा लगाकर, राहगीरों की टोपियां और अंगोछे उड़ा लेते थे। उस बेचारे की अंटी से कुछ न कुछ निकलवाकर टोपी- गमछे लौटाते थे। तो क्या वह चौथ वसूली नहीं थी? चलो इसे छोड़ो और दूसरी बात याद करो। आप जब घर घर जाकर होली का चंदा मांगते थे और किसी के मना कर देने पर, उस घर की महिला को संबोधित कर यह उक्ति नहीं सुनाते थे, ’’ तक तक तूती, मरेगी तू तो सूती। ’’ तीसरी बात कि होली में दहन करने के लिए दुकानों - मकानों के बाहर पड़े , तख्तों , चारपाईयों तथा किवाड़ों तक को उतार ले जाते थे। ’’
लेकिन, बुर्जुग चिंतक ने बात घुमा दी, ’’ हमारे समय में समूचे कस्बे की एक होली जलती थी, पर अब मुहल्ले -मुहल्ले में जलती है। हर मुहल्ले की होली का चंदा पूरे कस्बे से वसूला जाता है। एक टोली को निबटाते हैं, तो कुछ समय बाद मुआ दूसरा दल आ मरता है। निगोड़े, मांगने वाले भी कतई नंगई दिखा देते हैं। पुकारेंगे ‘अंकलजी’ और मुंहामुंही पर उतर आएगें। उनकी फूहड़ फब्तियों, कुटिल मुस्कानों और घर के भीतर भेदती निगाहों को देख, कहीं भाग जाने का मन करेगा। ’’ मैंने कहा, ’’ कहां जाओगे मान्यवर ? क्या वहां भी चंदा मांगने वाले नहीं होंगे? इससे तो अच्छा है कि उन्हें जल्द से जल्द कुछ देकर चलता किया जाए। ’’ लेकिन, कुछ समय बाद मैंने सोचा कि वृद्ध पुरूष की इस बात में दम था कि अब कस्बों में होली दहन मोहल्लों और कॉलोनियों में होने लगा है। हर वर्ष -वर्ष दो चार होलियों का इजाफा हो जाता है । यही तरक्की रही तो कुछ वर्षों बाद गली-गली में होली जलने लगेगी। अभी भी स्थिति यह है कि चंदा देते देते खोपड़ी पर पूर्णिमा का चंाद सा उगने लगा है। कदाचित इसी वजह से होली का पर्व पूर्णमासी को ही पड़ता है? पिछली बार, मेरी इस नव विकसित कॉलोनी के चंद नौजवान, चंदा-नवीसों ने चंदा उगाही की।
चूंकि, पहली दफा होलिका- दहन का आयोजन हो रहा था, अतः कॉलोनी के सभी वर्ग का भी उन्हें समर्थन हासिल था। कॉलोनी-वासियों ने भी यथा-योग्य योगदान दिया। सुना गया कि अच्छी राशि एकत्र हुई थी। बहरहाल, होलिका-दहन की तैयारी धूमधाम से हुई। शामियानें ,कुर्सियां, डेक और न जाने क्या क्या था ? धार्मिक गीत बज रहे थे। कॉलोनी के स्त्री-पुरूष वहां उत्साहपूर्वक इक्कठा थे । पूजा -अर्चना के पश्चात् होलिका दहन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। शालीन आयोजन हेतु, आयोजकों की प्रशंसा हुई। रात थोड़ी गहरी हुई तो डेक पर बज रहे गीतों ने पलटा खाया। टपोरी और रिमिक्स संगीत परवान चढने लगा। अधिक आयु वालों को यह कम भाया, अतः वे अपने घर चले गये। किन्तु कुछ मॉर्डन नौजवान-नौजवानियां उन धुनों पर थिरकने लगीं। बात यहां तक तो धिक जाने वाली थी। लेकिन, आधुनिक सोमरस का सेवन कर आये नृत्यबाजों ने नौजवानियों से कुछ अधिक नजदीकियां दर्शा दीं। नतीजन, उस हंगामेदार आयोजन में मार-पीट का नजारा भी नजर आने लगा। धूल -पर्व ( धूलेंडी ) की उस पूर्व संध्या पर, रंगों- गुलाल की जगह रक्त के छींटे उछले। सुबह आठ -दस लोग अस्पताल में थे। पुलिस में केस दर्ज हुआ, उसमें कुछ गेहूं पिसा और कुछ घुन। अब, चंद दिनों बाद पुनः होली पर्व है तथा मैं बैठा-बैठा ’’चंदा’’ के जनक को कोस रहा हूं। जिसने हमें मुसीबत में फंसा दिया।
