बेला गर्ग का महिला दिवस विशेष आलेख - औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्‍ठ चाहिए

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औरत को हाशिया नहीं , पूरा पृष्‍ठ चाहिए - बेला गर्ग - विश्‍व महिला दिवस के सन्‍दर्भ में एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी का जीवन कब...

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औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्‍ठ चाहिए

-बेला गर्ग -

विश्‍व महिला दिवस के सन्‍दर्भ में एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी का जीवन कब तक खतरों से घिरा रहेगा। बलात्‍कार, छेड़खानी, भूण हत्‍या और दहेज की धधकती आग में वह कब तक भस्‍म होती रहेगी? कब तक उसके अस्‍तित्‍व एवं अस्‍मिता को नौचा जाता रहेगा? कब तक खाप पंचायतें नारी को दोयम दर्जा का मानते हुए तरह-तरह के फरमान जारी करती रहेगी? भरी राजसभा में द्रौपदी को बाल पकड़कर खींचते हुए अंधे सम्राट धृतराष्‍ट्र के समक्ष उसकी विद्वत मंडली के सामने निर्वस्‍त्र करने के प्रयास के संस्‍करण आखिर कब तक शक्‍ल बदल-बदल कर नारी चरित्र को धुंधलाते रहेंगे? ऐसी ही अनेक शक्‍लों में नारी के वजूद को धुंधलाने की घटनाएं- जिनमें नारी का दुरुपयोग, उसके साथ अश्‍लील हरकतें, उसका शोषण, उसकी इज्‍जत लूटना और हत्‍या कर देना- मानो आम बात हो गई हो। महिलाओं पर हो रहे अन्‍याय, अत्‍याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी महिलाएं, कब तक ऐसे जुल्‍मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती यह कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्‍य अपराध करते हैं, नारी को अपमानित करते हैं।

एक कहावत है कि औरत जन्‍मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्ट्‌टर मान्‍यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है। इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्‍ठ चाहिए। पूरे पृष्‍ठ, जितने पुरुषों को प्राप्‍त हैं। पर विडम्‍बना है कि उसके हिस्‍से के पृष्‍ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ' एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायते' घेरे बैठे हैं। पुरुष-समाज को उन आदतों, वृत्तियों, महत्‍वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्‌टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्‌तार तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्‍याचार। पुरुष-समाज के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्‍कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है।

‘मातृदेवो भवः' यह सूक्‍त भारतीय संस्‍कृति का परिचय-पत्र है। �ऋषि-महर्षियों की तपः पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह नारी भी देवरूप में प्रतिष्‍ठित रही है। रामायण उद्‌गार के आदि कवि महर्षि वाल्‍मीकि की यह पंक्‍ति- ‘जननी जन्‍मभूमिश्‍च स्‍वर्गादपि गरीयसी' जन-जन के मुख से उच्‍चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘नारीशक्‍ति' की पूजा होती आई है फिर क्‍यों नारी अत्‍याचार बढ़ रहे हैं?

वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्‍वती, लक्ष्‍मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्‍ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में नारी की आराधना होती है। लोक मान्‍यता के अनुसार मातृ वंदना से व्‍यक्‍ति को आयु, यश, स्‍वर्ग, कीर्ति, पुण्‍य, बल, लक्ष्‍मी पशुधन, सुख, धनधान्‍य आदि प्राप्‍त होता है, फिर क्‍यों नारी की अवमानना होती है?

नारी का दुनिया में सर्वाधिक गौरवपूर्ण सम्‍मानजनक स्‍थान है। नारी धरती की धुरा है। स्‍नेह का स्रोत है। मांगल्‍य का महामंदिर है। परिवार की पीढ़िका है। पवित्रता का पैगाम है। उसके स्‍नेहिल साए में जिस सुरक्षा, शाीतलता और शांति की अनुभूति होती है वह हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। सुप्रसिद्ध कवयित्रि महादेवी वर्मा ने ठीक कहा था-‘नारी सत्‍यं, शिवं और सुंदर का प्रतीक है। उसमें नारी का रूप ही सत्‍य, वात्‍सल्‍य ही शिव और ममता ही सुंदर है। इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली नारी फिर क्‍यों बार-बार छली जाती है, लूटी जाती है?

जहां पांव में पायल, हाथ में कंगन, हो माथे पे बिंदिया... इट हैपन्‍स ओनली इन इंडिया- जब भी कानों में इस गाने के बोल पड़ते हैं, गर्व से सीना चौड़ा होता है। लेकिन जब उन्‍हीं कानों में यह पड़ता है कि इन पायल, कंगन और बिंदिया पहनने वाली लड़कियों के साथ इंडिया क्‍या करता है, तब सिर शर्म से झुकता है। पिछले कुछ दिनों में इंडिया ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भू्ण में किसी तरह अस्‍तित्‍व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। बहशी एवं दरिन्‍दे लोग ही नारी को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्‍वतंत्रता एवं अस्‍मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है, स्‍वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है। विश्‍व नारी दिवस का अवसर नारी के साथ नाइंसाफी की स्‍थितियों पर आत्‍म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें पुरुष-समाज श्रेष्‍ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना अस्‍तित्‍व स्‍थापित करना चाहता है।

एक वक्‍त था जब आयातुल्‍ला खुमैनी का आदेश था कि ‘जिस औरत को बिना बुर्के देखो- उसके चेहरे पर तेजाब फैंक दो'। जिसके होंठो पर लिपस्‍टिक लगी हो, उन्‍हें यह कहो कि हमें साफ करने दो और उस रूमाल में छुपे उस्‍तरे से उसके होंठ काट दो। ऐसा करने वाले को आलीशान मकान व सुविधा दी जाएगी। खुमैनी ने इस्‍लाम धर्म की आड में और इस्‍लामी कट्‌टरता के नाम पर अपने देश में नारी को जिस बेरहमी से कुचला उसी देश में आज महिलाएं खुमैनी के मकबरे पर खुले मुंह और जीन्‍स पहने देखी जाती हैंं। वे कहती हैं कि हम नहीं समझतीं हमारा खुदा इससे नाराज़ हो जाएगा। उनकी यह समझ कि कट्ट्‌टरता के परिधान हमें सुरक्षा नहीं दे सकते, इसके लिए हमें अपने में आत्‍मविश्‍वास जगाना होगा। वही हमारा असली बुर्का होगा।

नारी को अपने आप से रूबरू होना होगा, जब तक ऐसा नहीं होता लक्ष्‍य की तलाश और तैयारी दोनों अधूरी रह जाती है। स्‍वयं की शक्‍ति और ईश्‍वर की भक्‍ति भी नाकाम सिद्ध होती है और यही कारण है कि जीने की हर दिशा में नारी औरों की मुहताज बनती हैं, औरों का हाथ थामती हैं, उनके पदचिन्‍ह खोजती हैं। कब तक नारी औरों से मांगकर उधार के सपने जीती रहेंगी। कब तक औरों के साथ स्‍वयं को तौलती रहेंगी और कब तक बैशाखियों के सहारे मिलों की दूरी तय करती रहेंगी यह जानते हुए भी कि बैशाखियां सिर्फ सहारा दे सकती है, गति नहीं? हम बदलना शुरू करें अपना चिंतन, विचार, व्‍यवहार, कर्म और भाव। मौलिकता को, स्‍वयं को एवं स्‍वतंत्र होकर जीने वालों को ही दुनिया सर-आंखों पर बिठाती है।

नारी सृष्‍टि की वह इकाई है जिसे जीवन के हर पड़ाव पर जागरूक पहरी की तरह जीना होगा। उसका कर्तव्‍य और दायित्‍व ईमानदार प्रयत्‍नों के साथ जब सृजनात्‍मक दिशा में बढेगा तो वह अनगिनत सफलता के शिखर छू सकेगी। मगर जहाँ भी जिम्‍मेदारी का पक्ष कमजोर या निरपेक्ष बना, हर सुख दुख में बदल जाता है। संघर्षों से उसका व्‍यक्‍तित्‍व और कर्तव्‍य घिर जाता है, इसलिए नारी को अपने कार्यक्षेत्र में विशेष सावधानियाँ रखनी होगीं। आँधी आने से पहले ही उसे अपने घर के दरवाजे बंद कर लेने होंगे ताकि घर का आँगन गंदा न हो। अतः हमें अपने आसपास के दायरों में खड़ी नारी को देखना होगा और यह तय करना होगा कि घर, समाज और राष्‍ट्र की भूमिका पर नारी के दायित्‍व की सीमाएँ क्‍या हो?