इस संदर्भ में ’’चंदा’’ की उत्पत्ति पर विचार करता हूं तो वरिष्ठ व्यंग्यकार लक्ष्मीकांत वैष्णव की रोचक स्थापना याद हो आती है। उनका कथन है कि समुद्र -मंथन जैसा बड़ा आयोजन बगैर चंदा एकत्र किये संभव नहीं था। अतः, जब एक ठंडा और रोशन गोला ( जिसकी आकृति भी चांदी के चमचमाते सिक्के जैसी थी ) मंथन के परिणाम स्वरूप समुद्र से निकला तो उसका नाम चंदा ही रखा गया। और अजब संयोग है कि होलिका की रात्रि भी पूर्ण चंद्र को ही होती है। जिस प्रकार, प्रारंभिक काल में चंदा दागदार नहीं था। उसकी छवि नितांत उज्जवल थी। उसमें घट-बढ भी नहीं होती थी। बाद में गौतम-ऋषि की मृगछाल की छाप से वह दागी हुआ तथा श्रापवश उसमें कृष्ण-पक्ष का समादेश भी हुआ। उसी तरह, पूर्व में, चंदा उगाही के काम में गोपनीयता नहीं थी। सब कुछ शुक्ल पक्ष की भांति उजला उजला था। चंदा-मांगने वाले एक चादर फैलाकर निकलते थे, और पुकारते थे, ’’चंदा-डाल; चंदा-डाल ’’ ।
बाद में जो घपले हुए तो चंदा-बाजों को ’’चांडाल ’’ शब्द से संबोधित किया जाने लगा। कदाचित, ’’चांडाल’’ शब्द का उद्भव चंदा-डाल से हो? वैष्णवजी का मानना है कि चंदा बटोरने के इतिहास में गोपनीयता का समावेश गुप्तकाल से आया। कूटनीतिज्ञ कौटिल्य ने नन्द के नाश हेतु, चन्द्रगुप्त के सैन्यवर्धन के लिए अवश्य ही चंदा एकत्र किया होगा? और निश्चित ही उसे गुप्त रखा होगा? मजे की बात यह कि भारतीय राजनीति में सशक्तीकरण हेतु चंदा यानि ’’पार्टीफंड’’ उगाहने और उसकी गोपनीयता बरकरार रखने के तार गुप्त कालीन चाणक्य से लेकर आधुनिक चाणक्य तक अनायास जुड़ गये हैं। आजादी के बाद की हिन्दुस्तानी राजनीति में द्वारका प्रसाद मिश्र उर्फ आधुनिक चाणक्य से पूर्व का पार्टी-चंदा-उगाही-कालखंड लगभग पारदर्शी माना गया है।
घपलों की शुरूआत 1967 के आम चुनावों हेतु एकत्र चंदा अर्थात् मध्यप्रदेश के गुलाबी चना कांड से हुई। तब से हाल के हैलीकाप्टर खरीद कांड के पर्दाफाश तक जाने क्या क्या और कितना गोपनीय रहा? कदाचित यमराज के अकाउन्टेट चित्रगुप्त के पास उसका लेखा-जोखा हो? बहरहाल, जब तक आसमां में चंदा रहेगा, आप और हम कितना ही कुनमुनाएं चंदा- बाजों की चांदी होती रहेगी, अतः इस शेर को पढकर तसल्ली कीजिये- ’’कितने गुलों का खून हुआ इससे क्या गरज? उनके गले का हार तो तैयार हो गया।’’
> -प्रभाशंकर उपाध्याय
> 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी
> सवाईमाधोपुर-राज.
> पिन-322001
> मोबाइल-9461030233
>
badhiya vyangya
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