जिस घर में नारी सुघड़, समझदार, शालीन, शिक्षित, संयत एंव संस्‍कारी होती है वह घर स्‍वर्ग से भी ज्‍यादा सुंदर लगता है क्‍योंकि वहाँ प्रेम है, सम्‍मान है, सुख है, शांति है,सामंजस्‍य है, शांत सहवास है। सुख-दुख की सहभागिता है। एक दूसरे को समझने और सहने की विनम्रता है।

नारी अनेक रूपों जीवित है। वह माँ, पत्‍नी, बहन, भाभी, सास, ननंद, शिक्षिका आदि अनेक दायरों से जुड़कर सम्‍बधों के बीच अपनी विशेष पहचान बनाती है। उसका हर दायित्‍व, कर्तव्‍य, निष्‍ठा और आत्‍म धर्म से जुड़ा होता है। इसीलिए उसकी सोच, समझ, विचार, व्‍यवहार और कर्म सभी पर उसके चरित्रगत विशेषताओं की रोशनी पड़ती रहती है। वह सबके लिए आदर्श बन जाती है।

नारी अपने घर में अपने आदर्शों, परंपराओ, सिद्धांतो, विचारों एवं अनुशासन को सुदृढ़ता दे सकें, इसके लिए उसे कुछेक बातों पर विशेष ध्‍यान देना होगा।

नारी अपने परिवार में सबका सुख-दुख अपना सुख-दुख माने। सबके प्रति बिना भेदभाव के स्‍नेह रखे। सबंधों की हर इकाई के साथ तादात्‍मय संबंध जोड़े। घर की मान मर्यादा, रीति-परंपरा, आज्ञा- अनुशासन, सिद्धांत, आदर्श एंव रूचियों के प्रति अपना संतुलित विन्रम दृष्‍टिकोण रखें।अच्‍छाइयों का योगक्षेम करें एंव बुराइयों के परिष्‍कार में पुरषार्थी प्रयत्‍न करें। सबका दिल और दिमाग जीतकर ही नारी घर में सुखी रह सकती है।

बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्‍यक है कि मैथिलीशरण गुप्‍त के इस वाक्‍य-“आँचल में है दूध” को सदा याद रखें। उसकी लाज को बचाएँ रखें और भू्णहत्‍या जैसा घिनौना कृत्‍य कर मातृत्‍व पर कलंक न लगाएँ। बल्‍कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्‍हे उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वृक्ष बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें।

जननी एक ऐसे घर का निर्माण करे जिसमें प्‍यार की छत हो, विश्‍वास की दीवारें हों, सहयोग के दरवाजे हों, अनुशासन की खिड़कियाँ हों और समता की फुलवारी हो। तथा उसका पवित्र आँचल सबके लिए स्‍नेह, सुरक्षा, सुविधा, स्‍वतंत्रता, सुख और शांति का आश्रय स्‍थल बने, ताकि इस सृष्‍टि में बलात्‍कार, गैंगरेप, नारी उत्‍पीड़न जैसे शब्‍दों का अस्‍तित्‍व ही समाज हो जाए। प्रेषक ः

(बेला गर्ग)

ई-253, सरस्‍वती कुंज अपार्टमेंट

25, आई0पी0 एक्‍सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्‍ली-92

फोन ः 22727486

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. सार्थक अभिव्यक्ति।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (9-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  2. विचार करने को प्रेरित करता है लेख 1

    जवाब देंहटाएं
  3. सटीक और सार्थक विचार आप भी मेरे ब्लोग्स का अनुशरण करे ,ख़ुशी होगी
    latest postमहाशिव रात्रि
    latest postअहम् का गुलाम (भाग एक )

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: बेला गर्ग का महिला दिवस विशेष आलेख - औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्‍ठ चाहिए
बेला गर्ग का महिला दिवस विशेष आलेख - औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्‍ठ चाहिए
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